Friday 29 October 2021

कोल्हू धोक-ज्योत (बड्डी गिरडी) व् गंडा (गन्ना) पाड़ दिवस - कात्यक मास की मौस (अमावस)!

छोटी-गिरडी व् बड्डी-गिरडी - गिरडी, खेतों में ढीम-डळे फोड़ने के काम आने वाला पत्थर का बना रोलर होता है|

कात्यक मास की मौस (अमावस) हरयाणवी-पंजाबी जमींदारी कल्चर में वह दिन होता आया है, जब किसान-जमींदार ईंख की पक चुकी खेती से सीजन का पहला गंडा पाड़, उसकी मिठास चेक करके; कोल्हू-क्लेशर लगाने का आगाज किया करते आए| कोल्हू-क्लेशर की सारी मशीनरी को धो के; कोल्हू में जुतने वाले बैलों को नहला-धो के उनके खुर-सींगों पर तेल व् गले में गांडली व् घंटियां बाँध के (बाकी गाय-भैसों को भी ऐसे ही सजाया जाता है) कोल्हू पीड़ने हेतु कोल्हू पर दिया जला के अपने फसली कारोबारी सीजन का आगाज किया करते थे| कृषक के साथ-साथ उधमी व्यापारी होने का अध्याय शुरू किया करते थे| खेतों में पके खड़े असली धन को गुड़-शक्कर बना के उसको बेचने-बिकवाने की प्रक्रिया शुरू किया करते थे तो सब जोश व् खुशियों से लबालब होते थे| यह थे थारे पुरखे जो तर्क आधारित त्यौहार मनाया करते थे|
अगर चाहते हो कि थारे बालक मिथकीय दुनिया के चमत्कारी तरीकों से मिल सकने वाली माया आदि के चक्कर में पड़ कर्म व् उधम से रहित व् पंगु ना बनें तो उनको बताईये यह अपने पुरखों के सही कांसेप्ट; जिनसे कि वास्तव में तिजोरी में माया आया करती है|
फंडियों ने नाजायज बाजारीकरण (मार्केटिंग तक समझ आता है परन्तु हर तथ्य-बात बाजार से जोड़ के चलाना, कोरी मूर्खता है) को बढ़ावा देने के चलते चेक कीजिए कि कहीं कर्म व् उधम से रहित तो नहीं हो गए?
जय यौधेय! - फूल मलिक

ऋषि दयानन्द की पुण्यतिथि पर विशेष!

अक्सर जाट से जलते-बलते-एंटी लोग कहते-बिगोते-रोते हैं कि जाट को मान-सम्मान नहीं करना आता|

आता है जी बिलकुल आता है, बशर्ते सामने वाला भी करना जानता हो व् उसके योग्य हो|
सबसे बड़ा उदाहरण: ऋषि दयानन्द, जाति से ब्राह्मण परन्तु जाट व् सहयोगी जातियों के सदियों पुराने "मूर्ती पूजा व् फंड-पाखंड से रहित दादा नगर खेड़ों" के सिस्टम को देख कर जिनको प्रेरणा मिली कि मुझे "मूर्ती पूजा रहित आर्य समाज" स्थापित करना चाहिए| व् ऐसा स्थापित किया कि आर्य-समाज की गीता यानि "सत्यार्थ प्रकाश" में ना सिर्फ जाट को बारम्बार "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखा अपितु किसान की महत्ता को भी यह कह कर उसका यथायोग्य स्थान व् सम्मान संसार को समझाया कि, "किसान राजाओं का राजा होता है"| कहा कि, "सब जग जाट जी जैसा पाखंडमुक्त व् फंडमुक्त हो जाए तो फंडी-पाखंडी भूखे मर जाएँ"|
वैसे जाट को यह क्यों भूखे मारने, मारो इनके कर्मों के चलते अगर भूखे मरो तो; जाट तो "गाम-खेड़े में कोई भूखा-नग्न नहीं सोए" के दादा-खेडाई मानवीय सिद्धांत पालता आया|
खैर, अब देखें कि इस ब्राह्मण ने जब "जाट" बारे इतना खुल के लिखा तो जाट ने क्या किया? उसको इतना बड़ा बना दिया कि आज तलक भी उत्तर भारत में उससे बड़ा ब्राह्मण नहीं जाना जाता| यह है जाट की यारी, जाट का आदर-मान|
परन्तु यह उन मूढ़-मतियों को समझ नहीं आएगा, जो वर्णवाद की पीपनी बजाते रहते हैं|
और ऐसा भी मत मानिए कि ब्राह्मण था इसलिए इतना मान मिला; नहीं अपितु जाट एक ऐसी कौम है जो धर्म-जाति देखकर नहीं बल्कि इंसान हृदय व् दिलेरी देख कर उसको अंगीकार करती है| फिर चाहे वह ब्राह्मण दयानन्द ऋषि हो या सर्वखाप की 1398 की लड़ाई में तैमूरलंग से लड़ी सर्वखाप आर्मी के उप-सेनापति दादा धूळा भंगी हों| उस सर्वखाप आर्मी का जिसमें 80% जाट-सैनिक रहते आए, उसका उप-सेनापति होना कौनसे आदर-मान से कम है भला?
और जाट ऐसा इसलिए कर पाता है क्योंकि वह अवर्णीय रहा है, इसलिए उसने आर्य-समाज की भी खाप-खेड़ा-खेत की आइडियोलॉजी से मिलती हुई बातों को ही आगे बढ़ाया|
परन्तु आज एक स्पथ हर आर्य समाजी लेवे तो ऋषि दयानन्द को सच्ची श्रद्धांजलि होवे कि, "आर्य समाज में झूठे राष्ट्रवाद व् इतिहास के साथ माइथोलॉजी ले के घुसते चले आ रहे फंडियों को इनसे खदेड़ेंगे|" कोई भी धर्म-पंथ इसकी पवित्रता सहेजने को बलिदान मांगता ही मांगता है, इसलिए आर्य-समाज के गुरुकुलों में घुस चुके फंडियों के खिलाफ अपनी आवाज व् लामबंदी मजबूत करनी शुरू कीजिए|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday 24 October 2021

अब फंडी की नजर जमीन बाबत जमींदारों की लड़ाई लगवाने की भी है दलित-ओबीसी के साथ, कितने तैयार हो इससे बचने हेतु!

जिन जमींदारों ने अकबर के जमाने से तो कनफर्म्ड टैक्स दे-दे जमीनें बनाई, अब फंडी की नजर इसी जमीन बाबत उनकी लड़ाई लगवाने की है दलित-ओबीसी के साथ; क्या तैयार हो थम इससे निबटने के लिए?
फंडी भी वह जिसको तुम दान-चंदा दे के सर पर धरते हो व् जो कभी भी तुम्हारी तरह, तुम्हारे पुरखों की तरह हाड़तोड़ मेहनत करके जमीन-संसाधन नहीं जुटाता| उसका अगला टारगेट तुम्हारे दलित-ओबीसी से तुम्हारी टैक्सो, मालदरखासों के भरने के जरिए सदियों से कमाई जमीनों पर यह झगड़े लगाने की कवायद तैयार कर रहा है कि उनको बिना किसी ऐतिहासिक टैक्स रिकॉर्ड मेंटेनेंस के जमीनों की मलकियत चाहिए हो|
सनद रहे, यह फैक्ट्रियों, दुकानों, शॉपिंग-माल्स में दलित-ओबीसी की मलकियत का मुद्दा नहीं उठवाने जा रहा और ना ही धर्मस्थलों की आय-सम्पत्ति में हिस्सेदारी हेतु आवाज उठवाने जा रहा; परन्तु तुम्हारी जमीनों बारे उठवाने की शुरुवात जल्द कर रहा है|
क्या तैयार हो तुम, दलित-ओबीसी को इस मुद्दे पर इनके बहकावे में नहीं आने दे, दलित-ओबीसी को बल्कि धर्मस्थलों व् फैक्टरियों की प्रॉपर्टीज व् आमदनी में हिस्सा दिलवाने का उलटवार करने को?
अगर नहीं तो अपने तरकस कस लो वक्त रहते|
जय यौधेय! - फूल मलिक

या तो दलित-ओबीसी व् अपने बीच से फंडी को निकालो; या फंडी द्वारा तुम्हारे पर करवाया जा रहा दलित-ओबीसी बनाम तुम झेलते जाओ!

या तो दलित-ओबीसी के ऊपर छूत-अछूत, स्वर्ण-शूद्र, वर्ण की ऊंच-नीचता के नाम पर फंडी द्वारा किये जा रहे जुल्मों-भेदभावों को गाम गेल उठा के इनको फंडियों के जुल्मों से छुटकारा दिलवाओ, नहीं तो यह फंडी तुमसे पहले, तुम्हारे दलित-ओबीसी के साथ झगड़े लगवा तुम्हें यूं ही isolate राखेँगे| चॉइस थारी, थम इनको isolate कर दो या खुद को isolate करवाए रखो इनसे|

दलित-ओबीसी से थारा कारोबारी रिश्ता है यानि आपस में काम के बदले दाम-दिहाड़ी लेते-देते हो; और 99% थारे आपसी झगड़े व् मनमुटाव भी कारोबारी ही होते हैं| जबकि फंडी का दलित-ओबीसी से सिर्फ दान-चढ़ावा लेने का रिश्ता है बदले में देता है तो छूत-अछूत, स्वर्ण-शूद्र, वर्ण की ऊंच-नीचता के तमगे| अगर फंडी थारे कारोबारी रिस्तों की खटास को इतनी चौड़ी खाई बना देता है तो थम तो फंडी को इससे कहीं ज्यादा सहजता से अपने व् दलित-ओबीसी के बीच से निकाल बाहर फेंक सकते हो|
यह तरीका ना सिर्फ आपको दलित-ओबीसी के और नजदीक ले जाएगा अपितु सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक तमाम तरह के फायदे आपकी तरफ मोड़ेगा| तो उठा दो गाम गेल फंडी द्वारा दलित-ओबीसी पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज| अत्याचार क्या, किस तरीके का हो रहा है उसका आईडिया नहीं है तो मुझसे कांटेक्ट कर लो; इनके तो इतने अत्याचार हैं कि फंडियों को इतना उलझा सकते हो कि इनको गाम-गेल सांस नहीं आने का यह सोचते हुए कि यह क्या बन रही है थारी गेल| जिनको इतनी फुरसत, थारी निष्क्रियता ने दे रखी है कि वो तुमसे ही दान पा के तुमको ही isolate करवाते हैं; यह तरीका अपनाने के बाद जो इनसे इनकी isolation टूट पाए तो मुझे कहना|
पर इसके लिए थमनें, ग्रामीण-शहरी-एनआरआई तीनों स्तर पर आपस में सर भी जोड़ने होंगे व् अपनी महिला शक्ति को भी इसमें सहयोगी बनाना होगा|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday 22 October 2021

सावधान: फंडी अपनी अनैतिक नीचता पर फिर से उत्तर रहा है!

किसान आंदोलन को कुचलने-दबाने-बिखेरने के मोदी-शाह से ले, बीजेपी-आरएसएस, बिग फिश-कॉर्पोरेट और सबसे बड़े कोर्ट तक में मुंह की खा चुके फंडी, घायल हुए बावले कुत्ते की तरह अपने शिकार पर निकल चुके हैं| व् अब इन्होनें जरिया बनाया है इस आंदोलन की अग्रणी कौम के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट के एक्टिविस्टों को एक्टिव करके किसान-मजदूर के बीच आई मधुरता को तोड़ने का|

किसान-मजदूर कौम के हर युवा-बुजुर्ग-महिला समेत सामाजिक संस्थाओं जैसे कि खाप चौधरी या सामाजिक कार्यकर्त्ता तमाम से अनुरोध है कि जहाँ कहीं अपने गाम-गुहांड में ऐसा कोई मसला उभरता दिखे, तुरंत उसका हल करवाया जाए| बड़ी मुश्किल से इस किसान आंदोलन की वजह से ही 35 बनाम 1 जिन्न बोतल में बंद हुआ था| अब इनकी कोई और पार ना चलते देख, इन्होनें इस जिन्न को फिर से जगाया है| सावधान इनको इस फ्रंट पे अबकी बार मुंह की खिलवा दो|
सनद रहे, किसान-मजदूर के मसले इतने बड़े हो ही नहीं सकते कि हल ना होवें; धर्मस्थलों पर दलित को नहीं चढ़ने देना या वर्णवाद के नाम पर छूत-अछूत को चलाना, धर्मस्थलों पर दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बनाना आदि से बड़े तो बिल्कुल भी नहीं| इसलिए तमाम पंचायतियों से अनुरोध है कि अपने-अपने गाम-गुहांड की जिम्मेवारी लेवें इस फ्रंट पर| वरना आपकी चुप्पी, ना सिर्फ इनको खामखा का 35 बनाम 1 फिर से खेलने का मौका देगी वरन यह इसका इस्तेमाल आगामी चुनावों में भी करेंगे| इसलिए इस 35 बनाम 1 को दोबारा फण ना उठाने दिया जाए| नाक भींच दो अबकी बार फंडियों की तस्सल्ली से|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday 21 October 2021

35 बनाम 1 क्यों झेलना पड़ रहा है जाट समाज को!

इस पोस्ट का उद्देश्य: दलित-ओबीसी व् जाट को उन पहलुओं पर विचार करने को केंद्रित करना, जिसकी वजह से उनके बीच फंडी बेहोई दखलंदाजी किये हुए है|

हालाँकि 35 बनाम 1 अभी यह ढलान पर जा रहा है, परन्तु फरवरी 2016 में पीक पर था! तो क्यों हुआ ऐसा?
सबसे ज्यादा जाट के साथ रहने वाला, जाट से भाईचारा निभाने वाला दलित-ओबीसी क्यों छींटका जाट से?
कारण बड़ा सीधा है: जाट समाज की पिछली एक-डेड पीढ़ी ने (गामों से शहरों को सबसे तीव्र पलायन वाले दौर में, जिसको 1980 से 2010 तक का काल माना जा सकता है) ने पुरखों की वह अणख फंडियों के यहाँ गिरवी रख दी जिसके चलते पुरखे इन फंडियों को इनकी लिमिट व् जगह पर रखते थे| व् इनको वह मान-सम्मान देने पर ज्यादा केंद्रित हो गए जो पाकर फंडी अपने असली कमीनेपन पर आता है|
दूसरा, जाट समझता है कि फंडी जितना शराफत से उससे सन्मुख व्यवहार करता है; उतना ही उसकी पीठ पीछे करता होगा| जबकि है इसका विपरीत, इतना विपरीत कि जाटों के एक छोटे से छोटे दोष को दलित-ओबीसी के आगे विकराल दबंगई आदि बना के फैलवाता है व् यह बात लेखक व् उसके साथियों ने गांव में प्रैक्टिकल टेस्ट की है| जाट का इस तरफ ध्यान ही नहीं है कि जैसे आवारा जानवर से फसल की बाड़ करनी होती है, ऐसे ही इंसानों में आवारा नामक फंडी जानवर से अपनी नश्ल, सोशल आइडेंटिटी व् साख की रक्षा करनी होती है; जिसके लिए कि सरजोड़ के रखने होते हैं|
तो ऐसे में जब दलित-ओबीसी ने देखा कि जब यही इनके आगे अपने स्टैंड बदल गए हैं और इनका प्रभाव जाने-अनजाने मानने व् बढ़ाने लगे हैं तो फिर उसके साथ रहो ना जिसका समाज पर सबसे ज्यादा प्रभाव व् योगदान दीखता है| और ऊपर से फंडियों के दुष्प्रचारों से अपनी बाड़ करनी छोड़े देना, जो कि पुरखे बड़े अच्छे से करके रखते थे| और ऐसे बड़ी सहजता से दलित-ओबीसी, जाट से छींटका लिया गया; खासकर फरवरी 2016 में| वैसे इसकी असली शुरुवात मुज़फ्फरनगर 2013 दंगों से होती है; जहाँ जाटों ने इनको खुद ही यह स्कोप परोस के दे दिया|
2013 के बाद जून 2020 में पंजाब से ऊठे किसान आंदोलन ने वापिस वही अणख लौटाई है| यह इसी अणख का कमाल है कि मोदी-शाह, बिग फिश कॉर्पोरेट से ले सबसे बड़े कोर्टों के जजों तक के पसीने छुटे हुए हैं परन्तु किसानों को घेर नहीं पा रहे|
इन फंडियों को यूं आपके पुरखों वाली लिमिट में लेते जाओ; क्योंकि यह बात दलित-ओबीसी भी समझ चुके हैं कि समाज में बैलेंस तो किसान समाज ही रख सकता है| इस हद से ज्यादा बढ़ चली महंगाई हो, देश की संस्थाएं प्राइवेट को देने की गुस्ताखी हो या उलटे-सीधे कानून लाने की बेलगाम प्रक्रिया; इनको अंजाम तक ले जाने वाला विरोध, खुली चेतावनी व् प्रतिकार किसान समाज की अगुवाई में ही हो सकता है|
यह किसान आंदोलन ना सिर्फ काले कृषि कानून वापिस करवाएगा, अपितु फंडियों ने जो तथाकथित ज्ञानी, शरीफ, राष्ट्रवादी, सर्वहितैषी आदि-आदि होने का हुलिया आसमान में चढ़ाया हुआ था; उसको भी धराशायी करेगा| और यह हुलिया धराशायी होवेगा इन कानूनों को वापिस लेने से, यही फंडियों के गले की सबसे बड़ी फांस बनी हुई है|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday 20 October 2021

खापलैंड की उदारवादी जमींदारी की एथिकल कैपिटलिज्म के "सीरी-साझी वर्क कल्चर" का "बार्टर इकोनॉमिक सिस्टम" मॉडल!

कभी सोचा है कि एक नाई, बाह्मण, लुहार, कुम्हार, खाती, छिम्बी आदि को उदारवादी जमींदारों के खेतों से जो 'एक गठड़ी तूड़ी' या 'एक मण या दो धड़ी अनाज' किस पैमाने के आधार पर मिला करता था या बहुतेरी जगहों पर आज भी लाते हैं?

इन्हीं सवालों के जवाब लिए आ रही है हमारी एक रिसर्च:
जो है खापलैंड की उदारवादी जमींदारी की एथिकल कैपिटलिज्म के "सीरी-साझी वर्क कल्चर" का "बार्टर इकोनॉमिक सिस्टम" मॉडल!
A research report on "Barter System Economic Model" of Ethical Capitalism of Udarwadi Zamindari of Seeri-Saajhi Working Culture of Khapland coming soon!
इस वीकेंड पर एक विस्तृत लेख आ रहा है जिसमें "Barter System Economic Model of Ethical Capitalism of Udarwadi Zamindari" पर विस्तृत शोध आ रहा है जो 1970-1985 तक सदियों से दुरुस्त लागू रहा|
इसमें बताया जाएगा कि एक नाई से ले लुहार, कुम्हार, खाती, छिम्बी, मिरासी, ब्राह्मण, रविदासी, कबीरदासी आदि को एक उदारवादी जमींदार के खलिहान में आई फसल का कितना हिस्सा मिलता था? यह इतना हिस्सा होता था कि इनमें से एक पर 30 जमींदार जजमान भी हुए तो इनकी कुल आमदनी एक सादे जमींदार के इर्दगिर्द ही पहुँच जाती थी|
यह रिसर्च बताएगी कि क्यों व् किनकी उदारता व् एथिकल सिस्टम की वजह से खापलैंड पर इंडिया में सबसे कम गरीब-अमीर का अंतर रहा है| क्यों यहाँ "आ जाट के", "आ नाई के", "आ ब्राह्मण के", "आ खाती के" बोल के casual सम्बोधन रहे हैं और अब इस खुलेपन को कैसे यह वर्णवाद खा गया|
यह रिसर्च हरयाणवी कल्चर व् सोशल इंजीनियरिंग की एक विशेषज्ञ हस्ती के साथ मिलकर निकाली गई है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 16 October 2021

किसान आंदोलन में धर्म क्यों है?

सबसे पहले: दलित सिख निहंग ने ही दलित सिख निहंग को मारा है गुरु की बेअदबी पर; सबसे पहले तो यही बात बता दो कुछ जातिवादी-जीवियों को|

और सुनो: थारे लागदार, पिछले 10 महीने से थमनें न्यूं लंगर छका थारी सेवा कर रहे हैं, ज्यूकर मामा के गया भांजा-भांजी या ससुराल गया बटेऊ छका करै, तो आंदोलन में हैं| थारे भतीज दिन-रात थारी सुरक्षा के लिए हैं ठीकरी पहरा देवें हैं तो आंदोलन में हैं| और वह भी बिना जाति-बिरादरी-धर्म देखे| आंदोलन को दिन-रात आत्मिक व् साहसिक बल देते हैं; युद्धों में ज्यों हल्कारे होते हैं; यूँ दिन-रात थारे हौंसले बुलंद करते हैं|
शुरू के पहले महीने तो सिंघु-टिकरी दोनों मोर्चों को जमाने में अग्रणी योगदान इन्हीं का था| जब आए थे रोड़ों पर से लावलश्कर के साथ, सब में भय निकालते व् आत्मविश्वास भरते हुए आए थे| तब से किसी ने नहीं कहा कि निहंगों को वापिस भेजो? 'गुरु-ग्रंथ साहब' की बेअदबी पर एक दलित निहंग ने दोषी दलित निहंग (जातीय पहचान जातिवाद-जीवियों हेतु लिखनी पड़ रही है) को मार दिया तो लगे सारे खालसे सारे निहंगों पर ऊँगली उठाने?
ये तथाकथित थारे वालों से करवा ली सेवा; जो सारे दिनों-महीने इनके लंगरों के रोट पाड़ लगे गरियाणे? थारे वालों में सिर्फ खापों के बूते लंगर हैं यहाँ, वरना कौनसा मठ-मंदर-डेरे वाला यूं बटेऊ-भांजा-भांजी ज्यूं जिमा रहा है तुम्हें यहाँ? कल को किसी खाप वाले से ऐसी हत्या हो जाएगी तो उसी में पूरी खाप लपेटने निकल पड़ोगे? गलत नहीं कहते लोग कि, "थम काटडे ज्यूँ अपने ही मारने वाले क्यों कहे जाते हो"|
शुक्र मनाओ यह मिसल-निहंग व् खापें हैं जो इस आंदोलन की नैतिक मोराल व् सुरक्षा-सेवा संभाले हुए हैं; वरना 10 महीने तो क्या 10 दिन भी नहीं बैठ पाते यहाँ|
और बाकी: अरे जिस दुश्मन से मुकाबला है कम से कम उन्हीं से सीख लेते? माना हत्या है, हत्या करने वालों ने कबूल कर सरेंडर भी कर दिया परन्तु क्या यह उन कश्मीर से ले सेंगर व् हाथरस दलित लड़की रेप में दोषियों के समर्थन में जुलूस निकालने वालों से भी घटिया हो गए? या यह उन फंडियों से भी बुरे हैं जो औरत को वरजसला अवस्था में व् दलित को अछूत-शूद्र कह के धर्मस्थलों में नहीं चढ़ने देते? या यह उन दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बनाने वालों से भी बुरे हैं?
लखीमपुर खीरी व् यह सिंघु बॉर्डर मामला, दोनों फंडियों के अंदर भय बैठाने वाले इंसिडेंट हैं कि हम पे गाड़ी चढ़ाते आओगे या गुरु की बेअदबी करते आओगे; बख्से नहीं जाओगे| क्या थम नहीं चुप्पी साधे चल रहे तुम्हारे वालों पे, अन्यथा अब तक तो तुमने एक-एक डेरे-मठ-मंदर वाले के दरवाजे खटखटा सवाल-जवाब ले लेने थे कि तुम क्यों नहीं सहयोग दे रहे? या सहयोग नहीं देने पर इनका खुल्ला बॉयकॉट कर चुके होते| जिनका धर्म साथ दे रहा है उनपे घुर्राने की बजाए अपने गिरेबां में झांको और हो सके तो जवाब लो इनसे| ज्यादा नहीं तो जब तक किसान आंदोलन है, तब तक इनके दान-चढ़ावे ही बंद कर दो| तब सवाल पूछना कि धर्म क्यों है किसान आंदोलन में|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday 12 October 2021

वर्णवाद की थ्योरी कर्म आधार व् जन्म आधार दोनों पर ही फिट नहीं!

जन्म आधारित सही होती तो इसमें जन्मा कोई भी उच्च वर्ण वाला तथाकथित स्वर्ण दिहाड़ी-मजदूरी-रेहड़ी-रिक्शा पुल्लिंग आदि नहीं कर रहा होता और ना ही नीच कहे जाने वाला तथाकथित शूद्र वर्ण से कोई प्रोफेसर बनने का टैलेंट ले पैदा नहीं हो पाता|


कर्म आधारित सही होती तो स्वर्ण वर्ण में आने वाले तमाम दिहाड़ी-मजदूरी-रिक्शा पुल्लर, शूद्र कहलाते; जबकि वह आजीवन उसी वर्ण के कहलाते हैं जिसमें पैदा होते हैं|

सभ्य समाज पर सबसे बड़ा कटाक्ष व् मजाक है यह थ्योरी!

और इन तथाकथित कुलीनों का सुगलापन, हमने बड़े अच्छे से देखा है; भीड़ पड़ी में किसी का झूठा तक नहीं छोड़ते ये| घरों में मख्खियां भिनभिना रही होती हैं बाजे-बाजों के|

जय यौधेय! - फूल मलिक

किसान आंदोलन की अहिंसक शक्ति के आगे डगमगाते फंडी!

कर्मचारी अपने परिवार पर नजर रखेगा कि कोई उसका सदस्य सरकार-विरोधी गतिविधियों (देश-विरोधी तो सुना था, अब यह सरकार विरोधी कौनसे सविंधान, कौनसे कानून के तहत लाए हैं?) में भाग ना लें, जबकि दूसरी तरफ आरएसएस के कार्यक्रमों में भाग लेने की कर्मचारी को इजादत होगी|

यानि कि अब सामाजिक गतिविधियों के नाम पर भी यह सिर्फ एक संगठन की मोनोपॉली चाहते हैं; बिलकुल घोर मनुवाद व् वर्णवाद की तरफ ले जाने के लक्षण हैं ये|
यह किसान आंदोलन का ही करिश्मा है कि अब इनको लोगों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए, यह डर भरे हथकंडों पर उतरना पड़ रहा है| यानि इनका आइडियोलॉजिकल तरकस व् उस पर विश्वास किसानों ने इस स्तर तक दरका दिया है|
वाह रे शिवजी रुपी किसान (मैं नहीं कहता बल्कि यही कहते-लिखते आए हैं कि किसान तो भोला है, शिवजी का रूप है), जब तू तीसरी आँख खोले तो कौन ब्रह्मा, कौन विष्णु टिक ले तेरे आगे|
खोखले हो चुके हैं यह, बस जोर लगा के किसान का साथ दे दो; अन्यथा वरना अपने ही बच्चों को पकड़वाने-छुड़वाने का खेल झेलते रह जाओगे|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday 9 October 2021

भक्तो तुम समझे नहीं, आओ तुम्हें माइथोलॉजी की भाषा (जो तुम्हें सबसे ज्यादा समझ आती है) में समझाता हूँ कि दिल्ली के बॉर्डर्स पर खालिस्तानी या आतंकी नहीं अपितु खुद शिवजी भोळा तीसरी आँख खोले बैठा है!

माइथोलॉजी के अनुसार जब ब्रह्मा-विष्णु से सृष्टि सम्भलनी बस से बाहर की हो जाती है तो शिवजी उतरते हैं मैदान में| और पिछले दस महीने से किसान (तुम्हारे ही अनुसार शिवजी की जटाओं से निकले हुए) रुपी शिवजी तीसरी आँख खोले तुम्हें चेता रहा है, तुम्हें समझा रहा है| समझ जाओ, क्यों तांडव करवाओ हो|

अपनी कमजोरी समझो, तुम चीजों को आर्डर में रखने की कैपेसिटी नहीं रखते; यह कैपेसिटी शिवजी की है; तुम्हारे अनुसार उसकी जटाओं से जन्मों की है; और उनकी सुन लो| जिसका काम उसको साजे, के तहत पीछे हटो और शिवजियों को देश को आर्डर में करने दो| खामखा जिद्द पे अड़े हो कि नहीं आर्डर में भी हम ही रखेंगे; अरे भाई जब जन्मजात तुम में यह गुण है ही नहीं तो क्यों देश का रायता सा फैला रखा है?
विशेष: यह पोस्ट सिर्फ अंधभक्तों को उन्हीं की भाषा में समझाने हेतु है; बाकी सामान्य लोग तो पहले से ही समझे हुए हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक

 पुरखा या बाप बदलना कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल है क्या?:

20-25 साल पहले के जाट इतिहास लेखकों की किताबें उठा के देखो तो हर दूसरे ने जाट का जन्म शिवजी की जटाओं (हरयाणवी शब्द इंडी से जैसे कोई इंडिया शब्द को हिंदी या हरयाणवी का क्लेम कर दे; यह तो स्टैण्डर्ड हैं इन इतिहास लेखकों के) से लिखा हुआ है| 2014 में जब से यह सरकार आई है किसी ने जाटों को रामायण के रघुवंश (वास्तव में श्रीन्गु ऋषि के दत्तक पुत्र) के वंशज बताना शुरू कर दिया है किसी ने महाभारत के चन्द्रवंश (वास्तव में व्यास ऋषि के दत्तक पुत्र) से तो किसी ने यदुवंश से| एक बैरी तो 26 सितंबर 2021 की मुज़फ्फरनगर रैली में कश्यप ऋषि से ही जोड़ रहा था|
भाई, अगर माइथोलॉजी में ही बाप ढूंढने हैं तो शिवजी पे ही टिके रहो ना? कम-से-कम ब्रह्मा-विष्णु-महेश की तिगड़ी में शिवजी के डायरेक्ट वंश तो कहला सकते हो? ब्रह्मा, ब्राह्मणों का; विष्णु, बनियों का और शिवजी, जाटों का|
अब माइथोलॉजी यही तो कहती है कि ब्रह्मा-विष्णु से जब संसार नहीं संभलता तो शिवजी को तीसरी आँख खोलनी पड़ती है| और शिवजी बैठा है पिछले 10 महीने से दिल्ली के बॉर्डर्स पर तीसरी आँख खोले व् इन ब्रह्मा-विष्णुओं के वंशों को ठीक करने कि या तो यह अपना हगा हुआ संगवा लो नहीं तो शिवजी का तांडव देख, बुगटे भर-भर उल्टा खाओगे इसको यानि 3 काले कृषि कानूनों को|
कोई कहेगा कि जी राम, पाण्डु-धृतराष्ट्र, कृष्ण तो शिवजी से नीचे की पीढ़ी के हैं तो यह भी थारे ही हुए; अच्छा ऐसा है तो फिर इनको ऊपर शिवजी से जोड़ के कहाँ दिखा रहे हो? थम तो इनको कश्यप ऋषि के जरिये ब्रह्मा से जोड़ रहे हो?
और इसीलिए जरूरी है कि इस माइथोलॉजी से या तो जुडो मत अन्यथा इतनी हंसी भी मत पिटवाओ कि 20-25 साल पहले तक शिवजी थारा बाप था और 2014 के बाद से शिवजी को ही छोड़ बाकी सारी माइथोलॉजी थारी माँ-बाप बनी फिरै| इसीलिए 35 बनाम 1 झेल रहे हो|
कोई ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री को जोड़ के उनके माँ-बाप ढूंढ के दिखा दो माइथोलॉजी में; थारै जूत से मारेंगे; बने फिरें धर्मांध| पुरखा या बाप बदलना कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल है क्या; जो तुमने इनको इतनी छूट दे रखी कि यह मंडी के भाव की भांति थारे माँ-बाप बदल देवें और थम धर्म-धर्म खेलते रहो?
थारे से तो थारे 1875 के पुरखे भले थे, जो इनसे "जाट जी", "जाट देवता", "किसान राजाओं का राजा होता है" (रिफरेन्स: सत्यार्थ प्रकाश) तो लिखवा-कहलवा लिया करते थे; वह भी 99% ग्रामीण व् तुमसे कई गुना कम पढ़े-लिखे होते हुए|
सोचो ऐसा क्या था? वह था आपस में सरजोड़ का करिश्मा; और थम, थम चाल रे सरफोड़ पे| क्योंकि उन्होंने "दादा खेड़ों" के जरिए थारे पुरखे सदा अपने पास रखे| जब थारे पुरखे निर्धारित कर गए कि हम इन दादा खेड़ों में बैठे; चाहे हम शिवजी थे,चाहे हम राम थे, कृष्ण थे या कोई अन्य| क्यों म्हारे पै रोळा मचा रहे? हम सारे इस धोळे बाणे (रंग) वाले "दादा खेड़े" में मरे बाद सब एक शामिल हो जावें हैं; इसीलिए इनमें मूर्ती भी नहीं रखनी ताकि थमने कोई फंडी हर रोज नया बाप ना पकड़ा जा| और थम कहो हो अपने आपको आधुनिक व् तथाकथित पढ़े लिखे; अपने पुरखे व् वंश संभालने आते कोनी|
विशेष: यह पोस्ट सिर्फ अंधभक्तों को उन्हीं की भाषा में समझाने हेतु है; बाकी सामान्य लोग तो पहले से ही समझे हुए हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Khapratey (खापरते)!

(Literary Concerts of Khap-Kheda-Khet Kinship)


खापरते, उज़मा बैठक की एक कोशिश है हमारे ऐतिहासिक खाप-खेड़ा-खेत कल्चर की बुनियाद रहे, सुसुप्तप्राय या कहिए लुप्तप्राय हो चले "कात्यक न्हाण" व् "फागण गाण" के कल्चर व् विरासत को आधुनिक व् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने लायक ऐसे फॉर्मेट में लाने की, कि जिनको मनाने में इस किनशिप का ग्रामीण-शहरी-NRI बराबर से एक फिट महसूस करे| व् नई पीढ़ी इनमें "लिटरेचर फेस्टिवल" का वह आभाष व् अभिमान ले सके जो किसी भी अन्य वर्ल्ड स्तर के ऐसे फेस्टिवल्स में होता है| यह साल में दो बार 9-9 के सेट में मनाने का विचार है, जो कि इस प्रकार है:

a) कात्यक न्हाण खापरते (Concerts):
i) पहला खापरता - दादा नगर खेड़ा मेहर द्य्न: वर्ण-जाति भेद व् मूर्ती-पूजा से रहित, मर्द-प्रतिनिधि से रहित, 100% औरत की अगुवाई की धोक-ज्योत के आध्यात्म की संतुति!
ii) दुज्जा खापरता - सर्वखाप शौर्य द्य्न: विश्व की सबसे प्राचीन सोशल सिक्योरिटी व् सोशल इंजीनियरिंग संस्था व् सिद्धांत की अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में विवेचना!
iii) तीज्जा खापरता - गैर-वर्णीय आराध्य द्य्न: इस सभ्यता में पाए जाने वाले वर्णवाद से रहित तमाम आध्यातमों की विवेचना!
iv) चौथा खापरता - उज़मा लिंग संवेदना द्य्न: खाप-खेड़े-खेतों के कल्चर में लिंग आधारित संवेदना के तमाम प्राचीन सिद्धांतों व् पहलुओं का अवलोकन!
v) पाचमा खापरता - उज़मा कारोबार संवेदना द्य्न: खाप-खेड़े-खेतों के पुराणे जमानों के कारोबारी सिद्धांत, जो आज भी प्रासंगिक पाए जावैं सैं!
vi) छटा खापरता - सीरी-साझी द्य्न: खाप-खेड़े-खेतों के विश्व-विख्यात सीरी-साझी वर्किंग कल्चर के तमाम पहलुओं की विवेचना!
vii) सातमा खापरता - नैतिक जीवन मूल्य द्य्न: “सामाजिक व् प्रोफेशनल रहते हुए भी निर्विकार सिद्ध-ऋषि बना जा सकता है”, फिलोसॉफी के तमाम पहलुओं पर चर्चा!
viii) आठमा खापरता - सभ्यता रूपांतर द्य्न: उज़मा सभ्यता को आधुनिक आयामों में संजोते हुए नई पीढ़ी में आकर्षक व् गौरवान्वित तौर पर कैसे स्थान्तरित किया जाए!
ix) नौमां खापरता - मिल्ट्री-कल्चर द्य्न: खाप-खेड़े-खेत के गाम-गेल अखाड़ों में सदियों पुराणे मिल्ट्री-कल्चर का अध्यन व् आज की प्रासंगिकता!

यह इस बार 27 अक्टूबर से 4 नवंबर 2021 तक मनाए जा रहे हैं|

b) फाग्गण गाण खापरते (Concerts):
i) पहला खापरता - आत्मिक प्रेम शोहरतें द्य्न: उदारवादी जमींदारी में हुई ऐसी प्रेमी-जोड़ियां जो रूहानी प्यार के लिए मिशाल बनी|
ii) दुज्जा खापरता - उज़मा शाही शौर्य द्य्न: उदारवादी जमींदारी में हुई राजशाही रियासतें, उनके राजा व् महाराजा!
iii) तीज्जा खापरता - उज़मा भाषाएं द्य्न: उदारवादी जमींदारी की धरती पर बोली जाने वाली भाषाओं का उत्थान व् निरंतरता की सुनिश्चितता पर मंथन - हरयाणवी भाषा, पंजाबी भाषा, राजस्थानी भाषा, हिंदी भाषा, उर्दू भाषा, इंग्लिश भाषा|
iv) चौथा खापरता - उज़मा साहित्य द्य्न: खाप-खेड़ा-खेत के वास्तविकता आधारित लेखन, ऐतिहासिक दस्तावेजों व् ताम्रपत्रों, लोक-इतिहास की विवेचना!
v) पाचमा खापरता - कला अर जीवन द्य्न: भित्तिचित्र, बुनकर, धाड़, कृषि से जन्मी कला, सांग-रत्नावली पर कॉन्सर्ट|
vi) छटा खापरता - पुरातत्व विरासत द्य्न: राखीगढ़ी, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, फर्टाइल क्रेसेंट आदि से ले ऐतिहासिक परस-चौपालों, हवेलियों, खेड़ों की इमारतों की आयु व् कलाकृतियों पर दस्तावेजी अध्यन|
vii) सातमा खापरता - उज़मा उजा-ज्यात द्य्न: उदारवादी जमींदारी परिवेश व् कल्चर का विश्वस्तरीय बसाव व् फैलाव!
viii) आठमा खापरता - राजनैतिक सत्ता द्य्न: उदारवादी जमींदारी से निकला-बना राजनैतिक इतिहास, इसके पड़ाव व् बुलंदियां!
ix) नौमां खापरता - उज़मा परवार मिलण द्य्न: उज़मा बैठक के diaspora का आपसी परिचय व् मिलण|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday 7 October 2021

जैसे तुम्हारे पुरखे 1875 में थे, वैसे बन जाओ; अगर किसान आंदोलन का सुगम व् जल्द हल चाहो!

यह तुम्हें "जाट जी", "जाट देवता", "किसान राजाओं का राजा होता है" तभी तक लिखेंगे जब इनको लगेगा कि तुम तुम्हारे सन 1870-1875-1880 वाले जमानों वाले पुरखों की भांति स्वछंद हो, निर्भीक हो, पाखंड-मुक्त हो, मूर्ती-पूजा रहित हो| जब-जब इसके विपरीत अवस्था होगी, यह तुम्हारी यही दशा करेंगे, तुमको यही ट्रीटमेंट देंगे| जितना जल्दी समझ जाओ, उतना बेहतर|

आज इनके ढोंग-पाखंड-आडंबर-मिथक-कथाओं से बाहर आ जाओ; कल ही 3 कृषि बिलों पर कार्यवाही पाओ| वरना तो तुमको यह अपनी मिथक कथा-कहानियों के जरिए घेर कर इनके उस कटखड में ले आए हैं, जिसमें फंसे को यह शूद्र कहते हैं| और इनके अनुसार शूद्र का कमाया बलात हर लेना, उसको मार देना, उसकी औरतों को लूट लेना; इनके वर्णवादी सिद्धांतों में अपराध नहीं अपितु इनका अधिकार लिखते-बोलते हैं ये| और यह अधिकार तुमने खुद ही रिफल-रिफल में गंवा दिया है, खुद को पुरखों की लाइन से उतार; इस कटखड में पैर में फंसा कर| अपने पुरखों की भांति अगर आधे भी स्वछंद हो जाओ तो "तेल देखो और तेल की धार देखो"| पुरखों की तरह राजाई अंदाज, देवताई आभा व् जाट जी वाले तेवर तज के फिर तो रहे इनके पाखंडों के वशीभूत हो शूद्र बने तो किधर से सुने लेंगे इतनी सहजता से यह थारी बात?
लखीमपुर खेरी में मरने वाले सिख बेशक हों; परन्तु अल्पसंख्यक होने के चलते यह इनको भी इंसानों में नहीं गिनते| यह जो कहते हैं ना कि फलां धर्म वाले इतने प्रतिशत हुए तो तुम्हें दबा लेंगे; दरअसल यह तुमको खुद के बारे बता रहे होते हैं, और दबाए जाने का प्रैक्टिकल दिल्ली बॉर्डर से फैलता-फैलता पिछले 10 महीने में लखीमपुर पहुँच चुका|
1870-1875-1880 वाले थारे पुरखे 99% ग्रामीण थे, आज की अपेक्षा अक्षरी ज्ञान में थारे तैं कई गुणा कम पढ़े-लिखे थे; परन्तु फिर भी इनसे "जाट जी, "जाट देवते" व् "किसान राजाओं का राजा होता है" लिखवा लिया करते थे? किस बात के दम पर, विचारो जरा! आज वही चाहिए है!
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday 3 October 2021

स्वघोषित "कंधे से ऊपर मजबूतों" की मजबूती तोड़ता किसान आंदोलन!

मनोहर लाल खट्टर का 2015 का गोहाणा में दिया वह ब्यान तो याद होगा ही आपको जिसमें महाशय ने तंज कसा था कि, "हरयाणवी कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर होता है"| इसका साफ़ संदेश था कि हरयाणवी लठैत होते हैं, झगड़ालू होते हैं|

बस क्या खट्टर बाबू? हरयाणवी किसानों ने अपनी अति-उदारवादिता (जिसको तुम कंधे से ऊपर की कमजोरी कहते हो) वह थोड़ी सी दुरुस्त कर बैलेंस-लाइन (fair and affirm) पर क्या कर ली; चले खुद लठैत बनने?
ऐसा है थोड़ा संभल के और अपना इतिहास खंगाल के चलियो| तेरे जैसे जब-जब लठ पर आए हैं, हमेशा पलायन ही झेले हैं|
बाकी यह हरयाणा है प्रधान, यहाँ एक कहावत चलती है कि, "जाट को सताया; तो ब्राह्मण भी पछताया" और "जाट के संग आया; तो ब्राह्मण, महर्षि कुहाया"| उदाहरण: पानीपत की तीसरी लड़ाई में ब्राह्मण सदाशिवराव पेशवा की हार सिर्फ इस बात पर हो गई थी कि उसने जाट महाराजा सूरजमल का अपमान कर पानीपत जीतना चाहा था; बाद में उसी पानीपत में घुटने टेक रोया था| तो इस कौम की तो इतनी बिसात है कि इसको किसी को लठ भी मारने की जरूरत कोनी, बस अपनी मेहर की नजर हटा ले उस पर से, तो वह खुद ही गर्त में बैठता चला जाए| और एक ब्राह्मण मूलशंकर तिवारी ने जाटों को सराहा "जाट जी" व् "किसान राजाओं का राजा होता है" लिखा तो जाटों ने इतना सरमाथे लगाया कि उत्तर भारत का सबसे बड़ा महर्षि कुहाता है, आज तक भी|
अब क्या चाहते हो कि अपनी उदारवादिता थोड़ी और टाइट कर दें, व तेरे जैसों की दुकानों से सामान खरीदना छोड़ देवें? सीएम तो भतेरे बने, परन्तु इतना बड़ा गंवार नहीं देखा जिसको जिस पद पर बैठा है उसकी सवैंधानिक मर्यादा का भी भान नहीं| वीडियो में बोलता हुआ ऐसे लग रहा है जैसे कोई सड़कछाप मवाली; यही ट्रेनिंग देती है क्या आरएसएस?
और इस देश में जैसे सविंधान-कानून तो मर ही चुका है, बिक ही चुका है जो अभी तक खटटर की उस वायरल वीडियो का संज्ञान नहीं लिया गया| जरा सोच के देखो जो होती यह वीडियो किसी साधारण जाट की भी (किसी सीएम जाट की तो दूर की बात) ओहो क्या रुदाली विलाप करना था; खट्टर जैसों की जमात से ले सारे मीडिया ने|
बता कर लो बात, जाट के बराबर "पाणी कान के हाथ धोने बैठे है"; न्यूं नी बेरा एक जाट म्हास के ब्यांत जितने बख्त तैं भी लम्बी पुगा दिया करै| वो चुटकुला तो सुना होगा जाट व् लाला वाला; जिसमें दोनों की ठन गई थी कि, "पाणी कान के हाथ धो के पहले कौन उठेगा?" तो खट्टर बाबू इतना जल्दी मत उकतावै, ईबे तो 10 महीने ही हुए हैं, "पाणी कान के हाथ धोने के कम्पटीशन को चलते हुए"|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday 2 October 2021

लाल डोरे व् फिरणी के अंदर की सारी सार्वजनिक इमारतों व् जमीनों को गाम/ठोले का साझा ट्रस्ट/सोसाइटी बना के ग्राम-सभा की पंचायत के जरिए उसको वक्त रहते गाम/ठोले के नाम कर लीजिए!

अन्यथा यह सरकार जो नया भूमि-अधिग्रहण कानून व् लाल-डोरे के अंदर प्रॉपर्टी की पैमाइश का सगूफा लाई है इसके तहत और तो छोडो आपके गाम की 100% आपके पुरखों व् आपकी मेहनत-पैसे से आपकी जमीनों पर बनी परस/चौपाल/चुपाड़/थयाई तक को सरकारी खाते चढ़ाने वाली है| और अगर यह इमारतें गाम की सरकार यानि आप लोगों के कण्ट्रोल से निकल सरकारों के हाथों चली गई तो इनमें पंचायत करने, यहाँ तक कि बारात ठहराने को परमिशन हेतु BDO दफ्तरों, पंचायत सेक्रेटरियों के चक्कर काटने पड़ा करेंगे|

ऐसे ही परस/चौपाल के अतिरिक्त गाम की फिरणी व् लाल-डोरे में जितनी जमीनें या प्रॉपर्टी गाम के आपसी समझ वाले साझले कल्चर के तहत साझले प्रयोग/इस्तेमाल हेतु चली खाली या बेनामी आ रही हैं (हालाँकि वह आपसी समझ से गाम की प्रॉपर्टी हैं) उनको भी ऐसे ट्रस्ट/सोसाइटी बना-बना गाम/ठोले के नाम कर लीजिए| कम-से-कम उन जमीनों को तो जरूर कर लीजिये जो गैर-कानूनी तरीके से किसी ने कब्ज़ा नहीं कर रखी हैं, या जो आसानी से कब्जा छोड़ सकता हो| अन्यथा बधाना, जिला जिंद (जींद) में जैसे एक परस पर रोला हुआ था व् वह बाद में केस लड़ के सार्वजनिक सम्पत्ति के तहत गाम/ठोले के नाम करवाई गई (क्योंकि जब पटवार खाने से उसकी पुरानी फर्दें निकलवाई गई तो वह जमीन उस ठोले के नाम मिली); ऐसे-ऐसे केस फिर गाम-गाम सामने आएंगे|
इस नोट के पाठकों से अनुरोध है कि इसको गाम-गाम तक फैलाएं और खासकर उन-उन गाम वाले इसपे जरूर से जरूर एक्शन लेवें; जो शहरों की परिधियों में आ चुके हैं या आने वाले हैं| क्योंकि आप वाली ऐसी प्रॉपर्टियों को तो फिर NGOs के जरिए मैनेज करने हेतु देने के भी प्लान सुनने में आ रहे हैं| और NGO के तहत कैसे-कैसे हमारे कल्चर के दुश्मनों को यह दी जाएँगी, आप कल्पना कर लें| यह सरकार, ना आपका कल्चर समझती है ना कस्टम; इसको आप में सिर्फ गुलाम नजर आ रहे हैं| और इसमें कोई जाति व् वर्ण के आधार पर रियायत के चक्कर में मत रहना; सबकी ऐसी प्रॉपर्टीज लपेटी जानी हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक