Saturday 30 July 2016

हिन्दू धर्म का यह सिस्टम जो दान तो लेता है, परन्तु हिसाब या विश्वास नहीं देता; अब लदवाना होगा!

हिन्दू धर्म में ही है अपने लोगों को जातिवाद और वर्णवाद के नाम पर बाँट के रखने की परम्परा, बाकियों में इन जैसा घिनौना रूप तो कम-से-कम नहीं:

1) ईसाई चर्च में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि चर्च वाले उनके दान को उनके धर्म को फैलाने, उनके इतिहास-संस्कृति को सहेजने, धर्म के लोगों पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा से निबटने व् धर्म के दुश्मनों से निबटने में लगाएंगे| अगर उनको पता चले कि उनका ही दान दिया पैसा उनके ही धर्म के अंदर हिन्दू धर्म की भांति जातिवाद व् वर्णवाद को बढ़ावा देने हेतु प्रयोग होगा या होता है तो वो अगले ही दिन पादरियों के मुंह नोंच लें| 1789 में हुई फ़्रांसिसी क्रांति इसी का उदाहरण थी जिसमें कि उद्योग और धर्म के पाखंडियों को मात्र 29 युवकों की टोली ने सीधा कर दिया था और ऐसा सीधा किया था कि आजतक नियम लागू है कि एक तो धर्म से सम्बन्धित कोई भी कार्यक्रम चर्च के परिसर से बाहर यानी गली-मोहल्लों में नहीं होगा और दूसरा धर्म के नाम पर दान आये पैसे का धर्म के ही अंदर वैमनस्य फैलाने में प्रयोग नहीं होगा|

2) मुस्लिम मस्जिद में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है मस्जिद में गए धन पर हिन्दू धर्म की भांति मात्र 2-4% लोगों का ही अधिपत्य नहीं होगा; बंटेगा तो सब धड़ों में बंटेगा वो भी बराबरी से अन्यथा नहीं| इनको पता होता है कि तुम पर मुज़फरनगर जैसी दंगे वाली स्थिति आएगी तो तुम्हारी मस्जिद-मदरसे अपने धन के भंडारों को तुम्हारी मदद के लिए खोल देंगे| और मुज़फरनगर दंगे के वक्त ऐसा देखा भी गया| इनको पता है कि ईसाईयों की भांति तुम्हारे धन को भी तुम्हारे धर्म को फैलाने, तुम्हारी इतिहास-संस्कृति को सहेजने, धर्म के लोगों पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा से निबटने व् धर्म के दुश्मनों से निबटने में लगाएंगे| भले ही दुश्मनों से निबटने के लिए यह लोग गोल-बारूद तक चले जाते हैं परन्तु धर्म के अंदर जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करने में प्रयोग नहीं करते| शुक्र है कि मुस्लिम हो या ईसाई, हिंदुओं की भांति इनके अल्लाह व् ईसामसीह, अस्त्र-असला (गदा-तलवार-भाले-फरसे ईत्यादि) हाथों में धार के अपने ही अनुयायिओं पर अतरिक्त प्रेशर वो भी डर-भय वाला बनाने हेतु तो नहीं विरजवाये होते| और धर्म के अंदर करते भी हैं तो कम से कम इस तरह तो कतई नहीं कि समाज की एक जाति एक तरफ और बाकी सब एक तरफ| सिया-सुन्नी धड़े हैं इनके यहां, परन्तु बराबरी की संख्या में और आपस में विचारधारा के मतभेद पे| जाट बनाम नॉन-जाट वालों की भांति किसी के गौरव-स्वाभिमान को तोड़ने-झुकाने की भांति नहीं|

प्रेमचंद ने लिखा था - " यह बिलकुल गलत है, कि इसलाम तलवार के बल से फैला. तलवार के बल से कोई धर्म नहीं फैलता,और कुछ दिनों के लिए फ़ैल भी जाय ,तो चिरजीवी नहीं हो सकता. भारत में इस्लाम के फैलने का कारण , ऊंची जातवाले हिन्दुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था. बौद्धों ने ऊंच नीच का ,भेद मिटाकर नीचों के उद्धार का प्रयास किया ,और इसमें उन्हें अच्छी सफलता मिली, लेकिन जब हिन्दू धर्म ने फिर ज़ोर पकड़ा ,तो नीची जातियों पर फिर वही पुराना अत्याचार शुरू हुआ ,बल्कि और जोरों के साथ. ऊंचों ने नीचों से उनके विद्रोह का बदला लेने की ठानी . ...यह खींच-तान हो ही रही थी कि इसलाम ने नए सिद्धांतों के साथ पदार्पण किया .वहां उंच-नीच का भेद न था .छोटे-बड़े ,उंच-नीच की कैद न .थी ....इसलिए नीचों ने इस नए धर्म का बड़े हर्ष से स्वागत किया,और गाँव केगाँव मुसलमान हो गए. जहाँ वर्गीय हिन्दुओं का अत्याचार जितना ही ज्यादा था, वहां यह विरोधाग्नि भी उतनी ही प्रचंड थी,और वहीं इसलाम की तबलीग भी खूब हुयी ...यह है इसलाम के फैलने का इतिहास, और आज भी वर्गीय हिन्दू अपने पुराने संस्कारों को नहीं बदल सके हैं......तो इसलाम तलवार के बल से नहीं ,बल्कि अपने धर्म-तत्वों की व्यापकता के बल से फैला."---प्रेमचंद( नवम्बर 1931)

3) सिख धर्म वाले गुरुद्वारों में इसलिए दान देते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि तुम्हारा दान गरीब-मजलिस को खिलाने में प्रयोग किया जायेगा| तुम्हारे इतिहास व् इतिहास पुरुषों की गौरवगाथा के बखानों में प्रयोग किया जायेगा| धड़े इनके यहां भी हैं परन्तु हिन्दू धर्म की भांति हर धड़े को एक ही बिरादरी वाला हेड नहीं करता| उस धड़े को उसी समुदाय वाला हेड करता है और अपने हिस्से के दान के पैसे को अपनी निगरानी में बरतवाता है|

4) बुद्ध धर्म, अपने धर्म के अंदर शांति और एकलास रखने वाला सबसे बुद्धिजीवी धर्म| इस धर्म के दान और अध्यात्म की ताकत का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि जापान जैसे सबसे अगड़ी श्रेणी की टेक्नोलॉजी इंनोवट करने वाले देश इस धर्म के अनुयायी हैं|

5) ऐसे ही कई सारे अन्य धर्म, जैसे कि जैन इत्यादि जो अपने धर्म के अंदर कभी भी इतने व्यापक स्तर का जातिवाद और वर्णवाद नहीं होने देते, जितना कि हिन्दू धर्म में है|

6) हिन्दू धर्म वाले कहते मिलेंगे अजी हम तो बड़े ही शांतिप्रिय धर्म हैं, आज तक का हमारा इतिहास उठाकर देख लीजिये, हमने किसी पे हमला नहीं किया, विदेशों में लूटपाट करने नहीं गए| इसकी वजह इन्हीं की थ्योरी में है| और वो है कि आपने दूसरों की तरह अपने धर्म के अंदर एकलास जो बना के नहीं रखा? जब आपने धर्म के अंदर ही जातिवाद और वर्णवाद बना के खड़ा कर दिया तो आपको इसकी फुर्सत कहाँ से मिलेगी कि आप किसी बाहर वाले पे आक्रमण करें? आप तो अपने धर्म के अंदर ही कभी दलितों पर, कभी पिछड़ों पर आक्रमण करते रहे हैं| जो धर्म के अंदर काबू का नहीं होता जैसे कि जाट, उनके खिलाफ साजिशें, षड्यन्त्र रचते रहे हैं| आपको इनसे फुर्सत ही कब मिली जो आप धर्म के बाहर जा कर हमले या लूटपाट करने की सोचते भी? बल्कि धर्म के अंदर इन चीजों में उलझे रहे, इसीलिए तो विदेशी आ के आपकी 1100 साल तक बैंड बजाये हैं| और इस 1100 साल के लम्बे इतिहास से सीख भी कुछ नहीं ली, वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को| बाजी-बाजी 68 साल की आज़ादी हुई नहीं कि खोल दिए वही धर्म के अंदर ही कांट-छांट के अखाड़े जिनके चलते उस वक्त गुलाम हुए थे| सबसे बड़ा उदाहरण जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा सबके सामने है|

उद्घोषणा: मैं इसी विषय पर खुली बहस चाहता हूँ| इस विषय के इर्दगिर्द तमाम तथ्य सुनना और सीखना चाहता हूँ| हो सकता है कि इन तथ्यों को रखते हुए मैं गलत भी होऊं| परन्तु मैं बहुत ही सीरियस हूँ इस मुद्दे को लेकर, क्योंकि धर्म के नाम पर मेरे से (जाट से) ही पैसा लेकर मेरे ही खिलाफ जाट बनाम नॉन-जाट रचते हैं| मेरे को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा कोई मुस्लिम आतंकवादी आ के नहीं थमा गया, या कोई ईसाई आ के नहीं मुझे इस घिनौनी बाँटने और काटने के षड्यन्त्र में डाल गया अपितु मेरे ही धर्म का होने के दावे करने वालों वालों ने मुझे इसमें डाला है| जिसमें कि अगर मैं नहीं पड़ा होता तो गणतांत्रिक खाप थ्योरी के मेरे अपने "जाट-पुरख" सिद्धांत में शांति और सम्मान से जी रहा होता| इसलिए मैं चाहता हूँ कि मैं उस जड़ को ही खत्म कर दूँ, उस परम्परा को ही खत्म कर दूँ जिसको कहते हैं कि "दिए हुए दान का हिसाब नहीं माँगा जाया करता!" या कहते हैं ही "गुप्तदान, सर्वोत्तम दान!" हाँ, भाई सर्वोत्तम बोल के एक झटके में हिसाब देने से जो पिंड छूट जाता है, तो सर्वोत्तम तो अपने आप ही होगा|

मैं चाहता हूँ कि अब यह सिस्टम जो दान तो लेता है, परन्तु हिसाब नहीं देता; लदवाना होगा| जो दान लेता है और सिर्फ 2-4% बिरादरी वाले एक समुदाय के आधिपत्य में ही जमा हो के रह जाता है, फिर वो उसको जाट बनाम नॉन-जाट रचने में लगाएं, दलित उत्पीड़न में लगाएं या जहां मर्जी लगाएं, कोई पूछने वाला ही नहीं|
इसलिए इस पोस्ट पर और इसके मर्म को ना समझते हुए सिर्फ गाली गलोच करके ना जावें, कोई तर्क-वितर्क की बात हो तो रख के जावें| वरना आपकी गाली, आपका गुस्सा आपके सर-माथे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 29 July 2016

भक्ति और अंधभक्ति में फर्क!

भक्ति बिना ढिंढोरे की:
ताऊ देवीलाल और लालू प्रसाद यादव ने दिल्ली स्थित अपने एम.पी. आवासों पर भी 3-3, 4-4 गायें रखी।

अंधभक्ति खाली छिछोरेपन की:
1) ताऊ देवीलाल और लालू यादव द्वारा गाय पालने पर यही अंधभक्तों के आका बिरादरी नाक-भों सिकोड़ के ताने दिया करती थी कि इनके एम.पी. निवासों पर तो गोबर की बदबू फैली रहती है।

2) गौभक्तों के सफेदपोश एम.पी. तो छोडो, उनकी तो बात ही क्या करनी; क्या जो भगमापोश गंगा किस सफाई तक का मंत्रालय सम्भालने वाली उमा भारती, बात-बात पर कभी पाकिस्तान भेजने की बात करने वाले, कभी मुल्लों के जितने बच्चे पैदा करने वाले साक्षी महाराज, साध्वी प्राची, योगीनाथ इत्यादि क्या इन तक के भी एम.पी. आवासों पर है एक बछिया भी बंधी?

इसीलिए हरयाणा में और खासकर जाटों के यहां इन बड़बोलों का एक ही इलाज होता आया है और वो है लठ। पहुंचे हुए जाट अच्छे से जानते हैं कि यह सिर्फ बातों के भूत हैं, जिनका इलाज सिर्फ लठ है। और जो पहुँचे हुए नहीं होने की नौटंकी करते हैं वो इन बहरूपियों के यहां पानी भरते हैं और अपनी दुर्गति के साथ-साथ समाज का बंटाधार किये रहते हैं।

सबसे बड़ा अवरोध है यह भारतीय समाज की तरक्की का। एक इकलौते यही हैं बस जो धर्म के नाम पे लोगों को अपना बताते हैं (हिन्दू) और उन से धर्म के नाम पे जो पैसा मिलता है उसको इन्हीं हिंदुओं को बाँट के रखने पे बहाते हैं। उदाहरणतः हरयाणा-राजस्थान में जाट बनाम नॉन-जाट, गुजरात में पटेल बनाम नॉन-पटेल, यूपी-बिहार में यादव बनाम नॉन-यादव।

क्या कभी देखा है ईसाई, बुद्ध या मुस्लिम धर्म के धर्मगुरुवों को धर्म के नाम पे लिए पैसे को अपने ही अनुयायियों में चीर-फाड़ मचाने हेतु इस वाहियात तरीके से प्रयोग करने में जैसे यह हिन्दू वाले करते हैं? कोई ईसाई-बुद्ध-सिख-मुस्लिम धर्म के नाम पर दान देता है तो उसको पता होता है कि उसका धन उसकी संस्कृति-इतिहास-मान-सम्मान के संवर्धन में लगाया जायेगा। परन्तु यह हिंदुत्व के नाम पर खाने वाले, इनका सबको पता है कि तुम्हारी ही ऐसी-तैसी करने में यह इस पैसे को प्रयोग करेंगे और फिर भी फद्दू बनके इनको चढ़ाते रहते हैं।

मेरे ख्याल से इससे बड़े उदाहरण नहीं हो सकते, पर फिर भी लगता है कि लोगों को इस अंधभक्ति नामक गुलामी की जंजीरों प्यार हो चला है। लोगों को समझना होगा कि अंग्रेज-मुग़ल काल के अलावा एक गुलामी से छुटकारा पाना और बचा है और उसका नाम है यह अंधभक्ति और इसके रचियता।

विशेष: अब कृपया करके मुझे कोई यह कहते हुए मत आना कि तुम हिंदुत्व के पीछे पड़े रहते हो, कभी मुल्लों पर क्यों नहीं लिखते। तो ऐसे लोगों को बता दूँ ही यूनियनिस्ट मिशन में हर धर्म का सदस्य है और अपने धर्म की बुराईयों पर रोशनी डालने का काम हमारे यहां उस धर्म से सम्बन्धित सदस्य का है। इस मामले में हम अपने घर की सफाई पहले और पड़ोसी की बाद में वाले सिद्धांत के अनुसार चलते हैं। हमारे मिशन के मुस्लिम सदस्य उनके धर्म के यहां की बुराईयों पर पटाक्षेप करते रहते हैं। परन्तु कोई भी दूसरे के धर्म में घुस के उनके यहां का गन्द नहीं देखता, यह उस धर्म वाले का घर है; अतः उसकी जिम्मेदारी है कि वो ही इसका पटाक्षेप करे और यह अच्छे से किया जा रहा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा"


टेक: 'बादळ उठ्या री सखी, मेरे सांसरे की ओड़'

साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||
बादळ उठें उमडें-घुमडें, रुक्खां कै गळ-मठ्ठे घालैं,
प्यछ्वा के झ्यकोळए चालैं, ओळए-बोळए-सोळए चालैं|
मोराँ के पिकोहे गूंजें, स्यमाणे अर अम्बर झूमैं,
नाचण के हिलोरें पड़ें, गात्तां म्ह डयठोरे डटैं।।
सुवासण ज्यूँ हरियल खेती, जावै चढ़ी-ए-चढ़ी|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

कोथळीयाँ के लारें पडैं, शक्कर और पारे घूटें,
द्य्लां म्ह हुलारे फुटटें, भाहणां के रे हिया छूटें|
पींघां की च्यरड़-म्यरड़, सास्सुवां के नाक टूटें,
माँ के जाए कद आये न्यूं, नैनां म्ह तें अश्रु फूटें||
मुखड़ा द्य्खा दे रे बीरा, बाट मैं जोह करड़ी रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

बाग्गां से फूल जडूं, फून्द्याँ आळी पोंह्ची बनूं,
छ्यांट-छ्यांट रंग धरूं, बीरे की कलाई भरूँ|
मूळ तें हो सूद प्यारा, भतिज्याँ के लाड लड़ूं,
माँ-बाप्पां से भाई हो सैं, किते छिक्कें किते टांड धरुं||
हे री ना चहिये मैंने चांदी-सोना, बस माँ के ज्यायां की हो उम्र बड़ी।
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

नगरां के प्यटारे हो सें, भक्ति के भी लारे हों सें,
दादे-खेड़े के द्वारे धोकूं, जो पुरख्यां के मान हो सैं।
सासु-पीतस नैं श्याल उढ़ाउं, ससुर-पितसरे की खेस्सी ल्याऊं,
फुल्ले-भगत नयुँ-ए-हांडै रूळदा, तैने तो बस ठोसयां जळाऊँ।
जहर हो पीणा, भोळे जिह्सा जीणा, घड़ी बख्त की गा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||
साम्मण उतरया - म्हारे हो आंगणा, घटा मतवाळी छा रही|
जेठ की गर्मी - साढ़ की गय्रवा, छब-छब-छब म्ह जा धूळी||

जय यौद्धेय!

लेखक: फूल कुमार मलिक!

Wednesday 27 July 2016

जाट जातिवादी नहीं होता, जाट को ऐसा बताने वालों की नियत में द्वेष होता है!

ग्रेटर हरयाणा (वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान) के हर दस किलोमीटर पर एक गुरुकुल, हर दूसरे डिस्ट्रिक्ट सिटी में एक जाट कॉलेज और एक जाट स्कूल मिलता है| गुरुकुल अधिकतर जाटों की दान की हुई भूमि पर बने हुए हैं|

बात करता हूँ जाति के नाम पर बने हुए जाट स्कूल व् कॉलेजों की, इनमें किसी में भी यह नियम नहीं कि सिर्फ जाट का बालक ही इनमें पढ़ेगा, या इनका टीचिंग से ले नॉन-टीचिंग स्टाफ सब सिर्फ जाट ही होगा|

परन्तु इसी हरयाणा में दो कॉलेज तो मैं निजी तौर पर जानता हूँ, जिनके नाम भी ब्राह्मण जाति के महापुरुषों पर हैं और टीचिंग व् नॉन-टीचिंग पूरा स्टाफ सिर्फ ब्राह्मण होगा, इस कंडीशन के साथ यह कालेज चलते हैं| शायद इनमें पढ़ने वाले भी कम से कम 90% तो ब्राह्मण हैं ही, शायद हों इससे ज्यादा भी| और यह कॉलेज हैं कुरुक्षेत्र में पड़ने वाला परशुराम कॉलेज और जींद जिले के रामराय में पड़ने वाला एक संस्कृत महाविद्यालय|
परन्तु फिर भी अस्वर्ण हो या खुद स्वर्ण ही क्यों ना हो, इनको जातिवादी दिखेगा या यह जातिवादी बताएँगे तो जाट को|

क्या वक्त नहीं आ गया है कि अब ऐसे तमाम जाति-विशेष के स्टाफ और स्टूडेंट दोनों स्तर पर आरक्षित स्कूल-कालेजों को या तो सबके के लिए खुलवाया जाए, अन्यथा इन पर ताले लगवाए जाएँ?

विशेष अनुरोध जाट समाज से: दो चीजें दुरुस्त कर लो:

1) गाँव से जब भी अपने बच्चे को कुछ बड़ा बनने के लिए शहरों में भेजो तो उसको यह कदापि मत कहो कि खेती छोटा काम है, दुखदायी काम है, घाटे का काम है, यहाँ जीवन नहीं; बल्कि यह कहो कि तुम्हें अपनी जाति-संस्कृति-गाँव-खेड़े का नाम रोशन करने के साथ-साथ वापिस मुड़ के इनके सम्मान और सम्पदा को बढाने और बचाने में योगदान देना है| पहले वाला कारण देते रहे बुजुर्ग इसलिए मेरे पिता वाली पीढ़ी (आज के 45 से 65 साल का ग्रुप) में 90% जाट वापिस गाँवों की तरफ मुड़े ही नहीं| और यही वजह है कि शहरी चकचौंध को ही संस्कृति मान बैठे और रम गए जगराते-भंडारे-चौकी इत्यादि की संस्कृति में| यह घर के अगले दरवाजे से कमा के लाते हैं और इनकी तथाकथित आधुनिकता में चूर औरतें घर के पिछले दरवाजे से अधिकतर कमाई ढोंगी-पाखंडी-सत्संगी-पूछा पाडू-बाबों इत्यादि के नल में उतरती रहती है और राजी हुई रहती हैं कि तुमसे बड़ी कलावंती ना कोई हुई ना होगी| सच कह रहा हूँ 90% शहरी जाटों की जिंदगी इससे ज्यादा कुछ नहीं कि मर्द अगले दरवाजे से कमा के लाएगा और घर की औरतें उसको पिछले दरवाजे से पाखंडियों को पूजती रहेंगी| और यह पाखंडी भी तो कौन है; सिर्फ और सिर्फ मंडी-फंडी|

2) मेरे दादा जी वाली पीढ़ी अपने दान के पैसे को अपने हाथों से लगाती थी, इसलिए अंधाधुंध स्कूल-कालेज-गुरुकुल बनवाये| और मेरे पिता वाली पीढ़ी ने यह ठेका अपनी घर की औरतों के जरिये थमा रखा है इन ढोंगी-पाखंडियों को, इसलिए सिर्फ और सिर्फ मंदिर-धर्मशालाएं बन रही हैं| और बाकी के पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट के दंगल फाइनेंस हो रहे हैं|

इसलिए और कृपया आप मेरे पिता की पीढ़ी वालों से अनुरोध है कि कृपया हम आपके बच्चों को समझें, हमारा साथ देवें, हम अपने दादाओं की भांति हमारी कमाइयों के दान से स्कूल-कालेज बनवाना चाहते हैं, जाट भवन व् हैबिटेट सेंटर्स बनवाना चाहते हैं; मात्रा और मात्र मंदिर या धर्मशालाएं नहीं| मंदिर-धर्मशालाएं जरूरत के हिसाब से बनें परन्तु इतनी बेहिसाबी भी नहीं कि ऊपर बैठे हमारे दादे-पड़दादे हमारे को कोसते हों|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 24 July 2016

जातिगत द्वेष की राजनीति का इससे वाहियात और घिनौना रूप शायद ही भारतीय इतिहास में पहले कभी देखने को मिला हो!

11 जुलाई को ही नरसिंह यादव का डोपिंग टेस्ट फ़ैल हो चुका था, पोल खुलने के भय से उसको दबाया जा रहा था| 23 जुलाई तक इंतज़ार किया गया कि किसी तरह डोपिंग का इफ़ेक्ट खत्म हो जाए, परन्तु नहीं हुआ| और 23 जुलाई को फिर से किये गए टेस्ट में फिर से फ़ैल पाये रिजल्ट को पब्लिक करना इस बात के मद्देनजर इनकी मजबूरी हो गई थी कि रियो में डोपिंग टेस्ट से हो के गुजरना ही होगा| और वहाँ जानते-बूझते हुए वो एक डोपिंग में फ़ैल खिलाड़ी को नहीं भेज सकते, वर्ना भारत को अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक एसोसिएशन से भारी पेनल्टी झेलनी पड़ती| - खबर एक दम अंदर के विश्वस्त सूत्रों से हासिल हुई है|

ऐसे में सवाल यह उठता है कि 17-18 जुलाई को जब रियो टीम की लिस्ट रियो भेजी गई तो उसमें जानते-बूझते हुए एक ऐसे खिलाडी का नाम क्यों भेजा गया जो डोपिंग टेस्ट में फ़ैल हो चुका था? क्या भारत में जातीय-द्वेष की राजनीति इतना गन्दा रूप ले चुकी है कि इन लोगों के लिए देश का मान-सम्मान तक मिटाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई? क्या जब 11 जुलाई को ही नर सिंह यादव डोपिंग टेस्ट फ़ैल कर चुका था तो सुशील कुमार को नहीं बुलाया जा सकता था?

और यह हालत इस देश की तब है जब राष्ट्रवाद का दम भरने वालों की सरकार है| हिन्दू एकता और बराबरी के नारे लगाने वालों की सरकार है| क्या इनका यही राष्ट्रवाद है कि बस एक जाति विशेष का खिलाड़ी आगे नहीं जायेगा, बेशक देश का कोटा खाली चला जाए, बेशक देश की नाक कट जाए?

इससे भी बड़ा दुःख इस बात का है कि यह भार केटेगरी ऐसी केटेगरी थी जिसमें मैडल आने की सबसे प्रबल दावेदारी थी| एक दो बार का ओलिंपिक मेडलिस्ट हैट्रिक लगाने की कगार पर था, जो कि लगती तो भारतीय ओलिंपिक इतिहास में अनूठा कीर्तिमान होता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मनुवाद पर श्राप है जाट का!

मनुवाद को परमात्मा का श्राप है कि वो जाट की आत्मा दुखाये या जाट से सीधे टकराने की सोचे, तो उसमें हमेशा मुंह की खायेगा| मेरी इस बात को सत्यापित करती कुछ ऐतिहासिक तारीखें:

1) "हिस्ट्री ऑफ़ हरयाणा" पुस्तक के लेखक सर के.सी. यादव अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि मनुवाद ने बुद्ध बने जाटों पर कहर बरपाया, जिसकी वजह से जब जाट ने मनुवाद को ललकारा तो ऐसा ललकारा कि उनके जौहर और विजय शैली से प्रभावित हो अरब के खलीफा ने गठवाले जाटों को तो उनके यहां की सर्वोच्च उपाधि "मलिक" दे, अपने बराबर का माना|

2) सातवीं सदी में जब राजा चच और उसके पुत्र दाहिर ने सिंध में जाटों पर अत्यधिक अत्याचार किये तो किये, साथ ही अरब के व्यापारियों से पंगा ले बैठा और इस पर मोहमद बिन कासिम ने सिंध पर आक्रमण कर उसको हरा दिया| क्योंकि दाहिर ने जाटों पर कानून लगा रखा था कि जाट ना ही तो घोड़े की सवारी कर सकते और ना ही तलवार उठा सकते तो ऐसे में जब बिन कासिम आया तो जाट जैसी भीतरी ताकत उसी के कानून के चलते उसके साथ ना आ सकने की वजह से वो हार गया| यानि जाट की आत्मा दुखाई तो परमात्मा ने सीधी चोट मारी|

3) पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त पूना के पेशवाओं ने महाराजा सूरजमल को धोखे से बंदी बनाने की सोची; उनके साथ विश्वासघात किया तो जाट जैसी ताकत पानीपत में साथ ना होने की वजह से मनुवाद ने ऐसी शिकस्त खाई कि कहावत चली, "बिन जाट्टां किसने पानीपत जीते!"
 

4) सर छोटूराम के साथ मिलकर किसान-दलित-पिछड़े के लिए कार्य करने की बजाये मनुवाद हमेशा उनकी राह में रोड़े अटकाता रहा परन्तु फिर भी सर छोटूराम यूनाइटेड पंजाब में लेनिन-मार्क्स-चे ग्वेरा से भी अव्वल दर्जे का समाजवाद लागू कर उसको सफल बना के गए| और यह लोग सिर्फ खड़े देखते रहने के सिवाय कुछ नहीं कर पाये|
 

5) सरदार भगत सिंह को फांसी तुड़वा के गांधी जैसे मनुवादियों ने उनके प्रभाव को कम करना चाहा, परन्तु उनकी लाख कोशिशों के बावजूद भी सरदार भगत सिंह भारत के तो सबसे बड़े देशभक्त कहलाते ही हैं, साथ-साथ विश्व में उनके नाम की अलग पहचान है|

6) फरवरी 2016 में जाटों को एकमुस्त ताकत के साथ दबाने और कुचलने की कोशिश की गई, परन्तु मुंह की खानी पड़ी|

7) ऐसा ही कुछ जाट खिलाडियों के साथ किया जा रहा है, परन्तु जिधर भी यह जाट खिलाडियों के दिल दुखा रहे हैं, वहीँ-वहीँ यह श्राप इनका पीछा करता है|

इसलिए मनुवाद को यह बात समझनी चाहिए कि तू दलित-पिछड़े यहां तक कि राजपूतों तक पर राज कर सकता है, उनको अपने वशीकरण में रख सकता है; परन्तु साथ ही यह मत भूल कि जाट के मामले में तुझे सीधा परमात्मा का श्राप है| जाट को तू परेशान जरूर कर सकता है, परन्तु पराजित नहीं| जाट को तू सिर्फ मूल शंकर तिवारी उर्फ़ महर्षि दयानन्द बनके, सत्यार्थ प्रकाश में "जाट जी" बोल जाट की स्तुति करके तो जीत सकता है, परन्तु जाट की आत्मा दुखा के या उसको आँखें दिखा के नहीं|

विशेष: इन तारीखों को पढ़ के जाट आश्वस्त हो कर हाथ-पे-हाथ धर कर ना बैठे, अपितु इन तारीखों से प्रेरणा लेवें और वर्तमान जाट पर चल रहे मनुवाद के दमनचक्र और जाट को अपनी भाईचारा बिरादरियों से अलग करने के इनके षड्यंत्रों को तोड़ने हेतु जागरूकता फैलाते रहें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 22 July 2016

फसल बीमा की उगाही लाइफ-इंस्योरेंस और व्हीकल-इंस्योरेंस की तर्ज पर परन्तु भुगतान सरकारी मुआवजा तर्ज पर!

पीएम मोदी की फसल बीमा योजना कहती है कि यह बीमा यूनिट में मिलेगा, यूनिट यानि एक गाँव; मतलब बीमा भुगतान के तरीके वही सरकारी मुआवजा देने वाले परन्तु लेने का तरीका लाइफ-इंस्योरेंस और व्हीकल-इंस्योरेंस वाला|

मतलब बिजली का तार गिरने से या किसी भी वजह से एक गाँव की अगर 100-50 एकड़ जमीन की फसल जल गई तो बीमा नहीं मिलेगा| यानि बीमा लेना है तो या तो पूरे गाँव की फसल को आग लगाओ नहीं तो खुद फांसी पे लटक जाओ|

दूसरा अगर आपके गाँव में आपके खेतों से निकलते नदी-नहर-रजवाहे से पानी टूट गया और इस टूटन के आसपास के 100-50-500 एकड़ की फसल बहा ले गया, तो भी आपको बीमा नहीं मिलेगा| ऐसी हालत में उस बहाव को रोकने की बजाये इंतज़ार करो कि इतना फैले कि सारे गाँव यानि पूरी यूनिट की फसलों को लील जाए, तभी आपको बीमा मिलेगा|

पीएम मोदी, आरएसएस से अपील है कि "हिन्दू एकता और बराबरी" के सिद्धांत को या तो सही से अप्लाई करो, यानि जब तक पूरे एक शहर या कॉलोनी की कारों का एक्सीडेंट ना हो जाए, तब तक किसी एक कार वाले को इंस्योरेंस नहीं मिलेगा; या फिर किसी शहर-कॉलोनी-गाँव में कोई एक व्यक्ति मर जाए या उसकी दुर्घटना हो जाए तो उसको बीमा का लाभ नहीं मिलेगा; वो तभी मिलेगा जब या तो उस यूनिट यानि गाँव-शहर-कालोनी वाले सारे मर जाएँ या दुर्घटनाग्रस्त हो जाएँ| या फिर किसानों की फसलों का बीमा भी सिंगल कार और सिंगल लाइफ पैटर्न पर ही मिले, यूनिट के आधार पर नहीं|

पहले तो सरकारी मुआवजा मिलता था तो मान लिया जाता था कि चलो यह बीमा थोड़े ही है जो सिंगल एकड़ पर मिलेगा, परन्तु अब तो इसको बीमा का रूप बन दिया गया है तो फिर भी इसकी उगाही तो लाइफ-इंस्योरेंस और व्हीकल-इंस्योरेंस की तर्ज पर परन्तु भुगतान वही पुराने सरकारी मुआवजा वाली तर्ज पर?

परन्तु मुझे अहसास है और दुर्भाग्य है कि इन चिकने घड़ों पर इन व्याख्यानों का कोई असर नहीं होने वाला| इनके सिर्फ दो ही इलाज हैं एक तो 2019 में वोट की चोट और दूसरा इनकी दृष्टताएं यूँ ही बढ़ती रही और यही सिर्फ बातों के बोलों से ही पकाते रहे तो फिर इनके साथ "रैलियों में सीधे विरोध" के मोर्चे; जैसे कि अभी रोहतक में होने वाली सैनी की रैली के लिए जाटों ने बोल दिया कि या तो समस्त पिछड़ों की रैली करे, अन्यथा ऐसे सत्ता (कॉर्पोरेट और आरएसएस मेरी खोज के मुताबिक) के इशारे पर समाज को बाँटना बंद करे|

यानि इससे पहले यह लोग इस प्रकार के भेदभाव की जोंक आमजन पर चपेट-चपेट के आपका खून चूस डालें, इनको इनकी हैसियत दिखा दो| परन्तु इस हैसियत दिखाने की अवस्था तक एक असरदार तरीके से पहुंचना है तो 'अजगर' समूह के साथ-साथ तमाम किसान बिरादरी पहले एक होवे और सैनी-आर्य-यादव-राव-कम्बोज जैसे किसान जातियों से होते हुए भी किसान जातियों को बांटने वालों और धनखड़-बराला जैसे किसान जातियों को गुमराह करने वालों के मुंह थोबने यानि बंद करने से किसान वर्ग ही इसकी शुरुआत करे|

क्योंकि यह लोग अब हालात उस स्तर तक ले जाने पर आमादा हैं कि चुप रहे तो मर और बोले तो मर| तो जब इन्होनें किसान को मारना ही ठान लिया है तो बेहतर है कि आवाज बुलंद करके मरो, ताकि आपकी आगे वाली पीढ़ी तो सचेत हो जाए| समाज के वो तबके तो सचेत हो जाएँ, जो किसान के प्रति जिंदादिली रखते हैं, सौहार्द रखते हैं, श्रद्धा रखते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अपराध में मास्टरमाइंड को फ्री छोड़ता हमारा सुप्रीम-कोर्ट!

राहुल गांधी को डांटते हुए सुप्रीम कोर्ट कहता है कि "गोडसे के अपराध के लिए आरएसएस को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं!"

यह तो वही बात हो गई कि 26/11 मुंबई अटैक के लिए सिर्फ कसाब को दोषी ठहराया जाए, इसके मास्टरमाइंड संगठन/गिरोह, हाफिज सईद या पाकिस्तान को नहीं?

क्या हो गया है हमारे कोर्टों तक को? यानि यह साफ़ इशारा है कि मास्टरमाइंड सामने मत आओ, बस गुर्गों से अपराध करवाओ और गुर्गे को ही दोषी ठहराओ और मास्टरमाइंड आजीवन मलाई मारते रहो?

यानि किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक-सामाजिक अपराध-दंगे के मास्टरमाइंड गुंडों को खुला रास्ता होने का सीधा इशारा सुप्रीम कोर्ट से मिल रहा है कि तुम लोग देश में कितने ही दंगे-फसाद करवाओ, तुम्हारे ऊपर कोई आंच नहीं आएगी; बस तुम्हारे गुर्गों को दोषी ठहरा के तुम्हें साफ निकाल दिया जाया करेगा|

यह बहुत ही घातक परिपाटी ईजाद की है सुप्रीम कोर्ट ने जो कि देश को अवसाद की अवस्था में ले जा के खड़ी कर देगी|

बाकी नत्थूराम गोडसे का आरएसएस से क्या कनेक्शन था इसपे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद काफी मटेरियल प्रिंट व् सोशल मीडिया पर आ ही चुका है; जिसके अनुसार ना ही तो गोडसे ने कभी आरएसएस से इस्तीफा दिया और ना ही आरएसएस ने गोडसे को गांधी को मारने के कारण संघ से बाहर किया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday 21 July 2016

जाट की पौराणिक उत्पत्ति में देखें कितना बड़ा विरोधाभाष है!

वर्ण-व्यवस्था आधारित जन्म की ब्राह्मण थ्योरी कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य उदर यानि पेट से और शुद्र पैरों से पैदा हुए?

अब वैसे तो आजतक यह लोग जाट का वर्ण ही नहीं बता पाए, फिर भी ब्राह्मण तो कहता है कि जाट शुद्र हैं, परन्तु कई खामखा के घमण्ड में और खुद को इस वर्ण-व्यवस्था के ऊपरली भाग में जोड़ने के लोभ वाले जाट कहते हैं कि वो क्षत्रिय हैं। जबकि एक थ्योरी यह भी कहती है कि जाट इस वर्ण-व्यवस्था का हिस्सा ही नहीं या कहो कि जाट अलग से पांचवा वर्ण माना जाता है। और एक थ्योरी यह भी कहती है कि क्योंकि खेती करने वाले समुदाय को वैश्य माना गया तो जाट वैश्य है। खैर जो भी है क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र हो; इसके आगे की घचल-मचल वाली सुनो।

शिवजी की जटाओं से जाट की उत्पत्ति वाली थ्योरी कहती है कि जाट शिवजी की जटाओं से उत्पन हुआ है? जबकि सब जानते हैं कि जटाओं से जूं के अलावा एक चींटी भी उत्पन नहीं हो सकती।

हाँ एक तथ्य जरूर निकल के और आया है कि शिवजी भगवान् जाटों के सीथियन ओरिजिन वाली थ्योरी के इनके अपने पूर्वज राजा दादा ओडिन - दी वांडर्र हैं|

खैर, बाकी बातों की बात तो फेर की बात, फिलहाल मुझे कोई यह समझा दे कि जाट ब्रह्मा की भुजाओं से पैदा हुआ तो फिर शिवजी की जटाओं से कैसे हुआ? और अगर शिवजी की जटाओं से हुआ तो क्षत्रिय कैसे हुआ, क्योंकि क्षत्रिय तो सिर्फ वो हैं जो ब्रह्मा की भुजाओं से पैदा हुए?

मेरा अवलोकन तो यही कहता है कि जाट ना ब्रह्मा से पैदा हुआ और ना शिवजी से, परन्तु हाँ शिवजी जो हैं वो जाट के सीथियन ओरिजिन वाली थ्योरी के दादा ओडिन जरूर हैं। और इन्हीं के चरित्र को कॉपी करके भारत में इनका रूप बदल के शिवजी की माइथोलॉजी घड़ दी गई है।

विशेष: इस थ्योरी में किसी की आलोचना या बुराई जैसा कुछ नहीं, कोरे तार्किक सवाल हैं; भावनाओं में बहकर बहस करने वाले कृपया इस पोस्ट से दूर रहें।

जय यौद्धेय! - जय दादा ओडिन उर्फ़ शिवजी महाराज! - फूल मलिक

यह है मनुवाद यानी मंडी-फंडी की कमाई का शिकंजा!

वो कैसे वो ऐसे: मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने कहा है कि उनके यहां के जिला सिहोर में किसान आर्थिक तंगी से नहीं अपितु भूत-प्रेत बाधाओं के चलते कर रहे हैं आत्महत्या|

वाह क्या लॉजिक है सीएम साहब, भूत के चलते किसी का हार्ट-अटैक होते सुना था, या किसी को भूत ने मार डाला यह सुना था; अब भूतों की वजह से किसान आत्महत्या भी करने लगे? वैसे यह भूत सूदखोर कब से बन गए, क्योंकि किसान आत्महत्या तो अधिकतर सूदखोरों से तंग हो के ही करते है?

क्या किसान-पिछड़ा-दलित समझे कि एक मुख्यमंत्री के स्तर के आदमी के मुख से, एक ऐसे आदमी के मुख से जिसके जिम्मे समाज से ढोंग-पाखंड-आडम्बर हटवाने की जिम्मेदारी है वो ही समाज को ढोंग-आडम्बर में क्यों धकेल रहा है?

अजी नेक्सस है पूरा, मुख्यमंत्री यह बात कहेगा तो भोले लोगों को बहम होयेगा कि कहीं वाकई में तो भूत-प्रेत का चक्कर नहीं? ऐसे में वो किसके पास जायेगा? किसी काले-भगमे बाणे वाले तबीज-गण्डे वाले पाखंडी-ढोंगी के पास| फिर वो पाखंडी-ढोंगी उस केस को किसको रेफेर करेगा? अपने नाम की उसकी जेब काट के उससे ऊपर वाले के पास? वहाँ भी बात नहीं बनेगी तो उसको तीर्थयात्रा, फलानि यात्रा, सवामणी, जगराता, भंडारा आदि-आदि करने को बोलेगा|

उससे क्या होगा? उससे मंडी में बैठे इन फण्डियों के भाईयों की दुकानों का सामान बिकेगा| वहाँ से इनको कमीशन आएगा और इस तरह किसान एक ऐसे कुचक्र में फंसा दिया जायेगा कि मंडी-फंडी मुफ्त की रोटी तोड़ेंगे और किसान के पास सिर्फ इतना छोड़ेंगे कि उसके सिर्फ प्राण चलते रहें और इनके हांडे से पेट दिन-भर-दिन बढ़ते ही बढ़ते रहें|

पता नहीं देश किस गर्त के रसातल में जा रहा है| इन तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं से देश का जितना जल्दी पिंड छूटे, देश को उतनी ही राहत मिले; क्योंकि जहां राष्ट्रवाद आ गया समझो वहाँ अधिनायकवाद आ गया और अधिनायकवाद नाम है सर झुकाये बिना सवाल-जवाब किये अनुसरण करते रहना| भेड़चाल चलते रहना|

पगड़ी संभाल किसान्ना, दुश्मन पहचान किसान्ना!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भाई गुजरात में दलितों को पीटने वाले गौभक्तो, इनको पीट के दिखाओ तो जानूँ!

भारत के लगभग हर शहर की हर पॉश कॉलोनी, सेक्टर्स व् पार्कों में इनके रोड्स पर या इनके एंट्री पॉइंट्स पर "कैटल कैचर (Cattle Catcher) लगे होते हैं ताकि अगर कोई गाय या सांड (इनके साइज का दूसरा कोई जानवर तो आवारा है नहीं, इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि इन तथाकथित भक्तों की जिस जानवर पर दृष्टि पड़ जाए समझो उस जानवर की उतनी ही दुर्गति) इन कालोनियों-सेक्टरों में घुसने की कोशिश करें तो बहुत ही दर्दनाक तरीके से उसके खुर उसमे फंस जाएँ, या पीड़ादायक तरीके से पूरा शरीर ही फंस जाए और फिर उनको पकड़ के (बहुतों बार तो पीट-छेत के) वहाँ से भगाये जा सकें|

तो प्यारे गौभगतो सिर्फ गरीब-मजलूमों पर ही अत्याचार करना जानते हो या इन पॉश कालोनी-सेक्टर वालों की क्लास लेने का भी जिगर रखते हो? न्यायकारी बनते हो ना, तो है औकात रोज-रोज इन 'कैटल कैचर्स' में फंसने वाली गाय-सांड को भी न्याय दिलवाने की?

नहीं होगी, क्यों क्योंकि यह अधिकतर गौ-प्रेमी इन्हीं पॉश कालोनी-सेक्टर में तो रहते हैं|

अब है ना ताज्जुब की बात कि इन गौभक्तों की पॉश कालोनी-सेक्टर में कोई गाय-सांड ना घुस जाए, उसके लिए तो "Cattle Catcher" लगाएंगे, परन्तु दूसरी तरफ कोई दलित मृत गाय-सांड की चमड़ी उतार के उसका अंतिम-संस्कार करके, उसको भवसागर पार लगाए तो उसको डंडों से पीटेंगे, या कोई किसान आवारा पशुओं से जिनमें कि मुख्यत: यह भगतों की विशेष अनुकम्पा प्राप्त गाय-सांड ही होते हैं, इनसे अपनी फसल की रक्षा हेतु बाड़ लगा ले या खेत में घुसे को बाहर निकाल दे तो भी सबसे बड़ा उलाहना इन "कैटल कैचर" लगाने वालों को ही होता है? किसान को पीट-छेत इसलिए नहीं सकते, क्योंकि क्या पता किसी लठ वाले जाट के हत्थे चढ़ गए तो कहीं इन्हीं की भ्यां ना बुलवा दे, परन्तु दबी आवाज में उलाहना जरूर देते रहते हैं सोशल मीडिया पर|

तो ऐसे में इनका क्या इलाज हो? इनका सीधा सा देशी इलाज है कि "लातों के भूत, बातों से नहीं मानते!" इनको जब तक किसान-दलित लठ मारने शुरू नहीं करेगा, इनकी बाह्त्तर गज लम्बी हो चुकी जुबानों पे लगाम नहीं लगेगी| और यह काम किसान-दलित जितना शीघ्रतम शुरू कर ले उतना समाज का भला| शुरुवात गुजरात से हो चुकी है, जितनी जल्दी पूरे देश में फैले उतना देश का भला|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday 18 July 2016

कृपया "यौद्धेय" शब्द और "यूनियनिस्ट" शब्द को सिर्फ जाट तक ना जोड़ें!

क्योंकि "यौद्धेय" शब्द की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में सर्वखाप के हर धर्म और जाति के सूरमा-हुतात्मा-पुरोधा आते हैं| इनमें क्या जाट क्या दलित, क्या गुज्जर क्या ओबीसी, क्या मुस्लिम क्या सिख हर वो पुरोधा "यौद्धेय" जाना गया जो सर्वखाप के बैनर तले युद्ध लड़ा|

और क्योंकि सर छोटूराम जी की "यूनियनिस्ट पार्टी" का भी धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत था, इसीलिए आज के "यूनियनिस्ट मिशन" की बुनियाद को "यौद्धेय" और "यूनियनिस्ट" शब्द ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दोनों स्तर पर बड़े गहरे जा के जोड़ते हैं| इन शब्दों का आईडिया बड़ी गहरी और महान गौरवशाली प्रेरणा और उद्देश्य वाला है| एक उस परम्परा को आगे बढ़ाने वाला है जो भारत तो क्या शायद विश्व इतिहास में भी इतनी मानवता, परोपकारिता लिए हुए हो| हम हर धर्म और जातियों में हर उस जाति को जोड़ के चल रहे हैं जो मानव को रंग-नश्ल-भेद-ऊंच-नीच में नहीं बांटती है; नेकी का खाती है किसी के आर्थिक हित नहीं मारती|

सर्वखाप के बैनर व् छत्रछाया तले हुए विभिन्न जाति-समुदाय-धर्म-पंथ के सूरमाओं में से कुछेक की सूची:
1) समरवीर प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक अमर ज्योति गॉड गोकुला जी महाराज
2) सर्वखाप योद्धेय दादावीर शाहमल तोमर जी महाराज
3) दुःसाहसी खाप-यौद्धेय दादा भूरा सिंह जी व् दादा निंघाहिया सिंह जी
4) सर्वखाप योद्धेया विलक्षण वीरांगना दादीराणी भागीरथी देवी जी महाराणी
5) उच्च स्वाभिमानी संस्कृति-रक्षिका निडर खापबाला दादीराणी समाकौर गठवाला जी
6) सर्वखाप योद्धेया दादीराणी रामप्यारी जी
7) हिन्दू धर्मरक्षिका अमर बलिदानी बृजबाला दादीराणी भंवरकौर जी
8) सर्वखाप सेनापति महाबली दादावीर जोगराज पंवार जी महाराज
9) दादावीर हरवीर सिंह गुलिया जी महाराज
10) दादावीर धूला भंगी जी महाराज
11) दुर्दांत-दुःसाहसी योद्धेय दादावीर जाटवान गठवाला जी महाराज
12) खाप-दार्शनिक चौधरी दादा कबूल सिंह जी
13) 1857 की लड़ाई में सर्वखाप के उप-सेनापति साईं फकरूद्दीन जी अजीज
14) राय बहादुर चौधरी दादा घासीराम जी मलिक
15) दूरदर्शी अमर-हुतात्मा बाबा महेंद्र सिंह टिकैत
16) दादीराणी वीरांगना हरशरणकौर जी
17) बीबी साहिब कौर जाटनी
18) दादीराणी बिशनदेवी बाल्मीकि
19) दादीराणी सोमा देवी जाटनी
20) दादीराणी सोना देवी बाल्मीकि
21) दादीराणी सोना देवी जाटनी
22) दादीराणी हरदेई जाट
23) दादीराणी देवीकौर राजपूत
24) दादीराणी चन्द्रो ब्राह्मण
25) दादीराणी रामदेई त्यागी
26) दादावीर मोहरसिंह वाल्मीकि जी
27) दादावीर मातैन वाल्मीकि जी
28) औरंगजेब के सामने इस्लाम की बजाये मौत चुनने वाले सर्वखाप के 21 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल में एक ब्रह्मण, एक वैश्य, एक सैनी, एक त्यागी, एक गुर्जर, एक खान, एक रोड, तीन राजपूत, और ग्यारह जाट थे|
आदि-आदि!

विशेष: अब अंधभक्त टाइप लोग इसमें कई जगह आये "हिन्दू धर्म रक्षक-रक्षिका" शब्दों में अपने लिए सम्भावना मत ढूँढ़ने लग जाना, क्योंकि 'हिन्द की चादर' कहला के भी विभिन्न सिख सूरमा हिन्दू नहीं हो जाते, वो सिख ही कहलाए हैं| इसी तर्ज पर यौद्धेय जब लड़ता है तो वह किसी एक धर्म विशेष के लिए नहीं अपितु देश और मानवता के लिए लड़ता आया है, इसलिए कोई धर्म विशेष उसको अपने से जोड़ना भी चाहे तो भी वह "यौद्धेय" पहले है, किसी भी धर्म का धर्मी बाद में| "हिन्द की चादर" की भांति खापें "हिन्द का खरड़" रही हैं, दुर्भाग्य यह रहा कि इनको इस तरीके से लिख के प्रमोट करने वाले नहीं थे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 8 July 2016

यूनियनिस्ट मिशन, धर्म और राजनीति!

जब से दो जाट आंदोलन हो के हटे हैं, आरएसएस और बीजेपी में बड़ी बेचैनी है कि जाटों को अपने झांसे में कैसे रखा जाए| इसके लिए दो तरह के ट्रोल्स सोशल मीडिया पर चल रहे हैं|

एक तो ब्रेनवाश किये जाट युवा को यह नहीं दिखने दे रहे कि एक हिंदूवादी सरकार ने ही बावजूद "हिन्दू एकता और बराबरी" की संदेशवाहक होने के, बिना देश में विदेशियों का राज हुए भी तुम्हारे जाट समाज के साथ फरवरी माह में हरयाणा में खुला 'जलियांवाला बाग़' खेला है और पुलिस-फ़ौज-तथाकथित ब्रिगेड और स्वंय आरएसएस के गुर्गे लगा के पूरा एड़ी-चोटी तक का जोर लगा के तुम्हें दबाने और कुचलने की जी-तोड़ कोशिश की गई है|

और दूसरा इन्हीं जाट युवाओं को पठा के सोशल मीडिया पर छोड़ा गया है, वो भी वही रटी-रटाई नफरत करने की राजनीति के राष्ट्रवाद भरे कैप्सूल्स और डोज पिला-पिला के कि देखो यह यूनियनिस्ट मिशन वाले मंडी-फंडी के बहाने हिन्दू धर्म पर अटैक कर रहे हैं और मुस्लिमों को कुछ कह ही नहीं रहे?

तो पहली तो बात यह बता दूँ कि उस सावरकर के शागिर्दों से जिसने 6-6 बार तो अंग्रेजों से दया-याचिकाएं लिखित रूप में मांगी और इन्हीं की तर्ज वाली देश को तोड़ने की मंशा रखने वाली मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सावरकर की हिन्दू महासभा ने आज़ादी से पहले के सिंध प्रान्त में सरकार भोगी; उनसे एक यूनियनिस्ट को यह सीखने की जरूरत नहीं कि क्या तो राष्ट्रवाद और कौनसे मुस्लिम से बच के रहें और कौनसे से नहीं|

कहना क्या चाहते हो कि हम उसी महबूबा मुफ़्ती किस्म के मुस्लिमों से बच के रहें, जिनके साथ तुम जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाते हो? तुम बोलते हो कि यूनियनिस्ट मुस्लिमों का विरोध नहीं करते, कर तो रहे हैं तुम्हारे द्वारा जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती के साथ मिलके सरकार बनाने का? है हिम्मत तो दो जवाब कि यह "बगल में छुर्री और मुंह में राम-राम" वाली बेपैंदी के लोटे वाली दिग्भर्मित राजनीति क्यों?

या फिर तुम्हारे संघ के पहले संस्थापक गोलवलकर से सीखें, जिससे कि आज़ादी की लड़ाई लड़ने की कहा जाता था तो कहते थे कि हमें अंग्रेजों से झगड़ा नहीं करना?

या फिर उस श्यामाप्रसाद मुखर्जी से राष्ट्रवाद सीखें जिसने आज़ादी से पहले के बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर ही उप-मुख्य्मंत्री की राजगद्दी भोगी? और भारत छोडो आंदोलन का विरोध किया? नेता जी सुभाष चन्द्र बॉस की आज़ाद हिन्द सेना से मुकाबले हेतु अंग्रेजों के लिए बंगाल में फ़ौज की खुली भर्तियां करवाई?

अरे हम अगर मुस्लिम-सिख-हिन्दू (मंडी-फंडी की किसान-मजदूर के प्रति बुरी नीतियों के पुरजोर विरोधी हैं हम, इसके अलावा जिन किसान-दलित-पिछड़े की हम आवाज उठाते हैं, भूलो मत कि वो भी हिन्दू ही कहलाते हैं) इत्यादि धर्मों से भाईचारा रखते हैं तो साफ़ दिल से रखते हैं; तुम्हारी तरह नहीं कि वैसे तो सोते-उठते-खाते-पीते मुस्लिमों को पानी पी-पी कोसने की भांति कोस के सारे समाज को भड़क बिठाए रखो और जब असली हकीकत सामने आये तो उन्हीं से मिलके कहीं सिंध में सरकारें बनाने से नहीं चूकते तो कहीं बंगाल और कहीं जम्मू-कश्मीर में|

व्यक्तिगत तौर पर मुझे अंधभक्तों की जमात से कोई वैर-विरोध नहीं, कोई मनमुटाव नहीं; बशर्ते इनमें शामिल जाट और हर किसान-दलित-पिछड़े का बेटा-बेटी यह चीजें कर दे; करवा दे इनसे और फिर मेरा इनसे विरोध खत्म:

1) आरएसएस कहे कि हरयाणा में तुरंत-प्रभाव से जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा बंद हो|

2) जिस हिन्दू धर्म की एकता और बराबरी की ख्याली दुहाई की धूनी यह तुम पर घुमाए फिरते हैं, पहले यह इसमें फैले-फैलाए इनके लिखित-मौखिक हर प्रारूप के वर्णवाद व् जातिवाद को सार्वजनिक समारोह करके तिलांजलि देवें|

3) आरएसएस सिर्फ 2-3 जातियों के महापुरुषों के नहीं अपितु हर जाति-वर्ण के महापुरुषों के जन्म व् मरण दिन मनावे| जाति-वर्ण को खत्म करे तो राजाओं-महाराजों, खाप यौद्धेयों की वीरता के पैमानों के आधार पर तय करे कि कौन महापुरुष और कौन नहीं| ऐसे स्वघोषित तरीके से नहीं कि जो अंग्रेजों से छ-छ बार दया-याचिका लिखा करते थे (सावरकर), जो मुस्लिमों के साथ मिलके सरकारें बनाया करते थे (सावरकर और मुखर्जी), जो किसान-दलित पिछड़े के लिए बनके आई साइमन कमिसन का विरोध किया करते थे (लाला लाजपत राय) जैसों को ही अपना आदर्श पुरुष मानती हो|

4) हर जाति का उस जाति के अपने लोगों की राय और समीक्षा के आधार पर निष्पक्ष इतिहास और संस्कृति लिखे व् उसको बराबर तरीके से प्रचारित होने दे व् फलने-फूलने दे| याद है ना आज के दिन हरयाणवी की क्या औकात बना के रख दी है इन्होनें? प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में "मैं हरयाणवी हूँ" की पहचान तक छुपाते फिरते हो और तुम भी| किसी हिन्दू धर्म के ही लाले-बनिए को कहीं यह ना पता लग जाए कि मैं फलानि जाति का हिन्दू हूँ, वो पहचान तक छुपानी पड़ रही है तुम्हें,उसके वहाँ काम करते हुए?

और बात करते हो कि हिन्दू धर्म को यूनियनिस्ट तोड़ रहे हैं? हो औकात और स्वछन्द तरीके से सोचने की शक्ति और समर्थता तो बताओ तुम्हें प्राइवेट नौकरी करते हुए हरयाणवी और जाट होने की पहचान किसी मुस्लमान की वजह से छुपानी पड़ रही है या हिन्दू की वजह से?

अगर इन चीजों पर कार्य नहीं कर या अपने आकाओं से करवा सकते तो, शांति से समझने की कोशिश करो कि हम इन मुद्दों के लिए खड़े हुए हैं और इनके लिए ही आवाम को जगा रहे हैं| साथ नहीं आ सकते तो न्यूट्रल भी रहोगे तो हमारी बहुत मदद होगी| धन्यवाद|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday 7 July 2016

ओबीसी को जाटवाद और मनुवाद तुलनात्मकता करते रहने की निरंतर वजहें और बातें देते रहिये!

जाटो, खाकी चड्ढी गैंग आपके साथ क्या दुर्व्यवहार कर रही है इसको जताने से ज्यादा, सोशल मीडिया, सामाजिक समारोहों-सभाओं हर जगह यह उजागर करो और फैलाओ कि ओबीसी के साथ यह कच्छाधारी सरकार क्या कर रही है?

क्योंकि ओबीसी जाटवादियों और मनुवादियों को तराजू के दो पलड़ों में रखता है और उसको जिसका पलड़ा भारी लगता है ओबीसी उसी के साथ रहता है| और इस वक्त मनुवादी एक तीर से दो निशाने साध रहा है, एक तो ओबीसी से दगाबाजी कर ही रहा है (ओबीसी को नौकरी नहीं, रोजगार नहीं, फसलों के दाम नहीं, पदोन्नति के इनके आरक्षण रद्द किये जा रहे हैं, केंद्रीय कैबिनेट में बावजूद 50% ओबीसी जनसंख्या के मात्र 1-2 मंत्री है, जाट तो मात्र 7-8% होने के बावजूद भी 1 केंद्रीय मंत्री तो फिर भी है) और दूसरी तरफ ओबीसी से इसके द्वारा किये जा रहे इस दमन को जाट पर दमन करके छुपा रहा है और ओबीसी को रिझा रहा है|

तो अगर आप अपने दमन को ही गाते रहोगे तो ओबीसी इन्हीं की ओर झुकता चला जायेगा| इसलिए इसकी बजाये ओबीसी को इन द्वारा ओबीसी के दमन बारे दिखाओ, ताकि ओबीसी की आँखें खुली रहें और वो बेहतरीन तरीके से समझ सके कि जाट नेतृत्वों ने ओबीसी का ज्यादा भला किया या मनुवादी नेतृत्वों ने|

ओबीसी को ज्यादा सम्पन्न, धनाढ्य, समर्थ सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवीलाल, चौधरी बंसीलाल, सरदार प्रताप सिंह कैरों, बाबा महेंद्र सिंह टिकैत (जो जाट नेता फ़िलहाल जिन्दा हैं उनपर आप अपने विवेक से निर्धारित कर लें) की नीतियों और नियतों ने किया या इन मनुवादियों की विभिन्न पार्टियों की सरकारों और प्रधानमंत्रियों ने या इनके वर्णवादों और जतिवादों के पोथों ने? ओबीसी को इस तुलनात्मकता को दिखाते रहना बहुत अहम है|

इसलिए एक पोस्ट अपने दमन की निकालते हो, एक चर्चा अपने दमन की करते हो तो दो चर्चाएं ओबीसी के दमन की भी करें| ताकि ओबीसी के प्रति मनुवाद से कहीं ज्यादा गुणा मित्रवत रहे जाटवाद से ओबीसी जुड़ा ना भी रहे तो कम से कम मनुवाद उनको हमसे इतना दूर ना कर दे कि वो हमसे छिंटक जाएँ| मनुवाद और जाटवाद के पलड़े को न्यूनतम बैलेंस में अवश्य रखें; अपनी तरफ झुक लेवेंगे तो फिर कहने ही क्या| इसलिए इन कच्छाधारियों की तरह प्रचारक बनो और इनके जाट-ओबीसी दोनों के दमन के अध्याय उजागर करते रहो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday 4 July 2016

अगर किसान-दलित-पिछड़े को बौद्धिक एवं आर्थिक सत्ता में भागीदारी चाहिए तो उसको "कमेरा-बनाम-लुटेरा" शब्द की जगह "मंडी-फंडी" शब्द के साथ आगे बढ़ना बेहतर रहेगा!

यह मेरी निजी राय और क्यों और कैसे है, उसका विवरण इस लेख में है| फिर से स्पष्ट कर रहा हूँ, यह मेरा निजी विचार है, किसी पर बाध्यता नहीं| इस पर पक्ष-विपक्ष, सहमति-असहमति हेतु विचार आमंत्रित हैं|

इस बात और समझ पर अगर मैं गलत नहीं हों तो मुझे सही कीजियेगा कि -

कमेरा यानि सिर्फ कार्य से संबंधित मानसिक मेहनत के साथ शारीरिक मेहनत करने वाला, जैसे कि किसान-दलित-पिछड़ा|

लुटेरा यानि सिर्फ और अधिकतर मानसिक मेहनत के दम पर खाने वाला, जैसे कि हर इतिहास-वर्तमान-पत्रकार-कहानीकार हर प्रकार का लेखन करने वाला, धर्म-कर्म के कर्म-कांड करने वाला, दुकानदारी और बही-खातों का लेखा-जोखा करने वाला|

अगर इन परिभाषाओं को मैं सही से और सही परिपेक्ष में रख पाया हों, तो फिर किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग से जो लेखन कार्य करने वाले रहे हैं, उनको किस श्रेणी में रखूं? जो किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग से होते हुए सूदखोरी से रहित व्यापार और बही-खाते करते हैं, उनको किस श्रेणी में रखूं? जो ढोंग-पाखण्ड से रहित मूर्तिरहित रहित सिर्फ पुरखों और वास्तविकता को पूजने के विधान के बौद्धिक रहे हैं, उनको किस श्रेणी में रखूं?

जब इस सवाल का जवाब ढूंढ़ता हूँ तो जवाब आता है 'मंडी और फंडी' शब्द| यह शब्द जिस मंतव्य को निर्धारित करते हैं उसमें 'दूध का दूध और पानी का पानी' करने की कला है| यानि मंडी में जो सूदखोर है सिर्फ वो और फंडी में जो ढोंगी-पाखंडी-आडंबरी है सिर्फ वो| यानि दोनों के वो पहलु, जिनकी वजह से इन शब्दों को हेय-बदनामी की दृष्टि से देखा जाता है| इस परिभाषा में इत-उत किया जा सकता है, इसका स्कोप कम ज्यादा हो सकता है परन्तु इसमें मुझे लुटेरे-कमेरे से ज्यादा व्यवहारिकता दिखती है| वजहें यह हैं:

1) जिनको लुटेरा कहा जाता है उनको कमेरे के खिलाफ एक मुश्त नफरत और षड्यंत्र करने का बौद्धिक कारण मिल जाता है| यानि साफ़ वर्गीकरण ठहर जाता है|

2) लुटेरा शब्द में जो आते हैं, और जिस प्रकार की बौद्धिक और आर्थिक सत्ता और हस्तांतरण की ताकत वह रखते हैं, जो कि अगर उनसे छीननी, इनमें अपना हक़ लेना है या उपस्थिति और आदर दर्ज करवाना है तो इसमें घुसे बिना नहीं लिया जा सकता| किसान-दलित-पिछड़ा के पास बौद्धिकता है, परन्तु सिर्फ उसके कार्य से संबंधित या ऐसी जिसको यह लोग मान्यता नहीं देते| जिसको पाने-करवाने की कोशिशें हर किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग का हर जागरूक और क्रांतिकारी युवा करता हुआ भी दीखता है कि मुझे ज्यादा से ज्यादा लिखना है, समाज की बौद्धिक्ताओं को मिलाना है या जगाना है|

3) किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग 'कमेरा-लुटेरा' टैग के साथ राजनैतिक सत्ता तो हासिल कर सकता है, परन्तु इससे उसमें बौद्धिक और आर्थिक सत्ता कब्जाने की प्रेरणा नहीं बन पाती; जो कि वास्तव में राजनैतिक सत्ता की भी माँ है|

4) 'मंडी-फंडी' शब्द ध्यान आते ही इनके अंदर घुस के इनमें अपने अनुसार जो सही नहीं है उसको सही करने की प्रेरणा मिलती है; जबकि 'लुटेरा-कमेरा' शब्द नफरत और अलगाव का भाव ज्यादा लिए हुए है| और नफरत और अलगाव आंदोलनकारी तो बना सकते हैं, अल्पावधि के लिए परिवर्तनकारी भी बना सकते हैं; लेकिन चिरस्थाई शासनकारी नहीं| इस एप्रोच से ली गई सत्ता तभी तक टिक पाती है जब तक बौद्धिक और आर्थिक सत्ता पर आधिपत्य वाले इसका तोड़ नहीं निकाल पाते|

5) इस दोनों मेथडों की कारीगरी जांचने-परखने के लिए हमारे पास बिना नाम लिए सबके दिमाग में आ जाने वाले महापुरुषों के उदाहरण भी समक्ष हैं| सामने आ जाता है कि कैसे एक चिरस्थाई तरीके से इनपर आजीवन विजयी रहते हुए कार्य करके गया और दूसरे को कैसे इन्होनें मौका मिलते ही सत्ता से बाहर कर दिया|

बड़ा ही नाजुक विषय छुआ है मैंने, हो सकता है कि आपमें से किसी की तरफ से इसके ऐसे प्रतिउत्तर आवें कि मुझे मेरी राय ही बदलनी पड़ जाए; इसलिए इस पर खुलकर बहस करें और इनमे से वह ऑप्शन चूज करें जो हमें सिर्फ राजनैतिक सत्ता नहीं, अपितु राजनैतिक के साथ-साथ किसान-दलित-पिछड़े की बौद्धिक व् आर्थिक सत्ता को पहचान भी दिलाता हो और स्थाई भी बनाता हो|

मेरा इन दोनों मेथडों पर जो मानना है, उसका सार इस लेख के शीर्षक में व्यक्त कर चुका|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 3 July 2016

ग़दर फिल्म के 'तारा जट्ट' के बाद 'शोरगुल' में फिर से दिखा जाट का वास्तविक डीएनए!

पता नहीं बॉलीवुड वालों से तुक्का लगा, या क्या; परन्तु एक अर्से बाद किसी फिल्म में जाट को उसके वास्तविक डीएनए यानि "Savior of Society and Socialism" के अनुरुप दर्शाया तो बड़ा शुकुन मिला। इस फिल्म की पूरी टीम को हृदय से धन्यवाद, मुझे एक ऐसी फिल्म देने के लिए कि अगर कोई पूछें कि जाट क्या है तो मैं उसको इस फिल्म का नाम बता सकूं; कि इसमें जो "चौधरी साहब" का करैक्टर है वो ही असली जाट है, वही एक पहुँचे हुए जाट का चरित्र है जिसकी वजह से दुनिया में जाट "जाट-देवता" के नाम से भी प्रसिद्ध रहा है, जिसकी वजह से उसके लिए कहावत बनी है कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा जाट खुदा जैसा!"; और इस फिल्म में जाट का वो खुदा वाला रूप बखूबी दिखाया गया है|

और कोई इस फिल्म को देखे ना देखे परन्तु अंधभक्ति में चूर और पथभ्रष्ट जाट इस फिल्म को कम-से-कम एक बार जरूर देखें। इस फिल्म को देखते हुए और "चौधरी साहब" के बेटे की मौत के बाद से उनके रवैये को देख फिल्म के अंत तक बार-बार यही आभास हो रहा था इस फिल्म का नाम "शोरगुल" की बजाय "Jat the Savior" रखा गया होता तो निसंदेह सिल्वर-स्क्रीन पर ज्यादा बेहतर उतरती।

जिस तरीके से इस फिल्म में "चौधरी साहब" का चरित्र, दोनों तरफ के धर्म वालों के वहशीपने और पीड़ित के साथ वास्तविक न्यायकारी होते हुए पूरी फिल्म में जद्दोजहद के साथ पिसता हुआ दिखाया गया है, मेरा विश्वास है कि कुछ ऐसा ही हाल और वेदना हर पहुंचे हुए जाट के अंदर आज देश के हालात देख के गुजर रही है। इस फिल्म के लेखक और डायरेक्टर ने इस चरित्र को "चौधरी साहब" का नाम दे, इस रोल के साथ पूरा न्याय किया है। अपने बेटे की मौत पे भी संयम रखने, धर्मान्धों द्वारा भड़काने की लाख कोशिशों पर भी ना भड़कने, जवान बेटे की मौत के गम के माहौल में भी पडोसी की मुस्लिम बेटी को बचाने का जज्बा और होशोहवास रखते हुए (इस सीन पर तो मुझे ग़दर में शकीना को बचाने वाला तारा जट्ट याद हो आया; हालाँकि अगले सीन में पता लगता है कि धर्मान्धों से लड़की को वह बचा के लाये) और उसके न्याय के लिए लड़ने का जज्बा; यही एक सच्चे "गणतांत्रिक न्यायाधीश" का गुण होता है, वास्तव में जाट होता है।

निसंदेह ना सिर्फ जाट युवा अपितु समाज के हर युवा को यह फिल्म झकझोरने के साथ उसको सही राह पर लाने का संदेश लिए हुए है।

धन्यवाद फिल्म के डायरेक्टर पवन कुमार सिंह और जीतेन्द्र तिवारी, एक ऐसे माहौल में यह फिल्म निकालने के लिए जब पूरा उत्तरी भारत सत्ताधारियों ने जाट बनाम नॉन-जाट के लफड़े में सुलगा रखा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 2 July 2016

यह कैसे पंचायती हैं?

यह कैसे पंचायती हैं?:

कि जरा सी किसी असामाजिक तत्व या तत्वों के समूह ने किसी अपराधी (जैसलमेर कुख्यात चुतर सिंह) को पुलिस द्वारा मार गिराने पे मसले को जातीय रंग क्या दिया कि हरयाणा में हिंदुत्व की फायरब्रांड बनने को आतुर साध्वी देवा ठाकुर ने "हिन्दू एकता और बराबरी" का चोला ही उतार फेंका और किसी "सांप द्वारा केंचुली छोड़ने" की भांति आ खड़ी अपने समाज के अपराधी के पक्ष में? रिफरेन्स के लिए इस मामले से संबंधित कल की उनकी पोस्ट देखें| यह भी नहीं सोचा कि मामला सामाजिक झगड़े का नहीं, अपितु एक नामी बदमाश को पुलिस द्वारा मार गिराने का है?

मैं तो अब भी कह रहा हूँ कि यह कहाँ के पूरे हिंदुत्व के झण्डाबदार बनेंगे, जब अपनी कम्युनिटी-जाति की सोच से ही ऊपर नहीं ऊठ सकते तो? और हमसे उम्मीद की जाती है कि हम इनके लिए जातीय अभिमान-स्वाभिमान को त्याग के इनसे जुड़ें; इनसे मार्गदर्शन पाएं? यह हिन्दू-हिंदुत्व सिर्फ 2-3 जातियों द्वारा समाज में अपना छद्म रुतबा और सत्ता में अपना आधिपत्य बनाए रखने के सगूफेमात्र से फ़ालतू कुछ नहीं। अत: अब भी वक्त है कि इनसे ध्यान हटा के अपने आर्थिक और सामाजिक हितों और समावेश पर ध्यान लगा लो। जिसका रंग ही अग्नि वाला भगवा हो गया, वो भला समाज में आग लगाने के सिवाय किये हैं कुछ, जो अब करेंगे? देश में हरित-क्रांति और श्वेत-क्रांति के धोतक समझें इस बात को।

बाबा-साधु-मोड्डा ना कभी पंचायती हुआ इतिहास में और ना हो सकता। फिर भी किसी को धक्के से इनको पंचायती बना के सर पे बैठाए रखना है तो ऐसे लोगों को सिर्फ समय की मार ही अक्ल दे सकती है। और फिर वैसे भी साध्वी देवा ठाकुर की जाति तो इनके पुरखों को चूची-बच्चा समेत 21-21 बार मार के जिन्होनें धरती को क्षत्रियों से विहीन कर दिया हो, उन्हीं का आजतक कुछ नहीं बिगाड़ पाये तो यह क्या किसी को न्याय देंगे या दिलवाएंगे। या सच्चे पंचायतियों की भांति "दूध का दूध और पानी का पानी" करने का जिगर दिखाएंगे।

इसलिए दूर रहो ऐसे समाज के छद्म हितकरियों से और इनको इनके हाल पे छोड़ देना ही बेहतर। राजस्थान में जिस समाज के अफसर पर यह बरस रहे हैं, वो समाज इनसे चाहे कितना ही "अजगर भाईचारा" निभा ले, चाहे कितना ही इनके समाज से दो-दो पीएम (वीपी सिंह और चन्द्रशेखर) और एक सीएम (भैरो सिंह शेखावत) बनवा दे, परन्तु इन्होनें अंत में जा के गिरना उन्हीं के पैरों में जिन्होनें इनके पुरखों को 21-21 बार मारा।

विशेष: मेरी साध्वी देवा ठाकुर के समाज से यह कोई चिड़ या नफरत नहीं, अपितु सहानुभूति है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

इनको उतना ही दान दो जिससे यह इज्जत से जी सकें!

मंडी-फंडी के लिए जितनी यह कहावत सच है ना कि "जाट छिक्या और राह रुक्या!" इसका उल्टा भी किसान के लिए उतना ही सच है कि "मंडी-फंडी छिक्या और राह रुक्या!"

यानि आज सत्ता और पैसे दोनों से मंडी-फंडी छिक्या हुआ है तो इसने किसान के सारे रास्ते बंद करने शुरू कर रखे हैं, जबकि इस कहावत के अनुसार जब जाट छिक्ता है तो मंडी-फंडी के सिर्फ ढोंग-पाखण्ड-आडंबर-सूदखोरी के रास्ते बंद करता है| जबकि मंडी-फंडी ने तो किसान की नेक-कमाई की ही कीमत ना मिले, ऐसे रास्ते भी बंद कर दिए, उदाहरण स्वामीनाथन रिपोर्ट पर सरकार का ताजा-ताजा रूख|

इसलिए इनको उतना ही दान दो जिससे यह इज्जत से जी सकें व् मानवता बची रह सके, फ़ालतू और बेहिसाबा इनको दोगे तो यह उसको आपके ही रास्ते अवरुद्ध करने में लगाएंगे| उस दिए का हिसाब-किताब लेते रहो इनसे; वर्ना गुप्तदान के चक्कर में पड़के दोगे तो यह उसी गुप्तदान से तुम्हारे ही खिलाफ षड्यंत्र रच-रच एक दिन तुम्हें ही लुप्त कर देंगे और वही हो रहा है| अभी सुधार लें अपनी दान देने की आदत| मंडी-फंडी आपपे कितना जुल्म करे और कितना नहीं, उसकी चाबी यह दान है इसका सही इस्तेमाल कीजिये; इसको अपने डायरेक्ट कंट्रोल में रखिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक