Tuesday 30 March 2021

21 अप्रैल को सिख धर्म में जा रहे एक जाट व् एक फंडी का वार्तालाप!

फंडी (अपना प्रतीकात्मक घड़ियाली अटूट प्रेम दिखाते हुए): जजमान, थम हमनें छोड़ जाओगे तो हम तो भूखे मर जाएंगे?

जाट: हमारे पुरखों ने तुमको खाने-कमाने को दान में जो धौळी की जमीनें दी थी, हम कौनसी वह वापिस ले जा रहे हैं? उनसे कमाते-खाते रहो|
फंडी: नहीं, नहीं जजमान; फिर भी हमनें थारी जरूरत सै?
जाट: म्हारे ऊपर 35 बनाम 1 रचवाने को या तुम्हारे बनाए वर्णवाद से प्रताड़ित दलित को उसकी प्रताड़ना का दोषी हमें बताने को? यानि हमें समाज का विलेन दिखा के खुद समाज का स्याणा बने रहने को?
फंडी: नहीं, नहीं?
जाट: तो और क्या हमारी वोटें ले के राजनैतिक व् प्रसाशनिक सत्ता अपने कब्जे में बनाये रखने हेतु जाट की जरूरत है तुम्हें?
फंडी (मन-मन में; कहवै तो सुसरा ठीक सै, और नहीं तो हमने के अचार घालणा इनका): नहीं, नहीं जजमान; अपने हिन्दू धर्म के अस्तित्व के लिए|
जाट: थम ही तो कहा करो कि सिखी भी हिन्दू धर्म का ही हिस्सा है? अपितु यह तक कहते हो कि सिखी तो हिन्दू धर्म की सस्त्र सेना है?
फंडी: अरे नहीं, वो तो हम सिखों का मनोबल नीचे रखने को फैलाते रहते हैं|
जाट: तो जाट का मनोबल नीचे रखने को क्या-क्या फैलाते हो?
फंडी: तुम सीखी में जाओगे तो खालिस्तान को बढ़ावा मिलेगा|
जाट: किसने उठाया खालिस्तान का मुद्दा? संत भिंडरावाला ने उठाया कभी? दिखा सकते हो कोई रिकॉर्ड?
फंडी: नहीं, वह तो दशम गुरुवों के बराबर की पवित्र आत्मा थे; वह तो सत्ता का विकेन्द्रीकरण मात्र चाहते थे जैसे USA व् यूरोप के देशों की तरह|
जाट: तो फिर किसने उछाला खालिस्तान?
फंडी: हमारे ही एजेंट हैं, एक पाकिस्तान में चावला है व् एक अमेरिका में अरोड़ा है| जनता में खामखा की भड़क व् भय बिठाये रखने को ऐसे फ्रंट्स हम ही खड़े किया करते हैं|
जाट: यानि तुमको फंडी खामखा ही नहीं कहा गया है?
फंडी: खुद की धर्म व् राष्ट्र रक्षा हेतु करना पड़ता है|
जाट: इसमें कौनसी धर्म व् राष्ट्र रक्षा होती है?
फंडी: वो देखो मलोट, पंजाब में हिन्दू एमएलए पीट दिया? हम यूँ बिखरे तो कल को हम भी पिटेंगे|
जाट: उस मामले की FIR में पहला नाम किसी शर्मा का है, यह कैसे सम्भव हुआ? और बिखरने की चिंता करने वाले तुम कब से हुए; जो सिस्टम ही बिखराव व् अलगाववाद से चलाते हो?
फंडी: हम कैसा अलगाववाद करते हैं? बल्कि हम तो हिन्दुओं को एक रखने को बड़े-बड़े अभियान चलाते हैं| हिन्दू एकता व् बराबरी के नारे लगाते हैं|
जाट: और फिर नारे लगा के उन्हीं हिन्दुओं को वर्णवाद व् छूत-अछूत, शूद्र-दलित-स्वर्ण में बाँट देते हो?
फंडी: नहीं वह तो कर्म आधारित व्यवस्था है? जैसा जिसका कर्म वैसा उसका वर्ण|
जाट: अच्छा इतना सिंपल है तो बताओ तुम्हारा "कर्म के आधार पर वर्ण" के सर्टिफिकेट बांटनें वाला दफ्तर कहाँ है? मैं एक IAS अफसर हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ, खाली वक्त में टीचिंग भी कर लेता हूँ तो मुझे दिलाओ "ब्राह्मण होने का सर्टिफिकेट"| व् मेरी रिस्तेदारी में एक कजन है मेरा, वह ऑटो-रिक्शा चलाता है उसको दिलाओ "शूद्र" का सर्टिफिकेट?
फंडी: क्या मजाक करते हो जजमान, यह सब तो कहने की बातें होती हैं?
जाट: तो फिर धर्म क्या है तुम्हारे लिए, अगर यही सब कहने मात्र की बातें हैं तो?
फंडी: मतलब थम मानो कोनी?
जाट: तुम हमें मनाना ही क्यों चाहते हो? कोई और तर्क व् वजह? अभी तक जो वजहें दी, वह तो तुम्हारे आगे नंगी कर दी|
फंडी, चुप|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 28 March 2021

भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का!

भाभियों बिना क्या रंग-चा फाग का,

भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी जो हमारे घर की मूरत है,
घर हमारे की उनसे जन्नत सूरत है|
कोरड़े तो बेचारी से जैसे लगते ही नहीं,
हाथ ऐसे मुड़ते हैं जैसे चलते ही नहीं||
पर इसके पीछे ध्यान देवर का, ज्यूं बेटा भाग का,
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी होती थी खुंखार बड़ी,
फागण आते ही हो जाती विकराल बड़ी!
ले कोरड़ा हाथ, क्या खाल उतारती थी,
छंट जाते सब पानी ज्यूँ, जब ललकारती थी||
ना हुआ कोई सामी, जो उसके आगे टाड ग्या|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी तो थी इतनी मसीह,
उससे ना देवर का दुःख जा सही|
कोरड़े तक भी ऐसे सालती थी,
देवर की खाल नहीं, आरती उतारती थी||
मुलायम देखा दिल बहुत, पर उस भाभी से टाळ का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी कहने को गाँव तिहाड़ की थी,
पर उसके कोरड़ों में मार से ज्यादा बाड़ सी थी|
सबसे बड़ी भाभी वो मेरे घर-परिवार की थी,
उसके कोरडों की मार भी पुचकार सी थी||
वो समां मुड़ आ जाए, बचपना स्वांग का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी अजायब वाली, धमकते सूरज सी छवि निराली,
पूरा फागण कोरड़ा संग रखती, घर-कुआँ या खेत-खलिहानी|
खो गया वो बचपन सारा, पहन दामण पुरुषों की रेल बनानी,
फुल्ले भगत तड़पत है, हुई बंद शीशों में जिंदगानी||
भाभियों को सलाम पहुंचे, लिल्ल बैठे इस ढाक का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
भाभियों बिना क्या त्यौहार फाग का,
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
लेखक: फूल मलिक

Saturday 27 March 2021

हमारा कल्चर नहीं कि हम किसी लुगाई को आग में जला के उसके इर्दगिर्द "झींगा ला-ला हुर्र-हुर्र" करें!

फिर भले वह लुगाई अच्छी थी या बुरी थी| अगर वह हकीकत में थी भी तो आप कौन होते हो उसको आए साल जलाने वाले? मर ली, मरा ली; हो ली, जा ली| जंगली-वहशी हो आप जो ऐसे करते हो?

होळ-होळा-फाग मनाइए, किसी लुगाई को जला के नहीं अपितु आपके पुरखों (उदारवादी जमींदार) की भांति आपके खेतों में पकने को आई चणे की फसल के कच्चे दानों को आग में भून के बनने वाले "होळ" खा के, रंग-गुलाल-मिटटी-गारा (कीचड़ नहीं) लगा के; भाभियों संग फाग खेल के|

खामखा, देखो फंडियों की कुबुद्धि व् आपकी गैर-जिम्मेदारी ने एक अच्छे-खासे त्यौहार का क्या कुरूप बना दिया है| कहाँ पुरखे आग में होळ भून के खाते थे और कहाँ आप लुगाई भूनने लगे? तीज-त्यौहार-मान-मान्यता के नाम पर इससे पहले कि बिल्कुल ही वहशी जानवर बना दिए जाओ या बन जाओ; सम्भालो अपने पुरखों के तर्क व् मानवता से भरी "Kinship" को|

बताओ जिनकी खाप पंचायतों ने आज तक किसी को हत्या की सजा नहीं सुनाई; उनकी औलादें औरतों को आग में जलाने को त्यौहार मान बैठी हैं| Have self-check!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 26 March 2021

आज अहमदाबाद, गुजरात में किसान नेता चौधरी युद्धवीर सिंह जी को मात्र प्रेस-कांफ्रेंस करते हुए ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया!

राजनैतिक तौर की बजाए धार्मिक थ्योरियों व् सोशल इंजीनियरिंग मॉडल्स के हिसाब से जब तक समस्याएं पकड़नी शुरू नहीं की जाएंगी, राह नहीं मिलेंगी|

आप-हम एक ऐसे देश के वासी हैं जहाँ धर्म को जो "इस हाथ ले और उस हाथ दे" नीति से चलाते हैं, वही राज करते हैं| और जो ऊलंढों की तरह खालिस भावना के आधार पे सिर्फ "दे ही दे" के सिद्धांत पे धर्म पोषित करते हैं, वही 35 बनाम 1 से ले शुद्रपणा, नीचपणा सब झेलते हैं|
सीधे-सीधे समझ आती हो तो सीधे समझ लो, नहीं तो लुट-पिट-छित के समझोगे परन्तु तब तक इतनी देर हो चुकी होगी कि बंधुआ बने रहने में ही भलाई समझोगे| और उस वक्त तक मानसिक तौर पर इतने टूट चुके होंगे कि पछताने को भी अपनी तौहीन समझोगे|
इंडिया में दो तरीके के धर्म व् सोशल इंजीनियरिंग हैं:
एक जो कोरी सामंती विचारधारा पोषित करते हैं: फंडी पोषित तमाम धार्मिक व् सोशल इंजीनियरिंग मॉडल्स|
एक जो उदारवादी विचारधारा पोषित करते हैं: सिख, बुद्ध, ईसाई, इस्लाम, दादा नगर खेड़ा/भैया/भूमिया/जठेरा आध्यात्म (जिसके मूल-सिद्धांत मूर्तिपूजा नहीं करने पर आर्य-समाज स्थापित है) व् सर्वखाप सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम|
अब लगा लो अंदाजा, किसान आंदोलन के इतने पीक पर होने पर भी, किसान आंदोलन के चोटी के नेताओं में एक चौधरी युद्धवीर सिंह जी को जिस राज्य में गिरफ्तार किया गया है; वहां सामंती प्रभाव ज्यादा हैैं या उदारवादी?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday 24 March 2021

सांड व् झोटे (भैंसा) की शालीनता व् चेतना में जमीन-आसमान का फर्क देखिए!

लेख का निचोड़: आप कितने introvert हो या extrovert यह शायद इस पर भी निर्भर करता है कि आप किस जानवर का दूध पीते हो|

हरयाणवी में एक कहावत है, "गा का पिछोका, गोक्का देखे ना मसोहक्का"| सारा निचोड़ इसी में है| गा यानि गाय, पिछोका यानि वंश, मसोहक्का यानि भैंस का जाया हुआ (पैदा किया हुआ) भैंसा व् गोक्का यानि गाय का जाया हुआ सांड| हालाँकि बहुत से लोग इस कहावत को इस तरह भी कहते हैं कि "गोरखनाथ का पिछोका, गोक्का देखे ना मसोहक्का", जो कि मुझे नाथ परम्परा को बदनाम करने को जोड़ी गई ज्यादा प्रतीत होती है|
इस कहावत की व्याख्या कहती है कि जब सांड को कामान्धता चढ़ती है तो वह ना गाय देखता है और ना भैंस; जो सामने दिखी उसी से मेटिंग कर लेता है| जबकि झोटा यानि भैंसा कितना ही कामुक हो रखा हो, परन्तु इतने होशो-हवास में हमेशा होता है कि सम्भोग के लिए सिर्फ भैंस पर ही जाएगा; चाहे 70 गाय इर्दगिर्द खड़ी हों| और यही कामांधता सबसे बड़ी वजह रही है सांड को हल का बैल बनाने के लिए उसकी सहवास नलिका बींध के उसको उन्ना बनाने की, क्योंकि बिना उन्ना किये उसको हल में जोतोगे और उसको कामुकता चढ़ आये तो वह बेकाबू हो इतना कूदता है कि हल की फाळी अपने पैरों में खा बैठता है| जबकि झोटे को आप चाहे बुग्गी में जोड़ो या हल में, उसको पता होता है कि कब काम करना है और कब मस्ती| हालाँकि बैल को उन्ना करने के पीछे वजह यह भी दी जाती है कि इससे वह लम्बे समय तक हल जोतने के लायक रहता है|
एक फर्क और जानिए: गाय के बच्छड़े व् सांड इतने introvert होते हैं कि या तो जोहड़ों-गोरों पर एक-एक झुण्ड में 10-10 बैठे रहेंगे परन्तु लड़ेंगे नहीं, परन्तु जब लड़ेंगे तो इतने भयंकर कि छुड़वाने मुश्किल हो जाते हैं| एक बार दुश्मनी ठहर गई तो बाद में कुदरती आमना-सामना हो गया तो फिर लड़ लेंगे परन्तु ना सीम बांटते (यानि एरिया) और ना ही पैड (पदचाप) सूंघ ढूंढेंगे| जबकि झोटे यानि भैंसे स्वभाव से extrovert व् introvert दोनों ही होते हैं| यानि झुण्ड में 2 नहीं खटाएंगे, जैसे भाई-लोग बैठते ही चियर्स करने लग जाते हैं, यह भिड़ना शुरू कर देते हैं; परन्तु छुड़वाने पर अलग-अलग भी हो जाते हैं| यह तो है इनका extrovert यानि hi-hello वाला hangout स्वभाव| अब इनका introvert भी समझिये| हल्के-फुल्के सींग भांजते इनकी अगर तगड़ी ठन गई तो फिर समझो आजीवन की ठन गई| और सरकारी छोड़े हुए गामी झोटे हुए तो इस स्तर तक ठनती है कि गाम की बसासत से ले खेतों में घूमने-फिरने के दायरे तक बंट जाते हैं, सीमाएं खींच लेते हैं; कि यह तेरी सीम व् यह मेरी| एक ने अगर दूसरे के देखते हुए दूसरे की सीमा में पैर भी रखा तो रात-रात भर झोटों की खैड़ बजती हैं| और इतनी तगड़ी बजती हैं कि रात के सन्नाटों में तो किलोमीटरों दूर तक सुनती हैं| किसी बुग्गी वाले यानि घरेलू झोटे से बैर बंध जाए तो उसके घर की ऐसी निशानदेही करते हैं कि या तो मालिक को बुग्गी वाला झोटा बेच के दूसरा बदलना पड़ता है या किवाड़ों की जोड़ी बदलवाने पे लगे रहो क्योंकि बैर-बिसाहा गामी झोटा बार-बार आपके झोटे की पैड सूंघता आपके घर-घेर तक आ, आपके किवाड़-दरवाजे तोड़ेगा ही तोड़ेगा और तोड़ता रहेगा जब तक आप बुग्गी वाले को बेच नया नहीं बदल लोगे|
अगर दूध नाम की कोई चीज है जिससे इंसान का चरित्र प्रभावित होता है तो फर्क सामने है|
गाय के दूध के कुछ गुण भी सुन लीजिये: बड़े बूढ़ों की ऑब्जरवेशन कहती है कि, "गर्म करने पर ऊँटनी के दूध पर भैंस के दूध से तीन से चार गुना ज्यादा मलाई आती हैं, भैंस के दूध पर गाय के दूध से तीन से चार गुना ज्यादा मलाई आती है"| यानि FAT के मामले में भैंस का दूध गाय के दूध से 3-4 गुना गाढ़ा होता है| इसीलिए जब कभी छोटे दुधमुँहें बच्चों को माँ के ना होने या माँ में कम दूध होने के चलते उनको बाहरी दूध पिलाना पड़ता है तो गाय का रिकमेंड किया जाता है अन्यथा भैंस का पिलाना पड़े तो उसमें चार गुना ज्यादा पानी डाल के पिलाना होता है| गाय के घी के कुछ बेहतर गुण बताये जाते हैं जो कुछ ख़ास बिमारियों के इलाज में सार्थक होते हैं व् ऐसे ही भैंस के घी के भी अपने ख़ास गुण होते हैं जो कुछ ख़ास बिमारियों के इलाज में सार्थक होते हैं|
फंडियों का दुष्प्रचार: अब सितम एक यह भी देखिए कि फंडियों ने एक जानवर यानि गाय को माता ठहराए रखने हेतु दूसरे की यानि भैंस की बदनामी कैसे फैलाई? "भैंस के आगे बीन बजाना" जैसी कहावतें बना के| जबकि भैंस नार्थ-वेस्ट इंडिया का "ब्लैक-गोल्ड" कहलाती है, व् ऊपर लिखित comparative analysis को देखो तो भैंस, गाय से 20 ही बेशक पड़ती हो 19 नहीं| इसलिए गाय की भी जय बोलिये और भैंस बारे भी बोलिये कि, "जय काळी हरयाणे आळी; दूध के बाल्लट, बाळकां म्ह हांगा भरने आळी"| गाय के दूध व् स्वभाव में भी बहुत गुण होते हैं परन्तु किसी बात को ले के समाज में अतिश्योक्ति स्थापित करना मूढ़ता है, पाखंड है; यह बात समझिए व् इन फंडियों को समझाइए|
आह्वान: कोई तथाकथित ज्ञानी-ध्यानी-ब्रह्मज्ञानी इन तथ्यों पर बहस करना चाहता हो तो स्वागत है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 20 March 2021

चार जैनियों की जिद्द की वजह से लम्बा खिंचता किसान आंदोलन, इस खींच को समर्थन करता हिंदुत्व व् इस वजह से जाट की सिखिज्म की तरफ बढ़ने की बनती वजहें!

लेख का निचौड़: क्या 1860 से ले 1880 वाला जाटों द्वारा सिखी अपनाने का दौर फिर से आ रहा है, 21 अप्रैल 2021 से?

21 अप्रैल 2021 भक्त धन्ना जाट जी की जयंती है व् इस दिन हरयाणा-राजस्थान के तकरीबन 1000 जाट अपने परिवार, साथियों, समर्थकों व् अनुयायियों समेत अमृतसर हरमिंदर साहिब जा कर सिखी ग्रहण करने की तारीख मुक़्क़र्र किये हुए हैं| सुनने में आ रहा है कि 300 जाटों से शुरू हुआ यह आगाज आज बढ़कर 1000 तक जा चुका है व् जिस तरीके से 21 अप्रैल का प्रचार-प्रसार चल रहा है उसको देखते हुए यह कहीं और ज्यादा बड़ा ना हो जाए|
समाज विषेशज्ञों का मानना है कि किसानों के आगे अपनी जिद्द पर अड़े चार जैनी यानी अडानी-अम्बानी-मोदी-शाह व् लम्बा खिंचने का समर्थन करता हिंदुत्व यानि आरएसएस व् तमाम हिंदूवादी संस्थाएं जो कि किसानों की मांगों के बिलकुल विपरीत खड़ी हैं; यह इसकी सबसे बड़ी वजह उभर कर आ रही हैं| और यह वजहें कुछ जाट तबके को इतनी नागवार गुजर रही हैं कि 21 अप्रैल 2021 को पहला जत्था सिखी में जा रहा है यह तय हो चुका है| विशेषज्ञ अंदाजा लगाते हैं कि अगर पहले जत्थे में 1000 तो छोडो 500 जाट भी सिखी में चले गए तो इंटरनेशनल स्तर तक खबर जाएगी व् इसका प्रभाव 1860 से 1880 तक चले "जाट सिखी में चलो दौर" की तरह ना हो जाए और खबरों का सिलसिला ही चल पड़े कि आज फलां जिले-तहसील के इतने जाट और सिखी में गए|
इस देश में अपने हकों व् लोगों के अधिकारों बारे जिम्मेदारी व् संवेदना आज के दिन किसी ने जगाई है तो वह है किसान समाज व् किसान आंदोलन, जिसकी कि रीढ़ जाट/जट्ट समाज को कहा जा सकता है| इसमें भी स्टेट/सेण्टर में अपने ही धर्म की सरकार होते हुए भी फरवरी 2016 में हरयाणा में बेवजह 35 बनाम 1 झेल चुका जाट समाज, अब दूसरी बार भी इतना लम्बा आंदोलन चलाने पर भी व् स्टेट-सेंटनेर दोनों जगह तथाकथित हिंदुत्व सरकारें होने पर भी इन द्वारा टस-से-मस नहीं होने का अड़ियल रवैया जाट समाज के कई तबकों में नगवार गुजर रहा है; जो कि डर है कहीं विशाल रूप धारण ना कर जाए और साइड-इफ़ेक्ट की तरह यह बिंदु और उभर के ना जाए कि पता चला हर तरह जाट सिखी अपनाने की बातें करने लगे हैं"|
कुछ सामाजिक विज्ञानं के विद्वान् इसकी एक और सबसे बड़ी वजह यह बताते हैं कि जो कि धर्म की असली परिभाषा में छुपी हुई है, जिसको कि हिन्दू धर्म में बैठे कुछ फंडियों ने अपने हिसाब से तोड़मरोड़ कर इसका रूप कुरूप कर दिया है| विद्वान् कहते हैं कि धर्म का अर्थ होता है वह समूह जो उसके फोल्लोवेर्स को सोशल सिक्योरिटी, सोशल जस्टिस, सोशल सम्मान व् सोशल संपन्नता सुनिश्चित करे"| जबकि हिन्दू धर्म में बैठे एक तबके, जिसको ढोंगी-पाखंडी कहा जा सकता है उसने इस धर्म को त्याग-बलिदान-आस्था-निष्ठां-श्रद्धा के नाम पर लोगों के दिमाग व् धन दोहन मात्र का धंधा बना छोड़ा है; जन्म आधारित वर्णवाद जैसी विश्व की सबसे क्रूर अलगाववाद की थ्योरी डाल धर्म के अंदर ही आपस में छोटा-बड़ा समझने के धड़े बना डाले हैं|
जबकि दूसरी तरफ देखा जाए तो पिछले चार महीने से चल रहे किसान आंदोलन ने सिख धर्म की "सोशल सिक्योरिटी, सोशल जस्टिस, सोशल सम्मान व् सोशल संपन्नता" की परिभाषा को पूरी तरह साबित तौर पर परिभाषित किया है| अपने किसानों को सड़कों पर भूखे-नंगे मरने को नहीं छोड़ा अपितु एक-एक गुरुद्वारा अपने-अपने कोष-खजानों के मुंह खोल किसान आंदोलन के शुरू दिन से ना सिर्फ धरनों पर लंगर छका रहा है अपितु जिस मान-सम्मान से किसान को पिता-पालक मान उसकी सेवा में जुटा है उसके आगे पूरे विश्व के धर्म व् मानवता नतमस्तक है|
और यही बात जाटों के अति-संवेदनशील तबके के दिल-दिमाग में घर कर गई है कि हमारे दादा नगर खेड़ों के पुरखों वाले ज्यों-के-त्यों सिद्धांत तो गुरूद्वारे ही निभा रहे है तो हम क्यों व्यर्थ में धर्म के नाम पर बंधुआ मजदूरी ढोये जा रहे हैं कि जिसमें लेने वाले का अंत नहीं और देने वाले की कमर से ले सम्मान तक की अर्थी निकली जाती है?
स्थानीय विद्वान् कहते हैं कि अभी भी वक्त है सोचें, नहीं तो यह जाट है; अबकी बार सिखी में चलने का सिलसिला डल गया तो अमृतसर से आगरा व् अबोहर से अमरोहा भी छोटा पड़ जाए सिखी के फैलाव के लिए| इन चार जैनियों की जिद्द बैठे-बिठाए हिंदुत्व का कितना बड़ा नुकसान करके जाएगी, हिंदुत्व के चिंतक विचारें इसपे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"होळ" और "होळा" सुने हैं, दोनों होली व् होलिका से भिन्न हैं, परन्तु होली, होळा को लगभग खाती जा रही है; कभी अहसास हुआ?

यह लेख अंत तक पढ़ने के बाद यह, संदेश किसान आंदोलन के आगुओं को पहुँचावें: कि, "28 मार्च को किसान आंदोलन के धरना स्थलों पर 3 कृषि बिलों को आप जिस आग में जलाने वाले हैं, यह आग किसी औरत को जलाने की नहीं अपितु खेतों से चने की टाट लाई जावें, वह धरनों पर बैठ कर आग जला के भून के खाई जावें व् उस आग में बिलों की कॉपी जलाई जावे"| हम नहीं हैं किसी भी दुष्ट या सज्जन व्यक्ति को जलने-जलाने में खुशियां मनाने वाले DNA के लोग| अपनी किनशिप समझिये, कुछ नीचे ब्यां करता हूँ: 

   

एक हरयाणवी भाषा का शब्द है "होळ", पंजाबी भाषा में भी है "होळ" और "होळा" शब्द; परन्तु हिंदी में नहीं मिलते यह दोनों ही शब्द, note it| जो नहीं जानते उनके लिए बता दूँ, "होळ" का अर्थ होता है "कच्चे चने का भुना हुआ दाना"| इसके साथ ही जुड़ा शब्द है "होळा" यानि चने की फसल पर टाट लग आने की ख़ुशी, इन टाटों के होळ पका के खाने से मिलती ऊर्जा व् बसंत-फागण-बैसाख के महीनों के खुशगवार मौसम की उर्जायमान मस्ती के चलते लोग-लुगाईयों का नाचना-गाना-रंग-गुलाल-मिटटी-गारे से खेलने को कहते हैं "होळा"| मिसललैंड (पंजाब) व् खापलैंड (ग्रेटर हरयाणा) पर यह रही है इस त्यौहार की शुद्ध परिभाषा व् परम्परा| यानि शुद्ध खेती आधारित, फसल पे फल आने की ख़ुशी में खुशगवार मौसम में मनने वाला त्यौहार रहा है यह| 


अब इन्हीं दिनों, इसी मौके इसपे होली व् होलिका की परत कब व् कैसे चढ़ आई या चढ़ाई गई; जरा खोज कीजिये| एक प्रैक्टिकल, वास्तविक वजहों के कारण मनाए जाने वाले त्यौहार पर माइथोलॉजी का लेप कब से लगने लगा, जरा बुजुर्गों के पास बैठ के मंत्रणा कीजिये| 


हमें ऐतराज नहीं कि आपको यह त्यौहार "होळ" खाते हुए "होळा" मनाते हुए मनाना है या पब्लिकली आग में एक माइथोलॉजी की लुगाई को जला के मनाना है| अर्ज सिर्फ इतना है कि बेशक दोनों को मनाओ परन्तु अपने पुरखों की वास्तविक किनशिप, लिगेसी को ज्यों-का-त्यों बरकरार रखो| इसको बरकरार रखोगे तभी कंधों से नीचे के साथ साथ ऊपर भी मजबूत कहलाओगे| जानता हूँ कि मजबूत हो और अपने DNA के उदारवादी खून-खूम के चलते ही अपने पुरखों के त्योहारों पर यह दूसरे कॉन्सेप्ट्स को एडजस्ट करने को मानवता के तहत ग्रहण करते जाते हो| परन्तु जो तुमसे ऐसा करवा जाते हैं वो इसमें तुम्हारी मानवता नहीं अपितु कंधों से ऊपर की कमजोरी देखते हैं| 


हॉनर किलिंग से ले डोले-खेत के झगड़ों पे खून-खराबों से ले गुस्से की आगजनी में किसी की जान चली भी जाती हैं तो क्या आपका समाज, आपके रश्मों-रिवाज, आपकी पंचायतें कभी ऐसे काम करने वालों को स्वीकार करती या भगवान बना के पूजती-पुजवाती देखी हैं? नहीं, कभी नहीं देखी होंगी| बल्कि ऐसे लोगों का तो जरूरत पड़ने पर बहिष्कार व् निंदा दोनों तक करते हैं; चाहे उन्होंने लाख घर-समाज की इज्जत के बहाने बना के अपने कुर्कत्य को जायज ठहराया हो| मौत की सजा हमारे कल्चर का कांसेप्ट नहीं है, और जला के मारना तो फिर बिल्कुल ही दोहरा कुर्कत्य हो जाता है| तो कौन हैं यह लोग जो कहीं अपनी ही माँ का गला रेतने वाले हॉनर किल्लर को भगवान बना के पूजते हैं तो कहीं तीन आदमियों के पुतले बनवा उनको जला के जश्न मनाते हैं, तो कहीं होलिका दहन को ही त्यौहार बना के परोस देते हैं? क्या आपका कल्चर है यह? हमारे यहाँ कब देखा कि दो के झगड़े में एक जीत गया व् दूसरा हार गया तो, हारे हुए पक्ष की यूँ युगों-युगों तक झांकी निकालों, भद्द पीटो? हम ऐसे हैको-वाक्यों पर मिटटी डाल आगे बढ़ने वाले लोग हैं| अपना कल्चर, अपना DNA पहचानिये व् उसके अनुरूप व्यवहार कीजिये| तभी दुश्मनों द्वारा कंधों से ऊपर मजबूत कहे जाओगे या कम-से-कम उनके थोड़बे बंद रख पाओगे|   


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday 16 March 2021

"सीरी-साझी" वर्किंग कल्चर के पिछोके के लोग "बंधुआ" कल्चर की ओर बढ़े चले जाते हैं क्योंकि यह अपनी "Kinship" carry forward नहीं कर पाते हैं!

Google जैसी वर्ल्ड क्लास कंपनी अपने यहाँ का वर्किंग कल्चर "सीरी-साझी" के सिद्धांत पर चलाती है जहाँ कोई employer-employee नहीं अपितु सब वर्किंग पार्टनर हैं|
मुझे नहीं पता इन लोगों ने यह कांसेप्ट कहाँ से कॉपी किया परन्तु खापलैंड (विशाल हरयाणा) व् मिसललैंड (पंजाब) का युगों पुराना कल्चर है यह| फंडियों की अलगाववाद व् नश्लवाद से भरपूर वर्णवाद की आइडियोलॉजी से बिल्कुल विपरीत|
सरदार भगत सिंह कहते हैं कि, "ना कोई इतना अमीर हो कि दूसरे को खरीद सके व् ना ही कोई इतना गरीब हो कि उसको बिकना पड़े"|
Kinship carry forward करने वाले लोगों के बीच शहरों-कस्बों में रह के भी Kinship के मायनों-महत्वों से अनभिज्ञ चलने वाले, ओ अधर में लटके 'सीरी-साझी' पिछोके के लोगो, जरा याद करो कि तुम्हारे पुरखों का "ethical capitalism" क्या था या कम-ज्यादा अनुपात में आज भी है गामों में?
बिल्कुल सरदार भगत सिंह की लाइन वाला ही था; जो यह कहावत पोषित करता था कि, "गाम, नगर खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए"| सरदार भगत सिंह की पंक्ति की छाप "गुरुद्वारा की लंगर" पद्द्ति में भी है|
परन्तु तुम्हें यह बातें तब समझ आएँगी जब "kinship" क्या बला होती है इसके बारे पढोगे, ढूंढोगे| जिस दिन इसको अपना लिया, तुम्हारे 35 बनाम 1 से ले, सॉफ्ट-टार्गेटिंग पर जो तुम्हारा समाज रहता है; सब छंद कट जाएंगे|
यह तुम्हारी kinship नहीं है जो तुम्हें फंडी बताते-सुनाते, तुम्हारे इर्दगिर्द बिखराते हैं| यह तो दुनिया का सबसे बड़ा unethical capitalism है जो तुम इसलिए नहीं समझ पा रहे हो, क्योंकि 1-2-4 पीढ़ी पहले जब गामों से यहाँ आए तो kinship वहीँ छोड़ आए| इसीलिए तमाम धन-दौलत-सुख-लक्ज़री कमा के भी सामाजिक तौर पर 35 बनाम 1 झेल रहे हो|
इन फंडियों के चक्कर में अपनी जून खराब मत करो, जहाँ इनकी चलती है वहां सामंती जमींदारी है और जहाँ तुम्हारी kinship फली-फैली यानि खापलैंड व् मिसललैंड वहां-वहां उदारवादी जमींदारी रही है| वही सीरी-साझी कल्चर वाली उदारवादी जमींदारी जिसका कांसेप्ट Google तक कॉपी करती है बस एक तुम ही निरीह-आलसी निकले जाते हो जो 10-20 कोस दूर बैठ के पुरखों के खेड़ों की थ्योरी से नाक-भों सिकोड़े फिरते हो, और वर्णवाद नामी विश्व के सबसे जहरीले अलगाववाद व् नश्लवाद के कुँए में धंसते ही धंसते जाते हो| खैर!
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday 15 March 2021

चतुर्वर्णीय व्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं है, यह जन्म के आधार पर है और वह भी सिर्फ पावर पॉलीटिक्स है; धर्म-शर्म से इसका कोई लेना देना नहीं!

यह बताओ, कोई रिक्शा चलाने वाला स्वर्ण, मजदूरी-खेती करने वाला स्वर्ण, रेहड़ी-ठेला लगाने वाला स्वर्ण; कब इस चतुर्वर्णीय व्यवस्था वालों ने शूद्र घोषित किया? व् कब कोई शूद्र प्रोफेसर-शास्त्री इस चतुर्वर्णीय व्यवस्था वालों ने स्वर्ण घोषित किया? कर्म के आधार पर लोगों को वर्ण में डालने वाला सिस्टम किधर है इनका, किधर इसका ऑफिस है; किधर इसका रिकॉर्ड मेन्टेन होता है?

सिद्ध है कि जब यह व्यवस्था कर्म के आधार पर किसी का वर्ण घोषित ही नहीं करती तो कोरा पावर पॉलिटिक्स का प्रोपगैंडा है यह|
वास्तव में वर्ण तो जन्म के आधार पर घोषित किये बैठे हैं ये| कर्म के आधार पर होते तो उसके हिसाब से वर्ण शिफ्टिंग के ऑफिस व् सिस्टम नहीं होते क्या?
तो क्या है फिर यह चतुर्वर्णीय व्यवस्था?: यह है दुनिया की सबसे बड़ी अलगाववाद, नश्लवाद व् मानसिक आतंकवाद की थ्योरी| इसके रचयिताओं को पावर पॉलिटिक्स देने की थ्योरी व् बाकियों को डिवाइड किये रखने की थ्योरी| यानि असली "डिवाइड एंड रूल" ही यह थ्योरी है|
और इस थ्योरी का प्रभाव इतना दूरगामी होता है कि इस व्यवस्था का बंदा धर्म भी बदल ले तो भी उसकी मानसिकता में इस व्यवस्था का प्रभाव कई पीढ़ियों तक बना रहता है; जैसा कि इस व्यवस्था से सिख या मुस्लिम धर्म में गए लोगों में देखने को मिलता है| वह वहां भी इसको फॉलो करते हुए पाए जाते हैं; अन्यथा उन धर्मों में कहाँ है यह कांसेप्ट? यहाँ तक कि उदारवादी जमींदारों के "दादा नगर खेडाई" कल्चर तक में वर्ण व् जाति व्यवस्था नहीं, सब जाति-वर्ण यहाँ तक कि अन्य धर्म के लोग भी नगर खेड़ों पर बराबरी से धोक-ज्योत करते हैं| परन्तु वर्णवादी फंडियों का प्रचार-प्रसार इस हद स्तर का है कि इन खेड़ों की देहली से उतरते ही दिमाग वहीँ के वहीँ| इसलिए लाजिमी है कि समाज में वर्णवाद फैलाने वाले को सबसे पहले अछूत व् वास्तविक शूद्र घोषित किया जाए; फिर इसको फैलाने वाला जिस किसी वर्ण या जाति का हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 14 March 2021

आर्य-समाज को संभालिये, फंडियों के भरोसे उनके कब्जे में मत छोड़िए!

जैसे मतदान पर रिकॉल का अधिकार होता है, ऐसे ही धनदान-जमीनदान पर भी रिकॉल का अधिकार होता है| अगर लगता है कि कुपात्र को दान दिया गया और गलती हुई तो गलती ठीक कीजिए और कुपात्र को वहां से उखाड़ फेंकिए; फिर चाहे वह कोई शिक्षा स्थल हो या धर्मस्थल| अन्यथा वह कुपात्र आपके दान को वरदान की बजाए समाज-सभ्यता पर श्राप साबित कर देगा| और श्राप के लिए तो आप दान देते नहीं हो, इसलिए यह मर्यादा कोई लांघे तो आप उसको वहां से हटा दीजिए|

दान, वंशानुगत होता है| अगर पुरखे ने या जाति ने दान दिया है तो उस दान से बने-खड़े तंत्र-सिस्टम से बदनामी या शाबाशी का श्रेय-लांछन आप पर भी चढ़ता है| वरदान साबित होता है तो लोग जिक्र में जरूर रखते हैं कि फलां के बाप-दादा ने या फलां जाति-समुदाय ने बनाया था और अगर प्रबंधकों के कुप्रबंधन-बदनीयत से उसमें गलत काम होते हैं तो वह श्राप साबित होता है व् ऐसा करने वालों के साथ-साथ उसको बनवाने वालों को भी गाली पड़ती हैं; यश घटता है| इसलिए वह चीज शाबाशी के लिए ही बनी रहे; इसलिए नजर व् नियंत्रण दोनों रखिए|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

15 मार्च 1206 - वह ऐतिहासिक तारीख जब झेलम, पंजाब में खोखर खाप के जाटों ने पृथ्वीराज चौहान के कातिल मौहम्मद गोरी को मारा था!

खोखर खाप के दादा चौधरी रायसाल खोखर वह यौद्धेय हुए जिन्होंने मौहम्मद गोरी को मारा|
सोचिये कि इस 900 साल पुरानी वास्तविक घटना पर ही फंडियों ने कैसे सारा खेल, सारा इतिहास 360° घुमाया हुआ है कि लिटरेचर से ले इतिहास की किताबों तक में फैलाया हुआ है कि मौहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान ने मारा था, वह भी इनके बीच हुई 17वीं लड़ाई में, जबकि पृथ्वीराज चौहान को गोरी ने दूसरी लड़ाई के बाद सन 1192 में ही मार दिया था| तो जो काल्पनिक यानि मैथोलॉजिकल पोथे फंडियों ने पाथ रखे हैं, इनमें कितनी गपोड़ें हैं; अंदाजा लगा लीजिए| और इसको इन फंडियों की जाटों के प्रति कृतघ्नता का आलम ही कहा जाएगा कि एक के द्वारा भी जाटों को इसका कोई क्रेडिट या धन्यवाद तक कहीं नहीं लिखा मिलता|
खैर, यौद्धेय दादा चौधरी रायसाल खोखर जी को आज उनके द्वारा नसीब करवाई गई इस ऐतिहासिक तारीख की आप सभी को लख-लख वधाईयां जी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 12 March 2021

आलोचना करने वालों को तो बस आलोचना से मतलब होता है, हालात से नहीं!

आज जो यह कह रहे हैं कि अजी जब पता था कि, "किसान आंदोलन के समर्थन में अविश्वास प्रस्ताव गिरेगा तो कांग्रेस लाई ही क्यों"? खुद ही जवाब भी दिए दे रहे हैं कि, "भाजपा को अगले 6 महीने के लिए सुरक्षित जो करना था"|

और अगर इसी विधानसभा सत्र में यह प्रस्ताव नहीं लाया गया होता तो इन्हीं आलोचकों ने यह कह के आलोचना करनी थी कि, "जब पता था कि इस सत्र के बाद अगला सत्र 6 महीने बाद सितंबर में आएगा तो अभी अविश्वास प्रस्ताव लाने का मौका क्यों गंवाया? और इसका भी जवाब खुद ही दे रहे होते कि, "अजी, बीजेपी के हाथों जो बिके हुए हैं हरयाणा कांग्रेस के लीडर; सीबीआई के केसों से डर गए जी; हिम्मत ही नहीं पड़ी प्रस्ताव लाने की; कर दिया बीजेपी को अगले 6 महीने के लिए सुरक्षित, क्योंकि अगला विधानसभा सत्र अब 6 महीने बाद सितम्बर में आएगा; किसानों से, उनके दर्द से तो इनको कोई लेना देना ही नहीं जी"|
बताओ, हो सकता है ऐसे लोगों का कुछ? जबकि ऐसे लोग यह भी जानते हैं कि हरयाणा विधानसभा सत्र 6 महीने के अंतराल के बाद होते हैं; परन्तु जेजेपी, निर्दलीय, यहाँ तक कि बीजेपी के MLA चाहें तो वह आज की आज भी समर्थन वापिस ले, इस्तीफे दे किसानों के पक्ष में आन खड़े हो जावें; या नहीं हो सकते? अब दोनों तरह के आलोचक फ्रंट्स समझ लिए हों तो इसी सत्र में इस अविश्वास प्रस्ताव को लाने और इसके गिर जाने के फायदे भी देख लें?
फायदा 1) फ्री-फंड में किसानों के हितैषी जो बने घूम रहे थे, उनके नकाब 6 महीने बाद यानि सितंबर में उतरवाने की बजाए, अभी उतरवा दिए|
फायदा 2) 6 महीने और किसान इनके आगे-पीछे दुहाई देते, गुहार लगाते फिरते; वह आस, ऊर्जा बची और उसको फ्रेश स्ट्रेटेजी बनाने में लगा सकेंगे|
फायदा 3) हरयाणा में खासकर किसान आंदोलन भावनात्मक रूप से और मजबूत हुआ| जेजेपी, निर्दलीय समेत बीजेपी वाले भी और दोहरे निशाने पर आ गए| पिछले तीन दिन से प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक से ले सोशल मीडिया यही बोल रहा है ना कि किसान दोगुने और भड़क गए हैं, दोगुने और दृढ हो गए हैं, दोगुने और लामबंद हो गए हैं? तो इसका मतलब यह प्रस्ताव उनमें नई ऊर्जा व् आग भर गया, राइट?
फायदा 4) यह भी पता लग गया कि आरएसएस का बनाया तथाकथित "राष्ट्रीय किसान संघ" भी किसी काम का नहीं? मात्र मुखौटा है, जिसमें किसान के नाम पे बंधुआ बैठे हैं| वरना पूरे साढ़े तीन महीने तो यह कुछ बोला ही नहीं था, अब तो बोलता, बीजेपी पे दबाव डालता?
फायदा 5) हरयाणा कांग्रेस के शिखर के नेता में वो गट्स निकले कि दिन के दिन पहले वह सीबीआई कोर्ट से अपनी बेल करवाते हैं और उसी दिन विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव की अर्जी लगाते हैं| अब बताओ बीजेपी को विधानसभा सत्र के दौरान ही ऐन अविश्वास प्रस्ताव से पहले हुड्डा जी पर सीबीआई छोड़ने की क्या पड़ी थी; इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि बीजेपी नहीं चाहती थी कि अविश्वास प्रस्ताव आये?
फायदा 6) किसी बीजेपी-आरएसएस को यह बहम रहा हो कि दबाव डाल के भी किसी कांग्रेसी नेता को प्रयोग कर सकते हैं; तो उसी कांग्रेसी नेता ने कैसे उसी बीजेपी-आरएसएस को विधानसभा में नंगा किया; उनको भी समझ आ गया होगा? प्रस्ताव बेशक गिरा (जिसका पहले से पता ही था), परन्तु भरे बाजार ऑफिसियल व् साबित रूप से यूँ नंगे भी आज तक हुड्डा साहब के अलावा किसी ने नहीं किये ये, या किये?
फिर भी किसी को आलोचना की रट्ट ही लगाए रखनी है तो रखो| लेखक दावा नहीं रखता कि आज के दिन किसानों का सबसे बड़ा हितैषी कौन, परन्तु उनसे तो बड़े ही साबित हुए जिनके पड़पोतों ने खुद की तो छोडो अपने पड़दादा तक को विधानसभा में "नेचुरल संघी" ही बता दिया| इनको इतना भी भान नहीं रहा कि तुम संघ की चाटुकारिता में बोल क्या गए? और एक एंडी तो मुद्दा किसानों का और टेशन पकड़े मिला कश्मीर व् अयोध्या का? खटटर के मुंह से क्या-क्या नहीं उगलवाया, हुड्डा साहब व् कादयान जी की जोड़ी ने? गोयल तो देशद्रोही ही बोल गया?
विशेष: लेखक आज के हालात के हिसाब से लिखता है, भारतीय राजनीति है यह, जो ब्यांदड भैंस की तरह आज इस करवट बैठ के उक्मती होती है तो कल उस करवट; सो आज की लिखी, कल की यह राजनीति रुपी रोज-रोज उक्मती भैंस जाने|
फूल मलिक

Wednesday 10 March 2021

हरयाणा समेत तमाम इंडिया के लोगों की साइकोलॉजिकल ट्रेनिंग करता "हरयाणा विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव" गिरना!

बीजेपी की स्टेट-सेण्टर में सरकार होते हुए बीजेपी मना कर देती तो इस अविश्वास प्रस्ताव पर विधानसभा में ना डिबेट होनी थी ना वोटिंग लेकिन जैसे इन पर देश की जनता को ट्रेंड करने का भूत सवार हो, जनता में 99% को पता था कि यह प्रस्ताव गिरेगा ही गिरेगा फिर भी होने दिया| इसके 3 मायने मुख्यत: निकाले जा सकते हैं:

1) ताऊ देवीलाल परिवार की राजनीति को भविष्य के लिए समूल दफन करने की बीजेपी-आरएसएस की इस खानदान से खानदानी दुश्मनी की साजिस को क्रियान्वित करना : विधानसभा में उन ताऊ देवीलाल तक को नेचुरल जनसंघी बोल दिया (उन्हीं के पड़पोते ने) जिनकी राजनीति का टैग ही "लुटेरा बनाम कमेरा" होता था| क्या इनको आभास हुआ कि यह क्या कर बैठे कल? इतनी अपरिपक्वता का ब्यान कि पुरखे की लिगेसी भी खाते दिखे कल? राजनीति में अलायन्स करना गलती कही जा सकती है, नासमझी कही जा सकती है परन्तु राष्ट्रीय ताऊ जैसी हस्ती को पूर्णत: संघी बता देना; ना सिर्फ इनकी किसान राजनीति पर सवाल लगा गया वरन कुछ दिनों-महीनों तक तो लोग ताऊ के दूसरे पोते को जिसने किसानों के पक्ष में विधायकी छोड़ दी, उन तक को संदेह के घेरे में खड़ा करवाएगा| मैं इस परिवार में सबसे ज्यादा चौधरी ओमप्रकाश चौटाला का फैन रहा हूँ क्योंकि 1999 से 2004 के इनेलो राज में ताऊ के साथ 1990-91 में बीजेपी व् संघ ने जो किया था, अपने बाप के उस अपमान का सूद समेत बदला किसी ने लिया था तो इस शेर ने लिया था; फिर चाहे वह मोदी को उस वक्त उसकी औकात दिखाना था या रामबिलास शर्मा समेत सारी बीजेपी-संघ को खुड्डे लाइन लगाना था| मैं कदाचित भी बड़े चौटाला जी के लिए उदास नहीं हूँ क्योंकि उनके साथ बदले में यह होना स्वाभाविक था| परन्तु जैसे उन्होंने ग्रीन-ब्रिगेड बना अपने बाप के लिए बीजेपी-आरएसएस खुड्डे लाइन लगाई थी ऐसे ही जिम्मेदारी बड़े चौटाला जी के बेटे-पोतों की बनती थी कि 1990-91 का बदला तुम्हारे बाप-दादा ने 1999-2004 में लिया तो बीजेपी-आरएसएस पलटवार करेगी, उसकी तैयारी रखो; परन्तु यह तो कुछ और ही तैयारी खा गए| अब चौधरी अभय चौटाला व् इनके लड़के तो बेशक कुछ इस खानदान की पॉलिटिक्स को बचा लें; उसके लिए भी अगर यह बड़े चौटाला साहब की तरह वापिस "ग्रीन ब्रिगेड" को खड़ा कर पाए तो| इनफैक्ट इनको अपना पुराना कैडर तैयार कर, इस ब्रिगेड को फिर से खड़ा करने की तैयारी अभी से करनी होगी, आरएसएस की शाखाओं को मुंह-चिढ़ाती इनेलो के ग्रीन-ब्रिगेड ट्रेनिंग के कैडर कैम्प्स अभी से लगाने शुरू करने होंगे जो ताऊ देवीलाल वाले कमेरे शब्द में आने वाले लोगों से बने हों अन्यथा वही 1-2 सीट से ज्यादा कुछ नहीं मिलना| यही तो प्रॉब्लम व् डिसकनेक्ट है जो हमारे लोग समझते नहीं कि ग्रीन-ब्रिगेड की KINSHIP carry-forward क्यों नहीं की गई? इस लेख के लेखक जैसे लोग आजकल इसी KINSHIP शब्द पर फोकस्ड हैं अपने साथियों के साथ| इनेलो भी जितना जल्दी इसको संभाल ले, उतना दुरुस्त|
2) 6 महीने के लिए अविश्वास प्रस्ताव की सरदर्दी से पीछा छुड़वाना: बस बीजेपी अपने को सिर्फ इतना ही सिक्योर कर पाई है|
3) कांग्रेस को नीचे दिखाना: बीजेपी खुश हो सकती है कि उसने कांग्रेस की नहीं चलने दी, परन्तु चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा जी पॉलिटिक्स में कल मुझे महाराजा सूरजमल की प्रति-कॉपी के रूप में विधानसभा में दिखे, वही महाराजा सूरजमल जिनकी विलक्षण बुद्धि ने बिना लड़े ही एक तरफ अब्दाली को कंपाया तो दूसरी तरफ पुणे के पेशवाओं की हेकड़ी निकाली| 1980 के अड़गड़े से बॉलीवुड सिनेमा के जरिये जिस तरीके की 4th grade पॉलिटिक्स जनता को परोस जनता का दिमाग उसी तरह का बनाने की कवायद चल रही थी, कल वह पॉलिटिक्स "सांप की केंचुली" की भांति जनता के आगे नंगी होती दिखी| और यह इस स्तर तक नंगी हो गई है कि हरयाणा के लोग तो खासकर अब "जमना पार", "मर जायेंगे परन्तु बीजेपी को साथ नहीं देंगे" जैसे, ऐसे-ऐसे शब्दों के सम्बोधनों से प्रभावित होने वाले नहीं| मतलब साफ है नेताओं को अपने भाषण व् नियत दोनों अपडेट करने होंगे| किसान-मजदूरों के नेताओं को भी वही कमिटमेंट व् साफ़ नियतें दिखानी होंगी जैसे अभी उत्तराखंड में एक वर्ग विशेष के नाराज होने से उनकी पार्टी ने वहां सीएम ही बदल दिया| जनता व् नेताओं को इस नयी लाइन की पॉलिटिक्स पर डालने हेतु हुड्डा साहब का नाम इतिहास में दर्ज हो गया| वैसे छोटे-मोटे आरोप-प्रत्यारोप छोड़ दिए जाएँ तो चौधरी बंसीलाल के बाद हरयाणा को असली में तरक्की की राह कोई ले कर गया तो वह चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही ले कर गए| कोई रोता-पीटता या वर्ण-जाति के मोह-द्वेष में पड़ के हुड्डा साहब बारे जो बड़बड़ाता रहे परन्तु तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो उनके शासनकाल को स्वच्छतम शासनकालों में लोग आज भी याद करते हैं| हरयाणा के भविष्य की राजनीति की एक बड़ी सुबह की आहट कांग्रेस के ऐसे दिग्गज नेताओं के होते हुए इस दर से आती है| बस हुड्डा साहब को यह ध्यान रखना होगा कि फंडियों की emotional v spiritual कारगुजारियों में ना उलझ जाएँ कहीं|
इस प्रस्ताव के गिरने से बीजेपी को खुद क्या नुकसान हुआ अब थोड़ी इस पर बात हो जाए:
1) लोगों की वह सोच मिट गई होगी जिसके अनुसार वह यह आस लिए हुए रहें होंगे कि बीजेपी के भीतर कोई तो 2-4-5 MLA ऐसे होंगे जो वैसे ना सही परन्तु किसान-मजदूर पृष्ठभूमि का होते हुए ही साढ़े तीन महीनों से दिल्ली बॉर्डर्स पर आंदोलनरत किसान-मजदूर के दर्द-पीड़ा-तप को समझेंगे व् पार्टी से बगावत करते हुए उनके पक्ष में वोट करेंगे|
2) "बीजेपी सिर्फ सर छोटूराम वाली बात वाली फंडियों की पार्टी है" पहले यह बात पुरखे कहते-बताते व् इनसे दूर रहने के रूप में बरतते भी थे, कल उन्हीं पुरखों की नई पीढ़ी ने यह बात ऑफिसियल तौर पर साबित होती देखी| किसान-मजदूर की युवा पीढ़ियों को यह फ्री की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग देने के लिए बीजेपी का साधुवाद|
3) आरएसएस का किसान-मजदूर प्रेमी चेहरा भी ऑफिशियली बेनकाब हो गया अन्यथा आरएसएस ही रुकवा देती इनको इस प्रस्ताव को लाने से ही| लगता है या तो बीजेपी की तरह यह भी ओवरकॉन्फिडेन्स में हैं अन्यथा इनको यह नहीं पता कि यह किसान आंदोलन इंसान नहीं अपितु प्रकृति-परमात्मा-पुरखे तीनों मिलके चला रहे हैं; इसलिए इस वक्त में यह दांव तुम्हें भारी साइकोलॉजिकल नुकसान दे के जाएगा इसलिए इसको ना होने दिया जाए|
चलिए अब इनको पैक कर देते हैं| कोई और आउटपुट आपको लगा हो तो जरूर बताएं-बतलाएं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक