Saturday 20 August 2022

विषय: जाटों व् उसकी मित्र जातियों में विधवा विवाह, वर्णवादियों द्वारा उसके बारे फैलाये नकारात्मक पहलु व् इस विवाह के विधान अनुसार इसके सकारात्मक पहलू!

विधवा विवाह का मूल अर्थ

1) विधवा महिला, एकल या एकल मां का जीवन या पुनर्विवाह के जीवन के बीच चयन करने के लिए हमेशा स्वतंत्र रही है!
2) उसके दिवंगत पति की संपत्ति नैसर्गिक रूप से बराबरी से उसकी भी होती है, जो पति के मरने के बाद उसको व् उससे उसकी औलादों को स्थान्तरित होती आई है!
वर्णवादी फंडी, इसके विरोध में कहते हैं कि
1) जाट (यहाँ वह बाकी मित्र जातियों को छोड़ के, सिर्फ जाट पे निशाना धरते हैं) लोग अपनी पारिवारिक संपत्ति की सुरक्षा के लिए ऐसा करते हैं! - हाँ, जैसे जाट तो बिहार-बंगाल के सामंतों व् स्वघोषित सवर्णों की भांति, विधवा को मनहूस घोषित कर या तो काल-कोठरियों में डाल देते हैं, या उनको हरद्वार से हुगली तक गंगा घाटों के विधवा आश्रमों में फिंकवा देते हैं, वह भी सर के बाल मुंडवा के, या उनको सफेद ड्रेस कोड दे देते हैं व् ब्याह-शादी में खड़ा होने तक पे भी पाबंदी लगा देते हैं|
2) जाट चाहते हैं कि उनकी महिला हमेशा उनके नियंत्रण में रहे, इसलिए वह ऐसा करते हैं! - हाँ, जैसे जाट तो अपनी माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बना के पूजते हैं|
3) फंडी अपने ग्रंथों में जाटों की विधवा-विवाह जैसी मानवताओं से जलते-भुनते जाटों को शूद्र व् मलिन ठहराने हेतु, इनके यहाँ विधवा विवाह किये जाने को भी एक वजह बताते होते हैं| - हाँ, जिन्होनें तमाम ग्रंथों में स्त्री को ही शूद्र लिखा हो, तो इनके अनुसार औरत की भलाई के लिए सोचने वाले तो शूद्र होंगे ही|
खैर, अब आते हैं विधवा विवाह के सकारात्मक पहलुओं पर:
1) विधवा विवाह स्वैच्छिक है, बाध्यकारी नहीं: खापलैंड व् मिसललैंड के हर गाम के कुनबों-ठोलों में ऐसी विधवाएं मिलेंगी जिनको विधवा विवाह ऑफर हुआ परन्तु उन्होंने मना कर दिया व् अपने दिवंगत पति की सम्पदा पर आजीवन बसती हैं| माँ हैं तो एकल माँ के तौर पर अपने बच्चों को बड़ा करती हैं व् समाज की हर सुख-सुविधा एक ब्याहता के बराबर ही भोगती हैं| खुद लेखक के ठोले में लेखक की 6 काकी-ताइयां हैं, जिन्होनें विधवा विवाह से मना किया व् एकल माँ का जीवन जीती हैं| हाँ, कहीं 100 में कोई 2-4 केस जोर-जबरदस्ती के हो जाते हैं, जो चाँद में दाग के समान दुनिया के हर पहलु में पाए जाने स्वाभाविक हैं और फंडी लोग सिर्फ इन्हीं 2-4% पे पूरी कहानी पाथ के फैलाने लगते हैं| ऐसा है फंडियों, बाज आ जाओ इन हरकतों से; वरना जिस दिन जाट इन चीजों को ले तुम्हारे पीछे पड़ गए तो हिन्द महासागर डूबें पैंडा छूटैगा थारा|
2) एक ही परिवार या कुल के पुरुष को पिछले पति से बच्चों के उचित पालन-पोषण को ध्यान में रखते हुए चुना जाता है। इन बच्चों की लगातार और स्वस्थ निष्पक्ष परवरिश सुनिश्चित करने के लिए उन्हें एक ही परिवार की देखभाल में रखना सबसे आवश्यक है। - हरियाणवी और बॉलीवुड अभिनेत्री सुमित्रा हुड्डा पेडनेकर जी का यह कथन है
3) महिला के लिए भी, नए परिवार में जाने की तुलना में एक ही परिवार में स्थापित रखना या समायोजन करना हमेशा आसान होता है। इस तरह उसकी बंदोबस्त अवधि, जद्दोजहद और ऊर्जा सब बच जाती है।
4) विधवा को द्विंगत पति की प्रॉपर्टी से तभी अलग किया जाता है अगर वह पीहर में बसने की कह दे अथवा उसका विवाह कहीं और गाम में होवे। वह भी उसकी स्वेच्छा से, बाध्यता इसमें भी नहीं है। मेरे गाम में कई बुआएँ ऐसी हैं जो विधवा हुई या पति को छोड़ के आ गई व् दूसरा ब्याह नहीं किया तो भी मायके में भाईयों के बराबर के हक में रहती हैं।
तो ऐसे चपडगंजु, जाटों व् उनकी मित्र जातियों को महिला सम्मान व् जेंडर सेंसिटविटी ना सिखावें, जो विधवा की परछाई से भी डरते हों, उसके दर्शन मनहूस मानते हों। होंगी हमारे यहाँ भी समस्याएं इससे संबंधित परन्तु तुम जितने गए-गुजरे गंवार-राक्षस तो फिर भी नहीं। हम चुप रहते हैं व् समाजों में ऐसी नुक्ताचिनियां नहीं निकालते तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम सभ्याचार व् जेंडर सेन्सिटिवटी के संदेशवाहक बनोगे, वह भी जाटों व् इसकी मित्र जातियों के बीच।
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday 19 August 2022

ठीक-ठीक लगा यार; क्यों पुरखों के कल्चर का बेखळखाना बनाने पे तुले हो?

अभी दो दिन पहले राखी मना के हटे हो, और आज उन्हीं बच्चों को रासलीला वाली ड्रेसेज पहना के BF-GF बना के मटकियां फुड़वा भी रहे हो? चाहते क्या हो अपने कौम-कल्चर से आप ऐसे लोग?

कृष्ण, ने उसकी बहन सुभद्रा, उसकी बुआ (जाटों में बुआ सगी हो या मुंहबोली, बरतेवा दोनों अवस्थाओं में सगी वाला करते हो या नहीं?) कुंती के लड़के अर्जुन के साथ भगाई थी; क्या चाहते हो कल को आपकी बहन-बेटियां भी आपको अपनी बुआ-बाहणों के लड़कों के साथ भगाणी हैं क्या?
जाटों में ऐसे उल्टे काम जो भी कर दे, जाट समाज उसको या तो समाज से बाहर कर देता है या उसको उसके हालातों पे छोड़ देता है; ऐसे लोगों को जाट सभ्यता आदर्श नहीं बनाती, ना मानती| अगर यह किसी अपने का ही पुरखा भी रहा है तो भी इसको इसके हाल पे छोड़ देने लायक है, सर पे धरने लायक नहीं| यह सिस्टम फंडियों में चलता है कि माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बना के रखते हों, म्हारे नहीं| म्हारे हॉनर किलिंग करने वाला हो या अपनी बहन को अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाने वाला; वह समाज से या तो गिराया जाता है अथवा उसके हालात पे छोड़ दिया जाता है|
ठीक-ठीक लगा यार; क्यों पुरखों के कल्चर का बेखळखाना बना दिया या बनाने पे तुले हो? जाट वाली अणख बिलकुल मर ली क्या, यह फंडी ही रह गए क्या कि यह जो भी उल्टा-सुल्टा बोलेंगे; वही करते जाओगे? क्यों धक्के से शुद्रमती हुए जाते हो!
जय यौधेय! - फूल मलिक

भाभियों को बहन कहना व् देवर-जेठों को भाई साहब कहना; अति-मर्दवादी समाजों का कल्चर है हमारा नहीं!

ऐसे मर्दवादी समाज, जो माँ की हॉनर किलिंग करने वाले को भी भगवान मानते हैं; यह उन समाजों का कल्चर है| हॉनर किलिंग करने वाला जहाँ भगवान हो, वहां औरत कितनी दबा के रखी जाती है, इसी से अंदाजा लगा लो| 


यह लोग बेहद वासनाकृत लोग हैं, इनके यहाँ सगी बेटियों को देख संखलित हो जाने वाले उदाहरण होते हैं; इनके चलते इनकी औरतें बहुत शर्म व् डर महसूस करती यहीं| और उनमें इनके प्रति कुंठा भर जाती है| 


यह कुंठा फूट के कहीं बाहर ना निकल पड़े; इसलिए देवर-जेठ को "भाई साहब" बोल के उस कुंठा को कुछ हद तक शांत रखवाने के चोंचले हैं यह इन अति-मर्दवादी समाजों के| 


जाटों में, देवर-जेठ मतलब देवर-जेठ व् भाई-बहन मतलब भाई-बहन| 


हमारे यहाँ ना तो हॉनर किलिंग करने वाले को भगवान बनाते, ना बेटियों को देख संखलित होने वालों को व् ना ही अपनी बहन को अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाने वाले को| कोई ऐसा हो भी जाता है हमारे समाजों में तो उसको या तो समाज से निष्काषित करते हैं या उसके हाल पे छोड़ देते हैं| 


कोई मेल ही नहीं है जी सोच से ले अचार-व्यवहार किसी का भी| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Tuesday 16 August 2022

जालौर घटना के लिए जितना जिम्मेदार रूढ़िवादी वर्णवाद है, उतने ही SC/ST व् OBC समाज से आने वाले IPS/IAS ऑफिसर्स व् फ़ौज के कमीशंड अफसर भी जिम्मेदार हैं!

जालौर जैसी घटना के पीछे दोष तो SC/ST व् OBC समाज से आने वाले उन IPS/IAS ऑफिसर्स व् फ़ौज में इन तबकों के उन कमीशंड अफसरों का भी है; जहाँ आम कांस्टेबल/थानेदार/फौजी उस लिफ्ट से नहीं जा सकते जिससे यह अफसर जाते होते हैं, उन मैस या बर्तनों में नहीं खा सकते जिनमें यह अफसर खाते हैं| 


जब इस स्तर पर जा के यह लोग, इन प्रोक्टोकॉलस को डिपार्टमेंट के अंदर सब के लिए बराबर नहीं कर/करवा सकते, तो किस SC/ST या OBC से उम्मीद करते हो इन चीजों को सुधारने की? उससे जो दो जून की रोटी अगले दिन कैसे कमानी है; आज की दिहाड़ी खत्म होते ही इस चिंता में जीवन जीता है? 


दरअसल, SC/ST व् OBC के अफसरों ने ना कभी इन विभागों के इस भेदभाव को खत्म करने को चिंता दिखाई और ना ही मिथक चरित्रों पर फंडियों द्वारा इनकी बना दी जाने वाली पहचान पर? 


ऐसे तो भाई, कितनी सदियां और निकाल लेना; नहीं निकल पाओगे फंडियों के वर्णवाद के चंगुल से| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

जालौर काण्ड हुआ वर्णवाद के चलते, दोष जातिवाद पे; करेक्शन करो यार!

जालौर में दलित बच्चे द्वारा मटके से पानी पीने पर मारने से उसकी मौत का कारण बनने वाला है, एक वर्णवादी; परन्तु दोष जातिवाद पर?


तुम्हारे दिमाग में कोई लोचा है क्या? वर्णवाद को वर्णवाद कहो ना? खामखा, रॉंग चैनल (wrong channel) पकड़े चल रहे दशकों से! वर्णवाद का शोर करो, फिर देखो नतीजा! वह वर्णवाद जो ना कर्म आधारित व्यवहारिक है और ना जन्म आधारित! थोथा सगूफा छोड़ रखा है, ना जाने कब से!

यह जन्म आधार पर सही होता तो ब्राह्मण वर्ण में सब अध्यापक, वाचक ही पैदा होते; दिल्ली -एनसीआर में रिक्शा चलाने वाला हर दूसरा पांडे-मिश्रा ना होता या खेती करने वाले पैदा ना होते इस वर्ण में| ऐसे ही जन्म आधार पर क्षत्रिय वर्ण में क्षत्रिय ही पैदा होते व् वैश्य व् शूद्र वर्णों में वैश्य व् शूद्र ही पैदा होते; यह वर्ण-क्रॉस कर क्षत्रियों में शूद्रमति वाला, शूद्रों में वैश्यमति वाला पैदा ना होता|

और ना ही यह कर्म आधारित व्यवहारिक है; ऐसा होता तो एक प्रोफेसर बने शूद्र को ब्राह्मण का सर्टिफिकेट मिलता व् एक रिक्शा चलाने वाले ब्राह्मण को शूद्र का|

मिलता है क्या ऐसा कुछ, कोई संस्था, कोई सिस्टम जो कर्म-के-आधार पर वर्ण बदलता हो? नहीं है, बल्कि जो जहाँ पैदा हो रखा वह ताउम्र वही लाभ-हानि-दंश झेलते-भोगते हुए जीता है; जीता है या नहीं?

तो है कोई व्यहारिकता इस कांसेप्ट में; खामखा गोबर-ज्ञान में टूटे रहते हो व् इसी को ढोते रहते हो|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday 7 August 2022

फसल-नस्ल-असल: जिस समुदाय के यह तीनों दुरुस्त हैं, वह संख्याबल में कम हो के भी सबसे पावरफुल है!

1) - फसल: कृषक है तो उसके लिए खेती की उपज उसकी फसल है, व्यापारी है तो उसका व्यापार उसकी फसल है, नौकर है तो उसकी नौकरी| 

2) - नस्ल: आपकी अगली-पिछली पीढ़ियों के जैनेटिक्स| 

3) - असल: आपके समुदाय की दार्शनिक विरासत यानि किनशिप| 


फसल व् नस्ल की दुरुस्ती का भी आधार है असल| अगर आपका असल नहीं है अथवा अस्त-व्यस्त बिखरा हुआ है तो आपकी फसल व् नस्ल को फंडी जीमता है, वह भी डंके की चोट पर| बिना असल का समुदाय ही दरिद्र है|


ऐसे ही उदारवादी जमींदारी समुदाय है उत्तर-पश्चिमी भारत में, जिसका असल हैं उसके खाप-खेड़े-खेत| इतिहास में झाँक के देखो जब-जब यह समुदाय अपने असल पर दुरुस्त रहा है तो समाज की इकॉनमी की धुर्री रहा है| इसलिए इस दार्शनिक विरासत को सबसे ज्यादा तन्मयता से लीड करने वाली जाति को "जी" व् "देवता"; इसकी दार्शनिकता पर ही गिद्द-दृष्टि रखने वालों द्वारा इसीलिए लिखा-कहा-गाया गया; क्योंकि इसी दार्शनिकता के चलते यह समाज के इकनॉमिक (आर्थिंक) पहिये की धुर्री बनते आए| परन्तु यह इस लिखत व् गाने से सुस्त होता चला गया, क्योंकि यह इसके अपनों ने नहीं लिखी थी व् दिग्भर्मित करने वाली बात थी, जिसके चलते यह उदारवादी से अति-उदारवादी होता गया| व् अति किसी भी चीज की बुरी होती ही है, तो इसके नतीजतन आज इनका असल अस्त-व्यस्त हालत में है और जिसकी वजह से यह 35 बनाम 1 झेल रहा है| और झेलता ही रहेगा जब तक अपने असल यानि अपनी दार्शनिक विरासत को अस्त-व्यस्त से व्यस्त नहीं करेगा| 


जय यौधेय! - फूल मलिक  

Wednesday 3 August 2022

"ओए, तुझे ईगो प्रॉब्लम है क्या"? - आखिर क्या है यह बला?

आगे बढ़ने से पहले एक तो यह जान लें कि इंडिया के जितने भी जानेमाने गुरु-प्रवचन देने वाले हुए हैं या हैं लगभग सभी छुपे रूप से जिनसे मनोविज्ञान का ज्ञान चुराते हैं, आईये सीधा उनमें से एक सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत से समझते हैं कि क्या बला है ईगो। सिगमंड फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार हर इंसान की तीन तरह की न्यूरोलॉजी यानि मानसिक अवस्था होती हैं, जिनमें ईगो आपको बीच में लटकाने वाली चीज है:


(1) आईडी/ID (इदम) न्यूरोलॉजी: जैसे आपकी बाह्य शक्ल-सूरत की एक सामाजिक आइडेंटिटी व् नाम होता है, ऐसे ही यह आपकी आंतरिक आइडेंटिटी होती है। आपकी आंतरिक आइडेंटिटी इच्छा / वासना / आकांक्षा / लालच / मूढ़ता से बनी होती है। आईडी व्यक्तित्व इंसान व् पशु दोनों में समान पाया जाने वाला एक पाशविक (पशु) हिस्सा है, जो कि ज्यादा यौन-क्रिया करने, जीवित रहने और पनपने मात्र तक की एक अचेत अवस्था है, जो बच्चे को दंभी अथवा दब्बू दोनों में से एक बना देती है। पशु इससे आगे विकसित नहीं हो पाते, परन्तु क्योंकि इंसान को प्रकृति ने इससे आगे विकसित होने का गुर बख्शा है तो वह अपने आपको इससे आगे विकसित कर सकता/ती है। जो ऐसा नहीं करता, वह खुद के शरीर को खुद खाने लगता है। सही समझ, देखभाल व् माहौल नहीं मिल पाने की वजह से शरीर के विकास का खुद ही दुश्मन बन बैठता है। और अगर यह दुश्मनी चिरस्थाई हो जाए तो ऐसा व्यक्ति "कस्तूरी वाले हिरण" की ज्यों कस्तूरी की तलाश में ही मर जाता/जाती है। इनको "भरी थाली को ठोकर मारने वाले भी कहा जाता है"। यह समस्या घर के भीतर-बाहर दोनों जगह से आपके बच्चे में आ सकती है। परिवार के भीतर बचपन में बच्चों को इस ट्रैक पर जानबूझकर भी धकेला जा सकता है व् जवानी या किशोरावस्था में वह खुद भी इसका शिकार हो सकता/सकती है। परन्तु अगर जन्म से 10 साल तक का वक्त बच्चे का सही देखभाल, निगरानी व् जिम्मेदारी से निकलवा दिया जाए तो किशोरावस्था में उसमें यह समस्या आने के आसार नगण्य होते हैं। घर से बाहर फंडी का गपोड़ ज्ञान व्  प्रवचन आपके बच्चे को इसी अवस्था तक रोकने हेतु फंडियों के साइकोलॉजिकल वॉर गेम का हिस्सा होता है, इसलिए अपने बच्चों को इनसे अवश्य बचाएं।  

(2) अहंकार/Ego (अहम) न्यूरोलॉजी: अहंकार वह जगह है जहां चेतन मन रहता है। यह एक यथार्थवादी और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीके से आईडी/ID की जंगली इच्छाओं को पूरा करने के मुश्किल काम से भरा हुआ है। यह ID व् Super-Ego के मध्य की अवस्था है। यही वह स्टेज है जिसमें आपको लोगों से यह सुनने को मिलता है कि इसमें तो ईगो ही बहुत है। दरअसल यह अवस्था इस वजह से आती है क्योंकि आपने अभी तक अपनी नैतिकता व् विवेक को नहीं पहचाना होता है। हर आदर्श अभिभावक को अपने बच्चों को इस अवस्था से अगली अवस्था तक नहीं ले जाने तक उनकी जिम्मेदारी अधूरी रहती है। 

(3) सुपर अहंकार / Super-Ego (परम-अहम) न्यूरोलॉजी: सुपर-ईगो व्यक्तित्व का नैतिक घटक है और उसे उसके नैतिक मानकों को प्रदान करता है जिसके द्वारा अहंकार यानि Ego को संचालित किया जाना होता है। सुपर-ईगो द्वारा की गई आलोचनाएं, निषेध और अवरोध एक व्यक्ति के विवेक का निर्माण करते हैं, और इसकी सकारात्मक आकांक्षाएं और आदर्श व्यक्ति की आदर्श आत्म-छवि, या "अहंकार आदर्श" का प्रतिनिधित्व करते हैं। मूलरूप से कहा जाए तो आपके नैतिक मूल्य आपकी सुपर-ईगो हैं। इन तक पहुंचा हुआ व्यक्ति ही ईगो व् आईडी को कण्ट्रोल कर सकता है| इसलिए सुनिश्चित कीजिए कि आप या आपके बच्चे सुपर-ईगो तक विकसित किए गए हों|


और इन्हीं को हमारे महारथियों ने इनसे कॉपी मार तामसिक, राजसिक, सात्विक की व्याख्याएं घड़ रखी हैं; बिना इनको क्रेडिट दिए| यही काम है इन फंडियों का|


जय यौधेय! - फूल मलिक