Monday 28 December 2020

पंडित जी आप समझे नहीं और उसपे भी एक और नासमझी कर रहे हो!

गुरूद्वारे-मस्जिदों ने किसान आंदोलन में जब सर्वधर्म के लोगों के लिए लंगर-दावत लगाए तो चौधरी राकेश टिकैत को भी महसूस तो हुआ ही होगा (जब हम जैसे आम लोगों को हुआ तो उनको क्यों नहीं हुआ होगा?) कि गुरुद्वारे व् मस्जिदों द्वारा ऐसी उदारता व् मानवता दिखाने पर जैसे क्रमश: सिख व् मुस्लिम का आम जनमानस इतरा रहा होगा, गौरवान्वित महसूस कर रहा होगा तो मैं भी अपने वालों को यह गौरव दिलवाने से पीछे क्यों हटूं? जैसे सिखों-मुस्लिमों के लंगर-दावत का चर्चा UNO, WTO, UNSECO से ले अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया तक इन धर्मों की उच्चता की दुदुम्भी बजी हुई है तो हिन्दुओं की भी क्यों ना बजे? यही सोच के तो अपने पंडित/पुजारियों को फटकार लगाई होगी या नहीं?

और अपने धर्म के चौधरी के इस मर्म को समझने की बजाए वही रटी-रटाई काइयाँ राजनीति बरतते हुए "उल्टा चोर कोतवाल को डांटे" की भांति टूट पड़े टिकैत साहब पर? अरे भाई, दलित तुमसे परेशान (50% से ज्यादा तुमको मानना छोड़ चुका), ओबीसी भी बहुत सारा मुंह मोड़ रहा है और उसपे तुम किसान बिरादरियों से भी अहम-अहंकार-बेगैरत से पेश आ रहे हो? या तो बहुत धाप लिए या अहंकार में टूट लिए|
मत नादानी करो ऐसी| "दूध देने वाली गाय की तो लात भी खानी पड़ती है"; खटटर ने जब फरसे से हर्षवर्धन शर्मा का गला काटना चाहा तो यही कह के कन्नी काटे थे ना खटटर से? योगेश्वर दत्त को बरोदा उपचुनाव की टिकट मिलने पे लंगर वाला कुत्ता कहा तो आप चुप थे? जाटों के पुरखों द्वारा हर गाम गेल आपके पुरखों को खेती करके गुजर-बसर को दान में दी जमीनें (धौली की जमीनें बोलते हैं इनको) जब खट्टर ने आप लोगों के नाम से कानूनी उतरवा दी तब भी चुप्पी खींचे| ज्यादा पुरानी नाम नहीं हुई थी, 5 एक साल पहले हुड्डा जी ने ही सीएम रहते हुए नाम करी थी और बाबू-बेटे को क्रमश: सोनीपत-रोहतक से हराने के बाद भी इन्हीं किसान बिरादरी से आने वालों पे मुंह धोये बैठे होंगे आप जैसे लोग कि यह दोबारा सीएम बने तो फिर से करवा लेंगे अपने नाम| वैसे दान में मिली जमीन कभी नाम नहीं हुआ करती, जब तक बरतो तब तक बरतो अन्यथा ओरिजिनल मालिक को वापिस देनी होती है; दुनिया का कोई कानून नहीं जो आपको दान की जमीन की मलकियत दे दे; हुड्डा जी ने ऐसा किया भी होगा तो अपनी जाट-दयालुता के स्वभाव के चलते किया होगा| यकीन मानों टिकैत साहब में भी यही दयालुता का भाव रहा होगा कि मंदिर भी लंगर लगा देंगे तो मेरे धर्म का नाम भी सिख-मुस्लिम धर्म की भांति विश्वख्याति पा लेगा|
और आप इस अवसर को नहीं समझ रहे हो तो कम-से-कम चुप ही रह लो? अन्यथा फरवरी 2016 जैसे घाव खाए बैठा हुआ यही तुमपे सबसे दयालु जाट समाज खार खा गया तो जितना बचा है उसमें कटौती-ही-कटौती करते जाओगे और इसका दोषी आप लोगों का यह व्यर्थ दंभ मात्र ही रहेगा| क्षत्रिय नहीं हैं जाट कि बैठो कहो तो बैठेंगे और लड़ो कहो तो लड़ेंगे| अवर्ण बोली जाने वाली जाट कौम से आता है यह चौधरी जिसने आप लोगों को यह विश्वख्याति पाने की सलाह दी है, आह्वान किया है| खुद की सोच अकड़-घमंड-बहम-अहम् कुंध हो चली है तो आपके ही पुरखे महर्षि दयानन्द से सीख लो कि क्यों वह जाटों को अपने ग्रंथों में "जाट जी व् "जाट देवता" कहते-लिखते-गाते मर गए| 90% गांव के मंदिर इसी जाट समाज के दान-चंदे से चलते हैं| तो मत रूष्ट करो म्हारे चौधरी को, अन्यथा जाट रूठे तो कबूतर-काग बोलेंगे इन 80 फुट ऊंचे खम्बों में|
धर्म मानने वाले को धर्म भतेरे और नहीं तो नगर खेड़े पुरखों के दर रे;
घमंड ना कर ऐ खुद को स्याना कहने वाली कौम, कुछ हमधर्मी की अहमियत भी मान|
हम बड़ी ख़ामोशी से यह विरोध के ड्रामे देख रहे हैं आप लोगों के, कुछ हासिल नहीं होगा इनसे; सिवाए आपस में छिंटक के एक-दूसरे से दूर चले जाने के| इसलिए सविनय निवेदन है कि गलती-पे-गलती मत कीजिये|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 25 December 2020

यह खुद को ऊँचा व् श्रेष्ठ समझने की मरोड़ उनको दिखाना!

अगर चौधरी राकेश टिकैत वाली कॉल पे भी फंडी अपनी औकात दिखाने पर उतारू हैं और इनका थोथा अहम् व् अकड़ बात के मर्म को समझने की बजाए बेफालतू की रस्सकशी दिखा रहा है तो चलो चलिए फिर सिखी में; हमें हमारी खाप-खेड़े-खेत की हिस्ट्री वहाँ कैसे संभाल के रखनी है, वह गल-बातें मिल-बैठ के निर्धारित कर लेंगे| यह तो क्या इनके तो फ़रिश्ते भी "जाट जी" व् "जाट देवता" लिख-लिख ग्रंथ पाथ के पीछे-पीछे मान-मनुहार करते आएंगे 1875 वाले सत्यार्थ प्रकाश वाले दयानन्द ऋषि की भांति| सों नगर खेड़ों की, अबकी बार यह जितनी स्तुति मानमनुहार करें, रुकना नहीं, मुड़ के देखना नहीं| म्हारे पुरखों ने "दान में धौळी की जमीन" दे-दे 95% जमींदार बनाए ये और हमारे पे ही घुर्रा रहे| बेगैरत बेशर्मी बेहयाई की भी कोई हद होती है| इज्जत से इनको हाथ जोड़ो और कह दो कि आदरणीय म्हारा पैंडा छोड़ो बस|

होगे तुम उनके लिए बड़े जो तुम्हारी चतुर्वर्णीय व्यवस्था को मानते हैं; हमारे पुरखे तो तुम्हारे साथ तब रुके थे जब ग्रंथों में "जाट जी" लिखे थे| वह इज्जत-अहमियत लेने-देने की मान-मर्यादा मिटाते हो या उससे बाहर आते हो तो म्हारी तरफ से "नगर खेड़े की जय"| बराबर की इज्जत-मान-सम्मान से साथ रहना है तो 14 बार घसो-बसों अन्यथा जाटों के नहीं लगते तल्लाकी भी| अपनी यह खुद को ऊँचा व् श्रेष्ठ समझने की मरोड़ उनको दिखाना जिनसे ना कभी धन के दान लिए हों, ना जमीनों के दान लिए हों व् ना उनको कभी "जाट जी" कह के लिखा हो तुम्हारे पुरखों ने|
ये मनोहर लाल खट्टर चाहे हर्षवर्धन शर्मा की ले फरसा गर्दन काटने दौड़े या योगेश्वर दत्त को बरोदा चुनाव में टिकट मिलने पे उसकी लंगर वाले कुत्ते से तुलना करे; तब चूं ना हुई इनसे थोड़ी भी, अब चौधरी राकेश टिकैत ने लंगर बारे राह-लगती बात क्या कह दी; लगे बिलबिलाने| विरोध करने में भी दोगलापन इनके तो| वैसे तो खापलैंड के मामले में पहले भी थी परन्तु पिछले 1-2 दशक में बेहिसाबे मुंह लगाए जाने की वजह से ज्यादा ऊपर को मुंह हो लिए हों तो कोई ना, म्हारे पुरखों ने थारे पे "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखवाई-कुहाई, तुम्हें भी उसी लाइन नहीं लाये तो हम क्या अपने पुरखों के जाम कुहाए| "माँ तो चौथी-चौथी को फिरै और बेटा बिटोड़े ही बिसाह दे" वाली मचा राखी जमा| राह लगती बात बोलने के भी चोर बनाना चाहे रे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

टिकैत साहब की मंदिरों को फटकार, गुरद्वारे व् खापद्वारे!

हमारी उदारवादी जमींदारा फिलोसोफी के लोग जो शुरू दिन से "खापद्वारे" बनाने की वकालत करते आ रहे हैं, गुरुद्वारों की तर्ज पर; माननीय राकेश टिकैत जी का कल का ब्यान उसकी महत्वता को दर्शाता है| अगर टिकैत साहब की कॉल के बाद भी मंदिरों वाले नहीं सुधरते हैं और आंदोलनरत किसानों की सेवा हेतु अपने खजाने व् सेवायें नहीं खोलते हैं तो सर्वखाप के इतिहास में जो वीर यौद्धेयों-यौद्धेयाओं की कुर्बानियों व् वीरताओं की लम्बी सूची है उस पर बानियाँ बनवा के, संगीतबद्ध करवा के गुरुद्वारों की तर्ज पर खापद्वारों के जरिए अपना शुद्ध उदारवादी जमींदारे का "सीरी-साझी कल्चर व् दादा नगर खेड़ों के आध्यात्म" वाला उन्मुक्त सिस्टम शुरू कर लेना चाहिए| वैसे मंदिरों में खाप यौद्धेय-यौद्धेयाओं की बानियाँ कभी सुनने को मिलती भी नहीं, जब देखो फ़िल्मी आरतियां चलती हैं वह भी हिंदी में, संस्कृत में भी नहीं| और अगर गुरूद्वारे खापों के यौद्धेयों-यौद्धेयाओं की वीर गाथाओं-बानियों को अपनी बानियों-गाथाओं में स्थान देवें तो सिख धर्म में जाने से बेहतर विकल्प कोई है ही नहीं| इससे हमारे 15वीं शताब्दी (सिख धर्म की स्थापना की सदी) से पहले का इतिहास भी जिन्दा रहेगा, पुरखे साथ रहेंगे, उनका एकमुश्त आशीर्वाद साथ रहेगा तो सिखिज्म और भरपूर फैले-फलेगा और हमारा इन फंडियों से पिंड छुटेगा| हाँ, अगर टिकैत साहब की कॉल के बाद भी यह फंडी नहीं सुधरते हैं तो चलिए करें कुछ इस ऊपर लिखे जैसा| जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday 24 December 2020

एशियाई प्लेटो चिरकाल कूटनीतिज्ञ अफ़लातून महाराजाधिराज 'सूरजमल' सिनसिनवार, भरतपुर (लोहागढ) को उनकी पुण्य तिथि (25 दिसंबर, 1763) पर सत-सत नमन!

जयपुर के राजा ईश्वरी सिंह ने जाट नरेश ठाकुर बदन सिंह से जब कुछ इस तरह सहायता मांगी:

“करी काज जैसी करी गरुड ध्वज महाराज,
पत्र पुष्प के लेत ही थै आज्यो बृजराज|”

तो अपनी यायावरी-यारी निभाने हेतु ठाकुर साहब के आदेश पर कुंवर सूरजमल ने जब 3 लाख 30 हजार सैनिकों से सजी 7-7 सेनाओं {पेशवा मराठा, मुग़ल नवाब शाह, राजपूत (राठौर, सिसोदिया, चौहान, खींची, पंवार)} को मात्र 20 हजार सैनिकों के दम पर बागरु (मोती-डुंगरी), जयपुर के मैदानों में धूळ-आँधी-बरसात-झंझावात के बीच 3 दिन तक गूंजी गगनभेदी टंकारों के मध्य हुए महायुद्ध में अकेले ही पछाड़ा तो समकालीन कविराज कुछ यूँ गा उठे:
ना सही जाटणी ने व्यर्थ प्रसव की पीर,
गर्भ से उसके जन्मा सूरजमल सा वीर|
सूरजमल था सूर्य, होल्कर उसकी छाहँ,
दोनों की जोड़ी फबी युद्ध भूमि के माह||

जाटों से संधि कर, जाटों को ही धोखे में रख दिल्ली अफगानों (अब्दाली) से जीत, जाट राज्य को सौंपने की अपेक्षा मुग़लों को ही देने की छुपी योजना रखने वाले महाराष्ट्री पेशवाओ की चाल को अपनी कुटिल बुद्धि से पहचान, अपने आप पर पेशवाओं द्वारा बिछाए बंदी बनाने के जाल को तोड़ निकल आने वाला वो सूरज सुजान, जब ले सेना रण में निकलता था तो धुर दिल्ली तक मुग़ल भी कह उठते थे:
तीर चलें, तलवार चलें, चलें कटारें इशारों तैं,
अल्लाह-मियां भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आळे तैं!

ऐसी रुतबा-ए-बुलंदी थी लोहागढ़ के उस लोहपुरुष की!

खैर, जाटों का बुरा सोचने वाले महाराष्ट्री पेशवाओं को पानीपत में सबक मिल ही गया था| और महाराजा सूरजमल ने फिर भी अपनी राष्ट्रीयता निभाते हुए, पेशवाओं के दुश्मन (अब्दाली) से दुश्मनी मोल लेते हुए, पानीपत के घायलों की मरहमपट्टी कर, सकुशल महाराष्ट्र छुड़वाया|

परन्तु आजकल फिर उधर के ही नागपुर के स्वघोषित राष्ट्रवादी पेशवा दोबारा से जाटों की ताकत और अहमियत को नकारने की गलती दोहरा रहे हैं| भगवान सद्बुद्धि दे इनको, आमीन!

ऐसी नींव और दुर्दांत दुःसाहस की परिपाटी रख के गया था वो सिंह-सूरमा कि आगे चल 1805 में जिनके राज में सूरज ना छिपने की कहावतें चलती थी उन अंग्रेजों को आपके वंशज महाराजा रणजीत सिंह (जाटों के यहां दो रणजीत हुए हैं, एक ये वाले और दूसरे पंजाबकेसरी महाराज रणजीत सिंह) ने 1-2 नहीं बल्कि पूरी 13 बार पटखनी दी थी और इतना खून बहाया था गौरों का कि:
"हुई मसल मशहूर विश्व में, आठ फिरंगी, नौ गौरे!
लड़ें किले की दीवारों पर, खड़े जाट के दो छोरे!"

और क्योंकि इस भिड़ंत ने अंग्रेजों के इतने शव ढहाये थे कि कलकत्ते में बैठी अंग्रेजन लेडियां, शौक मनाती-मनाती अपने आँसू पोंछना भी भूल गई थी| उनका विलाप करना और शोक-संतप्त होना पूरे देश में इतना चर्चित हुआ था कि कहावत चली कि:
"लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकत्ते में"।

और जाटों के दोनों रणजीतों का जिक्र आज तलक भी जाटों के यहां जब ब्याह के वक्त लड़के को बान बिठाया जाता है तो ऐसे गीत गा के किया जाता है कि:
"बाज्या हो नगाड़ा म्हारे रणजीत का!"

जी हाँ, यह नगाड़ा वाकई में बाजा था, जिसने अंग्रेजों का भ्रम तोड़ के रख दिया था|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Friday 18 December 2020

औरंगजेब के दरबार में शहादत!

पोस्ट का निचोड़: आखिर कब तक इन फ़िल्मी आरतियों में धर्म ढूंढते रहोगे?

1 जनवरी 1670 सर्वखाप चौधरी गॉड गोकुला जी महाराज की शहादत होती है| आप जी ने औरंगजेब के द्वारा खेती-किसानी पर नाजायज कर लगाने के विरोध में सन 1669 में 7 महीने किसान-क्रांति करी व् अपने साथियों और 21 खाप चौधरियों के साथ शहादत दी|
दूसरी तरफ उसी औरंगजेब के दरबार में एक और शहादत हुई थी, 11 नवंबर 1675 में सिख गुरु तेग बहादुर जी महाराज की|
अब फर्क समझो तुम्हारे अपने धर्म में तुम्हारी अपनी पकड़ व् धर्म के पैरोकारों को धर्म की वाकई व् सही ड्यूटी पता होने का:
कौनसा ऐसा सिख ना होगा, जिसको गुरु तेग बहादुर की शहादत याद नहीं?
और हिन्दुओं में?
फंडी वर्ग तो छोड़ो जिस वर्ग से गॉड गोकुला आते हैं, 70% से ज्यादा तो उन्हीं को यह नहीं पता कि गॉड गोकुला थे कौन?
अत: सनद रखो कि सिर्फ धार्मिक होना ही काफी नहीं, आपके धर्म की कमांड व् कण्ट्रोल भी आपके हाथ में होना बहुत जरूरी है| आखिर क्यों मंदिरों के भोंपुओं से हमेशा फ़िल्मी आरतियां व् गाने ही बजाए जाते हैं? क्या हिन्दू धर्म में बलिदानियों की कमी है? क्यों नहीं सिख व् मुस्लिम धर्म की भांति इनके ऊपर शौर्य गाथाएं, गुरुबानियाँ बना के गाई-बजाई जाती?
आखिर कब तक इन फ़िल्मी आरतियों में धर्म ढूंढते रहोगे?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मिशलों व् खापों/पालों का समकक्ष मिल्ट्री कल्चर!

1) जब आप सिख निहंगों की सरंचना देखेंगे तो पाएंगे कि हर एक निहंग जत्थे की इंचार्ज एक मिशल है और यह जत्थेबंदियां अधिकतर "सीरी-साझी" बिरादरियों के बंदों की बनी हुई होती हैं|


2) ऐसे ही सर्वखाप सिस्टम में निहंग दस्ते के समकक्ष हर खाप/पाल के उसके हर गाम गेल "पहलवानी दस्ते" होते आये हैं, जो कि मिशलों की तरह ही अधिकतर सीरी-साझी बिरादरियों के ही बने होते हैं और जब-जब सर्वखाप की लड़ाईयां होती थी तो खाप/पाल की कॉल पर एक चिट्ठी के जरिये संदेशा दे कर बुलवाये जाते थे व् रातों-रात हजारों-हजार की सर्वखाप आर्मी खड़ी हो जाती थी|

अत: यह जो पंजाब-हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी, उत्तरी राजस्थान, उत्तराखंड में गाम-गेल कुश्ती के अखाड़े पाए जाने का "मिल्ट्री कल्चर" है इसकी बुनियाद यह मिशल व् खाप सिस्टम रहे हैं|

हालाँकि सर्वखाप सिस्टम जो कि फंडियों द्वारा बहुत ज्यादा छिन्नभिन्न किया जाता रहा है (स्वधर्मी होने का लाभ उठा कर यह फंडी यही पाड़-तुवाड़े करते आये हैं और अभी भी देख लो वर्तमान किसान आंदोलन को पाड़ने-तोड़ने में सबसे ज्यादा यही सलिंप्त हैं बावजूद यह इनके स्वधर्मी किसान के हक-हलूल की लड़ाई होने के) इनमें अगर यह फंडियों को फंदे-नकेल-नथ डाल लेवें तो यह सिस्टम ज्यों-का-त्यों कायम रह सकता है|

अच्छा हुआ जो भले वक्तों में भले महापुरुषों-गुरुवों के तेज से सिख लोग अलग हो गए और अपना यह सिस्टम ज्यों-का-त्यों बचाए हुए हैं; तभी तो निहंगों के घोड़े दिल्ली बॉर्डर्स पर अग्रिम कतार में ताल ठोंक रहे हैं|

आशा है कि इस किसान आंदोलन के हासिल के बाद सर्वखाप की खापलैंड पर इस "मिल्ट्री-कल्चर" को सहेजने व् सींचने का कोई मूवमेंट चलेगा|

विशेष: आशा है कि कोई भक्त इस पोस्ट पर यह कहते हुए भड़केगा नहीं कि ये देखो यह लोग तो देश में ही देश की ऑफिसियल सेना के समानांतर सेना खड़ी करने की बात कर रहे हैं; ऐसा बकने से पहले अपनी लाठियों वाली कच्छाधारी ब्रिगेड को चेक कर लेना कि वह क्या है? मिशल और खापों का तो देशहित में लड़ने का इतिहास भरा पड़ा है, तुम्हारा तो सिर्फ तोड़फोड़ का इतिहास है सिर्फ अफरातफरी का|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday 11 December 2020

किसानों की भंडारण क्षमता व् व्यापारी होने की भावना छीन कर अडानी-अम्बानी की झोली में डाल देंगे नए कृषि बिल!

और जो किसान सीजन पे फसल ना निकाल ऑफ-सीजन पे निकाल बढ़े रेट का जो मुनाफा लेते थे उससे हाथ धो बैठेंगे|

लेख का निचोड़: 3 नए कृषि बिल कोई नया रोजगार या व्यापार बना के नहीं देंगे अपितु खेत-मंडी के किसान-आढ़ती-मजदूर को अडानी-अम्बानी के यहाँ शिफ्ट मात्र करेंगे; वह भी कम संख्या में, बाकी बेरोजगार मरेंगे| पूरा समझने के लिए लेख को अंत तक पढ़िए|
विस्तार से समझिये: हरयाणा-पंजाब के लगभग हर गाम का उदाहरण लेते हुए बात रखता हूँ| इन राज्यों में ज्यादा नहीं तो हर गाम में औसतन 20/30 किसान घर ऐसे होते हैं जिनके यहाँ 5/10 से 60/100 एकड़ तक के अनाज व् तूड़ा भंडारण की क्षमता के पड़छत्ती-सोपे-कूप-गोदाम होते हैं| छोटी जोत वाले भी बहुत हैं जो थोड़ा-बहुत स्टोर करते हैं| यह लोग सीजन (अप्रैल-मई) पर कम ही गेहूं मंडी में बेचते हैं और खुद के घरों की पड़छत्ती-सोपों में, खेतों में कूपों में भंडारण करते होते हैं| जिसको कि ऑफ-सीजन (दिसंबर-जनवरी) में तब निकाला जाता है जब गेहूं MSP से भी डेड या दो गुना ज्यादा रेट पर बिक रहा होता है, खासकर महानगरों की मंडियों व् आट्टा मीलों में| और इस तरह सिर्फ भंडारण के दम पर जो फायदा-मुनाफा व्यापारी आदि लेता होता है, वह यह किसान खुद लेते हैं| और यह भंडारण सरकार द्वारा तय मानकों की लिमिट में होते आये हैं| तो इस हिसाब से यह किसान, किसान होने के साथ-साथ व्यापारी भी होते आए हैं| कई तो इतनी कैपेसिटी के किसान व्यापारी हैं कि खुद बनियों को इनके यहाँ से पैसे उधारी-कर्जे पे उठा अपने कारोबार-दुकान चलाते-शुरू करते अपनी आँखों से देखे हैं मैंने|
यूँ ही नहीं है हरयाणा-पंजाब के किसान की औसत आय देश में सबसे ज्यादा; इसीलिए है कि सर छोटूराम के बनाए कानूनों ने किसान को भी यह हक व् रास्ते दिए कि आढ़ती/व्यापारी वाला मुनाफा वह खुद भी कमा सके| सर छोटूराम के कृषि व् APMC जैसे मंडी कानूनों ने हरयाणा के आम किसान को व्यापारी के कम्पटीशन में ला खड़ा किया व् कई गाम तो ऐसे हैं कि ट्रेडिशनल व्यापारी कम्युनिटी वाले से किसान व्यापारी ज्यादा कॉम्पिटिटिव साबित हुए हैं| ट्रेडिशनल व्यापारी समुदाय को यह कानून कम्पटीशन देते हैं इसीलिए तो यह बात फैलवा रहे हैं कि यह आउटडेटिड हुए, अब नए तरीके से डेवलपमेंट हो| वह नया तरीका है सर छोटूराम के दिए कानूनों को खत्म कर, अपनी मनमानी के कानून लगवा; किसानों से उनका यह ऊपर बताया मुनाफा व् किसान के साथ-साथ व्यापारी होने की सोच, सुख व् क्षमता छीनना|
तो अब सोचिए कि अगर 3 नए कृषि बिलों के लागू होने से जब खेती कॉन्ट्रैक्ट की होगी, APMC खत्म कर दिया जाएगा और अनाज भंडारण अनलिमिटेड कर दिया जाएगा तो सारे भंडारण की कैपेसिटी अडानी-अम्बानी जैसों के सिलो-गोदामों में सिमट जाएगी और क्योंकि किसान कॉर्पोरेट फार्मिंग के कॉन्ट्रैक्ट से बंधा होगा तो वह खुद स्टोर भी नहीं कर पाएगा| यानि जो बदतर हालत किसानों की पहले से ही हो रखी है, उससे भी बदतर बना किसानों को मिटटी में रुलाने के कानून हैं ये|कुछ नादानों को एक नरेटिव पकड़ा दिया गया है कि किसानों के पास तो भंडारण क्षमता है ही नहीं| अजी है, कम से कम उनके पास तो जरूर है या वो बना लेते हैं जिनको यह ऊपर बताए तरीके से अपने उत्पाद व्यापार से व्यापार कमाना आता है या कमाना चाहता है|और जो यह कहता है कि किसान की मर्जी रहेगी कि किसको बेचे, कॉन्ट्रैक्ट करे या ना करे; अरे जब बिना MSP के कानून के चलते ठीक वैसे ही सरकारी मंडियां खत्म हो जाएँगी जैसे बिहार में हो गई तो हरयाणा-पंजाब का छोटा-बड़ा तमाम किसान मजबूर होगा अडानी-अम्बानी के यहाँ फसल डालने को अन्यथा खेती छोडो, जमीन बेचो और अडानी-अम्बानी के मजदूर बनो|
इसलिए यह कानून वह हैं जो 99% किसानों को बंधुवा बना देंगे और वर्णवाद वाले शूद्र बनके रह जाएंगे हरयाणा-पंजाब के उदारवादी जमींदार भी| सीरी-साझी का पुरखों का स्वर्णिम वर्किंग कल्चर नौकर-मालिक में तब्दील होता चला जाएगा| और यह जो तथाकथित स्वधर्मी आज किसान आंदोलन में गुरुद्वारों-मस्जिदों की भांति लंगर तक नहीं लगा रहे, यह अपनी पकड़ बढ़ा कर आपका दोगुना-तिगुना शोषण करेंगे वह अलग से| यानि जो कमाओगे, उसमें इतनी लूट होगी कि पेट तक नहीं भर पाएंगे|
आखिर कमी क्या है APMC में, सिर्फ एक कि यह किसान को भी व्यापारी बनाते हैं, जो ट्रेडिशनल व्यापारियों को कतई मंजूर नहीं| FPO/FPC कुछ नहीं सिवाए नए बिचौलियों के| यह FPC/FPO अडानी-अम्बानी के गोदाम भरवाने को वही काम करेंगे जो आज के APMC मंडी वाले आढ़ती सरकार के FCI गोदाम भरवाने का काम करते हैं| हाँ, इनका किसान को फायदा है परन्तु तभी जब यह अनाज भंडारण क्षमता लिमिट में रहेगी| अन्यथा तो मंडी का पल्लेदार-लोडर, फिर इन मंडियों की बजाए अडानी-अम्बानी के गोदामों में शिफ्ट हो जायेंगे; सिर्फ शिफ्ट, कोई नया रोजगार नहीं क्रिएट होने वाला इनसे, जिसके कि यह दावे कर रहे हैं| एक किसान जो सीरियों को, दलितों को रोजगार देता है, वह उसका अहसास खत्म हो जायेगा क्योंकि ना सिर्फ उसके खेतों के मजदूर अपितु वह खुद भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में अडानी-अम्बानी टाइपो से दिशा-निर्देश ले के काम कर रहा होगा| यह कुछ-कुछ ऐसा होगा कि जैसे आप परचून-पंसारी-कपड़ा-बर्तन आदि वाले की दुकान को यह कह कर ताला लगवा दो कि भाई अडानी-अम्बानी के शॉपिंग माल्स आ गए हैं, तू निकल यहाँ से; तुझे कोई सलीका-तरीका नहीं काम करने का| और हाँ ला तेरी दुकान की लेबर-कर्मचारी को अडानी-अम्बानी के गोदाम में हम ही काम पे लगवा देते हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday 8 December 2020

मैं वो वाला जाट हूँ जो पूर्णिमा की खीर धाणक को खिलाता है, बाखे वाली माँ की ज्योत का चढ़ावा कुम्हार देता है!

मैं वो वाला जाट हूँ जो खुद व् उसके पुरखे धोक-ज्योत-सम्मान में दलित-ओबीसी-ब्राह्मण सबको बराबर रखते आए हैं| तो फिर यह मेरे ही ऊपर 35 बनाम 1 का क्लेशी कौन है?

एक नादाँ ने तर्क किया कि धर्म-कर्म-काण्ड आदि का आधिकारिक-पात्र तो वही विशेष है, इसमें दलित-ओबीसी को उसके बराबर कैसे बैठा दें?
मखा अपने पुरखों की स्थापना भूल गए लगते हो? आओ तुम्हें तुम्हारे ही गाम का निष्पक्ष धोक-ज्योत दिखाऊं:
1) मेरे घर में हर पूर्णिमा को खीर बनती है, जिसमें से स्पेशल एक थाली दलित समाज की धाणक बिरादरी के लिए निकाली जाती है| मेरे कुणबे-ठोळे में तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसा लगभग हर घर में होते देखा है और शायद होता हो पान्ने व् पूरे गाम में भी|
2) मेरे गाम में "मीठे चावल" के साथ बाखे पे मूर्ती-रहित एक माता की सालाना धोक-ज्योत लगती है; उसका पूरा चढ़ावा मेरे गाम में ओबीसी में आने वाली कुम्हार बिरादरी ले कर जाती है| जो साफ़-बढ़िया चढ़ावा होता है, खुद खाते हैं और जो मिक्स हो जाता है वह अपने गधों को खिलाते आये हैं|
3) ऐसे ही कनागत के वक्त एक थाली गाम के बाह्मण की निकाली जाती है|
4) जाट-जमींदार बाहुल्य गाम में क्या हिन्दू, क्या मुसलमान; सब सबसे बड़ी धोक-ज्योत-मान्यता अपने पुरख धाम "दादा नगर खेड़े बड़े बीरों" की करते हैं; बिना स्वर्ण-शूद्र जैसी किसी रुकावट वाली तख्ती के करते हैं|
फिर उसको कहा कि अब यह बताओ कौन हैं यह जो जाट जैसी इतनी व्यापक मानवीय नैतिकता की श्रेष्ठ मूल्यों वाली जाति को कभी 35 बनाम 1 तो कभी जाट बनाम नॉन-जाट के नाम पर घेरता है? और कौन इनको घिरवाने का दोषी है?
बोला कौन?
माखा तेरे जैसे तथाकथित आस्तिक धार्मिक परन्तु मंदबुद्धि; जो खामखा धर्म की मोनोपॉली किसी विशेष को मान रहे हो या सौंप रहे हो| जब पुरखों ने ही दलित-ओबीसी-ब्राह्मण का धार्मिक सम्मान करते वक्त कोई पक्षपात नहीं किया तो तुम्हें कौन घूँटी पिला गया इसकी?
यह बातें नोट करवाओ, अपने-अपने गाम-घरों में ढूंढ के अपने समाज के दलित-ओबीसी को, वरना एक तरफ फंडी तुमको 35 बनाम 1 में घिरा के मरवाता रहेगा और दूसरी तरफ तुम जिन ओबीसी-दलितों को पीढ़ियों से खीर-चढ़ावे में बराबरी दे कर, ब्राह्मण के बराबर करते आए हो; वह तुमसे बिदके चलते रहेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"कोई बादाम खाता है तो वह किसान नहीं हो सकता" - कौनसी मानसिकता है यह, और कहाँ से कैसे पैदा होती है?

इस सोच वालों का विरोध करो, उपहास उड़ाओ; बेशक करो परन्तु इस पर मंथन जरूर करो कि कौनसी परवरिश है यह, किस तरह के नैतिक, सामाजिक व् धार्मिक मूल्यों में पले लोग यह मानसिकता रखते हैं?

क्या किसी मुसलमान ने अपने किसान बारे ऐसा कहा? किसी सिख ने कहा हो? किसी ईसाई, ग्रामीण आर्यसमाजी या बौद्ध ने कहा हो? किसी विदेशी ने कहा हो?
जवाब है नहीं!
तो फिर?
इन बातों को, इन मानसिकताओं को हल्के में मत लो| सर छोटूराम के बताए दुश्मन यही तो हैं; पहचानों इनको| देखो इनके प्रोफाइल, समझो इनकी परवरिश, समझो इनका नैतिक चरित्र|
ये वही हैं जो अपनी स्वघोषित ज्ञान की पोथियों में लिखते हैं कि एक स्वर्ण को शूद्र का कमाया बलात भी हरना पड़े तो हर लेना चाहिए| यह वही लोग हैं जो वर्णवादी मानसिकता में पाले-बड़े किए जाते हैं| यह वही लोग हैं जो यह चाहते हैं कि किसान-जवान-मजदूर को जरूरत के हिसाब से जब चाहे क्षत्रिय कह लो, जब चाहे वैश्य व् जब चाहे शूद्र| यह वही लोग हैं जो खुद के कहे-लिखे को ही सविंधान मानते हैं, राष्ट्रभक्ति मानते हैं|
यह वही लोग हैं जब इनकी चले तो ओबीसी-दलित की बहु-बेटियों को देवदासियां बना के सामूहिक भोग तक पहुँच जाते हैं और जब इनकी बिसात ना हो तो अपनी बिसात बनाने को अपनी ही औरतों को इन्हीं किसान-जमींदारों के यहाँ चूल्हा-चौका करने तक भेजते हैं|
फैसला तुम्हारा कि इनको देवदासियों वाली औकात देनी है या इनकी औरतें किसान-जमींदारों के यहाँ चूल्हा-चौका वाली औकात में रखना है| ये मध्य-मार्गी नहीं हैं, एक्सट्रिमिस्ट हैं| और किसान-जमींदार के साथ इनका यही कंट्राडिक्शन है कि किसान-जमींदार मध्य-मार्गी होता है, जो एक हाथ में हल की मूठ तो दूजे में बादाम रखता है| यह चाहते हैं कि हल की मूठ पकड़ा रहे और बादाम इनको देता रहे, वह भी बिना कोई ना-नुकर किये|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फंडियों का लोगों को गुलाम बनाने का तरीका बनाम अंग्रेजों का गुलाम बनाने का तरीका!

फंडियों के जुल्मों की तुलना ना गोरों से करो ना औरों से, अंग्रेजों ने कम-से-कम हमारे कस्टम्स तो नहीं छेड़े थे बल्कि उनकी सुरक्षा व् संवर्धन के लिए उल्टा कस्टमरी लॉ बना के दिए थे|


यह वर्णवादी फंडी तो वह जोंक-केंचुएं हैं जो पहले लोगों के कस्टम्स-कल्चर-भाषा को तहस-नहस करके, फिर अपनी कस्टम्स-कल्चर-भाषा लोगों में डालते हैं और फिर लोगों की आर्थिक-संसाधनिक गुलामी शुरू करते हैं|

अंग्रेज आर्थिक-संसाधनिक रूप से गुलाम बनाने से शुरू करते थे और वहीँ तक रहते थे, कस्टम्स-कल्चर नहीं छेड़ते थे| इनका गुलाम बनाने का सिस्टम ही इसके विपरीत है, यह कस्टम्स-कल्चर-भाषा से शुरू करते हैं और फिर आर्थिक-संसाधनिक चीजें हथियाते हैं|

आज का किसान आंदोलन तो महज आर्थिक-संसाधनिक आज़ादी की लड़ाई है, इसके बाद तो कस्टम्स-कल्चर-भाषा की आज़ादी की असली लड़ाई लड़नी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक