Saturday 28 February 2015

विकास भी चाहिए और जमीन भी नहीं देनी, यह कैसे होगा?

एक मित्र जो नाम से तो किसानपुत्र लगता है परन्तु विचार से अंधभक्त लगता है, उसने यह जुमला कहा है| मित्र आपकी शंका का जवाब इस प्रकार है:

1) क्या आपने या आपकी सरकार ने इस बात का अध्यन किया है कि जिन पुराने भूमि अधिग्रहण के नियमों के कारण काफी प्रोजेक्टों के लटके होने की दुहाई दी जा रही है, उनमें कितने प्रतिशत सरकारी प्रोजेक्ट लटके हुए हैं और कितने गैर-सरकारी यानि प्राइवेट? कितने लाइन के यानी सड़क की लाइन, रेल की लाइन, नहर की लाइन, बिजली की लाइन व् आर्मी के यानि सरकारी प्रोजेक्ट लटके पड़े हैं और कितने फिर से वही प्राइवेट हाउसिंग व् इंडस्ट्री के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं? और लाइन का तो मैंने कोई विरला ही प्रोजेक्ट अटका सुना है| और अगर कोई अटका भी है तो 95% लाइन को थोड़ा बदल के बना दिए जाते रहे हैं| क्योंकि लाइन के हर प्रोजेक्ट के कम से कम तीन सर्वे होते हैं, प्राथमिकी के आधार पे, कि या तो यहाँ से बनेगी, या यहां से या यहां से| इसलिए लाइन के प्रोजेक्ट में विरला ही कहीं अधिग्रहण की दिक्क्त आती है| पहली बात!

2) दूसरी बात, सरकारी प्रोजेक्टों के लिए तो खुद सरकार सीधी ले या लीज पे ले परन्तु यह प्राइवेट वालों को किसान से जमीन लीज पर लेने में क्या दिक्कत है? लीज पर लेने में उनको किसान से जमीन खरीदनी नहीं होगी कि जिसके लिए उनको लाखों-करोड़ों रूपये एक ही बार में किसान को देने पड़ें, अपितु जमीन किराए पे भी ली जाएगी, जो कि अगर देखो तो कम से कम पहले पचास साल का लीज का किराया तो एक मुस्त दी जाने वाली कीमत से ही निकल जायेगा| परन्तु नहीं इन्होनें तो किसान का शोषण जो करना है, इनको जमीन से थोड़े ही मतलब है|

3) सर छोटूराम और फिर रही-सही कमी जो चौधरी चरण सिंह ने एक किसान को जो तमाम तरह के जमीन से संबंधित मालिकाना हक किसान को दिलाने के लिए जीवन खपाए थे, इस नए आर्डिनेंस से वो सारे हक किसान के हाथ से निकल जायेंगे और किसान पहले की तरह जमींदारी प्रथा के चंगुल में आके साहूकारों के दोहरे चंगुल में फंस जायेगा|

एक इतिहासकार भाई कह रहा था कि अमेरिका में 1930 में इसी तरह का कानून आया था जिसमें कॉर्पोरेट ने लगभग सारी जमीन एक सोची-समझी स्ट्रेटेजी के तहत अपने अधिकार में ले के किसान को उसी जमीन का मजदूर बना के छोड़ दिया था, अब वही अमरीकन नीति भारत में लागू होने वाली है| यह सही है कि यह नीति उसके जैसी ही होगी, लेकिन यहां यह भाई साहब सर छोटूराम का वो क्रेडिट भूल गए जिसके तहत सर छोटूराम ने उसी 1930 के आसपास 1930 से भी पहले यहां जो सदियों से खेती का कॉर्पोरेट रूप यानी जमींदारी प्रथा चली आ रही थी; वह एक बड़ी लड़ाई लड़ के किसानों को उससे मुक्त करवा दिया था| इसलिए आप ऐसा ना कहें कि अमेरिका की तरह करने जा रहे हैं, अपितु यह कहें कि सर छोटूराम के जमाने से पहले यानी तकरीबन एक सदी पहले जो भारत में किसान की हालत थी, इस बिल के जरिये वो वापिस आ रही है| हर बात में अमेरिका को पैमाना बनाना छोड़ के अपने ही इतिहास को पलटोगे तो यह अमेरिका की चीजें तो यहां, उनसे बहुत पुरानी भरी पड़ी हैं| खैर जो भी है, परन्तु वह एक सदी पुरानी किसान की गुलामी फिर से जबाड़ा खोल रही है इसलिए इस बिल का विरोध जरूरी है| और वो हालत कैसे आ रही है, अगले बिंदु में देखो|

4) किसान की मर्जी का क्लॉज़ प्राइवेट सेक्टर के लिए भी हटा देना; जिसमें कि व्यापारी को एकमुश्त फायदा होगा| उसके ऊपर फिर कोर्ट जाने का रास्ता भी बंद किया, यानी सरकारी अफसरों की तानाशाही चलेगी, वो भी क्लास A और B के अफसरों की, जिनमें कि 80% अफसर गैर-किसान जातियों के हैं या ऐसी जातियों के हैं, जिनके यहां सिर्फ आंशिक रूप से खेती करते हैं या ऐसी जातियों के हैं जिनके लिए खेती द्वितीय धंधा रहा है, प्राथमिक नहीं|

और अफसरों के लिए इतिहास में कहावत रही है कि "बनिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहासिब जुल्म खुदा"। और अगर आप हरियाणा और वहाँ भी जींद जिले के हैं तो आपने ऐसे ही एक बनिया हाकिम की किसानों पे अत्याचार बारे 1856-58 में हुआ "लजवाना काण्ड" तो सुना होगा; जानकारी के लिए बता दूँ वो काण्ड इतना मशहूर हुआ था कि पटियाला की लोकधुनों में आज भी यह मुखड़ा सुनने को मिल जाता है कि, "लजवाने रे तेरा नाश जाइयो, तैने बड़े वीर खपाए!" तो मित्र, ऐसी-ऐसी जो दुसम्भावनाएं जो यह बिल ले के आ रहा है, उसके लिए इसका विरोध है| और मुझे यह बता दे भाई, जो समाज जात-पात के नाम पर इतना बंटा हुआ हो, और हरियाणा का तो हाल यह हो कि यहां जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीती चलती है, तो ऐसे में इस कानून का इस तरीके का दुरूपयोग नहीं होगा, इसके लिए सरकार ने क्या प्रावधान किये हैं?

5) यह आत्मसम्मान की भी बात हो गई है, वो ऐसे| हमारे यहाँ 50% से ज्यादा ऐसे किसान हैं जो अपनी हाड-तोड़ मेहनत से किल्ले-जमीन जोड़ते हैं| किसी ने 10 किल्ले से शुरू करके अपनी हाड़तोड़ मेहनत से 20 बनाये होते हैं| यह मत समझो कि किसान सिर्फ पिता से ही वंशानुगत जमीन पाता है और उसके लिए वो कोई पसीना नहीं बहाता| आधे से ज्यादा किसान उसमें नई जमीन जोड़ते हैं| तो क्या उसकी मेहनत की इतनी ख़ाक के बराबर की कीमत कि उसकी इस हाड़तोड़ मेहनत को कोई भी एक पल में उसकी मर्जी के बिना ही उड़ा ले जायेगा और वो केस भी नहीं कर सकेगा| और ऐसे में ना सरकारी अफसरों द्वारा हो सकने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा पायेगा| नहीं भाई नहीं| एक उद्योगपति से पूछ के देखो कि क्या वो उसकी जीवनभर की कमाई से खड़ी की इंडस्ट्री को ऐसे ही दे देगा किसी को? फर्क सिर्फ इतना ही तो है ना कि उद्योगपति का विकास वर्टीकल होता है और किसान का हॉरिजॉन्टल, परन्तु विकास तो विकास होता है ना?

तो "विकास भी चाहिए और जमीन भी नहीं देनी, यह कैसे होगा?" का यह जुमला बोलने वालों जरा इन पहलुओं पे जवाब दो तो जानूँ| इन सवालों पे एक किसान की शंका मेटो तो जानूँ|

मतलब यह भारत में अपनी ही तरह के व्यापारी पैदा हो रहे हैं, जिनको ग्राहक तो चाहिए परन्तु उसकी सुननी नहीं| इसीलिए आज जरूरी हो गया है कि किसान अपनी कंस्यूमर पावर (consumer power) को पहचाने और जरा लगा दे इनको दो महीने खाने-पीने के सामान को छोड़ के बाकी सारे सामान को खरीदने के बायकाट का झटका|

पगड़ी सँभाल ओये, तेरा लूट गया माल ओये, दुश्मन नू जाण ओये, ओ किसाना सर छोटूराम नूं पुकार ओये! - फूल मलिक

Friday 27 February 2015

अगर दो महीने के लिए किसान यह कर दे तो लैंड आर्डिनेंस रद्द समझो!

It is about recognizing the consumer power of a farmer by a farmer!

असल तो पूरे देश में, लेकिन फिर भी अगर पंजाब (22 जिले) - हरियाणा (21 जिले) - पश्चिमी उत्तरप्रदेश (करीब 30 जिले) - राजस्थान (33 जिले) व् दिल्ली (9 जिले) यानी कुल 115 जिलों में भी किसान

1) दो महीने के लिए नया ट्रेक्टर खरीदना बंद कर दे तो (करीब 200 से 500 ट्रेक्टर उत्तरी भारत के हर जिले में बिकते हैं), औसतन 300 भी ले लो तो 115 जिलों में 2 महीने में कुल 34500ट्रेक्टर बिकेंगे| औसतन एक नया ट्रेक्टर आता है 4 लाख का, यानी 400000 * 34500 = INR 13800000000 यानी 13 अरब 80 करोड़ का अकेला नुक्सान तो अकेले ट्रेक्टर ना खरीदने से हो जायेगा उद्योपतियों को| और इन दो महीनों में किसान का कुछ बिगड़ना नहीं|

ऐसे ही सोचिये अगर कृषि के ट्रेक्टर के अतिरिक्त बाकी के कृषि उपक्रम भी दो महीने नहीं खरीदे तो अकेले खेती उपक्रम खरीदने के बायकाट से इन उद्योगपतियों को इतना नुकसान होगा कि इनकी बैलेंस सीटें इम्बैलेंस कर जाएँगी और जो यह मुफ्त में किसान की जमीन पर उसकी मर्जी के बिना नजर गढ़ाए बैठे हैं, इनकी नजरें इनकी बैलेंस सीटों में ही उलझ के रह जाएँगी| और इनकी अक्ल ठिकाने जाएँगी कि जिसको तुम लूटने की सोचे बैठे हो, उसने सिर्फ दो महीने भी तुमसे सामान नहीं खरीदा तो कहाँ से कहाँ होवोगे तुम| इसलिए इस ग्लोबलाइजेशन (globalization) के जमाने में किसान रुपी कंस्यूमर (consumer) अपनी इस कंस्यूमर पावर (consumer power) को पहचाने और इसका इन व्यापारियों को भी अहसास करवा दे कि कहाँ तुम सरकारों पे दबाव दे के हमें कुचलने पे तुले हो, हम अपनी पे आये तो घर-बैठे-बिठाए ही तुम्हें कुचल देंगे|

2) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई कार-एसयूवी (SUV)-मोटरसाइकिल भी खरीदना बंद कर दे तो आप सब अंदाजा लगा लीजिये कि इन लोगों को दो महीने में कितना बड़ा नुक्सान उठाना पड़ जायेगा|

3) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई वाशिंग मशीन-फ्रिज-कूलर-पंखा यानी घर में काम आने वाली तमाम तरह की मशीनें ना खरीदें तो और किस-किस की मार्किट बैठेगी|

4) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई ज्वैलरी-कपडा-लत्ता-बर्तन ना खरीदे तो इन दो महीनों में और किस-किस के पेटों के पानी हिलेंगे और कितने अरबों-करोड़ों के घाटे व्यापारियों को होंगे|
यहां सिर्फ खाने-पीने के सामान की चीजों के बायकाट को बाहर रख रहा हूँ, क्योंकि हम किसान होते हैं, समाज के पालनहारी हैं हम और अगर खाने-पीने की चीजों का भी बायकाट कर देंगे तो कहीं ऐसा ना हो जाए कि किसी व्यापारी के घर में बच्चे बिना दूध-फल-सब्जी के तरसें| इसलिए एक किसान की इंसानियत को कायम रखते हुए अगर किसान खाने-पीने की चीजों को छोड़ के बाकी तमाम सामान का दो महीने भी खरीदने से बहिष्कार कर देवें तो यही व्यापारी जो आज सरकार पर "भूमि अधिग्रहण" के लिए ऐसा जालिम बिल बनवाने को तुले हैं, खुद ही अपने-आप इसको वापिस करवाने को कहेंगे और किसान का उसके घर बैठे-बैठे निशाना सध जायेगा| यानी लाठी भी नहीं टूटेगी और सांप मरे-का-मरा|

लेख का सार यही है कि किसान अपने आपको लाचार-बेबस ना समझे, इस ग्लोबलाइजेशन के जमाने में अपनी कंस्यूमर पावर को पहचाने| इस बिल को वापिस करवाने के लिए उसकी यह कंस्यूमर पावर ही काफी है; ना कोई रेल रोकने की जरूरत ना रोड जाम करने की, ना दिल्ली घेरने की जरूरत ना जेल भरने या जाने की|

प्रवर्तिगार से यही अरदास है कि हमारे तमाम तरह के किसान संगठनों, पार्टियों में उनकी इस कंस्यूमर पावर की ताकत को पहचानने की नजर डाल दे बस, बाकी सारा काम तो घर बैठे ही हो जायेगा; क्योंकि जब कोई किसान ग्राहक दो महीने के लिए सामान खरीदने ही नहीं जायेगा तो बड़े-बड़े कॉर्पोरेट (corporate) सीईओ (CEO) से ले के डायरेक्टर्स (directors), मैनेजर्स (managers) और सेल्समेन (salemen) तक की नौकरियां हिलने के साथ-साथ बैलेंस सीटें हिलेंगी तो कौन किसानों से पंगा लेने का जोखिम लेगा?

अपील: किसान का युवा बेटा-बेटी अपने तमाम किसान नेताओं, शुभचिंतकों और परिवारों के बड़ों को इस पावर बारे समझाएं और इसपे एक-जुट होने का आह्वान करें| साथ ही सोशल मीडिया पे इसको इतना बड़ा आंदोलन बनाये कि सोशल मीडिया पर बैठी व्यापारी और सरकारी लोगों को उनके इन अन्यायकारी क़दमों पर दोबारा सोचना भी पड़े और इस आर्डिनेंस को वापिस लेने के तमाम कारणों का भी इनको अहसास हो जाए|

पगड़ी संभाल ओये, दुश्मन पहचान ओये! - फूल मलिक
 

Wednesday 18 February 2015

खापलैंड पर महादलितों का ना होना!


तीरों-तलवारों के शौर्य के साथ जाट अब अपनी मानवतावादी सिद्धांतों (theories) को भी दुनिया के आगे रखना शुरू करें| उदाहरणत: पूर्वोत्तर व् दक्षिण भारत की तरह, खापलैंड (प्राचीन हरियाणा) पर भी महादलित क्यों नहीं हैं? मैंने तो हमारे यहां सिर्फ दलित सुने हैं, महादलित तो कभी नहीं सुने| फिर सवाल उठता है कि खापलैंड पे अगर महादलित नहीं हैं तो क्यों और किसकी वजह से नहीं हैं?

काफी तर्कों और सवालों को खंगालने के बाद कारण मिलता है तो सिर्फ एक; कि यहां महादलित इसलिए नहीं हैं क्योंकि यहां जाट और खाप रहे हैं| स्थानीय हरियाणवी संस्कृति को टूटने से बचाना है तो हर जाट को हर दलित का ऐसे इन तथ्यों पर ध्यान लाना होगा, जो यह बताते हों कि खापलैंड पर आप दोनों के कारोबारी कारणों की वजह से झगडे व् मनमुटाव बेशक होते आये हों, पर वो मनमुटाव इतने सामूहिक, बड़े और गहरे भी नहीं रहे कि दलित को ही दलित और महादलित की राजनीती में बाँट देते हों|

आज जो जाट वर्णव्यवस्था के प्रभाव में पड़ दलितों के साथ उच्च और तुच्छ का जो भेद रखने की आदत डाल लिए हैं उनको यह छोड़नी होगी| जाट उच्च होता है तो उसके लिए जाट को वर्णव्यस्था का आँचल ओढ़ने की जरूरत नहीं; अरे जो अन्नदाता, अन्नपूर्णा के साथ-साथ सभ्यता पालक, संरक्षक व् रक्षक हो गया हो, वो तो अपने आप ही हर वर्ण व् नस्ल से परे है| और ऐसे ही दलित हर भेदभाव से ऊपर व् परे है|

कोई ही जाट किसान का ऐसा बेटा-बेटी होगा जिसने एक दलित सीरी-साझी के साथ अपने खेतों-घरों में बैठ एक साथ खाना ना खाया हो| खेतों में उनकी एक ही बर्तन में रोटियां ना गई हों| तो फिर यह रंग-नश्ल के भेद कहाँ से घुसा लेते हैं हम अपने अंदर? और कौन लोग हैं यह जो कारोबारी वजहों से होने वाले मतभेदों को जाट-दलित झगड़ों और घृणा का रूप दे देते हैं? निसंदेह कॉर्पोरेट में होने वाले हर बॉस और कर्मचारी झगड़ों को अगर ऐसे जातीय, वर्णीय अथवा धार्मिक घृणा का रूप देना शुरू कर दिया जाए, तो सारा कॉर्पोरेट एक झटके में ताश के पत्तों की तरह धराशायी हो जाए| तो फिर जाट और दलित क्यों इन झगड़ों को ऐसे रूप लेने दे रहे हैं कि लोग इनको आधार बना इतना साहस पा जाते हैं कि यहां जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीती के घिनोने खेल तक बेपरवाही से खेल लिए जाते हैं?

यकीन करो अगर आज खापलैंड पर सिर्फ दलित हैं तो जाटों के डर से धार्मिक उन्मादी शक्तियों को एक हद से ज्यादा पैर ना पसारने देने की वजह से अन्यथा, जैसे कहा करता हूँ कि खापलैंड पर अगर जाट ना होते तो यहां देवदासी भी होती, विधवा पुनर्विवाह ना करके आश्रमों में भी जा रही होती| ज्ञात रहे देवदासियों में नब्बे प्रतिशत लड़कियां दलितों और महादलितों की होती आई हैं| इसलिए खापलैंड का दलित उसके खापलैंड पर होने का यह सकारात्मक पहलु भी समझें|

जाटो अपने तीरों-तलवारों वाले रूपों के साथ-साथ अपने पुरखों के इन मानवतावादी पहलुओं को भी जनता में लाना शुरू करो; जिनकी वजह से कि धर्म को भी अपनी परिधि में रहना भान रहता था| यह जाट और खाप थ्योरी का ही जादू है कि यहां धर्म कभी शालीनता और मानवता के दायरे से बाहर नहीं जा पाया|

यह सामने लाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नहीं लाये तो यह ढोंगी-पाखंडों-अंधभक्ति और उन्माद में पागल लोग हमारे यहां भी अधर्म फैला देंगे| याद रहे हमारे बुजुर्ग कहते थे कि धर्मान्धता, अंधश्रद्धा और अंधभक्ति का फल होता है गरीब और औरत पर अन्याय, जो कि खापलैंड पर जाटों ने कभी नहीं फैलने दिया|

भान रहे कि हमारी खापलैंड पर रोजगार की तलाश में आने वाला सिर्फ रोजगार करे, धर्म के नाम पर यहां उन्माद और अराजकता ना फैला पाये| उसको भान रहे कि यह खाप-थ्योरी की धरती है यहां धर्म भी कभी अपनी शालीनता और मानवता की परिधि नहीं लांघता|

और "पहुंचा हुआ जाट, राजा के हाथी को भी गधा बता दे" जैसी कहावतें जाटों की इसी स्वछंद मति की साक्षी हैं, कि इन्होनें धर्म रहा हो या राजा, मानवता और शालीनता की कसौटी पे तौले बिना कुछ नहीं चलने दिया अपनी खापलैंड पर|