Saturday 30 April 2016

मॉस-मुद्दों की तरफ मुड़ना होगा, हरयाणवी फिल्मों के कहानीकारों को!

हरयाणवी फ़िल्में इसलिए नहीं चल पा रही हैं क्योंकि इनमें कॉमन मुद्दों की जगह एक्सेप्शनल और व्यर्थ के सेंसेशनल टॉपिक्स घड़ के धक्के से हरयाणवी परिवेश में फिट करने की कोशिश की जाती है| ऐसे मुद्दे उठा के लाये जाते हैं, जिनको हरयाणवी समाज रद्दी की टोकरी में डाल के रखता है या ऐसे विषय जो कभी हुए ही ना हों हरयाणा में| जैसे 'सांझी', 'लाडो' फिल्मों में एक्सेप्शनल मुद्दे उठाये गए, बावजूद इसके कि इनमें उठाये मुद्दों का मॉस-पहलु उतना ही जबरदस्त था जितना कि इनका एक्सेप्शनल पहलु| इनके मॉस पहलु पे फिल्म बनती तो जरूर इनसे बेहतर नतीजे देती|

और यही हश्र अभी आई 'पगड़ी- दी ऑनर' के साथ हुआ| यह फ़िल्में ईमानदारी से ज्यों-की-त्यों स्थिति दिखाने से ज्यादा लेक्चर झाड़ने टाइप की ज्यादा बन जाती हैं, या फिर एक एक्सेप्शनल सिचुएशन को आइडियल बना के समाज पे थोपती हुई सी प्रतीत होती हैं| नेचुरल फ्लो नहीं हो पाता ऐसे में| फिल्म के बाकी पहलुओं में कुछ हो या ना हो परन्तु संदेश देने की हर कहानीकार/डायरेक्टर कोशिश करता है| और जिस भी फिल्म में संदेश सीधे तौर पर दिया जाता है वो फ्लॉप होती ही होती है| हरयाणवी तो क्या हिंदी हो या इंग्लिश मूवी, लेक्चर टाइप मूवीज स्पेसिफिक ऑडियंस से आगे जगह नहीं बना पाती|

प्रभाकर फिल्म्स ने एक मुद्दा दिया था बढ़िया वाला, चंद्रावल पार्ट वन में| यह फिल्म ऑडियंस में जबरदस्त जगह बना सकी, क्योंकि इसमें हॉनर किलिंग होने के बावजूद भी, यह लेक्चर नहीं झाड़ा गया कि हॉनर किलिंग ना करो| बल्कि अंदर-ही-अंदर महसूस करवाया गया कि ऐसा नहीं होना चाहिए था| यही वजह है कि जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तो उत्तरी भारत में बॉलीवुड की शोले भी इसको पछाड़ नहीं सकी थी, इसके रिकॉर्ड नहीं तोड़ सकी थी|

पता नहीं, कहानीकार हरयाणवी सिनेमा को एक आर्ट की तरह लेना कब शुरू करेंगे| जिसको देखो हर फिल्म में अप्राकृतिक प्लेटफार्म पर फ्रेम्ड कहानी लिख रहे हैं; जबकि विशाल हरयाणा यानि हरयाणा+दिल्ली+पश्चिमी यूपी+उत्तराखंड के हर गली-गाँव में इतने किस्से बिखरे पड़े हैं कि जितनी चाहे उतनी हिट निकाल लो| लगता है सबको एक खुन्नस सी होती है कि हमें हरयाणवियों को उन पर अपना टैलेंट दिखाना है, हुनर दिखाना है| तभी तो फ़िल्मकार तो फ़िल्मकार मोदी सरकार तक अपना गुजरात मॉडल यहां घुसेड़ने पे उतारू रहती है| भाई हम बावली-बूच ना हैं, हमें दिखाना है तो कुछ हमारे बीच से ही निकाल के दिखाओ, वर्ना यह गुजरात मॉडल टाइप चीजों के तो हम ही डंडा दे देते हैं| आप कहानीकारों को ऐसा डंडा ना चाहिए और हरयाणवी फ़िल्में नहीं चलती की कुंठा नहीं चाहिए, तो ज़रा विचारें इन बिंदुओं पर|

वैसे लाल-रंग फिल्म का प्लेटफार्म और पटकथा, दोनों जबरदस्त रही; सिवाय एक बात को छोड़ के कि इसका हीरो अपनी प्रेमिका से तो शारीरिक संबंध बनाता हुआ दिखाया नहीं और वैसे लैब-अटेंडेंट तक से हाजिरी लेने में आगे था| और वो प्रेमिका भी गज़ब थी कि प्रेमी कहीं मुंह मारे उसको कोई फर्क नहीं| इसके अलावा फिल्म की कहानी जबरदस्त, एक्टर्स की एक्टिंग जबरस्त|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सर छोटूराम की ज़मीन पर जाट - ग़ैर जाट की राजनीति!

आज के वक़्त में हरियाणा में जो यह जाट ग़ैर जाट की गंदी राजनीति चल रही है यह कोई नई नहीं है , यह सर छोटूराम के वक़्त से ही चली आ रही है । सर छोटूराम के वक़्त में पंजाब में ग़ैर जाट की बात करने वाले पंडित श्रीराम शर्मा , गोकुलचंद नारंग , भार्गव , सच्चर आदि मुख्य नेता होते थे । सर छोटूराम पंजाब में किसान जाट की आवाज़ के लिए एक साप्ताहिक अख़बार जाट गजट निकालते थे जोकि उर्दू में होता था , वहीं शहरी लोगों की आवाज़ के लिए पंडित श्रीराम शर्मा पाँच अख़बार निकालते थे जिनमें हरियाणा तिलक मुख्य नाम था । पंडित श्रीराम शर्मा का हरियाणा तिलक पहला वो अख़बार था जिसने पंजाब में सर छोटूराम की जीत पर इस ' जाट-ग़ैर जाट' शब्द को जन्म दिया था ।

आज़ादी के बाद भी सर छोटूराम के पंजाब में यह जाट- ग़ैर जाट का खेल जारी रहा । आज़ादी के बाद सर छोटूराम के पंजाब की मुख्यमंत्री की कुर्सी 1947-55 तक सच्चर और भार्गव जोकि खत्री जाति से थे के बीच झूलती रही , पंजाब में मुख्यमंत्री की कुर्सी इन दोनों के बीच म्यूज़िकल चेयर बन कर रह गई थी । जब तक ये दोनों मुख्यमंत्री रहे तब तक पंजाब का बोली आधार पर बँटवारा ठंडे बस्ते में ही रहा पर जैसे ही पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक सिक्ख ज़ट्ट सरदार प्रताप सिंह कैरों की पकड़ हुई तो अकाली नेता मास्टर तारा सिंह जोकि खत्री जाति से थे व सावरकर के ख़ासमखास थे ने पंजाब का बोली आधार पर बँटवारे के लिए आंदोलन छेड़ दिया और इनका साथ दिया हिंदी बोली के समर्थक संघी डॉक्टर मंगल सेन ने । जब यह आंदोलन परवान चढ़ने लगा तो हिंदू पंजाबियों को ख़तरा हुआ कि अगर बोली आधार पर पंजाब का बँटवारा हुआ तो नए राज्य का मुख्यमंत्री भी जाट ही बनेगा तो हिंदू पंजाबियों ने महा पंजाब का नारा दिया जिसकी काट में हरियाणा के नेताओं ने विशाल हरियाणा का नारा दिया । 1966 में सर छोटूराम के पंजाब का एक और बँटवारा हुआ , जिसमें से हरियाणा नया राज्य बना और कांग्रेस पार्टी ने पंडित भागवत दयाल शर्मा को इसका पहला मुख्यमंत्री बनाया जबकि पार्टी में चौधरी रणवीर सिंह हुड्डा , चौधरी हरद्वारी लाल , चौधरी सूरजमल आदि पंडित जी से भी वरिष्ठ नेता थे । प्रोफ़ेसर शेर सिंह , चौधरी देवी लाल , चौधरी लहरी सिंह उस वक़्त विपक्ष में थे । काफ़ी उठक पटक के बाद चौधरी बँसी लाल हरियाणा के पहले जाट मुख्यमंत्री बने । चौधरी बँसी लाल ने हरियाणा में विकास की गंगा बहा दी पर केंद्रीय सरकार की नस बंधी योजना और इंदिरा गांधी द्वारा घोषित इमर्जन्सी में चौधरी बँसी लाल के विकास कार्य ढक गए । जेपी आंदोलन में चौधरी देवी लाल देहाती जमात में अपनी पकड़ और भी मज़बूत कर चुके थे साथ ही देहात में ये धारणा बन चुकी थी कि कांग्रेस ग़ैर किसानों ब्राह्मण बनियों की पार्टी है जिसकी बदौलत इमर्जन्सी के बाद चुनाव में चौधरी देवी लाल को भारी जीत मिली और हरियाणा के मुख्यमंत्री बने , पर थोड़े दिन बाद ही संघी डॉक्टर मंगल सेन और सुषमा स्वराज ने किसानों की कहे जाने वाली देहातियों की इस सरकार की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए , सरकार की राह में अटकाए गए इन रोडों को फ़ायदा उठाते हुए चौधरी भजन लाल जोकि मांझू गोत्र के जाट थे ने किसानों की लोकप्रिय सरकार गिराने में अहम भूमिका निभाई ।

चौधरी भजन लाल जानते थे कि हरियाणा में जाट बहुसंख्यक है और राज करना है तो जाटों का साथ ज़रूरी है इसलिए उन्होंने जाटों को रिझाने के लिए कई बार कहा कि वे जाट है बिशनोई उनका पंथ है , विधानसभा में भी उन्होंने अपने को जाट बताया परंतु चौधरी देवी लाल की सरकार गिराए जाने की वजह से जाट उनसे नाराज हो गए और उन्हें जाट मानने से इंकार कर दिया । अब चौधरी भजन लाल ने देखा कि जाट उनको मानने को तैयार नहीं तो उन्होंने हरियाणा में जाट - ग़ैर जाट की नए सिरे से राजनीति शुरू की और ख़ुद को ग़ैर जाट नेता के तौर पर प्रस्तुत कर दिया । पर इसमें देखने वाली ख़ास बात ये थी कि ख़ुद को ग़ैर जाट नेता प्रस्तुत करने के बाद भी उनकी सरकार में पाँच छह जाट मंत्री रहते थे ।

चौधरी भजन लाल द्वारा अस्सी के दशक में जो जाट - ग़ैर जाट की राजनीति का बीज बोया गया था वह पेड़ बना अब जाकर , जिसका फल खाया संघी सरकार ने , आज सरकार में सिर्फ़ दो ही जाट मंत्री है वह भी शायद कोई मजबूरी रही होगी । सर छोटूराम की ज़मीन पर जाट - ग़ैर जाट की राजनीति के इस पेड़ की जड़े सदा हरी रखने के लिए संघी कई तरह के प्रयास कर रहे है , पंचनद का ड्रामा भी इन प्रयासों की एक कड़ी है । जाट - ग़ैर जाट की राजनीति का खेल सिर्फ़ हरियाणा में ही नहीं पंजाब में भी चल रहा है पर वहाँ इसे हिंदू-सिक्ख की आड़ में ढक रखा है जिस कारण पंजाब के बाहर के लोगों को यह खेल सिर्फ़ धर्म के आधार पर ही नज़र आता है ।
सर छोटूराम यह अच्छी तरह समझ गए थे कि जाट किसान के हित और ब्राह्मण महाजन समुदायों के हित परस्पर विरोधी है । संयुक्त पंजाब में मंडी फ़ंडी के खेल को समझते हुए सर छोटूराम ने जाट किसानों को सामाजिक व आर्थिक चौधर के लिए अलग से जो मंच तैयार करके दिया था उसे हम भूल गए पर मंडी फ़ंडी सर छोटूराम की दी हुई चोट को नहीं भुला और ये अपने मक़सद में लगे रहे । आज ये मंडी फ़ंडी की सोच का ही कमाल है जो हमारे समान हित वाली किसान व दलित जातियाँ भी हमारे विरोध में खड़ी होती जा रही है ।

Source - यूनियनिस्ट राकेश सांगवान

Sunday 24 April 2016

सर छोटूराम जी की राजनीति पर अंधभक्त तो ऊँगली ना ही उठायें, तो बेहतर!


आजकल एक अनकही सी कैंपेन सोशल मीडिया पर सर छोटूराम बारे चल रही है| दबती है और फिर रह-रह कर उभर आती है| कहते हैं कि सर छोटूराम ने तो मुस्लिमों के साथ मिलके सरकार बनाई, वो तो उनकी चाकरी करते थे, वो तो आधे मुसलमान थे| और ताज्जुब नहीं यह सारे दर्द अंधभक्त मंडली की पोस्टों में देखे जा रहे हैं| तो जरूरी समझा कि इन भाईयों के लिए विनम्रता से एक अपील निकालूँ जो इस लेख के शीर्षक के मर्फिक है और ऐसी अपील इन वजहों से है:

1) आज़ादी से पहले श्यामाप्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग से गठबंधन में बंगाल में सरकार के मुखिया हुआ करते थे। मुस्लिम लीग के नेता फ़जलुल हक़ उस वक्त बंगाल सूबे के मुख्यमंत्री थे और श्यामाप्रसाद उप-मुख्यमंत्री। साथ ही जोड़ दूँ कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी, नेहरू की ही सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थे|

2) 1943 में सिंध में मुस्लिम लीग और सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा के गठबंधन की संयुक्त सरकार बनी। उस समय सावरकर ने इसे व्यावहारिक राजनीति की जरूरत करार दिया था।

3) और आज के दिन जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती की गवर्नमेंट में कौन भागीदार है किसी को कहने-पूछने की जरूरत नहीं|

इसके अलावा सबसे ख़ास बात, सर छोटूराम ने धर्म-जाति रहित मुस्लिम-सिख-हिन्दू सबसे मिलके सबको जोड़ के राजनीति की थी तो दलित-किसान-मजदूर के लिए बेशुमार कानून बना के दिए थे, जिनमें से पंजाब में आज भी अधिकतर ज्यों-के-त्यों चल रहे हैं| और संघ व् भाजपा के इन अलायंसों ने क्या दिया किसान-मजदूर को जो उसको बाजारीकरण और पूंजीवाद से बचाता हो, जरा एक तो संघी या भाजपाई बता दे|

और सर छोटूराम ने देश को तोड़ने वाली मुस्लिम लीग से अलायन्स नहीं किया था, जिससे संघ और हिन्दू महासभा ने किया अपितु उन मुस्लिमों से अलायन्स किया था जो एक भारत के एक यूनाइटेड पंजाब के पक्षधर थे। यह अंतर भी काउंट कर लेना अगली बार जब सर छोटूराम पे ऊँगली उठाओ तो।

कहीं पे मुस्लिमों (वेस्ट यूपी) से ही बैर तो कहीं पे मुस्लिमों (जम्मू-कश्मीर) से ही सब्बा-खैर| अपनी आइडियोलॉजी का और राजनीति का ठिकाना नहीं, चले किसान-कमेरे के भगवान् पे ऊँगली उठाने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 22 April 2016

1000 साल की गुलामी के वक्त यह जाट-गुज्जर कहाँ थे, का सवाल करने वालों के लिए जवाब!

मेरे एक मित्र अजय कुमार ने आज मेरे को एक फोटो में टैग किया जिसपे लिखा था कि "समझ नहीं आता भारत 1000 साल तक मुग़लों, गौरों और पुर्तगालियों का गुलाम कैसे रहा। ....... तब ये दबंग जाट, गुज्जर, पटेल कहाँ रहे थे, शोध का विषय है?"

इसका बड़े सलीके वाला जवाब है| पर उससे पहले इस सवाल करने वाले से यह जरूर पूछना चाहूंगा कि तूने यह सवाल क्षत्रिय-क्षत्रिय चिल्लाने वालों से और इनके भी ऐसे उस्ताद जिन्होनें इनके पुरखों को 21-21 बार मौत के घाट उतार धरती क्षत्रियविहीन कर दी थी, उनसे क्यों नहीं किया? क्योंकि इसका जवाब देना तो उनको बनता है कि क्यों इन शूरवीरों के रहते हुए देश 1000 साल तक गुलाम रहा?

अब बताता हूँ जाट-गुज्जर क्या कर रहे होते थे ऐसे वक्तों में| आगे का लेख मैं भाई अजय कुमार को सम्बोधित करते हुए लिखूंगा|

भाई अजय कुमार यह मनुवाद की वह थ्योरी है जिसको "किसी को उभरने नहीं देना" कहा जाता है| बिना युद्ध के भी युद्ध जैसे समाज में माहौल रखने, भाई को भाई का बैरी बना के रखना और जाति को जाति का बैरी बना के रखना; यही तो है मनुवाद| क्योंकि जाटों ने "जाट आंदोलन" के जरिये इनके सारे बहम तोड़े हैं और समाज में अपनी खोती जा रही साख का कुछ प्रतिशत (वही साख जिसको यह लोग पिछले डेड दशक से मीडिया, माता की चौकी और बाबाओं के माध्यम से निशाने पर लिए हुए थे) वापिस स्थापित किया है तो यह उसकी खीज में इनका प्रतिकार है|

मनुवाद कोई आपसे हथियार उठा के थोड़े ही लड़ेगा, यह जुबान के शेर होते हैं और जुबान से दुष्प्रचार फैला के अपने लिए राहें तलाशा करते हैं| सो आप इनकी ज्यादा चिंता ना करें| जब तक यह ऐसी हरकतें नहीं करेंगे, तब तक जाट युथ जगेगा थोड़े ही| रही बात इसके जवाब की तो इसमें कोई सच्चाई नहीं|

वैसे तो दर्जनों-सैंकड़ों उदाहरण हैं, परन्तु कुछेक सटीक और सबसे बड़े उदाहरणों से आपको बताता हूँ| आज जो 35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट का माहौल इन लोगों ने खापलैंड पर खड़ा किया हुआ है ठीक ऐसा ही माहौल 8वीं सदी में जाटों के विरुद्ध ब्राह्मण राजा दाहिर ने किया हुआ था, (दाहिर के पिता चच ने जाट राजा से धोखे से राजगद्दी हथियाई थी)। उसने जाटों को चांडाल-शुद्र तक ठहराने हेतु अपने लेखक-विद्वान् ठीक उसी तरह लगा रखे थे जैसे आज एंटी-जाट मीडिया लगा रहता है| सुनने में आता है कि जाटों को हथियार रखना और घोड़े पे चढ़ के चलना भी बैन करवा दिया था| तो ऐसे हालातों में और अतिविश्वास में मद दाहिर के राज्य में अरब के व्यापारियों को बेजवह तंग किया जाने लगा| इसकी खबर वहाँ के खलीफा को लगी तो उसने मुहमद बिन कासिम को अपने व्यापारियों के अधिकारों की रक्षा हेतु 712 ईसवीं में सिंध पर हमला करने को भेजा| अब सोचो एक ऐसे माहौल में जब जाट को हथियार उठाना व् घोड़े पे चलना प्रतिबंधित हो तो एक राज्य की सैन्य-शक्ति की ताकत में कितनी कमी होगी| बिना जाट के दाहिर ने लड़ाई लड़ी और हार गया| परन्तु फिर तब जब दाहिर हारा और राज्य दाहिर के हाथों से चला गया तो जाट बागी हो गए और कराची की बंदरगाह पर कासिम और जाटों की खाप सेना के बीच घमासान हुआ| जाट जीत तो नहीं पाये परन्तु कासिम को इससे काफी नुकसान हुआ| और उसको पीछे हटने पर विचार करना पड़ा| इस बंदरगाह पर हुए युद्ध का जिक्र कई अरब इतिहासकारों की लेखनी में मिलता है, जो स्वीकारते हैं कि सिंध में जाट ना होते तो वो उसी वक्त और भी आगे बढ़ जाते| उस वक्त 5000 के करीब जाटों को बिन कासिम बंदी बना के अरब ले गया था|

ऐसा ही किस्सा 1025 A.D. में सोमनाथ के मंदिर की लूट का है| जब इनके सारे दावे-दम धत्ता करते हुए गजनबी ले चला लूट सोमनाथ के खजाने को; तब देश की इज्जत देश से बाहर ना निकल जाए, उठ आये थे जाट गजनबी को छटी का दूध याद दिलाने को| बाकी इस किस्से में क्या कैसे हुआ वह तो इतिहास का स्वर्णिम पन्ना है, कम से कम जाटों के लिए तो| परन्तु यह तो इतने अहसान फरामोश हैं कि आजतक भी एक बार भी जाट को धन्यवाद स्वरूप भी जो एक शब्द तक इनकी कलमों से फूटा हो तो| वजह, वही इनकी "किसी को उभरने नहीं देना" की नीति|

1398 A.D. में जो तैमूर लंग, जिसके आगे मुहम्मद तुगलक भी हथियार डाल गया था, उसको जाटों-गुज्जरों-दलितों के नेतृत्व वाली सर्वखाप सेना ने ही भारत से भगाया था| गौरी (1206 A.D.) और रज़िया सुल्तान (1240 A.D.) को जाटों ने ही मारा था|

ऐसा ही दूसरा किस्सा पानीपत की तीसरी (1761 A.D.) लड़ाई का है| जब बावजूद महाराजा सूरजमल के सकारात्मक सहयोग के भी ब्राह्मण पेशवा सेनापति सदाशिव राव भाऊ ने महाराजा सूरजमल को ही बंदी बनाने की चेष्टा करके अपनी संकीर्ण और पीठ में छुरा घोंपने की मानसिकता दिखाई|

तो जब-जब जाट ऐसे जौहर करते हैं तो इनकी कलम जहर उगलती ही आई है| परन्तु चिंता नहीं करने का, अब हमने भी कलम उठाई है तो देखें गाढ़ी किसकी कलम की स्याही है| अपनी राज करने की नीतियों को धर्म का चोला औढ़ा के समाज को अपना कह के फिर उसी समाज को वर्ण-जाति-सम्प्रदाय के आधार पर विखण्डित करके रखना और फिर बिन कासिम, गजनबी या अब्दाली जैसे हमलों का वक्त आये तो अपनी भुंड करवा लेना; यही अंजाम है इनकी नीतियों का और इसीलिए यह कभी विश्व-विजेता नहीं बन पाये| जाट से इनका कितना बैर है यह गुलामी के दौर में भी तो जारी था| इनको अंग्रेजों-मुग़लों की चाटुकारिता करनी मंजूर थी परन्तु जाट के साथ मिलके आज़ादी के लिए लड़ना कतई नहीं|

और जब तक यह नहीं समझेंगे कि लेखन और रचनात्मकता से देश-धर्म-समाज नहीं चला करते, या हम में से कोई इनको इसका अहसास नहीं करवाएगा; इनके यह छेछर जारी रहेंगे| परन्तु अब हमने (आज वाली जाट पीढ़ी के युवा ने) इतना तो कम से कम ठाना है कि अब जाट के ऊपर इनकी मनवांछित कलम नहीं चलने देंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday 18 April 2016

हमें फ़िलहाल एसवाईएल नहीं, हमारे जेलों में कैद और हॉस्पिटलों में भर्ती बच्चे घर चाहिएं!


चिंतनीय व् विचारणीय: आखिर यह नेता लोग अपनी जली प्रॉपर्टी दिखाने हेतु सिर्फ जाट-नेताओं को ही क्यों बुला रहे हैं; राजकुमार सैनी की ब्रिगेड और संघियों को क्यों नहीं बुला रहे?
किसी ने सही कहा है कि फेसबुक पे बैठकर लिखने में और धरातल पर उतर कर करने में बहुत फर्क होता है। जैसे मैं फेसबुक पर लिखते हुए या यहाँ तक कि किसी को फोन करके भी पूछ लूँ तो वो मुझे शायद ही स्पष्ट बता पाये कि एक ऐसे वक्त में जब पूरी जाट कौम का ध्यान केंद्रित तो होना चाहिए अपने बच्चों को जेलों से छुड़ाने में और हमारे कुछ जाट नेता और खाप चौधरी रह-रह कर छेड़ देते हैं कभी एसवाईएल के निर्माण का मुद्दा तो कभी नेताओं की प्रॉपर्टी जलने का मुद्दा।
मैं नहीं मान सकता कि अपने बच्चों को छुड़वाने की ललक और टीस, इन नेताओं में नहीं होगी, जरूर सियासत के 70 ढाळ के प्रेशर और मीडिया के षड्यंत्र इनको टिकने नहीं दे रहे होंगे ।
भारतीय संस्कृति में एक जींस होता है जिसको कहते हैं बापपने का जींस या कहो बड़प्पन का जींस। इनके इस जींस को उभारने का भी सियासतदानों द्वारा खूब इस्तेमाल किया जाता दिख रहा है। कहीं अपनी जली प्रॉपर्टीज दिखा के तो कहीं सरकार द्वार अकाल्पनिक सब्जबाग दिखा के इनको इमोशनली ब्लैकमेल किया जा रहा है और इनके अंदर इससे वो अहसास पैदा किया जा रहा है जिसपे एक बाप अपने बेटे को बोल उठता है कि, 'अच्छा तो कबीज, यु तेरा करा होया सै। तेरे तो टाकणे छांगने पड़ेंगे।'
यह टाकणे छांगने वाला मोड है जिसमें जाट और खाप चौधरियों को अपने ही बच्चों के प्रति सरकार-नेता-मीडिया-बाबामंडली द्वारा मिलकर ट्रांसप्लांट किया जा रहा है। वर्ना इतना तो यह चौधरी-नेता सरकार-बाबागिरोह भी जानते हैं कि यह यूथ का आंदोलन था और इसमें इनमें से एक का भी कोई बड़ा सा रोल नहीं। बल्कि जब जाट-यूथ आंदोलन कर रहा था तो अधिकतर चौधरियों और जाट नेताओं का इस यूथ को मूक अथवा शाब्दिक समर्थन विभिन्न अखबारों के माध्यम से ही झरने की तरह झर-झर आता रहा था। कई खापों ने खुद आगे बढ़ के कहा था कि हम अपने यूथ के साथ हैं।
यहाँ हैरान कर देने वाली बात यह भी है कि आखिर यह नेता लोग अपनी जली प्रॉपर्टी दिखाने हेतु सिर्फ जाट-नेताओं को ही क्यों बुला रहे हैं; राजकुमार सैनी की ब्रिगेड और संघियों को क्यों नहीं बुला रहे? कई कहेंगे कि अजी जिनके घर फूंके वो नेता जाट समाज से जो हैं? क्या वो नेता सिर्फ जाट समाज से हैं, संघ से कोई रिश्ता नहीं उनका? और फिर इन नेताओं से मिलने वालों में आपकी ही हस्ती के नॉन-जाट लोग भी तो पहुँच रहे होंगे, फिर मीडिया के सामने सिर्फ आपको ही क्यों विचार रखने हेतु लाया जा रहा है? जरा सोचियेगा, विचारियेगा।
जेलों-अस्तपालों में पड़े अपने बच्चों और उनके परिवारों को संभालने की चिंता की बजाये कभी एसवाईएल, कभी नेताओं की जली प्रॉपर्टी की चिंता किसी के दबाव से हो या इच्छा से परन्तु यह बन वही वाली रही है कि, "मुस्लिम बिगड़े जवानी में और जाट बिगड़े बुढ़ापे में!"।
चलते-चलते एक सीरियस बात, जहां तलवार फ़ैल हो जाती है वहाँ कई बार कलम कारगर साबित होती है। अत: हे बुजुर्गो, एसवाईएल को तो राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य, जनरल वीके सिंह, राव इंद्रजीत, मनोहरलाल खट्टर, अनिल विज, रामबिलास शर्मा और कैप्टन अजय सिंह यादव आदि-आदि, साथ ही जींद से कोई कौशिक खाप भी ऊठ खड़ी हुई है वो निबट लेंगे।
इनको आगे आने दें। भूल गए क्या अकेले राजकुमार सैनी के पास इतनी ताकतवर सेना है जो जाटों को दिल्ली के दूध-पानी नहीं रोकने देने तक का दम भरती रही है, तो फिर एसवाईएल तो चुटकियों का मुद्दा होना चाहिए उनके लिए| पलक-झपकते में ही डलवा लाएंगे एसवाईएल में पानी। ऊपर से राज्य-केंद्र दोनों जगह सरकार इनकी, सरकार का मुखिया संघ इनका; बताओ आप किस चिंता ने खाये एसवाईएल को ले के?
और अगर इसके बावजूद भी इनसे नहीं निबटा जायेगा तो जाट सहयोग से कब पीछे हटे। वैसे भी जब से एसवाईएल बनी है तब से आप जाटों ने ही तो इससे संबंधित तमाम आंदोलनों की अगुवाई की है। अब जब इनको अपना पुरुषार्थ सिद्ध करने का अवसर मिला है तो आप थोड़ा धैर्य रखें; और अपनी ऊर्जा और सोच हॉस्पिटल और जेलों में पड़े अपने बच्चों और उनके परिवारों को छुड़ाने और संभालने में लगाइए। ठीक है नेताओं की प्रॉपर्टी भी जा के संभाल लीजिए, परन्तु उनकी पहले संभालिए जिनके यहां नेताओं की तरह सरकार शायद ही पहुंचे; नुकसान का मुआयना करने और मुआवजा देने।
आपके हमारे बड्डे-स्याने ही कह के गए हैं कि जब बाप की जूती बेटे के पाँव में आने लग जाए तो उसके दोस्त बन जाईये। हम आपसे दूर नहीं, परन्तु जरा हमारे दोस्त बन के हमारी मनोव्यथा को समझिए, हमें आज के दिन एसवाईएल में कोई रुचि नहीं; हमारी दिन-रात की बस एक ही व्यथा है कि हमारे जेलों में बंद और हॉस्पिटलों में भर्ती बच्चे जल्द-से-जल्द अपने घर को आवें।
विशेष: आप सभी से प्रार्थना है कि अगर आपको यह लेख पसंद आये तो अपने नेटवर्क में हर जाट आरक्षण नेता, खाप नेता और अन्य इस मुद्दे से नाता रखने वाले हर सख्श तक इसको जरूर पहुँचावें।
आपके प्रति धन्यवाद और अथाह स्नेह के साथ!
आपका वंशज!
फूल मलिक
जय यौद्धेय!

एनडीटीवी को ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ के पेश करने पे देश की जनता से माफ़ी मांगनी चाहिए!

एनडीटीवी रिपोर्ट - "कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह ने हर्जाने के तौर पर अंग्रेजों को दिया था!"
गलत, महाराजा रणजीत सिंह ने तो कोहिनूर हीरा पुरी के जगन्नाथ मंदिर को भेंट कर दिया था। उड़ीसा पर अंग्रेजों का राज होने के बाद वहाँ के पुजारियों ने अंग्रेजों को खुश करने के लिए कोहिनूर हीरा गिफ्ट के तौर पर अंग्रेजों को भेंट किया था, जबकि महाराजा रणजीत सिंह तो इसको जगन्नाथ पुरी मंदिर की मलकीयत बना के चले गए थे|
'कोहिनूर हीरे' का ब्रिटिशर्स को जाने का किस्सा शुरू ही महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद हुआ था, तो ऐसे में तुम्हारे अनुसार अंग्रेजों को यह हीरा क्या महाराजा का भूत देने आया था?
मीडिया की भांड लॉबी तुम बाज मत आना इतिहास की ऐसी-तैसी करने से|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
Source: http://khabar.ndtv.com/video/show/news/kohinoor-not-stolen-let-uk-keep-it-government-in-court-412348

Saturday 16 April 2016

रोशनलाल आर्य और राजकुमार सैनी का तो 'फिर से मार के दिखा वाली' आदत से परेशान वाली औरत जैसा हाल हो रखा है!


विशेष: लेखक, गुर्जर और सैनी समाज का आदर करता है और खुद के समाज जैसी ही इज्जत देता है; लेकिन क्योंकि यह पोस्ट इस लेख के टाइटल में नामित महानुभावों बारे है, इसलिए आशा करता हूँ कि इस पोस्ट को सिर्फ इन्हीं दोनों के संदर्भ में लिया जायेगा।

तो लेख पे बढ़ता हूँ, मेरी दादी बताती थी कि बेटा एक बहुत कलिहारी औरत हुआ करती थी। वो इतनी नकटी (यानि निकम्मी) थी कि घर में किसी की नहीं सुना करती थी; यहाँ तक कि पति की भी नहीं। अपनी ईगो ऊपर रखने के लिए उसको पिटते वक्त भी पति को चेतावनी देना नहीं भूलता था। तंग आकर जैसे ही उसका पति उसको चाँटा लगाता, वो आगे से चैलेंज देती कि "हिम्मत है तो फिर से मार के दिखा"। उसका पति लेता और फिर से एक बजाता उसके मुंह पे। पर वो फिर भी यही कहती कि "हिम्मत है तो अबकी बार मार के दिखा"।

तो महाशय रोशनलाल आर्य जी, आपका तो इस नकटी औरत जैसा हाल हो रखा है। राजकुमार सैनी के साथ मिलके आपने कहा कि "जाट तो डंडे के यार हैं, इनको डंडा दिखाओ तो सीधे चलते हैं।" जाटों ने 12 फरवरी से 22 फरवरी, 2016 तक आपके वो डंडे का दम भी तोला। आप तो क्या पूरी आपकी ब्रिगेड, आरएसएस के गुर्गे, यहाँ तक कि पुलिस-फ़ौज सबने जाट को डंडा देने की कोशिश करी; परन्तु बदले में जाटों ने डंडा क्या उसकी जगह गनपॉइंट आपके भीतर में दे दिया (यह बात आप खुद ही इस अख़बार में स्वीकार कर रहे हो)| जाटों को 21 फरवरी को आरक्षण की घोषणा होने के बावजूद भी जाट 22 फरवरी को भी शाम तक सड़कों-रेल ट्रैकों पर आपका और सैनी की तथाकथित ब्रिगेड का इंतज़ार करते रहे (क्योंकि सैनी ने 22 की डेडलाइन जो रखी हुई थी, जाटों को सड़कों से उठा के जाम खुलवाने की) परन्तु ना आप दिखे, ना आपकी ब्रिगेड, ना आपके डंडे और ना इनमें से किसी की परछाई तक दिखी।

क्या इतना जवाब काफी नहीं होना चाहिए था, आपकी डंडे वाली बात को धत्ता बताने के लिए? आपको तो इतनी भी अक्ल नहीं है कि ऐसे बोलों से खुद ही अपनी झंड करवा रहे हो, क्योंकि पब्लिक आपके 12 फरवरी के बयानों से तोल के देख रही है इनको, उसको फद्दु ना समझें।

लेकिन फिर भी क्यों वो नकटी औरत वाली कर रहे हो खुद के साथ कि लेते हो और फिर उकसाते हुए चले आते हो कि "हिम्मत है तो अबकी बार मार के दिखाओ!"? आपको और कोई काम नहीं है क्या? अजब तरीका है यह मुंह की खाये बैठे हैं (अख़बार तक में पब्लिकली स्वीकार भी करते हैं), परन्तु तेवर वही नकटी औरत वाले। अब आपके इन बयानों पे तो जनाब सिर्फ हंसी ही आती है।

अब सीरियस नोट पे बात: किसान-मजदूर की बहुत ही खस्ता हालत हुई पड़ी है आज के दिन, कोई उसकी सुध लेने वाला नहीं, ना राज्य सरकार में और ना केंद्र सरकार में। यह जाटों पे इल्जाम लगाने, उनको चेतावनी देने, उनको उनकी औकात बताने जैसे छेछर (मर्द के लिए औरत के त्रिया-चरित्र के बराबर का शब्द) बंद कीजिये और कुछ काम कर लीजिए जनता के। वर्ना जाटों को 90 और 10 में से कितनी मिलेंगी और कितनी नहीं की भविष्यवाणियाँ करना तो दूर, आप अपनी सीट भी नहीं बचा पाएंगे।

वैसे अच्छा है अपने आप ही पिछण रहे हो, किसी जाट को फिक्र करने की क्या जरूरत। बाकी आरएसएस के चीफ से जा के मिलो (बेहतर होगा उनसे किसानों की हालत पे कुछ मदद की बात करें) या कोई ब्रिगेड बनाओ; उत्तरी भारत में जाट को नाराज और आहत करने वाले को तो भगवान भी विजयश्री नहीं बख्शता। सन 712 में चच को बख्शी हो या सन 1763 के पानीपत में पेशवा भाऊ को बख्शी हो तो आपको और आपके आकाओं को बख्शेगा। जबकि जाट ने आपका सहयोग रहा या ना रहा, अकेले सैंकड़ों विजयें पाई हैं इतिहास में; पूरी फेहरिस्त खोल दूँ तो लेख दूसरी ही दिशा ले जायेगा।

चलते-चलते यही निवेदन है कि आप और हम अजगर होते हैं, आपकी-हमारी खापों ने मिलके अनगिनत युद्ध जीते हैं; इसलिए थोड़ी अपने पुरखों को शक्ल दिखाने लायक काम भी कर लीजिए।

कहीं ऐसा ना हो कि आप जैसे नादान तो चमन को उजाड़ के चले जायें और फिर हमें कई पीढ़ियां यूँ ही व्यर्थ में आपकी इन लम्हों वाली खताओं को पाटते-पाटते सदियों की सजा वाला काम हो जाए। कृपया मत बनें इन धर्म और जाति के नाम पे समाज को विखण्डित करने वालों की कठपुतली। आप भी किसान समाज से हैं, आपकी और जाट की दोनों बिरादरी भी किसान समाज से हैं। इनको जोड़ के किसान के कल्याण के कार्यों बारे क्यों नहीं सोचते आप?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

Wednesday 13 April 2016

अंग्रेजों तक ने नहीं छेड़ी हमारी संस्कृति तो तुम क्यों छेड़ रहे हो?

अंग्रेजों ने Haryana को Hariyana नहीं लिखा क्योंकि यह था ही हरयाणा यानि हरा-भरा आरण्य; तो इसको हरियाणा क्यों लिखा जा रहा है?

अंग्रेजों ने 'Jind' को 'Jeend' नहीं लिखा क्योंकि यह था ही 'जिंद'। तो इसको हिंदी में 'जींद' क्यों लिखा जा रहा है? 'जिंद' एक पंजाबी शब्द है, जिसके नाम पर 'जिंद' रियासत का नाम है| 'जिंद' यानि 'जिंद ले गया दिल का जानी' गाने वाला 'जिंद'। कितना प्यारा नाम है| अब भाई रहम करना, कहीं कल को सुनने को मिले कि 'जिंद' का नाम भी बदल के जयन्तपुरी या जैतापुरी रख दिया| वर्ना तो फिर हमें उठ खड़ा होना ही पड़ेगा, इन्होनें तो हरयाणवी और पंजाबी संस्कृति को मिटाने की कसम सी खा ली है ऐसा लगता है| आज गुड़गांव का गुरुग्राम कर दिया, कल करनाल का किलोग्राम करेंगे, परसों पानीपत का 'पानीपुरी' करेंगे| गज़ब तो तब हो जायेगा जो अगर चंडीगढ़ का बदल के चड्ढीगढ़ कर दिया तो।

कभी चड्ढी बदल रहे हो कभी शहरों के नाम, भैया कुछ बदलना है तो अपनी मेंटलिटी बदलो।

भैया तुमको यहां रोजगार बंटवाना है हमने ख़ुशी-ख़ुशी बंटवाया है, अपने घर-मकानों तक में पनाह दे के बसाया है; परन्तु हमारी संस्कृति को मत छेड़ो, हम नहीं चाहते कि अब हमारा हरयाणा क्षेत्रवाद और भाषावाद के पचड़े में सुलगे| अंग्रेजों तक ने नहीं छेड़ी हमारी संस्कृति तो तुम क्यों छेड़ रहे हो?

खट्टर बाबू गुड़गांव का गुरुग्राम बनाओ या मेवात का नूहं, परन्तु यह कहावत तो बदलने वाली नहीं, "ब्रजभूमि ना बाह्मन की ना देवन् की, कुछ जाटन् की कुछ मेवन् की"।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

दलितों के पास हथियार होते तो अंग्रेज व् मुस्लिम नहीं जीत पाते! - आर्गेनाइजर

इनको बोलो कि जहां-जहां तुम्हारा 'मनुवाद' चलता था वहाँ-वहाँ नहीं रही होगी दलितों को हथियार उठाने की इजाजत, परन्तु जहां खापवाद चलता था वहाँ दलित किसानी जातियों से कंधे-से-कन्धा मिला के लड़ते थे| ऐसे ही कुछ एक उदाहरण यह रहे:

1) सन 1398 में मुहमद बिन तुगलक भी जिस तैमूरलंग को नहीं रोक पाया था, उस तैमूर लंगड़े को भारत से भगोड़ा बनाने वाली विजयी खापसेना के दो उप-सेनापतियों में एक हांसी के दलित दादावीर धूला भंगी बाल्मीकि जी थे|
2) 1355 में चंगेज खान की चुगताई सेना का मार-मार मुंह सुजा देने वाली खाप पंचायत सेना की 30000 की महिला-विंग टुकड़ी की 10 सहायक सेनापतियों में एक दादीराणी बिशनदेई बाल्मीकि जी और एक दादीराणी सोना देवी बाल्मीकि जी, दोनों दलित थी|
3) दादावीर मोहरसिंह वाल्मीकि जी: आप सन् 1529 में खाप पंचायत सेना के सहायक सेनापति थे; आपको राणा रायमल चित्तौड़ ने “मोहर तोड़” के वीरता पदक से आपकी वीरता के लिए सम्मानित किया था।
4) दादावीर मातैन वाल्मीकि जी: आप एक महान् मल्ल योद्धा थे जो अपनी 81 वर्ष की आयु तक में भी अखाड़ों में मल्ल युद्ध सिखलाते थे तथा पूरे प्राचीन हरयाणा के अखाड़ों का निरीक्षण करते थे।
5) अब तो खैर युद्ध नहीं होते और ना ही धाड़ें पड़ती, वर्ना गए दो दशक तक भी खपलैंड के लगभग हर गाँव में "खाप-पंचायतों" के पहलवानी दस्ते होते आये हैं; जो एक कॉल पर रातों-रात बताई जगह पे इकठ्ठा हो जाया करते थे| मेरे गाँव में जाटों के साथ-साथ धानक कम्युनिटी के लड़कों को पूरा गाँव घी-दूध-राशन-पानी दे के सिर्फ इसलिए पहलवान बनाता था ताकि खाप की एक कॉल पे कूच किया जा सके|

इसलिए यह 'आर्गेनाइजर" वाले उन दलितों-पिछड़ों तो को उल्लू बना सकते हैं जो खापलैंड से बाहर के भारत में बसते हैं, परन्तु उनको नहीं जो खापलैंड से हैं और अपने यहाँ की संस्कृति और परम्परा से वाकिफ हैं या रहे हैं| मतबल दलितों को रिझाने के लिए कुछ भी क्या?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Fake claim News source which compelled me to bring-up these facts:
http://navbharattimes.indiatimes.com/india/Arming-Dalits-could-have-helped-beat-invaders-RSS/articleshow/51805224.cms?utm_source=nbt&utm_medium=Whatsapp&utm_campaign=onpagesharing

Monday 11 April 2016

वो मौका जब गांधी को भी यूनियनिस्ट सर छोटूराम जी को पंजाब में "गुजरात के सरदार पटेल" का प्रतिरूप कहना पड़ा था|

वो मौका जब गांधी को भी यूनियनिस्ट सर छोटूराम जी को पंजाब में "गुजरात के सरदार पटेल" का प्रतिरूप कहना पड़ा था| आखिर ऐसे अध्याय किताबों-लेखों- मीडिया से छुपाए गए तो किस मंशा से?

वैसे जब सर छोटूराम ने जिन्नाह को पंजाब से तड़ीपार किया था तो गांधी-नेहरू सर छोटूराम के आगे अपनी बेबसी दिखाते हुए जिन्नाह को इतना ही कह पाये थे कि पूरे भारत में जो चाहे मांग ले, पर पंजाब हमारे बस से बाहर की चीज है; क्योंकि वहां छोटूराम की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

Sunday 10 April 2016

हमें फ़िलहाल एसवाईएल नहीं, हमारे जेलों में कैद और हॉस्पिटलों में भर्ती बच्चे घर चाहिएं!


चिंतनीय व् विचारणीय: आखिर यह नेता लोग अपनी जली प्रॉपर्टी दिखाने हेतु सिर्फ जाट-नेताओं को ही क्यों बुला रहे हैं; राजकुमार सैनी की ब्रिगेड और संघियों को क्यों नहीं बुला रहे?

किसी ने सही कहा है कि फेसबुक पे बैठकर लिखने में और धरातल पर उतर कर करने में बहुत फर्क होता है। जैसे मैं फेसबुक पर लिखते हुए या यहाँ तक कि किसी को फोन करके भी पूछ लूँ तो वो मुझे शायद ही स्पष्ट बता पाये कि एक ऐसे वक्त में जब पूरी जाट कौम का ध्यान केंद्रित तो होना चाहिए अपने बच्चों को जेलों से छुड़ाने में और हमारे कुछ जाट नेता और खाप चौधरी रह-रह कर छेड़ देते हैं कभी एसवाईएल के निर्माण का मुद्दा तो कभी नेताओं की प्रॉपर्टी जलने का मुद्दा।

मैं नहीं मान सकता कि अपने बच्चों को छुड़वाने की ललक और टीस, इन नेताओं में नहीं होगी, जरूर सियासत के 70 ढाळ के प्रेशर और मीडिया के षड्यंत्र इनको टिकने नहीं दे रहे होंगे ।

भारतीय संस्कृति में एक जींस होता है जिसको कहते हैं बापपने का जींस या कहो बड़प्पन का जींस। इनके इस जींस को उभारने का भी सियासतदानों द्वारा खूब इस्तेमाल किया जाता दिख रहा है। कहीं अपनी जली प्रॉपर्टीज दिखा के तो कहीं सरकार द्वार अकाल्पनिक सब्जबाग दिखा के इनको इमोशनली ब्लैकमेल किया जा रहा है और इनके अंदर इससे वो अहसास पैदा किया जा रहा है जिसपे एक बाप अपने बेटे को बोल उठता है कि, 'अच्छा तो कबीज, यु तेरा करा होया सै। तेरे तो टाकणे छांगने पड़ेंगे।'

यह टाकणे छांगने वाला मोड है जिसमें जाट और खाप चौधरियों को अपने ही बच्चों के प्रति सरकार-नेता-मीडिया-बाबामंडली द्वारा मिलकर ट्रांसप्लांट किया जा रहा है। वर्ना इतना तो यह चौधरी-नेता सरकार-बाबागिरोह भी जानते हैं कि यह यूथ का आंदोलन था और इसमें इनमें से एक का भी कोई बड़ा सा रोल नहीं। बल्कि जब जाट-यूथ आंदोलन कर रहा था तो अधिकतर चौधरियों और जाट नेताओं का इस यूथ को मूक अथवा शाब्दिक समर्थन विभिन्न अखबारों के माध्यम से ही झरने की तरह झर-झर आता रहा था। कई खापों ने खुद आगे बढ़ के कहा था कि हम अपने यूथ के साथ हैं।

यहाँ हैरान कर देने वाली बात यह भी है कि आखिर यह नेता लोग अपनी जली प्रॉपर्टी दिखाने हेतु सिर्फ जाट-नेताओं को ही क्यों बुला रहे हैं; राजकुमार सैनी की ब्रिगेड और संघियों को क्यों नहीं बुला रहे? कई कहेंगे कि अजी जिनके घर फूंके वो नेता जाट समाज से जो हैं? क्या वो नेता सिर्फ जाट समाज से हैं, संघ से कोई रिश्ता नहीं उनका? और फिर इन नेताओं से मिलने वालों में आपकी ही हस्ती के नॉन-जाट लोग भी तो पहुँच रहे होंगे, फिर मीडिया के सामने सिर्फ आपको ही क्यों विचार रखने हेतु लाया जा रहा है? जरा सोचियेगा, विचारियेगा।
जेलों-अस्तपालों में पड़े अपने बच्चों और उनके परिवारों को संभालने की चिंता की बजाये कभी एसवाईएल, कभी नेताओं की जली प्रॉपर्टी की चिंता किसी के दबाव से हो या इच्छा से परन्तु यह बन वही वाली रही है कि, "मुस्लिम बिगड़े जवानी में और जाट बिगड़े बुढ़ापे में!"।

चलते-चलते एक सीरियस बात, जहां तलवार फ़ैल हो जाती है वहाँ कई बार कलम कारगर साबित होती है। अत: हे बुजुर्गो, एसवाईएल को तो राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य, जनरल वीके सिंह, राव इंद्रजीत, मनोहरलाल खट्टर, अनिल विज, रामबिलास शर्मा और कैप्टन अजय सिंह यादव आदि-आदि, साथ ही जींद से कोई कौशिक खाप भी ऊठ खड़ी हुई है वो निबट लेंगे।

इनको आगे आने दें। भूल गए क्या अकेले राजकुमार सैनी के पास इतनी ताकतवर सेना है जो जाटों को दिल्ली के दूध-पानी नहीं रोकने देने तक का दम भरती रही है, तो फिर एसवाईएल तो चुटकियों का मुद्दा होना चाहिए उनके लिए| पलक-झपकते में ही डलवा लाएंगे एसवाईएल में पानी। ऊपर से राज्य-केंद्र दोनों जगह सरकार इनकी, सरकार का मुखिया संघ इनका; बताओ आप किस चिंता ने खाये एसवाईएल को ले के?

और अगर इसके बावजूद भी इनसे नहीं निबटा जायेगा तो जाट सहयोग से कब पीछे हटे। वैसे भी जब से एसवाईएल बनी है तब से आप जाटों ने ही तो इससे संबंधित तमाम आंदोलनों की अगुवाई की है। अब जब इनको अपना पुरुषार्थ सिद्ध करने का अवसर मिला है तो आप थोड़ा धैर्य रखें; और अपनी ऊर्जा और सोच हॉस्पिटल और जेलों में पड़े अपने बच्चों और उनके परिवारों को छुड़ाने और संभालने में लगाइए। ठीक है नेताओं की प्रॉपर्टी भी जा के संभाल लीजिए, परन्तु उनकी पहले संभालिए जिनके यहां नेताओं की तरह सरकार शायद ही पहुंचे; नुकसान का मुआयना करने और मुआवजा देने।

आपके हमारे बड्डे-स्याने ही कह के गए हैं कि जब बाप की जूती बेटे के पाँव में आने लग जाए तो उसके दोस्त बन जाईये। हम आपसे दूर नहीं, परन्तु जरा हमारे दोस्त बन के हमारी मनोव्यथा को समझिए, हमें आज के दिन एसवाईएल में कोई रुचि नहीं; हमारी दिन-रात की बस एक ही व्यथा है कि हमारे जेलों में बंद और हॉस्पिटलों में भर्ती बच्चे जल्द-से-जल्द अपने घर को आवें।

विशेष: आप सभी से प्रार्थना है कि अगर आपको यह लेख पसंद आये तो अपने नेटवर्क में हर जाट आरक्षण नेता, खाप नेता और अन्य इस मुद्दे से नाता रखने वाले हर सख्श तक इसको जरूर पहुँचावें।
आपके प्रति धन्यवाद और अथाह स्नेह के साथ!

आपका वंशज!
फूल मलिक
जय यौद्धेय!

Thursday 7 April 2016

सर छोटूराम द्वारा देहात क्षेत्रों में अछूतो की आवश्यकताओं की ओर विशेष ध्यान!

सर छोटूराम द्वारा देहात क्षेत्रों में अछूतो की आवश्यकताओं की ओर विशेष ध्यान दिया गया था| जिसका संक्षपित ब्यौरा इस प्रकार हैं :-

1) उन को पंचायतों के चुनावों में मत देने का अधिकार दिया गया|
 

2) बेगार लेने पर कानूनी पाबंधी लगाई गई|
 

3) सभी कुएं उन के उपयोग के लिए खोल दिये गए और अपने अलग कुएं बनाने के लिए विशेष सुविधाएं दी गई|
 

4) सर छोटूराम ने सदन में घोषणा की थी कि अछूतो के चेहरे पर से भेद-भाव का दाग मिटाने के लिए उन में तीन हजार एकड़ भूमि आवंटित किए जाने के आदेश दिए गए हैं | इस से उन्हें उच्च जातियों के हिंदुओं के निकट आने में मदद मिली हैं|
 

5) ग्रामीण उदद्योग को अनुदान दिए गए तथा आसान शर्तों पर कर्ज उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया|
 

6) एक विशेष अनुपात में अछूतो के लिए मुंशी और जिलेदार के पद आरक्षित किए गए|
 

7) कर्जा समझौता बोर्डो ने कर्ज संबंधी मामलों को आसान एवं सुविधाजनक बनाने में किसानों को मदद दी|
 

8) सर छोटूराम के अथक प्रयासों के कारण राज्य सेवाओं में किसानों के लिए आरक्षण का प्रावधान संभव हो पाया | पाँच प्रतिशत आरक्षण अछूतो के लिए कर दिया गया|
 

9) देहात पुननिर्माण के कार्यक्रम में शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया | सर छोटूराम ने एक बार सदन में गर्जना की, "अतीत में सरकारों द्वारा देहाती वर्गों की शिक्षा के प्रति अपनाया गया उपेक्षाभाव और उन की आर्थिक स्थिति सुधारने में बरती गई लापरवाही का ही परिणाम था कि किसान सूदखोर के पंजे में फसता चला गया| किसान की वर्तमान विवशता बहुत सीमा तक सरकार की अपराधपूर्ण लापरवाही के कारण हैं|

Tuesday 5 April 2016

Dramatic degradation of Jats valor, reputation and reasons behind it!


Devastating and pitiable journey of education institutions builders to mere donors in jagrata-satsangs etc.

Jai Yauddhey! - Phool Malik

 

Monday 4 April 2016

बाबा रामदेव के दिमाग, पुरुषार्थ, प्रबंधन, सेवा और कांटा लगे तो फलां-फलां क्या करे के फंडे!


दिमाग, पुरुषार्थ, प्रबंधन, सेवा; रोहतक की सद्भावना रैली में इन चारों पहलुओं पर इन्होनें अपना बखान दिया। जो अत्यन्त भौंडा और अमानवता से भरा हुआ था। समाज की विघटनकारी सोच की जड़ था।

आपको पता है बाबा रामदेव, जिस सोच से आपने इन चार तथ्यों की व्याख्या की, उसकी सबसे बड़ी कमजोरी क्या रही है? और आज से नहीं इतिहास के सुदूर अनंतकाल से रही है? वो है सिर्फ अपने को सर्वोच्च समझना और बाकी सबको तुच्छ। सिर्फ अपने को राजा समझना और बाकी सबको गुलाम? दुनिया की सबसे दमनकारी सोच है यह। इनकी दूसरी कमजोरी बताऊँ क्या है जिसकी वजह से इन्होने इतिहास में बार-बार मार खाई है? वो है कि यह तर्क-वितर्क से भागने वाले लोग हैं। और जहां तर्क-वितर्क ही नहीं वहाँ दिमाग का क्या काम? और जिसको आप इनकी परिभाषा वाला दिमाग कहते हैं ना, उसको छल-कपट-छलावा-ढोंग-फंड-पाखण्ड जैसी कैटेगरीज से घड़ा जाता है। और इस तरह के दिमाग को असमाजिक तत्व बोला जाता है।

बाबा जी क्या आपके अनुसार सबसे उत्तम दिमाग वही होता है जो ढोंग-पाखण्ड-आडंबर फैला के समाज में हिंसा-द्वेष और भाई से भाई को लड़ाना जानता हो और खाने-पीने-सुरक्षा-सेवा के लिए दूसरों पर आश्रित हो? मेरे ख्याल से बिलकुल नहीं, वरन ऐसे दिमाग को तो परजीवी बोला जाता है। और अपना यह परजीविपना छुपाने हेतु ऐसे दिमाग वाले सिर्फ और सिर्फ समाज को तोड़ने-फोड़ने के षड्यंत्र मात्र रचते हैं, जिसको किसी भी प्रकार से मानवता नहीं कहते।

और आपने क्या कहा कि शुद्र को कांटा लगे तो फलां रोये, फलां सुरक्षा करे और धिमकाना दवा करे? महाराज क्यों बेचारी रुदालियों और डूमनियों के रोने के धंधे पे लात मरवाते हो? और रोना ही अगर दिमाग कहलाता है तो फिर तो मेरे गाँव की वो डूमनी तो सबसे दिमागदार कही जाएगी जो हर मरगत पर, गाँव-कुनबे की औरतों को ले स्मशान की ओर जाते हुए "हाये-हाये केला तोड़ लिया" की दुहाई देती हुई, सांतलों और छातियों पर दुहाथड मारती हुई उनकी अगुवाई में चलती है? Bullshit-crap, इन स्वघोषित दिमागदारों को कोई बैन करो यार।
था तो और भी बहुत कुछ आपसे तर्क-वितर्क करने को, पर फ़िलहाल इतना ही।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

रेवाड़ी के राव तुलाराम द्वारा अंग्रेजों को फ़ारसी भाषा में लिखा माफीनामा!

रेवाड़ी के राव तुलाराम द्वारा 25 फरवरी 1859 को अंग्रेजों को फ़ारसी भाषा में लिखे माफीनामे की हिंदी में कॉपी|

सोर्स: राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archive), नई दिल्ली!



 

कट्टरवादी ताकतें कृपया "खाप के खौफ" को ना भुनावें!


आज जनसत्ता में एक फैब्रिकेटेड न्यूज़ आई है कि वेस्ट यूपी में किसी गुमनाम खाप ने मुस्लिमों का विरोध किया है। उस खबर में ना किसी खाप का नाम और ना किसी खाप के चौधरी का। हँसी आती है मुझे इनकी असहायता पर।

यानि अब इनकी खुद की नहीं चल रही तो यह "खाप के खौफ" को भुनाना चाहते हैं। इन कुंठित लोगों से आग्रह है कि आपको अपने संगठन के नाम पे जो आग लगानी है लगाओ, परन्तु "खाप" शब्द को मत घसीटो इसमें।

खाप सदियों से जातिपाती व् धर्म से रहित शुद्ध सेक्युलर संस्था रही है।
1) 1669 में औरंगजेब के दरबार में कत्ल किये गए 21 खाप चौधरियों में एक मुस्लमान भी था।
2) महाराजा सूरजमल ने भरतपुर में अगर लक्ष्मण मंदिर बनवाया था तो मोती-मस्जिद भी बनवाई थी।
3) 1857 की आज़ादी की पहली क्रांति की बागडोर अपने हाथों में लेने की खापों से अपील करने वाले अंतिम-मुग़ल बादशाह बहादुरशाह भी एक मुस्लिम ही थे।
4) सर छोटूराम जी ने सर सिकंदर हयात खान टिवाणा जी के साथ यूनाइटेड-पंजाब में धर्म-जाति से रहित सफल सरकार दी थी।
5) राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने मुस्लिमों के साथ मिलके ही अफगानिस्तान में पहली भारतीय सरकार व् आज़ाद हिन्द फ़ौज (जिसको बाद में नेता जी सुभाषचन्द्र बॉस ने टेकओवर किया था) की नींव रखी थी।
6) चौधरी चरण सिंह जी की तो राजनीति की चूली ही हिन्दू-मुस्लिम एकता थी।
7) चौधरी देवीलाल जी की पार्टी इनेलो को आज भी हरयाणा की मुस्लिम बहुल सीटों पर इन्हें एकमुश्त वोट पड़ती हैं।
8) बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की तो हर रैली का आलम यह होता था कि अगर स्टेज से आवाज आती "हर-हर महादेव" तो जनता दहाड़ती "अल्लाह-हु-अकबर"। स्टेज से आवाज आती "अल्लाह-हु-अकबर" तो जनता गरजती "हर-हर महादेव"।

और इतने ही सच्ची और सार्थक सद्भावना के अनंत किस्से।

इनके ढोंग कौन समझ ले, कल तो रोहतक में सद्भावना रैली करते फिर रहे थे और आज खाप को भी जोड़ के वही हिंसा और मतभेद फैलाने के इनके काम। हमें क्या पड़ी किसी का विरोध करने की, अगर विरोध करवाने हैं तो देश से कानून बनवा लो, परन्तु हमें चैन से जीने दो।

वैसे भी हमें जिन चीजों के खत्म होने के या उनपे हमले होने के झांसे, भय अथवा डरावे दिखा के तुम इंस्टीगेट करना चाहते हो, यह डरावे उनको दिखाना जो ऐसी नौबत पड़ने पर, सलवार-कुरता पहन के ऐसे दुम-दबा के भागते हैं कि जैसे कुछ पल पहले कुछ था ही नहीं।

रहम करो! हमारी मानसिक शांति पर, हमें रोजगार और घर भी चलाने होते हैं। तुम तो छूटे लंगवाडे हो, तुम्हारा क्या जाता है। कसम से बाज जाओ, ना तो धर्म पे तो जब मुसीबत आवेगी तब आवेगी, उसतैं पहल्यां तुम ऐसी नौबत ना ला दियो कि देश में वैसे ही गृह-युद्ध छिड़ जाए।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 2 April 2016

खाप का चबूतरा शुद्ध रूप से गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी रहा है!

जहां तक मैंने खाप इतिहास को पढ़ा और जाना है उसमें कहीं भी एक भी अध्याय ऐसा नहीं आता जहां यह पढ़ा गया हो कि कभी साधु-बाबाओं ने किसी खाप के नेतृत्व में लड़ी लड़ाई का नेतृत्व या यहां तक कि मार्ग-दर्शन भी किया हो| लड़ाईयों के मौकों पर तो यह ऐसे गायब होते रहे हैं जैसे गधों के सर से सींग, कम से कम उत्तरी भारत का तो यही किस्सा है|

साथ ही इन साधु-बाबाओं की जमात ने धर्म-शास्त्र और मनचाहे वीर और सूरवीर तो घड़े और लिखे परन्तु इन्होनें कभी भी खाप की किसी भी लड़ाई और उस लड़ाई के यौद्धेयों बारे दो शब्द तक नहीं उकेरे| फिर चाहे वो 1398 में तैमूरलंग का मार-मार मुंह सुजा भगोड़ा बन देने का किस्सा हो| या 1620 में कलानौर की रियासत कैसे तोड़ी थी उसका किस्सा हो| या 1669 में औरंगजेब के जमाने में गॉड-गोकुला और इक्कीस खाप यौद्धेयों की बलि हो| या सन 1857 की लड़ाई में कैसे खापों ने ही दिल्ली की रक्षा की थी इसकी वीरगाथा हो|

और तो और इन्होनें हिन्दू धर्म रक्षक के नाम पर भले ही दूसरे धर्मों के सूरमाओं तक के नाम लिखने पड़े हों, परन्तु खाप का कोई कितना ही बड़ा सुरमा हो के चला गया, इनकी कलम से उसके लिए एक अक्षर तक नहीं टूटा|

इनका तो साया और कहना भी इतना मनहूस होता है कि इनकी मान के तो बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की राजनीति काल के ग्रास में समा गई थी| क्योंकि जब बाबा टिकैत का कद बढ़ता ही जा रहा था तो, अपनी रैलियों के मंचों से हर-हर महादेव और अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगवा के रैलियों का आगाज करने की अपनी शैली से मशहूर बाबा टिकैत को इन पाखंडियों ने कहा कि आप अपने मंच से "जय श्री राम" के नारे लगवाओ| और जिस दिन बाबा टिकैत ने ऐसा किया वो दिन उनके जलवे की प्राकाष्ठा का आखिरी था, उसके बाद बाबा टिकैत कभी उस रौशनी और देदीप्यमानिता को नहीं छू पाये| चाँद पे लगे ग्रहण भांति गहते ही चले गए|

खापों के इतिहास की न्याय-समीक्षा करता हूँ तो यह भी एक बहुत बड़ा पहलु है कि खापों के चबूतरों पर कभी किसी बाबा-मोड्डे को पंच बन के चढ़ने नहीं दिया गया| वजहें साफ़ थी और आज भी हैं| और इसी लिए खाप-चबूतरों पर बैठ के न्याय करते वक्त, भगमा नहीं अपितु सफेद या गोल्डन रंग की पगड़ी बाँध के बैठने की परम्परा रही है| क्योंकि भगमा रंग झूठ-फरेब और अत्याचार का प्रतीक माना गया है|

पता नहीं खाप वाले कितना तो पढ़ते हैं और कितना अपने ही इतिहास पे विवेचना करते हैं, परन्तु अब यह भी इन बाबाओं की बहकाई में ऐसे चढ़े हुए हैं कि बस क्या कहने| पहले 25 नवंबर 2014 को आर्ट ऑफ़ लाइफ वाले धोल-कपडीये ने जींद में खापों के साथ पंचायत करी तो नतीजा आपके सामने है| और अब फिर आज 3 अप्रैल को सुना है कि कई खापों के कम-से-कम दर्जन-भर चौधरी इस रोहतक वाले कार्यक्रम में सिरकत करने वाले हैं| कितने करेंगे और कितने नहीं, यह देखने वाली बात रहेगी|

मेरा मानना है कि खापों को सद्भावना की पुकार लगानी ही थी या है तो क्या आप लोग जाट-आंदोलन के बाद से अपनी सभी छोटी-बड़ी पंचायतों के जरिए यह कार्य पहले से ही नहीं कर रहे थे? और अगर बड़े स्तर का ही करना था तो आपका तो विश्व में सबसे बड़ा ऐतिहासिक चबूतरा है, सब मिलके कर लेते| और इन ढोंगियों-पाखंडियों व् राजनीतिज्ञों से रहित कार्यक्रम करते|

खैर देखें, यह पेंचे कब तक चलेंगे| मुझे डर है कि कहीं यह इतने लम्बे ना चल जाएँ, कि खापों की गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी छवि को ही लील जाएँ| कोई नी जिसको जिस रास्ते चलना है वो चले, मैं तो आज भी उसी राह पे चलूँगा जो मेरी दादी जी सिखा गई थी कि "पोता', मुडैड़ की पंचायत म्ह, बहरूपिये की हाँसी में और किराड़ के बहकावे में कभी मत चढियो|"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक