(An open letter to Ravish Kumar of N.D.T.V.)
लेख बाबत: कल (11/03/2015) एन. डी. टीवी पर रवीश कुमार की किसानों की ओलों व् बारिश की वजह से बर्बाद हुई फसल पर प्राइम-टाइम रिपोर्ट बारे|
निचोड़: रवीश कुमार जी आज से पहले क्या कभी ओले नहीं पड़े थे, या बेमौसम बारिशें नहीं हुई थी? आपकी इसपे रिपोर्टिंग इस बार ही क्यों आई; वो भी ऐन लैंड-आर्डिनेंस के पास होने की संध्या पे? मेरी नीचे प्रस्तुत खिन्नता का समाधान कीजियेगा अगर हो सके तो:
1) खिन्न-मन रवीश कुमार को धन्यवाद देने से ज्यादा उसके कान पकड़ के खींचने की कह रहा था| क्योंकि यह वही इंसान है जो किसानों के उस सामाजिक तंत्र की बख्खियां उधेड़ता है जिसको हम "खाप" यानी मोटे तौर पर किसानी कौम कहते हैं| यह खिन्नता सिर्फ इसलिए नहीं हो रही थी कि रवीश ने अपने पुराने के प्राइम-टाइमों में खाप को कोसा, अपितु इसलिए हो रही थी कि उसने किसानों के उस सामाजिक तंत्र को कोसा, जिसके दबाव के नीचे रहकर नेता किसानों के आर्थिक हितों को ऐसे जैसे आज लैंड-आर्डिनेंस के जरिये खुले में लुटवा रहे हैं, ऐसी हिम्मत नहीं कर पाया करते थे|
उदाहरण के तौर पर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत जी का जमाना पढ़ लीजियेगा रविश कुमार जी| इस उदाहरण के साथ यह भी कह दूँ कि ऐसा नहीं कि आज के दिन ऐसे शेर नहीं किसानों के यहां, हैं परन्तु आप मीडिया वालों ने उनकी सामाजिक संस्थाओं पे एक तरफ़ा सिर्फ नकारात्मक हमला करके, उनके विश्वास को क्षीण किया हुआ है| और सामाजिक तंत्र को कोसना, यानी उसके प्रति नेताओं का डर-लिहाज शर्म - जिम्मेदारी मिटवा देना और नेताओं को खुला रास्ता दिलवा देना| क्योंकि नेता दो डर माना करता है, एक समाज की लिहाज-शर्म का और दूसरा भय-आक्रोश का| तो जैसा कि ऊपर कहा नेताओं की किसान के प्रति लिहाज-शर्म तो रविश कुमार आप पहले ही ख़त्म कर चुके, अब क्या किसान के उबल रहे आक्रोश को दबाने गए थे?
2) दूसरा मुझे ऐसा लग रहा था जैसे रविश कुमार लैंड-आर्डिनेंस, फसलों के कम दामों की मार और अब ओलों-बारिश से लुटे-पिटे किसान को ऐसे पुचकारने आये हों, जैसे बिल्ली चूहे को मारने से पहले पुचकारा करती है| मुझे यह महज एक राजनैतिक षड्यंत्र से ज्यादा कुछ नहीं लगा| वर्ना आज से पहले क्या ओले नहीं पड़े, या बारिशें नहीं हुई? मतलब साफ़ है ऐसे नाजुक वक्त पे ऐसे कार्यक्रम दिखा के आप लोग सरकार व् व्यापारियों के लैंड आर्डिनेंस के रास्ते को और सहज करना चाहते हैं; प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, इसपे विवेचना हो सकती है| किसानों के हितैषी दिखना चाहते हैं, उन्हीं किसानों के जिनके सामाजिक संगठनों के सकारात्मक पहलुओं को छोड़, उनका हर तरह बलात्कार आप लोग आपके स्टूडियोज में करते हैं| श्रीमान रवीश कुमार, अगर "खापों" और तमाम तरह के दूसरे कृषक सामाजिक संघटनों की बुराई पे कोसने के साथ-साथ अच्छाई पे पीठ थपथपाई होती कभी, उनकी हौंसला अफजाई की होती तो इसकी नौबत नहीं आती जो आप आज करके लाये हैं| पहले तो किसानों के सामाजिक संगठनों को स्टूडियो में बैठा के उनकी "रे-रे माटी करी, और राजनैतिज्ञों को इनके प्रभाव से मुक्त कर दिया और अब चले हो इनके हमदर्द बनने| सॉरी ब्रदर, पर आपका यह कार्यक्रम किसी नेता वाले घड़ियाली आंसुओं से ज्यादा कुछ नहीं लगा|
3) भले ही आप या आपका चैनल आपके इस कार्यक्रम की सीरीज में इसके प्रभाव नाम से एक कार्यक्रम और यह कहते हुए दिखाते मिल जावें कि देखो एन. डी. टीवी की रिपोर्ट का असर, पटवारी फसल के नुकसान की गिरदावरी करने खेतों में पहुंचे, आदि-आदि; परन्तु इससे कुछ होने वाला नहीं| क्योंकि जब तक किसान के उस मान-सम्मान को वापिस नहीं दोगे, जिसका आप जैसे एंकर लोग अपने स्टुडिओज़ में बलात्कार कर चुके हैं, तब तक किसान खड़ा नहीं होगा, एक जुट नहीं होगा (और होगा तो बहुत संघर्ष करने के बाद)| इसलिए सरकार तो जो आर्थिक मार मार रही है वो तो है ही, लेकिन उससे पहले अगर आप मीडिया वाले किसानों के सही में हितैषी बनना चाहते हैं तो हमारे सामाजिक तंत्र के नकारात्मक पहलुओं पे जैसे एक-एक घंटे के सैंकड़ों कार्यक्रम किये हैं, ऐसे कुछ हमारे सामाजिक तंत्र के सकारात्मक पहलुओं पर कर दीजिये| और फिर देखिएगा कैसे आपकी यह हमारे आर्थिक पहलु दुरुस्त करने की प्रतीत सी होती टीस को हम अपने आप ही दुरुस्त कर लेते हैं|
अंत में सार यही है कि एक किसान, मीडिया से उसके आर्थिक पहलुओं बारे आवाज उठाने से ज्यादा उसके
सामाजिक संगठनों, सरोकारों और पैरोकारों को सहेजने, सम्मान देने और उनकी योग्यता को उठाने हेतु काम करने की अपेक्षा करता है| वरना ऐसे हमें सामाजिक तौर से हीन दिखा के हमारे यह आर्थिक मुद्दों की आवाज उठाओगे तो यह हमारे लिए एक दुःस्वप्न वाले मजाक से कम ना होगा| होनी-अनहोनी-किस्मत-सरकार-भगवान क्या कम थे हमारा मजाक उड़ाने को जो अब आप जख्म देने वाले भी मरहम लगाने आये हैं?
चलते-चलते, इन संदेहों और सवालों के साथ मानवीयता के आधार पर आपको धन्यवाद; याद रखियेगा मानवीयता के आधार पर, वरना मन तो खिन्न ही है आपसे| अब आपको मेरा यह लेख मिले तो यह मत सुनाने लग जाइयेगा कि एक तो इनके लिए रिपोर्टिंग करो और ऊपर से आलोचना सुनो| क्या है कि जनाब मुझे आपसे समुन्द्र के किनारे पड़ी सीप की नहीं, उस सीप के अंदर के मोती की आस है| और मोती कैसे दिला सकते हो किसानों को, उसका रास्ता ऊपर सुझाया है| - फूल मलिक
Source: http://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/prime-time-loss-due-to-rain-farmers-worried-359532
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लेख बाबत: कल (11/03/2015) एन. डी. टीवी पर रवीश कुमार की किसानों की ओलों व् बारिश की वजह से बर्बाद हुई फसल पर प्राइम-टाइम रिपोर्ट बारे|
निचोड़: रवीश कुमार जी आज से पहले क्या कभी ओले नहीं पड़े थे, या बेमौसम बारिशें नहीं हुई थी? आपकी इसपे रिपोर्टिंग इस बार ही क्यों आई; वो भी ऐन लैंड-आर्डिनेंस के पास होने की संध्या पे? मेरी नीचे प्रस्तुत खिन्नता का समाधान कीजियेगा अगर हो सके तो:
1) खिन्न-मन रवीश कुमार को धन्यवाद देने से ज्यादा उसके कान पकड़ के खींचने की कह रहा था| क्योंकि यह वही इंसान है जो किसानों के उस सामाजिक तंत्र की बख्खियां उधेड़ता है जिसको हम "खाप" यानी मोटे तौर पर किसानी कौम कहते हैं| यह खिन्नता सिर्फ इसलिए नहीं हो रही थी कि रवीश ने अपने पुराने के प्राइम-टाइमों में खाप को कोसा, अपितु इसलिए हो रही थी कि उसने किसानों के उस सामाजिक तंत्र को कोसा, जिसके दबाव के नीचे रहकर नेता किसानों के आर्थिक हितों को ऐसे जैसे आज लैंड-आर्डिनेंस के जरिये खुले में लुटवा रहे हैं, ऐसी हिम्मत नहीं कर पाया करते थे|
उदाहरण के तौर पर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत जी का जमाना पढ़ लीजियेगा रविश कुमार जी| इस उदाहरण के साथ यह भी कह दूँ कि ऐसा नहीं कि आज के दिन ऐसे शेर नहीं किसानों के यहां, हैं परन्तु आप मीडिया वालों ने उनकी सामाजिक संस्थाओं पे एक तरफ़ा सिर्फ नकारात्मक हमला करके, उनके विश्वास को क्षीण किया हुआ है| और सामाजिक तंत्र को कोसना, यानी उसके प्रति नेताओं का डर-लिहाज शर्म - जिम्मेदारी मिटवा देना और नेताओं को खुला रास्ता दिलवा देना| क्योंकि नेता दो डर माना करता है, एक समाज की लिहाज-शर्म का और दूसरा भय-आक्रोश का| तो जैसा कि ऊपर कहा नेताओं की किसान के प्रति लिहाज-शर्म तो रविश कुमार आप पहले ही ख़त्म कर चुके, अब क्या किसान के उबल रहे आक्रोश को दबाने गए थे?
2) दूसरा मुझे ऐसा लग रहा था जैसे रविश कुमार लैंड-आर्डिनेंस, फसलों के कम दामों की मार और अब ओलों-बारिश से लुटे-पिटे किसान को ऐसे पुचकारने आये हों, जैसे बिल्ली चूहे को मारने से पहले पुचकारा करती है| मुझे यह महज एक राजनैतिक षड्यंत्र से ज्यादा कुछ नहीं लगा| वर्ना आज से पहले क्या ओले नहीं पड़े, या बारिशें नहीं हुई? मतलब साफ़ है ऐसे नाजुक वक्त पे ऐसे कार्यक्रम दिखा के आप लोग सरकार व् व्यापारियों के लैंड आर्डिनेंस के रास्ते को और सहज करना चाहते हैं; प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, इसपे विवेचना हो सकती है| किसानों के हितैषी दिखना चाहते हैं, उन्हीं किसानों के जिनके सामाजिक संगठनों के सकारात्मक पहलुओं को छोड़, उनका हर तरह बलात्कार आप लोग आपके स्टूडियोज में करते हैं| श्रीमान रवीश कुमार, अगर "खापों" और तमाम तरह के दूसरे कृषक सामाजिक संघटनों की बुराई पे कोसने के साथ-साथ अच्छाई पे पीठ थपथपाई होती कभी, उनकी हौंसला अफजाई की होती तो इसकी नौबत नहीं आती जो आप आज करके लाये हैं| पहले तो किसानों के सामाजिक संगठनों को स्टूडियो में बैठा के उनकी "रे-रे माटी करी, और राजनैतिज्ञों को इनके प्रभाव से मुक्त कर दिया और अब चले हो इनके हमदर्द बनने| सॉरी ब्रदर, पर आपका यह कार्यक्रम किसी नेता वाले घड़ियाली आंसुओं से ज्यादा कुछ नहीं लगा|
3) भले ही आप या आपका चैनल आपके इस कार्यक्रम की सीरीज में इसके प्रभाव नाम से एक कार्यक्रम और यह कहते हुए दिखाते मिल जावें कि देखो एन. डी. टीवी की रिपोर्ट का असर, पटवारी फसल के नुकसान की गिरदावरी करने खेतों में पहुंचे, आदि-आदि; परन्तु इससे कुछ होने वाला नहीं| क्योंकि जब तक किसान के उस मान-सम्मान को वापिस नहीं दोगे, जिसका आप जैसे एंकर लोग अपने स्टुडिओज़ में बलात्कार कर चुके हैं, तब तक किसान खड़ा नहीं होगा, एक जुट नहीं होगा (और होगा तो बहुत संघर्ष करने के बाद)| इसलिए सरकार तो जो आर्थिक मार मार रही है वो तो है ही, लेकिन उससे पहले अगर आप मीडिया वाले किसानों के सही में हितैषी बनना चाहते हैं तो हमारे सामाजिक तंत्र के नकारात्मक पहलुओं पे जैसे एक-एक घंटे के सैंकड़ों कार्यक्रम किये हैं, ऐसे कुछ हमारे सामाजिक तंत्र के सकारात्मक पहलुओं पर कर दीजिये| और फिर देखिएगा कैसे आपकी यह हमारे आर्थिक पहलु दुरुस्त करने की प्रतीत सी होती टीस को हम अपने आप ही दुरुस्त कर लेते हैं|
अंत में सार यही है कि एक किसान, मीडिया से उसके आर्थिक पहलुओं बारे आवाज उठाने से ज्यादा उसके
सामाजिक संगठनों, सरोकारों और पैरोकारों को सहेजने, सम्मान देने और उनकी योग्यता को उठाने हेतु काम करने की अपेक्षा करता है| वरना ऐसे हमें सामाजिक तौर से हीन दिखा के हमारे यह आर्थिक मुद्दों की आवाज उठाओगे तो यह हमारे लिए एक दुःस्वप्न वाले मजाक से कम ना होगा| होनी-अनहोनी-किस्मत-सरकार-भगवान क्या कम थे हमारा मजाक उड़ाने को जो अब आप जख्म देने वाले भी मरहम लगाने आये हैं?
चलते-चलते, इन संदेहों और सवालों के साथ मानवीयता के आधार पर आपको धन्यवाद; याद रखियेगा मानवीयता के आधार पर, वरना मन तो खिन्न ही है आपसे| अब आपको मेरा यह लेख मिले तो यह मत सुनाने लग जाइयेगा कि एक तो इनके लिए रिपोर्टिंग करो और ऊपर से आलोचना सुनो| क्या है कि जनाब मुझे आपसे समुन्द्र के किनारे पड़ी सीप की नहीं, उस सीप के अंदर के मोती की आस है| और मोती कैसे दिला सकते हो किसानों को, उसका रास्ता ऊपर सुझाया है| - फूल मलिक
Source: http://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/prime-time-loss-due-to-rain-farmers-worried-359532
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