Thursday 31 October 2019

प्यौध!

साह ही सैय्याद थे, अन्यथा पैदा तो वो आबाद थे,
शाहों की शाहकारी, बिखेर गई प्यौध की क्यारी!

वहाँ प्यौध ही ना जमने दी गई बेचारी,
वरना फसल होनी थी भर-भर क्यारी;

सैय्याद का ही हिया ना जमा,
प्यौध को ही इधर-उधर घुमाये फिरा!

जमा देता वो प्यौध जो एक ठिकाने,
फसल ने भर देने थे, चौक-चौखाने!

प्यौध से तो अस्तित्व की ही लड़ाई ना सम्भली,
फसल कब बनी कब खिली, ना जान सकी कमली!

वो हाथ अनाड़ी ना कीज्यो हे बेमाता,
कि उगावनियो ही रहा, जगह-जगह जमा के आजमाता!

इधर जमे तो उखाड़ के उधर जमाने लग जाई,
क्यारी-क्यारी ऐसी घुमाई, कि फसल कब-क्या बनी समझ ना आई!

बंदर की बंदूक बनी, अनकहे भी टेक गए लाखों श्यान,
फुल्ले भगत, जगत का पानी, बहता जा लिखे की ताण!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday 22 October 2019

और कितना चूँट-चूँट खाओगे जाट को ओ भाँडो; बस लेने दो? रै जाट तू क्यों इतना नरम है मानवता व् सामाजिकता के आगे?

Please see the attached screenshot to understand the context of this post!

1947 में पाकिस्तान से लूटी-पिटी हिन्दू कम्युनिटीज आई, जाट ने सबसे ज्यादा अपनी दरियादिली व् पुरुषार्थ से अपनी छाती पर बसाई, इतनी बसाई कि न्यूनतम समय में यह कम्युनिटीज बहाल हो गई| 1984 में पंजाब में आतंकवाद हुआ तो 1986 से 1992 तक कुछ कम्युनिटी विशेष हिन्दू (5%), का पंजाबी सिखों ने मार-मार भूत उतारा व् वहां से भगाया, वह भी  जाट ने सबसे ज्यादा अपनी छाती पर बसाया| 1990 के आसपास बाल ठाकरे ने मुंबई-महाराष्ट्र में उत्तर-पूर्व भारतीय के नाम पर बिहारी-बंगालियों को पीटना शुरू किया, साथ में मोदी-शाह के गुजरातियों ने यही गुजरात में किया तो उनको भी यही जाट-बाहुल्य धरती ने अपनाया| 1993 में कश्मीरी पंडित जब भागे तो उनको देख लो सबसे ज्यादा कहाँ शरण मिली हुई है, इसी जाट बाहुल्य धरा पर| सभी को ऐसा अपनाया कि आज तक धर्म-भाषा-क्षेत्रवाद की ऐसी कोई बड़ी चिंगारी नहीं भड़की, जैसे 1947, 1984, 1990, 1993 में भड़की|

तो मीडिया वालो मत डंडा दो, जाट है यह; "जितना बढ़िया फसल बोना जानता है, उससे अच्छे से काटना जानता है"| यूँ ही नहीं कहा जाता कि 'जाट को सताया को ब्राह्मण भी पछताया"| सन 1761 में पुणे के ब्राह्मण पेशवाओं ने पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त जाट महाराजा सूरजमल का अपमान किया था, यह तंज मारते हुए कि, "दोशालो पाटो भलो, साबूत भलो ना टाट; राजा भयो तो का भयो रह्यो जाट-को-जाट| ऐसी हाय लगी थी पेशवाओं को उस जाट को सताये की कि 1761 की पानीपत की तीसरी लड़ाई के मैदान में दिन-धौळी हार गए थे| और फिर उन अब्दाली से लूटे-पिटे-छिते पेशवाओं को इसी जाट के यहाँ मरहम-पट्टियाँ मिली थी| तो कोई ना जाट तो ऐसा ही नरम है उसके तो अपमान के बदले भी कुदरत अपने ढंग से ले लिया करे| तुम्हें किस बळ सेधेगी इसका पानीपत की तीसरी लड़ाई वाले सदाशिवराव भाऊ की भाँति तब पता चलेगा जब वह हार चुका था और हरयाणे की लुगाईयों ने भाऊ की जगह 'हाऊ' कहना शुरू कर दिया था| और हाऊ बोल के बच्चों को डराबा बालकों को सुलाने का प्रतीक बना दिया था| तुम क्यों बदनाम करो, यह बदनामी करना जाट और उसकी जाटनी तुमसे बेहतर जानती हैं| जब आएंगे इस नेगेटिव मार्केटिंग पर तुम्हारी तो तुम भाऊ से हाऊ बना दिए जाओगे|

या फिर सिर्फ जाट का ही क्यों, बाकी सबका भी बता दो कि किस जात-बिरादरी ने किसको वोट दिया?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Thursday 17 October 2019

इंडिया में जो बढ़ रहा है या युगों से रहा है इसको पूंजीवाद नहीं कहते, इसको वर्णवाद की लक्ज़री कहते हैं!

वही वर्णवाद जिसके बारे ग्रंथों के हवाले से सुनते हैं कि उच्च वर्ण कोई अपराध भी कर दे तो वह दंड का भागी नहीं| तभी तो जितने भी उच्च वर्ण वाले करोड़ों-अरबों के घोटाले कर देश छोड़ जो चले गए जैसे कि माल्या-मोदी-चौकसी आदि-आदि एक की भी धर-पकड़ नहीं की गई आज तक| जितने भी कॉर्पोरेट वालों ने कर्जे लिए एक से भी उगाही नहीं; बल्कि सुनते हैं कि लाखों-करोड़ों के एनपीए और माफ़ कर दिए इनके; क्या यह स्टेट-सिस्टम के मामा के लड़के हैं या बुआ के? यह इसलिए हुआ है क्योंकि इनमें 99% तथाकथित उच्च वर्ण के हैं|

पूंजीवाद तो अमेरिका-यूरोप में भी है, परन्तु ऐसी खुली छूट थोड़े ही कि आप बैंक से ले कस्टमर तक से फ्रॉड करो और आपको सिस्टम-स्टेट कुछ ना कहे? यहाँ फेसबुक वाले जुकरबर्ग की कंपनी के हाथों कस्टमर का डाटा लीक हो जाता है तो तुरताफुर्ति में ट्रिब्यूनल्स हाजिर कर लेते हैं जुकरबर्ग को; वह भी सीधी एक-दो तारीख में ही एक-दो महीने में ही फैसला सुना दिया जाता है; कोई तारीख-पे-तारीख नहीं चलती| मामला जितना पब्लिक सेन्सिटिवटी का उतना ताबतोड़ सुनवाई और फैसला|

सच्ची नियत व् नियमों से पूँजी बना पूंजीवादी कहलाना कोई अपराध नहीं, जैसे बिलगेट्स-जुकरबर्ग आदि| परन्तु आपराधिक-फ्रॉड तरीकों से पूँजी बना के हड़प कर जाना और सिस्टम-स्टेट का उनको धरपक़डने की बजाये हाथों-पर-हाथ धरे रहना; यह पूंजीवाद नहीं अपितु वर्णवाद की लक्सरी है| ध्यान रखियेगा यह आपको इसको पूंजीवाद बता के परोसते हैं परन्तु यह है वर्णवाद की लक्सरी|

और यह वर्णवाद की लक्सरी, दुनिया में जाने जाने वाले तमाम तरह के भ्र्ष्टाचारों की नानी है|

अत: यह जो कहते हैं ना कि जातिवाद को खत्म करो; इनको बोलो कि पहले वर्णवाद को खत्म करो| करवाओ खत्म इससे पहले कि यह तुम्हारी नशों में नियत-नियम बन के उतर जाए या उतार दिया जाए और तुम इसको ही एथिक्स समझने लग जाओ| साइंस उलटी प्रयोग हो तो विनाश लाती है और सोशियोलॉजी उलटी प्रयोग हो तो नश्लें व् एथिक्स सब तबाह कर देती है| यह वर्णवाद यही है जो आपकी-हमारी नश्लें व् एथिक्स ही नहीं अपितु विश्व पट्टल पर देश की छवि तक को तबाह कर रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बेबे हे ले-ले फेरे, यू मरग्या तो और भतेरे!

एक दोस्त बोला कि तुम्हारे हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार नहीं है क्या?

पहले इस लेख के टाइटल की व्याख्या कर दूँ| शुद्ध उदारवादी जमींदारी के हरयाणवी कल्चर में जब शादी होती है तो दुल्हन को पति की मौत या लम्बी उम्र के भय से यह कहते हुए बेफिक्र कर दिया जाता है कि चिंता करने की जरूरत नहीं, बेफिक्र फेरे ले, यह मर भी गया तो और भतेरे|

इस कल्चर में कहावत है कि, "रांड कौन, रांड वो जिसके मर जाएँ भाई"| इस कल्चर में पति मरे पे औरत राँड यानि विधवा नहीं मानी जाती| उसको विधवा-विवाह के तहत पुनर्विवाह का ऑप्शन रहता है अन्यथा नहीं करना चाहे तो भी विधवा-आश्रमों में नहीं फेंकी जाती; अपने दिवंगत पति की प्रॉपर्टी पर शान से बसती है| और इसमें उसके भाई उसकी मदद करते हैं| इसीलिए कहा गया कि, "रांड वह जिसके मर जाएँ भाई, खसम तो और भी कर ले; पर भाई कहाँ से लाये?"

ऊपर बताई व्याख्या से भाई को समझ आ गया होगा कि क्यों नहीं होता; हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार? फिर भी और ज्यादा जानकारी चाहिए तो नीचे पढ़ते चलिए|

जनाब यह बड़ा बेबाक, स्पष्ट व् जेंडर सेंसिटिव कल्चर (वह सेंसिटिविटी जो एंटी-हरयाणवी मीडिया ने कभी दिखाई नहीं और एडवांस्ड हरयाणवी ने फैलाई नहीं; फैलाये तो जब जब समझने तक की नौबत उठाई हो) है| इसमें शादी के वक्त फेरे लेते वक्त ही लड़की को इन पति की मौत और उसकी लम्बी उम्र के इमोशनल पहलुओं से यह गीत गा-गा भयमुक्त कर दिया जाता है कि "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे"| फंडा बड़ा रेयर और फेयर है कि घना मुँह लाण की जरूरत ना सै| वो मर्द सै तो तू भी लुगाई सै|

मस्ताया और हड़खायापन देखो आज की इन घणखरी हरयाणवी औरतों का कि जिसने "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे" वाले लोकगीत सुनती हुईयों ने फेरे लिए थे, वह भी पति की लम्बी उम्र के व्रत रख रही हैं| यही होता है जब अपनी जड़ों से कट जाते हो तो| जड़ों से तुम कट चुके, शहरों में आइसोलेट हुए बैठे और फिर पूछते हो दोष किधर है? 35 बनाम 1 के टारगेट पर हम ही क्यों हैं?

मैं यह भी नहीं कहता कि जिन कल्चर्स में पति की उम्र के व्रत रखे जाते हैं वह गंदे हैं या गलत हैं| ना-ना उनके अपने वाजिब तर्क व् नियम हैं| इसलिए मैं उनको इस त्यौहार पर बधाई भी दिया करता हूँ| उनका आदर करूँगा तभी तो मेरा आदर होगा| परन्तु तुम क्या कर रही हो? ना अपने का आदर करवा पा रही हो ना उसका स्थान बना पा रही? वजह बताऊँ? 'काका कहें काकड़ी कोई ना दिया करता"| खुद का मान-सम्मान चाहिए तो उन बातों पे आओ जिनपे चलके तुम्हारे पुरखे देवता कहला गए|

अरे एक ऐसा कल्चर जो फेरों के वक्त ही औरत को आस्वश्त कर देता है कि इसके मरने की चिंता ना करिये, यु मर गया तो और भतेरे; वह इन मर्द की मीमांसाओं व् मर्दवादी सोच को बढ़ावा देने वाले सिस्टम में चली हुई हैं? रोना तो यह है कि फिर यही पूछेंगी कि समाज में इतना मर्दवाद क्यों है?

हिम्मत है तो अपने दो त्यौहार औरों से मनवा के दिखा दो और वह तुमसे हर दूसरे त्यौहार मनवा रहे हैं| बिना पते की चिठ्ठियों कित जा के पड़ोगी; उड़ ली हो भतेरी तो आ जाओ अपने कल्चर के ठोर-ठिकाने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक