Monday 30 August 2021

कोई कस्सी से हमला करेगा तो पुलिस क्या करेगी?:

ये जो हर टीवी पे यह कहता घूम रहा है कि, "कोई कस्सी से हमला करेगा तो पुलिस क्या करेगी?" कोई इन महाशय से पूछने वाला हो कि "कोई को" कस्सी उठाने की नौबत ही क्यों आई? क्या वह शांत खड़ी या बैठी पुलिस पे कस्सी ले के दौड़ा था? जवाब है नहीं| अपितु पुलिस उसके पीछे इतना हाथ धो के पड़ी कि वह सड़क से खेतों में भी उतर गया तो भी पुलिस ने पीछा नहीं छोड़ा| तो ऐसे में कोई क्या करेगा, उसको आत्मरक्षा में जो हाथ आया उठा लिया|

उसके पीछे जिस तरीके से पुलिस पड़ी थी उस पूरे वाकये को कोई देखे एक बार, ऐसा लगेगा कि जैसे पुलिस को ऊपर से संदेश हुआ हो कि इतनी बर्बरता तक पीटना है कि वह हिंसक होवें| फिर भी टेक रह गई, वरना हिंसक होना क्या होता है इसका "महम काण्ड" गवाह है; जब मोखरा गाम के लोगों ने 3 हजार पुलिस को इतना बेरहमी से पीटा था कि आधे से ज्यादा पुलिस को तो सिविल के कपड़े पहन-पहन मौके से बच के निकलना पड़ा था|
धन्य हो सरदार बलबीर सिंह राजेवाल जी, जिन्होनें अबकी बार किसानों "किसी भी हालत में हिंसक नहीं होने का" ऐसा अचूक अस्त्र दिया हुआ है कि किसान उसको शिरोधार्य करके चल रहे हैं व् इसीलिए इन फंडियों की हर बर्बर चाल नेस्तोनाबूत हो रही है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बसताड़ा टोल प्लाजा, करनाल पर हरयाणा पुलिस के किसानों पर निर्मम एक्शन के इर्दगिर्द घूमते पहलु!

1 - पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट की आई टिप्पणी, "जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 2 हफ्ते में सरकारों से जवाब माँगा है कि 9 महीने लम्बे रोड-जाम क्यों"? - लगता है बसताड़ा टोल के जरिये कोर्ट के लिए जवाब तैयार करने की कोशिश की गई थी कि बर्बर हमला करके, किसानों को हिंसक करवाओ ताकि हिंसक होने का हवाला दे कर सुप्रीम कोर्ट से धरने उठवाने का ग्राउंड तैयार हो सके| परन्तु धन्य हैं किसान जिन्होनें धैर्य दिखाया व् हिंसक नहीं हुए| और उल्टा हरयाणा सरकार को ही आलोचना झेलनी पड़ रही है|


2 - हरयाणा सरकार ऐसी कृत्रिम हिंसाएं घड़ के राज्य में पंचायत व् जिला परिषदों के चुनावों को और आगे टहलाना चाहती हो|

3 - 5 सितंबर को होने वाली मुज़फ्फरनगर किसान महापचांयत को बिगाड़ने हेतु खापों में लड़ाई लगवाने की कोशिश फ़ैल होने के बाद यह बौखलाए व् कुछ नहीं सूझा तो इनको लगा होगा कि हिंसा करवा दो, शायद कुछ इनके मनमुताबिक हाथ लग जाए| परन्तु इसमें भी कुछ नहीं मिला|

4 - जैसा कि बसताड़ा काण्ड के बाद खट्टर व् दुष्यंत दोनों पंजाब के आग्गुओं को घेर रहे हैं तो यह पंजाब किसान यूनिट्स को प्रेशर में लेना चाहते हों या हरयाणा की किसान यूनियनों में बहम डाल उनको पंजाब यूनिट्स से लड़वाना चाहते हो| यह प्लान सीधा अमितशाह का है, जिसको एग्जिक्यूट करने की यह कोशिश हुई है| क्योंकि हरयाणा का भी एक आधा किसान नेता अभी भी अमितसाह वाली भाषा बोल रहा है|

5 - टीवी-मीडिया के जरिए, किसानों के खिलाफ कृत्रिम हिंसा के सबूत घड़ना व् उनको सुप्रीम कोर्ट में रखने की मंशा होना - जैसे कि दुष्यंत चौटाला का बार-बार हर टीवी चैनल पर यह कहते हुए घूम जाना कि, "कोई कस्सी से हमला करेगा तो पुलिस क्या करेगी?" जबकि इसमें वह इस बात को दरकिनार कर रहे हैं कि किसान को कस्सी उठाने की नौबत क्यों आई? उस पूरे इंसिडेंट में पुलिस उस किसान के बिल्कुल इस हद तक हाथ धो के पीछे पड़ी कि वह सड़क से खेतों तक में उतर गया, फिर भी पुलिस उसके पीछे लगी रही तो और इससे क्या करता वो? इसका मतलब पुलिस चाह रही थी कि कोई तो उनपे जवाबी हमला करे तो उस किसान को आत्मरक्षा हेतु जो मिला वो उठाना पड़ा|

खैर जो भी हो, धन्य हैं किसान व् किसान आग्गु जो इतना धैर्य धारे चल रहे हैं कि फंडियों की इतनी बर्बरता के बाद भी अहिंसा की लाइन से विचलित नहीं हुए व् इस बार भी इनका यह पैंतरा दोगुनी आत्मशक्ति के पलटवार से इनके मुंह पे ही दे मारा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ऐसा कल्चर नार्थ-वेस्ट इंडिया का तो बिल्कुल नहीं हो सकता!

 1 - कोई लड़का गाम-गुहांड की नहाती हुई लड़कियों के कपड़े उठा ले जाए, और उस पे भी उसको आदर्श माना जाए; ऐसा कल्चर नार्थ-वेस्ट इंडिया का तो बिल्कुल नहीं हो सकता|

2 - कोई भाई, अपनी सगी बहन को तथाकथित प्यार के नाम पर अपनी बुआ के लड़के के साथ ब्याह हेतु भगा दे, और उस पे भी उसको आदर्श माना जाए; ऐसा कल्चर नार्थ-वेस्ट इंडिया का तो बिल्कुल नहीं हो सकता|
3 - कोई पंचायती, काके-ताऊओं के लड़कों का जमीनी विवाद सुलझवा के आने की बजाए, उनमें इतना तगड़ा झगड़ा लगवा आए कि उनके खड़े लठ बजे, और उस पे भी उसको आदर्श माना जाए; ऐसा कल्चर नार्थ-वेस्ट इंडिया का तो बिल्कुल नहीं हो सकता|
4 - कोई बॉयफ्रेंड, पहले अपनी गर्लफ्रेंड से खूब प्यार की पींघें बढ़ाए व् बाद में उसको धोखा दे किसी और से ब्याह रचा जाए, और उस पे भी उसको आदर्श माना जाए; ऐसा कल्चर नार्थ-वेस्ट इंडिया का तो बिल्कुल नहीं हो सकता|
5 - कोई लड़का जिसकी बहन का भरे दरबार चीर-हरण हो रहा हो और वह वहीँ की वहीँ कुकर्मियों के थोड़बे तोड़ने की बजाए, उस बहन को मात्र साड़ी औढ़ा के वहां से खिसक आवे, और उस पे भी उसको आदर्श माना जाए; ऐसा कल्चर नार्थ-वेस्ट इंडिया का तो बिल्कुल नहीं हो सकता|
और जो ऐसा मानते हों, भगवान करे उनके घर ऐसे ही लड़के पैदा होवें!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 28 August 2021

खाप गणतांत्रिक (republic) सिस्टम है या लोकतान्त्रिक (democracy)?

लेख का निचोड़: खापें लोकतांत्रित प्रणाली आधारित होती हैं गणतांत्रिक नहीं; जैसा कि इनको गणों से लगभग हर इतिहासकार जोड़ के लिखता है|


आइए इसको किसी भी खाप-पंचायत के "आदर्श पारम्परिक आयोजन व् समापन" से समझिए:

1 - दो पक्षों का झगड़ा हुआ, एक ने खाप को चिट्ठी लिखी, खाप ने चिट्ठी पे दूसरी पार्टी को आगाह किया व् चिट्ठी लिख पंचायत का आह्वान किया|
2 - पंचायत इक्ट्ठी हुई, एक पंचायत संचालक (coordinator) चुना गया, उसको preside करने वाला अध्यक्ष चुना गया|
3 - फिर मामले के हिसाब से सामाजिक एक्सपर्ट लोगों की 5 सदस्यों की सोशल जूरी (social jury) यानि पंचायत चुनी गई|
4 - फिर सभा में उपस्थित जनसभा से पाँचों पंचों बारे सहमति ली गई, एक भी सदस्य पे एक भी ऑब्जेक्शन हुई तो उस सदस्य को जूरी से निकाल दूसरा लिया जाता है|
5 - संचालक बारी-बारी दोनों पक्षों की बातें व् दलीलें सभा को सुनवाता है; जूरी दलीलें नोट करती जाती है| कई केसों में संचालक व् अध्यक्ष एक ही पाया जाता है|
6 - इसके बाद 5 सदस्यों की जूरी एकांत में जाती है व् आपसी मंत्रणा से केस का फैसला निर्धारित करती है|
7 - preside कर रहा व्यक्ति फैसला सुनाता है (ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया आदि में जज, सोशल जूरी का फैसला सुनाता है; सनद रहे विकसित देशों में सिविल मुकदमों यानि जिसमें दोनों पार्टी समाज से ही हों) में जज फैसले नहीं करते) व् उपस्थित सभा की सहमति असहमति मांगता है|
8 - सहमति हुई तो केस बंद| एक भी ऑब्जेक्शन हुई तो पंचायत ऑब्जेक्शन में आए बिंदुओं के मद्देनजर केस को फिर से स्टडी करती है| यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक सारी ओब्जेक्शन्स हल ना कर दी जाएं|

अब आते हैं गणतंत्र व् लोकतंत्र की परिभाषा पर:

गणतंत्र: जिसमें मेजोरिटी के रुझान के हिसाब से फैसला होता है व् माइनॉरिटी को दरकिनार किया जाता है|

लोकतंत्र: जिसमें समाज के एक मनुष्य को उसकी न्यूनतम इकाई मान के व् माइनॉरिटी समूहों के मानवीय अधिकारों की मेजोरिटी के समान रक्षा करते हुए; मेजोरिटी से फैसला लिया जाता है| यानि एक भी ऑब्जेक्शन होगी तो उसको सुना जाएगा; गणतंत्र की तरह मेजोरिटी का हवाला दे दरकिनार नहीं किया जाएगा| जैसे कि ऊपर बताया हर खाप-पंचायत के "आदर्श पारम्परिक आयोजन व् समापन" का तरीका|

लेख का उद्देश्य: खापों को लगभग हर इतिहासकार ने यह बारीक़ पहलु नोट व् address किये बिना गण व् गणतंत्र से जोड़ा है| जबकि व्यवहारिक तौर पर देखा जाए तो खाप का हर एक गाम उन्मुक्त स्वछंद लोकतंत्र होता है, गणतंत्र नहीं| गणतंत्र होते हमारे यहाँ तो पूरे भारत में गरीब-अमीर का सबसे कम अंतर खापलैंड पर नहीं होता|

ताऊ देवीलाल ने शायद इस व्यवस्था को सही तरीके से समझा था इसीलिए वह यह नारा देते थे कि, "लोकराज, लोकलाज से चलता है"| लोकराज यानि लोकतंत्र|

गणतंत्र, भीड़तंत्र होता है, जबकि लोकतंत्र सभ्य कुलीन समाज की निशानी| आजकल भीड़तंत्र कौन है, बच्चे-बच्चे को भान है; तो अपनी वास्तविक व् व्यवहारिक स्वभाव व् भावना को पहचान के ही इन लोगों से खुद को जोड़ें| वरना पता लगा तुम थे तो लोकतान्त्रिक परन्तु फंडियों के तुम्हारे ऊपर लगाए गणतंत्र के लेप में ही भटकते रहे ताउम्र|

नोट: खाप सिस्टम में खामियां हो सकती हैं, परन्तु पूरी की पूरी थ्योरी अपना मूल नहीं बदल सकती| तमाम ऐसी पंचायतें जो ऊपर लिखित प्रोसेस फॉलो करते हुए नहीं होती; वह निसंदेह ही खाप पंचायत नहीं होती|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 27 August 2021

शामलाती-पंचायती जमीनें पुरखों ने अडानी-अम्बानी को देने के लिए नहीं छोड़ी थी!

अपितु गांव के साझले कामों के लिए छोड़ी थी| अन्यथा इतने ही भूखे व् स्वार्थी होते तो वह पुरखे लाल-डोरे से बिलकुल सटा के खेत काट लेते|


यह छोड़ी गईं थी गोरों पे पशु खड़े करने; गड़रियों की भेड़-बकरियां चर सकें टहल सकें इसलिए बणी छोड़ी गई व् गाम के चारों तरफ हरियाली बनी रहे इसीलिए छोड़ी गई; खलिहान डालने के लिए जमीनें छोड़ी गई, कुम्हारों के आक व् कच्चे भट्ठे लगाने व् चाक के लिए कच्ची मिट्टियाँ उपलब्ध रहें उसके लिए छोड़ी गई, गाम में अपने कल्चर-कौम की 36 बिरादरी का कोई नया जनसमूह बसने आवे तो उसको बसाया जा सके उसके लिए छोड़ी; साझले कुँए-जोहड़ तालाबों के लिए छोड़ी गई|

अत: कल जो हरयाणा विधानसभा में यह कानून पास हुआ है जिसमें यह सरकार बड़ी बेशर्मी से यह कह रही है कि किसानों की जमीनें नहीं ले रहे; परन्तु गामों के साझले कामों में काम आने वाली यह सारी जमीनें तो हड़पने जा रहे हो ना इस कानून के जरिए?

ऐसे में हर गाम की ग्राम-सभा को साझी सहमति से प्रस्ताव पास कर पंचायत सेक्रेटरियों, पटवारियों आदि को ऊपर पहले पहरे में लिखित कारण देते हुए; कुछ नए कारण जैसे कि हम यहाँ बच्चों-महिलाओं के पार्क बनाएंगे, आर्गेनिक फल-सब्जी के पार्क बनाएंगे आदि बोल के सारी शामलात पड़ी जमीनों को अपने गाम के इन कामों के नाम से बुक कर लेना चाहिए, वरना यह बेशर्म पता नहीं किस टाइप के लोगों तो इनपे बसायेंगे व् कैसी योजनाएं यहाँ लगाएंगे| उद्देशय सिर्फ और सिर्फ इन सारी पंचायती जमीनों को हड़पने का है| आपके पुरखों के बनाए इतने सुंदर इको व् पर्यावरण सिस्टम को ध्वस्त करने का है|

इसमें हो सके तो तमाम किसान यूनियनें व् खापें भी गाम-गाम जागरूकता अभियान चलावें; वरना सब बर्बाद कर देगी यह फंडियों-फलहरियों की सरकार| यह बड़ा आसान तरीका निकाला कि किसान तो जमीनें नहीं देवें या विरोध झेलना होगा; इसलिए चुपचाप गामों की यह खाली पड़ी शामलातें बाँट तो अडाणी-अम्बानी को इस नए कानून का सहारा ले कर| वाह रे फंडियों, थारे कंधे से ऊपर की मजबूती के काइयाँपन के कारनामे!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday 26 August 2021

सुनी है दुनियां में सबसे ज्यादा "अहिंसा" जैन धर्म पालता है!

तो फिर यह गौतम अडानी व् अमित शाह को इसकी शिक्षा नहीं दी गई या यह दोनों जैन धर्म की अवज्ञा कर चुके हैं? सुनी है मोदी भी छुपे रूप से जैनी ही हैं (हिन्दुओं का मूर्ख बनाने को इस मुखौटे में छुपा बैठा बताया अन्यथा चतुर्मास के व्रत भी रखता है; जो जैन समाज का "रोजे" रखने जितना पक्का नियम है)|


एक तरफ तो जैन धर्म की इतनी विशालकाय उदारता कि सुनते हैं जीवों-कीटों पर जुल्म ना हो इसलिए यह खेती नहीं करते, श्वास के साथ मुंह-नाक के जरिये कोई कीट भीतर ना चला जावे व् जुबान से कोई वाक्-हिंसा ना हो जावे इसलिए मुंह पर पट्टी रखते हैं| यानि संदेश है कि शारीरिक व् मानसिक किसी भी प्रकार की हिंसा को जैन धर्म पनाह नहीं देता|

परन्तु दूसरी तरफ जैन धर्म से आने वाले अडानी-शाह ऐसी मानसिक हिंसा करते ही जा रहे हैं कि ना 9 महीनें से बैठे किसानों की सुन रहे हैं वरन और नए जनविरोधी, किसान-मजदूर विरोधी तानाशाही के कानून पास करवाने में वर्णवादी मानसिकता वाले फंडियों के साथ ताल ठोंके हुए हैं?

क्या इससे जैन धर्म की आभा आने वाले वक्तों में धूमिल नहीं होगी? जानते हैं कि आपके तरीकों से बेपनाह धन जोड़ा जा सकता है; परन्तु उन तरीकों में मानसिक हिंसा, मानसिक तानाशाही कब से शामिल होने लगी; जो कि अनएथिकल कैपिटलिज्म का धोतक है? हम तो आपकी शिक्षाओं व् सिद्धांतों को खाप-खेड़े-खेत वालों की तरह एथिकल कैपिटलिज्म वाले मानते थे|

विशेष: यह मेरी जैन धर्म के बुद्धिजीवियों से अपील है, आपका अनादर नहीं| हो सके तो कृपया इन महानुभावों को रुकवावें!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

किसान से बड़ा कोई वास्तविक योगी-तपस्वी नहीं!


किसान आंदोलन के 9 महीने पूरे होने पर विशेष!
कितने प्रतिशत योगी-तपस्वी लगातार 9 महीने शांतचित ऐसे तपते हैं जैसे दिल्ली के बॉर्डरों पर पिछले 9 महीनों (26 नवंबर 2020 से ले आज 26 अगस्त 2021) से किसान तप रहे हैं? खुले आसमान तले तपस्या करते योगी जितना तप-कष्ट तो किसान खेतों में दिन-रात गर्मी-सर्दी-बरसात-ओले-आंधी-तूफानों से लड़ते हुए ही कर लेता है परन्तु इन 9 महीनों से दिल्ली बॉर्डर्स पर जिस तरीके से किसान वास्तविक योगी बन के बैठा है क्या ही कोई असली वाला करता होगा|
वह औरत-मर्द ज़रा ध्यान देवें जो कल अगर किसान यह आंदोलन जीत के जाते हैं तो अंधविश्वासों व् अंधश्र्द्धाओं में इसकी सफलता की वजहें ढूंढ रहे होंगे| अपने इन मर्दों-बीरों की इस तपस्या को बाद में फंड-पाखंडों की देन बता के इसको मिटटी में रोलते मत फिरना|
ध्यान रखना, यह जो फलहरी-फंडी आज किसानों के लिए लंगर तक लगवाने के नाम पर दड़ मारे पड़े हैं; कल जब किसान की जीत होगी तो फलाना चमत्कार, धिकड़ा आशीर्वाद बताते टूलेंगें| यही करते आए हैं ये, तपस्या-मेहनत आप लोगों की, क्रेडिट धरवा लेंगे किसी चमत्कार-आशीर्वाद के नाम पर; अबकी बार इनको यह क्रेडिट नहीं लूटने देना है|
बेशक आध्यात्म होता है व् उसकी शक्ति भी होती है और पिछले 9 महीने से किसानों ने शांतचित रह कर जिसका प्रदर्शन किया है वह यह आध्यात्म ही है, इसकी शक्ति ही है| तो कल को इसका क्रेडिट अपने इस आध्यात्म व् शक्ति को ही रखना; तभी वाकई में शत-प्रतिशत सफलता आपको साजेगी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday 25 August 2021

किसान आंदोलन को इसके अंजाम तक पहुंचाने हेतु अगली कूटनैतिक डॉज क्या चाहिए होगी?

अगर सामाजिक व् आर्थिक उन्नति चाहिए तो अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा को साइड में रखना ही होगा| जिनको इनको साइड में रखना किसी धर्म के खतरे में आ जाने जैसा लगता हो तो वह "सन 1789 की फ़्रांसिसी क्रांति" व् 15वीं सदी की "यूरोप की ब्लैक प्लेग त्राशदी" पढ़ लें| इन दोनों घटनाओं के बाद भी यहाँ ईसाई धर्म ही है, कहीं कोई धर्म खत्म नहीं हुआ| हाँ, जो खत्म हुआ वह हुआ अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा; जिससे लोग बाहर आये व् सामाजिक व् आर्थिक तौर पर आज़ाद बने|

इंडिया के खापलैंड क्षेत्र में लोग खाप-खेड़े-खेत की फिलोसॉफी के चलते सदियों से यह आज़ादी भोगते आ रहे थे; बस अभी मात्र डेड-दो दशक में जब से अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा की बेपनाह डॉज पब्लिक को दी गई तब से यहाँ भी लोग अपने सांझे मुद्दे भूल बस एक दूसरे में दुश्मन देखने लगे हैं व् कहीं 35 बनाम 1 तो कहीं ओबीसी बनाम फलाना आदि में उलझे चल रहे हैं|
5 सितंबर की मुज़फ्फरनगर महापंचायत से इस तथ्य का ऐलान हो जाना चाहिए कि सामाजिक व् आर्थिक आज़ादी की लड़ाईयों से ना कभी कोई धर्म मिटा ना उसपे खतरा हुआ परन्तु जो अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा में डूब भीरु-कायर बने रहे वह अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा बढ़ाने वालों द्वारा लूटे जाते रहे, मानसिक गुलाम व् बंधुआ बनाए जाते रहे| अत: स्पष्ट कहा जाए कि अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा से बाहर आए बिना आर्थिक व् सामाजिक आज़ादी सम्भव नहीं; उसकी पुरखों वाली निरंतरता सम्भव नहीं|
एक संदेश यह भी दिया जाए कि अहिंसा को सबसे ज्यादा सिरोधार्य रखने वाला, जीवों-कीटों के प्रति इतना संजीदा धर्म जो जीव ना मरें इसलिए मुंह पर पट्टी बाँध के चलता है; जुबान से मानसिक हिंसा ना हो इसलिए ख़ामोशी से अनवरत सिर्फ काम करता है; आखिर उसी के धर्म के अडानी-शाह जैसे लोग व्यापार के नाम पर सविंधान से ले कानूनों तक के जरिए उल-जुलूल कानून पास करवा देश-समाज के किसानों-मजदूरों की आवाज की अनदेखी कर मानसिक हिंसा क्यों कर रहे हैं? क्या हुआ आपके धर्म की शिक्षाओं का जिसमें "अहिंसा" हर हाल में पालनी होती है? यहाँ जिस धर्म की बात हो रही है आप समझ ही रहे होंगे| आखिर क्यों इतनी एथिकल वैल्यूज पालने वाले धर्म के लोग भी अनएथिकल तरीकों से देश में ढाँचे से ले व्यापार को बिगाड़ रहे हैं?
क्या इससे अच्छा तो उदारवादी जमींदारों का एथिकल वैल्यू सिस्टम व् एथिकल कैपिटलिज्म नहीं है; जो खाप-खेड़े-खेत की किनशिप पे फलता-फूलता आया; जिसमें कमियां तो हो सकती हैं परन्तु इस स्तर की अमानवता व् अनदेखी नहीं कि अपने ही धर्म-देश के लोग 9 महीने से सड़कों पर बैठे हैं व् किसी को परवाह ही नहीं? क्या विदेशी आक्रांता इनसे भी निर्दयी रहे होंगे?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 22 August 2021

सम्मोहन में लपेटी मार्केटिंग व् मिथ्या आध्यात्म, घरों की उधमिता (entrepreneurship) को खा जाते हैं व् जनता को बड़ी ब्रांड्स की मात्र 'कंज़्यूमर-मार्किट' बना छोड़ते हैं!

निचौड़: उधमिता सिर्फ आपको इकॉनमी नहीं अपितु कल्चर भी बचा कर देती है| अकेले मर्दों के ताश नाश ना कर रहे, लुगाई भी बराबर की आहुति डाल रही हैं| वह कैसे, नीचे पढ़ते चलिए:

आज से 25-30 साल पहले ग्रेटर हरयाणा व् पंजाब का हर ग्रामीण परिवार आधा व्यापारी खुद ही होता था, जो मुख्य धंधे कृषि के समानांतर ऐसी उधमिता करता था कि हर घर के 50% से ज्यादा खर्चे, घर की उधमिता से ही सुलट जाते थे| जैसे कि
मर्द, खाली वक्तों में पटशन (जूट/सणी) के पोड तोड़ते थे| बैठकों-दरवाजों-हवेलियों के आगे बैठ उनसे विभिन्न प्रकार की रस्सियां बुनते/बांटते थे| इससे कृषि से ले डांगर-ढोर व् घर की तमाम तरह की रस्से (मोटे-पतले)-सूतली-ज्योड़ी-नेज्जू-गांडली आदि की जरूरतें घर की घर में पूरी हो जाती थी| बाँट-बाँट रस्से-रस्सियां इतनी खाटें भर लेते थे कि बाजे-बाजे के यहाँ तो चाहे पूरी बारात/झंज रोक लेते; इतनी खाटें होती थी| अब बैठकों-दरवाजों तो छोडो, गाम की परस-चौपाल में खाट इकठ्ठी करनी पड़ जाएँ तो मर हो जाती है| ब्याह-वाणों में तो खाटों की जगह अब लगभग हर दूसरे को गद्दे चाहियें| एक यह उधमिता चली जाने से कितना सारा कल्चर भी इसके साथ या तो चला गया या जा रहा है अंदाजा लगा लीजिये| और यह तो सिर्फ एक उधमिता का उदाहरण है| और आज इसकी जगह किसने ले ली है? सारा खाली वक्त सिर्फ ताश पीटने की बीमारी ने, हर दूसरा इस आदत से ग्रस्त है| इन ताश की महफ़िलों में एक और बीमारी आन पली जो पहले सिर्फ लुगाईयों के बाँटें बताई जाती थी यानि चर्चा-चुगली| बैठे-बैठे आँख-दाड़-दिमाग पिसें जाएंगे कि फलाने के बालक ठीक काम रहे हैं तो क्यों? फलाने का नाश कोडबे सी हो; आदि-आदि|
मर्द ही क्यों, आ जाओ अब औरतों की सुन लो; मर्दों से दो चंदे अगाड़ी बेशक कूद रही हों; पछाड़ी का तो सवाल ही नहीं|
औरतें, खाली वक्तों में चरखे कातती थी, चर्घे भर्ती थी; जिससे सूत तैयार होता था| उस सूत से दरी-खेश-बिस्तरे व् ब्याह-वाणे में काम आने वाले खरड़-पल्लड़ बनते थे| आज अंदाजा लगा लो जब से यह गायब हुए हैं, हर घर पर दरी-खेश-बिस्तरों का कितना अतिरिक्त बोझ बढ़ा है व् ब्याह-वाणे में लगने वाले टेंट-शामियानों का कितना अतिरिक्त खर्च बढ़ा है? जब से मिथ्या आध्यात्म चला है, जरा अंदाजा लगाओ कितने शुद्ध तार्किकता व् हकीकत आधारित लोकगीत, छंद, कविताई गायब हो गई? और इसकी जगह किसने ले ली? हद से ज्यादा तुके-बेतुके चलने वाले टीवी सीरियल्स ने; जिनमें घर की औरतों में थोथे अहम्, रानी-महारानी होने के घमंड भरने के सिवाए धांस भी नहीं होती| तीज-त्योहारों पे इनके पल्टे-कोंचे नहीं चलते बस महारानियों की तरह लिस्ट थमा देती हैं कि जाओ और बाजार से ले आओ| जो देवरानी-जेठानी-ननंद-सासु टोल-के-टोल बैठ आपसी प्यार में चूर चरखे कातती थी; अब टीवी द्वारा परोसी गई झूठी मैथोलोजियों की फ़ोक्की वीरता-महानता भर दिमागों में; एक दूसरी के चोटे पाडती ज्यादा दिखती हैं अन्यथा जोहड़ में आन बड़ी दूसरी भैंस को जैसे भैंस टेढ़ी आँख व् गर्दन करके देखती हैं; यह दशा इनकी लगभग हर दूसरी की हो रखी है|
जबकि यह जो बाजार इन लोगों ने अपने यहाँ उतार लिया है; इनको जरा यह सामान इन तक पहुंचाने वाले घरों की तसवीर दिखाई जाए तो पता लगे इनको कि बहुतेरे तो डबल शिफ्ट करते हैं| आचार जैसे धंधे तो इनकी लुगाईयों ने डाट रखे हैं; वही लुगाई जो घर से बाहर इनको चिढ़ाएँगी कि हमारे तो ये हमारे तो वो; परन्तु घर के अंदर झांकों तो वही औरतें-मर्द फ़टे-पुराने कपड़े डाल कोई आचार डाल रही होगी तो कोई करघे पे जुटा खड़ा होगा|
लगा लीजिए अंदाजा कि कैसे उधमिता का खोना, ना सिर्फ आपकी आर्थिक हैसियत गौण कर देता है अपितु आपकी कल्चरल ताकत भी खा जाता है| हालाँकि परफेक्ट ये भी नहीं, क्योंकि इनकी उधमिता अनएथिकल कैपिटलिज्म वाली है परन्तु इनकी निरंतरता एथिकल कैपिटलिज्म वालों पर उधमिता नहीं करने के चलते भारी पड़ रही है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 20 August 2021

पैसे व् पॉवर से बड़ी होती है unity - किसान आंदोलन ने उदाहरणों समेत इसको साबित करना शुरू कर दिया है!

इसका सबसे बड़ा उदाहरण पंजाब में सेट हुआ है|

किसान आंदोलन शुरू होते ही अम्बानी के जियो व् टावर्स के बहिष्कार के आगे अम्बानी को माफ़ी मांग चुपचाप निकलना पड़ा|
अभी इसी हफ्ते बावजूद कोर्ट से स्टे लेने के व् साइलो गोदाम व् उसकी अन्य फ़ूड यूनिट्स पर ताला लगा के पिछले 7 महीने से धरने पर बैठे किसानों को हटवाने के ऑर्डर्स लेने पर भी अडानी, जालंधर व् लुधियाना में किसानों को नहीं हटवा सका व् अंतत: उसको भी पंजाब से बिस्तरा गोल करके जाना पड़ रहा है|
जब खुद का नुकसान हुआ तो शायद इनको समझ आ गई होगी कि तुम्हारे तानाशाही व् अनएथिकल पूँजीवाद रवैये से जब तुम एथिकल पूंजीवादी उदारवादी जमींदारों को लूटने चलते हो तो कैसा महसूस होता है|
यह किसान आंदोलन लड़ाई ही अनएथिकल पूँजीवाद (फंडियों की वर्णवादी मानसिकता वाला व्यापार) बनाम एथिकल पूंजीवादी (उदारवादी जमींदार) है| जो सामंती जमींदार (वर्णवादी सोच वाले) हैं जैसे कि आरएसएस का किसान संघ; यह तो आज भी धड़ मारे पड़े हैं| सुनी है अब 8 सितंबर से आ रहे हैं किसान संघ वाले घड़ियाली आंसुओं वाला अपनापन दिखाने| वर्णवाद रहित उदारवादी जमींदारों सावधान, बचाना इनसे अपने आंदोलन को| इनको यूपी में सत्ता जाती दिख रही है, बस वहां नैया पार लगे, इतने तक साथ दिखने के आदेश हुए होंगे इनको; वरना 9 महीने तो ना दिखे ये कहीं भी| यह दूसरा उदाहरण आपकी unity की ताकत का की पावर में बैठे हुए भी अब आपके साथ दिखने लालायित हुए जाते हैं|

प्रकृति-परमात्मा-पुरखे जब साथ लग के किसी चीज को जिताने में साथ आते हैं तो ऐसा ही होता है:
गठवाला खाप व् बाल्याण खाप में फूट डलवा के आंदोलन को तोड़ने का आखिरी प्रयास था क्या फंडियों का, जो इतना आशाहीन हो चुके अपने "डिवाइड एंड रूल" के पैंतरे आजमा के कि आरएसएस का किसान संघ 9 महीने चुप व् विरोध में रहने के बाद अब 8 सितंबर से 525 जिलों में किसान आंदोलन के समर्थन में उतरेगा? बच के रे बाबा इन घड़ियालों से; जरूर यूपी-उत्तराखंड-पंजाब इनके हाथ से जा रहे हैं 2022 में यह जंच गई होगी इनको बस यह बच जाएँ थारे साथ घस्स के इतने तक की दौड़ होगी इनकी; वरना जिनकी सरकार हो उनको यह नाटक करने की जरूरत क्यों? जो एक बार मोदी को बोल दें तो आज की आज फैसला हो जाए, तो यह स्वांग क्यों?
गजब तालमेल बैठा हुआ है कि किसान संयुक्त मोर्चा स्तर से ले खाप स्तर, हर जगह फूट की कोशिशें कर ली; परन्तु दाल ना गल रही अबकी बार फंडियों की|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday 18 August 2021

बाबा गुलाम मोहम्मद जौला साहब बोले व् बुलवाये : "हर-हर महादेव, अल्लाह हू अकबर"!

एक तरीका अंधभक्तों का है जो डंडा दे के भी लोगों से "जय श्री राम" बुलवाने को निताने हुए रहते हैं और एक तरीका उदारवादी जमींदारों के प्यार-मोहब्बत का है कि मुसलमान "हर-हर महादेव" बोलता है तो हिन्दू "अल्लाह-हू-अकबर"| यह वीडियो मारो उनके मुंह पर जो कहते हैं कि मुस्लिमों से यह बुलवा के दिखा दो, वह बुलवा के दिखा दो व् खामखा भड़का के आपके अंदर मुस्लिमों पे प्रति जहर भरते हैं व् दूसरी तरफ आपके ही धर्म में आपके प्रति 35 बिरादरियों को भड़का के रखते हैं| पुरखों की लाइन पर चलो, उससे सर्वोत्तम कोई मार्ग नहीं|

बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के बाद आज फिर से यह नारे वापिस लौट आए हैं "भारतीय किसान यूनियन" की महापंचायतों में! यह कोई कम बड़ा हासिल नहीं किसान आंदोलन का व् किसान आंदोलन को तोड़ने वाले फंडियों की करतूतों का!

चौधरी चरण सिंह से होते हुए पीछे सर छोटूराम व् उनसे पहले सरदार अजित सिंह की "किसान-मजदूर-व्यापारी" वाली राष्ट्रीय राजनीति के नए आगमन का आगाज होता दिख रहा है|

1 - सरदार अजित सिंह - 1907 के "पगड़ी संभाल जट्टा" किसान आंदोलन के प्रणेता|
2 - सर छोटूराम - मंडी-फंडी नाम के दुश्मन को सही से जेहन में बिठवा देने वाला मसीहा|
3 - चौधरी चरण सिंह - अपने से पहले वाली प्रधानमंत्री को करप्सन चार्जेज में जेल दिखा देने वाला नेता जिसका पूरे देश में इकलौता ऐसा पोलिटिकल घराना जिसकी आगे की 3 पीढ़ियों तक में किसी पे एक सुई तक के घपले का करप्शन चार्ज नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

https://www.youtube.com/watch?v=lSyG0iIr2Mw

Friday 13 August 2021

बाड़ का जवाब बाड़ से दो; पर कैसी बाड़?

इस बार 15 अगस्त 2021 के मौके पर लालकिले पर लॉजिस्टिक्स कंटेनर्स की ऊँची दीवारों बारे कोई कहता है कि:

1) 56 इंची किसानों से डर गया|
2) किसानों को बदनाम कर रहा है|

इन दोनों बिंदुओं में थोड़ी बहुत सच्चाई तो है परन्तु इनसे भी बड़ी वजह व् दूरगामी राजनीति व् कूटनीति के तहत यह तथाकथित स्वघोषित स्वर्ण जमात के बच्चों में किसानों के प्रति तुच्छ भावना भर रहा है, उनके अंदर किसानों के प्रति उमड़ रहे इमोशंस को रोकना चाहता है, वह नहीं चाहता कि उनकी जमात का कोई व्यक्ति किसानों को अपने बराबर भी समझे, अपितु किसानों में सिर्फ दुश्मन देखे| वही नश्लवाद अलगाववाद की विश्व की सबसे धूर्त्तम वर्णवादी थ्योरी| वह यह दुरुस्त करना चाहता है कि तथाकथित स्वघोषित स्वर्ण समाज में कोई किसानों का हितैषी ना ऊठ खड़ा हो|

सबको मालूम है कि 10 दिन में 9 महीने होने को हैं किसान आंदोलन को; इन्होनें जहाँ किसानों का रास्ता रोका था वह वहीँ बैठे हैं| वहां से रामलीला मैदान (यही धरनास्थल निर्धारित करके चले थे किसान) तक आने की जद्दोजहद नहीं की; तो वह क्या ख़ाक ही उसके प्रोग्राम को डिस्टर्ब करेंगे| 26 जनवरी पे भी बाकायदा पुलिस परमिशन से तो ट्रेक्टर-मार्च निकाला था व् जो भी निर्धारित रुट से आगे गए वह इस सरकार की कूटनैतिक मंशा के तहत ही गए थे| बाद में इनकी वह मंशा पकड़ी भी गई थी|

वैसे जरूरत पड़ने पर यह अपने हिसाब से किसान हितैषी भी उतारेंगे इनके मध्य से ही, क्रेडिट लेने हेतु कि देखो जीत हुई तो हमारी वजह से ही हुई| ठीक वैसे ही जैसे सुप्रीम कोर्ट में खापों के केस में जब खाप चौधरियों की दलीलों के आगे सुप्रीम कोर्ट के जज तक पस्त हो गए और लगा कि यह तो केस जीत जाएंगे (क्योंकि मीडिया ट्रायल्स व् बदनामी के प्रोपगंडा से बनाए माहौल से केस नहीं जीते जाया करते) तो इनके अपने बीच से ही एक रिटायर्ड आर्मी पर्सनल उतारा गया था| ताकि यह दिखे कि हम तो इस लड़ाई में आपके साथ थे व् जीत का कुछ क्रेडिट इनके बाँटें भी आवे वरना केस हार जाते तो खापों के सर्वनाश की सबसे बड़ी होली यही जलाते; वह भी खापों को अपने ही तथाकथित धर्म का बताने के बावजूद| शुरू के लगभग 3 साल जब इस केस की मुख्य लड़ाई लड़ी गई थी, तब कहीं नहीं दिखे थे ये; अपितु बाट जोह रहे थे कि दिखां हार ही जाएँ केस|

बाद में इस पंचायती को मैंने बहुत अच्छे से ऐसे मैटर्स पर चेक किया कि यह कितना बड़ा पंचायती है| 2 मामले ऐसे थे जिनमें एक पार्टी इस पंचायती की बिरादरी की थी, परन्तु दोनों में फैसले करवाने से टरका गया|

खैर, इसको बोलते हैं अपनी अगली पीढ़ी की इनके अनुसार इनके लिए गैर-जरूरी लोगों से मानसिक बाड़ करना| आप भी कर लो अपनी पीढ़ी की इन फंडियों से बाड़; बाड़ का जवाब बाड़ से दो!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक