Saturday 30 April 2022

हरयाणे में पूर्ण बहुमत से भाजपा आते ही दंगे-फसाद शुरू, पंजाब में पूर्ण बहुमत से आप आते ही दंगे-फसाद शुरू!

लगता है केजरीवाल के पुरखों की बुद्धि सर छोटूराम के बनाए सूदखोरी के कानूनों ने चटका दी थी व् वह केजरीवाल के बुड्ढे, केजरीवाल को यह दुःख पास करके गए हैं कि पोता बदला जरूर लेना है| और मौका मिलते ही नतीजा सबके सामने है|


थारे पुरखों की सोच व् इनके पुरखों की सोच का फर्क समझोगे तो ही इनको समझ पाओगे|

1 - एक तो इनकी सोच अपनी बिरादरी से बाहर कभी भी सामाजिक हुई ही नहीं ना यह बात इनके कांसेप्ट में| इसको ऐसे भी समझ सकते हो कि जहाँ-कहाँ आप-भाजपा टाइप वालों के पुरखे रहे हैं या हैं, वहां-वहां सीरी-साझी वर्किंग कल्चर नहीं मिलेगा, अपितु सामंती कल्चर मिलेगा| सीरी-साझी वर्किंग कल्चर सिर्फ सर छोटूराम व् उनके पुरखों वाली धरती पर मिलेगा यानि आज़ादी से पहले के यूनाइटेड पंजाब, वेस्ट यूपी व् उत्तरी राजस्थान तक; इस पूरे क्षेत्र को आप मिला के खापलैंड+मिसललैंड बोल सकते हो|

2 - क्योंकि यह बिरादरी के अंदर तो सामाजिक हैं परन्तु इससे बाहर नहीं, इसलिए यह हमेशा बदले की राजनीति के लागू हैं; सार्वभौमिक राजनीति जिस वर्किंग कल्चर यानि सीरी-साझी से निकलती है यह उसके तो सबसे बड़े दुश्मन हैं| जो-जो आगे के हिंदुस्तान में राजनीति में ऊपर उठना चाहता हो वह यह कांसेप्ट अच्छे से समझ ले; खासकर उत्तरी भारत में| आप सबके हित के काम करते हो, उसी का उदाहरण सर छोटूराम की राजनीति में देखने को मिलता है या फिर चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा के 10 साल के सीएम कार्यकाल में, जब हरयाणा में एक आंदोलन तक नहीं होने का रिकॉर्ड है|

3 - केजरीवाल जैसों को वह कल्चर पसंद नहीं जो 1907 के "पगड़ी संभाल जट्टा" किसान आंदोलन के तहत अंग्रेजों से कृषि बिल वापिस करवा लेते हों या 2020-21 में नरेंद्र मोदी से वापिस करवा लेते हों| यह लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी (वह भी इनकी गलती होते हुए) इन बातों को दिल से लगा के चलने वाले लोग हैं, जो बदला लेने की अंधपीड़ा में पीढ़ियों तक जल सकते हैं|

4 - उधर इसी बदला लेने की राजनीति भाजपा वालों को उनके पुरखे पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त से दे के गए हुए हैं; जब महाराजा सूरजमल की नीति के आगे सारे पुणे के पेशवा धरसायी हुए थे|

हालाँकि, लिखना तो यह बात उसी दिन चाहता था जिस दिन आप, पंजाब में सत्ता में आई थी| फिर लगा अभी लिखूंगा तो बरगलाना व् बड़बड़ाना ज्यादा लगेगा; नतीजा हाथ ले लेने दो तो लिखेंगे|

अब रही बात पटियाला में कल जो हुआ: सिख भाइयों को घबराने की जरूरत नहीं, क्योंकि एक तो पूरी खापलैंड अबकी बार आपके साथ खड़ी है| लेकिन इनको कूटिनीति से मारो पहले; लठनीति तो कभी भी ट्राई कर देना इन पर| एक सर छोटूराम जब इन सब फंडियों की गाँठ बाँध सकता है तो आप भी खून तो वही हो; धर्म अलग है तो क्या हुआ, किनशिप-कल्चर तो आज भी एक है|

बस जरूरत है तो अपनी किनशिप-कल्चर पे सरजोड़ के, फंडियों के बारणे चाहे सोने-चाँदी के बिंदरवाल-झालर लटकते हों तो भी इनसे अपनी बाड़ करके; इनको घेरने के| यह तो यूँ जाएंगे जैसे भेड़ों के सर से सींग|

यह सरजोड़ इसलिए भी जरूर है क्योंकि फंडी को जब-जब इनके विपरीत विचारधारा की सत्ता आती दिखती है तो फंडी ऐसे भय बड़े बना के दिखाता है समाज को, जो वास्तव में होते नहीं परन्तु यह उनका हव्वा बना के लोगों को डरा लेते हैं| 1984 में खालिस्तान संत भिंडरावाला ने कभी नहीं माँगा, अपितु फंडियों के ही खड़े किये हुए एक चौहान ने माँगा व् भुगतना पंजाब को पड़ा| तब यह एक पावर थे, आज दो के रूप में आ चुके हैं, एक भाजपा व् एक आप पार्टी| तो आपको भी दोहरी सतर्कता से चलना होगा|

मुझे आशंका है कि भगवंत मान को साल-दो-साल से ज्यादा सीएम नहीं रखेंगे यह|

मूल राजनीति आइडियोलॉजी पर होती है, बिना आइडियोलॉजी के तो सिर्फ मौकपरस्ती होती है और मौकापरस्ती किसी को ठिकाने नहीं लगने दिया करती|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday 25 April 2022

चौधरी राकेश टिकैत वाली बात हो जाए अब तो, "अडानी के साईलों में गौशालाएं खोलने की"!

जब गौशालाओं के लिए धक्के से ही तूड़ी की ट्राली खाली करवाने की बात है तो सारा टंटा ही खत्म; सीधा इन साईलों को ही गौशाला बना दो; एक पंथ दो काज|

लेख का निचोड़: धर्म-दान इच्छा के होते हैं, धक्के के नहीं| क्यों नहीं बोलते यह धर्म पर प्रवचन देने वाले, कथा करने वाले व् धर्मस्थलों पर आगे खड़े-हो-हो चंदे के थाल लेने वाले? यह इनकी ड्यूटी बनती है, अगर यह इस पर चुप हैं तो समझ लो कि फिर त्रिमूर्ति "ब्रह्मा-विष्णु-महेश" के पहले दो सही काम नहीं कर रहे हैं व् आपको तीसरा बन कर तीसरी आँख खोल के इन सबको ठीक करने की जरूरत आन पड़ी हुई है| सारा सामाजिक-धार्मिक सिस्टम बिगाड़ के रख दे रहे हैं, यह फंडी लोग| क्यों चुप हो, रामायण, महाभारत से धर्म-अधर्म की शिक्षा लेने वालो? याद रखो रामायण-महाभारत में धर्म से बाहर के धर्म वालों की वजह से युद्ध नहीं हुए थे; धर्म के भीतर वालों के ही त्राहिमाम मचा देने से युद्ध हुए थे (अगर हुए भी थे तो व् तुम इनको सच मानते हो तो) व् अब वही दौर ला दिया है इन फंडियों ने| यह तुम्हें बाहर से धर्म की रक्षा की पीपनी पकड़ाए हुए हैं जबकि खतरा अंदर से यही खड़ा कर दे रहे हैं, तुम्हारे जीने-मरने का; नहीं?
विवेचना: जब किसान द्वारा बिना कहे ही अपनी श्रद्धा से सबसे ज्यादा व् इतना बड़ा दान दे-दे कर भी अगर गाय को बचाने के लिए इतनी नौबत आ रही है कि धक्के से ट्रॉलियां खाली करवाई जा रही हैं तो इनमें बैठे लोग इस चंदे से क्या 35 बनाम 1 खेल रहे हैं? आखिर लगा कहाँ रहे हैं ये इतने दान को? हिसाब लेना शुरू करो समाज इनसे, वर्ना आज गाय की आड़ ले के तूड़े की ट्राली छीनी हैं, कल को किसी और बहाने से तुम्हारे घरों की बहु-बेटियां नोचेंगे ये लीचड़ लोग; सम्भल लो वक्त रहते|
जब से होश संभाला, हर लामणी सीजन पे मेरे घर से गौशाला में तूड़े की ट्रॉलियां व् अनाज की बोरियां तो फिक्स तौर पर जाती देखता आया हूँ| कई बार तो खुद ट्रेक्टर से ट्राली गौशालाओं में खाली करवा के आया हूँ| बाकी छुटमुट की तो कभी गिनती भी नहीं की| परन्तु यह हिसार-झज्जर में धक्काशाही की खबर सुन के खून उबल रहा है| सुनी है जिले से बाहर तूड़ा नहीं ले जाने पे धारा 144 भी लगाई है? आखिर, इन लोगों ने किसान के कारोबार को समझ क्या लिया है? गाय भी है तो क्या किसान की आमदनी को इतना फॉर-गारंटीड लोगे कि उनकी ट्रॉलियों पर धक्का करोगे? किसान तो पहले से ही अपनी औकात से बाहर जा कर गायों समेत तमाम जानवरों को पाल रहा है, यह बाकी क्या कर रहे हैं? इतनी ही जानवरों को अनाज-चारे की कमी पड़ी है व् धक्के से धर्म सिर्फ किसान से ही पलवाने हैं तो बाकियों के साथ धक्काशाही क्यों नहीं? क्या ऐसे तथाकथित धर्म का ठेका बाकियों का नहीं?
सबसे पहली यह धक्काशाही/सख्ती इस बात पे लागू हो कि हर धार्मिक स्थल की आमदनी सार्वजनिक की जाए व् इसका कहाँ-कितना इस्तेमाल होता है उसका हिसाब दिया जाए व् इसमें से एक फिक्स राशि गौशालाओं के चारा खरीदने के लिए सुनिश्चित की जाए| दिलाओ किसानों को खलिहान-की-खलिहान में तूड़े का मार्किट रेट व् भर लो जितने चाहो उतने गोदाम? यह क्या तरीका हुआ कि उसको एक तो 6 महीने पे आमदनी घर आती है और तुम उसके अपने खर्चे-घर के हालात देखे बिना यूँ धक्के से लूटोगे? क्या उसके बच्चों के ब्याह-भात-पीलिए-पढ़ाई के खर्च तुम भर दे रहे हो? क्या वह अपनी हस्ती-ब्योंत के हिसाब से भी ज्यादा पहले से ही नहीं दान दे रहा है? अब दान के लिए धक्का भी करोगे तो किसान के साथ?
दूसरे नंबर पे पकड़ो, व्यापारियों को; उनके जिम्मे क्यों नहीं लगाते एक-एक गौशाला; अगर तुम्हारे धर्म के ठेकेदारों को मिलने वाले दान को डकारने के बाद भी उनका नहीं भर रहा तो? कॉर्पोरेट वालों का "CSR" का फण्ड मोड़ दो गौशालाओं के लिए? क्या दिक्कत है?
इसके बाद सरकारी कर्मचारियों, प्राइवेट कर्मचारियों पर करो यह धक्काशाही| उनके तो बेसिक सैलरी के अतिरिक्त के सारे एडिशनल बेनिफिट्स का भी आधा ही इन कामों में लगवा लो तो बहुत|
परन्तु यह कैसा धर्म है, कैसा समाज है जिसको खसने के लिए, गालियां देने के लिए तो किसान चाहिए व् दूसरी तरफ उसको मान-सम्मान से अपनी उपज भी नहीं बेचने दी जा रही?
किसान यूनियनों को चाहिए कि इन मसलों बारे कॉर्पोरेट स्ट्रक्चर की भांति, अपनी हर जिला स्तर पर एक-एक सेल बनाएं व् किसानों की ऐसी समस्याओं हेतु फसल-आवक के हर सीजन पर सतर्क रहें| कब तक इस तथाकथित धर्म नाम की चादर व् फंडियों की सरकार को यूँ झेलोगे? इससे भी काम न चले तो सारी गौशालाओं की मैनेजमेंट किसान सीधा अपने हाथ में ले| हर गौशाला के दान-चंदे का हिसाब पब्लिक हो|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday 24 April 2022

यहूदी, मुस्लिम, ईसाई व् जाट - इनकी समानताएं!

भक्तों को मुस्लिमों के ही खतना करवाने, एक ईश्वरवाद को मानने, सूदखोरी नहीं करने व् मूर्तिपूजा नहीं करने से दिक्कत है; जबकि चारों ही चीजें मुस्लिम धर्म में आई उसी यहूदी धर्म से हैं, जिनको भक्त अपना आर्दश व् आराध्य मानते हैं| और आज भी यह चारों बातें यहूदी धर्म की बुनियाद हैं| 


इन चारों बातों में से तीन बातें यानि एक ईश्वरवाद, रिश्तेदारी में सूदखोरी नहीं करना व् मूर्तिपूजा नहीं करने की साझी रीत जाट समाज की भी रही हैं व् आज भी हैं| जाट समाज का एकमुश्त सबसे बड़ा माना गया "दादा नगर खेड़ा/दादा भैया/बाबा भूमिया" का कांसेप्ट यही एक ईश्वरवाद व् मूर्ती-पूजा नहीं करने पर आधारित है| तो क्या इस हिसाब से जाट समाज, यहूदी व् मुस्लिमों के बाकी सब भारतीय कॉन्सेप्ट्स से अधिक नजदीक है?


मूर्तिपूजा नहीं करना व् एक ईश्वरवाद, ईसाईयों में भी है व् इन दोनों पहलुओं पर जाट ईसाईयों के भी नजदीक लगता है| 


वेशभूषा के हिसाब से देखो तो: यह चारों ही मर्द व् औरत दोनों के मामले में ऊपर से नीचे तक, जिनसे तन पूरा डंके, ऐसी वेशभूषाओं को तरजीह देते हैं| व्यापार व् फैशन के कपड़े जो कि कमर्शियल कांसेप्ट है; उसको अलग रख के देखा जाए तो चारों की ही ट्रेडिशनल-कल्चरल पहनावे में सभी शरीर के हर अंग ढंकने को तरजीह देते हैं| कहीं भी किसी ड्रेस में पेट-नाभि-पीठ-छाती आधी नंगी या उघड़ी रखने वाली पौशाकें पहनते नहीं देखे जाते| 


कम्युनिटी गैदरिंग के कांसेप्ट भी चारों के आपस में मिलते-जुलते हैं| 


तो एक इंटरनेशनल कल्चर होते हुए, क्यों इन फंडियों के फैलाए हुए गोबर को ढो रहे हो? गोबर, फ़ैल जाए तो उसको साफ़ किया जाता है, ना कि उसको सना जाता है| साफ़ करो इन संकुचित सोच के कॉन्सेप्ट्स को| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Saturday 23 April 2022

आपकी औरतें किसके व् कैसे लोकगीत गा रही हैं, यह बता देता है कि आपका समाज अग्रणी है, बीच में कहीं है या पिछड़ा हुआ है!

एक जमाना होता था उदारवादी जमींदारों की औरतों के मध्य:

1 - एक छोटूराम आर्य हो गए,
2 - मैं सूं हरफूल जाट जुलाणी आळा, तू कित लुकैगा तैरे लुड़ेकी मारूंगा,
3 - बाज्या हे नगाड़ा म्हारे रणजीत का (पंजाब वाले महाराजा रणजीत सिंह व् भरतपुर वाले महाराजा रणजीत सिंह, दोनों पर होता आया है यह गीत)
4 - 1857 के गदर के कई गीत
5 - दादा शाहमल तोमर के गीत
6 - दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर व्
7 - सर्वखाप की कई लड़ाइयों व् यौधेयों"
8 - जकड़ी-कात्यक-फाग्गण-साम्मण
के गीतों की भरमार होती थी| इन गीतों में हमारी औरतों की आध्यात्मिक-कल्चरल-वारफेयर सब इच्छाएं स्थाई तौर पर शांत रहती थी| इनकी भरमार होती थी तो ऋषि दयानन्द जैसे उत्तर भारत में जाने गए सबसे बड़े ब्राह्मण भी अपने ग्रंथों में जाटों को अपने से ऊपर का दर्जा देते हुए "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते थे; वह ब्राह्मण जो, किसी भी अन्य जाति तक के आगे-पीछे "जी" नहीं लगाया, किसी भी लेखनी में; उन्हीं ब्राह्मणों ने जाट को "जाट जी" बोला भी व् लिखा भी|
परन्तु एक जमाना यह है, जब समाज की लुगाइयों की जुबान पर अपने पिछोके व् यौधेयों के गीतों को छोड़ हर फंड-पाखंड-उल्ट-सुलट गीत धरे गए हैं व् रिफ़्ल-रिफ़्ल गाती घूम रही हैं|
इनको अहसास ही नहीं कि तुम्हारे समाज पर 35 बनाम 1 के एजेंडा करने वालों के लिए तुम्हारी जुबान पर कैसे गीत-लोकगीत हैं, यह उनके तुम पर 35 बनाम 1 रचने के सबसे बड़े पैमानों में से एक होता है| और इसमें गाम आळीयों से 2 चंदे अगाऊ शहर वाली कूदती हैं|
मेरे जैसों की तो यही लग्न है कि जिस दिन इन गीतों की दिशा मोड़ के वापिस अपने पिछोके-किनशिप पर ले आए; उस दिन 35 बनाम 1 अपने-आप छंटेगा| और यह तथ्य मन्दबुद्धियों को इतना सहज से समझ भी नहीं आता है| बहुतेरे गोबरचौथ तो यह तक तंज करते हैं कि गीत-संगीत की मंडली बनाने से क्या होगा; जरा देख तो लो झांक के हो क्या रहा है इन्हीं के बूते पे? आकंठ मर्दवाद तक डूबे बैठोगे तो तुमको अहसास भी नहीं होगा कि गेम किस स्तर तक व् किधर तक बिगाड़ा जा रहा है|
इसको वही समझेगा जो खाप-खेड़ा-खेत की सीरी-साझी फिलोसॉफी को पढ़ेगा; क्योंकि यही वो फिलोसॉफी रही जिसने तुमको ब्राह्मणों से "जाट जी" व् "जाट देवता" कुहाया-लिखवाया, वो भी बिना गली-गली भटके, घर बैठी-बैठों ने| ये आज वाली कुहा के दिखा सकती हैं क्या "जाट जी" व् "जाट देवता"? जोणसी में यह जज्बा हो, हम उनको ढूंढ रहे हैं|

ब्राह्मण का बार-बार जिक्र इसलिए किया क्योंकि ब्राह्मण का अप्पर वर्ग सबसे बड़ा मार्केटिंग एक्सपर्ट होता है और अगर वह किसी को "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखता गाता है तो इसके अर्थ होते हैं|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday 20 April 2022

"सीरी-साझियों" की राजनीति की विरासत व् मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख!

"सीरी-साझी" से "मजगर", "मजगर" से "अजगर", "अजगर से यम" व् अब "यम" से वापिस सीधा "सीरी-साझी" की तरफ आता दीखता "सीरी-साझी राजनीति" का तिलिस्म| यह सब समझाएगी आपको यह पोस्ट, इसलिए जरा इत्मीनान से पढ़िएगा इसको| 

बात वहां से शुरू करते हैं, जहाँ से इस राजनीति ने रूप लेना शुरू किया और राष्ट्रीय व् अंतर्राष्ट्रीय राजनीति तक छाई व् फिर उतार पर गई| इसको आप सीरी-साझियों की आधुनिक युग की राजनीति भी कह सकते हैं, बीसवीं सदी की राजनीति| पॉलिटिक्स की टर्म में इसको "politics of class community" कहते हैं| सीरी-साझियों की यह क्लास इस वक्त एक ऑफिसियल आकार लेना शुरू करी थी| इसका कल्चरल क्लास वाला आकार "सर्वखाप व् मिसल थ्योरी" के जरिए सदियों से चला आ रहा था| 


बात शुरू हुई चाचा सरदार अजित सिंह के 1907 के "पगड़ी-संभाल-जट्टा किसान आंदोलन" से; जिसने तब के यूनाइटेड पंजाब में हिन्दू-मुस्लिम-सिख सब बिरादरी की एकता की वह मिशाल पेश की, कि अंग्रेजों को तीनों काले कृषि कानून वापिस लेने पड़े| हालाँकि यह आंदोलन गैर-राजनैतिक था परन्तु अंग्रेजों को झुका के गया| इस आंदोलन ने यह सीख भी दी कि जिसके साथ आप सबसे ज्यादा लड़ते हैं, आप उसी के साथ सबसे ज्यादा मिलकर भी रह सकते हैं; जैसे कि मुस्लिम व् जट्टों (सिख व् हिन्दू दोनों) के ऐतिहासिक युद्धों का दौर भी है तो इन्हीं का सबसे ज्यादा मिलजुल के रहना भी मिसाल है| फंडियों की आंख की रड़क आज भी यही तथ्य है|  


खैर, 1907 का आंदोलन इस सीरी-साझी राजनीति को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाने के बीज बो चुका था, जिसने आगे चल के सर छोटूराम, सर सिकंदर हयात खान, सर फ़ज़्ले हुसैन, इसी राजनीति के सबसे बड़े दलित चेहरे बाबा मंगोवलिया देने थे व् दिए| अंग्रेजों ने लंदन तक बखूबी नोट भी किए| फिर आज़ादी के बाद यह सीरी-साझी राजनीति सरदार प्रताप सिंह कैरों व् चौधरी चरण सिंह के जरिए 1987 तक बखूबी बुलंद चढ़ी| 


इस बीच फंडियों ने इसको पोलराइज करने को 1987 तक (चौधरी चरण सिंह की मृत्यु का साल) मजगर लिखना-कहना शुरू किया हुआ था| दरअसल यह लोग इसके जरिए "सीरी में से साझी" या कहिए "साझी में से सीरी" को दो फाड़ करने के काम पर लगे हुए थे| सनद रहे यहां अभी तक "सीरी-सझियों की राष्ट्रीय राजनीति" की बात चल रही है| यही दौर मान्यवर कांसीराम जी की दलित-चेतना का चल रहा था| ताऊ देवीलाल, सरदार प्रकाश सिंह बादल व् कांसीराम जी कोशिशें करते रहे, आपसी समझ से एक होने की|  


तब आती है चौधरी चरण सिंह के पीएम रहते वक्त बने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की लड़ाई| ताऊ देवीलाल इसको लागू करना चाहते थे व् उनके हाथों ऐसा होता तो यह "सीरी-साझी राजनीति" देश को नए आयाम दे चुकी होती| परन्तु फंडियों ने बात भांप ली कि अगर ताऊ मंडल कमीशन लागू कर गया तो अभी तो यह उप-प्रधानमंत्री है, जल्द ही प्रधानमंत्री होगा व् न्यूनतम 20 साल बाकी सब राजनीतियां वेंटिलेटर पर होंगी| इसलिए ताऊ द्वारा उनकी वोट-क्लब रैली के जरिए "मंडल-कमीशन लागू होने की" घोषणा से 2 दिन पहले फंडियों ने एक तरफ तो वीपी सिंह से इसको लागू करवा दिया (ताऊ देवीलाल की वजह से फंडियों की हालत "मरता क्या ना करता" वाली थी इस वक्त, इसलिए लागू करवानी पड़ी) व् दूसरी तरफ फंडियों ने 1989 से ही ताऊ देवीलाल व् वीपी सिंह को एक-दूसरे के विरुद्ध पहले से ही भड़का रखा था (यह बात "जियो और जीने दो" की फिलॉसोफी वाले जरूर नोट करें; जो इस तर्क का हवाला दे फंडियों की हरकतों पर ख़ामोशी अख्तियार किए चलते हैं व् कहते होते हैं कि "के बिगड़े स, देख लेंगे"; फंडी तुम्हारा इन्हीं "शून्यकालों" में सबसे ज्यादा 24*7 बिगाड़ने पे लगा रहता है और तुम "के बिगड़े से" पकडे बैठे ही रह जाते हो); तो मसला इतना बढ़ा कि जो ताऊ इसको लागू करने चले थे वही इसके विरोध में आ खड़े हुए| सर छोटूराम की ताऊ देवीलाल को कही वह बात सच साबित हुई कि, "तुम भीड़ जुटा के सत्ता तो ले लोगे, परन्तु चला नहीं पाओगे"| 


इसका असर यह हुआ कि 1987 के बाद से फंडी मीडिया जिस "सीरी-साझी" को पहले "मजगर" व् फिर "अजगर" तक सिकोड़ने पर लगा हुआ था; उसको अब मुलायम सिंह यादव घोषित तौर पर सिर्फ "यम" पर ले आए| अभी तक मीडिया ने सिकोड़ा था इसको, परन्तु नेता जी ने ऑफिसियल तौर पर सिकोड़ दिया| निसंदेह नेता जी में इस "सीरी-साझी राजनैतिक विरासत" की थोड़ी भी समझ रही होती तो वह इसको वापिस "अजगर" से "मजगर" व् "मजगर" से "सीरी-साझी" तक ले जाने की सोचते परन्तु वह इसको उससे भी छोटे दायरे में ले गए| जिसको कि नेता जी ने लगभग एक दशक तक भुनाया| यानि "सीरी-साझी" से "मजगर", फिर "अजगर" व् अंतत: यम यानि चौथे छोटे स्तर तक सिकुड़ गई, खासकर यूपी में| यह सिकुड़ी सोच इनको आगे चल के मूल-समेत खाने वाली थी| पढ़ते जाईये|   


यही वह दौर था जब "सीरी-साझी" राजनीति राष्ट्रीय पट्टल से उतर राज्य स्तरों पर बिखर गई थी| इसके धड़ों की आपसी खींचतान चलती गई व् यह आपस में एक-दूसरे को हराने पर केंद्रित हो कर रह गए व् इससे फंडी को वह "उसाण" आया जो कि फंडी सर छोटूराम के जमाने से 1991 तक सिर्फ ढूंढता ही रहा था| हालाँकि इस दौर में भी जो इंसान उत्तर-प्रदेश में "सीरी-साझी राजनीति" का दामन थामे रहा वह थे चौधरी अजित सिंह| क्योंकि पोस्ट शीर्षक से ही रालोद पर केंद्रित है तो अभी यूपी पर ही बात की जाएगी| 


यह वह दौर भी था जब इस राजनीति की रीढ़ यानि इसका अराजनैतिक व् कल्चरल प्रेशर ग्रुप "सर्वखाप" में भी काफी खाप चौधरियों में राजनीति करने के सुर उठे या कहिए एक षड्यंत्र के तहत उठवाए गए| आरएसएस इनके अराजनैतिक गुण से सीख के बनी व् यह इसी गुण की पटरी से डिरेल होने लगे| 


और इन संकुचित सोचों की प्रकाष्ठा तब हुई जब अगस्त-2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे हुए| समझ नहीं आई कि 'यम' ही सही परन्तु यह 'यम' भी तो "सीरी-साझी राजनीति" की विरासत से ही निकली थी, उसके नेताओं की सरकार होते हुए यह उनको ही मूल से खत्म कर देने वाला दंगा, उन्होंने होने कैसे दिया? क्या यह फंडियों ने बहका लिए थे कि तुम मुस्लिम (SP) ले लो और हम जाट (BJP) ले लेंगे? आग तो फंडियों की लगाई हुई थी, परन्तु काफी समय से "यम" के दम में प्रधानमंत्री बनने तक की ख्वाइश लिए चलते आ रहे मुलायम सिंह यादव व् अखिलेश यादव क्या प्रधानमंत्री बनने के लालच में आ गए थे व् उस तक पहुँचने का इतना संकुचित परन्तु असम्भव रास्ता ही देख पाए होंगे? और यह इसका दूसरा पार्ट नहीं देख पाए; जहाँ फंडी घोर तैयारियों में लगा पड़ा था? वो तैयारियां कि 2013 के डिरेल हुए 2014, 2017, 2022 में सत्ता से दूर ही रह गए?  


खैर, इसके बाद क्या-क्या कैसे-कैसे हुआ उसके आप सब साक्षी हैं| मैं सीधा आता हूँ उस आस की लहर व् बहार पर जो 1907 की भांति 2020 में फिर सरदार अजित सिंह जी के पंजाब से उठी व् किसान-आंदोलन के रूप में दिल्ली का घेरा पड़ गया| जो कि 13 महीने चला, पूरा विश्व उसका साक्षी हुआ| इस "सीरी-साझी" विरासत वालों ने इंडिया ही नहीं अपितु विश्व को शांतिपूर्ण व् कूटनैतिक आंदोलन करना सीखा दिया|   


माइथोलॉजी के जानकारों ने तो इसको "ब्रह्मा-विष्णु" की रचनाओं व् पालनहारी नीतियों के कुरीति बनने के चलते बिगड़े हालातों पर किसान द्वारा "शिवजी" की भांति तीसरी आँख खोलना बता दिया| 


अब बात करते हैं इस लेख के शीर्षक के दूसरे हिस्से "मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख" की:


जब से मार्च 2022 के पांच राज्यों के चुनाव हुए हैं एक नया पैटर्न देखने में आ रहा है, साम्रदायिक व् टार्गेटेड दंगों में बढ़ोतरी| व् इस बढ़ोतरी पर मुस्लिम, यादव व् जाट की एप्रोच नोट कर रहे हैं| सपा, रालोद व् इनके एमएलए इस वक्त पर उनके लिए क्या कर रहे हैं यह सब मुस्लिम समाज बारीकी से नोट कर रहा है| और पाया गया है कि जयंत चौधरी व् रालोद तो काफी हद तक एक्टिव हैं परन्तु सपा व् अखिलेश पूर्णत: खामोश हैं| 


मुस्लिम यह भी देख रहा है कि जाट, जिसके विरोध में है वह फिर सभी राज्यों में अमूमन समान रूप से ही उसके विरोध में है, जैसे कि बीजेपी-आरएसएस| जबकि उनकी ऑब्जरवेशन कहती है कि यादव, हरयाणा में बीजेपी की गोद में बैठा है व् दंगों पर तो हरयाणा व् यूपी दोनों ही जगह खामोश है| 


मुस्लिम इस वैचारिक व् पोलिटिकल स्थाईत्व को पकड़ रहा है| जयंत चौधरी जी की कल की आजम खान जी के घर की मुलाकात इसी तथ्य का परिणाम है कि यह खूंटा चौधरी चरण सिंह, चौधरी छोटूराम व् सरदार अजित सिंह के विचारों में जा के ही मजबूत होता है| परन्तु रालोद को अब यह मुलाकात धरातल पर साम्प्रदायिक दंगे ना भड़कें, इस ओर उतारनी होगी| गाम-जिला ही नहीं अपितु बूथ लेवल पर "सीरी-साझी भाईचारा" टीमें गठित करनी होंगी| 


उधर से अबकी बार जयंत चौधरी, फंडी मीडिया की उस शरारत को भी निबटाना चाहते से प्रतीत हो रहे हैं जिसके तहत फंडी मीडिया ने दलित व् ओबीसी को "सीरी-साझी पॉलिटिक्स" से छीना था| यानि चंद्रशेखर रावण जी को साथ ले के चल रहे हैं| लेखक की निजी जानकारी के अनुसार जयंत जी, रावण जी को साथ ले के चलना तो हाल में हुए यूपी चुनाव में भी चाहते थे, परन्तु गठबंधन के चलते ऐसा नहीं कर पाए; अन्यथा वेस्ट यूपी के राजनैतिक नतीजे कम से कम जरूर और ज्यादा बेहतर होते| 


साथ ही जयंत जी ओबीसी में भी अपनी विरासत को खड़ा करने पर लगे हैं| देखते हैं उनका वेस्ट-यूपी में जहाँ यह टूट के सिर्फ "यम" पर आ गई थी वहां इस "सीरी-साझी" विरासत को कितना जल्दी वापिस खड़ा कर पाते हैं| लहर, माहौल, विश्वास व् प्रेरणा "किसान आंदोलन" दे ही चुका है| 


एक ऐसा ही विस्तारित लेख, हरयाणा बारे लिखूंगा कि अब हरयाणा में इस "सीरी-साझी राजनीति" विरासत को कौन सही से पकड़ रहा है व् कितना मजबूती से इसको लड़ा जा सकता है| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Monday 18 April 2022

मुझे लगता है कश्मीर-फाइल्स फिल्म ने पंडितों की हस्ती को छोटा कर दिया है!

मैदान छोड़ कर भाग खड़ा होने पर "कश्मीर फाइल्स" बनाने की बजाए, वहां अपना 21 बार क्षत्रियों को मारने वाला रिकॉर्ड फिर से दोहरा कर उस पर फिल्म बनाते तो हम भी मानते कि जो इतिहास में क्षत्रियों को मारने के दावे हैं वह वाकई में सच हैं| और नहीं तो वहां लड़ते-लड़ते जान दे देते परन्तु भागते नहीं तो भी मान लेते| ऐसी हरकतों से समाज को संदेश जाता है कि तथाकथित इतिहास के नाम पर जो-जो फैलाए हो, वह हकीकत छूते ही कितना खोखला है| कम-से-कम यह फिल्म ना दिखा के अपनी झूठी इज्जत ही ढंकी रख लेते| 


इस प्रदर्शन से बाकी तो पता नहीं, परन्तु खापलैंड वाली किसान-मजदूर कौमें तो शायद ही प्रभावित होवें| और इनमें भी खासकर जाट कौम में तो इस फिल्म ने इस समाज की महानता को छोटा और कर दिया है| क्योंकि इनसे ज्यादा तो जाट अड़ जाते हैं तो या तो जीत ले के उठते हैं या दुश्मन को उल्टा मोड़ के या लड़ते-लड़ते मरना पसंद करते हैं; फिर चाहे क्या तप 1669 का औरंगजेब से किसान आंदोलन रहा हो, क्या 1857 की किसान-क्रांति रही हो, क्या 1907 का "पगड़ी संभाल जट्टा" आंदोलन की जीत रही हो व् क्या 2020-21 का किसान आंदोलन की जीत रही हो; परन्तु मैदान छोड़ के भागना वह भी 21 बार क्षत्रियों को मारने के दावों का इतिहास होते हुए; हजम नहीं हुई यह बात| 


निःसन्देश जैनी मोदी-शाह; पंडितों पर ऐसी फिल्म बनवाये हैं व् जैनी, इस फिल्म के जरिए पंडितों का प्रभाव कम करने में कामयाब हुए हैं| क्योंकि जब इस फिल्म का खुमार उतरेगा तो लोगों के दिमाग में सवाल बचेगा कि 21 बार क्षत्रियों को धरती से मिटाने वालों के वंशज कश्मीर से भाग खड़े हुए, वह भी बिना लड़े ही? एक समझदार पंडित पीएम कभी यह गलती नहीं करवाता; ना पीवी नरसिम्हाराव पीएम ने उसके काल में करी ना अटलबिहारी ने करी और ना ही पंडित चलित मनमोहन सरकार ने करी| मैं इस फिल्म को जैनियों का सनातनियों की साइकोलॉजिकल रेपुटेशन डाउन करने का षड्यंत्र मानता हूँ; जिसमें चुपके से जैनी कामयाब हुए हैं|  


जय यौधेय! - फूल मलिक 

फंडियों के लिए कहीं मात्र टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनकर तो नहीं रह गए हो सोशल मीडिया पर?

मात्र फंडियों की हरकतों पर टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनकर कमेंट करने तक मत सिमटिये| इनको इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता बल्कि इस फीडबैक से यह अपना आगे का रास्ता निर्धारित करते हैं, जिसमें आप इनकी ही सीधा-सीधा मदद कर रहे हो| इनकी सोच व् रास्ते को कुंध करना है तो एक तो इनके बारे ऑब्जरवेशन-मोड में आ जाईए व् दूसरा वहां जुड़िए जहाँ जुड़ने से फंडियों से बाड़ बनाने के, 35 बनाम 1 की डिकोडिंग के, अपने स्पीरिचुवल, कल्चरल, इकोनॉमिकल मॉडल्स विकसित करने के कार्य हो रहे हैं| वरना अंत दिन हताशा के अंधेरों में जाओगे; जब अहसास होगा कि तुम्हारे कमैंट्स व् पोस्टों से ना तो फंडी रुका, ना ही तुम उसका अपना स्थाई समाधान खड़ा कर सके| अपनी इस ऊर्जा-वक्त-ज्ञान-संसाधन की अहमियत को इनके टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनने पर ज्याया ना करें| करें तो ऐसे कमेंट व् पोस्ट्स करें जो इनको कंफ्यूज करे, डिफूज करे|   


यह देश को आग लगाएंगे, नर्क में झोकेंगे तो यह तुम्हारे कहे से रुकने वाले नहीं| ऐसे में बेहतर है इन बारे इनके ही गोलवलकर की वह लाइन दोहराओ, "अंग्रेज हिंदुस्तान या हिन्दुओं के साथ क्या करते हैं, हमें इससे मतलब नहीं; हमें सिर्फ मनुवाद (हिंदुत्व के चोले में जो छिपा है स्वर्ण-शूद्र में बांटने वाला सनातनी मनुवाद) पर काम करना है"| तो आप भी अपने कल्चर-किनशिप पर फोकस बनाए रखिए व् उसको बढ़ाने पर ही अपनी फॅमिली-प्रोफेशनल लाइफ से फ्री वक्त को लगाइए| तभी 5-10 साल बाद अपनी जिंदगी से संतुष्टि फील करोगे कि उस दौर में यह नीति ही हमें बचा पाई| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Sunday 17 April 2022

Father of Green Revolution Dr. Ramdhan Hooda!

"जिस महामानव के कारण 60 के दशक में दुनिया के 100 करोड़ लोग भूखे मरने से बचे, आओ आज उनको जानें…"

आज हम बात कर रहे हैं "हरित क्रांति" के अग्रदूत विश्व विख्यात कृषि वैज्ञानिक राव बहादुर डॉ रामधन सिंह हुड्डा जी की:-
1 मई 1891 में रोहतक जिले के किलोई गांव में साधारण किसान के घर इस असाधारण बालक ने जन्म लिया। हमारी किसान बिरादरी से शायद पहले होंगे जो लंदन कैम्ब्रिज में पढ़ने गए, प्राकृतिक विज्ञान और कृषि में PhD करने के बाद 1925 में Punjab Agriculture College & Research Institute, Layallpur में प्रिंसिपल लगे, 1947 में रिटायरमेंट तक वहीं रहकर भारत ही नहीं दुनिया के लिए गेहूं, जौ, धान, दाल, गन्ना की नई नई किस्में इज़ाद की।
गेहूं की किस्में:
Pb-518, Pb-591 (1933-34)
C-217, C-228, 250, 253, 273, 281और C-285
Canada और Mexico ने सबसे पहले इनकी गेहूं Pb-591 अपनाई और पैदावार के रिकॉर्ड बनाये।
जिस C-306 गेहूं को सबसे स्वादिष्ट माना जाता है उसे भी डॉ रामधन सिंह जी ने इज़ाद किया था।
चावल की किस्में:
Basmati-370, Jhona-349, Mushkans-7 & 41, Palman Suffaid 246 (मैदानी इलाकों के लिए)
Ram Jawain 100, Phul Patas-72 और Lal Nankand 41 (पहाड़ी इलाकों के लिए)
संसार में मशहूर बासमती चावल 370 और Jhona 349 भी डॉ रामधन जी की ही देन है।
जौ की किस्में:
T4, T5, C138, C141 और C155
दालों की किस्में:
Moong No.54, 305 और Mash Variety No.48
1961 में जब Lyallpur Agriculture College के गोल्डन जुबली समारोह में भाग लेने पहुंचे तो पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान ने डॉ रामधन सिंह जी को राष्ट्रपति गोल्ड मैडल से सम्मानित किया और वह यह सम्मान पाने वाले पहले भारतीय बने।
उनके योगदान का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हो कि जब Mexico से नोबल पुरस्कार विजेता डॉ Norman E Borlog 1963 में डॉक्टर रामधन सिंह जी से Sonipat उनके घर पर मिलने आएं और रामधन सिंह जी के पैर छू कर कहें ''आपने संसार को बेहतर किस्में देकर 100 करोड़ लोगों को भूखे मरने से बचा लिया" और खुशी से रो पड़े।
1965 में लाल बहादुर शास्त्री जी ने डॉ रामधन सिंह जी को किसी भी राज्य के Governor बनने के लिए कहा था लेकिन डॉक्टर रामधन सिंह जी ने कहा ''राज्यपाल बनने से ज्यादा भला मैं वैज्ञानिक के तौर पर कर सकता हूँ देश का'' और उन्होंने ऐसा किया भी।
17 अप्रैल 1977 को भारत के महान सपूत डॉ रामधन सिंह जी इस संसार को अलविदा कह गए लेकिन सबको जिंदा रहने के लिए अथाह अनाज भंडार दे गए।
डॉ रामधन सिंह हुड्डा जी अमर हैं… 🙏
Courtesy: Arvind Pal Dahiya





Wednesday 13 April 2022

"35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र का पटाक्षेप", सीरीज पोस्ट - 1

 "35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र का पटाक्षेप", सीरीज पोस्ट - 1

("Decoding of 35 vs. 1 i.e. Jat vs. Non-Jat Propaganda", Series Post -1):

इस सीरीज में 17 ओबीसी-दलित जातियों के ऐतिहासिक उधोगों व् कारोबारों की प्राचीनकाल से ले वर्तमान स्थिति व् इनका जाट जैसी किसान-जमींदार जाति के साथ बरतेवा-भाईचारा कैसे रहा व् इसको किसने डंसा व् किसपे इल्जाम लगा इसका एक-एक करके रोज एक पोस्ट के जरिए पटाक्षेप करूँगा| आज पेश है:

नाई व् जाट के कारोबारी-बरतेवे के प्रोफेशनल संबंध व् भाईचारे के सामाजिक संबंध:

पहले 35 बनाम 1 का मुख्य उद्देश्य जान लेते हैं: ओबीसी-दलित बिरादरी में आने वाली तमाम जातियों की अपनी-अपनी ख़ास कारीगरी रही व् उस कारीगरी पर आधारित कुटीर उधोग व् छोटे कारखाने रहे| जिनको एक चालाकी के तहत उनसे छीन बड़े उधोग वालों ने अपने कब्जे में ले लिया| व् इस कब्जे को कहीं ओबीसी बिरादरी पहचान व् समझ ना ले इसलिए फंडियों के जरिए प्रोपेगंडा पोषित करवा के उसको जाट बनाम नॉन-जाट में उलझा दिया गया है या धक्के से 35 बनाम 1 के नारे में फंडियों ने ओबीसी/दलित को 35 में शामिल कर लिया है या शामिल मान लिया है| हकीकत में शायद नाई बिरादरी भी इसके पक्ष में ना हो|

अब जानते हैं नाई व् जाट के कारोबारी संबंध: सलंगित तस्वीर को देखिए; यह खोज "खाप-खेड़ा-खेत किनशिप" पुस्तक के पृष्ठ 19 से 24 में पब्लिश हुई है; उसी के हवाले से ली गई है|




इसको पढ़ के आपको स्पष्ट होगा कि इन दोनों जातियों में प्रोफेशनल फ्रंट पर मौखिक अथवा फौरी तौर पर कुछ भी लेनदेन नहीं होता था| हर कार्य-सेवा-सर्विस के मानक तय थे व् खापलैंड की बहुतेरी ग्रामीण अंचल में आज भी चल रहे हैं|

तो यहाँ जानने-समझने की बात यह है कि जब यह सब इतना स्पष्ट रहा है तो नाई के कारोबार को सबसे ज्यादा किसने खाया? जाट ने, या शहरों में बने बड़े-बड़े हेयर-शलून व् ब्यूटी-पार्लर्स ने? और सबसे ज्यादा कौन चलाते हैं इनको, कौन मालिक हैं इनके; जाट या कौनसी बिरादरियां?

बस यही बात एक जाट व् एक नाई को स्पष्ट होनी चाहिए| और सर छोटूराम वाला असली दुश्मन सिर्फ किसान को ही नहीं ओबीसी बिरादरियों को भी देखने-समझने की जरूरत है| हाँ, अगर उस दुश्मन को जानते-पहचानते हुए भी अगर आप उसका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं तो जाट जैसी जाति से अपने पीढ़ियों पुराने भाईचारे की ताकत में वापिस आईये (सर छोटूराम ही थे वो जिन्होनें नाईयों की कतरन की लाग यानि टैक्स हटाया था); एक दूसरे की आमदनी का जरिया बनिए; क्योंकि बेरोजगारी की समस्या जाट से कम नहीं आपके यहाँ भी| फंडियों के पास से बहकावे-उकसावे से फ़ालतू कुछ मिला हो या मिलता हो तो इसका भी आंकलन करिए|

नोट: जितना इन तथ्यों को शेयर करोगे, उतनी अपने ओबीसी/दलित - जाट भाईयों की भावना वापिस जुडी पा सकोगे| अगर फंडियों के प्रचार के वेग के आगे आपका प्रचार वेग कम है तो भी घबराना नहीं; कम-से-कम कल को उलाहना या मलाल तो नहीं रहेगा कि दोनों तरफ की नहीं पीढ़ियों को यह साझी विरासत की जानकारी नहीं थी; अन्यथा क्यों फंडियों के बहकावे-उकसावे में रहते|

जय यौधेय! - फूल मलिक

"जाट-रे-जाट, 16 दूणी 8" की कहावत का मतलब!

अंतर्राष्ट्रीय जाट दिवस पर विशेष!

यूनिटेड पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के राज का दौर, उसके बाद हरित क्रांति, फिर श्वेत क्रांति व् दोनों में तथाकथित बड़ी औद्योगिक क्रांति का तड़का लगा तो, रूस से ट्रेक्टर आने लगे| इस बड़ी क्रांति ने गाम के ख़ातियों-बढ़इयों का बुग्गी-रेहड़ू-गाडी बनाने का व् लोहारों का कृषि के औजार बनाने का औद्योगिक काम; ट्रॉलीयां व् खेती के औजार बनाने के जरिए, ख़ातियों-लोहारों से छिन शहरों में शिफ्ट हो गया| इन आत्मनिर्भर छोटे उधोगों को खत्म करने पर किसी सरकार, किसी नेता ने जो कभी आजतक आवाज भी उठाई हो तो; बेशक खाती-लुहार के घर-के-घर तबाह हो गए हों|
खैर, तब व् आज भी ट्राली जब बनती है तो उसके फर्श में 16 फ़ीट लम्बी मोटी लोहे की चद्दर, दोहरी करके लगती है; दोहरी करने पर वह 8 फुट की रह जाती है| तो इसी से सेठ लोग हंसी उड़ाने लगे कि देखियो इब जाट आवैगा और 16*2 = 8 फ़ीट वाली चददर ट्रॉली में लगाने को कहेगा|
बस इतना सा ही गणित है 16*2 = 8 का| और लॉजिकली यह हकीकत भी है| 16 फ़ीट लम्बी चददर को मोड़ के दोहरी मोटाई की करोगे तो लम्बाई 8 फ़ीट ही रहेगी उसकी|
खैर, यह जाट, बनियों के हंसी-ठट्ठों के तरीके हुआ करते थे| ऐसे ही बनियों की हंसी उड़ाने पर भी बहुतेरे किस्से हैं| परन्तु जनाब आज ऐसा उल्टा दौर है; एक आधी लिख दी तो कोई ना कोई बनिया मुझपे पंचायत बिठाएं मिलेगा|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday 10 April 2022

रामचंद्र जांगड़ा जी 1956 के पटवारखाने के रिकार्ड्स व् कानून उठा के पढ़ो, शामलाती जमीन मालिकाना जमीन है, पंचायती या सार्वजनिक नहीं!

आपको सार्वजनिक के नाम पर कुछ बंटवाना ही है तो धर्मस्थलों के दान-चंदा की कमाई व् इनमें धर्मप्रतिनिधि की पोस्टों पे ओबीसी समेत दलित-किसान सबको बैठवाईये; इससे ज्यादा भला होगा ओबीसी समेत अन्यों का भी| अकेले ओबीसी को क्यों बहकाते हो?

या वह जमीनें ओबीसी ही क्या दलित व् किसानों तक को वापिस दिलवाइए जो सरकारों ने कॉर्पोरेट के नाम पे दशकों से अवरुद्ध करके रखी हुई हैं परन्तु खाली पड़ी हैं| या उन डेड फैक्टरियों की जमीनें वापिस लिवा लीजिये जहाँ आज कोई प्रोडक्शन नहीं होती|
खामखा क्यों अपने ही कल्चर-किनशिप के दुश्मन बनते हो जिसमें सीरी-साझी कल्चर के तहत; किसान-जमींदार अपने साझियों के ब्याह-वाणों तक में साथ निभाते आए| पहले यह तय कर लो कि यह विचार खुद का है या फंडियों के बिसाहे दूसरे राजकुमार सैनी या रोशनलाल आर्य बनने चले हो? और चले हो तो पहले इन दोनों का हाल देख लो, बीजेपी-आरएसएस ने दोनों इस्तेमाल करके ऐसे फेंक रखे हैं कि पोलिटिकल करियर बचाए रखने के संघर्ष पे जिंदगी आई हुई है इनकी| राजकुमार सैनी जिसको कुरुक्षेत्र से सर्व-किसान समाज मिलके एमपी बनाता था, आज एमएलए की सीट निकालने के लाले हैं|
या स्वाभिमान से ज्यादा हीनता तंग कर रही है? वह हीनता है तो उन लोगों की दी हुई है जो आपको स्वर्ण-शूद्र में बांटते हैं; किसान-जमींदारों की दी हुई नहीं| तो यह हीनता तो इनसे ही सीधी टक्कर लेने से मिटेगी; किसान-जमींदारों के क्यों खसो हो इसके लिए? मत अपने ही स्टेट के कल्चर- किनशिप का इन फंडियों के बहकावे में आ के मलियामेट करो| होंगी बुराई किसान-जमींदारों में भी पर इतनी भी नहीं जितनी कि उनमें हैं जिनके दिमाग से आप चल रहे हो| वही बात, जरा स्वर्ण स्टेटस ही मांग के देख लो उनसे; पता लग जाएगा इनके आगे हैसियत का भी व् बिसात का भी|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday 8 April 2022

फंडियों की सीख तुम्हारे कौम-कल्चर-किनशिप की गोभी खोद रही है; वक्त रहते घर-कुनबे के मर्द-औरत साथ बैठ के मंत्रणा करो व् अपने-अपने साझे नॉर्म्स निर्धारित करो!

करनाल के छोटे से बच्चे जस की निर्मम हत्या को देख के भी, जिसका ढोंग-पाखंड-आडंबर-फंडी-फलहरी-पाखंडी से व् उसकी कथाओं-गपेड़ों से हटने का मन नहीं करता तो समझो अगला नंबर थारे घर का भी हो सकता है|


वक्त रहते सम्भल जाओ, पुरखों के सिद्धांतों की सुध ले लो; वह पागल नहीं थे जो इन फंडी-फलहरियों के टकणों पर लठ मारा करते थे या इनको झलकारे दे-दे ताहा करते थे| वो इंसान की औकात-बिसात-नियत-जात सब जानते-पिछाणते थे जबकि उनके ऐवज में तुम इतने बड़े मंदबुद्धि व् दबीबुद्धि होते जा रहे हो कि सगा भाई ही भीतर-ही-भीतर कब इन फंडी-फलहरियों का बहकाया थामने सेध जा, यह तुम्हें तो क्या खुद उस सेधने वाले को काण्ड करने के बाद पता लगता है; इतना खतरनाक जहर है इन फंडियों का तथाकथित ज्ञान-गपोड़|

जितना हो सके अपने परिवार-कुणबे-ठोले को दूर रखो इनसे| आपस में बैठ के बतलाओ इन विषयों पर, भाइयों में बैठो; घर की लुगाईयों बीच बैठ के इन मसलों पर खुली चर्चा करो व् निर्धारित करो अपने ठोले-कुनबे के नॉर्म्स|

भक्त बने बाहर सिर्फ माइनॉरिटी धर्म वालों में नार-चुकार निकालने को ही सामाजिक ड्यूटी मत मान लेना; यहाँ फंडियों की सीख तुम्हारे कौम-कल्चर-किनशिप की गोभी खोद रही है|

जय यौधेय! - फूल मलिक

शहरी RWA वाले, गाम के बगड़ों के कांसेप्ट कॉपी कर गए परन्तु इन्हीं गामों केे "नगर खेड़ों" वालों ने ही यह कांसेप्ट बिसरा दिए!

पहले तो "नगर खेड़ों वालों" में नगर शब्द नोट करो; तुम्हारे गाम थे ही नगर, बस तुम उस प्रोपगंडा वाले प्रचार का मुकाबला नहीं कर पाए; जिसके तहत तुम में धक्के से ग्रामीण होने की भावना ठूंसी गई; वरना तुम नगर वालों से पहले ही नागरिक व् नगर वाले थे|

दूसरा आज की शहरों में RWA सोसाइटी में कोई मंगता-भिखारी-फंडी-फलहरी-बाबा रंगा घुसता देखा है क्या? झाँक भी नहीं सकते? जो-जो आज के दिन 30-40 या इससे ऊपर की उम्र के हैं, क्या तुमने यही सिस्टम थारे गामों के बगड़ों का नहीं देखा? मंगता-भिखारी तो खापलैंड के गामों में वैसे ही नहीं होता आया, कोई फंडी-फलहरी-पाखंडी-बाबा रंगा आता था तो बगड़ के बाहर तक ही आ पाता था; क्या मजाल जो वो बगड़ में पैर धर जाता? वो तो क्या चूड़ी बेचने वाला मनियार तक बगड़ में घुसने से पहले, बगड़ के बूढ़ों की इजाजत लेता था; जैसे RWA की कमिटी वाले बूढ़े यह तय करते हैं कि RWA में कौन घुसेगा और कौन नहीं?
यह कैसी हंगाई लगी तुम "बगड़ के कल्चर" वालों को कि ऐसे पहले से ही सदियों के विकसित मॉडर्न सिस्टम्स को धत्ता बता के; इन फंडियों ने जो मॉडर्न बता दिया बस "भेड़ दौड़" में उसी को गले लपेटते रहे? हर समाज, हर कल्चर अपनी लाइन पे है, एक तुम "दादा नगर खेड़ों" वालों को छोड़ के; बस इसी वजह से 35 बनाम 1 भी भुगत रहे हो व् थारी धरती तुम्हें छोड़, सबको चैन से बसाने का अड्डा बन चुकी है; बेचैन हो तो सिर्फ तुम|
देखो जरा इस "बगड़ कल्चर" जैसी चीजों को रिएलाइज करके, इनपे ठहर के, क्या पता चैन आ जाए| दिमाग-सोच में स्थाईत्व आ जाए? कम-से-कम यह थोथी फील तो निकलेगी कि तुमने अपने पुरखों से कुछ अच्छा कल्चर डेवेलोप किया है? किया करो ऐसे-ऐसे तुलनात्मक एनालिसिस; पता लगेगा कि वो तुम्हारी अपेक्षा तथाकथित अक्षरी ज्ञान से अनपढ़ व् तथाकथित ग्रामीण होते हुए भी, कितने बड़े कम्युनिटी मैनेजर (community manager) थे और तुम कितने बड़े कम्युनिटी डिस्ट्रॉयर (community destroyer) साबित हुए हो या होते जा रहे हो|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday 5 April 2022

मानसिक शूद्रता/दरिद्रता का बदलता चेहरा!

हरयाणवी समाज के जमींदारों का कोई परिवार शहर में निकलेगा या इनमें एक को ढंग की नौकरी लग जाए तो सबसे पहले फंडी-फलहारी के पाखंडों में रिफल-रिफल के भाग लेगा| व् साथ-की-साथ पीछे गाम का सारा कुनबा-ठोला इसमें लिपटवाने की कोशिश करेगा| और यह जो लॉबी बन रही है जमींदारों में, यही आने वाली शूद्र कहलाने वाली है, अगर इन्होनें यह रिफलने नहीं छोड़े तो| इनके घर के मर्द-औरतों ने बैठ के आपस में डाइलॉगिंग नहीं की तो|

जबकि हरयाणवी समाज के मजदूर बिरादरियों का कोई परिवार शहर में निकलेगा या इनमें एक को ढंग की नौकरी लग जाए तो उतना ही फंडी-फलहारी के पाखंडों से दूर हटता व् अपनों को हटाता जाएगा|
अपवादों को छोड़ दो तो देख लो तुम किधर जा रहे हो|
और यह फर्क औरतों की एकाग्रता व् उनके सामूहिक संगठनों का फर्क है| जमींदारों के पास कौन है ऐसा संगठन? आज के दिन इन्होनें खुद में राजनीति व् फंडी-फलहरी की कहबत इतनी ज्यादा डाल ली है कि आदमी माथा पीट-पीट बावला हो जाए| और यह फंडी-फलहरी इनको 35 बनाम 1 के अलावा जो कुछ भी दे रहे हों तो|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday 4 April 2022

लोकल लेवल पे वोकल हो जाओ, अगर 35 बनाम 1 को फंडी बनाम नॉन-फंडी में तब्दील चाहो!

समस्या कितनी बड़ी खड़ी कर दी है फंडी ने आपके आगे यह तो देख ही रहे होंगे; वह भी स्वधर्मी होते हुए? तुम किसी के इतने बड़े भी दोषी नहीं हो, जितना बड़ा बना के फंडी ने तुम्हें परोस दिया है| तुम्हारी कौम-कल्चर-किनशिप को राह चलती उस बेचारी अकेली लाचार लड़की की तरह बना डाला है, जिसपे गुंडे किसी भी वक्त टूट पड़ते हों व् बच के निकल भी जाते हो? कब तक होने दोगे यह खुद के साथ? 


इसका इलाज ज्यादा मुश्किल नहीं है, गाम-कस्बे के हर उस भाई को जिसको फंडी अछूत-पिछड़ा-शूद्र की श्रेणी में रखता है व् दूसरी तरफ उसको 1 के खिलाफ भी भड़का के रखता है (उसी एक के खिलाफ, जिसको मुंह पे यही फंडी जजमान-जजमान करता नहीं अघाता) उसको यह फंडी इन्हीं अछूत-पिछड़ों बारे क्या सोच रखता है उससे सिर्फ रूबरू मत करवाओ; बल्कि इस सोच को खत्म करने हेतु फंडी की भाषा वाले (हमारी भाषा में तो वह हमारे सीरी-साझी हैं) अछूत-पिछड़े के कानों में फूंकें फंडी के जहर को साफ़ करते चलो, अपने-अपने गाम-कस्बे-शहर की जिम्मेदारी लेते हुए, फिर देखो चीजें कैसे 180° पलटती जाएंगी| वरना यूँ ही हाथ-पे-हाथ धरे बैठे रहे तो फंडी अछूत-पिछड़े को तो मार ही रहा है, मार तुम्हें भी रहा है|

ऐसे ही चलता रहा तो, ना तुम्हें नेता बनने लायक छोड़ेंगे ना पंचायती| वक्त है, सम्भल के सर जोड़ लो व् इस फंडी को पहले झटके तोड़ लो| फंडी, भांप के धधकते उस बुलबुले की तरह होता है, जो सतह पर आते ही फुस्स और वह सतह है तुम्हारा सरजोड़|

जब तक फंडी को उसी की स्याणपत यानि polarisation (35 बनाम 1) व् manipulation (यानि मुंह पे कुछ, पीठ पीछे कुछ) से नहीं मारोगे; भूल जाओ पुरखों वाली बुलंदी के आसपास भी फटक सकोगे| और यह काम तुम फंडी से न्यूनतम 10 गुणा आसानी से कर सकते हो, अगर करने पर आओ तो| इस खामखा के idealism व् घणा मीठा बनने की राह से उल्टा हटना होगा; वरना तब तक तुम में से न कोई ढंग का नेता निकलेगा ना कोई पंचायती; तुम्हारे पुरखों के ऐवज में इंटरनेशनल, नेशनल व् स्टेट तो छोड़ो; जिला लेवल तक कोई निकल जाए तो कहना|  

बस इतनी सी करेक्शन कर लो: आपस में बंद कमरों में सरजोड़ के, अपनी "जियो और जीने दो" की नीति में इतना डाल लो कि "जियो और जीने दो परन्तु जो तुम्हें ना जीने दे, उसको बिखेर के रखो"; क्योंकि फंडी की थ्योरी "जियो व् परन्तु दूसरों को भिड़ा के रखो" इसी तरह काबू आ सकती है; दूसरा अन्य कोई रास्ता नहीं| आज अपना लो, या 5-10 साल थपेड़े खा के सरजोड़ के अपना लेना| 

जय यौधेय! - फूल मलिक 

Friday 1 April 2022

साइलेंस में बहुत ताकत होती है - matter of Chandigadh!

 राजनीति में बैठे घाघों के कोई भी मुद्दा उछालते ही, उसको उड़ते तीर की तरह नहीं लेना चाहिए| इन्होनें चंडीगढ़ बोला और आपने सोशल मीडिया पर झड़ी लगा दी| स्पष्ट राय अपनों को दो, दुनिया को नहीं; क्योंकि दुनिया में फंडी भी हैं| यह आपकी रिएक्शन के आधार पर मिनट में अगला स्टेप निर्धारित कर लेते हैं व् आपको ऐसे ही अगले-से-अलगे स्टेप की पिच पे खिलाते चले जाते हैं| जबकि आप भ्रम में रहते हो कि मैंने पब्लिकली बोल के समाज को चेता दिया, अपना फर्ज निभा दिया| यूं निभाए फर्ज, गली में भोंकते कुत्ते से ज्यादा कोई अहमियत व् असर नहीं रखते होते| 


13 महीने किसान आंदोलन लगा के, दोनों स्टेटस ने जो आपसी भाईचारा बनाया, क्या उसको यूँ एक क्षण में इनकी भेंट चढ़ा दोगे? ऐसे इनके उछाले मुद्दों में कूदने से पहले रत्ती भर भी नहीं सोचना दिखाता है कि आपकी उस 13 महीने लगा के बनाए भाईचारे को बचाये रखने के प्रति कितनी एकाग्रता है| 


यह नेता तो चंडीगढ़ बनते ही इसको मुद्दा बनाते आ रहे यहीं, परन्तु निकला क्या और क्या निकालोगे? इससे अच्छा हाईकोर्ट की भांति राजनधानी के भी रीजनल सेंटर्स मांग लो, टंटा खत्म| नेताओं को भी पता लगे कि जनता क्या चाहती है व् क्यों अब तुम्हारी बनाई पिचों पर नहीं खेलेगी| इनको आपकी बिछाई पिच दो, तब बात बनेगी| 


वैसे भी फंडी अब इस पर काम कर रहे हैं कि दोबारा ऐसा किसान आंदोलन फिर ना हो तो उसके लिए क्या किया जाए? और यह चंडीगढ़ का राग उसी की एक स्ट्रेटेजी है, आपकी एकता को तोड़ने की| आपकी आपसी समझ व् तालमेल खत्म करने की| ऊपर से आगे 2024 में इनको फिर सरकार चाहिए, जिसके लिए आपकी एकता व् समझ फिर से खतरा इनके लिए| इन बातों को समझ के ही सोशल मीडिया पर लिखा करो| 


कुछ सौदा ना है इन फंडियों का, अगर आप इनको अपने साइकोलॉजिकल वॉर गेम में उलझाने हेतु लिखने लगो तो| कोई दिमाग भी नहीं है इनमें और ना बुद्धि है; बस यह सर्वाइव ही आपकी ऐसी जल्दबाजी पर करते हैं, जैसे पिछले दो दिन से चंडीगढ़ वाले मुद्दे पर मचाते हो| 


थोड़ा ठहरो, सोचो व् चुप रह के चिंतन करके ही आगे बढ़ो; यह सब मलियामेट होते जायेंगे| 


जय यौधेय! - फूल मलिक