Tuesday 31 March 2020

जैसे बिना अक्ल के ऊँट उभाणे, ऐसे ही बिना कल्चर के लोग निताणे!

लोग निताणे कैसे? एक तो खुद के कल्चर का ज्ञान नहीं, उसपे दूसरों के कल्चर पे दांत फाड़ना, व्यंग्य कसना|
उदाहरणार्थ: कितने हरयाणवियों (हरयाणा+दिल्ली+वेस्ट यूपी) व् पंजाबियों को पता है कि उनकी दादियां, जो आपस में खासम-खास सहेली होती थी वो जब एक-दूसरे के यहाँ आती-जाती थी तो अभिन्दन के स्वरूप आपस में 3 बार गले मिलती थी और प्यार में एक दूसरे के गाल से गाल भी टच करती थी? मेरी खुद की दादी का एक बार का (वैसे तो बहुत बार का) ऐसा वाकया तो मुझे याद है| म्हारा गुहांड है ढिगाणा, वहां की दादी की ख़ास ढब्बण होती थी| एक बार वह दादी से मिलने आई, तो पता है कैसे और क्या बोलते हुए दूर से हाथ फैला 3 बार गले मिली थी दोनों आपस में? यह बोलते हुए व् आलिंगन को बाहें फैलाते हुए कि "आइए ए मेरी शौकण, आइए ए मेरी बैरण, बड़े दिनां बाद चढ़ी मेरी देहल"| ना कोई हाथ मिलाया, ना नमस्ते करी सीधी गले मिली और कालजे में ठंडक पड़ने तक गले लगी रही|

यही फ्रांस में होता है औरतों के बीच आपस में जो खासमखास सहेलियां होती हैं| यहाँ 3 की बजाए दो बार गले गली मिलती हैं| गाल से गाल टच करती हैं|

और तो और वो तुम्हारा भारत मिलाप क्या है? जो अगर इतने चौड़े हो के बोलते रहते हो कि भारत में तो सिर्फ नमस्ते कल्चर रहा है? माइथोलॉजी ही सही, काल्पनिक ग्रंथ ही सही, परन्तु उसमें भरत मिलाप कैसे होता है, नमस्ते करके या बाहें फैला के आलिंगन करते हुए? ढोंगियों, थारी डैश-डैश बोलने को जी कर जाता है, तुम्हारे इन भोंडेपनों पे|

अब तुम तुम्हारे अंदर घुसेड़ी गई या खुद धक्के से घुसवाई तथाकथित आधुनिकता की बौर में चौड़ी हुई/हुए घूमो तो कैसे कल्चर जिन्दा रहेगा? ऐसे में तो बनेगी ही ना इस पोस्ट के शीर्षक वाली? असल में तुम्हारी गलती नहीं है, तुम दिन रात ऐसे फंडियों से जो घूंटी पीते हो जिनका काम ही तुम्हारे अंदर की सारी सीरियसनेस व् विजडम का कत्ल कर तुम्हें अक्ल-इंसानियत से पंगु बनाना होता है|

कोरोना के चलते, लोगों ने यहाँ फ्रांस में ऐसे गले मिलना बंद किया है| हाथ मिलाने की बजाए या तो हाई-फाई दे रहे हैं या खासमखास दोस्त हैं तो बंद मुठ्ठी आपस में टकरा के अभिन्दन कर रहे हैं|

अपने कल्चर को प्रॉपरली जानिये, रैशनल बनिए, वाइजर इंसान बनिए| ऐसे गधों के चंगुल में फंस के खुद के कल्चर से दूर ना जाएँ जिससे इस पोस्ट के शीर्षक वाली बने आपके साथ|

साथ लगे एक और कॉमन चीज बता दूँ, फ्रांस व् हरयाणवी/पंजाबी कल्चर की:

खासमखास मित्र के लिए फ्रांस में जो सम्बोधन प्रयोग होते हैं वह हैं Tu (यानि तू), Toi, Te, Ton यानि बिलकुल unformal जैसे हरयाणवी में होता है तू-तड़ाक-तुस्सी-तुवाड्डी| और जो आगंतुक या अनजान होता है उसके लिए फ्रेंच में सम्बोधन है vous (यानि आप) और हमारे यहाँ है थम, थामें या आप| फ्रांस वालों को तो नहीं लगता कि तू-तवा बोलने में कोई फूहड़पन, गंवारपन या पिछड़ापन है? बल्कि यह तो इस बात की निशानी है यहाँ कि बंदे पहले से एक दूसरे को जानते व् खासमखास या पारिवारिक मित्र या रिश्तेदार हैं| तो एक तुम हरयाणवी, पंजाबी या इंडियन ही कुछ ज्यादा ख़ास उतरे हो क्या धरती पे जो बच्चों को कल्चर की सच्चाई व् मधुरता सिखाने की बजाए घुसा देते हो आप-आप मात्र में उनको? असल में यह तुम्हारी आधुनिकता नहीं अपितु तुम्हारा पिछड़ापन, दब्बूपन व् खुद के कल्चर के प्रति खसना, अलगाव, नॉन-सीरियसनेस व् अज्ञान है|

इसको ठीक कर लीजिये, 50% फंडियों की दुकानें तो इतने मात्र से ही लद जानी, बंद हो जानी|

नाम व् उनके अपभृंषों से पुकारने के फ्रेंच-हरयाणवी कल्चर के कॉमन आस्पेक्ट्स का एक और उदाहरण: जब GE Healthcare, Paris में काम करता था तो वहां एक सीनियर क्लीग होती थी नाम था "Veronica"| उनका ख़ास मित्र-सहेलियों प्लस कलीग का एक ग्रुप था, जिसमें वक्त के साथ मैं भी शामिल हुआ| पता है उसको क्या बुलाते थे, "Hey Veero या Vero"| हरयाणवी में साउंड करो तो वीरो या वेरो बोला जाएगा| जब-जब कोई उसको Veronica की बजाए Veero या Vero बोलता तो मुझे या तो मेरी चचेरी बुआ बीरमति याद आती जिसको सब बीरो बोलते हैं या मेरी ताई बांगरों याद आती, उस ताई को भी सब बीरो बोलते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 29 March 2020

"आटे दी चिड़ी" - पंजाबी फिल्म में मिले वो 67 शब्द जो पंजाबी-हरयाणवी भाषा में हूबहू हैं और हिंदी में या तो हैं ही नहीं या अर्थ दूसरे हैं!

"आटे दी चिड़ी" - पंजाबी फिल्म में मिले वो 67 शब्द जो पंजाबी-हरयाणवी भाषा में हूबहू हैं और हिंदी में या तो हैं ही नहीं या अर्थ दूसरे हैं:

चोऴ
अल्हड़
आळा
जोहटे
अल्ले-पल्ले
बैरी
राम नाळ 
वीर
डंगर
गुहांडी
गूढी
मेहरबानी
आळे
गिट्टे
सध्या
टुर्र
सोहरे
रूलदे
टब्बर
चादरे-कुडते
फुलकारी
न्याणे
चरीट
सुनक्खा
जिंद
जाण
बोरा - भोरा
खड़का
बीनती
कंडे - कांडे
उडारी
नहू
लंगर
जोगे
जामे-पळे
मशां
लंडू
विरसा
टक
गिट्टे
ठेह
जिवाक
बाड़ा
भतेरा
जमा
साम्भ
टोप्पे
नेड़े
दाणे
माड़ा
खड़क
कुत्तेखाणी
गंडा
डोक्के
भंभीरी
किते
टशन
बाज्जे
मर्र
रूळ
वरगा /बरगा
बळद
टाल्ली
खसम
रैपटा
खुर्क
पास्से

विशेष: हो सकता है कि एक-आध शब्द हिंदी से भी मेल खाता होवे, परन्तु अंत लब्बोलबाव यही है कि अधिकतर सिर्फ पंजाबी-हरयाणवी में ही मिलते हैं| आप भी कोशिश कीजिए कि जब भी कोई पंजाबी मूवी देखें तो साइड में नोटपैड खोल लेवें और नोट करते जावें व् ऐसे पोस्ट्स बना के डालें| एक पंथ दो काज इसी को बोलते हैं, मूवी की मूवी देख ली और रिसर्च की रिसर्च हो गई| 

निचोड़: यह बात एक प्रोपेगण्डे के तहत फैलाई हुई है कि हरयाणवी (वेस्टर्न हिंदी ग्रुप की बोली है) नहीं यह खुद में एक भाषा है और हिंदी से ज्यादा पंजाबी से मेल खाती है| और यह बात आगे हर देखने वाली पंजाबी मूवी में खोजता रहूँगा| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

मुस्लिम से नफरत करने का गजब तर्क देते हैं भक्त कि यह गैर-मुस्लिमों सबको काफिर मानते हैं| काफिर का मतलब होता है खुराफाती, उपद्रवी, उत्पाती!

अच्छा जी अगर इस लॉजिक से चला जाए तो तुम्हारे तो खुद वाले ही तुमको काफिर मानते हैं, वह भी दोहरे वाले काफिर|

1) तुम अपने हक-आवाज उठाओ, अपने ही धर्म के भीतर रहते हुए तो तुमको तालिबानी, नक्सली, देशद्रोही आदि-आदि बोलते हैं| 35 बनाम 1 करके कहो या जाट बनाम नॉन-जाट करके टारगेट करने वाले कौनसे मुस्लिम हैं? इनके इरादे देखे-समझे हों कभी तो तुम्हारी यह खुमारी उतरे कि तुमको मुस्लिम से खतरा हो या ना हो परन्तु जो यह तुम्हारे खुद के अंदर के पिस्सू-परजीवी बैठे हैं इनसे ज्यादा और कई गुना ज्यादा खतरा है| तुम्हारा कल्चर, तुम्हारी भाषा, तुम्हारा ईमान, तुम्हारी क्रेडिबिलिटी हर चीज को निगलने को सिंगरे हुए हैं ये| तुमको मुस्लिम कब मारने आएगा या नहीं आएगा उसका तो पता नहीं परन्तु यह तुम्हारे भीतर वाले तुम्हारे, उनसे पहले ठिकाने ना लगा दें तो कहना कि क्या बनी|

2) दूसरा काफिर जैसा सिस्टम तुम्हारे भीतर की वर्णवादी व्यवस्था व् मानसिकता, खासकर उनके लिए जो इसको मानते हैं|

तुम्हारे साथ तो वो बनी हुई है कि, "अपनी रहियाँ नैं ना रोंदी, जेठ की गइयाँ नैं रोवै"|

तुम तो महाभारत जैसे मैथोलॉजिकल विषयों पर बने टीवी शोज से भी यह अक्ल नहीं ले रहे कि कम से कम घर, जाति को तो पहले इन अपने ही धर्म रुपी घर-जाति वाले बड़े सामूहिक घरों से बचा लो| चले हैं मुस्लिमों से लड़ने| खामखा बहम में ग्याभण करके छोड़ रखे गलियों में फंडियों ने, अक्ल इतनी कोनी कि जाप्पा कौन घर करवाना|
ताज्जुब की बात तो ये है कि यह मुस्लिमों के नाम के चोड़के-ओढ़के-हव्वे उन कम्युनिटीज वालों को सबसे ज्यादा लगे पड़े जिनको पुरखों की खाप रही या राजघराने सबसे ज्यादा तो इनके मोर्चे लिए और सबसे ज्यादा अपने लोहे मनवाये| और जब मित्रता निभाने की बात आई तो वह भी प्रक्टिकली सबसे ज्यादा सर छोटूराम से ले सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी चरण सिंह जैसे इन्हीं के पुरखों ने प्रैक्टिकल साबित किये|

इसपे सितम यह कि यह चोड़के-ओढ़के-हव्वे इनको लगवाए भी किसके पड़े, उन्हीं के जो विगत मुग़लराज में मुग़लों के सबसे ज्यादा दरबारी थे और दोबारा ऐसा होवे तो फिर सबसे ज्यादा सबसे पहले दरबारी यही मिलने| क्यों भरमाओ हो खुद को, कुछ अपना पिछोका और पुरखों का ब्योंक भी टंड़वाल लो| निरे फंडियां के दिमाग के चले तो पागल और खाजले कुत्ते वाली एक साथ बननी है, जिनको दुनिया लठ-पत्थर मारने से ज्यादा किसी लायक नहीं समझती| वो पागल प्लस खाजले कुत्ते बना के छोड़ देंगे यह फंडी तुम्हें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 21 March 2020

मेरी जिंदगी की बहुत बड़ी कल्चरल कसक पूरी करती पंजाबी पीरियड फ़िल्में!

जिंदगी में जब-जब हिंदी (बॉलीवुड) फ़िल्में देखी, टीवी सीरियल्स देखे (देखे क्या धक्के से देखने के लारे लगने की कोशिश करी परन्तु नहीं लग पाया, क्योंकि इनमें हकीकत कम और काल्पनिकता, बौरायापन, भोंडापन ज्यादा भरा होता है) इन सबमें जिस चीज की कमी खलती थी वह आजकल आ रही पंजाबी पीरियड फिल्मों ने पूरी की है| मेरा मेरे कल्चर से अटूट लगाव, इसकी समझ व् इसको संजोते हुए अगली पीढ़ियों को पास करने की ललक मेरे परिवार-रिश्तेदारों से ले मित्र-प्यारों किसी से छुपी नहीं हुई है| और मुझे जिंदगी में किसी चीज ने कभी भटकाया भी है तो इस चिंता ने कि क्या-कैसे हो कि हरयाणवी कल्चर का जो वास्तविक व् पॉजिटिव रूप है वह ऊपर लाया जाए|

हरयाणवी कल्चर के अलावा बाकी नहीं कुछ भी गोळा जिंदगी मे| हंसते हुए परिस्तिथियों को गोला-लाठी करते हुए गुजरे हैं| यहाँ तक कि इस कल्चर प्रेम के चलते रिश्तेदार-मित्र प्यारों तक के लेक्चर सुने हैं वह भी पेरिस में बैठे| क्या पागलों की तरह लगा रहता है फेसबुक वगैरह पे, जब देखो हरयाणवी पोस्ट्स, हरयाणवी गाने, हरयाणवी वेबसाइट बना डाली; खापों-खेड़ों में घुसा रहता है| यही सब करना था तो पेरिस किसलिए गया या आया है आदि-आदि| परन्तु मैं क्या करूँ जब मथन बनाया ही परवर्तीगार ने ऐसा है तो? काम तक से निढाल हो के भी पड़ जाऊं खटोली में तो बेसुध दिमाग-होशो-हवास में कल्चर की कोंधनी चलती जरूर मिलनी|

ऐसा नहीं है कि मैं इसको बदल नहीं सकता, बिलकुल बदल सकता हूँ| परन्तु ऊपर वाले ने इस कोंधनी में एक प्रेरणा और डाल रखी है साथ में जो मुझे इसको बदलने नहीं देती| कहती है कि तुझे इन चीजों की समझ के साथ, चेतना के साथ धरती पे भेजा है तो मैंने भी तो कुछ विचारा ही होगा, वरना तुझे छह दिन के को तुझे पैदा करने वाली के साथ ही ना उठा लेता? तुझे अनखद खिलवाई हैं, इस कल्चर की अमीरी-प्यार-प्रेम-वातसल्य-उत्सव से अकेलापन-मायूसी-लाचारी-बिछोह झिलवाई हैं तो तुझे कुछ बड़ा करने को ट्रेंड करने के लिए ही किया है मैंने| यह सबके विरोध देख के भी, कोई विरला ही तेरे स्तर पर पहुँच कर भी, इस हरयाणवी कल्चर की पब्लिक में बात करता है| तुझे इसकी डंके की चोट पर बातें करने की निर्भीकता व् विश्वास दिया है तो मेरा भी कोई उद्देश्य है इसके पीछे| और जब दादा नगर खेड़े बड़े बीर की और मेरी ऐसी बातें होती हैं तो दादा को बोलता हूँ कि दादा अब तो 35 बनाम 1 भी हो लिया और कितनी बाट दिखवायेगा? मेरे जरिये मेरे कल्चर का जो भी सधवाना है अब सधवा भी ले?

और फ़िलहाल तो सधवाना इतना ही है कि जो कोई हरयाणवी बीर-मर्द ताउम्र हिंदी फिल्मों-नाटकों के नकलीपन व् इनमें परोसे जाने वाले हरयाणवी कल्चर के विपरीतपन से ऊब चुका हो और वास्तविक हरयाणवी कल्चर की हूबहू चीजें देखना-जानना-महसूस करना चाहता/चाहती हो, वह आजकल आ रही पंजाबी पीरियड फ़िल्में देखे| बस सिवाए भाषा के फर्क के डिट्टो यूँ-की-यूँ चीजें ला रहे हैं पॉलीवुड वाले वड्डे वीर, जो हम-आप देख-बरत बड़े हुए हैं| जिस दिन इनके हरयाणवी वर्जन आने शुरू हो गए, चाला तो उस दिन पाटैगा|

कोरोना वायरस के चलते लॉक-डाउन से मिले वेल्ले बख्त का यही प्रयोग करना है| मैंने नी इंटरनेट पे पड़ी एक भी पंजाबी पीरियड फिल्म छोड़नी, मैक्सिमम रफड देनी हैं| एक आधी तो ऐसी हैं कि कई-कई बार देख डाली परन्तु फिर भी जी ना भरता|

काश! शहरों में हंगाई उदारवादी जमींदारी की लुगाईयों को भी इन फिल्मों को देखने की प्रेरणा हो जाए तो उनको समझ आये कि तुम अपने पिछोके से बिदक कितनी दूसरों के कल्चर में डूबी आर्टिफिसियल कल्चर लाइफ जी रही हो और अपनी पीढ़ियों को जिलवा रही हो| यह अनुरोध औरत को इसलिए क्योंकि मेरे कल्चर में कल्चर व् आधात्यम का प्रतिनिधित्व औरत को ही दिया गया है| इसका सबसे बड़ा प्रमाण खुद मूर्तिओं रहित दादे नगर खेड़े हैं जिनपे औरत ही लीडरशिप के साथ स्वछंदता से धोक-ज्योत करती आई है, मर्द को करवाती है आई है, कोई मर्द पुजारी सिस्टम नहीं रहा इनपे कभी सदियों से| 100% औरत का आधिपत्य व् उसके मर्दों का सानिध्य, सुरक्षा व् इन खेड़ों की देखभाल|

लौट आओ री इन जड़ों की तरफ, इनकी तरफ लौटे बिना 35 बनाम 1 हो या भांड मीडिया व् सिस्टम की थारे कल्चर पे यदाकदा होती सॉफ्ट-टार्गेटिंग, कुछ नहीं थमने वाला| शहर आलियो थमनें देख, खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदले की तर्ज पर इन गाम्माँ आलियाँ कै भी 50% से ज्यादा को गधों वाले जुकाम हुए पड़े हैं| पड़े हुए हैं और इनको और तुमको अहसास भी नहीं हो पा रहा कि कैसे तुम तुम्हारे पुरखों के तुमको 100% दिए आधिपत्य के आध्यात्म से छिंटक मर्दवादी आध्यात्म की गुलाम होती जा रही हो और अपनी पीढ़ियों को बना रही हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

लालडोरा रेगुलराइजेशन के लाभ चुटकी भर भी नहीं होने जबकि नुकसान बरोटा भर होंगे, क्योंकि!

लाभ:

मैंने लालडोरे के भीतर मेरे गाम-गुहांड में आजतक एक भी ऐसा केस नहीं सुना मकान-प्लाट का जो आपसी भाईचारे से ना सुलटाया गया हो और उसको कोर्ट-कचहरी देखनी पड़ी हों| असल तो इस सिस्टम की ब्यूटी यह रही कि 99% ऐसे केस बने ही नहीं, कहीं-कहीं 1% जितने बने भी तो भाईचारों में आपस में बैठ के सुलटा लिए जाते रहे| तो ऐसे में चुटकी भर भी लाभ नहीं होना लोगों को इसका, खामखा का खेचला होने के सिवाए|

नुकसान:

आर्थिक व् मानसिक परेशानी:
लालडोरे के बाहर लगभग एक चौथाई से ले आधोआध तक लोगों के खूंड बजते हैं| थानें-तहसीलें-कचहरियें चक्र बंधे रह सें, वो अलग| तो यह लालडोरे के भीतर की रेगुलराइजेशन इन झगड़ों को और ज्यादा बढ़ाने के अलावा, क्या लाभ देगी; सरकार ने विचारा भी है इसपे?

सदियों पुराने जांचे-परखे हरयाणवी कल्चर का मलियामेट:
सरकारों को चाहिए कि उदारवादी जमींदारी की खापोलॉजी के इस सिस्टम को ना छेड़ें| बल्कि ऐसी विचारधारा को पारितोषिक दें कि लोगों ने आपसी भाईचारे के कल्चर से यह चीजें मैनेज करके रखी, जिसके लिए किसी एडिशनल सिस्टम सरकार की जरूरत नहीं पड़ी|

अंग्रेज तक ने यह जरूरत मसहूस नहीं की थी तो इस सरकार को क्या फांसी फंसी हुई है जो शुद्ध हरयाणवी कल्चर के ऐसे सरोकारों को तहस-नहस कर, हरयाणवी जनमानस की स्वछंदता को खत्म करने को आतुर है? कच्छाधारियों के आदेश हैं क्या ये?

लालडोरे के भीतर के मकानों से माल-दरखास उगाहने में कोई दिक्क्त आ रही है? या चूल्हा टैक्स से ले बिजली बिल, पानी के बिल या कुछ भी ऐसी सरकारी एडमिनिस्ट्रेटिव कार्यवाही जो इसकी वजह से रूकती हो; कुछ तो वजह बताओ इस जरूरत की?

लोग भी नहीं पूछ रहे| लगता है फंडियों ने महाभारत सुना-सुना सबके आपसी भाईचारे बिखेर दिए हैं| क्या चाहते हो, सरकार से बोलते-पूछते क्यों नहीं इसपे?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday 17 March 2020

"जय माँ काली हरयाणे वाली, दूध के बालट्ट भरने वाली" की टैग लाइन से मशहूर अखिल भारतीय झोटा-भैंस महासभा ने जारी किया भक्तों के खिलाफ अल्टीमेटम!

गाय के मूत और गोबर के नाम पर फंडी, भक्तों को चिपका रहे भैंसों का मूत व् गोबर| इस पर सारा भैंस महकमा भक्तों से नाराज| आपत्ति दर्ज करवाई कि जिस दिन हमें सर्वाइव करने के लिए फंडियों के हाथों हमारे मूत-गोबर का सहारा लेना पड़ेगा, उस दिन तो हम हमारे झोटे पतिदेव को बोल के सबकी यमलोक में एंट्री बैन करवा देंगी| अपनी पत्नियों/डब्बनों (भैंस) के मुंह से अपने लिए इतना भरोसा सुन के ठाणों में बंधे से ले गामी झोटों तक ने करी खुरी काटनी शुरू|

उधर म्हारे वाला झोटा मुझसे बोला कि "यमराज के भी फूफा मेरे मालिक महाराज" थारी आज्ञा हो तो मैं यमलोक में यमराज को यह अल्टीमेटम दे आऊं म्हारी पत्नी/डब्बनों का? वैसे तो यमराज की औकात नहीं कि मुझे आपके यहाँ से खोल के ले जाए; हर बार लठ दे के चलदा कर दो हो यमराज को| मैंने कहा कोई नी वीरे चला जा| और ऐसे सारे झोटे यमलोक के दरवाजे आगे इकठ्ठे होने शुरू हुए और यमराज की चौखट पर यूँ टक्कर मारनी शुरू करी जैसे हीट आई भैंस के लिए झोटा, उसके नोहरे-दरवाजे-हवेलियों के गेट्स को मार-मार खैड़ उनके चूले तोड़ दिया करते हैं, ऐसे यमराज को दिखाए जबरदस्त हूड|| इससे यमराज घबरा गया है| और किसी भी अंधभक्त या फंडी की यमलोक में एंट्री बंद करने हेतु यथाशीघ्र मीटिंग बुलाई है|

इस गहन आपत्ति के पीछे भैंसों ने तर्क दिया है कि मूत और गोबर तो हम अपने काटडे-काटडियों को ही नहीं पिलाते-खिलाते| हमारी अपनी भी एक सोशल ब्रांड है, जिम्मेदारी है| हरयाणवियों के लिए तो खासकर हम "ब्लैक-गोल्ड" कहलाती हैं| हरयाणवी इतना नाम तो "काली कलकत्ते वाली का नहीं लेते" जितना हमारा जयकारा यह कहते हुए करते हैं कि, "जय माँ काली हरयाणे वाली, दूध के बालट्ट भरने वाली"| हमारे दूध से ही जब ओलिंपिक मेडल्स लाने वाले पहलवान व् देश की सीमा पर दुश्मन की तोपों आगे छाती अड़ा देने वाले बहादुर बनते हैं तो हमें क्या पड़ी जो फंडियों को गाय के नाम पर हमारा घूं-मूत लोगों को पिलाने देंगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 14 March 2020

आज, कुछ जाट की उस गजब की जजमानी उदारता की कहूंगा जिसको अक्सर ओबीसी से ले दलित तक दरकिनार करते हैं!

उदाहरण मेरे गाम निडाना का ही दूंगा| वह भी ऐसी बातों का जो शायद जाट बाहुलयता की छत्रछाया में ही मिल सकती हैं|

उद्घोषणा: इस लेख में जहाँ-जहाँ फंडी शब्द प्रयुक्त हुआ है उसको कोई किसी भी जाति-विशेष से जोड़कर ना पढ़े, क्योंकि फंडी हर जगह होते हैं फिर चाहे जो कोई धर्म हो जो कोई जाति हो|
1 - कल यानि 16 मार्च को सीली सात्तम है, हमारे कल्चर में इस दिन गुड़ के मीठे चावल (खासतौर से) व् अन्य पकवान बनते हैं व् कुम्हारों (ओबीसी ध्यान दियो) को धोक चढ़ाई जाती है "सीली सात्तम की मढ़ी" के जरिये| इस दिन जो प्रसाद (मीठे चावल समेत, अन्य मिठाई या बताशे वगैरह) चढ़ता है उस पर सम्पूर्ण अधिकार कुम्हारों व् उनके गधों का होता है| यानि जो साफ़-सुथरा-सूखा प्रसाद जैसे कि मिठाई वगैरह हो वह सारे का सारा कुम्हार खुद के लिए व् गीला-मिक्स प्रसाद उनके गधों के लिए ले कर जाते हैं| बुरा मत मानना, परन्तु सोचो इतना ऊंचा सम्मान व् प्रसाद रुपी मिठाई व् मीठे चावल, गधे तो क्या इंसानों तक को नसीब ना होने देवें जो अगर फंडियों का आधिपत्य होवे पर इस मढ़ी पर| यह है मेरे गाम में जाट-बाहुलयता की छत्रछाया की पहली उदारता|
2 - मेरे गाम में एक माता की मढ़ी है सुदूर पश्चिम वाली फिरनी पे| इसपे एक पत्थर की तख्ती लगी हुई है कि यह फलाने-फलाने नाई ने फलां वर्ष में बनवाई| और इसको गाम के जाट ही सबसे ज्यादा मानते हैं| बताओ एक नाई (ओबीसी वाले ध्यान दियो जरा) द्वारा बनवाई गई ऐसी चीज और उसको जाट सबसे ज्यादा मानने वाले? इसका प्रसाद व् चढ़ावा भी ओबीसी-दलित जमात ही लेकर जाती है| जो बैठा हो इसपे भी कोई फंडी, जाने देगा वो प्रसाद का एक दाना भी यूँ वो भी सीधा-सीधा दलित-ओबिसियों के कब्जे? परन्तु ओबीसी में बहुतेरों को यह उदारता समझ नहीं आती, भले कल को इस मढ़ी पे यहाँ कोई फंडी बैठा देवें और वह इस प्रसाद को, इनको ना लेने देवे तो यह उस फंडी को फिर भी भला बोलेंगे परन्तु जाट की छत्रछाया की उदारता नहीं जानेंगे|
3 - मेरे यहाँ "दादा मोलू जी जाट, खरक" वाले की ऐसी मान्यता है कि उनकी खीर बनती है हमारे यहाँ हर पूर्णिमा को| परन्तु जानते हो वह खीर किसको दी जाती है, धानक (दलित कबीरपंथी) बिरादरी को| और देने वाले कौन, जी, वही जाट जी| मेरे गाम में जिस किसी जाट के घर हर पूर्णिमा को खीर बनती है उसमें एक बेल्ला-थाली-डोंगा-लोटा खीर धानक की जरूर से जरूर होनी होती है| सोचो क्या बीतती होगी उस फंडी पर जो यह खीर पाने को क्या-क्या फंड-प्रपंच नहीं रचता; जबकि जाट यह आदर-सम्मान-हक देता है तो किसको, उसके ही घरों में सबसे ज्यादा सीरी का काम करने वाली धानक बिरादरी के भाईयों को| बताओ ऐसे में फंडी, जाटों से नफरत नहीं तो क्या धोक मारेगा उनकी? परन्तु जाट फिर भी नहीं घबराता, उसको मानवता व् सेक्युलरिज्म सर्वोपरि है वह फंडियों का रचाया 35 बनाम 1 भी झेल लेगा परन्तु सर्वबिरादरी के आदर की यह अनूठी उदारता नहीं छोड़ेगा|
4 - कुछ सदी पहले मेरे गाम में "चमारवा" डेरा होता था, जिस पर चमारों की देखरेख होती थी| और उसको सबसे ज्यादा धोकते कौन थे, जाट| हालाँकि उस डेरे में नशे-पते व् फंड-पाखंड बढ़ने की वजह से गाम ने उसको उजाड़ दिया था| ऐसा उजाड़ दिया था कि आज नामोनिशान नहीं मिलता उसका; बस बुड्डे-बड़ेरे जगह बता देते हैं कि यहाँ होता था, मंगोल वाले जोहड़ पर| "मंगोल वाला जोहड़" नाम निडाना को बसाने वाले प्रथम पुरखे "दादा चौधरी मंगोल जी गठवाला मलिक महाराज" के नाम पर है रखा गया है|
5 - एक बार अस्थल बाहर का भगवाधारी महंत आया निडाना में निडाना की यह ख्याति सुनके, लगभग एक-डेड सदी पहले की बात है| गाम के गोरे धूणा जमा के बैठ गया कि भिक्षा ले के उठूं| गाम वालों ने लत्ता-चाळ-रोटी-टूका दे दिया| परन्तु महंत बोला रूपये-पैसे का दान दो| बुड्डे-बड़ेरे आध्यात्म के इतने स्वछंद (आज वाले अंधभक्तों की तरह मूढ़मति नहीं थे वो) बोले कि, "बाबा, जोगी का रूपये-धेल्ले की मोहमाया से क्या काम? जोग इसी स्पथ के साथ लिया था ना कि आजीवन मोहमाया-दुनियादारी-धनदौलत से दूर रहूंगा?" बाबा बोला कि नहीं मैं तो धन का दान ले के उठूं| गाम वालों ने उसकी यह बात अनसुनी कर दी| महंत लगा फंड रचने, तीसरे दिन एक टांग पर खड़ा हो गया| जब देखा कि यह तो इससे भी नहीं घबराये तो हाथ जोड़ विनती की मुद्रा में आ गया और बोला कि, "रै चौधरियो, मैं इतने बड़े डेरे का महंत, मुझे एक रुपया दे कर ही विदा कर दो?" संत बिरादरी में बोर मार के आया हूँ कि मैं निडाने से धन का दान लाऊंगा|" पर चौधरी अपने आध्यात्म से मुड़े नहीं और बोले कि बाबा, जितने दिन रहना हो गाम में रह, दो वक्त की तेरी रोटी और तील-तागा गाम तुझे मूकने नहीं देगा परन्तु पैसा-पूसा भूल जा| मेरे दादा-दादी बताते थे कि तब महंत गाम को यह बोल के गया कि, "आज के बाद मैं, निडाना को साधुओं के नाम का सांड छोड़ता हूँ; इस गाम में मेरे बाद जो भी बाबा रेन-बसेरे रुके वह पिट के जावे"| पता नहीं निडानियों ने यह पट्टी क्या पकड़ी बाबा की, कि तब से आजतक का तो रिकॉर्ड चला आ रहा है कि जो भी बाबा रैन-बसेरे रुका और उसने धूणा-धुम्मा लगाया या जारी-चकारी तकनी चाही, वो आधी रात पिट के भागा गाम वालों से; आगे पता नहीं कब तक यह दस्तूर जारी रहेगा|
6 - मलिक जाटों की "कुलदेवी" एक मुस्लिम दादी है जिनको "दादी चौरदे" बोलते हैं| इनको गाम के सारे जाट धोकते हैं, क्योंकि एक तो यह मलिक जाटों के दादा पुरख मोमराज जी महाराज की मुंहबोली बहन थी, दूसरा इनको दादा मोमराज जी का आशीर्वाद था कि तू मेरे खूम की कुलदेवी कहलाएगी| इनकी मढ़ी, दादा नगर खड़े बड़े बीर के बगल में ही है| कहलाये भी क्यों भी नहीं, आखिर दादा को गढ़ गजनी के सुल्तान की कैद से छुड़वाने वाला जोड़ा दादी चौरदे व् उनके पति दादा बाहड़ला पीर जो थे| इनकी वजह से मलिकों का खूम आगे बढ़ा, वह वाकई में कुलदेवी कहलाने लायक है|
7 - दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर तो खैर है ही सर्वधर्म सर्वजातियों का| इस धाम पर धोक-ज्योत-प्रसाद का सिस्टम यही है कि कोई पुजारी नहीं होता, 100% औरतों का आधिपत्य रखा गया है| वह अपनी मर्जी से जिस किसी को चाहें प्रसाद देवें-लेवें| पीरियड्स आये हों या नहीं, जब चाहे धोक-ज्योत लगावें, बस नहा-धोकर आना होता है ज्योत लगाने, चयान्दन लगे किसी भी इतवार को| मर्दों का इसमें सिर्फ इतना दखल होता है कि वह इसकी इमारत की देखरेख करते हैं|

है ना गजब का सूहा, जहाँ रोजगार-कारोबार तो छोडो धर्म तक में जाटों ने ओबीसी से ले दलित व् मुस्लिमों तक को बराबर रखा है सदियों से!

आप भी ढूंढिए, अपने गाम के ऐसे किस्से; यूँ ही नहीं कटखाने स्तर तक की नफरत करता फंडी जाट से| जाट जहाँ बाहुल्य होगा, वह धर्म तक में सबका साझा उसी सम्मान से बनवा के रखता पाया जाता है, जिस सम्मान से वह उदारवादी जमींदारी में उसके वर्किंग कल्चर से ले सोशल इंजीनियरिंग तक में बरतता है| हाँ, फंडियों के प्रभाव में रहने वाले जाटों बारे मैं ऐसे दावे नहीं करता; क्योंकि जो फंडी के बहकावे चढ़ा समझो वह जिन्दे-जी सूली टंगा|

विशेष: मैंने इस लेख में एक जाति के पॉजिटिव पहलुओं का गुणगान किया है वह भी बिना किसी अन्य बिरादरी पर आक्षेप-द्वेष-क्लेश लगाए-दिखाए| अब ऐसे में भी किसी को इस पोस्ट में जातिवाद नजर आवे तो वही मेरी दादी वाली बात 14 बर आवे और ऐसे इंसान मेरे लेखे कुँए में पड़ो और झेरे में निकलो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

मीडिया के फंडी भांडों के रटे-रटाये रंग उभर आये हैं, उदाहरण "दीपेंद्र हुड्डा का राजयसभा के लिए नॉमिनेट होना"!

यूट्यूब देख लो या अखबार, क्या हैडिंग आ रहे हैं?: हुड्डा ने चलाया "जिसकी लाठी उसकी भैंस" का फार्मूला व् अड़ाया एक दलित नेता की टिकट में अड़ंगा|

उदारवादी जमींदारों, व्यापारियों व् मजदूरों की पीढ़ियां समझें इस फ़ंडी पॉलिटिक्स को:

इनको "जिसकी लाठी, उसकी भैंस" लिखना तब क्यों नहीं सूझता:

जब मोदी, अडवाणी-जोशी-सिन्हा सबकी घिस काढ़ के कूण में लगा देता है?
जब राजनाथ सिंह को दरकिनार कर, अमित शाह को गृह मंत्री बनाया जाता है?
जब कमलनाथ की सरकार हो या लालू की, अमितशाह अनैतिक तरीकों से गिरवाने की कोशिश करता है या गिरवा देता है?
जब उन्नाव रेपकांड जैसे अनगिनत रेपकांडों में, आरोपियों को जेल तक नहीं होती परन्तु पीड़ितों के परिवार के परिवार खत्म करवा दिए जाते हैं?
जब राणा कपूर जैसे लोग बैंक-के-बैंक डुबो देते हैं और लाखों लोगों का रुपया आया-गया कर देते हैं? ऐसे केसों में तो कायदे से इनको "जंगलराज" शब्द भी जोड़ना चाहिए, परन्तु नहीं यह जोड़ेंगे सिर्फ तब जब "लालू यादव" जैसों की सरकार होगी|

और तो और, इनको जो सूट करता है उनके बारे भी तब तक ऐसी लैंग्वेज प्रयोग नहीं करेंगे, उदाहरणार्थ:
चौधरी ओमप्रकाश चौटाला जी के साथ उनके परिवार व् पार्टी वालों द्वारा की जा रही नाइंसाफी| यह नाइंसाफी उस दिन देखना जिस दिन जजपा ने बीजेपी से अलायन्स तोड़ अलग चलने की कोशिश करी| यही भाडखाऊ देखना फिर क्या-क्या इनके बारे भी लिखेंगे|

निचोड़ यही है कि इनका एजेंडा जमींदार-किसान-मजदूर राजनीति को खत्म करना या खत्म बनाये रखना या इन वर्गों से आने वाले नेताओं को एक लिमिट से आगे नहीं बढ़ने देना है| ऐसा कोई नेता उभरता दीखता है तो इनकी भाषा का नीचतम स्तर उभर कर आता है जैसे दीपेंद्र हुड्डा को राजयसभा की टिकट मिलने पर आया| यही टिकट दीपेंद्र की जगह किसी इनको सूट करने वाले वर्ग वाले को मिलती तो इन्हीं की भाषा ऐसी-ऐसी सफाइयों भरी होनी थी कि मैडम सैलजा नहीं, फिर इनकी छोटी साली भी लगनी थी| कहते कि यह कांग्रेस की मजबूरी थी क्योंकि एक तो मैडम सैलजा पर सारे विधायक राजी नहीं थे और दूसरा क्रॉस-वोटिंग होने का खतरा था, जिससे सीट हाथ से निकल सकती थी व् बीजेपी के खाते जा सकती थी|

इनको सुना के भी क्या करना, बस युवापीढ़ी समझ ले कि भारतीय राजनीति में लड़ाई मैदान की जितनी है उसकी सौइयों गुणा कलम से हवा व् इमेज बनाने-बिगाड़ने की है| कलम से इमेज बनाने-बिगाड़ने की प्रैक्टिस करते जाओ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

पंजाबी फिल्मों में पंजाबी भाषा के जरिये बचे चल रहे हरयाणवी भाषा के भी शब्द!

पंजाबी फ़िल्में पहले भी बहुत देखता था, परन्तु पिछले दो-एक महीने में हर वीकेंड पे जितनी भी 8-10 फ़िल्में देखी हैं; एक खुशगवार आदत लग गई है| वह यह कि हर फिल्म में लगभग 100 के करीब या इससे भी ज्यादा ऐसे पंजाबी शब्द नोट किये जो हूबहू हरयाणवी भाषा में बोले जाते हैं परन्तु हिंदी में नहीं|

सोच रहा हूँ, आगे से हर पंजाबी फिल्म को देखते वक्त नोटपैड खोल के बैठ जाऊँ और प्रति पंजाबी फिल्म ऐसे शब्दों की लिस्ट बनाऊं| वह शब्द तक सुनने को मिलते हैं जो मेरे दादा-दादी-नाना-नानी बोलते थे और आजकल के बच्चों को सुनाओ तो या तो असल समझ ही नहीं आएंगे अन्यथा उर्दू बताएँगे या अरबी| वाकई में मेरे से पहले वाली व् मेरी हरयाणवी पीढ़ी में बहुत डाउन आया है| इस मामले में मेरे से पहले वाली पीढ़ी तो अगर बिलकुल सो गई थी कहूं और मेरे वाली को आधी सोई, आधी जगी तो अतिश्योक्ति ना होगी|

क्या हम आधी जगी, आधी सोई वाले हमारी अगली पीढ़ी को हरयाणवी भाषा को दादा-दादी-नाना-नानी वाले रूप में पास कर पाएंगे? अगर कर गए तो हमारी पीढ़ी का अति-विशेष स्थान रहना है आगे वाली पीढ़ियों में| इतना आनंद किसी हिंदी-इंग्लिश-फ्रेंच मूवी में नहीं आया जितना पंजाबी मूवीज में आ रहा है और वह भी ऊपर बताई वजह से तो डबल| इनको देखकर लगता है कि हरयाणवी अभी जिन्दा है और प्रैक्टिकल में जिन्दा है| बल्कि आजकल हिंदी फिल्मों से तो बोरियत भी होने लगी है, जबकि पंजाबी मूवी देखना शुरू करता हूँ तो बस खत्म होने पे ही पता चलता है; इतना आत्ममुग्ध हो जाता हूँ देखते-देखते|

यह एक्सरसाइज करनी शुरू करनी होगी, इससे पंजाबी-हरयाणवी और नजदीक आएंगे एक दूसरे के| आजकल कुछ फंडियों ने मुहीम चला रखी है कि हरयाणवी तो उर्दू-अरबी की उधारी बोली (भाषा भी नहीं कहते) है (पहले दुष्प्रचार करते थे कि लठमार है), और यह कह कर हरयाणवी से मोह छुड़वाया व् हिंदी (हिंदी सीखना/बोलना/लिखना कोई बुरी बात नहीं, परन्तु ऐसे दुष्प्रचारों को बारीकी से ऑब्जर्व करके समझते चलिए कि उनका प्रभाव किस्से अलगाव बनाता है व् किस से जुड़ाव) से जुड़वाया जा रहा है; जबकि उर्दू-अरबी से ज्यादा तो हरयाणवी के शब्द पंजाबी भाषा के साथ कॉमन हैं| निसंदेह हरयाणवी बारे ऐसी बातें ज्यादा-से-ज्यादा बाहर आनी चाहियें| जल्द ही किसी पंजाबी मूवी की रिफरेन्स समेत ऐसे शब्दों को लिस्ट पेश करूँगा|   

एक और ख़ास बात: अगर बॉलीवुड के बकवास व् बोरियत भरे टीवी सीरियल्स व् फिल्मों से उकता गए हो और अपने दादा-दादी-नाना-नानी के जमाने का प्योर कल्चर देखना चाहो तो आजकल आ रही पीरियड पंजाबी फ़िल्में देखिये| बस भाषा का फर्क है, यूँ-की-यूँ फिल्म की पंजाबी से हरयाणवी में डबिंग कर दो तो समझना शुद्ध हरयाणवी कल्चर की ही फिल्म देख ली| वैसे यह डबिंग शुरू करनी चाहिए, जितना जल्दी हो सके| देखें कब कौन आता है इस कारनामे के साथ| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday 10 March 2020

हरयाणा में फरवरी 2016 के "35 बनाम 1" के रंग देखने के बाद से धर्म-बदलने की बात ऊठती रही है!

मेरे सामने जब-जब यह बात आई, इस बात को उठाने वाले/वालों से मैंने दो मुख्य पहलुओं पर जवाब मांगे; जिनका या तो किसी के पास हल नहीं मिला या मिला तो यह कैसे होगा इसका विजन नहीं दिखा अभी तक| क्या हैं वह दो पहलू?

पहलू एक:

35 बनाम 1 की समस्या से स्थाई निजात पाने का पहला हल आता है कि सिखिज्म में चलते हैं| मैंने कहा एक बात हो जाए तो सिख धर्म में चलने से बेहतर कुछ है ही नहीं| क्या बात हो जाए? आज मैं जहाँ-जिस स्थिति में जैसे भी हूँ वहां मेरी ऐतिहासिक विरासत की एक अच्छी खासी बानगी है, जो

"दादा नगर खेड़ा" के सर्वधर्म-सर्वजातीय जेंडर न्यूट्रल मानवीय आध्यात्म,
"उदारवादी जमींदारी" के सीरी-साझी वर्किंग-कल्चर,
"सर्वखाप" की डिसेंट्रल सोशल इंजीनियरिंग व् मिल्ट्री कल्चर के इतिहास,
"हरयाणवी/पंजाबी भाषा व् भेष" के कस्टम और
"भाईचारे" की सर छोटूरामी राजनीति व् महाराजा हर्षवर्धन से ले महाराजा सुरजमली शाहनीति

के पाँच आधारों पर बुनी हुई है| और यह भी कि इन पाँचों आधारों का जहाँ हूँ, जैसे हूँ, वहाँ के धर्म में भी हेय का, तुच्छ समझने का स्थान है; जिससे मैं उदास व् आशाहीन नहीं भी हूँ तो खुश भी नहीं हूँ| तो अगर सिखिज्म से बात की जाए और इन पाँचों आधारों को सिखिज्म में, उनकी गुरुबाणियों में बराबरी का स्थान दिया जावे तो मैं सबसे पहले दौड़ कर सिखिज्म अपना लूँ| अन्यथा अगर बिना इनको साथ लिए सिखिज्म में जाता हूँ तो यह सब ठीक वैसे ही बेवारसी हो जाती हैं जैसे 1469 से पहले के इतिहास बारे आज सिख बना सजातीय भाई उससे, उसके 1469 से पहले के इतिहास व् पिछोके बारे पूछने पर वह 90% मूक हो जाता है| तो कल को 2020 से पहले के इतिहास पर क्या मैं भी ऐसे ही मूक नहीं हो जाऊंगा, अगर इन 5 आधारों की विरासत को साथ लिए व् जायज स्थान दिलवाये बिना सिखिज्म में जाता हूँ तो? इस जायज स्थान का ही तो सारा मसला है और यह वहाँ जाने पर भी कायम रहा तो?

यह सवाल मैंने बार-बार बड़े-छोटे बहुत से साथियों के आगे उठाया है परन्तु अभी तक हल नहीं आया किसी की तरफ से|

पहलू दो:

आर्य-समाज का आधार है 35 बनाम 1 वाली कम्युनिटी| आर्य-समाज के 95 से ले 98% गुरुकुल, धाम, मठ सब हमारे पुरखों की दान दी जमीनों पर हमारे पुरखों के दान किये धन से बनी हुई हैं| और 70-80% से ज्यादा का संचालन तो आज भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 1 वालों के ही पास है| और 2008-2012 के इर्दगिर्द आर्यसमाज की "एक हांडी में दो पेट" वाली दोगली नीतियों को क्रिटिसाइज करती मेरी पोस्टें आज भी सोशल मीडिया पर किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं| उस वक्त एक-दो भाई ही होते थे जो ऐसी पोस्टें निकालते थे| यह इसलिए बोल रहा हूँ कि जिनको 2016-17-18-19 में इन पर लिखने की सूझी, उनमें से बहुतों की प्रेरणा हमारी एक-दो की लिखी 2008-2012 से चली पोस्टें रही हैं, जो कि बहुत से भाई मुझे खुद बताते भी हैं| तो यह दिखाता है कि मैं आर्यसमाज के मुद्दे पर ना तो इमोशनल हूँ, ना सॉफ्टकॉर्नर रखता हूँ और ना ही एक दम कटटर विरोध में जा खड़ा हुआ हूँ; मैं आर्यसमाज को लेकर कुछ हूँ तो "गंभीर चिंतन में लीन"| चिंतन में लीन कि कैसे फंडियों के कब्जे से आर्यसमाज को मुक्त करवाया जाए, कैसे इसमें से "एक हांडी में दो पेट" वाली बातें निकलवाई जाएँ व् कैसे इसमें ऊपर बताये 5 आधारों को सर्वोच्च स्थान दिलवाया जाए|

सिखिज्म या किसी अन्य धर्म या कहो कि अपना ही कोई नया धर्म स्थापित करने से पहले मैं पहलू दो की हरसम्भव हल की कोशिश करना चाहता हूँ और मैंने या कहिये कि हमने यह कोशिश की इसका हरसम्भव आर्यसमाजी को आभास हो| इस आभास होने तक पहुँचने के बाद भी चीजें नहीं बदलती हैं तो फिर मैं पहलु एक सिखिज्म के साथ ट्राई करना चाहूँगा| सिखिज्म पहलु एक को स्वीकारता है तो सिखिज्म में जाया जायेगा अन्यथा फिर इन 5 आधारों के साथ अपना खुद का धर्म स्थापित करना ही आखिरी रास्ता होगा|

इस विचार, इस स्ट्रेटेजी पर अपने विचार जरूर देवें, ताकि मुझे भी समझ आये कि मैं साथियों की सोच से कितना दूर हूँ और कितना करीब, यह सब जो लिखा यह कितना सम्भव है व् कितना असम्भव, कितना सही है व् कितना गलत| निसंदेह मैं हर दूर, हर असम्भव व् हर गलत को ठीक करने की जी-जान से कोशिश करूँगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday 9 March 2020

सावधान: आप विश्व की क्रूरतम "नश्लवाद वाली सबसे अनैतिक वर्णवादी मानसिकता" द्वारा शासित हो चुके हैं!

विश्व में इंडिया के अतिरिक्त कहीं ही ऐसा हो कि आपको अपना विरोध दर्ज नहीं करने/करवाने हेतु ऐसे डराया जा रहा हो, जैसे यूपी गवर्नमेंट ने किया है| अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया आदि जगहों पर रहने वाला कोई एनआरआई शायद ही बता पाए कि उसने इन देशों में कभी ह्यूमन-राइट्स की इतनी खुली सरकारी अवहेलना देखी हो? यह "उल्टा चोर कोतवाल को डांटे" की हूबहू बानगी है| और यह माइनॉरिटी रिलिजन वालों से ज्यादा खुद हिन्दुओं के लिए घातक होने वाली है क्योंकि यह मंशा दिखाने का बहाना बेशक सीएए लिया गया हो, परन्तु इशारा उन किसानों-मजदूरों-व्यापारियों से ले बैंक व् सिस्टम द्वारा लुटे-पिटे लोगों और यदाकदा आरक्षण के लिए आवाजें उठाते रहने वाले वर्गों को भी है कि बोल मत जाना; वरना अगले पोस्टर्स तुम्हारे होंगे| स्पष्ट है कि वर्णवाद की जो मानसिकता विश्व की सबसे क्रूरतम व् अनैतिक इंसानी थ्योरियों में है उसके प्रैक्टिकल टेस्ट होने शुरू हो चुके हैं इंडिया में|

ऐसे हालातों में अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की सरकारों व् सविंधानों की नैतिकता क्या कहती व् करती है?: वह कहती है कि अगर जनता को सरकारों के विरोध में सड़कों पर उतरना पड़ जाए तो पहला दोष सरकारों का है, जनता का नहीं| क्योंकि जनता अगर सड़क पर आ रही है तो सरकार से कोई ना कोई चूक हुई है, इसीलिए ऐसा हुआ है| इसलिए यहाँ सरकारें असल तो अपने ऐसे दोष दूर करने हेतु कार्य करने लग जाती हैं अन्यथा अपने दोषों को दूर नहीं भी कर पावें तो इतनी हरामपणे की अनैतिकता पर तो बिलकुल भी नहीं उतरती कि खुद को ठीक करने की बजाये, विरोध करने वाले को ही अपराधी घोषित करने निकल पड़ें| और वह भी खुद ही कोर्ट-जस्टिस बनकर, जैसे यूपी गवर्नमेंट ने इस सलंगित पोस्टर जैसी हरकत करके किया है|

क्या देख रहे हो, तथाकथित भक्ति-धर्म और राष्टभक्ति के नाम पर टूलने वाले बहुसंख्यक हिन्दुओं, तुम में से 95% किसान-मजदूर-व्यापारी हो| साफ़ डरावा है यह तुमको कि बेटा हम फंडी लोग देश के बैंक लूटें-लुटवायें, ह्यूमैनिटी की ऐसी-तैसी करें या करवाएं, किसान को सुगरमीलों से बाकायदा उनके हक वाली पेमेंट (मुवावजे-ऋण माफ़ी वगैरह नहीं) भी या अन्य फसलों के एमएसपी ना देवें या ना दिलवाएं तो भी चुपचाप हम वर्णवाद से ग्रसित तथाकथित स्वर्ण मेंटालिटी की उच्चता वालों की सरकार के आगे ऐसे ही नतमस्तक रह कर चुपचाप हमारे लिए कमाते रहो| इसलिए सससस ..... चुप जो आवाज तक निकाली तो, क्योंकि आज आप उस सोच से निर्देशित हो जो कहती है कि, "स्वर्ण चाहे तो शूद्र (इनके अनुसार) का कमाया बलात हर ले या उसको उसकी कीमत न दे, तो भी वह अपराध का भागीदार नहीं यानि ऐसा करना इनके लिए अपराध ही नहीं"|

मरो-सड़ो इस व्यवस्था में, क्योंकि यह यूँ ही कोई एक दिन में नहीं लद गई तुम्हारे भेजों में| इसको लादने, तुममें ठूंसने हेतु बाकायदा टीवी-फिल्मों-कथाओं के जरिये तथाकथित धार्मिक शुद्रवाद पहले तुम्हारी औरतों में घुसेड़ा गया, औरतों से तुम्हारे बच्चों में और बच्चों से तुममें (इन द्वारा इंसान को मानसिक गुलाम बनाने की यह प्रक्रिया नोट कर लेना अच्छे से, यह तुम पर सीधा हमला कभी नहीं बोलते; कहीं यूँ बाट में बैठे हो लठ-तलवार लिए कि यह आमने-सामने आएंगे तुमसे युद्ध करने; इनका युद्ध करने का यही तरीका है) और तुममें घुसते ही हमने तुम पर ऐसा घेरा पा लिया है कि तुम चुस्के तो ऐसे पोस्टर्स अगले तुम्हारे होंगे| चूँग लो भक्त इस भक्ति को, बस इंतज़ार करो थोड़ा और; क्योंकि "ऐसा कोई सगा नहीं जिसको इन्होनें ठगा नहीं" और तुम तो इनके सगे से भी आगे वाले भक्त हो तो तुमको छोड़ भी कैसे देंगे, इनके खून में आदत में जो है सगे की सबसे पहले गोभी खोदना| खुदनी शुरू हो चुकी है यह भक्तो तुम्हें भी इन बैंको के डूबने, व्यापारों के डूबने और तुम्हारे किसान-मजदूर माँ-बापों के तिल-तिल मरने के जरिये अहसास होना शुरू तो हो चुका होगा? एक बात समझ लो वर्णवाद से बड़ा वायरस कोई नहीं इस दुनियां में, इसका डसा बहुत मुश्किल इससे बाहर आ पाता है| इसलिए अब भी वक्त है बच जाओ इससे| वरना बताओ इस मानसिकता के अलावा और कौनसी मानसिकता हो सकती है ऐसी हरकते करने के पीछे? डरावे का ओढ़का किसी और का और खूनी पंजा तुम पर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


हरयाणवी पृष्ठभूमि की जो भी जाति या गौत उनका सम्मेलन/महापंचायत आदि करे तो हरयाणवी भाषा/कल्चर/कस्टम को बचाने हेतु भी कुछ प्रस्ताव पारित करे!


हरयाणवी पृष्ठभूमि यानि वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, दक्षिणी उत्तराखंड व् उत्तरी राजस्थान में आयोजित होने वाले इन सम्मेलनों में मृत्यु भोज बंद हो, ना दहेज लो ना दो, शराबबंदी हो, लड़का-लड़की को बराबर समझा जाए व् दोनों को बराबर से शिक्षित किया जाए, फंड-ढोंग-पाखंड-आडंबरों से दूर रहा जाए आदि-आदि तरह के प्रस्ताव सदियों से पारित व् प्रचारित होते रहे हैं|

परन्तु इन ट्रेडिशनल प्रस्तावों के साथ-साथ आज इस विशाल हरयाणा के बदलते डेमोग्राफिक माहौल के मद्देनजर जिन अन्य व नए प्रस्तावों को ऐसे हर मंच से अति-गंभीरता व् मुख्यता से पास कर सम्मेलनों के मंचों से उनकी घोषणा के साथ-साथ संबंधित जिलों के डीसी ऑफिस, सीएम ऑफिस, स्टेट हाईकोर्ट, स्टेट व् सेण्टर लैंग्वेज एंड कल्चरल हेरिटेज से संबंधित विभागों को लेटर्स भेजें जाएँ, वह निम्नलिखित होने जरूरी हो गए हैं:

1) हरयाणवी भाषा को राजकीय भाषा का दर्जा दिया जाए, उसको हर सम्भव एजुकेशन बोर्ड में एक भाषा की तरह पढ़ाया जाए|
2) हरयाणवी कस्टम्स के "कस्ट्मरी-लॉज़" का एक-एक अध्याय "सामाजिक विज्ञान" जैसी पाठ्यक्रम की पुस्तकों में जोड़ा जाए|
3) इन कार्यक्रमों में सम्मिलित होने वाले युवाओं को "गाम-गौत-गुहांड" के नियमों, "दादा नगर खेड़ों के आध्यात्म व् महत्व", "सर्वखाप के इतिहास", "उदारवादी जमींदारी" की थ्योरियों से परिचित करवाने हेतु "वर्कशॉप्स" लगवाई जाएँ, इन विषयों पर भाषण करवाए जाएँ व् इन विषयों बारे सरकारों द्वारा परिचय व् जागरूकता कार्यक्रम करवाए जाएँ| इन विषयों को न्यूनतम स्टेट स्तर के हर कल्चरल युथ फेस्टिवल्स में इवेंट या वर्कशॉप के तहत शामिल करने हेतु प्रस्ताव दिए जाएँ| व् इनकी शुद्धता के साथ प्रस्तुति सुनिश्चित करने हेतु, इन विषयों के एक्सपर्ट्स के स्पेशल पेनल्स बनाये जाएँ|
4) स्कूल-कालेजों में हफ्ते में एक दिन "कल्चरल ड्रेस डे" घोषित किया जाए व् हरयाणवी बच्चों को शुद्ध हरयाणवी परिधान पहन कर आने की कहा जाए|
5) हरयाणवी कल्चर बारे मीडिया से ले तमाम तरह की एंटी-हरयाणवी ताकतों से प्रोफेशनली कैसे पेश आना है व् कैसे उनसे निपटना है, इस बारे बाकायदा एजुकेशनल ट्रेनिंग दी जाए|

व् इसी तरह के अन्य हर सम्भव वह प्रस्ताव जो हरयाणवी भाषा/कल्चर/कस्टम को संजोने व् आगे बढ़ाये रखने हेतु कारगर साबित हो सकता हो वह शामिल किया जाए|

अनुरोध: हरयाणवी भाषा/कल्चर/कस्टम पर कार्य करने वाले तमाम संगठनों/संस्थाओं/साथी सहयोगियों से अनुरोध है कि आगे से वह उनके इलाके में होने वाले हर ऐसे कार्यक्रम/पंचायत/खाप पंचायत/सम्मेलन/सभा पर नजर रखें व् इनके आयोजकों से सम्पर्क साधें व् उनको ऊपर लिखित बिंदुओं पर प्रस्ताव पारित करके, ऊपर बताये तरीके से सरकारों/विभागों व् मीडिया तक पहुंचाने हेतु मनावें/जागरूक करें, प्रेरित करें| यूनियनिस्ट मिशन, हरयाणा स्वाभिमान सभा, जमींदारा स्टूडेंट्स आर्गेनाइजेशन आदि-आदि जैसे इन मसलों पर अति जागरूक व् चिंतक संगठन इस मुहीम को पंख लगाने में अग्रणी व् यादगार भूमिका निभा सकते हैं|

मेरा मानना है कि अगर ऐसे सामाजिक वर्गों/जातियों/समूहों के मंचों से इन बातों की शुरुवात हुई तो इसको एक आंदोलन का रूप लेते देर नहीं लगेगी व् हर प्रकार की सरकार को फिर इन प्रस्तावों को तवज्जो देनी पड़ेगी| शायद इतनी तवज्जो हो जाए कि यह बातें पोलिटिकल पार्टियों का एजेंडा तक बन जाएँ|

मुद्दा हरयाणवी का है हिंदी में लिखा है, इस उम्मीद में कि एक दिन ऐसा होगा कि यह लेख भी हरयाणवी में लिखे होंगे| मैं तो आज भी लिख सकता हूँ परन्तु अधिकतम पाठकों की सुगमता हेतु फ़िलहाल हिंदी में लिखा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday 8 March 2020

"फुल्ला इन ओल्हा" स्टाइल होळी किस-किसने खेली है?

पहर के दादी का कुडता-दामण, मार के दादी की चूंदड़ी का ढाठा; जब तक 8-10 बैठकों/नोहरों/दरजवाजों/घेरों में 10-20 माणसां कै ज्योडे (रस्से) वाले कोरड़े नहीं ठोंक आया करता, तब तक आपणी होळी पूरी नहीं मना करती|

कुणसे में हिम्मत है आज के दिन, जो ज्योडे वाले (लत्ते वाला नहीं) कोरडे गेल 4-4 घंटे भाभियों का आग्गा ले ज्या? मैं लिया करता| और वो भी भट्टा-भट्ट सर-कड़-टाँग हर जगह पै बरसा करते, पर मैदान छोड़ के नहीं भाज्जे कदे; अगली ए "यो तो पाक्की होई ब्यूच हो लिया" बोल के ज्योड़ा (कोरडा) बगा (फेंक) जाया करती|

दिन की शुरुवात होती थी, दादा मोलू जी के खरक वाले टिल्ले से| ट्रालियों में रख के गीली मिटटी और पानी के कनस्तर या ड्रम; सारा रास्ता पब्लिक को भिगोते आते| पिता जी ड्राइव कर रहे होते, अगर रस्ते में गीली मिटटी और पानी खत्म हो जाता और दादी-ताइयों के कहने पर भी बाबू ट्रॉली नहीं रोकता तो गीली मिटटी का आखरी लोंदा बाबू की कड़ में लगा करता| होली-फाग वाले दिन मैंने नहीं बाबू-काका-दादा-दादी-ताई कुछ भी देख्या, सब कुछ लपेटता चला करता| तो फिर बाबू को ट्राली रोकनी पड़ती, हम साथ लगते खेत से अपना रसद-पानी यानि गीली मिटटी व् पानी भरते और तब आगे चलते|

घर आते ही बेर-लड्डू-गुलदाना-बताशे-हलवा-खीर आदि खाते और निकल जाते फाग खेलने| कोई भाभी तो कती गऊ की जाई हुआ करती, कोरडा मारती तो इतना डरती हुई कि जैसे दर्द उसी को होगा| और एक आधी ऐसी कटखाणी आती कती पूंझड़ ठाई बुरकाई हुई म्हास की ढाल कि सब क्याहें का पानी सा पाडती चाल्या करती| और ऐसी-ऐसी के आगे हम हा के हया करते| हारे-चूल्हे की राख से ट्रीट किया हुआ स्पेशल पानी इनकी खुराक हुआ करता| हरयाणवी अंताक्षरी के गाने गा-गा बिन पिए ऐसा माहौल जमाया करते कि हमारा फाग देख रही काकी-ताई कहने लगती कि "यु जरूर पी रह्या है नहीं तो ज्योडे के कोरडे आगै इतना ठहर कौन जा"| जबकि उनको यह भली-भांति पता होता था कि इसका बाप इस मामले में कसाई है, जो पीने की पता लग गई तो घेसला खाल तार लेगा इसकी, परन्तु फिर भी अपना खेल उनसे यह बात कहलवा ही देता था कि जरूर पी रह्या होगा| बाकी सूं बलधा की जिंदगी में ड्रिंक ही नहीं करी कभी| तो हाँडीवारे तक, यही वाणे-बान्ने-न्योंदे से चल्या करते|

फिर घर आते, नहाते, खाते-पीते, थोड़ा रेस्ट करते और दादी की ड्रेस पहन के बन जाते, "फुल्ला इन ओल्हा" वाली भाभी| और फिर जुणसे-जुणसे खड़ूस टाइप काके-ताऊ हुआ करते, उनका लगता लपेटा| एक-आधा शरीफ भी फटफेडा चढ़ता| जब तक उनको समझ आती कि यू तो फूल सै और वो पकड़ा-पकड़ाई करने दौड़ते, इतनें में तो अगली बैठक की तरफ काक्कर काढ़ दिया करते|

इन्हीं लाइफटाइम सुनहरी यादों के साथ सबको होली-फाग की शुभकामनायें| पीना-पिलाना मत करना, होशो-हवास में खेली हुई होली की कोई होड़ नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday 7 March 2020

महिला दिवस 8 मार्च विशेष: मैं जिस कल्चर से आता हूँ उसमें महिला के ख़ास स्थान व् महत्वता बारे 21 अलौकिक बिंदु!

1) उसमें विधवा को पुनर्विवाह की स्वेच्छित आज्ञा तब से है जब से शायद यह सृष्टि जानी गई है|
2) उसमें "देहल-ध्याणी की औलाद" व् "खेड़े का गौत" के नियमानुसार पिता के गौत की बजाए माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकता है|
3) उसमें "दादा नगर खेड़ों" में शतप्रतिशत धोक-ज्योत का प्रतिनिधित्व व् आधिपत्य औरत के हाथ में है| उसका यह प्रतिनिधित्व सुनिश्चित रहे इसलिए पुरखों ने इन खेड़ों में "मर्द-पुजारी" रखने का कांसेप्ट ही नहीं रखा|
4) उसमें "साल का नौ मण अनाज, दो जोड़ी जूती व् दो तीळ" के नियम के अनुसार तलाकशुदा औरत को पति की तरफ से तब तक गुजारा-भत्ता मिलने का नियम रहा है जब तक वह औरत दूसरी जगह ब्याही नहीं जाती या तलाक का अंतिम फैसला नहीं हो जाता था|
5) उसमें गाम-गौत-गुहांड के नियम के तहत 36 बिरादरी व् सर्वधर्म की बहन-बेटी को अपनी बहन-बेटी मानने का बेटियों को सुरक्षा देने का नियम है| जहाँ खेड़ा बहुगोतीय होता है वहां यह नियम गौत के लिए लागू होता है| जो इस नियम को निभा देता है वह घर बैठा ही साधू है, उसको किसी अन्य सन्यास की जरूरत नहीं|
6) जिस गाम में बारात जाती है वहां जिस गाम से बारात गई है वहां की 36 बिरादरी व् सर्वधर्म की लड़कियों की मान करके आने का नियम है|
7) जेंडर सेंसिटिविटी बरकरार रखने हेतु गामों के नाम में "खेड़ा" होता है तो "खेड़ी" भी होती है, "गढ़" होता है तो "गढ़ी" भी होती है, "माजरा" होता है तो "माजरी" भी होती है, "कलां" व् "खुर्द" भी होती हैं|
8) कम्युनिटी गैदरिंग की इमारतों के नाम त्रीलिंग रखे गए, जैसे "परस", "चौपाल", "चुप्याड" आदि; जबकि इन्हीं के समक्ष अन्य कल्चरों में शब्द मिलेंगे, "कम्युनिटी हाल", "कम्युनिटी सेण्टर", "सामुदायिक केंद्र" आदि|
9) मेरे पिता तक वाली पीढ़ियों में लगभग हर किसी की औसतन 4-5-6 बुआएँ-बहनें मिलती हैं, लेखक की खुद की आठ बुआ हैं| जो दिखाता है कि इस कल्चर के पुराने वक्तों में लड़का-लड़की के जन्म को समान दृष्टि से देखा जाता रहा है| एक्स-रे टेक्नोलॉजी आने के बाद सर्वसमाज इससे प्रभावित हुआ है|
10) ब्याह-शादी में दहेज की समस्या को तीव्र गति से सुलझाना मेरे कल्चर की सामाजिक संस्थाओं की टॉप प्रायोरिटी रहा है|
11) सती-प्रथा मेरे कल्चर में कभी नहीं रही| यह नहीं होने की वजह से कुछ दम्भी समाजों ने मेरे कल्चर को कूषित-दूषित तक अपनी लेखनियों में कहा है|
12) विवाह में गौत छोड़ने के नियम में जहाँ मर्द की तरफ का सिर्फ एक गौत (पिता का) छोड़ा जाता है वहीँ औरत की तरफ से माँ-दादी-नानी के गौत छोड़े जाते रहे हैं; जो दिखाता है कि औरत का आधिपत्य ऐसे मामलों में मर्द से ज्यादा रहा है|
13) सम्पत्ति बंटवारे में नियम रहा है कि, "बेटी जब तक बाप के घर तो बाप के खाते, जब ब्याह दी जाए तो पति के खाते"| 2014 में सरकार ने इस पर आकर नियम बनाया है अन्यथा उससे पहले इन पहलुओं बारे मेरे कल्चर जैसे नियम विरले ही कल्चरों में देखने को मिलते हैं|
14) हरिद्वार से हुगली के गंगा-घाटों व् वृन्दावन के विधवा-आश्रमों में मेरे कल्चर की औरत नहीं जाती (कोई अपवाद आजकल में होने लगा हो तो कह नहीं सकता), बल्कि वह "बेटी जब तक बाप के घर तो बाप के खाते, जब ब्याह दी जाए तो पति के खाते" नियम के तहत शान से दिवंगत पति की प्रॉपर्टी की आजीवन इकलौती मालकिन वास्तव में रहती आई है| जबकि विधवा-आश्रम कल्चर में उसको विधवा होते ही पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर विधवा-आश्रमों में फेंक दिया जाता रहा है|
15) क्योंकि मेरे कल्चर ने मर्द-पुजारी के कांसेप्ट को खेड़ों में मान्यता ही नहीं दी, इसलिए हमारे यहाँ "देवदासी" कल्चर नहीं मिलता|
16) हमारे यहाँ "प्रथमव्या व्रजसला लड़की का पुजारियों द्वारा भोग" लगाने की परम्परा नहीं होती, जो कि पूर्वोत्तर राज्यों में पाई जाती है, जिसके तहत पहली बार पीरियड आई लड़की का मंदिर के पुजारी सामूहिक तौर पर मंदिर के गर्भगृह में सीलभंग कर रहे होते हैं और उसी समय समानांतर में लड़की का परिवार बाहर मंदिर परिसर में जनता को भोज छका रहा होता है|
17) मेरे कल्चर के किसी भी ब्याह की पूरी प्रक्रिया दूल्हे-दुल्हन की माँ द्वारा "भात नयोंदने" से शुरू हो "भात मोड़ने" पर खत्म मानी जाती है, अन्यथा वह ब्याह ही नहीं माना जाता या समाज उसको सम्मान नहीं देता| माँ पक्ष जब तक भात नहीं भरता व् माँ भात नहीं ले लेती, तब तक ब्याह की कोई प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकती|
18) मेरे यहाँ डांस में औरत को सम्पूर्ण प्राइवेसी दी गई है; जैसे "खोड़िया डांस"|
19) औरत को इतना स्वछंद माहौल मेरे कल्चर में मिलता रहा है कि रातों के 2-4 बजे भी बेटियां "कातक न्हाण" जाया करती थी तो किसी मर्द की जुर्रत नहीं होती थी कि वह उन राहों-रस्तों पर फटक भी जाए; इतना शर्म-ह्या का कल्चर रखा गया पुरखों द्वारा| हालाँकि आज यह व्यवस्था इतनी प्रभावित हुई है कि जैसे शहरों में सड़कों पर बेटी को गैर-वक्त निकालते वक्त डर लगता है ऐसे ही गामों में लगने लगा है| लेखक व् उनकी टीम द्वारा उनके पैतृक गाम में "लेडीज-चिल्ड्रन जॉगिंग पार्क" बनाने की मुहीम इसी कल्चर को वापिस बहाल करने हेतु की जा रही है|
20) युद्धों-धाड़ों-हमलों में बीर-मर्द कंधे-से-कंधा मिलाकर कर लड़ते आये हैं, जिसको इस कल्चर की भाषा में "यौद्धेय-यौद्धेया" कहा गया है|
21) इस कल्चर में औरत "जौहर" नहीं करती बल्कि पति युद्ध में मारा जाये तो महारानी किशोरी की भाँति अपने पुत्रों को युद्ध के लिए सिंगार उनका मनोबल बन दिल्ली तक जीत लिया करती हैं|

और यह सब जिस मेरे कल्चर में पाया जाता है उसका नाम है खापोलॉजी सोशल थ्योरी का "उदारवादी जमींदारी कल्चर"|

विशेष: हो सकता है कि किसी पाठक को इन बिंदुओं में कुछ अटपटा या आउटडेटिड भी लगे| लेखक का उद्देश्य जैसे नियम रहे हैं वैसे बताना था, पाठक अपने विवेक से पढ़ें| अगर मुझसे कोई बिंदु छूट गया हो तो उसको जोड़ने हेतु पाठकों का धन्यवाद|

इसी के साथ आप सभी को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाऐं!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कमल के फूल की विशेताएं जाननी थी!

1) Lotus (कमल), Lilly (कुमुद), Hyacinth (कुंभी), Iris (परितारिका), Hawthron (नागफनी), Poppy (पोस्ता) यह सभी फूल पानी या कीचड़ में उगते हैं तो यह विशेषता अकेली कमल की नहीं कि कीचड़ को जिंदगी-समाज की समस्याओं-पेचीदगियों का प्रतीक मान लिया जाए और उन पेचीदगियों बीच भी जो खिल जाए वह कमल अकेला ही ऐसी प्रेरणा देता हो?

2) 99% पूजा-पाठ की थालियों में कमल प्रयोग नहीं होता|

3) लव-शादी-दोस्ती आदि के गिफ्टों के तौर पर लगभग नगण्य ही इस्तेमाल होता देखा है या शायद होता ही नहीं|


4) खुशबू में गुलाब-रजनीगंधा जैसे बहुतेरे फूलों से पीछे नंबर आता है या शायद आता ही नहीं|

इनके अलावा कोई विशेषता जिसकी वजह से यह देश का राष्ट्रीय फूल कहलाता है? माइथोलॉजी के हवाले से नहीं वास्तविक या वैज्ञानिक हवाले से तर्क चाहिए|

जबकि समान्य धारणा में इसको खामखा का खूंड व् इसके तने को कमलगट्टा जैसे हेय शब्दों से बोला जाना अवश्य देखा-सुना-पढ़ा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राम-नाम जपना, पराया माल अपना!

यह दो ज्ञान पकड़ा के जनता को, करके जनता का ब्रैनवॉश; बना के दिमागों से शूद्र-दरिद्र, मौज मार रहे देश में फंडी व् कॉर्पोरेट वाले भक्त; कौनसे दो ज्ञान?

एक: "तुम क्या ले के आये थे, क्या ले के जाओगे, क्यों रोते हो, तुम्हारा क्या था जो खो गया, जो लिया यहीं से लिया, जो दिया यहीं दिया, जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का हो जाएगा"! गारंटी दूँ, जो इस तथाकथित ज्ञान को एक भी "यस-बैंक" टाइप घोटालों की चपेट में आने वाला जिंदगी में दोबारा जुबान पर ला ले तो|

दूसरा: कुछ उद्घोष जैसे कि "भारत माता की जय", "वन्दे मातरम" और "जय श्री राम" आदि-आदि!

और भुगत इन भक्ति के चासडूओं के साथ सारा देश रहा है| और धर के नाच लो फंडी-फलहरियों को सर पे| देश-देश क्या, अपने-अपने घरों की चाबियाँ भी इनको दे दो; जो नहीं सबके घरों के यस-बैंक से ले सारे प्राइवेट कॉर्पोरेट - सरकारी इंस्टीटूशन्स बेचने-रसातल में बैठाने जैसे ये बड्डे-बड्डे चुघड़े थारे घरों के ना चास दें तो कहियो|

भक्ति-आध्यात्म राह और रूह लगता ही सुहाया करै, कंचनों की तरह माचने से यूँ ही का...च लिकड़ा करै, ज्यों अब निकाल रखी फंडियों ने| इनका क्या बिगड़ै, कुछ नहीं क्योंकि आबादी से पहले बर्बादी की ट्रेनिंग लिए होता है फंडी|

वही बात कर्म से कोई शूद्र ना हुआ करता, असली शूद्र दिमाग व् सोच का हुआ करता है; जो फंडियों ने सबसे ज्यादा तथाकथित पढ़ेलिखे व् मॉडर्न शहरी बनाये हैं| कसर गामों में भी कम ना रह रही| यह शुद्रपणा ही है कि तुम्हारे बैंक एकाउंट्स खाली कर दिए, नौकरी कोई छोड़ी नहीं और तुम फिर भी चुसक नहीं रहे या भक्ति में ही डूबे पड़े हो| दुत्कार दो इन फंडियों को अभी भी वक्त है, वक्त है कि अभी फंडी वह प्रलय नहीं लाये हैं; जिसके लिए कि यह सधाए और पठाये हुए हैं|

या फिर इन जैसे ही बनो हो तो कम-से-कम अपने तो घर, बैंक खाते भर लो; इतने बड़े उस्ताद स्तर के सयाने तुम नहीं| 99% अपनी लांगड़ सी यूँ फड़वाये हांडै सैं इनके हाथां ज्युकर पागल कुत्ते के फटफेडे में आ गए हों|

A fresh satire news:

धर्मगुरु लोगों ने सरकार से कहा है कि "यस-बैंक" के लुटे हुए ग्राहकों को हमारे लिए यह वाला गीता-ज्ञान जनता में प्रचारित करने की ड्यूटी लगाई जाए:

"तुम क्या ले के आये थे, क्या ले के जाओगे, क्यों रोते हो, तुम्हारा क्या था जो खो गया, जो लिया यहीं से लिया, जो दिया यहीं दिया, जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का हो जाएगा"

धर्मगुरुवों का तर्क है कि इस तरह लुटे हुए लोग ही इस ज्ञान के असली प्रचारक कहला सकते हैं व् लोगों को इसको मानने हेतु बेहतरीन तरीके से कन्विंस कर सकते हैं|

परन्तु अभी तक सरकार ने जितनों को भी कांटेक्ट किया है सब सरकार और धर्मवालों को गालियाँ देते सुने गए हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Thursday 5 March 2020

हरयाणवी होळी, होळ (अधपके चने के दाने) भूनकर खाने का त्यौहार है!

कोई होलिका नामक बहन-बुआ को सरेआम आग में जलाने का नहीं| तब भी नहीं अगर वह वाकई में जैसा माइथोलॉजी बताती है वैसी कुल्टा भी रही होगी तो|

उदारवादी जमींदारों की औलादो, अपने पिछोके में झाँकों; तुम्हारे पुरखे हल की फाल के आगे आ जाने वाले टटीरी के अण्डों तक के लिए खूड छोड़ देने वाले दयालु लोग रहे हैं| वह ऐसे सामाजिक-सार्वजनिक वाहियात ड्रामे करने वाले लोग नहीं थे| हाँ, व्यक्तिगत तौर पर हिंसाएं कोई बेशक करता हो, परन्तु अगर यह होलिका को जलाना ऐसी भी कोई हिंसा थी तो भी उदारवादी जमींदारी हिंसाओं के उत्सव नहीं मनाती| सनद रहे युद्ध व् हिंसा-अत्याचार-अमानवीय सजाओं में दिन-रात का फर्क होता है|

यह उन्हीं "झींगा-ला-ला-हुर्र-हुर्र" टाइप मेंटालिटी वालों के लिए छोड़ दो जिन्होनें यह बेहूदगियाँ घड़ी हैं| बुराई हर युग हर काल में स्थाई रूप से विद्यमान होती आई है, यह हिंसाओं के उत्सव मना के क्या संदेश देना चाहते हो कि होलिका इस विश्व की आखिरी अपराधन थी, उसके बाद मानवता पर अपराध ही नहीं हुए?

स्वधर्मी होने का मतलब यह नहीं कि फंडी जो भी बकवास भौंकेगा, तुम उसको आत्मसात करोगे| धर्म से भी झाड़-पिछोड के ग्रहण करने वालों की औलादें हैं उदारवादी जमींदार, इसलिए अपने पुरखों की आन-शान पर चलो और हर त्यौहार में जो भी हिंसक बात हो उसको साइड करो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ऐसी बिरादरियों, जिनको हर बिरादरी के फंक्शन में जासूसी करने हेतु एक-दो नुमाइंदा भेजने/शामिल करवाने की खाज होती है या तो उनसे तुम भी ऐसा ही बराबरी का पैक्ट करो कि उनके प्रोग्राम में हमारा भी एक-दो नुमाइन्दा आया करेगा; अन्यथा तो क्यों वो मेरी दादी की कहानी वाली नकटी रांड कहलवा अपनी छीछालेदार करवाते हो!


नकटी रांड कौनसी? मेरी दादी एक नकटी लुगाई की कहानी सुनाती थी कि वह इतनी नकटी थी कि उसका खसम उसको मारने दौड़े और वह कहे कि इबकै मार? वो उसकै एक जड़ै, वह फिर यही बकै कि अबकै मार? वो फेर जड़ै वा फेर बकै|

यह जितने भी बिरादरी के टाइटल से फंक्शन्स होते हैं, इनमें अगर इस पोस्ट के शीर्षक के अनुसार पैक्ट के तहत ही कोई अन्य बिरादरी का व्यक्ति आवे और आप उनके में जावें या अपना नुमाइंदा/जासूस भेजें तो ही बात राह लगती है| अन्यथा अपनी बिरादरी के फंक्शन का मतलब सिर्फ अपनी ही बिरादरी के लोग होने चाहिए, आयोजक-स्पोंसर्स-पार्टिसिपेंट्स सब|

और खासकर जिन समाजों ने फरवरी 2016 देख व् झेल लिया हो अगर वह सिर्फ और सिर्फ अपनी जाति या सामाजिक संस्था का ही सम्मेलन-महापंचायत नहीं कर सकते और उसको वाकई में उसी के लोगों तक सिमित नहीं रख सकते तो समझना वह मानसिक रूप से अभी तक भी खुद को आज़ाद नहीं कर पाए हैं| ऐसे लोग पुरखों की निर्भीकता व् स्वछंदता के रत्तीभर भी पास नहीं पहुंचे हैं| ऐतराज नहीं कि 36 बिरादरी के कार्यक्रम भी करो और औरों द्वारा किये हुओं में जाओ भी, परन्तु अगर कार्यक्रम सिर्फ अपनी बिरादरी के नाम पर करते हो और वहां नॉन-अपनी बिरादरी को बिना किसी इस पोस्ट के शीर्षक टाइप समझौते या पैक्ट के जिमाते/बुलाते हो तो तुम वाकई मेरी दादी की ऊपर बताई कहानी वाले नकटे हो| ऐसे नकटे लोगों से दूर रहो चाहे वह किसी भी बिरादरी के हों|

वह आदमी बिरादरी का हो ही नहीं सकता जो फरवरी 2016 जैसे इन्सिडेंट्स को बेस या सीख मान, कार्यक्रम व् उनकी स्ट्रेट्जी बना के नहीं चल सकता/सकती; इससे तो अच्छा है कि आप कार्यक्रम ही मत करो| नकटी मति के साथ कार्य करने से आप कार्य नहीं ही करोगे तो वह भी बिरादरी की असिमता-बुलंदी में आपका योगदान होता है|

विशेष: ऐसे लोगों का नाम, बिरादरी व् काम मेंशन किये बिना, जनरल तरीके से संदेश देने सीखिए| इससे संदेश लेने वाला संदेश ले लेगा और जिनने गलती की होगी उसको महसूस भी नहीं होगा| पोस्ट हमेशा जोड़ने की होनी चाहिए, महसूस करवाने या तोड़ने की नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday 2 March 2020

कल ऑस्ट्रेलिया में दो महीने रह कर आये बुआ-फूफा से बात हुई तो अंदाजा लगा कि हरयाणा-एनसीआर में खाने में पेस्टीसाईड व् वायु-प्रदूषण कितनी विकराल समस्या बनती जा रही है!

दोनों 65+ की उम्र में जा चुके हैं| फूफा ने बताया कि ऑस्ट्रेलिया में रोज 7-8 किलोमीटर पैदल चल लेता था तो भी थकावट महसूस नहीं होती थी| और जिंद आ के हफ्ते भर तो रूटीन कायम रखने की कोशिश करी परन्तु इतने ही वक्त में रूटीन 1-2 किलोमीटर पर सिकुड़ गया है| बुआ ने बताया कि वहाँ घी-दूध खूब खा लेती थी फिर भी लगता था कि कुछ खाया ही नहीं और यहाँ आ के फिर से वही जोड़ों के दर्द व् अलकस शुरू| एक चम्मच भी घी खा लूँ तो कलेजे में रखा रहता है|

दोनों जगह के अनुभव का फर्क बताते हुए दोनों बोले कि एक तो वहां की वायु शुद्ध और दूसरा खाना आर्गेनिक यानि बिना खाद-दवाईयों का है और यहाँ दोनों ही बातें उसके विपरीत| कह रहे थे कि हम तो वहीँ जा रहे हैं जल्द-से-जल्द और वो भी हमेशा के लिए| कजिन रहता है वहां सपरिवार उसके पास|

उनसे बातें होने के बाद मैं चिंतनीय सोच में पड़ गया कि जिनका ब्योंत है वह तो इंडिया से ऊड़ जायेंगे ऑस्ट्रेलिया जैसी जगह पर, परन्तु जिनका ब्योंत नहीं या जो स्वेच्छा से रहना ही हरयाणा-एनसीआर में चाहता है उनका क्या होगा या उनके स्वास्थ्य व् जीवन के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ हो रहा है, इसका क्या? आखिर इसका क्या हल होगा और कौन निकालेगा?

क्योंकि जब से किसान-राजनीति को हासिये पर धकेला गया है तब से यह वायु व् खाने में जहर की समस्या विकराल ही विकराल होती जा रही है| ना शहरों में दुकानों में बैठ जहरी पेस्टिसाइड्स बेचने वाले दुकानदारों को समाज के स्वास्थ्य की चिंता और पहले से ही एमआरपी तक के फसलों के दाम पूरे नहीं मिलने वाले किसान (उसको कब खुद फैक्ट्री वालों की तरह अपनी फसल रुपी प्रोडक्ट के दाम खुद निर्धारित करने का अधिकार होगा, यह तो बातें ही कोसों दूर जाती जा रही है) को तो परिवार पालने के ही लाले पड़े रहते हैं तो उसके हालात वैसे ही नहीं छोड़े सरकारों ने इन पहलुओं पर सोचने लायक|

और ऊपर से दुनिया के सबसे वाहियात फंडी लोगों का हमारे यहाँ आम किसान-मजदूर-व्यापारी व् आमजनता पर जाल, ऐसा जाल जिससे कि अब तो जनता को वैसी ही सहूलियत सी लगने लगी है जैसे बेल-जंजीर से बंधे जानवर को लगने लगती है और वह उससे छूटने-छुड़वाने की कोशिशें करना भी धर्मद्रोह या राष्ट्रद्रोह समझने लगता है|

ना ही कोई मूवमेंट इस दिन-प्रतिदिन हरयाणा-एनसीआर में बाकी के इंडिया से बढ़ते ही जा रहे जनसंख्या पलायन पर इसको रोकने या डाइवर्ट करने हेतु दीखता| कोई नहीं कहता कि बहुत हुआ, बस करो क्या सारा इंडिया हरयाणा-एनसीआर में लाकर बसाओगे; बल्कि वहीँ फैक्ट्रियां-रोजगार क्यों नहीं ले जाते जहाँ से सबसे ज्यादा बेरोजगारी व् फंडियों के नश्लवाद की प्रताड़ित जनता का यहाँ पलायन हो रहा है|

धरातल पर बैठे हुओं की क्या, 99% एनआरआई तक इन चीजों बारे लोगों को जागरूक करना, अपने धर्म-देश की तौहीन मानने वाली जंजीर में जकड़े पड़े हैं| वह तक यह बातें लिखते-फैलाते नहीं कि अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया आदि जैसे देश वाकई में रहने लायक हैं तो क्यों हैं| बल्कि वह "यूरोप वाले तो काले कोट-पेण्ट-टाई तो वहां अधिक सर्दी की वजह से पहनते हैं तुम हिंदुस्तानी क्यों ढोते हो इनको?" जैसी पोस्ट्स वायरल करते बहुतेरे एनआरआई ही देखे हैं| इनमें बहुतों को देख के तो यह लगता है कि यह तो धरातल पर बैठे भक्तों के भी फूफे हैं|

निसंदेह, अगर ऑस्ट्रेलिया-यूरोप जैसे देश ऐसा कर पाए तो उसकी सबसे बड़ी वजहें रही कि सबसे पहले तो इन्होनें अपने-अपने धर्मों के फंडियों को लिमिट में बाँधा (चर्च-मस्जिद से बाहर कोई धार्मिक प्रोग्राम नहीं कर सकता यहाँ; जो करना है अपने धर्म-स्थलों के परिसर में करो, जिसको तुम्हारी बिड़क यानि जरूरत होगी वह खुद चला आएगा तुम्हारे पास), फिर सरकारों व् सिस्टम को जवाबदेह बनाया तो ही ऐसा हो पाया|

खैर, लिखते हुए उदासीन हूँ क्योंकि क्या मेरे जैसे जो खुद यूरोप जैसे न्यूनतम प्रदूषित वातावरण व् लगभग आर्गेनिक फ़ूड खाने वालों के देश में रहते हैं उनके यह लेख इन मुद्दों पर किसी भी तरह की जागरूकता या चीजों में गति लाने हेतु काफी होंगे? लगता है खामखा ही कलम घिसाई हो रही है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक