जिस समाज की सामाजिक थ्योरी व् सरंचना धराशायी होनी शुरू हो जाए उस समाज
को राजनीति करने से जरूरी अपनी इस सरंचना को दुरुस्त करना चाहिए| अख़बारों
में देख ही रहे होंगे कि जाटलैंड पर फलानों का कब्जा, धकड़ों का कब्जा? पहले
तो इनको कोई यह समझा दे कि जाट ने यूँ ही कब्जे करके सिर्फ अपने को ही
ऊपर रखना होता तो अल्लाउद्दीन खिलजी के बाद सन 1300 से 1550 तक जब अधिकतर
गामों के "दादा नगर खेड़े" बसाये तो जाट उसी जमाने से किसी अन्य को बसने
नहीं देते और ना यह एरिया हिंदुस्तान का सबसे धनाढ्य व् हराभरा बन पाता|
कोई एक ऐसा गाम नहीं, जो जाट बाहुल्य हो व् उसमें बसने वाली अन्य जाति यह कह दे कि हम जाटों से पहले इस गाम में बसे| सब जाटों के पीछे-पीछे आये, जाट ने पहले गाम के "दादा नगर खेड़े" बांधे फिर अन्य कामगार-कास्तकार-मजदूर-व्यापारी वर्ग/जातियां आते गए और बसते गए| यह बसासती विरासत है मीडिया की परिभाषा में "जाटलैंड" कही जाने वाली इस धरती की| नवयुवा पीढ़ी के बालको भूलना मत इस बात को|
"बार्टर-सिस्टम", "सीरी-साझी वर्किंग कल्चर", "उदारवादी जमींदारी सभ्यता", "विधवा विवाह", "देहल-धाणी की औलाद माँ का गौत रखे", "शादी से पहले बाप के घर, शादी के बाद पति के यहाँ आजीवन सम्पत्ति अधिकार (पति पहले मर जाए तो भी, उसको पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर अन्यों की भांति विधवा आश्रमों में नहीं बैठाते जाट)" के विधानों के जनक हैं जाट| "धर्मस्थलों-पूजा में औरत को 100% लीडरशिप", "धर्मस्थलों में मर्दवाद वर्जित" रखने वाले हैं जाट| आज भी जाट को "दादा नगर खेड़ों पर धोक-पूजा इसके घर की औरतें लगवाती हैं, जबकि अन्य स्थलों पर मर्द खड़े होते हैं वह भी यह डंडा ले कर कि औरत कब इन धर्मस्थलों में घुसेगी और कब नहीं, यह उनके मर्द निर्धारित करेंगे| दुनिया की सबसे बड़ी व् पुरानी इंजीनियरिंग थ्योरी के जनक हैं जाट| कम्युनिटी गेदरिंग का इकलौता सिस्टम "परस-चौपाल-चुप्याड" जो सिर्फ जाटलैंड में पाई जाती हैं, पूरे इंडिया में, इस वर्ल्ड थ्योरी के भी जनक हैं जाट| अन्यथा जाटलैंड के बाहर पेड़ों के नीचे होती हैं कम्युनिटी सभाएं, जबकि जाटों के यहाँ इस फोर्ट्रेसनुमा हालों में| सबसे प्राचीन सोसाइटी मैनेजमेंट सिस्टम "बगड़" (जिसको मॉडर्न भाषा में RWA बोलते हैं) के जनक हैं जाट|
जाटों में जाटलैंड वाला गुरुर होता तो आज भी जाटलैंड, बिहार-बंगाल की भांति उजड़ी स्टेट होता वह भी बावजूद जाटलैंड की अपेक्षा बिहार-बंगाल की तरफ ज्यादा नदियां व् ज्यादा उपजाऊ जमीनें होने के| और जाटलैंड वाले बिहार-बंगाल जा रहे होते मजदूरी-दिहाड़ी-रोजगार करने ना कि वहाँ वाले यहाँ आ रहे होते|
तो सबसे पहले तो जाट इस मिथ्या प्रचार की अब कम-से-कम आलोचना करे जिसको पढ़-सुन-देख के यह फीलिंग आती है कि जैसे जाट तो यहाँ लठ के दम मात्र पर बसे हों व् इनके पास ना तो कभी कोई सोशल विज़न था, ना सोशल इंजीनियरिंग और ना जेंडर सेंसिटिविटी| इन चीजों को जिसको कि शायद आजतक जाट यह बोल के साइड करता आया है कि "के बिगड़े सै भोंकें जाएंगे"," कूण गोळे सै लिखे जांगे"; अब वक्त आ गया है कि इनकी आलोचना की जाए| वरना शर्म-शर्म में और "काका कहें काकड़ी नहीं मिला करती" वाली सूखी तर्ज की लय पर "भाईचारा-भाईचारा" चिल्लाते रहे तो ऐसे लिखने-बोलने-प्रचार करने वाले लोग तुम्हारे हारे की राख भी साहमर ले ज्यांगे|
यह वह लोग नहीं जिनके आगे तुम शर्म दिखाओ या चुप्पी साधो, तुम्हारी इस शर्म व् चुप्पी को ऐसे लोग "अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया" वाली लय पर अपनी जीत मानते हैं| और गंभीर समस्या यह है कि गाम तो गाम, शहरी व् एनआरआई जाट तक इन मुद्दों पर दड़ मारे चल रहा है| दड़ तोड़िये और हुई-हुई जायज बात पर तो कम से कम बोलिये, वर्ना क्या तो अपने बच्चों को दोगे कल्चरल विरासत के नाम पर और क्या ऊपर पुरखों को मुंह दिखाओगे?
मेरी विनती आरएसएस में बैठे जाटों से भी रहेगी कि वहां अपने सलूक-समीकरण-व्यवहार-संबंध का इस्तेमाल करें व् उनके जरिये मीडिया में बैठे अपने प्रभावशाली मित्रों से अनुरोध करवाएं कि जाट, जाटलैंड, जाट बनाम नॉन-जाट की यह बेवजह की छींटाकसी बंद करे मीडिया व् ऐसी मति के गैर-मीडिया लोग| आखिर हो तो आप भी उसी हिन्दू वर्ग का हिस्सा जिसके लिए आरएसएस दिनरात काम करने का दम भरती है? किसी भी सामाजिक-राजनैतिक संगठन में रह लो, अपनी जातीय पहचान से खुद को छुपा या बचा लोगे क्या? अंत दिन जाने तो जाट होने के नाम से ही जाओगे, चाहे बेशक आरएसएस में रहो या कहीं किसी अन्य संगठन में? और हर चीज राजनीति के लिए नहीं हुआ करती, कुछ समाज के लिए भी करना होता है|
मेरे से नहीं होगी राजनीती कभी ऐसे बिगड़े सामाजिक हालातों में, मैं तो इन बिगड़े हालातों को ही कुछ या पूरा ठीक कर जाऊं तो अगली पीढ़ियों में नामलेवा होऊं व् पुरखों को शक्ल दिखा सकूं| जाने कैसे हो चले हैं लोग जिनको ना आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपनी जवादेही की चिंता ना पुरखों को मुंह दिखाने की फ़िक्र|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
कोई एक ऐसा गाम नहीं, जो जाट बाहुल्य हो व् उसमें बसने वाली अन्य जाति यह कह दे कि हम जाटों से पहले इस गाम में बसे| सब जाटों के पीछे-पीछे आये, जाट ने पहले गाम के "दादा नगर खेड़े" बांधे फिर अन्य कामगार-कास्तकार-मजदूर-व्यापारी वर्ग/जातियां आते गए और बसते गए| यह बसासती विरासत है मीडिया की परिभाषा में "जाटलैंड" कही जाने वाली इस धरती की| नवयुवा पीढ़ी के बालको भूलना मत इस बात को|
"बार्टर-सिस्टम", "सीरी-साझी वर्किंग कल्चर", "उदारवादी जमींदारी सभ्यता", "विधवा विवाह", "देहल-धाणी की औलाद माँ का गौत रखे", "शादी से पहले बाप के घर, शादी के बाद पति के यहाँ आजीवन सम्पत्ति अधिकार (पति पहले मर जाए तो भी, उसको पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर अन्यों की भांति विधवा आश्रमों में नहीं बैठाते जाट)" के विधानों के जनक हैं जाट| "धर्मस्थलों-पूजा में औरत को 100% लीडरशिप", "धर्मस्थलों में मर्दवाद वर्जित" रखने वाले हैं जाट| आज भी जाट को "दादा नगर खेड़ों पर धोक-पूजा इसके घर की औरतें लगवाती हैं, जबकि अन्य स्थलों पर मर्द खड़े होते हैं वह भी यह डंडा ले कर कि औरत कब इन धर्मस्थलों में घुसेगी और कब नहीं, यह उनके मर्द निर्धारित करेंगे| दुनिया की सबसे बड़ी व् पुरानी इंजीनियरिंग थ्योरी के जनक हैं जाट| कम्युनिटी गेदरिंग का इकलौता सिस्टम "परस-चौपाल-चुप्याड" जो सिर्फ जाटलैंड में पाई जाती हैं, पूरे इंडिया में, इस वर्ल्ड थ्योरी के भी जनक हैं जाट| अन्यथा जाटलैंड के बाहर पेड़ों के नीचे होती हैं कम्युनिटी सभाएं, जबकि जाटों के यहाँ इस फोर्ट्रेसनुमा हालों में| सबसे प्राचीन सोसाइटी मैनेजमेंट सिस्टम "बगड़" (जिसको मॉडर्न भाषा में RWA बोलते हैं) के जनक हैं जाट|
जाटों में जाटलैंड वाला गुरुर होता तो आज भी जाटलैंड, बिहार-बंगाल की भांति उजड़ी स्टेट होता वह भी बावजूद जाटलैंड की अपेक्षा बिहार-बंगाल की तरफ ज्यादा नदियां व् ज्यादा उपजाऊ जमीनें होने के| और जाटलैंड वाले बिहार-बंगाल जा रहे होते मजदूरी-दिहाड़ी-रोजगार करने ना कि वहाँ वाले यहाँ आ रहे होते|
तो सबसे पहले तो जाट इस मिथ्या प्रचार की अब कम-से-कम आलोचना करे जिसको पढ़-सुन-देख के यह फीलिंग आती है कि जैसे जाट तो यहाँ लठ के दम मात्र पर बसे हों व् इनके पास ना तो कभी कोई सोशल विज़न था, ना सोशल इंजीनियरिंग और ना जेंडर सेंसिटिविटी| इन चीजों को जिसको कि शायद आजतक जाट यह बोल के साइड करता आया है कि "के बिगड़े सै भोंकें जाएंगे"," कूण गोळे सै लिखे जांगे"; अब वक्त आ गया है कि इनकी आलोचना की जाए| वरना शर्म-शर्म में और "काका कहें काकड़ी नहीं मिला करती" वाली सूखी तर्ज की लय पर "भाईचारा-भाईचारा" चिल्लाते रहे तो ऐसे लिखने-बोलने-प्रचार करने वाले लोग तुम्हारे हारे की राख भी साहमर ले ज्यांगे|
यह वह लोग नहीं जिनके आगे तुम शर्म दिखाओ या चुप्पी साधो, तुम्हारी इस शर्म व् चुप्पी को ऐसे लोग "अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया" वाली लय पर अपनी जीत मानते हैं| और गंभीर समस्या यह है कि गाम तो गाम, शहरी व् एनआरआई जाट तक इन मुद्दों पर दड़ मारे चल रहा है| दड़ तोड़िये और हुई-हुई जायज बात पर तो कम से कम बोलिये, वर्ना क्या तो अपने बच्चों को दोगे कल्चरल विरासत के नाम पर और क्या ऊपर पुरखों को मुंह दिखाओगे?
मेरी विनती आरएसएस में बैठे जाटों से भी रहेगी कि वहां अपने सलूक-समीकरण-व्यवहार-संबंध का इस्तेमाल करें व् उनके जरिये मीडिया में बैठे अपने प्रभावशाली मित्रों से अनुरोध करवाएं कि जाट, जाटलैंड, जाट बनाम नॉन-जाट की यह बेवजह की छींटाकसी बंद करे मीडिया व् ऐसी मति के गैर-मीडिया लोग| आखिर हो तो आप भी उसी हिन्दू वर्ग का हिस्सा जिसके लिए आरएसएस दिनरात काम करने का दम भरती है? किसी भी सामाजिक-राजनैतिक संगठन में रह लो, अपनी जातीय पहचान से खुद को छुपा या बचा लोगे क्या? अंत दिन जाने तो जाट होने के नाम से ही जाओगे, चाहे बेशक आरएसएस में रहो या कहीं किसी अन्य संगठन में? और हर चीज राजनीति के लिए नहीं हुआ करती, कुछ समाज के लिए भी करना होता है|
मेरे से नहीं होगी राजनीती कभी ऐसे बिगड़े सामाजिक हालातों में, मैं तो इन बिगड़े हालातों को ही कुछ या पूरा ठीक कर जाऊं तो अगली पीढ़ियों में नामलेवा होऊं व् पुरखों को शक्ल दिखा सकूं| जाने कैसे हो चले हैं लोग जिनको ना आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपनी जवादेही की चिंता ना पुरखों को मुंह दिखाने की फ़िक्र|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक