Tuesday 13 December 2016

जो बिहार-बंगाल में पानी का गिलास भी खुद से उठाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वो हरयाणा में आ के मजदूरी तक करते हैं!

किस्सा मेरा आप-देखा है, इसलिए कहानी शत-प्रतिशत सच्ची लिख रहा हूँ; लेशमात्र भी बनावट या मिलावट नहीं है| बीच-बीच में हरयाणवी-बिहारी-बंगाली कल्चर का तड़का लगाते हुए कहानी आगे बढ़ेगी; इसलिए पढ़ने बैठो तो अंत तक पढ़ना|

बचपन में जब से होश संभाला, तब से हमारे खेतों में गेहूं कटाई और धान रोपाई के सीजनों पर बिहार-बंगाल-उड़ीसा-आसाम से वहाँ के सवर्णों के सताये दलित-महादलित-ओबीसी वर्गों के कभी 10 तो कभी 12 तो कभी 20 की मण्डली में दिहाड़ी-मजदूरी कर हमारे यहां रोजी कमाने आते देखा, आज भी आते हैं|

उधर बाहरवीं के एग्जाम खत्म हुए और इधर गेहूं कटाई-कढ़ाई का सीजन (हरयाणवी में लामणी) शुरू हो गया| पिता जी ने अबकी बार 14+1=15 बिहारी मजदूरों की आई टोली के साथ ट्रेक्टर-ट्राली-थ्रेसर की मशीनों, उनके खाने-पीने का अरेंजमेंट और देखभाल करने पर मेरी ड्यूटी लगाई थी| दिन-रात का कोई होश नहीं था, सोने-जागने का कोई वक्त नहीं था| सुबह 5 बजे निकल जाना, रातों को 12-1 बजे तक घर आना और कभी तो कई-कई रातें खेतों में ऊपर-की-ऊपर उतर जाना| रात को 1 बजे आओ या 2 बजे, सुबह के 5 बजे निकल जाना फिक्स था, वर्ना पिता जी का कहर झेलो| 45 एकड़ गेहूं की कढ़ाई और तूड़े की ढुलाई होनी थी, कम से कम 20 दिन लगने थे|

फोर्ड ट्रेक्टर के पीछे दो 4-4 पहियों वाली ट्रोलियां, उनके पीछे हिडिम्बा थ्रेशर की मशीन और फिर उसके पीछे थ्रेसर की पुलि में जुआ फँसा के उलझाए बुग्गी| बिहारी मजदूरों में कोई मेरे साथ ट्रेक्टर पर बैठा, कोई ट्रॉलियों में लेटा तो कोई बुग्गी पे ऊंघता; यूँ चला करता था मेरा लगभग 100 मीटर लम्बा काफिला|

जब तक हिडिम्बा गेहूं के गद्दों के लोड में रंभाती और फोर्ड की वो धुररर-धुररर की क्षितिज तक जाती प्रतीत होती धुंए की ये लम्बी-काली-घनी नागिन सी नाचती धार और आसमान को गुंजायमान कर देने वाली फोर्ड की रेंगती आवाजें कानों में नहीं गूंजती, नींद ही नहीं खुलती थी| आज भी जब यह दृश्य यादों के पट्टल पर गूंचे मारते हैं तो मन करता है अभी उड़ चलूँ, उन्हीं डोलों-गोहरों के गुलफाम में|

खैर, मुद्दे की बात पर आता हूँ| हुआ यूँ कि जो 14+1=15 बिहारी मजदूरों की टोली को मैनेज कर रहा था, उसमें एक उनका सरदार था और बाकी सब वर्कर| टोली के सरदार को वह आपस में ठेकेदार बुलाते थे| ठेकेदार का काम पूरी टोली का मेरे सहयोग और दिशानिर्देश से खाना-पीना, दवा-दारु और बही-खाता मैनेज और अरेंज करना होता था| उसकी टोली कब कितना काम करेगी यह निर्धारण करना उसका काम होता था; हमारे किसी भी प्रकार के प्रेशर से वो फ्री होते थे|

पर मेरे केस में मेरी मर्जी नहीं चलती थी, पिताजी के आदेशानुसार मुझे घेर में अपना सौ मीटर लम्बा काफिला कल्लेवार सूरज निकलने से पहले तेल-पानी फुल करके, खुद भी अध्-बिलोई लस्सी से फुल हो के, मुंह-अँधेरी खड़ा कर देना होता था| फिर चाहे वहाँ से मजदूर चलने में दो घण्टे लगाएं या एक। पर एक बात की मौज थी, जैसे ही मैंने मेरे फोर्ड, हिडिम्बा, दो ट्राली और बुग्गी का काफिला जोड़ के खड़ा किया, ठेकेदार भागा हुआ आता और कहता बाबु जी मजदूर रात को दो बजे ट्राली खाली करके सोये हैं, अभी थोड़ा वक्त लेंगे, आप एक काम करें आपके लिए वो खटिया बिछवा दी है, उस पर सुस्ता लें|

मैं उनको बोलता की देखो अभी सवा-पांच हुए हैं, सात बजे से पहले-पहले यहां से उड़ लेना होगा, वर्ना बड़े बाबु जी (मेरे पिता जी) का खुंडी-रूंडी-मर्दो-रोजनी-बोली-बड्डी-लागड़-हरर्या-फुल्ली-सिंगलो-भिंडों-भिड़नी-मारनी-फड़कनी पूंछ से मख्खियां उड़ाती, मस्ती में जुगाली करती शेरनी की चाल में चलती हुई भैंसों का लंगार (काफिला) जोहड़ से आ गया तो खुद भी सुनोगे और मुझे भी हड़कवाओगे| हाँ तुम्हें सोना-सुलाना है तो खेतों में जा के जिसका मन हो वो सो-सुस्ता लेना; पर यहां इससे ज्यादा देरी नहीं| और ठेकेदार कहता कि आप फ़िक्र ना करो, अभी तैयार करता हूँ सबको| यहां बताता चलूं कि दोपहर को यह लोग दो से तीन घण्टे लंच के बाद खेतों में सो लिया करते थे, इसलिए देर रात तक काम करते थे| क्योंकि रात को गर्मी कम होती थी|

उन दिनों गाम वाला झोटा जो कि अपने ही घर का छोड़ा हुआ था, वो रातभर खेतों में घूम के सुबह-सुबह ठीक मेरी खाट जो किठेकेदार घेर के नीम के पेड़ तले लगवा देता था, उसके किनारे आन खड़ा होता और मेरे को लाड-भरी खैड़ (अपना सर और सींग) मार के, उसके लिए भिगो के रखा हुआ चाट (रेहड़ियों वाला छोले-भटूरे वाला चाट नहीं, हमारे यहां भैंस-झोटे जो भिगोया हुआ अनाज-खल-बिनोला खाते हैं, उसको भी चाट कहते हैं, तो वो वाला चाट) मांगने लगता| मैं उसको वो डाल के खिलाता, थोड़ी उस गाँव के देवता की सेवा करता (हरयाणवी कल्चर में गाँव के झोटे व् सांड को देवता माना जाता है) और उधर इतने में ठेकेदार अपनी टोली को तैयार कर ट्रेक्टर-ट्रॉलियों में बैठा देता|

गेहूं कढ़ाई शुरू हुए दो-तीन दिन हुए, मैंने एक अजीब बात नोट करी| खेतों में गेहूं-कढ़ाई के दौरान जो कोई भी थोड़ा सा बैठ के सुस्ताने लगे, यहां तक कि खैनी-गुटखा-बीड़ी के लिए भी रुके तो ठेकेदार उसपे झल्ला के पड़े कि बैठो मत, वर्ना दिहाड़ी काट लूंगा; सिर्फ एक हट्टे-कट्टे से को छोड़ के| मेरा कई बार मन हुआ कि ठेकेदार से पूछूँ कि इस मोटे पे इतनी रहमत क्यों, पर सोचा कहीं काम में दखल ना पड़े इसलिए नहीं टोका|

छटे दिन, तीन बजे के करीब गेहूं की ट्राली ला के पुराणी हवेली (जो कि पिछले कई दशकों से हमारा अनाज गोदाम है) के आगे रोक दी| जब से कढ़ाई का काम शुरू हुआ था, यह पहला दिन था जब हम दिन का सूरज गाँव में देख रहे थे| ठेकेदार मेरे को तीसरे दिन से ही कहने लगा था कि बाबू जी टोली को मच्छी खाना है, कुछ जुगाड़ करो| मैं कहा मखा मेरे दादा का डोगा गाँव-गुहांड की न्यार (पशुचारा) पाड़ने वालियों का भूत है; अगर पता लग जाए ना कि खेत में फतेह सिंह नम्बरदार आ लिया है तो अपनी दरांती-पल्लियाँ ऐसे छोड़ के भागती हैं जैसे कोई धाड़ पड़ गई हो; तो तू क्या चाहता है कि तू अपने साथ-साथ मेरा भी बक्कल उतरवायेगा? मखा हमारे यहां दूध-दही-घी का खाना चलता है, इन मॉस-मच्छियों को हम हाथ ना लगाते| पर वो जिद्द करने लगे तो मैंने बोल दिया कि करता हूँ कोई जुगाड़|

तो उस दिन तीन बजे गाँव आ गए थे तो ठेकेदार बोला कि आज यह ट्राली अनलोड करने के बाद सब रेस्ट फरमाएंगे, और मच्छी-चावल की पार्टी करेंगे; सो आज आप इसका अरेंज कर दो| तो मैंने कहा कि चल ले-ले इनमें से एक बन्दे को साथ| तभी टोली से वो हट्टा-कट्टा मोटा आया और बोला बाबु जी मैं चलूंगा साथ| मैं उनको गाँव के नाई-वाले जोहड़ पर ले गया| हमारे एक जानकार ने उस जोहड़ में मच्छी-पालन का ठेका लिया था| मैंने उससे बात कर ली थी| वहाँ जा के उसको बोला कि निकाल लो जितनी की जरूरत है| वो मोटा जोहड़ में घुस के मच्छियां पकड़ने लगा| मैं ठेकेदार के साथ जोहड़ किनारे बैठ गया| तो तभी मुझे खेत वाली बात याद आई तो ठेकेदार से पूछा, वार्तालाप कुछ यूँ हुई:

मैं: तुम बाकियों को तो काम में थोड़ा सा ढीला पड़ते ही टोक देते हो और इस मोटे को कुछ नहीं कहते; जबकि यह काम के दौरान दो-दो घण्टे सोता भी रहता है?

ठेकेदार: वो क्या है बाबु जी, कि हम बाकी सब तो कोई दलित है, कोई महादलित, तो कोई ओबीसी परन्तु यह हमारे गाँव के ठाकुर हैं|

मैं (अचंबित होते हुए): हैयँ, गाँव का ठाकुर? तो फिर यह तुम्हारे साथ क्या करने आया है?

ठेकेदार: वो क्या है ना बाबु जी, यह आप लोगों की तरह मजदूरों के साथ खेतों में नहीं खटते| ना आपकी तरह मजदूर को सीरी-साझी यानी काम में पार्टनर मानते, बल्कि नौकर-मालिक की तरह व्यवहार करते हैं| जैसे मैं एक दलित होते हुए आपके बगल में बैठा हूँ, ऐसे हम हमारे बिहार में इनके बगल में बैठने की तो कल्पना भी नहीं कर सकते| यह सिर्फ खेत किनारे खड़े हो के हुक्म देना जानते हैं| खुद से पानी का गिलास उठा के पीना भी अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं| और इसीलिए इनके पास जमीनें होने पर भी यह अधिकतर कंगाल हो रखे हैं| दूसरा इनके सवर्णवादी रवैये और जाति-पाती के जहर के चलते, हम अधिकतर लोग इधर आपके यहां हरयाणा-पंजाब में इज्जत की मजदूरी करने चलते आते हैं; तो ऐसे में अब तो इनको खेतों के किनारे खड़ा हो के हुक्म देने को मजदूर भी नहीं बचे|

मैं: अच्छा तो, पर यह यहां तो औरों से कम बेशक परन्तु काम तो कर रहा है| अभी देख लो तुम दलित हो के मेरे साथ बैठे हो और यह ठाकुर हो के तुम्हारे लिए मच्छियां पकड़ने हेतु तालाब में उतरा हुआ है?

ठेकेदार: जनाब, यह इनकी मजबूरी है| वहाँ भूखे मरने की हालत है तो यहां साथ चले आये| और यह मछलियां तो इसलिए पकड़ रहा है, क्योंकि इसको वहाँ ट्राली अनलोड करने पे छोड़ के आते तो दो-दो मंजिल पर गेहूं के कट्टे चढ़ाना भारी हो जाता है| इसको उस काम से यह मच्छी पकड़ना आसान लगा| तो चुपके से मौका लपक लिया| अब यह ठहरा ठाकुर, तो इसके आगे बाकी की टोली वाले यह भी नहीं कह सके कि हम जायेंगे|

मैं: तो जब इनको खेतों में काम करना है तो यहां आ के करने की बजाये बिहार में अपने खेतों में क्यों नहीं करते?
ठेकेदार: झूठी आन और शान की वजह से|

मैं: तो फिर वहाँ तुम्हारे गांव में जब पता चलेगा कि यह यहां मजदूरी कर रहा है, उससे शान में कमी नहीं आएगी?

ठेकेदार: नहीं बाबु जी, क्योंकि वहाँ यह, यह बोल के आया है कि हम पिकनिक पे जा रहे हैं|

मैं: ओह, मखा यह खूब रही; साला इस म्हारे हरयाणे की माट्टी में ही कुछ चमत्कार है जो इसपे आ के लोगों को मजदूरी भी पिकनिक लगने लगती है| खैर, तू यह और बता कि जब तू औरों को टोक देता है और इसको नहीं टोकता तो बाकी टोली वाले तेरे इस पक्षपात का विरोध नहीं करते?

ठेकेदार: नहीं बाबु जी, क्योंकि हमें वापिस तो वहीँ जाना है ना| यहां जो इनके आराम करने पे आवाज उठाएगा, बिहार वापिस जाने पे ठाकुर और भूमिहार ब्राह्मणों को बोल के यह हमारा हुक्का-पानी बन्द करवा देगा; जो कुछ यहां से कमा के ले जायेंगे, वो तक छिनवा देगा|

मैं: ओह तेरी| ठाकुर के कहर का आतंक यहाँ भी चला आया|

इतने में उधर ठाकुर साहब ने तालाब से टोली की जरूरत के हिसाब से मच्छियां पकड़ ली|

अब मैंने ठेकेदार से कहा देख, तुम लोगों का बहुत मन था सो मच्छियां दिलवा दी हैं; परन्तु पकाने की जगह और वक्त ऐसा चुनना जब दादा जी घेर की तरफ ना हों; वर्ना इतना समझ लेना, ले डोगगें, दे डोगगें दादा थारा तो सूड़ सा ठा ए देगा; गेल्याँ बक्कल सा मेरा भी उतारा जागा| पहले बता दिया है कहीं बाद में फिर कहे|

ठेकेदार बोला, अरे चिंता ना करो बाबु जी, रात को बनाएंगे; वीसीआर पर सिनेमा देखते हुए|

मैं, ओह तो मतलब अब तुम्हारा वीसीआर का और जुगाड़ करना है|

इसके बाद, ठेकेदार ने ठाकुर साहब को मच्छियों की पोटली उठवा के घेर की तरफ रवाना किया और हम दोनों चले वीसीआर वाले की दूकान पे; उनके रात के सिनेमा का जुगाड़ करने|

माफ़ करना दोस्तों, कहानी थोड़ी लम्बी हो गई; परन्तु मुझे लगा कि इसमें साथ-साथ हरयाणवी-बिहारी कल्चर का तड़का लगा के, इसको पढ़ने वाले नॉन-हरयाणवीयों को हरयाणवी कल्चर का परिचय भी करवाता चलूं| तो कुल मिलाकर बात यह थी कि जो बिहार में पानी का गिलास भी खुद से उठाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वो हरयाणा में आ के मजदूरी तक करते हैं| बता दो यह बात टीवी के डब्बों में बैठे नॉन-हरयाणवी मुँहफटों को कि इज्जत करनी सीख लो कुछ इस हरयाणा की पावन धरा और कल्चर की|

मैंने, एम.बी.ए. एक नेशनल स्तर के ऐसे टॉप बिज़नस स्कूल से करी है जिसमें भारत की 24 स्टेटों के स्टूडेंट्स पढ़ते थे, परन्तु वहाँ कभी भी यह ऊपर वर्णित गौरव और अहम नहीं दिखाया; जो कि किसी भी अच्छे-से-अच्छे के तेवर ढीले कर दे| परन्तु जब मेरी ऐसी सुन्दर-विस्तृत-गहरी-गरिमामयी कल्चर पे इन्हीं राज्यों की तरफ के कुछ बेअक्ले भोंकते हैं तो यह पन्ने यूँ खोलने पड़ते हैं|

अगले भाग में एक ऐसी ही कहानी, दादा-दादी के जमाने में भारत विभाजन के वक्त पाकिस्तान से आये परिवारों की ले के आ रहा हूँ; जो मैंने मेरी दादी के कर-कमलों और दरियादिली से होती देखी थी| उसको पढ़ के सहज अंदाजा लगा लोगे कि जब लोग जाटों के बारे यह बोलते हैं कि हरयाणा में जाटों को गैर-जाट सी.एम. हजम नहीं हो रहा तो यह सुनके क्यों मेरा भीतर उबल पड़ता है|

अनुरोध: हर आत्मसम्मानी हरयाणवी युवा-युवती से अनुरोध है कि अपने-अपने जीवन के ऐसे किस्सों की सोशल-मीडिया पर ऐसी बाढ़ ला दो कि यह हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत की आलोचना-चुगली करने वालों की चोंच चूं तक ना कर पाए| You know 'लेखन-क्रांति ऑफ़ लिटरेचर', बस वही मचा दो|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ज्यादा चूं-चपड़ ना मुझे आती, ना मैं जानता और ना ही मैं किया करता!

परन्तु हरयाणा में हर तरह की बीमारी ढूंढने वालों (इसमें क्या राष्ट्रीय मीडिया, क्या जे.एन.यू. टाइप वाले झोलाछाप इंटेलेक्चुअल, क्या लेफ्ट-विंग की गोल-बिंदी गैंग और क्या कुछ स्वघोषित नव्या स्टाइल की हरयाणा पे भोंकने वाली एनजीओज) को एक चैलेंज देता हूँ कि हो अगर हिम्मत तो बिहार-बंगाल-आसाम-झारखण्ड-उड़ीसा-पूर्वी यूपी-मध्यप्रदेश आदि जगहों से मात्र बेसिक मजदूरी करने तक को जो पूरा साल-सीजनों पर वहां के दलित-महादलित-ओबीसी यहां तक कि ठाकुर-भूमिहार मजदूरों की जो ट्रेनें भर-भर हरयाणा-एनसीआर-वेस्ट यूपी और पंजाब (सनद रहे इस पूरे इलाके को मीडिया ही जाटलैंड या खापलैंड भी कहता है) में चलती/उतरती हैं, इनको उल्टी चला के दिखा दो| अगर हरयाणा तुम्हारे लिए ऐसा ही नरक है जैसा तुम हर वक्त पानी-पी-पी टी.वी. के डब्बों और क्लबों में बैठ के कोसते हो तो क्या ढोके (धार) लेने आते हो यहां? तुम्हारी तो इतनी भी औकात नहीं कि खुद के लिए एक ढंग की नौकरी अपने गृह-राज्यों में ही ढूंढ सको या अपने गृह-राज्यों को इस लायक बना सको कि यह मजदूरों की भर-भर ट्रेनें ही कम-से-कम चलनी बंद हो जाएँ|

जानते हो ना इस यहीं बैठ के नौकरी पा के हरयाणा पे ही जहर उगलने को क्या कहते हैं, इसको बेग़ैरती, अहसानफ़रामोशी, जिस थाली में खाओ उसमें छेद करो इत्यादि कहते हैं| और जो हरयाणा पे कही अपनी हर उल-जुलूल बात को "बोलने की आज़ादी" और "देश के किसी भी कोने में रोजगार करने के सवैंधानिक अधिकार" की दुहाई के पीछे छुपाते हो ना, मत भूलो कि वही सविंधान तुम्हें इस बात की भी नकेल डालता है कि तुम वहाँ की सभ्यता-कल्चर का आदर-मान-सम्मान करोगे| और यह कुत्ते की तरह टेढ़ी हो चली अपनी दुमें ठीक कर लो, वर्ना अब हर हरयाणवी तुम्हें यह बताने को खड़ा होने वाला है कि तुम यहां रोजगार कर सकते हो, परन्तु हमारी सभ्यता-कल्चर पर हग नहीं सकते| कुछ कानों के पट्ट और चक्षुओं के लट खुल रहे हैं कि नहीं? सामने वाले के कल्चर-मान-मान्यता-भाषा-लहजे की इज्जत करने की तमीज सीख लो कुछ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

धार ले ल्यो हरयाणा आळे!

हरयाणा के टैलेंट का किस हद तक शोषण और दोहन हो रहा है इसका अंदाज इसी बात से लगा लीजिये कि यहां के मंदिरों में पण्डे-पुजारी तक हरयाणवी ना हो के उत्तराखंडी या बनारसी बैठाये जाने लगे हैं? क्यों भाई क्या हरयाणा के ब्राह्मण मर गए या उनको ब्राह्मण ही नहीं माना जाता? ओह शायद इसीलिए रामबिलास शर्मा जी को सेकंड लीड की मिनिस्टरी मिली।

अरे हरयाणा में जाट तक पंडताई करते आये हैं, सो जो अगर हरयाणा के ब्राह्मणों पर से नागपुरियों का भरोसा उठ गया था तो जाटों को पुजारी बना देते? उसके पास तो लठ की ताकत भी होती है, सुसरा भगवान ज्योत-बत्ती से ना मानता तो जाट-पुजारी लठ की खोद दिखा के यूँ पल में मना देता। पर ये इम्पोर्टेड पुजारी क्यों? हरयाणा के ब्राह्मणों कहाँ सोये पड़े हो? ब्राह्मण वर्ण से उतार के शुद्र तो नहीं बना दिए गए हो, नागपुरियों द्वारा?

अब जब हरयाणा के ब्राह्मण-वर्ण तक का इतना शोषण हो रहा है, तो फिर यहां के किसान, उसकी जमीन और मजदूरों-व्यापारियों के तो क्या कहने। वैसे सुना है इस कैशलेस के जरिये हरयाणा के व्यापारी को कंगाल करके, यहां गुजराती व्यापारी घुसाए जा रहे हैं?

धार ले ल्यो हरयाणा आळे तो!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भारत में कल्चर के नाम पर वल्चर उड़ता है!

विश्व में भारत (खासकर उत्तर भारतीय) को छोड़ कहीं ऐसा नहीं देखा, जहां एक ही देश का ग्रामीण कल्चर उसके शहरी कल्चर से भिन्न हो| कल्चर के मामले में वैश्विक पद्दति यह है कि कल्चर गाँव से चलके शहर को आता है, फिर चाहे वो फ्रांस हो, इंग्लैंड हो, कनाडा हो, जर्मनी हो, इटली-स्पेन-चीन-रूस-जापान हो, मिडिल-ईस्ट या कोई और देश| शहर-गाँव का कल्चर एक होने का सबसे ख़ास फायदा यह होता है कि हर तरफ अपनेपन की आत्मीयता बनी रहती है| जबकि कल्चर की स्थिति भारत जैसी हो तो शहरी कल्चर, ग्रामीण तबके को जोंक की भांति चूसता है, वल्चर की भांति नोचता है|

अंग्रेज जब भारत में रहे या मुग़ल रहे, इन लोगों ने मूल भारतीय यानि ग्रामीण कल्चर में सेंधमारी कभी नहीं की| इसकी मान-मान्यताओं में कभी छेड़खानी नहीं की; बल्कि इनके सरंक्षण और सुरक्षा हेतु "कस्टमरी लॉ" बना के दिए| यह इन पर इनके वहाँ के कल्चर में ग्रामीण कल्चर (जो कि इनके शहरी कल्चर की जननी होता है) के आदर और सम्मान के जज्बे की शिक्षा का परिणाम था|

व्यापार जगत में जब बिज़नस मैनेजमेंट पढाई जाती है तो उसमें कल्चर मैनेजमेंट का चैप्टर कहता है कि अगर आप एक कल्चर से दूसरे कल्चर में बिज़नस करने जाते हो, एक भाषा या लहजे से दूसरी भाषा या लहजे में बिज़नस करने जाते हो तो आपको सामने वाले कल्चर की मान-मान्यता-भाषा-लहजा का ना सिर्फ सम्मान करना होता है वरन सीखना भी पड़ता है| जबकि भारतीय परिवेश में यह सब गायब है, बल्कि एक तरफा है| ग्रामीण कल्चर को ही शहरी कल्चर सीखना पड़ता है और इसी को विकास और सिविलाइज़ेशन का नाम और दे दिया गया है| जबकि शहरी तो ग्रामीण का मान-सम्मान उसकी भाषा-मान्यता सीखने की जहमत ही नहीं उठाता| भारतीय शहरी जो करता है वह सिर्फ इतना कि ग्रामीण कल्चर की जानकारी इकठ्ठा करके, उसको आगे और तहस-नहस कैसे करना है; उस पर अपनी वल्चर प्रवृति को अग्रसर करना| सो एक हिसाब से देखा जाए तो भारतीय शहरों में ग्रमीण भारत के कल्चर के वल्चर पलते हैं|

यही शहरी कल्चर होता है जो खुद ग्रामीण कल्चर सीखने-समझने और उसके मुताबकि ग्रामीण से व्यहार करने की अपेक्षा "बोलना नहीं आने" की तोहमत से, उसको गंवार-जाहिल ठहरा के उसका आर्थिक दोहन व् सामाजिक शोषण करता है| भारत में कल्चर की इस उल्टी माया के फेर में किसान के साथ-साथ ग्रामीण मजदूर-कामगार वर्ग को भी पिसना पड़ता है|

इस हिसाब से देखा जाए तो भारत ही भारत को खा रहा है| इसको नुकसान पहुचनहाने के लिए तब तक बाहरी दुश्मनों की जरूरत नहीं, जब तक इसके यहां के शहरी और ग्रामीण कल्चर एक नहीं होते, एक-दूसरे को बराबर की इज्जत और तवज्जो नहीं देते|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ऐ किसान, तू तेरे हिसाब की बही के चेक्स और बैलेंस दुरुस्त कर ले, बाकी सब स्वत: खुड्डे-लाइन में लग जायेंगे!

लहलहाती फसल में एक जानवर घुसने पर भी लठ लेकर उसपे टूट पड़ने वाले ओ किसान, यह तेरी फसलों के दामों का भाव तुझे निर्धारित ना करने दे के, खुद निर्धारित करने जो इंसानी जानवर टूट पड़ते हैं उनपर लठ ले के कब चढ़ेगा और कब उन पर चढ़ेगा जो तेरे कृषि-ज्ञान (स्वघोषित ब्रह्मज्ञानी तक अपने पेट भरने हेतु, तेरे इस ज्ञान पर निर्भर हैं), आध्यात्म को धत्ता और गंवार बता कर; तुझपे अपना काल्पनिक ज्ञान थोंप, दान-चन्दे-चढ़ावे के नाम पर तेरी जेबों में घुस जाते हैं?

तेरी फसल का एक-एक रुपया भाव बढा के देने पर भी महाकंजूसी बरतने वाले, तेरे दिए दान-चन्दे-चढ़ावे का मुड़ के हिसाब भी ना देने वालों के प्रति तेरा इतना नरम रूख क्यों, यह लाचारी क्यों? इनको पेट का अन्न तू देवे, दान-चन्दा-चढ़ावा तू देवे और इनसे इसका हिसाब भी ना लेवे; आखिर यह कैसा हिसाब है तेरा? तू तेरे हिसाब की बही के यह चेक्स और बैलेंस दुरुस्त कर ले, बाकी सब स्वत: लाइन में लग जायेंगे|

मैं कहता हूँ तू यह हिसाब लेना शुरू कर दे, यह अपने-आप ही तुझे अनपढ़-गंवार कहना बंद कर देगें| तू डरता किस बात से है यह तुझे नहीं मार सकते, क्या कभी किसी परजीवी को देखा है उसके पालक को मारते हुए? जैसे कि भैंस के थनों में चिपकी जोंक, इंसान के सर में घुसे ढेरे कभी भैंस या इंसान के सर को खत्म नहीं कर सकते ठीक वैसे ही तेरे ज्ञान से उगाये अन्न पर पलने वाला बाकी परजीवी समाज तुझे खत्म नहीं कर सकता; बशर्ते कि हताशावश तूने स्वत: खत्म होने की उल्टी नियत ना धार ली हो| तू शोर मचा, अपना हिसाब-किताब दुरुस्त कर; परविजियों की हिम्मत नहीं तेरे आगे बोल जावें|

तू क्यों व्यर्थ उनकी चिंता करता है जो तेरे कृषि ज्ञान को निरक्षरता, अनपढ़ता, अज्ञानता और गंवारपना के तिरस्कार दे-दे सिर्फ अपने इम्प्रैक्टिक्ल ज्ञान की गपेड़ों से समाज को भरमाते हैं? ऐसे अहसानफरामोश लोग जो तेरे ज्ञान को ज्ञान का दर्जा देने की बजाये तिरस्कारी शब्द देवें, और तुझसे ही उनके इम्प्रैक्टिक्ल ज्ञान पे ऑथेंटिसिटी चाहवें तो सोच कि वो सिर्फ अपना पेट भरने को ही नहीं, अपितु उनके ज्ञान की ऑथेंटिसिटी हासिल करने तक को तुझपर निर्भर हैं| अपनी इन ताकतों, अपने इन सामर्थ्यों को पहचान और खोल के जटा उलझनों-अंतर्द्वंदों व् जद्दोजहदों की, उतर आ हिसाब-किताब पर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

महिला हो या पुरुष, वीर्य-रक्षण व् संरक्षण ही आपकी सबसे बड़ी ताकत और पूँजी है!

बचपन में गाँव-शहर की गलियों में कुछ ऐसे असामाजिक तत्व घूमा करते थे, जो अक्सर अच्छे घरों के बच्चों को बरगलाने-बिगाड़ने और जीवन के ट्रैक से उतारने बाबत ऐसे-ऐसे कुतर्क दिया करते थे कि जैसे इनको यह बातें समाज में फैलाने हेतु किसी ने सिखा-पठा के भेजा हो। जैसे कोई कैडर-बेस्ड वेस्टिड-इंटरेस्ट संगठन के सदस्य हों। मुझे इनसे बड़ी चिड़ होती थी और इससे पहले इनकी बातें कानों में पड़ें, या तो खुद इनसे दूर भाग जाता था या इनको भगा देता था।

इनकी कुछ लाईनें यह हुआ करती थी कि हस्तमैथुन अब नहीं करोगे तो कब करोगे? जो चीज भगवान ने जिस काम के लिए दी है उसको अब नहीं तो कब इस्तेमाल करोगे। वीर्य को जितना ज्यादा रोकोगे वो उतना परेशां करेगा (जबकि रोकने जैसा कुछ करना ही नहीं होता, बस इस मामले में सिर्फ रियेक्ट करने से बचना होता है)। जवानी में ही जवानी की चीजें नहीं करोगे तो क्या बुढापे में करोगे। दिल जो कहे वो करो, दिमाग पे ज्यादा जोर मत दो। आदि-आदि।

अब भी, आज भी ऐसे ट्रैंड-कबूतर गलियों में यौवन की दहलीज पर कदम रखने वाले नवयौवनों को इन चीजों में बहकाने हेतु घूमते हैं कि नहीं; यह तो मालूम नहीं। परन्तु युवा पीढ़ी इतना जरूर जान-समझ ले कि ऐसे लोग आपको जवान होने से पहले ही, परिपक़्व होने से पहले ही सामाजिक धारा रुपी पेड़ से कच्चे फल-रूप में ही तोड़ फेंकने के लिए छोड़े गए होते हैं।

और इनको ख़ास दिशानिर्देश होते हैं कि कैसे किन जनसमूहों-वर्गों के बच्चे टारगेट करने हैं।

जबकि सच्चाई इसकी उल्टी है। वीर्य का रक्षण व् संरक्षण ही आपकी सबसे बड़ी ताकत और पूँजी होती है। जिंदगी दिल की सुनने से नहीं, तार्किक दिमाग की सुन के कर्म करने से सँवरती है। वीर्य को जितना संचित करोगे, इसकी आंतरिक ज्वाला की भट्टी में जितने तपोगे; उतने सिद्ध पुरुष बनोगे, उतना सांसारिक सुख भोगोगे।
इस सन्दर्भ में कोई समस्या हो तो अपने माता-पिता या शिक्षक से जरूर पूछें, कोई संकोच ना करें। क्योंकि वह जो "जिसने की शर्म, उसके फूटे कर्म" वाली कहावत है, वह किसी और विषय नहीं अपितु इसी विषय के लिए बनी है। माता-पिता या शिक्षक के अलावा इस मामले में किसी अन्य पर यकीन करना रिस्की और तुक्के वाला काम है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मनुवादी सोच से पोषित व् ट्रैनेड पीएम है यह!

जैसे मनुस्मृति कहती है कि सवर्ण, शुद्र का कमाया धन-जमीन-संसाधन जोर-जबरदस्ती से भी हथिया सकता है तो कोई अपराध नहीं, क्योंकि वह उसने सवर्ण के सुख के लिए ही कमाया है (क्यों भाई सवर्ण को हाथ-पैर नहीं हैं या वो शुद्र का जमाई या फूफा लगता है?); ठीक वैसे ही पीएम मोदी किसान-दलित-मजदूर की कमर पे वार पे वार किये जा रहा है| कभी फसलों के दाम गिरा के, कभी दालें विदेशों में उगवा के तो अब गेहूं ही विदेश से इम्पोर्ट करवा के (जबकि देश के गौदामों में अगले पांच साल से ज्यादा का स्टॉक भरा सड़ रहा है, उस स्टॉक को जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के इंतज़ाम कर नहीं रहा; विदेश से और मंगवा रहा है; क्या यही था इनका "मेक-इन-इंडिया"), कभी ओबीसी के आरक्षण में प्रमोशन खत्म करके, कभी असिस्टेंट प्रोफेसरों की जॉब्स में आरक्षण ही खत्म करके, तो अभी कल ही राजस्थान में गुज्जर आरक्षण खत्म करके| विमुद्रीकरण वगैरह से तो खैर पूरा देश ही परेशान घूम रहा|

जाट के साथ मनुवाद का पंगा लेना समझ आता है क्योंकि जाट इनकी नहीं सुनता परन्तु बेचारे गुज्जर भी नहीं बक्शे अब तो| अरे और नहीं तो कम-से-कम उस रोशनलाल आर्य का ही ख्याल कर लिया होता जो विगत दो सालों से आरएसएस/बीजेपी का भोंपू बन जगह-जगह जाटों का श्राद्ध करवाता फिर रहा था| कभी सर छोटूराम पे ऊँगली उठा रहा था तो कभी ताऊ देवीलाल पे|

ओ! ताऊ देवीलाल को कैसे-कैसे लोग राज कर गए कहने वाले, यह देख तेरा सरमाया कौन है, कैसा है; ओ सर छोटूराम को अंग्रेजों का चाटुकार बोलने वाले, यह देख तू कैसे लोगों की चाटुकारी करता घूम रहा है? सर छोटूराम चाटुकार थे या जिगरबाज, पर वो किसानों के हक़ अंग्रेजों के नल में डंडा दे के निकाल लिया करते थे| तू पूरी किसान कौम की तो छोड़, हमारे गुज्जर भाइयों का कल छिना आरक्षण ही वापिस दिला के दिखा दे, इन आरएसएस/बीजेपी वालों से| मैं तो यूँ कहूँ कि यह छीना ही क्यों?

और साथ ले लियो उस आरएसएस/बीजेपी द्वारा ही प्लांटेड ओबीसी के स्वघोषित मसीहा राजकुमार सैनी को भी|
मैं तो यूँ कहूँ तुम क्यों तो लोगों को गलत दुश्मन दिखा रहे और क्यों खुद बिल्ली को देख कबूतर की तरह आँख मूंदे हांड रहे? तुमने ना तो इसको 2014 में पहचाना (जबकि जाट तो कभी से पहचानता इनको, इसीलिए तो हरयाणा में बावजूद मोदी लहर के मात्र 2-4% जाटों ने ही हेजा था इनको) और ना अब पहचान रहे। तुम्हारा दुश्मन जाट नहीं, यह मनुवाद है| अब भी सुधर जाओ और किसान कौम को एक करके उनकी भलाई के लिए कार्य शुरू कर दो| तुम दोनों की पार्टी की स्टेट-सेंटर दोनों जगह सरकार है; तो जनता में रैलियां कर-कर किसको उलाहने देते फिर रहे हो? उलाहने तब तो देने बनें तुम्हारे जब दोनों बीजेपी-आरएसएस से हर प्रकार का नाता तोड़ लो| एक एमपी बना हुआ है बीजेपी से ही और दूसरा इनका भोंपू; और जनता को उल्लू बना के दुश्मन के नाम पे जाट दिखा रहे?

और ले लो किसानी कौमों में फूट डालने के नतीजे| अब भी समझो इस बात को कि मनुवादी सोच को तुम बिना जाट के हैंडल नहीं कर सकते| मत ले जाओ समाज को ऐसी राहों पर कि आने वाली जेनरेशन्स तुम्हें गालियां ही गालियां बकें|

Note: Thanks for sending this post to either of Rajkumar Saini or Roshanlal Arya, if anyone can; though I am trying at my end too!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 9 December 2016

वह आपको उनके प्रति गुस्सा दिलाकर, चिड़ा कर नाराज इसलिए रखे रहना चाहते हैं, क्योंकि!

सबसे पहले तो वह कौन?: वो यानी पुजारी, वो यानी व्यापारी, वो यानी ढोंगी-पाखंडी; मोटे तौर पर वो यानी तथाकथित व् स्वघोषित सवर्ण|

आप कौन: आप यानी किसान-वर्ग|

वो ऐसा क्यों रखना चाहते हैं: ताकि आप उनसे अपनी बात ना मनवा सकें, एक मिनिमम कॉमन एजेंडा ना बना सकें|

वो यह चीज क्यों नहीं चाहते?: हर इंसान ऐसा कार्य करना चाहता है जिससे उसको इस बात की अनुभूति मिले कि वह समाज पर परजीवी नहीं अपितु समाज का दाता है, समाज को कुछ ऐसा देने वाला है जो उसको सिवाय कोई और नहीं दे सकता|

अब किसान की समाज को ऐसी देन है खाद्दान यानी वह अन्नदाता कहलाता है|

तो ऐसे में उसको किसान का यह अहसान भी नहीं मानना और अपने आपको भी किसी न किसी चीज का दाता बताना है तो वह क्या करता है?

वह आपके बीच की मान-मान्यताओं, सम्बोधनों को अपनी मंशा और शब्दों के अनुरूप शब्द और अर्थ देकर उसको "आध्यात्म-ज्ञान-शिक्षा-सभ्यता" का लेबल लगाकर आपको ही चेप देता है|

उदाहरण के तौर पर राम शब्द| हरयाणवी और मारवाड़ी भाषा में राम शब्द का अर्थ होता आराम| जब आप आपस में राम-राम बोल रहे होते हो तो एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछ रहे होते हो कि आप आराम से तो हो? वह ने जब यह देखा कि यह शब्द समाज में बड़ा ही प्रयुक्त शब्द है, इसको भुना के भगवान के स्टेटस का बना दूँ इसको अनंत-काल जितना पुराना दिखा दूँ तो समाज इसको मेरा योगदान मानेगा| और उसने राम शब्द के इर्दगिर्द पूरी रामायण घड़ दी| वर्ना यह बताओ, जब राम नहीं था तो आपके यहां राम-राम शब्द की जगह इसका समतुल्य सम्बोधन क्या था? (यहां यह बात ध्यान रखी जाए कि एक शब्द दूसरी भाषाओँ-क्षेत्रों-देशों में भी इसी सम्बोधन-अर्थ में मिल सकता है|)

अब आप इनके इनकी समझ में योगदान पर सवाल ना कर दो, इसलिए वर्ण बना के अपने चारों ओर ऊंच-नीच की प्रोटेक्शन वाल भी लगे हाथों खींच ली| ज्ञानी-अज्ञानी व् सभ्य-असभ्य की रेखा खींच ली| वर्ना जिसको दूसरों का पेट भरने की कला यानी खेती करने का ज्ञान आता हो, वह दुनिया के किस ज्ञानी से कम ज्ञानी हो सकता है?
खेती करना महज दो बैल जोड़ के हल जोतना मात्र तो नहीं? किस मौसम में कौनसी फसल, उसमें कितना पानी, उसमें कितना खाद, उसमें कितना बीज इत्यादि लगेगा, उसको कब नहलाना है, कब काटना है, कब रोपना है, कौनसा जंगली जानवर नुकसानदेह, कौनसा पक्षी मित्र-पक्षी इत्यादि, ऐसी-ऐसी तकनीकी व् बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक स्तर की खेती की बातें भी चाहिए होती हैं| यह कृषि विश्विद्यालय या प्रयोगशालाएं तो अभी 50-60 सालों से ही बनी हैं; इससे पहले किसान को यह ज्ञान कौन देता था? यह ज्ञान किसान खुद अपने चिंतन-मनन-बुजुर्ग किसान की सीख व् तजुर्बे से हासिल करता था और आज भी करता है|

लेकिन यह अचंभित कर देने वाले ज्ञान की कला ऐसी है कि इसमें हाथ-पैर चलाने नहीं होते, बस बैठ के सोचने के लिए अच्छी जगह और अच्छा खाना चाहिए|

इसलिए इनसे नफरत करने की या इनके ही द्वारा आपको इनसे नफरत करने की राह पर डालने की परिपाटी किसान को छोड़नी होगी, इससे बचना होगा| और इन बातों पर समझौते करने होंगे कि आप इनको पेट भरने हेतु दान-चन्दा या व्यापार देंगे परन्तु साथ ही दान-चन्दे वाला आपको उसका हिसाब किताब दे के, आपकी सलाह से ही समाज के भले के कार्यों में लगाएगा, आप भी उस दान-चन्दे में लाभ के हिस्सेदार होंगे| और दूसरा व्यापारी उसी की भांति आपको भी आपके उत्पाद यानी कृषि खाद्द्यानों के विक्रय मूल्य स्वंय निर्धारित करने की पालिसी में शामिल करेगा|

तमाम चिंतन-मनन के बाद किसान की राह का जो सबसे बड़ा रोड़ा नजर आता है वो यही इनसे चिड़ने-नफरत करने की राही नजर आती है| हालाँकि गारंटी इस बात की भी नहीं दी जा सकती कि इनके साथ एक मिनिमम कॉमन एजेंडा बनाने निकलोगे तो यह इतने सहज मान जायेंगे। ऐसी बात करने पर यह आपको यह कह कर चिढ़ाएँगे कि तुम मूढ़-अज्ञानी-अछूत-नीच हमसे समझौते करोगे? परन्तु इनके इस रवैये के बाद भी इनको समाज के साथ मिमिनम कॉमन एजेंडा बनाने पर मजबूर करना होगा| वर्ना यह स्थिति यथावत बनी रही तो फिर यह ऐसे ही आपके ही दान-चन्दे और व्यापार के जरिये आपसे मनचाहे भावों वाले दाम ले के, इसी पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करते रहेंगे| और आपको दुश्मन के नाम पर मुसलमान-ईसाई इत्यादि दिखाते रहेंगे| और आप ना दुश्मन पहचान पाओगे और ना ही बढ़िया बोल बोल के किसी समझौते पे पहुँच पाओगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday 8 December 2016

जातिवाद इतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी कि वर्णवाद है!

क्योंकि नश्लीय, छूत-अछूत का भेदभाव वर्ण स्तर पर होता है, जातीय स्तर पर नहीं|

ब्राह्मण वर्ण में अगर कोई आसाम की तरफ की सात सिस्टर स्टेट के नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का भी ब्राह्मण है या हरयाणा/पंजाब/वेस्ट यूपी के नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का ब्राह्मण है या बिहार-बंगाल-उड़ीसा के नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का ब्राह्मण है या दक्षिण भारतीय नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का ब्राह्मण है या द्विवेदी-त्रिवेदी-चतुर्वेदी आदि जातियों का ब्राह्मण है या त्यागी-कायस्थ-भूमिहार-सारस्वत-वैष्णव-शैव-द्रविड़-मराठी जातियों का ब्राह्मण है तो भी वह ब्राह्मण वर्ण में 99% समान आदर-व्यवहार-आचार-विचार से बरता-देखा-समझा जाता है|

आपके वर्ण में आपका नयन-नक्श-रंग-कद-काठी चाहे कुछ भी हो, कोई भी आपके वर्ण में आपसे यह नहीं पूछेगा कि तू हमारे ही वर्ण का होते हुए चिपटी नाक का क्यों है, तू लम्बी नाक का क्यों है या तू गोरा क्यों है या काला क्यों है; तू लम्बा क्यों है या तू नाटा क्यों है|

इसी तरह क्षत्रिय जाति में राजपूत किसी भी कुल-वंश-जाति-वर्ण का हो वह उस वर्ण में बराबर बरता-देखा-समझा जाता है| हाँ इनके यहां विवाह के वक्त थोड़ी आपसी बन्दिशें जरूर पाई जाती हैं|

इसी तरह वैश्य वर्ण में व्यापारी जातियों को लगभग समान बरता-देखा-समझा जाता है, सिवाय व्यापारिक कॉम्प्टीशन के|

इसी तरह शुद्र वर्ण में दलित व् ओबीसी को समझा जाता है, सिवाय ओबीसी व् दलित में कारोबारी फर्कों के|
और इसी तरह पांचवें वर्ण या कहो कि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से मूर्ती-पूजा को ना मानने वाले अवर्ण कहलाने वाला जाट समूह है| मूर्ती-पूजा विरोधी होने की वजह से इस समूह को ब्राह्मण वर्ण यदकदा एंटी-ब्राह्मण भी बोलता आया है तो दूसरी तरफ महर्षि दयानंद जैसे ब्राह्मण जाट को जाट के इस मूर्ती-पूजा व् आडम्बर विरोधी गुण की वजह से "जाट-जी" व् "जाट-देवता" तक कहते-लिखते रहे हैं| बताता चलूँ कि उनके द्वारा ब्राह्मण-सभा ने जाट की यह स्तुति इसलिए करवाई थी ताकि जाट सिख धर्म में ना जावें| वर्णीय स्तर की एकता और बराबरी इस समूह में सर्वोच्च कोटि की है| गौत-खाप-गाँव-खेड़े यहां तक कि धर्म के आधार पर इनके वर्गीकरण में जो गण्तांत्रिकता पाई जाती है वह अद्भुत है| बाकी वर्ण जहां अंतर-धार्मिक विवाह में परहेज कर जाते हैं, जाट इस मामले में सबसे लिबरल हैं| सबसे ज्यादा इस वर्ण में अंतर्धार्मिक विवाह स्वीकारे जाते हैं|

खैर, तो इस ऊपरचर्चित विवेचना से स्पष्ट है कि जाति मिटाने से पहले वर्ण मिटाना जरूरी है| जाति तो खामखा का हव्वा बना रखा है, असली भेदभाव तो वर्ण-स्तर पर होता है| लेकिन वर्ण स्तर के लोग वर्णीय भेदभाव को जातीय भेदभाव से ढंके रखना चाहते हैं| और जब तक यह ढंका है तब तक हमारे यहां जो नश्लीय स्तर का भेदभाव है वह दुनिया में सबसे घातक स्तर का बना रहेगा| इसलिए सबसे पहले कुछ खत्म करना-करवाना है तो इस वर्णीय भेदभाव को खत्म करवाना होगा|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फुल-जोर के एक्सपेरिमेंट पे एक्सपेरिमेंट चल रहे हैं, सम्भल के चलना ओ हरयाणा वालो!

राजकुमार सैनी पर स्याही फिंकवाने का प्रोपेगंडा बीजेपी-आरएसएस द्वारा ही रचवाया गया था| इतने दिनों से इस खबर की पुष्टि करने में लगा था, आज कन्फर्म हो गई है| इसके पीछे बीजेपी के ही बड़े चेहरे हैं और उनका मकसद था इस एपीसोड के जरिये जाट और ओबीसी को और भी ज्यादा अलग-थलग करना|

पूरी कहानी, पूरा एपीसोड स्क्रिप्टेड था, धारा 307 लगवा के हव्वा बना के फैलाया जायेगा, और फिर जल्द ही जमानत करवा दी जाएगी; यह भी स्क्रिप्टेड था|

मकसद सिर्फ और सिर्फ एक था, कि राजकुमार सैनी के इतनी लाख कोशिशें करने के बावजूद भी ओबीसी उस हद तक जाटों से दूर नहीं हुआ था, जितना कि बीजेपी-आरएसएस चाहती थी| और यह दावे के साथ देखा जा रहा है कि इस इंसिडेंट के बाद दूरी बढ़ी है, कितनी यह आप ग्राउंड पर ज्यादा देख-समझ रहे होंगे| इस दूरी का असर कुरुक्षेत्र की सैनी की रैली में एकत्रित लोगों की संख्या से जोड़ के भी निकाला जा रहा है|

और इसका बोनस पॉइंट यह था कि इसके जरिये जाटों का उबल रहा गुस्सा भी मैनेज करवाया गया, जाटों को लगा कि चलो इन बालकों को तो जल्दी जमानत मिली|

तीसरी टेस्टिंग अब चल रही है इन बालकों के जरियों, यह टेस्ट करने की कि बीजेपी कितने जाटों को इनके पीछे जोड़ सकती है या इनके जरिये क्या एक और नया धड़ा बन सकता है कि नहीं|

मतलब फुल-जोर के एक्सपेरिमेंट पे एक्सपेरिमेंट चल रहे हैं, सम्भल के चलना ओ हरयाणा वालो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

विमुद्रीकरण के बाद जमीन अधिग्रहण का "गुजरात मॉडल" में लागू "मनुवादी" कानून अब हरयाणा में भी लाने की सुगबुगाहट!

आज दैनिक जागरण के मुख्य पृष्ठ पर एक खबर थी कि हरयाणा सरकार ने हरयाणा में "गुजरात मॉडल" वाला जमीन अधिग्रहण कानून लागू करने हेतु सरकारी अधिकारियों को उसको स्टडी करने को कहा है| यह कानून कहता है कि किसान की मर्जी हो या ना हो, अगर किसी को कोई जमीन इंडस्ट्री लगाने के लिए पसन्द आई तो वह उसको दे दी जाएगी| मुवावजा भी मनमर्जी का दिया जायेगा, उसमें किसान की पूछ नहीं होगी| पहली तो बात यह|

दूसरी, मैंने इसको मनुवादी क्यों कहा? "मनुवाद कहता है कि सवर्ण को दलित-किसान की कमाई हुई प्रॉपर्टी-पैसा छीनने का हक़ है व् दलित-किसान को प्रॉपर्टी-पैसा रखने का हक़ नहीं"| यह छीनने के हक का कांसेप्ट आपने अभी विमुद्रीकरण में भी देख लिया, कि कैसे लाखों-करोड़ों का लोन हजम किये बैठे सवर्णों के तो सब पैसे माफ़ और आप के हजार-पांच सौ भी बैंकों में भरवा के उनके और भी करोड़ों करोड़ के लोन अभी फ़िलहाल ही माफ़ किये हैं| और अब यह मनुवादी डंडा 'गुजरात-मोडली जमीन-अधिग्रहण' ला के करने की भरपूर कोशिश करने वाले हैं|

मुझे तो अचरज हुआ यह जान के कि जिस गुजरात मॉडल की शेखियां इतने महीनों-साल से बघेरी जा रही हैं वो असल में मनुवादी मॉडल है|

थोड़े दिन पहले मेरे लेख में जो कहा था कि विमुद्रीकरण तो सिर्फ ट्रेलर है, अभी असली पिक्चर तो गुजरात मॉडल वाले जमीन-अधिग्रहण कानून को यहां लागु करके दिखाई जाएगी,वह आज की खबर से सच होती प्रतीत लगी| सेण्टर में तो पिछले साल जब बीजेपी आते ही इस अधिग्रहण कानून को लागु कर रही थी तो विपक्ष ने बचा लिया था परन्तु हरयाणा में कौन बचाएगा?

हो जाओ करड़े, असली कड़वी दवाई तो अभी तैयार हो रही है| खुद पियोगे या उल्टी इन्हीं को पिला दोगे?

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सरदार पटेल की जाति को राम-कृष्ण की जाति के जैसे रहस्यमयी क्यों बना रखा है?


राम की जाति को लेकर राजपूत और जाटों में बड़ी कलह होती है; दोनों क्लेम करते हैं कि राम राजपूत था तो जाट कहते हैं कि राम जाट था। जबकि इस बीच एक तथ्य और निकला कि राम की जाति का तो राम जाने या उसको बनाने वाले, परन्तु हरयाणा में जो राम-राम बोला जाता है उसका इस राम से कोई कनेक्शन नहीं; क्योंकि राम-राम हरयाणवी का एक शब्द है जिसका हिंदी अर्थ होता है आराम-आराम। यानी जब आप किसी को बोलते हो कि राम-राम, तो इसके जरिये "आप आराम से तो हो" भाव से उसकी कुशलक्षेम पूछ रहे होते हैं; खैर।

अब ऐसा ही किस्सा कृष्ण का बना हुआ है, इन पर तो यादव-गुज्जर-कुर्मी और जाट यहां तक कि राजपूत भी अपना कब्जा बताते हैं; सब अपनी-अपनी जाति का क्लेम करते हैं।

खैर, यह दोनों तो ठहरे माइथोलॉजी के काल्पनिक चरित्र; इनको घड़ने वाले तक इनकी जाति यह कह के छुपा जाते हैं कि भगवान की कोई जाति नहीं होती। क्योंकि जानते हैं कि अगर राम को राजपूत बता दिया तो अगले दिन से जाटों के यहां से राम के नाम चन्दा आना बन्द या जाटों का बता दिया तो राजपूतों के यहां से आना बन्द। परन्तु एक बात जरूर है, जैसे ही सर छोटूराम या बाबा साहेब आंबेडकर नाम के भगवान की बात आती है तो फटाक से उनकी जाति पहले चलवा देते हैं।

सन्दक सी बात है जिसका जन्म हुआ है और भारत में हुआ है, और वो भी माइथोलॉजी में नहीं रियल में हुआ है तो उसकी जाति तो पक्की होनी ही है। ऐसी ही एक पहेली बनी हुई है सरदार वल्लभभाई पटेल जी की जाति। हरयाणा के गुज्जर कहते हैं कि वो गुज्जर थे, यूपी के कुर्मी कहते हैं कि वो कुर्मी थे; तो कभी-कभी और क्योंकि गुजरात में पटेल जाट भी होते हैं तो जाट भी उनको जाट बताने लग जाते हैं।

अब इसको लेकर जो थोड़ी सी रिसर्च सामने आई है वो पेश करता हूँ। मध्यप्रदेश के हरदा डिस्ट्रिक्ट में अर्जुन पटेल (जो खुद जाट हैं) बताते हैं कि सरदार पटेल जाट हैं या नहीं यह तो अभी नहीं पता, परन्तु एक बात पता है कि सरदार पटेल के गाँव में कुर्मी और जाट हैं; गुज्जर नहीं। मतलब इस थ्योरी से सरदार पटेल को गुज्जर कहने वाला कांसेप्ट तो रदद् होता है। अर्जुन आगे बताते हैं कि 01/12/2012 के हिंदुस्तान टाइम्स में छपी खबर के अनुसार सरदार पटेल जाट हैं (खबर का लिंक नीचे देखें)। भाई के अनुसार 2011 के चुनाव में सरदार पटेल के पोते ने खुद को जाट बताया, अंग्रेजी अखबारों में इसकी खबर भी छपी थी।

अंत में मेरा सिर्फ इतना कहना है कि सरदार पटेल कोई माइथोलॉजी का चरित्र नहीं कि उनकी जाति को प्रसाद की भांति सबमें घुमा के उनके नाम का चन्दा ढकारा जाए। बल्कि मैं इस संशय में यह बात कह रहा हूँ कि अगर वो वाकई में जाट ही हैं तो फिर तमाम जाट संस्थाएं उनको अपने बैनर्स-पोस्टर्स-प्रचार सामग्री में स्थान न देकर उनके साथ अनजाने में अन्याय कर रही हैं। एक पल यह विचार भी आता है कि यह जाट संस्थाएं-सभाएं दशकों से हैं और बहुत शोध भी करती हैं, तो हो सकता है कि इनमें से किसी ने इस विषय पर शोध कर रखा हो तो कृपया मुझे भी उससे अवगत करवाएं; धन्यवाद।

Source: http://www.hindustantimes.com/india/community-power-how-the-patels-hold-sway-over-gujarat/story-WejgSajNL5YcxA3rUf8ajK.html

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"खापद्वारा" - जाट या किसानी जातियां जो भी धर्म-कर्म या सामाजिक कल्याण हेतु ईमारत बनाएं/बनवाएं, उसके नाम में "खापद्वारा" शब्द जोड़ने पर जरूर विचारें!

और इसमें कुछ-कुछ क्या-क्या कैसे हो सकता है, उसकी बानगी इस प्रकार समझी जा सकती है|

कल बिड़ला मंदिर वाली जो पोस्ट निकाली थी, उसके जवाब में कई भाईयों के तर्कसंगत रेस्पॉन्स आये कि जाट-मंदिर बनाओ; इस पर इतना ही कहना चाहूंगा कि हमें किसानी जातियों के यौद्धेयों के फॉर्मेट के हिसाब से मंदिर+गुरुद्वारा के कॉम्बिनेशन का स्ट्रक्चर शुरू करना चाहिए, जिसका नाम "खापद्वारा" रखा जा सकता है| इसके अंदर हमारी प्रचलित पद्दति के साथ खाप समाजों में हर कौम व् हर धर्म से जो भी यौद्धेय हो के गये हैं; उन सबकी गुरुवाणियां सुबह-शाम गाई जाएँ, ठीक वैसे ही जैसे सिख गुरुद्वारों में गाई जाती हैं|

वैसे भी आज के दिन ना ही तो कोई मन्दिर, ना आरएसएस, वीएचपी जैसे संगठन किसी भी महान जाट, खाप या किसानी जातियों के यौद्धेयों की ना ही तो कोई जयंती मनाता, ना उनकी वाणियां गाता, ना उनका कोई किसी भी लिखित/मौखिक फॉर्मेट में जिक्र करता|

इसलिए हमें अपने यौद्धेयों, हुतात्माओं के साथ अपनी कल्चर-सभ्यता-मान-मान्यताओं को जिन्दा रखना है और आगे की पीढ़ियों को पास करना है तो इसका सबसे बढ़िया विकल्प "खापदवारे" हो सकते हैं|

जिन खापों के पास पहले से ही अपने "खाप-भवन" या "खाप-इमारतें" हैं वह भी इनका नाम खापद्वारा रखने पर विचार करें| जैसे कि गोहाना में मलिक खाप का "मलिक भवन" है, रोहतक में नांदल खाप का "नांदल भवन" है व् ऐसे ही और भी काफी सारी खापों के पास अपनी-अपनी इमारतें हैं; वह इनमें "भवन" शब्द को खापद्वारा" शब्द से रिप्लेस करने को विचार देवें और जाट-धर्मशालाओं को "जाट- सर्वखापद्वारा" नामकरण पर विचारें| और इस श्रृंखला में "सर्वजातीय-सर्वखापद्वारा" सर्वजातीय सर्वखाप के हेडक़्वार्टर सोरम में बनवाया जा सकता है या फ़िलहाल जो वहाँ चौपाल है उसको यह नाम दिया जा सकता है व् आगे चलकर आवश्यकानुसार इसका विस्तार किया जा सकता है।

और इन खापदवारों में अपने यहां हो के गए तमाम हुतात्माओं-क्रांतिकारियों-पुण्यात्माओं की वाणियां व् पाठ सुबह-शाम करवाने शुरू करें| साथ ही अपने कल्चर-सभ्यता इत्यादि पर भी पठान-पाठन होवै तो कसम से सुवाद सा आ जावे|

परन्तु हाँ, अभी तक जितने मंदिर जाटों ने बनवाये हैं; उनके नाम अवश्य "जाट-मंदिर" टाइप में करवाये जाने चाहियें, या जिसने वो मंदिर बनवाया उसके नाम पर या उसके पुरखों के नाम पर| जैसे कि जींद का रानी-तालाब वाला मंदिर का नाम फुलकिया जाट मंदिर या जाट मंदिर या जींद का शाही मंदिर (शाही क्योंकि जींद रियासत ने इसको बनवाया) होना चाहिए|

अपील: आपके नजदीकी यथासम्भव खाप चौधरी-चौधरानियों को यह सुझाव पहुंचाने के लिए आपका धन्यवाद|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 4 December 2016

जाट अगर इस जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े को पलक झपकते समेटवाना चाहते है तो यह करें!

जाट मर्द खुद भी और अपने घर की औरतों से भी यह कह दें कि हमारे घरों-दरवाजों-गलियों-चौराहों पर मन्दिर-गौशाला-जगराता-भंडारा आदि के नाम पर हर दान मांगने आने वाले, हर दान की पर्ची काटने वाले को यह कहो कि जा के पहले यह जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े बंद करवाओ और फिर दान ले जाओ।

मैं जानता हूँ कि इन्हीं में से किसी-किसी के इशारों पर चलने वाले इन जाट बनाम नॉन-जाट रुपी अखाड़ों वाले यह बड़े भोले बनते हुए कहेंगे कि अजी हमने कौनसा इनको ऐसा करने-रचने-बोलने को बोला है।

तो जवाब देना कि हमने कब कहा है कि आपने रचने-करने-बोलने को बोला है परन्तु हम इतना जानते हैं कि आपके कहने से यह चुप बैठ जायेंगे और समाज का भाईचारा बचा रहेगा और सबका भला हो जायेगा।

और जो यह ढीठ बनते हुए यह कह दें कि अजी हमारी नहीं सुनेंगे तो जुबानी तीरों से इनको थपड़ाने के लहजे (ध्यान रहे हाथों से नहीं थपडाना, मेरी दादी वाले स्टाइल में सिर्फ जुबान-जुबान में ही टाकलना है) में जवाब देना कि जब तुम्हारी कोई सुनता ही नहीं तो हम क्यों सुनें? जाओ कोई और दरवाजा देखो।

देखना जब आगे से ऐसे दो-टूक जवाब मिलेंगे, बिना दान के जब भूखे मरते पैर कूटेंगे और पेटों में इनके मरोड़े लगेंगे तो यह तो क्या सीधा मोहन भागवत और शंकराचार्य तक ना राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य और अश्वनी चोपड़ा जैसों के मुंहों पे "तोड़े-से-भी-ना-टूटे" वाले फेविकॉल चिपका दें तो।

मैंने तो यह नियम बना लिया है और मेरे घर-रिश्तेरदारों में इसको फैला रहा हूँ; आप भी यह काम शुरू कर लें तो देखो कितना जल्दी घर बैठे जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सिमटते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बनियों से सीखो कि धर्म के नाम पर इन्वेस्ट किये से एक-एक पाई कैसे वापिस कमाते हैं!

धर्म के नाम पर दान का हिसाब नहीं लिया-दिया जाता, दान गुप्त होता है, दिया गया दान वापिस नहीं होता, दान स्वेच्छा से होता है; आदि-आदि जुमले उन्हीं को सुहाते हैं जिनको धर्म में इन्वेस्ट करके इससे कमाना नहीं आता या कमाने की इच्छा नहीं रखते या इसको कमाना गलत मानते हैं|

एक बात बताओ बिड़ला मंदिर किसके नाम या उपनाम से बने हैं देश में? बिड़ला कोई भगवान था या कोई से भगवान् का उपनाम है यह? सिंपल बनियों के उपनाम यानि गोतों यानी गोत्र में से एक गोत्र ही तो है ना?

अब देखो, इसको कहते हैं मार्केटिंग और वो भी "गुड वर्ड ऑफ़ माउथ" वाली मार्केटिंग| जो-जो भी मन्दिर में जायेगा, बिड़ला औद्योगिक घराने के लिए उसके मन में अच्छी भावना पैदा होगी और बिना सवाल किये इनके हर उत्पाद खरीदेगा; खरीदते हो कि नहीं?

अब एक उदाहरण जाटों का ले लो| जींद के रानी तालाब वाला भूतेश्वर टेम्पल, जींद के महाराजा ने बनवाया था, वो भी अमृतसर हरमिंदर साहिब की तर्ज पर, तालाब के बीचों-बीच; और वो भी एक सिख जाट होने के बावजूद? सब जानते हैं कि जींद-नाभा-पटियाला रियासतें इनके संस्थापक (फाउंडर) सरदार चौधरी फूल सिंह सन्धु जी के नाम से फुलकिया जाट रियासतें बोली जाती हैं? तो फिर इस मन्दिर का नाम फुलकिया मन्दिर या सन्धु मंदिर क्यों नहीं होना चाहिए?

और वैसे भी यह तो बना भी जाटों के श्रेष्ठ आराध्य शिवजी महाराज उर्फ़ स्केडेनेविया के राजा ओडिन - दी वांडर्र महाराज के नाम पर है| तो जब मंदिर बनवाया जाटों ने, उसमें भगवान् जाटों का बैठा तो यह भूतों का ईश्वर नाम किसने दिया इसको?

मेरी बातें सहज सबके पल्ले नहीं पड़ती, परन्तु जिनके पड़ती हैं वो फिर इन ढोर-डंगर टाइप ढोंगी-पाखंडियों के चंगुल से छुटकारा पा के, उन्मुक्त वाणी बोलने लग जाते हैं|

तो जब मन्दिर में जाना ही है, इनको पूजना ही है तो फिर क्यों नहीं जो-जो आपने या आपके बाप-दादाओं ने बनवाए हैं उनके नाम भी बिड़ला मंदिर सीरीज की भांति आपके ही पुरखों के नाम पर रखे जाएँ? आप जाट हो, कोई दलित नहीं कि पुजारी भीतर ही ना घुसने दे; कहो पुजारियों से कि जो मंदिर जाटों ने बनवाये हैं; उनके नाम भी जाटों के नाम पर होने चाहियें|

अब या तो बिड़ला मंदिरों के नाम भी भगवानों के नाम पर हों नहीं तो जाटों के मंदिर जाटों के नाम से ही हों|
इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े खड़े किये हुए हैं यह सब खत्म हो जायेंगे, क्योंकि जब लोग देखेंगे कि जिन मंदिरों में हम जाते हैं; यह तो अधिकतर जाटों के ही बनवाये हुए हैं, तो वह साफ़ समझ जायेंगे कि यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े रचने वाले हैं यह वही अहसानफरामोश लोग हैं जो जाटों से ही सबसे ज्यादा दान-चन्दा ढकारते हैं और इन्हीं पे खुद भी जहर उगलते हैं और हम में से किसी को रोशनलाल आर्य तो किसी राजकुमार सैनी तो किसी को अश्वनी चोपड़ा बना के जहर उगलवाते हैं|

लॉजिक है कि नहीं बात में? सीधी सी बात है प्रचार में रहोगे तो कोई नहीं घुर्रा पायेगा; लेकिन इनको ऐसे ही पाथ-पाथ बिना इनपर अपना नाम लिखवाये मंदिर बना के देते रहोगे तो यूँ ही जाट बनाम नॉन-जाट झेलोगे| सबसे ज्यादा मंदिर बनवाओ तुम, इनमें दान दो तुम और फिर जाट बनाम नॉन-जाट भी तुम ही झेलो, बावली गादड़ी ने पाड़ राखे हो के?

कि मैं गलत बोल्या, हो दस्सो क्या मैं गलत बोला?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 3 December 2016

मुझे इन उपदेशो पर मेरे सवालों के जवाब चाहियें, कोई ज्ञानी-ध्यानी अगर दे सके तो आगे आये!

उपदेश 1: अतीत में जो कुछ भी हुआ, वह अच्छे के लिए हुआ, जो कुछ हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो भविष्य में होगा, अच्छा ही होगा. अतीत के लिए मत रोओ, अपने वर्तमान जीवन पर ध्यान केंद्रित करो , भविष्य के लिए चिंता मत करो

मेरा सवाल: इंसान कोई रोबोट नहीं जो अगत-पिछत देखे बिना, सिर्फ वर्तमान में लगा रहे| पिछत यानी अतीत यानी इतिहास जब तक नहीं जानोगे तब तक वर्तमान के कर्म कैसे तय करोगे? पीछे की असफलताओं को ध्यान नहीं रखोगे तो फिर से वही असफलताएं करने से कैसे बचोगे? बिना भविष्य के प्लान के वर्तमान में कोई कैसे कार्य कर सकता है? इंसान कोई जानवर थोड़े ही कि गाड़ी या हल में जोता और उसके आगे पीछे के वक्त में सिर्फ खाता और सोता रहे? इंसान को कर्म करने के लिए प्रेरणा चाहिए, लाभ-हानि का कैलकुलेशन चाहिए|

उपदेश 2: जन्म के समय में आप क्या लाए थे जो अब खो दिया है? आप ने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया है? जब आप पैदा हुए थे, तब आप कुछ भी साथ नहीं लाए थे| आपके पास जो कुछ भी है, आप को इस धरती पर भगवान से ही प्राप्त हुआ है| आप इस धरती पर जो भी दोगे, तुम भगवान को ही दोगे| हर कोई खाली हाथ इस दुनिया में आया था और खाली हाथ ही उसी रास्ते पर चलना होगा| सबकुछ केवल भगवान के अंतर्गत आता है?

मेरा सवाल: कोई भी इंसान ना ही तो खाली आता और ना ही खाली जाता| यह सबसे बड़ी गपैड है कि वो खाली आता है और खाली जाता है| यह सिर्फ जनमानस को धन से खाली रखने का षड्यन्त्र है, ताकि इस उपदेश का हवाला देकर गुप्त-दान-चन्दे-चढ़ावे के नाम पर उसकी जेबें झड़वाई जा सकें| गर्भ पड़ते ही उसका वर्ण निर्धारित हो जाता है, जाति निर्धारित हो जाती है, धर्म-देश-राज्य-जिला निर्धारित हो जाता है; डीएनए निर्धारित हो जाता है; यहां तक कि वो छूत कहलायेगा या अछूत यह तक निर्धारित हो जाता है| देखो जब वो गर्भ से निकलता है तो कितना कुछ साथ लिए आता है या आती है| और जाते वक्त हर कोई अपने कर्मों की पूँजी अपने साथ ले के जाता है, अपना नाम साथ ले के जाता है| सरदार भगत सिंह मरने के एक सदी बाद भी याद किया जाते हैं जो साबित करता है कि जब वो धरती से गए तो अपने साथ भारत के सबसे बड़े देशभक्त होने की पूँजी ले गए|

उपदेश तीन: आज जो कुछ आपका है, पहले किसी और का था और भविष्य में किसी और का हो जाएगा| परिवर्तन संसार का नियम है|

मेरा सवाल: बिलकुल झूठ, मेरी कमाई रेपुटेशन-इज्जत-नाम-ओहदा आज भी मेरा है और कल मेरे जाने के बाद भी मैं इसी से जाना जाऊंगा| यह मुझसे कोई नहीं छीन सकता| वर्ना ऐसा होता तो न्यूटन के तीन लॉ आज भी न्यूटन के ना बोले जाते, आइंस्टाईन के अविष्कार आइंस्टाईन के ना बोले जाते| महाराजा सूरजमल के जौहर महाराजा सूरजमल के ना बोले जाते| सच्चाई तो यह है कि यह वाक्य इसलिए घड़ा गया है ताकि यह रॉयल्टी और इतिहास के चोर महाराजा सूरजमल आदि जैसे महापुरुषों का क्रेडिट या तो भुलवा के उसको अपने अनुसार घड़ देवें या किसी और के खाते-बट्टे चढ़ा देवें| पश्चिम में ऐसा होने का कोई खतरा नहीं, क्योंकि वहाँ ऐसे उपदेश नहीं चलते|

उपदेश चार: आत्मा अजन्म है और कभी नहीं मरता है| आत्मा मरने के बाद भी हमेशा के लिए रहता है| तो क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? आप किस बात से डर रहे हैं? कौन तुम्हें मार सकता है?

मेरा सवाल: आत्मा अजन्म है तो यह 70 साल पहले भारत की जो जनसँख्या 35 करोड़ कुछ थी वो आज 125 करोड़ कुछ कैसे हो गई? यह 90 करोड़ नई आत्माएं कौनसी फैक्ट्री से बनके आई?

उपदेश पांच: केवल सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए अपने आप को समर्पित करो| जो भगवान का सहारा लेगा, उसे हमेशा भय, चिंता और निराशा से मुक्ति मिलेगी|

मेरा सवाल: लॉजिकल बुद्धि से बड़ा कोई भगवान नहीं| जो लॉजिक्स से चलता है वो अपना भगवान खुद है| बुद्ध से बड़ा कोई भगवान नहीं| बुद्ध यानी आपकी अपनी बुद्धि|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक