Tuesday 31 May 2016

जाट आरक्षण के मुद्दे पर फेसबुक पर एक मनुवादी से कुछ इस तरह हुई बहस!

मैंने नौकरियों के साथ मंदिर की कमाई में भी आरक्षण की बात कही, तो वो कैसे धरती भी बंटवाने की बात करने लगा और फिर कैसे मैंने उसको निरुत्तर किया, पढ़ें नीचे की चैट|

मनुवादी: न्यूं बता किस चीज की कमी है थारे धोरै? हरयाणा की या-ता करके धर दी थमनैं| थारे गेल न्यूं हो रह्या है अपनी लासी ने कोई खाटी नहीं बताया करदा| तो थम अपनी गलती तो मानो कोनी| हरयाणा का बेडा गर्क करके धर दिया तुमने| इब जदे किमें करते दिखो, थारे तो जूत मारे सरकार, जद बेरा लागे थामने| और रही दान-चंदे की बात इब हमें वो कोन्या रह रहे, हमनें भीख मांगन की आदत कोन्या, जदे हम इसके खिलाफ सां| ना तो आरक्षण माँगा हमने, अपने दम पर भरोसा है सरकारी ना सही, प्राइवेट सही|

मैं: तेरे दर्द से सहानुभूति है मुझे, परन्तु आरक्षण तो अब खत्म होवे कोनी| बल्कि अब तो मंदिरों की कमाई और नौकरियों में भी आरक्षण लेंगे; क्योंकि वो कोई तुम मामा के यहां से ना लाये, यह सारी पब्लिक की साझी प्रॉपर्टी हैं, सबके पैसे से बनी हुई| अत: इनकी कमाई भी सबकी होनी चाहिए|

मनुवादी: ठीक बात है, धरती भी बराबर बॉटनी चाहिए, के मामा के तें लयाए थे| बराबर के हक का हम भी स्वागत करेंगे, हिम्मत है तो बात कर|

मैं: ना मामा के तें तो नहीं ल्याए थे, हाड-तोड़ खून-पसीना बहा के हमारे बुजुर्गों ने जंगल-पत्थर तोड़ के समतल बनाई थी और उस जमाने में भी धरती के टैक्स (माल-दरखास) भरे थे जब लोग टैक्स से डर के धरती लेते भी नहीं थे| तो धरती में तुम किस मुंह से हिस्सा मांगोंगे? जाट ने सबसे ज्यादा और सबसे कटिबद्धता से मुग़ल-अंग्रेज और अब सबके जमानों में माल-दरखास भरी, तभी तो कहावत चली कि, "जमीन जट्ट दी माँ, हुंदी ए!" जाट भूखे सो जाया करते, पर माल-दरखास पुगाया करते|
और मंदिर में तो सब दान करते हैं, इसलिए मंदिर और इनकी कमाई बाई-डिफ़ॉल्ट पब्लिक की है|
और धरती भी तो जनसंख्या की डबल से भी ज्यादा है तुम्हारी बिरादरी के पास? तुम हरयाणा में जनसंख्या में तो सिर्फ 6-7% और जमीन तुम्हारे पास 18-20%, पहले यह तो सोच लिया है ना कि मंदिर की कमाई के साथ-साथ यह जनसंख्या से तीन-गुना ज्यादा जो जमीन लिए बैठे हो इसको भी बंटवाने को खुद तो तैयार हो ना?

मनुवादी: बात बराबरी की कर, हर जवाब बराबर का मिलेगा|

मैं: हाँ, बराबरी की मेहनत के हिसाब से और टैक्स किसने भरे उसके हिसाब से ही तो होगी? तुमने कौनसे मंदिर के टैक्स घर से भरे हैं, चंदे से भरे होते हैं वो? और कौनसे मंदिर सिर्फ तुम्हारी कमाई से बनाए तुमने, जनता के पैसे के बने हैं सारे|
जबकि जाटों ने धरती अपनी मेहनत अपने पैसे से बनाई या खरीदी है, जाट ने अकेले ने अपनी कमाई से टैक्स भरे हैं धरती के; मंदिरों की तरह कोई पब्लिक ने दान ना दिया धरती खरीदने के लिए| तो फिर किस हक़ से धरती लेगा या बंटवाएगा?

मनुवादी: तेरे जैसों को समाज तोड़ने के अलावा आता ही क्या है? घुमा फिरा के बात ना कर|

मैं: मैंने तो टू दी पॉइंट बात करी है, सुनके तुम घूम गए हो तो मैं क्या करूँ?

मनुवादी: इनबॉक्स में बात कर|

मैं: पब्लिक डिबेट है, पब्लिक में बोलो जो बोलना है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday 30 May 2016

मेरे सेक्युलरिज्म में और अंधभक्तों के सेक्युलरिज्म में अंतर है!

1) मैं सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, चौधरी देवीलाल, बाबा महेंद्र सिंह टिकैत वाले सेक्युलरिज्म का अनुयायी हूँ, जबकि अंधभक्त लाल कृष्ण अडवाणी, सुबर्मण्यम स्वामी, मुरलीमनोहर जोशी, बाल ठाकरे आदि वाले सेक्युलरिज्म के अनुयायी हैं|
2) मेरे सेक्युलरिज्म में आम से ले ख़ास आदमी तक हर कोई सेक्युलर हो सकता है, परन्तु अन्धभक्तमण्डली में सिर्फ इनके नेता सेक्युलर हो सकते हैं, यह खुद नहीं| उदाहरण के तौर पर लाल कृष्ण आडवाणी अपनी भती...जी मुस्लिम को ब्याह सकता है, सुबर्मण्यम स्वामी अपनी बेटी मुस्लिम को ब्याह सकता है; और इसके बावजूद भी यह इनके निर्विरोध नेता बने रह सकते हैं परन्तु इनके चेले-चपाटे नहीं|
3) मेरे सेक्युलरिज्म में सर छोटूराम मुस्लिम-सिख-हिन्दू के साथ मिलके ख़ुशी से सरकार बनाते हैं जबकि अंधभक्तों वाले सेक्युलरिज्म में यह मुस्लिमों संग सरकार बनाएंगे जरूर परन्तु मजबूरी का ढोंग जता के| जैसे श्यामाप्रसाद मुखर्जी बंगाल प्रान्त में मुस्लिम लीग के सहयोग से वहाँ के उप-मुख्यमंत्री रहे| अंग्रेजों को छह-छह माफीनामे लिख के देने वाले इनके तथाकथित वीर सावरकर की हिन्दू महासभा ने जब सिंध में मुस्लिम लीग के साथ मिलके सरकार बनाई तो राजनैतिक मजबूरी बताया| और अब महबूबा मुफ़्ती से जो इनकी मोहब्ब्त है वो तो जग जाहिर है ही|
4) मेरे जैसे सेक्युलर सबके ब्याह-शादी के रिवाजों को सही बताएँगे; परन्तु अंधभक्त दक्षिण भारत में हिन्दुओं के यहां ही बहन-बुआ की बेटी से ब्याह का रिवाज होने के बावजूद भी मुस्लिमों के यहां ऐसे रिवाज होने पर विरोध जताएंगे|
5) सर छोटूराम जैसे सेक्युलर, किसी दूसरे की राजनैतिक-सामाजिक स्वैच्छा पर कभी भी ऊँगली नहीं उठाएंगे, जबकि अंधभक्त खुद मुस्लिम लीग से मिलके सरकारें बनाने पर भी सर छोटूराम को "छोटुखां" कहने से बाज नहीं आएंगे|
6) मेरे जैसे सेक्युलर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की भांति एक ही स्टेज से "अल्लाह-हु-अकबर" और "हर-हर महादेव" के नारे लगवाएंगे और अंधभक्त पढ़े-लिखे हिन्दुओं को भी मुस्लिमों का डर दिखा के साम्प्रदायिकता बढ़ाएंगे|
7) मेरे जैसे सेक्युलर चौधरी चरण सिंह की भांति हिन्दू-मुस्लिम एकता की राजनीति चलाएंगे, अंधभक्त फिर भी खीज में उनको सिर्फ किसानों का या छोटी जाति का नेता बताएँगे|

बस और कितना गुणगान करूँ अंधभक्तों की माया का, इनको तो बस एक थ्योरी आती है कि जो कोई इनसे आगे बढ़ने लगे या इनसे ज्यादा पब्लिक फिगर बने, तो उल्टे-सीधे इल्जाम लगा के, उल्टे-सीधे बोल बोल के उसकी इमेज को धरासाई करने करने लग जाओ| कॉर्पोरेट और व्यापार जगत में एक वर्ड होता है "हेल्थी कम्पटीशन" यानि बिना दूसरे की इमेज को, ब्रांड को नुकसान किये, उसपे बिना कोई ऊँगली उठाये, अपना सामान बेचो; आपके प्रोडक्ट में क्वालिटी होगी तो मार्किट अपने आप पा लेगा| परन्तु राजनीति के क्षेत्र में अंधभक्तों का "हेल्थी कम्पटीशन" से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 29 May 2016

एक चुप सौ को हरावे; जाट अपने खौफ के इफ़ेक्ट और इम्पैक्ट को समझें और चुप रहें व् सरकार को अपना काम करने दें!

सरकार क्रॉस-रोड पर है| जाट आरक्षण पर हाईकोर्ट में स्टे अपेक्षित था, इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं आया है| सरकार ने कानून बना के दिया है, सरकार ही डिफेंड करेगी| इसलिए इस वक्त जाट समाज को चुप रह कर, कानूनी प्रक्रिया के पूरा होने तक का इंतज़ार करना चाहिए|

वैसे भी जिस प्रकार से जाटों द्वारा दोबारा से आंदोलन की घोषणा कर देने मात्र से ही सरकार के हाथ-पांव फूल गए हैं, यह साबित करता है कि सरकार खुद जल्दी से इस स्टे का निबटारा करवाना चाहेगी| हरयाणा के आधे के लगभग जिलों में रातों-रात आनन-फानन में RAF, CRPF, आर्मी की टुकड़ियां बुलवा लेना, यहां तक कि मूनक नहर पर भी RAF तैनात कर देना, सरकार के भीतर जाटों का खौफ दिखाता है|

इसका तीसरा पहलु भी गौर फरमाएं कि आखिर क्यों राजकुमार सैनी वाले कारतूस के फुस्स होने के बाद अब बब्बूगोस्से की शक्ल और हांडे से पेट वाले गुलगुले-पिलपिले से सूअर की तरह उठी ठोडी वाले करनाल के एम.पी. अश्वनी चोपड़ा से बार-बार उकसाऊ ब्यान दिलवाए जा रहे हैं? इशारा साफ़ है संघ और भाजपा हरयाणा में फिर से दंगे चाहते हैं, हमारे प्रदेश की शांति को खा जाना चाहते हैं| और इस बार इनकी योजना को बिना कोई रिएक्शन दिए फेल किया जाए तो इनका मनोबल, आत्मविश्वास तो टूटेगा ही साथ ही यह हीन-भावना और साइकोलॉजिकल प्रेशर में भी आ जायेंगे| और हर प्रकार की मार से यह मार कहीं ज्यादा बड़ी होती है|

चौथा पहलु यह भी समझें कि सरकार और हरयाणा पुलिस के डी.जी.पी. जाटों द्वारा दोबारा से आंदोलन की घोषणा मात्र से कितने असहाय दिख रहे हैं जो बयान दे रहे हैं कि उपद्रव-आगजनी और लूटपाट करने वाले को गोली मारने का जनता को कानून अधिकार देता है| मतलब साफ़ है यह लोग पहले ही हाथ खड़े कर गए हैं कि जाट दोबारा से चढ़ आये तो हमारी तरफ से सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं, अपनी रक्षा खुद कर लेना|

हरयाणा के डीजीपी साहब, आप यह कह के कि "उपद्रवी-दंगाई-आगजनी-लूटपाट करने वालों को जनता को गोली मारने का कानून हक देता है!" की बात कह कर ट्रेंड-कबूतर मंडली और राजकुमार सैनी की ब्रिगेड की हौंसला अफजाई कर रहे थे या जाटों को दंगाइयों (क्योंकि फरवरी में मुख्यत: दंगाई ट्रेंड-कबूतर और ब्रिगेड वाले ही थे) को गोली से उड़ाने की खुली छूट दे रहे थे? काश, डीजीपी साहब अपनी बात का इतना पक्ष भी स्पष्ट कर जाते तो मुझे समझने में और आसानी रहती|

खैर, मूल बात यही है कि जाट अगर इस खौफ से आगे खौफ दिखाएंगे तो डर में सरकार पागल भी हो सकती है और पागल हुआ इंसान हो, जानवर हो या सरकार वो पलटवार एक ही उद्देश्य मात्र से करते हैं और वह है स्व-अस्तित्व और इज्जत की रक्षा| इसलिए जाट पहले से इन्सटाल्ड अपने खौफ के इफ़ेक्ट और इम्पैक्ट को समझें और धैर्य धारें|

आपका इतना मात्र बोल देना कि फिर से आंदोलन करेंगे, सरकार पर वैसा ही असर कर रहा है जैसे आपके पुरखे "दादा ओडिन" उर्फ़ "शिवजी भगवान" जब तीसरी आँख खोल देते थे तो तब होता था| तो जब भृकुटि तानने मात्र से जहां काम बनता हो, वहाँ जेठ की लू-धूल में क्यों शरीर जलाओ, सड़कों पे जूती-चप्पल घिसाओ| बैठकों-चौपालों में शांति से टी.वी. लगा के आपके पक्ष के लिए कोर्टों में लड़ रही सरकार और वकीलों की कार्यवाही देखो और हुक्के की गुड़गुड़ाहट लेते रहो|

सरकार-पुलिस हाथ खड़े करें, या चौपड़ा जैसे चिकने बब्बूगोस्से अपने मुंह से गोस्से से फेंकें, इनको दरकिनार करते हुए जाट को समझदारी और सूझबूझ का परिचय देना होगा| और अपने पुरखों द्वारा जंगल-पत्थर-रेई-झाड़ साफ़ करके समतल बना, उपजाऊ बना इतनी हरी-भरी बनाई धरती कि जिससे इसका नाम ही हरयाणा पड़ा, को संजों के रखने की सबसे पहली जिम्मेदारी बड़ी संजीदगी से निभानी होगी|

वैसे भी और जैसे ऊपर कहा इस वक्त सरकार क्रॉस-रॉड पर खड़ी है, अपनी ऊर्जा, जनता का पैसा बेकार की उन चीजों पर खर्च कर रही है, जिसकी जनता इनसे उम्मीद भी नहीं करती| पठानकोठ में मात्र 2-3 दिन के ऑपरेशन का खर्च 400 करोड़ रूपये आया था तो सोचो 5 जून को आंदोलन होगा भी कि नहीं, फिर भी घोषणा मात्र से ही सरकार ने हर जिले में 4-4 फ़ोर्स की टुकड़ियों के हिसाब से 30-35 टुकड़ियां यानि करीब 3500 से ले 4000 सैनिक हरयाणा में बुला डाले हैं| तो ऐसे में सरकार खुद भी नहीं चाहेगी कि जनता के टैक्स का पैसा फ़ौज-फ़ोर्स को यहां डाले रखने में ज्याया करती रहे| अत: इस बार कोर्ट में जवाब देने की जल्दी जाट से ज्यादा सरकार को रहेगी|

बोलो "दादा ओडिन जी महाराज" उर्फ़ "भोले शंकर" की जय!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

यही इनकी ऊपरी सोच और उस सोच की पहुँच है बस!

धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला जाता है इन्हें! - Liveindiahindi.com
 
धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला जाता है इन्हें - See more at: http://liveindiahindi.com/Ancient-ritual-of-devdasi-in-india#sthash.ctzXyeXx.dpuf
देवदासी के नाम पर सिर्फ दलित-पिछड़ी लड़कियां ही क्यों; खुद की बहु-बेटियों को क्यों नहीं बैठा लेते मंदिरों में? और अगर ऐसा नहीं कर सकते तो कोई औचित्य नहीं इनको धर्मपुरुष और ऐसे तमाम अड्डों को मंदिर कहलाने कहने का|
 
धन्य हो कि उत्तरी भारत में जाट बसते हैं वर्ना यहां भी दिखा देता इनके द्वारा मंदिरों में बैठाई गई देवदासियां| इसीलिए तो यह जाट और खाप से सबसे ज्यादा खौफ और खार दोनों खाते हैं| क्योंकि जब तक जाट और खाप हैं इनके यह अव्वल दज्रे के अमानवीय मंसूबे जाटलैंड पर फल-फूल नहीं सकते|
 
कोई कितना ही इनके फेंकें "हिन्दू एकता और बराबरी" के दानों को चुग, ले परन्तु ऐ नादां पंछी इन्होनें तुझे इस चुग्गे के नाम पर इसी स्तर का गुलाम बना लेना है, जितना की दक्षिण भारत वाले इनके गुलाम हैं।
 
यह सरासर वो गुलामी है जिसको हिंदुस्तान मुग़लों और अंग्रेजों के आने से पहले लड़ रहा था; तब की अधूरी छूटी पड़ी इस लड़ाई को जितना जल्दी लड़ लिया जाए उतना भारत और मानवता के लिए बेहतर|
 
जाटों की जितनी भी औरतें धर्म-ढोंगी-पाखंडी बाबाओं के पीछे बावली हुई फिरती हैं, इनके पिताओं-पतियों-बेटों-भाईयों को चाहिए कि एक बार इनको उड़ीसा से ले के और सुदूर केरल तक फैली देवदासी और प्रथम-व्रजसला के मंदिर गर्भगृह में पुजारियों द्वारा सामूहिक भोग लगाने के रिवाजों को दिखा के लाएं|

शायद तब जा के इनको अहसास हो कि क्यों हमारे पुरखे पण्डे-पुजारियों-पाखण्डों से दूर रहते थे और रहने की कहते थे और इनको पास भी नहीं फटकने देते थे| मानो ना मानो इनको चाहे जितनी छूट दे लो, इनकी अंतिम मंजिल वही है जो दक्षिण भारत के मंदिरों में देवदासी और प्रथम-व्रजसला की परम्पराओं के नाम पर पाई जाती हैं|
 
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
 
Source:http://liveindiahindi.com/Ancient-ritual-of-devdasi-in-india

Saturday 28 May 2016

जाटो से अपील है कि बीजेपी-आरएसएस के साथ-साथ हरयाणा सरकार की मुसीबत और ना बढ़ायें!

निष्कर्ष: अभी वक्त तांडव का नहीं, अपितु तांडव करते रावण की घिस्स निकालने का है|

पहली तो बात मुझे यह ही समझ नहीं आया कि जब हरयाणा के डीजीपी साहब ने यह कहा कि "उपद्रवी-दंगाई-आगजनी-लूटपाट करने वालों को जनता को गोली मारने का कानून हक देता है!" की बात कह कर जनाब ट्रेंड-कबूतर मंडली और राजकुमार सैनी की ब्रिगेड की हौंसला अफजाई कर रहे थे या जाटों को दंगाइयों को गोली से उड़ाने की खुली छूट दे रहे थे? काश, डीजीपी साहब अपनी बात का इतना पक्ष भी स्पष्ट कर जाते तो मुझे समझने में और आसानी रहती| खैर, डीजीपी लेवल के अधिकारी की तरफ से इतना बौखलाहट भरा बयान मुझे परेशानी में डालता है कि अगर प्रदेश सरकार इतनी डरी हुई है तो आखिर किस से, ट्रेंड-कबूतरों और सैनी की ब्रिगेड से या जाटों से? जहां तक मेरा मानना है पुलिस के तो विचलित होने का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए| जाटों के मद्देनजर सोचूं तो मोटे तौर पर जो कारण समझ आते हैं वो इस प्रकार हो सकते हैं:

1) जब से बीजेपी की सरकार बनी थी, आरएसएस जाटों में बड़े जोर से पांव पसार रही थी| बॉर्डर पे फौजी ड्रेस में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली कौम में लाजिमी है कि इनके देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति जैसे शब्द जादू बिखेर रहे थे| मेरे पिता वाली पीढ़ी तक आरएसएस को मुंह भी ना लगाने वाले समाज की आज की युवा पीढ़ी वाले शाखाओं की तरफ बड़े आकर्षित भी हो चले थे| यहां तक कि इनका गाँव स्तर तक शाखाएं खोलने का विचार भी हो चला था| बेहिसाबा दान-चंदा-इज्जत सबकुछ दोनों हाथों बटौर रहे थे यह जाट समाज से| मतलब चांदी ही चांदी हो रखी थी|
अब ऐसे में बीच में जाट आंदोलन आ के इनके मंसूबों पर ग्रहण लगा जाए और इनको हरयाणा में सबसे ज्यादा फाइनेंस देने वाली कौम ही इनसे इनके ही अटूट जाट-प्रेम (जो इन्होनें फरवरी 2016 में जाटों पर जलियावाला बाग़ की भांति गोलियां बरसवा के दिखाया) के चलते इनसे छिंटक जाए तो चंदे-चढ़ावे पे लगी लात की वजह से इनको परेशानी तो होनी ही थी| अब भले ही कितने ही 35 बनाम 1, जाट बनाम नॉन-जाट खेल लेवें, उनसे इतना फाइनेंस थोड़े ही मिल पाता है बेचारों को जितना जाटों से एक ही कौम में मिल जाता था| तो वह सब खुद की ही घिनौनी हरकतों की वजह से छिन जाने की वजह से लगे हैं गीदड़ भभकियों से अपनी खीज मिटाने, कभी अश्वनी चोपड़ा को बोलते हैं कि जाटों को अकेला रह जाने का डर दिखा और कह कि "गैर-जाटो, जाटों के खिलाफ लामबंद हो जाओ!", और अबकी बार तो सीधा सरकारी अधिकारी यानि डीजीपी को भी लगा दिया डराने पे|

2) जाट के खिलाफ और जाट की आड़ में जिन भी जातियों ने जाट-आंदोलन के दौरान उपद्रव व् आगजनी की, जाट उनसे बहुत खफा बताये जा रहे हैं और बहुत से तो अभी भी उपद्रव मचाने वाली बिरादरियों की दुकानों की तरफ वापिस नहीं मुड़े हैं| अब ऐसे में यह लोग बैठे-बैठे या तो मक्खी मार रहे हैं या फिर इनके कारोबार मंदे चल रहे हैं| थोड़ा बहुत वापिस मुड़े थे परन्तु कभी आर्य, कभी सैनी, कभी चोपड़ा फिर से कोई जहर बुझा तीर छोड़ देते हैं और जाट फिर इनसे मुंह मोड़ लेता है| सब जानते हैं कि एक व्यापारी के लिए ग्राहक ही भगवान होता है, ना ग्राहक का कोई मजहब होता, ना जाति; परन्तु उसी ग्राहक के साथ जाति-जाति खेलोगे तो कैसे चलेगा? कोई यह चाहे कि भगवान् को गाली भी देते रहें और फिर भी भगवान उससे ही सामान खरीदते रहें तो दोनों चीजें थोड़े ही चलती हैं एक साथ|
तो भाड़े पे उपद्रवी हायर करने वालों की दूसरी खीज यह हो रखी है कि एक तरफ तो भाड़े पे उपद्रवी हायर करके जाटों से पंगा भी करवाया, ऊपर से वो ही जाट की आड़ में इनकी दुकानें लूट ले गए और इधर से जाट जैसा सबसे बड़ी कंस्यूमर पावर वाला ग्राहक खोते जा रहे हैं सो अलग| आम दिन तो आम दिन, तीज-त्यौहार तक फीके निकल रहे हैं|

3) एक तो जाट वैसे ही मंदिर कम जाता रहा है, ऊपर से जाट आंदोलन ने जाट की रुचि को ऐतिहासिक तरीके से न्यूनतम स्तर पर ला दिया है| इसलिए मंदिरों में भी चंदे-चढ़ावे में गिरावट आई है|

और ऐसे भाड़े पे उपद्रवी हायर करके समाज में आग लगवाने वालों की सबसे बड़ी कमजोरी यह भी है कि एक तो इनको गलती स्वीकारनी नहीं आती और गलती के लिए माफ़ी माँगना तो इनके डी.एन.ए. में ही नहीं है| यह जुड़े-जुड़ाए समाज को तोड़ तो सकते हैं, परन्तु जोड़ नहीं सकते| लेकिन अब इनकी मजबूरी हो चली, क्योंकि ऐसा साल-छह महीने और चला तो इनके घरों की अर्थव्यस्था और अधिक बीमार होती चली जाएगी|

तो ऐसे में इन्होनें जोड़ने-झुकाने का नया रास्ता निकाला है कि जाटों को अकेले पड़ जाने का भय दिखाओ, सीधा डीजीपी से ब्यान दिलवाओ| बस वही "मुल्ला की दौड़, मस्जिद तक" वाली कहानी है|

लेकिन इनको इतना तो समझना चाहिए कि जाट साक्षात् शिवजी होता है; जब तक सहेगा जहर सा पी के सहेगा परन्तु जब तांडव पे उतरेगा या नाराज होएगा तो आसानी से थोड़े ही मनेगा; रूठे शिवजी को तो पार्वती ना मना सकी, और यह चाहते हैं कि कभी चोपड़ा तो कभी डीजीपी की भभकियों के डर से ही जाट वापिस मुड़ आएं| मतलब गलती का अहसास है इनको, परन्तु आदत से मजबूर गलती माननी नहीं, बेशक फिर से वही डरावे-दबावे के कितने ही प्रपंच आजमाने पड़ जाएँ| आजमाओ परन्तु उन पर जिन पर यह चलें| जाट समाज को निजी तौर पर जानता हूँ, वो सीधी-सपाट बात से एक पल में मान जाए, परन्तु उसको घुमाया जाए तो वो घूमे ना घूमे परन्तु उसको घुमाने वाले जरूर घूम जाते हैं, और सरकार घूमी हुई है तभी तो डीजीपी स्तर तक के अफसर से ऐसे ब्यान दिलवा रही है जिनको भारतीय कानून ही मान्यता नहीं देता| अरे जिनके पुरखे शिवजी भगवान उर्फ़ दादा ओडिन को जंगलों-पहाड़ों का अकेलापन नहीं डरा सकता तुम उसको उसी की बसाई धरती पे अकेलेपन के डर से वापिस मोड़ लोगे, मुंह धो के आओ यार|

चलते-चलते जाट समाज से इतनी ही उम्मीद रखूँगा कि वो लोग आरक्षण की आगे की लड़ाई को रोड-सड़क की बजाये कोर्टों में लड़ें| बाकी यह लोग तो साल-छह महीने में वो हरयाणवी वाली कहावत के अनुसार अपने आप ही ब्या लेंगे, जब इनके बजट डगमगायेंगे| अभी वक्त तांडव का नहीं, अपितु तांडव करते रावण की घिस्स निकालने का है, इसलिए शांति धार के दादा ओडिन उर्फ़ बाबा शिवजी की भांति धूने में रम जाओ, कोर्टों में|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बावली हो गई है जाटोफोबिया की सताई हरयाणा सरकार और पुलिस!

क्या भाजपा और आरएसएस, देशद्रोह कानून का कुछ ज्यादा ही गैर-कानूनी प्रयोग नहीं कर रही है? जिसपे देखो उसपे लगा के खड़ी हो जाती है| अपने अधिकारों के लिए रैली-सभा करना, हड़ताल करना कबसे देशद्रोह में आने लगा? क्या यह लोग देशद्रोह कानून का मजाक नहीं बना रहे हैं| आखिर जो कानून देश के विरुद्ध आतंकी गतिविधियों, सविंधान-द्रोह, या जैसे कार्य राजकुमार सैनी, अश्वनी चोपड़ा और रोशन लाल आर्य ने बोल बोले हैं उन जैसी गतिविधियों के लिए होता है; इसको इन पर लगने की बजाए, सिर्फ अपने हक़ के लिए आंदोलन करने वाले नेताओं पर लगा के गलत राह पर नहीं जा रही है सरकार?

या तो यह अपने आपसे किसी को स्याना ही नहीं समझते, या उल-जुलूल तरीके "मैं ही ठीक हूँ" की जुबान में खुद को सबपे थोंपना चाहते हैं या फिर यह जाटों से हद से ज्यादा डरे हुए हैं कि जाटों ने फिर से अधिकारों के लिए आंदोलन की बात क्या कह दी, उठा के देशद्रोह ही लगा दिया| देशद्रोह का मुकदमा ना हो गया कोई बच्चों का खेल हो गया, जो राह चलतों पर भी लगा दिया जाए|

यह कोई बाल ठाकरे-राज ठाकरे की भांति भाषावाद-क्षेत्रवाद या सैनी-चोपड़ा-खट्टर-आर्य की भांति जातिवाद या आरएसएस की भांति धर्मवाद थोड़े ही फैला रहे हैं; सिर्फ अपने समुदाय के लिए हक़ ही तो मांग रहे हैं; तो इनपर देशद्रोह बन ही नहीं सकता|

मानता हूँ कि जाट आरक्षण मुद्दे पर अब कानूनी लड़ाई चलेगी, इसलिए जाट नेताओं को हाल-फिलहाल आनन-फानन में बड़े आंदोलन से बचना होगा, परन्तु उसको रोकने का यह तरीका कतई गैर-कानूनी है कि सीधा उठाओ और देशद्रोह ठोंक दो| इस मामले पे सलीके से लड़ने वाले वकील हों तो खुद ही कानून का दुरूपयोग करने के मामले में सरकार को कोर्ट में घसीट सकते हैं| और दावे से कहता हूँ सरकार औंधे मुंह की खायेगी कोर्ट में|
सरकार तो सरकार, इनके तो अफसर भी बौखलाए हुए हैं| हरयाणा के डीजीपी कहते हैं कि "गुनहगार को क़त्ल करना जनता का अधिकार है|" तो जनाब फिर आप पुलिस, कानून और कोर्ट क्या "डोके-धार" लेने के लिए बना रखे हो, या बालकों को खिलाने और दूध पिलाने के लिए बना रखे हो जो जनता को छूट दे रहे हो अपराधियों को मारने की?

लगता है सरकार, कानून, कोर्ट सब सठिया गए हैं जो ऐसे उल-जुलूल तरीके से व्यवहार कर रहे हैं या फिर जाटों से बहुत ही डरे हुए हैं जो इनको खुद में, देश के कानून में और कोर्ट में यकीन नहीं रहा या फिर खुद ही देश को गृहयुद्ध में झोंकने की ठान चुके हैं|

सब जानते हैं कि 5 जून को होने वाले आंदोलन का हरयाणा में जाट आंदोलन के स्टेटस से कोई लेना-देना नहीं, वह आंदोलन सेंट्रल रिजर्वेशन के लिए शुरू किया जाना था; वो तो संयोग की बात है कि कोर्ट ने उसी वक्त स्टेट में स्टे दे दिया| कोर्ट ने स्टे क्या दे दिया हरयाणा सरकार और पुलिस सबके हाथ-पाँव फूल गए और सीधा उठा के लगा दिया देशद्रोह| भैया आपसे सरकार नहीं सम्भलती या नहीं चलानी आती तो और कुशल बहुतेरे हैं, रास्ता छोड़ें और घर आराम फरमाएं| सीरियस बात यही है सरकार जी और डीजीपी जी कि इतने उतावले ना होवें कि देश के कानूनों का आपसे ही दुरूपयोग हो जाए और कोर्ट में जवाब देना भारी हो जाए|

वैसे मैं कोई नेता-लीडर नहीं, परन्तु निजी राय में यही मानता हूँ कि जेठ की गर्मी में जाटों को घर में आराम करना चाहिए, और कानूनी लड़ाई से चीजें आगे बढ़ने देनी चाहिए| यह कानूनी अड़चनें तो पहले से अपेक्षित थी, इसके लिए लड़ाई कोर्ट में लड़ी जाएगी, सड़क पे नहीं|

हाँ, कोई जाट, जाट-समूह, जबरजसतम (जाट-बिश्नोई-रोड-जाट सिख-त्यागी-मुला जाट) समाजों का समूह भिवानी वाले मुरारी लाल गुप्ता जिनकी PIL की वजह से स्टे लगा है, उनकी बिरादरी के आर्थिक आधारित आरक्षण पर भी रोक बारे PIL डाल दे तो बात बने| परन्तु हाँ किसी भी सूरत में एससी/एसटी/ओबीसी आरक्षण को रोकने बारे PIL डालने की गलती नहीं होनी चाहिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 27 May 2016

जाटों के ओरिजिन की स्कैंडिनेवियन थ्योरी, जाट राजा 'ओडिन - दी वांडरर' और जाट आराध्य शिवजी!

निष्कर्ष: जाट राजा 'ओडिन - दी वांडरर' ही 'शिवजी' हैं।

जाट इतिहास की स्कैंडिनेवियन थ्योरी में जाटों के प्रतापी राजा हुए हैं "ओडिन दी वांडरर", इनका हुलिया हूबहू शिवजी के प्रारूप का है| शिवजी वास्तव में हुए हैं जरूर, परन्तु शिवजी के नाम से नहीं "ओडिन दी वांडरर" के नाम से। अत: जाट को शिवजी की आराधना करते वक्त यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि शिवजी माइथोलॉजी वाले काल्पनिक चरित्र नहीं अपितु यथार्थ में धरती पर होकर गए जाट राजा "ओडिन दी वांडरर" हैं।

आप राजा ओडिन दी वांडरर की जीवनी पढ़ेंगे तो हूबहू वही त्याग, क्रोध और तांडव भरी लीलाओं (परन्तु वास्तविक लीलाओं) से परिपूर्ण मिलेगी जैसे माइथोलॉजी बताई गई है|

अब ज्ञानी बहुतेरे की तर्ज पर आकर कहेंगे कि उस युग में स्कैंडेनेविया कौन पहुँच गया, ओडिन दी वांडरर के चरित्र को कॉपी-पेस्ट करने? तो इसका तो जवाब यही है कि जिनकी पुस्तकों में पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, सूर्य-चन्द्रमा जिनकी पहुँच में रहे हों, पाताललोक-भूलोक-स्वर्गलोक जिनकी लेखनी के गुलाम रहे हों, तो उनके लिए स्कैंडेनेविया तक पहुंचना कौनसी बड़ी बात रही होगी?

विशेष: मैंने यह पोस्ट किसी का मजाक उड़ाने के लिए नहीं लिखी है, काफी समानताएं इन दोनों चरित्रों में मिली हैं तभी इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। बेशक कोई ज्ञानी-ध्यानी इस विषय पर डिबेट करना चाहे तो मैं उसका स्वागत करूँगा।

जय यौद्धेय! -फूल मलिक

References:

1) Odin/ओडिन/ओदन/उदन/आप/समुद्र/सोम ये सभी शिव के नाम हैं जिनका उल्लेख वेदों में इन्ही नामो के रुप में मिलता हैl पाणिनी ने आप को स्पष्ट रुप से जाट कहा हैl अथर्व वेद (16.1.6) आप को शिव कहा गया हैl

2) स्कैन्डिनेविया का पुरातन नाम स्कन्दनाम है जिसका नामकरण प्रथम जाट सेनापति स्कन्द/कुमार कार्तिकेय/ ब्रह्मण्य/ ऋत/वरुण के नाम पर हुआ इसी को वेदों में नार्वा (न अर्वा) भी कहा गया हैl

3) जाट इतिहास, लेखक ठा० देशराज ने पृ० 178-179 पर लिखा है कि “जाट लोगों ने स्केण्डेनेविया में ईसा से 500 वर्ष पहले प्रवेश किया था। उनके नेता (देवता) का नाम ओडिन था। वहां के प्रसिद्ध इतिहासकार मि० जन्सटर्न स्वयं अपने को ओडियन की सन्तान मानते हैं।”
4) ओडिन जाट जाटो के देवता है वो एक बंजारे की तरह घूमना पसन्द करते है वो एक राजा हैं जिन्हें युद्ध, सुरक्षा और ज्ञान का देवता भी माना जाता है। अपने जीवन मे इन्होंने अत्यधिक लड़ाईया लड़ी जिन्होंने उन्हें लड़ाई का देवता बना दिया। ओडिन ने अपनी आँख देकर ज्ञान की प्राप्ति की थी। इस विषय मे ये भी कहा जाता है की "Odin gave his eyes to gain knowledge and you should be willing to give a lot more". Odin has 4 sons , Mainly Thor (The God of lighting, war safety, thunder and rain) , Baldar, Vanil and vadir. Tyr is also considered his son. Baldar was killed by Loki (A god but full of faults and misdeeds who also pours his misdeeds on us for good cause/he believes in doing no matter whether the path is right or wrong). According to the Old Jat Religion , Odin is still the king of Asgard. ओडिन को असगार्ड का राजा माना जाता है जिसमे एक विशेष होल (Valhalla) है जहां सिर्फ बहादुर वीरो को ही प्रवेश दिया जाता है। 300 soliders lift the doors of Valhalla and only those who died fighting get inside and get to drink with Odin. A cowards act will close the doors of Valhalla forever for someone. According to the old Religion, The Gods( Odin thor hel frey frej Tyr loki vadir helminder etc etc) are not full of virtue or all good. they have faults and will end one day in order to start over again. The old Religion forces that the Gods are always among us and there is no separate world, its all part of one big universe where Gods and men live together. main point that we are always in the presence of the Gods. Odin is also one of the most wise in the world. he is full of knowledge and courage. Odin is also known as the oldest of the Gods and called God of The Gods or forefather of the all.

Tuesday 24 May 2016

जाट गजट---2 जनवरी 1926

ऐ किसान मजदूर अब तक तुझे सब्र और संतोष का पाठ पढाया गया है, मै तुझे अंसतोष का पाठ पठाना चाहता हूं, गलत मार्गदर्शकों ने तुझे खामोशी सिखायी, मै तुझे शोर व संघर्ष की शिक्षा देना चाहता हूं, सब्र व संतोष तो पुरूषार्थ का शत्रु है, शांति तो मृत्यू का दुसरा नाम है, शांति का जादू तोड दे सिर से पैर तक आवाज बन जा, अपनी आवाज उठा अपने अन्दर नदियों का शोर पैदा कर, समुद्र का जोश दिखा, शेर की दहाड़ सीख, ऊंची नजर रख, आसमान से बुंलद हौसले रख|

ऐ मजदूर और किसान मै तुझे पुरा राजा देखना चाहता हूं, इसलिए गुलामी की मानसिकता निकाल फेक, तेरे को अनुचित विनम्रता, अनुचित सहनशिलता, बेवजह संतोष की शिक्षा ने कमजोर बना दिया, उत्साहीन(बिना जोश का) बना दिया, इसलिए ऐ शोषित वर्ग मैं कहता हूं गुलाम ना बन मालिक बन, बंदा ना बन स्वामी बन, खादिम ना बन मखदूम बन, मालिक बन, ऊंचे आदर्श सामने रख, यदि तेरी नजर तेरी सोच छोटी है तू दूर तक देख नही सकता सोच नही सकता तो तू क्या खाक तरक्की करेगा, अपने लुटने पिटने पर चुप रहेगा अपनी कमजोरी को कायरता को सब्र संतोष का नाम देगा तो क्या खाक ऊपर उठेगा, कीडे-मकोडो की तरह खाकनशीं ना बन,
आजाद पंछी की तरह हवा में उडान भरना सीख, शांति, सब्र, संतोष को प्रणाम करके विदा कर दे, अपनी ऊंची उड़ान को पहचान, तुने कभी ऊंचाई के आंनद से अपने दिल का परिचय कराया ही नही, लेकिन मै ये तेरा परिचय कराकर ही दम लूंगा, तुझे मैं तो कम से कम मिट्टी में पडा हुआ देख नही सकता,


यहीं आईने कुदरत है, यहीं असलूबे फितरत है,
जो हैं राहे अमल पर, गाम जन महबूबे फितरत है,
 

अर्थात:- प्रकृति का यही विधान है, और यही प्रकृति का तरीका हैं,जो पुरषार्थ करता है वही प्रकृति का प्यारा होता है,
 

ऐ किसान चौकस होकर रह, चौकन्ना बन, होशियारी से काम ले, ये दुनिया ठंगो की बस्ती है, और तू हर दिन हर रोज ही ठंगा जाता है, कोई तूझे पीर बनकर लूटता है, कोई पुरोहित बनकर लुटता है, कोई शाह बनकर तुझे लुटता है, तो कोई ब्याज से, तो कोई आढत की आड़ में तुझे ठगता है, इनसे बच,अपनी आवाज उठा,चुप ना रह,
आवाज बुलंद कर, लट्ठ उठा, और करम युद्ध में कूद पड़, और तुझे लूटने वाले तेरे दुश्मन के छक्के छुड़ा दे,
अब तू अपनी कमजोरी को शांति,सब्र,संतोष, में छुपाना छोड दे, खुद को मजबूत बना, और मैं तुझे मजबूत बनाकर ही दम लूंगा,


 अपका विनित अपका प्यारा-छोटूराम,

Sunday 22 May 2016

जाटों को राजपूतों और ब्राह्मणों से सीखना चाहिए कि आपके पुरखे हारे हुए हों या जीते हुए, उनका मान-सम्मान कैसे बरकरार रखना होता है!


एक ऐसा राजा जो मेवाड़ से बाहर नहीं लड़ा कभी, दूसरे राज्य जोड़ के अपने राज्य का विस्तार करना तो दूर, खुद के राज्य को ही जो नहीं बचा पाया था; उसके बावजूद भी उसको राष्ट्रीय स्तर का हीरो कैसे बनाते हैं, यह जाटों को राजपूतों और ब्राह्मणों से सीखना चाहिए। सोच के देखो इनके पास जाटों जैसे मुग़लों और अंग्रेजों को बार-बार हराने वाले सूरमे होते तो यह लोग उनको किस स्तर की ऊंचाई पर ले जा के बैठा देते?

अब इनके इसलिए कहा क्योंकि ब्राह्मण या राजपूत जाट को अपना मानते तो जाटों के यहां हुए प्रतापी राजा-महाराजा का भी यह यशोगान करवाते, अब यह नहीं करवा रहे तो खुद तो करना पड़ेगा ना भाई|

राजपूत और ब्राह्मण इसको व्यंग ना समझें, मैं महाराणा प्रताप और उनके प्रति आपकी अटूट श्रद्धा का आदर करता हूँ, और आपके इस उदाहरण को जाट कौम में एक संदेश देने मात्र को प्रयोग कर रहा हूँ।

तो मैं कह रहा था कि इनसे ऐसा इसलिए नहीं सीखना चाहिए कि जाट भी इनकी भांति किसी ऐसे ही हारे हुए, अपने राज्य से बाहर तो दूर, जो कभी अपने राज्य को भी नहीं बचा पाया; जाटों के किन्हीं ऐसे ही राजाओं को जाट हीरो बना दें; नहीं। परन्तु हमारे हारे हुओं को भी ऐसे ही सम्मान देते हुए जैसे यह दे रहे हैं, कम से कम महाराजा जवाहर सिंह, महाराजा सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह (पंजाब और भरतपुर दोनों वाले), राजा नाहर सिंह, महारानी किशोरी देवी, महाराजा हर्षवर्धन, राजा पीटर प्रताप उर्फ़ महेंद्र प्रताप जैसे देदीप्यमान सूरमाओं को तो उन ऊँचाइयों व् आदर्शों पर स्थापित करें कि जनता को यह ना लगे कि उन्होंने सिर्फ हारे हुओं से सहानुभूति रखते हुए सिर्फ उनको ही हीरो बन दिया वरन उनको हीरो बनाया जिन्होनें वास्तव में मुग़लों और अँग्रेजों से ऐसे युद्ध लड़े जिनमें वो अजेय रहे।

जहाँ तक मैंने दुनियाँ का इतिहास जाना है, उसमें पाया है कि जाट ही एक ऐसी जमात है जिसके यहां राजाओं के साथ-साथ खाप यौद्धेय भी उतने ही धुरंधर हुए हैं जितने कि राजा या महाराजा। उदाहरण के तौर पर "गॉड गोकुला", "दादावीर जाटवान गठवाला जी", "दादावीर हरवीर सिंह गुलिया जी", "दादावीर रामलाल खोखर जी", "दादावीर भूरा सिंह व् निंगाहिया सिंह जी", "दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी", "दादीराणी भागीरथी महाराणी जी", "दादीराणी भंवरकोर महाराणी जी", "दादीराणी समाकौर महाराणी जी" आदि-आदि जैसे ऐसे धुरंधर हुए जिन्होनें उनको मारा जिनको राजपूत और ब्राह्मण मिलके भी नहीं मार सके।

लेकिन जाट इनको राष्ट्रीय स्तर तक प्रमोट क्यों नहीं कर पाते; वजहें यह हैं:

1) ब्राह्मण को दान देंगे, परन्तु उससे यह सुनिश्चित नहीं करवाएंगे कि वो इस दान का एक निश्चित हिस्सा जाट इतिहास लिखने और जाट महापुरुषों को प्रोमोट करने में लगाएंगे। जबकि इस बिना हिसाब किताब के दान से ही यह लोग जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े रचते हैं, और जाट फिर भी परोक्ष रूप से जाट के ही खिलाफ इनके इन अजेंडों को फाइनेंस करते रहते हैं।

2) थोड़ा सा जनसमर्थन मिलना शुरू हुआ नहीं और जाट लग जाता है स्व-महिमामंडन में। अपने पुरखों और इतिहास के लिए कुछ करूँगा कुछ करूँगा की मन में रहती तो है, परन्तु तब तक मौका हाथ से जा चुका होता है।

3) ब्राह्मण की तरह यह सोच नहीं ले के चलता जाट कि तू कांग्रेस में रह, इनेलो में रह, भाजपा में रह, रालोद में रह, बसपा में रह या लेफ्ट में रह; परन्तु रह टॉप में और अपनी कौम के हित को सर्वोपरि रख, और इस तरीके से रख कि किसी को भनक भी ना हो।

यह तीन बिंदु जिस दिन जाट ने ठीक कर लिए, उस दिन हर गली-चौराहे पर असली युद्ध विजेताओं की मूर्तियां होंगी, सहानुभूतिवश सिर्फ उनकी नहीं जिन्होनें दुश्मनों का विरोध मात्र किया हो। मैं यह नहीं कहता कि विरोध करने वाला महान नहीं होता, परन्तु विजेता तो विजेता होता है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अश्वनी चोपड़ा, एम.पी. करनाल भी चले राजकुमार सैनी की राह पर!

चलो अच्छा हुआ राजकुमार सैनी जैसों को जाट बनाम नॉन-जाट की ढाल बना के डेड-सयानों की भांति पर्दे के पीछे रह, हरयाणा को जलाने वाले, अब एक-एक करके खुद ही सामने आ रहे हैं| चूहे-सियार धीरे-धीरे बिलों से बाहर तो निकलने लगे हैं; जरूर पानी घुसा होगा इनके बिलों में| यानि अब यह पैंतरे और हथियारों से खाली हो चुके हैं, इसलिए मिमियाने लगे हैं| कोई बात नहीं अश्वनी चोपड़ा बाबू, अभी तो आप बोले हो, जाट को तो सैनी और आप के भी ऊपर वाले आका को मिमियाना है| सलफता है यह जाट की कि सैनी के ऊपर वाले लेवल यानि आपके दोगले चेहरे को खुद आपकी ही जुबानी विस्फोटित करने में जाट सफल हुए, परन्तु अभी असली आका को भी बोलना है|

पाठकों की जानकारी के लिए बता दूँ कि इन जनाब का आज अमर उजाला में बयान आया है कि नॉन-जाट सारे एक हो जाओ, वर्ना जाट तुम्हें खा जायेंगे|

तो मैं कह रहा था कि आपकी हमें चिंता नहीं, आपके तो खानदान की ही यह लाइन है| अहसान-फरामोस खानदान है आपका| वैसे जाट किसी पर प्रश्न नहीं उठाते परन्तु जब आप आगे आकर खुद ही मौका दे रहे हों तो आप जैसों के खानदानों के किस्से उघाड़ने हेतु ऐसे मौके छोड़ने भी नहीं चाहिए| वैसे मेरे जैसे लेखक भी पिछले डेड साल से सिर्फ सैनी, आर्य और खट्टर पर लिखते-लिखते ऊब गए थे; अब आप आये हो तो कलम को नई ऊर्जा और जोश मिला है, स्वागत है आपका|

चोपड़ा बाबू, जनता इतनी नादां भी नहीं कि यह ना समझे कि दबाने-लूटने-डराने-छलने के काम धर्मकर्म के नाम पर दान-दक्षिणा लेने वाले या आपके जैसे सेठ-साहुकार किया करते हैं; वो जाट किसान नहीं जो अन्न पैदा करके देश का पेट भरते हों, सीमा पे गोली खा के देश की रक्षा करते हों, खेड़े पे आये को अपने यहां पनाह देते हों|
वैसे आपसे दो टूक कहो या दो हरफी लहजे में पूछना चाहता हूँ कि आप जैसी बोली और षड्यंत्र आज रच रहे हो, आपके पुरखे इन्हीं के चलते पाकिस्तान से पिट के 1947 में हरयाणा-पंजाब-हिमाचल-दिल्ली आये| पंजाब में भी आपके पुरखों ने यही खेल-खेला तो वहाँ से मार-मार के खदेड़े गए तो भी 1947 के बाद 1986 से 1992 तक इस जाट-बाहुल्य हरयाणा ने ही आपको फिर से पनाह दी| पाठकों को सनद रहे कि 1984 में पंजाब के आतंकवाद के चलते वहाँ से 5% हिन्दुओं का पलायन (1991 की जनगणना के अनुसार) हुआ था, और वह 5% के 100% सिर्फ इन महाशय का समुदाय था| तो यह इतने समाज हितकारी हैं तो क्यों सारे हिन्दुओं में से सिर्फ इनको ही पंजाब से खदेड़ा गया, यह सवाल इनसे पूछा जाना चाहिए|

और अब यहां दो रोटी खाने का इनका ब्योंत हुआ तो फिर वही रंग दिखाने शुरू कर दिए? मतलब ढाक के तीन पात, चौथ होने को ना जाने को? हरयाणा से भी जी भर गया क्या चौपड़ा बाबू? या मध्यप्रदेश या दक्षिण भारत की तरफ कहीं कोई नया ठिकाना ढूंढ लिया जो शुरू हो गए हो दूसरा राजकुमार सैनी बन समाज में आतंक और अराजकता फैलाने पे?

जो भी है परन्तु एक बात याद रखना, जितना भोला और मासूम बनके आप जनता के बीच बोलते हो ना, इतनी भोली रेपुटेशन ना है आपकी| जाट नॉन-जाट सब वाकिफ हैं आपके और आपके पुरखों के कुकर्मों से| सो वो डेड सयानी वाली भाषा ना बोलो, क्योंकि डेड-स्याणी बोलने वाली अनंतकाल से दो बार पोती आई है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 20 May 2016

जरा उस आपकी अदालत में दहाड़ने वाले तथाकथित राष्ट्रवादी को उसके घर का सेक्युलरिज्म भी दिखा दो कोई!

अंधभक्तो, आपके आका की बेटी तो आराम से मुशायरा तक करती है, फिर आपको इस्लाम की बात क्यों अखरती है?
इधर उसकी "बेगम सुहासिनी हैदर अली" नाम की बेटी इस्लाम को सजदा और ताकीद करती है!
उधर बेटी ही नहीं उतरी शीशी में जिसकी, वो बेटी-ए-बाप-सुब्रमण्यम भवामी अंधभक्तों की बोतलें भरे फिरता है|
अंधभक्तो, सवाल यह नहीं कि बाप हिंदुत्व का कट्टर और बेटी इस्लाम की कट्टर क्यों है?
सवाल सिर्फ इतना है कि जब इनके खुद के घरों में पलता है सेक्युलरिज्म इतनी इबादत से, तो तुम्हें सेक्युलरिज्म से उतनी ही नफरत क्यों हैं?
या यह तुम्हें नफरत क्यों सिखाते हैं, जबकि इनके घरों में तो मुस्लिम दामाद तक सजदा पाते हैं?
या तो कह दो सुब्रमण्यम भवामी को कि बेटी का विरोध-ए-वैचारिक मात्र ही बीच महफ़िल कर दे,
वर्ना समेट ले अपनी पोथी-पंडोकली छोड़ के पैंडा हमारा, और जिंदगी से उसकी तुम को भी बेदखल कर दे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
1) Watch Suhasini Haidar doing mushayra and praising islam in this video: https://www.youtube.com/watch?v=yq1DTEn4NjE
2) http://www.kohraam.com/viral-videos/suhasni-haider-on-islam-news-fake-video-61087.html

Thursday 19 May 2016

अंग्रेजी राज, सर्वखाप पंचायत और 1857!


23 अप्रैल 1857 को मेरठ छावनी में सैनिक विद्रोह हुआ और 10 मई 1857 को सर्वखाप पंचायत के वीरों ने अंग्रेजों को गोली से उड़ा दिया. 11 मई 1857 को चौरासी खाप तोमर के चौधरी शाहमल गाँव बिजरोल (बागपत) के नेतृत्व में पंचायती सेना के 5000 मल्ल योद्धाओं ने दिल्ली पर आक्रमण किया। शामली के मोहर सिंह ने आस-पास के क्षेत्रों पर काबिज अंग्रेजों को ख़त्म कर दिया. सर्वखाप पंचायत ने चौधरी शाहमल और मोहर सिंह की सहायता के लिए जनता से अपील की. इस जन समर्थन से मोहर सिंह ने शामली, थाना भवन, पड़ासौली को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया गया। बनत के जंगलों में पंचायती सेना और हथियार बंद अंग्रेजी सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मोहर सिंह वीर गति को प्राप्त हुए परन्तु अंग्रेज एक भी नहीं बचा। चौहानों, पंवारों और तोमरों ने रमाला छावनी का नामोनिशान मिटा दिया. सर्वखाप पंचायत के मल्ल योद्धाओं ने अंततः दिल्ली से अंग्रेजी राज ख़त्म कर बहादुर शाह को दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया. 30 और 31 मई 1857 को मारे गए कुछ अंग्रेज सिपाहियों और अधिकारीयों की कब्रें गाजियाबाद जिले में मेरठ मार्ग पर हिंडोन नदी के तट पर देखी जा सकती हैं।

जुलाई 1857 में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के लिए अंग्रेजी सेना संकल्पबद्ध हुई पर लगभग 7 हजार सैनिकों सशस्त्र किसानों व जमींदारों ने डटकर मुकाबला किया। शाहमल के भतीजे भगत के हमले से बाल-बाल बचकर सेना का नेतृत्व कर रहा अंगेज अफसर डनलप भाग खड़ा हुआ और भगत ने उसे बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली किसान मौजूद थे। गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में विशेष महारत हासिल करने वाले शाहमल और उनके अनुयायियों का बड़ौत के दक्षिण के एक बाग में खाकी रिसाला से आमने सामने घमासान युद्ध हुआ।

डनलप शाहमल के भतीजे भगता के हाथों से बाल-बाल बचकर भागा. परन्तु शाहमल जो अपने घोडे पर एक अंग रक्षक के साथ लड़ रहा था, फिरंगियों के बीच घिर गया। उसने अपनी तलवार के वो करतब दिखाए कि फिरंगी दंग रह गए। तलवार के गिर जाने पर शाहमल अपने भाले से दुश्मनों पर वार करता रहा. इस दौर में उसकी पगड़ी खुल गई और घोडे के पैरों में फंस गई। जिसका फायदा उठाकर एक फिरंगी सवार ने उसे घोड़े से गिरा दिया. अंग्रेज अफसर पारकर, जो शाहमल को पहचानता था, ने शाहमल के शरीर के टुकडे-टुकडे करवा दिए और उसका सर काट कर एक भाले के ऊपर टंगवा दिया.

बाद में अंग्रेज पुनः सत्ता पर काबिज हुए तथा उन्होंने भारी दमन चक्र चलाया। सर्वखाप पंचायत फिर से निष्क्रिय हो गई। मुस्लिम काल में सर्वखाप पंचायत ने अनेक-उतर चढाव देखे परन्तु अंग्रेज बड़े चालक थे उन्होंने सर्वखाप पंचायत की जड़ों पर प्रहार किया। विशाल हरियाणा को उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश आदि प्रान्तों में विभाजित कर दिया. अंग्रेज सरकार में लार्ड मैकाले ने सर्वखाप पंचायत पर रोक लगादी थी। फलस्वरूप 1947 तक खुले रूप में पंचायत का आयोजन नहीं हो सका.

सन 1924 में बैसाखी अमावस्या को सोरम गाँव में सर्वखाप की पंचायत हुई थी जिसमें सोरम के चौधरी कबूल सिंह को सर्वखाप पंचायत का सर्वसम्मति से महामंत्री नियुक्त किया था। वे इस संगठन के 28 वें महामंत्री बताये जाते हैं। इनके पास सम्राट हर्षवर्धन से लेकर स्वाधीन भारत तक का सर्वखाप पंचायत का सम्पूर्ण रिकार्ड उपलब्ध है जिसकी सुरक्षा करना पंचायती पहरेदारों की जिम्मेदारी है। इस रिकार्ड को बचाए रखने के लिए पंचायती सेना ने बड़ा खून बहाया है।

जाट-दलित को अपना न्यूनतम साझा समझौता बना के मनुवाद के खिलाफ एकजुट होना होगा!

मनुवादियों द्वारा जनमानस को गुलाम बनाने की विधि को आजतक दो ही जनसमूह समझ पाने के साथ-साथ मुंहतोड़ जवाब दे पाये हैं, एक अंग्रेज और दूसरे जाट| इसीलिए जब हम इतिहास उठा के देखते हैं तो यह दोनों ही मनुवाद के सबसे तगड़े निशाने पे रहे| अंग्रेज तो चले गए परन्तु जाट आज भी इनके निशाने पे है और इस हद तक निशाने पर है कि अंग्रेजों के बाद अब जाट को भी यह भारत से गायब कर दें, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं| अंग्रेजों के जाते ही इनके जाट को कुचलने के षड्यंत्र के पदचिन्ह हम तब से ले के आजतक ट्रेस कर सकते हैं| यह एक बड़े ही सुनियोजित तरीके से पहले जाट की छवि धूमिल करते हुए, फिर जाट की सभ्यता-संस्कृति जिसको "जाटू सभ्यता" कहा जाता रहा है को मद्धम करके, अब राजनीति-खेल हर जगह जाटों को ठिकाने लगाने पे आमादा हैं|

भला हो फरवरी 2016 के जाट आंदोलन का जिसने जाट की तुंगभद्रा तोड़ी और जाट कुछ सम्भला| और इस प्रकार आज़ादी के बाद से लगातार जारी इनके जाट विरोधी षड्यंत्रों का भांडाफोड़ भी हुआ और इनके अजेंडे को "सौ सुनार की एक लौहार की" तर्ज पे धक्का भी लगा| परन्तु इस तुंगभद्रा के दौर में यह इस हद तक जाट की छवि का नुकसान कर चुके हैं कि जाट अपनी सभ्यता तक को अपनी कहने से कतराता है और शहरी जाट तो सार्वजनिक स्थलों पर हरयाणवी बोलने या खुद को हरयाणवी कहने तक की हिम्मत नहीं कर पाता| वैसे खुद को हरयाणवी कहने में तो जाट क्या, हर मूल-हरयाणवी कतरा रहा है, इस स्तर तक की हवा खराब करके रख दी है इन्होनें हरयाणवी की| अब जब तक जाट इनसे सीधे-सीधे बात या दो-दो हाथ नहीं करता, यह यूँ ही करते रहेंगे|

इनके षड्यंत्रों को समझने की कूबत तो दलित में भी रही है बल्कि आज के दिन तो जाट से ज्यादा दलित में हो चली है| परन्तु जाट के तरीके का मुखर विरोध और इनसे निजात दलित नहीं पा सके, जो इतिहास में जाट ने समय-समय पर इनसे पाई है| जाट ने तो इनको "जाट जी" कहने तक पर लाया हुआ है इतिहास में, परन्तु अब जाट उसी "जाट जी" के चक्कर से नहीं निकल पा रहा| जाट-दलित शक्तियां दोनों अपना एक न्यूनतम साझा समझौता बना के, मनुवाद के खिलाफ एक जुट हो जाएँ, तो मनुवाद को खत्म होते देर नहीं लगेगी|
कहने को तो हरयाणा वो स्थली है जो देश को सबसे ज्यादा सैनिक और अन्न देती है; मातृभूमि के प्यार और कटटरता के लिए जानी जाती है| परन्तु जब हम संस्कृति-भाषा-बोली से प्यार और सम्मान के पहलु पर बात करते हैं तो मेरे ख्याल से पूरी दुनिया में हम हरयाणवी ही एक ऐसा अपवाद मिलेंगे, जिनकी धरती पर आकर कॉर्पोरेट सेक्टर में बैठ गैर-हरयाणवी ह्यूमन रिसोर्स वाले यह रिसर्च करवाते हैं कि हरयाणवी बोलने वालों को नौकरियां मत दो| और यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि जाट और दलित की मनुवाद के खिलाफ लड़ने वाली ताकतें अलग-अलग लड़ रही हैं| जब तक यह दोनों ताकतें एक नहीं होंगी, यह हरयाणा के भीतर के मनुवादी व् गैर-हरयाणवी ना तो हमारा और ना ही हमारी संस्कृति का सम्मान करना नहीं सीखेंगे, बल्कि हमें हमारी ही धरती पर आ के खुड्डे-लाइन लगाने के प्रपंच निरंतर करते रहेंगे|
हमें यह भी नहीं करना कि महाराष्ट्रियों-मुंबईकरों की भांति इनको यहां से मार के भगाना है, नहीं, बस मनुवाद को हटाते हुए, इनसे हमारी सभ्यता-संस्कृति का आदर-मान करवाना है|
विशेष: सनद रहे, इस लेख में हरयाणा मतलब, "वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यूपी+उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान + हरयाणा का सीमांतीय पंजाब"।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday 17 May 2016

दादा, थाहम इन लपुसियां नै अर प्रशासन नै सुलट लियो बस, गुहांड नैं तो हम धानक ए ठा ल्यावंगे!

निडाना का हुलिया (महिपाल) हरयाणवी गाँव-गणतंत्र के प्रति अटूट लगाव और कट्टरता का प्रतीक था|

आज हरयाणा के जिला जींद का निडाना गाँव अपने पांच लाडलों की अकस्मात मौत से सदमे में है| कुँए की जहरीली गैस ने जिन पांच लालों को लीला उसमें एक व्यक्ति को मैं (इस लेख का लेखक) बचपन से व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ| बहुमुखी प्रतिभा के धनी महिपाल का निकनेम हुलिया (अंधंड के बंवडर को हरयाणवी में 'हुलिया' कहते हैं, जो रास्ते में आने वाली हर चीज को लपेटता हुआ ऊपर की ओर फेंकता चलता है) भी शायद इसीलिए पड़ा होगा क्योंकि उसमें काफी सारे सामाजिक, सांस्कृतिक और ग्रामीण पहलुओं बारे जो अदम्य साहस, उत्साह और क्रांतिकारी प्रेरणा थी; वो विरले लोगों में देखने को मिलती है| वह मनुवाद की बनाई जातिवादी व् वर्णवादी व्यवस्था का धुर्र विरोधी क्रांतिकारी था; हरयाणवी गाम-खेड़े की अस्मिता पर आंच आये तो सबसे आगे जेली-गंडासे ले के खड़े होने वालों में था; वह एक अर्दली भी था जिसकी आवाज गाँव के दूसरे छोर से भी सुन जाती थी कि आज हुलिया गाँव में मुनादी कर रहा है; वह सबसे आदर-मान-सम्मान और सभ्यता से व्यवहार करने वाला स्वाभिमानी इंसान था| साझे कर रहा हूँ उसके उत्साह और साहस की मेरे बचपन से ले अभी पिछली बार गाँव विजिट के दौरान की कुछ यादें, जो निडाना गाँव-गुहांड को गमगीन छोड़ के जाने वाले इन पाँचों सपूतों को समर्पित हैं|

बात तब की है जब मैं ग्रेजुएशन कर रहा रहा था, शायद सन 2000-01 की| दशहरे का दिन था, शाम होते-होते मनहूस खबर आई कि हमारे गुहांड (सामाजिक व् समरसता कारणों से गुहाण्ड का नाम नहीं लिख रहा हूँ) में निडाना के गामी-झोटे को वहाँ के कुछ असामाजिक तत्वों ने घायल कर, गुहांड के बाहर से जाती 'बिद्रो' यानि ड्रेन में उड़ेल दिया है| हरयाणवी संस्कृति में गाँव का सांड और झोटा दोनों गाँव के देवता माने जाते हैं, अत: उन पर बाहरी आक्रमण को गाँव की प्रतिष्ठा पर आक्रमण माना जाता है| आगे क्या कैसे हुआ के पूरे किस्से में तो अभी नहीं जाऊंगा, क्योंकि बाद में गठवाला खाप और गुहांड की खाप के स्थानीय तपों ने मिल कर मुजरिमों को ढूंढ भी निकाला था और मसले का शांतिपूर्ण हल भी हो गया था| हाँ, इसमें हुलिए का किरदार आज भी मुझे याद है| उस वक्त मेरे सगे चचेरे दादा हुक्म सिंह गाँव के सरपंच होते थे|

वो, गाँव के कई अन्य गणमाण्य लोग, मैं (मैं वहाँ गाम की स्मिता की बात होने के साथ-साथ इसलिए भी मौजूद था क्यों कि उस झोटे को मैंने अपने हाथों दाना-चारा खिला के पाला था, फिर बाद में मेरे पिता जी ने गाँव के कहने पर उसको गाँव को दे दिया था; इस घटना से घायल उस झोटे का 1.5 महीने तक इलाज भी हमारे घेर में मेरी ही देख-रेख मैंने खुद ही करवाया था| झोटा इतना घायल था कि 15 दिन तो उसको अपने-आप से खड़ा होने में लग गए थे, कॉलेज से आते ही उसके पास जाता तो मेरी गोद में सर रखते ही झोटे की आँखों से आँसू टपक पड़ते; जैसे मुझे अपना दर्द बताने लग जाता हो) और हुलिया समेत लगभग आधा गाँव जेली-गंडासे ले के गाँव के बाहरी छोर पर जमा थे|

रात के नौ बजे थे जींद के एसपी, एसडीएम और 3-4 पुलिस की टुकड़ियां मौके पर आई हुई थी| कोई बड़ी अनहोनी ना हो इसलिए पुलिस गुहांड की तरफ घेराबंदी करे खड़ी थी| गाँव के मौजिज लोग और पुलिस-प्रशासन में वार्तालाप हो रही थी| इतने में गाँव की धानक बिरादरी का "पहलवानी दस्ता" जेली-गंडासी समेत गाँव की तरफ से हमारी तरफ आते दीखते हैं और हुलिया एक दम से दादा हुक्म सिंह से रुक्का मार के ललकारा कि "दादा थाहम, इन लपुसियां नै अर प्रशासन नै सुलट लियो बस, गुहांड नैं तो हम धानक ए ठा ल्यावंगे|" यह पंक्तियां आज भी यूँ-की-यूँ मेरे कानों में हैं उस इंसान की| खैर बुजुर्ग लोग हुलिया के जोश को समझा-बुझा कर ठंडा करते हैं व् फिर से प्रशासन से बातों में लग जाते हैं| यहां बता दूँ कि गठवाला खाप के आदेशों व् पुकारों पर आपातकाल व् लड़ाइयों में भाग लेने हेतु हमारे गाँव में धानक-जाट व् अन्य जातियों के पहलवानों का पहलवानी दस्ता हमेशा तैयार रहता आया है| तो यह था हुलिया का अपने गाँव की अस्मिता के प्रति मोह और जज्बे का पहला किस्सा|

दूसरा किस्सा बताता है कि वह कैसे मनुवाद की जाति व् वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध भी अपनी आवाज उठाता रहता था| अक्टूबर 2014 में छुट्टियों पे इंडिया आया हुआ था तो सोचा कि गाँव की सभी जातियों के बुजुर्गों के बीच बैठ के गाँव का जातिवार इतिहास लिखा जाए| इसी सिलसिले में मैं धानको की ओर चला गया| वहाँ दादा दयानन्द जी से गाँव व् धानक बिरादरी का निडाना गांव में योगदान व् सम्पर्ण बारे लिख के लाया; जो कि एक लेख के रूप में निडाना हाइट्स की वेबसाइट पर पब्लिश किया हुआ है|

जब वहाँ बैठा गाँव के इतिहास व् संस्कृति पर लिख रहा था तो हुलिया आता है और नमस्ते मलिक साहब कहते ही सीधा कुछ सवाल छोड़ता है:

हुलिया: मलिक साहब, यह जातिपाति और वर्णव्यवस्था पर क्या विचार है आपका?
मैं: भाई, मैं इसका विरोधी हूँ| और यह खत्म होनी चाहिए|
हुलिया: भाई मैं जानु सूं आप, आपके पिता जी और आपका कुनबा तो कोनी मानता जातिपाति को और आपके पिता जी तो म्हारी गेल बैठ खाने-पीने से भी नहीं झिझकते; पर सारे इहसे कोनी| अर इतना कहे तैं काम भी कोनी चालता अक आप कोनी मानते, आप जिहसे आदमी को तो आगे आ के इसको खत्म करवाना चाहिए?
मैं: मखा भाई अपनी औड तैं पूरे प्रयास जारी सैं, जीबे आड़े आया सूं, नहीं तो गाम का इतिहास और संस्कृति तो जाटों के बुड्ढे भी भतेरी बता चुके| पर मैं उसको क्रॉस-चेक करना चाहूँ कि क्या यही बातें यूँ-की-यूँ दलित बुड्ढे भी बताएँगे कि कुछ अलग मिलेगा|
हुलिया: तो मलिक साहब फेर पाया किमें फर्क?
मैं: भाई जो गाम की सब जातियों की कॉमन हिस्ट्री है उसमें कोई फर्क नहीं| हाँ दादा दयानन्द से गाम के धानक समाज की कुछ नई बातें जरूर जानने को मिली|
हुलिया: बढ़िया मलिक साब, इस ज्यात-पात नैं खत्म करण खातर करो किमें?
मैं: मखा हुलिए, इब मामला दो ढाल का हो लिया, एक जो मनुवादी सदियों से रखते आये और दूसरा मखा सरकार भी सारी योजना जाति देख के बनाती है, नेता लोग टिकट तक भी जाति ही देख के बाँटते हैं| मखा भाई काम बहुत भारी है, पर तेरा भाई इसको मिटाने की ओर ही अग्रसर है|
दादा दयानन्द: अरे हुलिए थम जा तू इब, छोरे ताहिं दो-चार बात और बता लेण दे|

और यह था उसके साथ दूसरा अनुभव| इसके अलावा वो एक अर्दली था वह ऊपर बता चुका| हमारे खेतों में दिहाड़ी-मजदूरी पर आता रहता था तो पूरा काम और पूरी लगन से करके देता था|

अंत में यही कहूंगा कि हुलिया के रूप में गाँव ने सिर्फ एक आदमी नहीं अपितु ऊंच-नीच और छुआछात से लड़ने की जीती-जागती क्रांति खो दी है| हुलिया और बाकी चारों दिवंगतों को भावभीनी श्रदांजलि|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 15 May 2016

बाबा टिकैत जो झंडा पकड़ा गए थे, उसका रंग क्यों भूल गया ओ जाट व् तमाम किसान?


आज बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की पांचवीं पुण्य-तिथि (15/05/2011) पर अंधभक्त बन भगवे के पीछे भाग रहे जाटों व् तमाम किसानों के बालकों से पूछना चाहूंगा कि क्या जो झंडा हमारा पुरख हुतात्मा बाबा टिकैत हमें पकड़ा गया था उसका रंग भगमा था या हरा (किसान के खेतों की हरियाली का प्रतीक) व् सफेद (किसान के यहां होने वाले दूध का प्रतीक) था?

हमें भगवे को आदर देने से परहेज नहीं, इसीलिए कभी किसी किसान पुत्र ने तिरंगे पर ऊँगली नहीं उठाई, जिसमें हरे और सफ़ेद के साथ भगवा और नीला अशोक चक्र (उद्योग व् दलित) का प्रतीक भी हैं| भगवे को स्थान देने के चक्कर में सफेद, हरे और नीले को मत भूलो, भगवा देश का पेट नहीं भरता; वो भरता है हरा, सफेद व् नीला|

हमारे पुरख यानि हमारे बाप हमें "हर-हर महादेव" और "अल्लाह-हू-अकबर" दोनों एक साथ बोलना सीखा के गए हैं; हमें उनको और उनके जैसी चीजों-चिन्हों को आगे बढ़ाना है, किन्हीं बहरूपियों के एजेंडों को नहीं|

और उनको भूले हो तो आज देख लो, ना अगर किसानों के नेताओं को एक-एक करके ठिकाने लगाया जा रहा हो तो| नेता तो नेता तुम्हारे खिलाडियों तक को ठिकाने लगाया जा रहा है| आज बाबा की पुण्यतिथि के अवसर पर लौट आओ अपनी जड़ों की ओर वापिस|

इनसे सिर्फ कारोबारी और रोजगारी रिश्ते स्वीकारो| जो जाट और किसान हो गया वो आध्यात्म और बौद्धिकता का खजाना स्वत: हो गया| मत उतरो अपनी "जाट देवता" की पदवी से नीचे, इन बहरूपियों के चरणों में अपने को झुका के| इनको गिरवी मत रखो अपने आध्यात्म और बौद्धिकता को|

Ending the note with this poem dedicated to Baba Tikait:

सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या:

धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
धर्म नैं चिलम भरी थारी हो, थमनै होण दी ना पाड़ कदे,
अल्लाह-हू-अकबर, हर-हर-महदेव, राखे दोनूं एक पाळ खड़े|
अवाम खड़ी हो चल देंदी, जब-जब थमनें हुम्-हुंकार भरे,
सिसौली से दिल्ली अर वैं ब्रज-बांगर-बागड़ के मैदान बड़े|
चूं तक नहीं हुई कदे धर्म पै, आज यें हाजिरी लावैं फण्डियाँ कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

किसान यूनियन रोवै खड़ी, पाड़ उतरगी भीतर म्ह,
तीतर-बटेरों का झुण्ड हो रे, खा गये चूंट कैं चित्र नैं|
स्याऊ माणस लबदा ना, यू गहग्या सोना पित्तळ म्ह,
राजनीति डसगी उज्जड न्यूं, ज्यूँ कुत्ते चाटें पत्तळ नैं||
एक्का क्यूकर हो दादा, खोल बता ज्या त्यरे इस टोळे तैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

मंडी भा-खाणी रंडी हो री, दवन्नी पल्लै छोड्ती ना,
आंधी पिस्सै कुत्ते चाटें, त्यरे भोळे की भोड़ती ना|
कमर किसान की तोड़दी हाँ, या लागत खस्मां खाणी,
गए जमाने लुटे फ़साने, भागां रहगी फांसी, कै गस खाणी||
अन्नदाता की राहराणी बणै ज्यूँ, न्यूँ ला ज्या बात ठिकाणे पै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

खाप त्यरी यैं बिन छतरी-चिमनी का हो री चूल्हा,
बूँद पड़ी अर चौगरदे नैं धूमम्म-धूमा-धूमम्म-धूमा|
टकसाळो की ताल जोड़ दे, ला फेर चबूतरा सोरम सा,
'फुल्ले-भगत' मोरणी चढ़ा दे, अर गेल टेर दे तोरण शाह||
या चित-चोरण सी माया तेरी, करै निहाल सारे जटराणे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
शब्दावली: भोळा/भोळे = किसान
लेख्क्क: फूल कुंवार म्यलक (Phool Kumar Malik)

जय यौद्धेय!

 

भारत में यदि जातिवाद के जहर को खत्म करना है तो!


असल हिन्दू धर्म में जातिवाद है क्या?
उत्तर: जो जातियां माइनॉरिटी में हैं, उन द्वारा बहुसंख्यक जातियों में अपने लोगों (वास्तविक व् काल्पनिक दोनों टाइप के) को भगवान् बना के स्थापित करवाना ही जातिवाद है|

इसका हल क्या है?
उत्तर: हर जाति या मित्र जातियों का समूह अपनी-अपनी जाति समुदाय में हुए हुतात्माओं को ही अपना भगवान् मानें| जैसे गांधी व् लाला लाजपत राय व्यापारियों (बनिया व् अरोड़ा/खत्री) के भगवान, तिलक-गोखले-गोवलकर-नेहरू ब्राह्मणों के भगवान, सर छोटूराम, महात्मा फुले, बाबा आंबेडकर किसान व् दलितों के भगवान्|
कोई जाति भगवान् की नई केटेगरी विकसित करती है तो बाकी जातियां भी वैसे ही कर लेवें और उस केटेगरी का समकक्ष भगवान अपनी जाति से बन लेवें| जैसे ब्राह्मणों ने अभी खेल क्षेत्र में भी उनके लिए नया-नया भगवान् ईजाद किया यानि सचिन तेंदुलकर तो ऐसे ही जाट, वीरेंद्र सहवाग को क्रिकेट का भगवान् घोषित कर लेवें, या छिम्बी बिरादरी कपिल देव को घोषित कर लेवे|

और जब बात जाति से बाहर की आये तो भाई "तुम हमारे वाले की जय बोलो, हम तुम्हारा वाले की बोलेंगे" की लय पर सोशल इंजीनियरिंग चलाई जाए|

ऐसे में किसी को कोई कोई प्रॉब्लम नहीं आनी, सब राजी-ख़ुशी से रहेंगे| एक दूसरे की टांग-खिंचाई से पिंड छूटेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 13 May 2016

जो खिलाडी देश के लिए ओलिंपिक मैडल की हैट्रिक लगाने की दहलीज पे खड़ा हो, उसके लिए एक ट्रायल तो बनता है!

ओलम्पिक अनुभव:
सुशील कुमार: 66 किलो केटेगरी में 2008 बीजिंग ब्रॉन्ज़ मैडल, 2012 लंदन सिल्वर मेडल|
नर सिंह यादव: 74 किलो केटेगरी में 2012 लंदन में पहले ही राउंड में बाहर|

दोनों का परस्पर अनुभव:
सुशील कुमार ने 66 किलो और 74 किलो दोनों में नर सिंह यादव को हराया हुआ है।

66 किलो कैटेगरी खत्म होने से रियो ओलम्पिक का क्या सीन होगा:
2012 में जो जिस-जिस देश के जो-जो खिलाडी 66 किलोग्राम में लड़े थे, अधिकतर 74 किलोग्राम वर्ग में आये मिलेंगे| यानि सिर्फ गोल्ड-मैडल वाले जापानी पहलवान को छोड़ के सुशील सबको पहले हरा भी चुके हैं और उनसे भिड़ने का अनुभव भी है। जो कि नर सिंह यादव के लिए एक दम नए होंगे। हाँ कुछ ऐसे भी मिलेंगे जो सुशील के लिए भी नए होंगे, परन्तु अधिकतर 66 से 74 में शिफ्ट हो के आये हुए ही होंगे। क्योंकि अधिकतर देश देश के भीतर ट्रायल जरूर करवाते हैं।

सुशील कुमार अगर लगातार तीसरा मैडल जीत जाते हैं तो ओलिंपिक की व्यक्तिगत स्पर्धा में किसी भारतीय द्वारा मेडल्स की हैट्रिक लगाने का भारत के लिए पहला रिकॉर्ड होगा। पहली-दूसरी बार तो मैडल और भी बहुत खिलाड़ी ला रहे होंगे, परन्तु भारत के पास सुशील इकलौता ऐसा खिलाडी है जो हैट्रिक लगाने के लिए खेलेगा।
इसलिए जिस खिलाड़ी के साथ देश का इतना बड़ा सम्मान बढ़ेगा, उस खिलाड़ी को एक फेयर ट्रायल तो बनता ही है| फिर भले ही ट्रायल में नर सिंह यादव सुशील को हरा दे; परन्तु देश के लिए ओलिंपिक में नए रिकॉर्ड बनाने की दहलीज पर खड़े खिलाडी के लिए देश को इतना करना तो बनता है।

फूल कुमार मलिक ‪#‎justice4sushil‬

Saturday 7 May 2016

चौ छोटूराम को सर की उपाधि कैसे और क्यों मिली एक बार जरुर पढ़ें।




Sir Chhotu Ram a stooge of the British or A Defence strategist of international repute?

By: Colonel Mehar Singh Dahiya

During the course of my journey of the last few years as a social activist I have tried to understand various aspects of the Haryana society, be it the overall social panorama, social /cultural traditions of the people or the value system, self esteem /pride or understanding /practicing of the economic matters predominantly keeping the JATS in my focus .The reason for this is that they being large in number and many other reasons are practically the anchor of the society. The study of the society per se is difficult without deliberating on its leadership ie what the quality of leadership has been and to make a reasonable guess as to what it is likely to be in future. In this direction I took up the study of all the political activities of early 20 th century, when India or shall I say British India of those times was a cauldron or a boiling pot of multifarious activities .As if to add to the confusion came the GREAT WARS in Europe primarily but simultaneously effecting Middle East, North Africa or South East Asia. Since my aim in this write is not to deliberate on other leaders and the contribution they made except as a passing reference since I wish to focus on SIR CHHOTU RAM PER SE.

2.It was around 1920 that Chhotu Ram had a brief association with the POLITICAL MOVE MENT CALLED CONGERESS(it became a political party as we see it today much later ).In fact it will not be grossly wrong to say that the UNINIONST PARTY OR THE ZAMIDARA LEAGUE(Ch Chhotu Ram along with Fazal- e- Hussain was the CO-FOUNDER) was the first party t o establish themselves in India with their proper organizational set up /manifesto etc and took power ,functioned in all matters other than defense and foreign affairs, of course under the overall control of the governor general/viceroy. In those days there were two parts of India one under direct governance of the Raj and other divided in to 562 states with RESIDENT present in each to see that they remained in their senses/limits so to say. Late 19th and early 20 th century the whole world has been effected by whole lot of turbulent activities of various hue be they of social ,political or military reasons and INDIA was no exception. In this there was an opportunity which many could not see except Sir CHHOTU RAM, a visionary /astute leader who could foresee and encashed it purely for the deprived segment of the society whose cause was always dear to him. Gandhi arrived in India in Jan 1915 and by then lot of water had flown down the Yamuna/ganges. To remain confined to the Province of Punjab Ch Chhotu Ram was already on his LEGEDRY/ INCOMARABLE JOURNEY in the affairs of the province of Punjab specifically and at the level of affairs of India broadly.

3.Th strategy /methodology of different leaders of those days was also diverse, like some believed in purely constitutional methods, some believed in a a mix of constitutional /agitational where as on the other front some believed in purely confrontational .Obviously the ultimate aim of them all across the board has been an INDEPENDENT INDIA. In this there were few who were idealist with lofty ideas some were pragmatist some were too moralistic so to say but each one of them viewed the world through their own prisms. One issue that I wish to remain confirmed after giving this cursory view is DEFENCE POLICY OR THE SHAPE IT IS GOING TO TAKE POST INDEPENDENCE.I wish to say with a great amount of certainty that except Ch Chhotu Ram non other had even an idea, what to talk of a coherent view of the whole thing .

4.MA Jinnah once said “IT IS NOT A WISE THING TO AGITATE A HUNGRY AND EXPLOITED PEOPLE” because unless properly guided or channelized the whole energy may become self destructive and create an implosion. My understanding /interpretation is that this aspect would have remained etched deeply in ch chhotu ram’s psyche, because this aspect figures prominently in all his actions. To begin with He had a deep understanding of the matters at the grass root level, having literally risen from the dust and at the same time deeply identified with his people .NO OTHER LEADER OF THOSE TIME HAD SUCH AN ALL INCLUSIVE APPROACH, EVEN TRANSENDING ACCROSS TH RELIOGIOUS LINES, A TRULY SECULAR IN HIS THOUGHTS AND ACTIONS .I can say there is no other example IN THE WORLD HISTORY TO COMPARE WITH THIS.

When the FIRST WORLD WAR came Ch Chhotu Ram saw in it an opportunity for his hungry and exploited masses and by a well orchestrated campaign, the province of Punjab under his stewardship contributed immensely man, material and even money more to benefit his own people than for an alien cause.It is also worth while to say that the entire leadership was in total agreement to play a positive role in this war effort. To give an idea BRITISH ARMY whose strength was a motley 2 lacks expended to to over 10 lacks during and after the war of whom ,about 60 % came from Punjab alone .NO WONDER PUNJAB WAS CHRISTENED THE SWORD ARM OF BRITISH INDIA. Here lies the biggest question as to what did we achieve?.In my understanding we achieved TWO THINGS FIRSTLY, ALTERNATIVE SOURCE OF EMPLOYMENT FOR OUR YOUTH AND HENCE PROPER CHANNELIZING THEIR ENERGY AND SECOND IS INTERNATIONAL EXPOSURE WHICH POST DEMOBILISATION POST WW-1 CONTRIBUTED TO THE INDEPENDENCE STRUGGLE. ONE MORE IN FACT THE MOST IMPORTANT ASPECT WAS THAT POST INDEPENDENCE THE COUNTRY HAD A WELL TRAINED EXPERIENCED ARMY .NO OTHER NATIONAL LEADER INCLUDING THE MOST PROMINENT ONES, HAD AN IDEA ON THIS ISSUE.THEY INSISTED MORE ON MORALISTIC BONHAMMIE RATHER THAN HARD GROUND REALITIES/MILITARY THOUGHT.NO WONDER WE HAD TO FACE A NATIONAL DISGRACE IN 1962 FROM WHICH WE HAVE NOT FULLY RECOVERED TILL DATE.

It is to the above that I wish to draw the attention of the reader before he becomes judgmental and pass a wholly unsubstantiated view and paint a LEGENDARY PERSONA with the wrong brush. That time India had 11 provinces and based on the demonstrated performance, non measures up to PUNJAB’S performance .And the effect does not end there, after all who can deny that it is those elders of ours who went abroad in ww1&2 who on return brought ideas even for economic, social, educational even on living conditions etc which took roots in our society bearing fruits today when a large number from our among st are reaching to the highest level whether in military civil or other ventures . Like how many of us are aware that when it came to indianise the officer class in the army (INDIAN MILITARY ACA DEMY AT DEHRADUN WAS ESTABLISHED &SIR CHHOTU RAM JI WAS FOUNDER MEMBER OF THIS COMMITTEE UNDER SIR CHETWOOD) The journey commenced from SIR Chhotu Ram’s dreams to see his folks at the helm of affairs .With this I leave it to the reader to give an appropriate title and reply the question that I have raised as the title of this write up. BEFORE I END UP, WISH TO BRING TO NOTICE OF THE READER, THREE MAIN REASONS FOR THE BRITISH GRANTING FREEDOM TO INDIA.APART FROM THE DISQUIET IN THE DEFENSE FORCES AND POLITICAL ACTIVITIES THERE WAS AN ECONOMICAL ANGLE TOO (THE UPSETTING/DISTURBING BALANCE OF PAYMENT VIS A VIS POUND STERLING AND THE INDIAN RUPEE AND THE MAIN REASON WAS LIABILITY OF PAY, PERKS AND PENSION OF THE MOBILIZED INDIAN MANPOWER. SIR CHHOTU RAM JI WAS THE MAIN ARCHITECT AND PRINCIPAL PLAYER OF THIS ENTIRE STRATEGY TO HAVE WELL EXPERIENCED STANDING DEFENSE FORCES FOR INDEPENDENT INDIA. ALSO PERTINENT TO MENTION THAT HE WAS AN ICON EVEN FOR THOSE WHO WERE MILITARY MEN AND WERE PREPARED TO GO TO ANY EXTENT ON HIS CALLING (THE BRITISH KNEW IT TOO WELL AND WERE ALWAYS CONSCIOUS OF THIS WHILE DEALING WITH THIS LEGENDARY PERSONALITY/SON OF THE SOIL .IT CERTAINLY IS NO MEAN ACHIEVEMENT NO OTHER POLITICAL LEADER OF HIS TIMES, EVEN REMOTELY MEASURED UP TO HIM.

It is worthy of note that out of three main reasons for British granting independence, Sir Chhotu Ram was of major consequences in two of them. I politely suggest to our people specially those who pass a comment in a great hurry and on flimsy insight, to read and decide rather than pass on here say.

Bibliography;- PUNJAB AND THE WAR-MS LEIGH ,ICS. 2 THE GARRISON STATE-MR YONG 3. SHAMFUL FLIGHT-WOLPERT etc

Friday 6 May 2016

धार्मिक कट्टरता आदमी का मानसिक ही नहीं आर्थिक दोहन भी करती है, जबकि धार्मिक समरसता आदमी को हर प्रकार से समृद्ध बनाती है!

कल यूपी के चुनावी हालातों और हो सकने वाले गठबंधनों पर उधर के एक भाई से बातें हो रही थी। शुरू में ही मुज़्ज़फरनगर छेड़ बैठा। कहने लगा कि मुस्लिमों ने हमारी लड़कियाँ छेड़ के बहुत बुरा किया था। मैंने पूछा क्या अब बंद हो गया लड़कियों का छेड़ा जाना या मुज़्ज़फरनगर होने से पहले कभी नहीं छेड़ी जाती थी (सनद रहे मैं ऐसे अपराधियों को कठोरतम सामाजिक व् न्यायिक दण्ड का पक्षधर हूँ, परन्तु यहां मेरा फोकस इस बिंदु पर है कि झगड़े को दंगे का रूप कैसे दिया जाता है)? बोला बंद तो नहीं हुआ। मैंने कहा जब तक दुनियादारी और समाज है तब तक बंद होगा भी नहीं। बोला नहीं भाई जी आप समझे नहीं। मैंने कहा दंगों के प्लेटफार्म कैसे घड़े जाते हैं पहले इसको समझ। बोलता है जी समझाओ।

मखा यूँ बता, जिस वक्त मुज़्ज़फरनगर में यह कांड हुआ क्या उस वक्त देश या यूपी की किसी और जगह पे कोई लड़की नहीं छेड़ी जा रही थी? ठीक उसी वक्त पे कहीं मुस्लिम, हिन्दू लड़की को छेड़ रहा होगा, तो कहीं हिन्दू किसी मुस्लिम लड़की को छेड़ रहा होगा, कहीं कोई ब्राह्मण पुजारी किसी दलित की बेटी को देवदासी बना के नचा रहा होगा, कहीं कोई ठाकुर किसी दलित का उत्पीड़न कर रहा होगा। तो फिर ऐसे में बवाल सिर्फ मुज़्ज़फरनगर में ही क्यों मचा?

बोला भाई जी क्यों? मैंने कहा क्योंकि यह प्लोटेड था। बोलता है प्लोटेड कैसे? मैंने कहा हर पोलिटिकल पार्टी और आरएसएस जैसी कट्टर संस्थाओं की एक ऑब्जरवेशन टीम होती है। जो इन हर दूसरी-गली नुक्कड़ पे हो रही छेड़खानियों जैसी तमाम हरकतों पर नजर रखती हैं। इन टीमों के साथ पोलिटिकल, एडमिनिस्ट्रेशन व् मीडिया में बैठे इनके लोगों का पूरा बैक-अप एक कॉल पे इनके दिशा-निर्देश लेने हेतु रेडी रहता है। और जहाँ दंगा प्लाट करना होता है, उस जगह पर इस टीम को लगा दिया जाता है। सो जैसे ही कोई मामला इनकी नजर में आता है (जैसे यह मुज़्ज़फरनगर वाला), यह लोग तुरंत इस अमले को कॉल कर देते हैं। अमले के राजनैतिक लोग झगड़ा वाले एरिया के आसपास के अपने गुर्गों को सक्रिय कर देते हैं। एडमिनिस्ट्रेशन को वहाँ से गायब होने के निर्देश हो जाते हैं। और मीडिया वाले कैमरा उठाये दौड़े चले आते हैं। फिर आगे जो होता है कैसे झगड़े को दंगे का रूप दिया जाता है, वो तुम मुज़्ज़फरनगर और अब तो हरयाणा में भी जाट आंदोलन के दौरान प्रैक्टिकली देख ही चुके हो।

भाई जी मुज़्ज़फरनगर किसका करवाया हुआ था? सपा, बीजेपी, आरएसएस या कोई और? मखा तीनों का। बीबीसी की रिपोर्ट है कि जॉली नहर पे खाप महापंचायत से लौटते जाटों पर जो हमला करवाया गया था वो मध्य-प्रदेश की तरफ के आरएसएस के गुर्गे थे। उनको समझा दिया गया था कि महापंचायत में कुछ ना हो तो, तुम लोगों ने इनपे अटैक करना है और नाम मुस्लिमों का धर देंगे। और वही हुआ।

और मखा एक उदाहरण और देख ले, पिछले साल 15 अगस्त को फौजी वेद मित्र चौधरी (शामली) को मेरठ मे कुछ हिंदू लडको ने पीट पीट कर मार दिया; उसका गुनाह सिर्फ इतना था कि उसने हिन्दू गुंडों से एक हिन्दू बहन की आबरू बचाने के लिए आवाज उठाई। तब राष्ट्रवादियों से ले, बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ से ले साधवी-साधू, भाजपा-आरएसएस, हिन्दू सब गायब थे। मतलब साफ है यह चाहते हैं कि अगर किसी बहन की आबरू से खेला जाए तो पहले उसका धर्म देखा जाएगा। अगर छेड़छाड़ करने वाला मुल्ला होगा तो दंगे होंगे, इंसानियत तार तार होगी; पर अगर कोई हिंदू छेड दे तो कुछ नहीं। यह मापदंड हैं इनकी राष्ट्रवादिता, धर्म, भाईचारा जो कहो के।

भाई, यह उदाहरण तो तोड़ बिठा दिया आपने। तो भाई जी अब किसको वोट देवें? मखा मुझे जहाँ तक लगता है बीएसपी को दो। तो बोला भाई जी उनके राज में भी तो भट्टा-परसोल हुआ था? मखा हुआ था, परन्तु अंतर देखो। भट्टा परसौल सिर्फ भूमि-अधिग्रहण का मसला था। जो कि कॉर्पोरेट की मिलीभगत से हुआ था। वह मुज़फ्फरनगर की तरह साम्प्रदायिक दंगा नहीं था।

फिर मैंने पूछा मखा एक बात बता, तुम्हें बीएसपी के राज में फसलों के पैसे वक्त पे मिल जाते थे क्या? तो भाई बोला कि भाई जी यह बात बीएसपी के राज की एक दम पक्की थी; फसल मंडी पहुंची और साथ-साथ पैसा घर आ लेता था। तो मैंने कहा और मखा अब? तो बोला भाई जी अब तो सपा की सरकार है। तो मैंने कहा जहाँ बीजेपी की है, वहाँ कौनसे झंडे गढ़ रहे? साथ लगता हरयाणा देख ले, राजस्थान, एमपी, गुजरात हर जगह का किसान तो रो रहा अपने फसलों के पैसे को ले के| भाई जी आपने यह खूब कही, बिलकुल रुला रखा दोनों ने।

तो मखा अबकी बार वोट दो बीएसपी को। पर भाई जी चौधरी अजीत सिंह का अभी कुछ स्पष्ट नहीं। मखा, रालोद के कैडर को चाहिए कि रालोद और बीएसपी के गठबंधन बारे जोर डालें चौधरी साहब पर। वर्ना तो इतना समझ लियो बीएसपी को हराने खातिर सपा और बीजेपी एक भी हो सके हैं। मखा देख भाई, इन धर्म वालों के चक्कर में पड़ोगे तो कंगाल हो जाओगे। इनका बतलाया धर्म किसान के लिए अफीम समान होता है, जो तन-मन को नशे में डाल के, आपके घर की आर्थिक दशा पर ऐसी झाड़ू फेर देते हैं कि आप अनऑफिशल बंधुआ बनके रह जाते हो। बोला भाई जी यह बात तो है, पर धर्म तो मानना ही पड़े। तो मखा किसान का सबसे बड़ा धर्म है देश समाज की निष्पक्ष (बिना जाति-धर्म देखे) अन्न के साथ सेवा करना; ना कि ऐसे मोडे बाबाओं को चढ़ा देना कि जो अकाल-सूखा-बाढ़-साम्प्रदायिक क्लेशों-हारी-बीमारी में तुम्हारी तरफ मुड़ के भी ना देखते हों। मखा मॉडर्न भाषा में समझ आता हो तो इस तरह समझ ले, यह वो बीमा एजेंट हैं जो सिर्फ प्रीमियम लेना जानते हैं, बदले में देने के नाम पे दवन्नी की मदद ना करें, वापिस देना तो दूर की बात।

मखा एक बात बता, मुज़्ज़फरनगर के कितने बालक इन्होनें जेलों से छुड़ा दिए? और कितनों के घर आर्थिक सहायता पहुंचा दी? आरएसएस अपने आपको सामाजिक संस्था बोलती है? बता कितने मुज़्ज़फरनगर दंगों के हिन्दू घरों में कितनी-कितनी आर्थिक सहायता पहुंचाई आजतक, अढ़ाई साल होने को आये उन दंगों को?
और जबकि हरयाणा में देख दो महीनें ना हुए और खापों ने सरकार का इंतज़ार किये बिना और वो भी जाति देखे बिना, हरयाणा दंगों के हर मृत के घर कोई खाप 1.5 लाख पहुंचा रही है तो कोई पांच-पांच लाख। और देखना जितना हरयाणा सरकार ने मुआवजा दिया, इसका दोगुना तो खापें कर देंगी और वो भी हर जाति के मृत के लिए। और आरएसएस तो इतनी भी सामाजिक नहीं कि वो सरकार से बिना जाति और दोष के सवाल उठाये, मृतकों बारे किये वायदों को पूरा करवा सके?

इसलिए मेरे भाई, यह कट्टरता हम किसान जातियों के किसी काम की नहीं। हमें धार्मिक या राजनैतिक नहीं अपितु अपने आर्थिक हित देख के वोट डालने चाहिएं। और इस वक्त कोई किसान के आर्थिक हितों को यूपी में सबसे अच्छे से पूरा कर सकता है तो बीएसपी-रलोद-कांग्रेस का गठबंधन, मैं दावा नहीं करता कि यह किसान के लिए आदर्श साबित होंगे, परन्तु यूपी में आज के दिन आदर्श होने के सबसे नजदीक हो के जो सरकार दे सकता है किसान के हित की, यही लोग दे सकते हैं। बाकी सब तो खुला छलावा है किसान कौम के लिए।

धर्म-जाति से रहित राजनीति करी थी सर छोटूराम ने, चौधरी चरण सिंह ने, ताऊ देवीलाल ने व् अन्य किसान हितैषी नेताओं ने। जब इनके दौर थे तो किसानों के यहां हवेलियों की हवेलियां खड़ी हो गई थी। हर दूसरे किसान की हवेलियों पे मोरनियाँ चढ़ाई जाने लगी थी। और आज देख ले। क्या तो हाल यूपी के किसान का हो रखा और क्या हो रखा उधर हरयाणा के किसान का। यह जाति और धर्म का जहर तो इतना घातक होता है कि हमारे हरयाणा में एक राजकुमार सैनी (जो कि खुद भी किसान जाति से आता है) को किसानों को सेंटर-स्टेट दोनों जगह खुद की ही सरकार होते हुए फसलों के भाव दिलवाना तो ख्यालों में ही नहीं है, बल्कि ठाठी का बन्दा ऐसे जुटा पड़ा है कि जैसे सरकार में ना हो के विपक्ष में हो। मुझे समझ यह नहीं आ रहा कि जब पांच साल बाद वोट मांगने उतरेगा तो किसानों के लिए क्या किया के नाम पे क्या बताएगा यह जनता को|

इसलिए भाई धर्म की कट्टरता छोड़ दो, और अगर नहीं चाहते कि आपके घरों में चूहे निकल आने की बजाये, उन घरों की अटालिकाओं पर सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवीलाल व् अन्य किसान हितैषी नेताओं के दौर की भांति फिर से मोरनियां चढ़ने लगें तो उस पार्टी को वोट दो, जो आपको फसलों के उचित भाव उचित समय पर दें। ना कि उनको जो मन-शरीर की सोधी (होश) के साथ-साथ आपके घरों की करेंसी पे झाड़ू मार ले जाएँ और मुड़ के देखें भी नहीं; कटी ऊँगली पर मूतें तक नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday 5 May 2016

आखिर ऐसा क्यों कि "जाट-स्तुति" करते-करते जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजा दिए?


शायद ही ब्राह्मणों ने कोई अन्य ग्रन्थ-पुराण-शास्त्र में किसी जाति को 'जी' कह के सम्बोधित किया हो, जैसे कि सत्यार्थ प्रकाश में 'जाटों' को 'जी-जी' कह के उनकी स्तुति कर रखी है| यहां तक रामायण-महाभारत में क्षत्रियों की जाति का ही कहीं जिक्र नहीं, उसके आगे पीछे 'जी' लगाने की तो फिर बात ही नहीं| सवाल है कि पांच हजार से ज्यादा जातियों में जाटों को ही इनको 'जी' 'जी' का लेप क्यों लेपना पड़ा?

कारण साफ़ था 1875 में पुणे में ब्राह्मणों की सभा हुई थी कि जाट अंधाधुंध सिख धर्म में जा रहा है| जींद-कैथल-करनाल तक सिखिज्म का प्रभाव आ चुका है और ऐसे ही चला तो सारे देश का जाट सिख हो जायेगा| तब निर्धारित किया गया था कि इनको डरा-धमका-लोभ-लालच दिखा के नहीं रोका जा सकता; इसलिए इनकी स्तुति में कोई ग्रन्थ लिखो, उस ग्रन्थ में इनके समाज की बढ़िया-बढ़िया रीति-रिवाजों की प्रशंसा करो, इनको 'जी' 'जी' कह के इनका वंदन करो, तब शायद जाट रुक जाएँ| और आदर-मान को सम्मान देने वाले जाट पर इनका यह पैंतरा चला और जींद-कैथल-करनाल से आगे का जाट सिखिज्म में जाने से रुक गया| पंरतु इसको यह जाट बनाम नॉन-जाट और 35 बनाम एक के अखाड़े तक ले आएंगे, इसकी तो शायद जाटों के पुरखों ने भी कल्पना नहीं की थी|

सलंगित हैं सत्यार्थ प्रकाश के वो पन्ने, जिनमें मूलशंकर तिवारी उर्फ़ दयानन्द सरस्वती ने 'जी' 'जी' के साथ खूब जाट स्तुति की हुई है| अब या तो ब्राह्मण समाज को अपने ही ब्राह्मण का सम्मान नहीं अन्यथा फिर क्या वजह है कि इन लोगों ने जाटलैंड पे जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजवाए हुए हैं? ब्राह्मणों का सबसे बड़ा संगठन आरएसएस आखिर क्यों चुप है इसपे?

क्या मैं इसके यह मायने निकाल लूँ कि इनकी दुश्मनी से भी घातक होती है इनकी दोस्ती| इनसे जितना दूर रहा जाए उतना अच्छा| जितना न्यूट्रल रहा जाए, उतना बेहतर| सिर्फ व्यवहारिक बोलचाल रखो, जितना अन्य-जाति समुदायों को सम्मान देते हो, उतना दो और सुखी रहो| इनके साथ कारोबार करना है करो, परन्तु इनको अपनी आध्यात्मिक व् बौद्धिक स्वछंदता मत दो, वर्ना इनकी अंतिम मंजिल वही होती हो आजकल इन्होनें जाटलैंड की बना छोड़ी है, यानि जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


 

Wednesday 4 May 2016

जाटों को अपनी किताब में "अछूत व् चांडाल" लिखने वाली "उमा चक्रवर्ती" (विकिपीडिया तक पर यह बात पहुंची हुई है), आपसे अनुरोध है कि!

जाटों को अपनी किताब में "अछूत व् चांडाल" लिखने वाली "उमा चक्रवर्ती" (विकिपीडिया तक पर यह बात पहुंची हुई है), आपसे अनुरोध है कि:

1) आप और आपकी बिरादरी जाटों का दिया दान ना छुवें|
2) जाटों से दो गज की दूरी बना के चलें|
3) जाटों की परछाई भी खुद पे ना पड़ने दें|
4) जाटों का उगाया अन्न ना छुवें|

और जो यह ना करें तो आप और आपकी बिरादरी दुनिया के सबसे आत्मसम्मान विहीन, आत्मविचार के सम्मान से रिक्त नीचतम प्राणी कहलावें|

कसम से उमा जी, बस इतना करवा दें तो सदैव आपका आभारी होऊंगा| वो क्या है कि मेरे जैसे के कहे से तो अंधभक्त जाटों को पल्ले पड़ती नहीं कि हिन्दू-हिंदुत्व और इनका छद्म राष्ट्रवाद सिर्फ एक छलावा है, परन्तु शायद आपके कहे से अक्ल लग जाए| अक्ल लग जाये कि तुम बावली-बूचों की भांति इन वर्ण व् जाति के स्वघोषित सर्टिफिकेट बांटने वालों की झोली दान-अन्न से भरते रहो और यह तुमको ऐसे ही निरतंर चांडाल और अछूत के सर्टिफिकेट वितरित करते रहेंगे|

साथ ही अंधभक्त जाटों से अनुरोध करना चाहूंगा कि भाई राजकुमार सैनी को इन्होनें आपकी कौम पे भोंकने को छोड़ा, आप उसपे मौन हैं| जाट आरक्षण के नाम पर इन्होनें 18 जाट बालक गोलियों से भुनवा दिए और सैंकड़ों घायल करके हस्पतालों में पहुंचा दिए इसपे आप मौन हैं| खैर कोई नहीं पर, आपकी इतनी तो चलती होगी बीजेपी-आरएसएस में कि इतना रुकवा सको कि यह लोग अपनी कुंठावश जाटों को "अछूत व् चांडाल" कहना अब कम से कम 21वीं सदी में आ के तो छोड़ दें? अब जब हिन्दू यूनिटी और बराबरी की बातें हो रही हैं, तब तो छोड़ दें? या ऐसी भी क्या अंधभक्ति की पट्टी लपेटना आँखों पर कि यह विकिपीडिया तक पर आपको "चांडाल और अछूत" कहे जा रहे हैं और आप फिर भी इन्हीं में घुसे जा रहे हो?

खैर यह तो बात हुई उमा जी से और अंधभक्त जाट भाईयों से अपील करने की|

अब सुनो मैडम उमा चक्रवर्ती, आपने जाटों बारे क्या लिखा अपनी किताब में और क्या नहीं मुझे उसकी डिटेल में जाने की जरूरत नहीं क्योंकि इतना तो पता लग ही गया कि आपने जाटों को चांडाल और अछूत लिखा है; तो इससे ज्यादा बुरा तो जाटों का आपने और लिखा भी क्या होगा, जो भी लिखा होगा इससे छोटा ही लिखा होगा| परन्तु इससे दलित-पिछड़े भाईयों को खासकर उनको जो जाट से जाति-वर्ण पे भेद कर रहे हैं, इतना तो सन्देश जायेगा कि आपका यह भेद व्यर्थ है, मनुवादियों ने आपके कान भरे हैं इसलिए आप ऐसा कर रहे हैं|

उमा चक्रवर्ती, आपको पता है कोई इंसान किसी को "अछूत वा चांडाल" क्यों कहता है? वो मेरी दादी जी बताया करती थी कि जब कोई इंसान आपके काबू से बाहर का हो और वो आपकी एक ना सुनता हो और उससे भी बड़ी बात इस सबके बावजूद जब आप उसका बाल (मुझे माफ़ करना परन्तु आपने जो शब्द प्रयोग कर रखे हैं उसके आगे यह शब्द कुछ भी नहीं) तक नहीं उखाड़ सकते हो, तब ऐसी कुंठा में कहा जाने वाला शब्द है "चांडाल"। मुझे समझ नहीं आता कि वो सर छोटूराम वाली बोलना सीखने की जरूरत जाटों को ज्यादा है या इन उमा चक्रवर्ती जैसों को? शायद हम इनका जवाब नहीं देते, इसलिए यह अपने बोलने को सभ्य मान बैठते हैं, वर्ना वास्तव में सबसे बदजुबान तो यह मंडी-फंडी ही होते हैं और उसी जमात से आती हैं यह मैडम उमा चक्रवर्ती|

अब अछूत शब्द की सुनिए मैडम, "अछूत" शब्द है किसी को साइकोलॉजिकल प्रेशर (psychological pressure) देने के तहत "सोशल पृथक्करण" (social deprivation) के भय में डाल के उससे अपनी मनमानी करवाना| जो कि जाटों पे आपके जातिभाई यानि मनुवादियों का कभी चला नहीं| हाँ दलितों-शूद्रों पर चला, परन्तु जाटों पर नहीं| जाटों ने तो तुम्हें ताक पे रख के बुद्ध धर्म खड़ा कर दिया, सिख धर्म खड़ा कर दिया, बिश्नोई पंथ खड़ा कर दिया; सो भला ऐसे निडर और स्वछन्द लोग अछूत हो सकते हैं क्या? हाँ, उनके लिए जरूर हो सकते हैं जिनके ढोंग-पाखण्ड का भांडा फोड़, उनको समाज को दूषित करने से दूर रखा| जाटों ने जब बुद्ध धर्म खड़ा किया, उसी की कुंठा में तो आपकी बिरादरी वालों ने जाटों को चांडाल कहना शुरू किया था, कि ना तो यह हमारे काबू के और ना हम इनका कुछ उखाड़ सकते; सो कह दो इनको "चांडाल"।

आठवीं सदी में जब ब्राह्मण राजा दाहिर ने जाटों पे यह शब्द थोंपने की कोशिश करी (इससे पहले यह शब्द दलित-शूद्रों के लिए होते आये) तभी के तभी उसको जाटों की हाय और श्राप दोनों लगे और मुहम्मद बिन कासिम आ के उसकी सौड़ सी भर गया| जानती हो ना सौड़ सी भरने का मतलब क्या होता है? पक्के से जानती होंगी, जब जाटों के स्टेटस बारे जानती हैं तो उनकी बोली बारे नहीं जानती होंगी| जाट का अपमान करके एक छोटी सी भी लड़ाई जीतने का इतिहास में माद्दा नहीं रहा कभी और चल पड़ते हैं जाटों को सोशल स्टेटस के सर्टिफिकेट बांटने|

अब मैं इतना सुनिश्चित करके जरूर चल रहा हूँ कि "आगला शर्मान्दा भीतर बड़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया|" वाली के तहत चुप नहीं बैठेंगे| हर बात का ताबड़-तोड़ जवाब आएगा, आप जैसे लोगों की ऐसी नीच हरकतों पे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wikipedia Source where Jats are now mentioned as "Chandal" and "Achhoot", see its "Varna status" section: https://en.wikipedia.org/wiki/Jat_people
Chakravarti, Uma (2003) - Gendering caste through a feminist lens (1. repr. ed.)

जाटों को अछूत कहा जो आप जैसों द्वारा अच्युत न गिरने वाले/स्थिर का बिगाड़ा शबिद तथा चंडाल( चंड/फुर्तीले /उग्र तथा अल/योग्य का समास ) जाटों के विशेषणों को विकृत कर लिखा गया है lजिनसे सभी भयभीत रहते थ तथा इन्हें और तक्मा/रुद्र /ज्वर कहते थे l

Monday 2 May 2016

अंग्रेजों द्वारा बनाये गए कुछ ऐसे कानून, जिनकी वजह से मनुवादियों पर लगामें लगी!

आखिर अंग्रेजों के कानूनों में ऐसा क्या था कि 8वीं सदी से ले और 17वीं सदी तक के लगभग 900 साल के मुग़ल शासनकाल में मनुवादियों द्वारा एक बार भी "मुग़लो भारत छोड़ो!" किस्म के आंदलोन देखने को नहीं मिलते? जबकि अंग्रेजों के मात्र 200 साल के शासन में ही मनुवादी इतने उद्वेलित हो उठे कि किसी ने "स्वराज मेरा अधिकार" का नारा दिया तो कोई "अंग्रेजों भारत छोडो" का नारा देता था?

आईये डालें अंग्रेजों द्वारा बनाये गए ऐसे ही कुछ कानूनों की फेहरिस्त पर एक नजर, जो मनुवाद की राह में रोड़ा बने और यह अंग्रेजों से बिदके भी और उनसे ऐसे चिड़े कि आज भी आपको-हमको अंग्रेजों को सबसे बड़ा दुश्मन दिखाते हैं| हालाँकि वो बात अलग है कि फिर भी मनुस्मृति ईरानी की बेटी अंग्रेजों की यूनिवर्सिटी में ही शिक्षा लेने जाती है|

1) 1773 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रेगुलेटिग एक्ट पास किया जिसमें न्याय व्यवस्था समानता पर आधारित थी। 6 मई 1775 को इसी कानून द्वारा बंगाल के सामन्त ब्राह्मण नन्द कुमार देव को फांसी हुई थी।
2) अंग्रेजो ने 1795 में अधिनयम 11 द्वारा शुद्रों को भी सम्पत्ति रखने का कानून बनाया।
3) 1804 अधिनीयम 3 द्वारा कन्या हत्या पर रोक अंग्रेजों ने लगाई (लडकियों के पैदा होते ही तालु में अफीम चिपकाकर, माँ के स्तन पर धतूरे का लेप लगाकर, एवम् गढ्ढा बनाकर उसमें दूध डालकर डुबो कर मारा जाता था )|
4) 1813 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर शिक्षा ग्रहण करने का सभी जातियों और धर्मों के लोगों को अधिकार दिया।
5) 1813 में ने दास प्रथा का अंत कानून बनाकर किया।
6) 1817 में समान नागरिक संहिता कानून बनाया (1817 के पहले सजा का प्रावधान वर्ण के आधार
पर था। ब्राह्मण को कोई सजा नही होती थी ओर शुद्र को कठोर दंड दिया जाता था। अंग्रेजो ने सजा का प्रावधान समान कर दिया।)
7) 1819 में अधिनियम 7 द्वारा ब्राह्मणों द्वारा शुद्र स्त्रियों के शुद्धिकरण पर रोक लगाई। (शुद्रों की शादी होने पर दुल्हन को अपने यानि दूल्हे के घर न जाकर कम से कम तीन रात ब्राह्मण के घर शारीरिक सेवा देनी पड़ती थी।)
8) दिसम्बर 1829 के नियम 17 द्वारा विधवाओं को जलाना अवैध घोषित कर सती प्रथा का अंत किया।
9) 1830 नरबलि प्रथा पर रोक (देवी -देवता को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण शुद्रों, स्त्री व् पुरुष दोनों को मन्दिर में सिर पटक पटक कर चढ़ा देता था।)
10) 1833 अधिनियम 87 द्वारा सरकारी सेवा में भेद भाव पर रोक अर्थात योग्यता ही सेवा का आधार स्वीकार किया गया तथा कम्पनी के अधीन किसी भारतीय नागरिक को जन्म स्थान, धर्म, जाति या रंग के आधार पर पद से वंचित नही रखा जा सकता है।
11) 1834 में पहला भारतीय विधि आयोग का गठन हुआ। कानून बनाने की व्यवस्था जाति, वर्ण, धर्म और क्षेत्र की भावना से ऊपर उठकर करना आयोग का प्रमुख उद्देश्य था।
12) 1835 प्रथम पुत्र को गंगा दान पर रोक (ब्राह्मणों ने नियम बनाया की शुद्रों के घर यदि पहला बच्चा लड़का पैदा हो तो उसे गंगा में फेंक देना चाहिये। पहला पुत्र ह्रष्ट-पृष्ट एवं स्वस्थ पैदा होता है। यह
बच्चा ब्राह्मणों से लड़ न पाए इसलिए पैदा होते ही गंगा को दान करवा देते थे।
13) 7 मार्च 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति राज्य का विषय बनाया और उच्च शिक्षा को अंग्रेजी भाषा का माध्यम बनाया गया।
14) 1835 को कानून बनाकर अंग्रेजों ने शुद्रों को कुर्सी पर बैठने का अधिकार दिया।
15) देवदासी प्रथा पर रोक लगाई। ब्राह्मणों के कहने से शुद्र अपनी लडकियों को मन्दिर की सेवा के लिए दान देते थे। मन्दिर के पुजारी उनका शारीरिक शोषण करते थे। बच्चा पैदा होने पर उसे फेंक देते थे। और उस बच्चे को हरिजन नाम देते थे। 1931 को जातिवार जनगणना के आंकड़े के अनुसार अकेले मद्रास में कुल जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी जिसमें 2 लाख देवदासियां मन्दिरों में पड़ी थी।
यह प्रथा अभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरो में चल रही है।
16) 1837 अधिनियम द्वारा ठगी प्रथा का अंत किया।
17) 1849 में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय जे ई डी बेटन ने स्थापित किया।
18) 1854 में अंग्रेजों ने 3 विश्वविद्यालय कलकत्ता मद्रास और बॉम्बे में स्थापित किये। 1902 मे विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया गया।
19) 6 अक्टूबर 1860 को अंग्रेजों ने इंडियन पीनल कोड बनाया। लार्ड मैकाले ने सदियों से जकड़े शुद्रों की
जंजीरों को काट दिया ओर भारत में जाति, वर्ण और धर्म के बिना एक समान क्रिमिनल लॉ लागु कर दिया।
20) 1863 अंग्रेजों ने कानून बनाकर चरक पूजा पर रोक लगा दिया (आलिशान भवन एवं पुल
निर्माण पर शुद्रों को पकड़कर जिन्दा चुनवा दिया जाता था| इस पूजा में मान्यता थी की भवन
और पुल ज्यादा दिनों तक टिकाऊ रहेगें।
21) 1867 में बहू विवाह प्रथा पर पुरे देश में प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से बंगाल सरकार ने एक कमेटी गठित किया।
22) 1871 में अंग्रेजों ने भारत में जातिवार गणना प्रारम्भ की। यह जनगणना 1941 तक
हुई। 1948 में पण्डित नेहरू ने कानून बनाकर जातिवार गणना पर रोक लगा दी।
23) 1872 में सिविल मैरिज एक्ट द्वारा 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं एवम् 18 वर्ष से कम आयु के लड़को का विवाह वर्जित करके बाल विवाह पर रोक लगाई।
24) अंग्रेजों ने महार और चमार रेजिमेंट बनाकर इन जातियों को सेना में भर्ती किया लेकिन 1892
में ब्राह्मणों के दबाव के कारण सेना में अछूतों की भर्ती बन्द हो गयी।
25) रैयत वाणी पद्धति अंग्रेजों ने बनाकर प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार को भूमि का स्वामी स्वीकार
किया।
26) 1918 में साऊथ बरो कमेटी को भारत में अंग्रेजों ने भेजा। यह कमेटी भारत में सभी जातियों का विधि मण्डल (कानून बनाने की संस्था) में भागीदारी के लिए आया था। शाहू जी महाराज के कहने पर पिछङो के नेता भाष्कर राव जाधव ने एवम् अछूतों के नेता डा अम्बेडकर ने अपने लोगों को विधि मण्डल में भागीदारी के लिये मे मोरेंडम दिया।
27) अंग्रेजो ने 1919 में भारत सरकार अधिनियम का गठन किया ।
28) 1919 में अंग्रेजो ने ब्राह्मणों के जज बनने पर रोक लगा दी थी और कहा था की इनके अंदर
न्यायिक चरित्र नही होता है।
29) 25 दिसम्बर 1927 को डा अम्बेडकर द्वारा मनु समृति का दहन किया।
30) 1 मार्च 1930 को डा अम्बेडकर द्वारा काला राम मन्दिर (नासिक) प्रवेश का आंदोलन चलाया।
31) 1927 को अंग्रेजों ने कानून बनाकर शुद्रों के सार्वजनिक स्थानों पर जाने का अधिकार दिया।
32) नवम्बर 1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति की। जो 1928 में भारत के लोगों को अतिरिक्त अधिकार देने के लिए आया। भारत के लोगों को अंग्रेज अधिकार न दे सके इसलिए इस कमीशन के भारत पहुँचते ही गांधी ने इस कमीशन के विरोध में बहुत बड़ा आंदोलन चलाया। जिस कारण
साइमन कमीशन अधूरी रिपोर्ट लेकर वापस चला गया। इस पर अंतिम फैसले के लिए अंग्रेजों ने भारतीय प्रतिनिधियों को 12 नवम्बर 1930 को लन्दन गोलमेज सम्मेलन में बुलाया।
33) 24 सितम्बर 1932 को अंग्रेजों ने कम्युनल अवार्ड घोषित किया जिसमें प्रमुख अधिकार निम्न दिए:
A--वयस्क मताधिकार
B--विधान मण्डलों और संघीय सरकार में जनसंख्या के अनुपात में अछूतों को आरक्षण का अधिकार
C--सिक्ख, ईसाई और मुसलमानों की तरह अछूतों को भी स्वतन्त्र निर्वाचन के क्षेत्र का अधिकार मिला। जिन क्षेत्रों में अछूत प्रतिनिधि खड़े होंगे उनका चुनाव केवल अछूत ही करेगें।
D--प्रतिनिधियोंको चुनने के लिए दो बार वोट का अधिकार मिला जिसमें एक बार सिर्फ अपने
प्रतिनिधियों को वोट देंगे दूसरी बार सामान्य प्रतिनिधियों को वोट देगे।
34) 19 मार्च 1928 को बेगारी प्रथा के विरुद्ध डा अम्बेडकर ने मुम्बई विधान परिषद में आवाज
उठाई। जिसके बाद अंग्रेजों ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया।
35) अंग्रेजों ने 1 जुलाई 1942 से लेकर 10 सितम्बर 1946 तक डाॅ अम्बेडकर को वायसराय
की कार्य साधक कौंसिल में लेबर मेंबर बनाया। लेबरो को डा अम्बेडकर ने 8.3 प्रतिशत आरक्षण दिलवाया।
36) 1937 में अंग्रेजों ने भारत में प्रोविंशियल गवर्नमेंट का चुनाव करवाया।
37) 1942 में अंग्रेजों से डा अम्बेडकर ने 50 हजार हेक्टेयर भूमि को अछूतों एवम् पिछङो में बाट देने के लिए अपील किया| अंग्रेजों ने 20 वर्षों की समय सीमा तय किया था।
38) अंग्रेजों ने शासन प्रसासन में ब्राह्मणों की भागीदारी को 100% से 2.5% पर लाकर खड़ा कर दिया था।

यही वजहें थी कि क्यों तो मनुवादी लार्ड मैकाले से चिड़ते थे और आज भी चिड़ते हैं और क्यों यह आज भी अंग्रेजों को दुश्मन बताते नहीं थकते| जबकि शायद ही कोई ऐसा मनुवादी होगा, कि जिसका अपने बच्चे को अंग्रेजों के देश में भेजने का सामर्थ्य हो और उसका बच्चा, इन्हीं अंग्रेजों की यूनिवर्सिटियों से शिक्षा अर्जित ना कर रहा हो।

हाँ, देश गुलाम था, उस वक्त भी और आज भी गुलाम है, फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक्त हम गौरे परन्तु मानवता-जातिवाद पर भेदभाव ना करने वालों के गुलाम थे, आज उनसे भी घातक जाति-वर्ण-धर्म-सम्प्रदाय हर स्तर पर भेदभाव करने वाले मनुवादियों के गुलाम हैं|

Source: Januday - Article 7810

जय यौद्धेय! - फूल मलिक