Saturday 30 September 2023

सांझी, ‘उदारवादी जमींदारी कल्चर’ की किशोवस्था पीढ़ी को 'ब्याह के जीवन’ की शुरुवात के 'रीत-रिवाज-लत्ता-चाळ-टूम-ठेकरी' बारे ‘मानसिक रूप से ट्रैन करने’ की एक 'सुनियोजित किनशिप ट्रांसफर रिले’ की ‘रंगोली वर्कशॉप' है!

सांझी एक रंगोली है: सांझी एक रंगोली है कोई अवतार या माया नहीं! प्राचीन काल से उदारवादी जमींदारी सभ्यता में 'सांझी की रंगोली बनाना' नई पीढ़ी को ब्याह के शुरुवाती 10 दिनों व् तमाम गहनों-परिधानों की जानकारी स्थानान्तरित करने की एक कल्चरल विरासत यानि पुरख-किनशिप की प्रैक्टिकल वर्कशॉप होती है। इसके जरिए किनशिप का यह अध्याय अगली पीढ़ियों को पास किया जाता है। खापलैंड के परिपेक्ष्य में यह तथ्य "सांझी" बारे तमाम उन अन्य अवधारणों के बीच सबसे उपयुक्त उभरता है जो कि सांझी के साथ गाहे-बगाहे जुड़ी हुई हैं। और यह अवधारणा कहें या मान्यता सबसे सशक्त व् उपयुक्त क्यों है, उसके वाजिब कारण आगे पढ़ें।


सांझी नाम का उद्गम: इसका उद्गम हरयाणवी कहावत "गाम की बेटी, 36 बिरादरी की सांझी / साझली बेटी हो सै" से है। यानि यह शब्द हरयाणवी व् पंजाबी सभ्यता में हर बेटी का प्रतीक है।

आसुज के महीने में क्यों मनती है?: क्योंकि लोग खेती-बाड़ी की खरीफ की फसलों से लगभग निबट चुके होते हैं, फसल की आवक शुरू होने से (अधिकतर इस वक्त तक आवक पूरी हो लेती है) खुशियां छाई होती हैं और मौसम में बदलाव भी आ रहा होता है जो कि मंद-मंद सर्दी में बदल रहा होता है, व् मनुष्य चेतन आध्यात्मिक होने लगता है। इसलिए इस वक्त सांझी मनाने का सबसे उपयुक्त समय पुरखों ने माना। हरयाणवी कल्चर के प्रख्यात विद्वान् डॉक्टर रामफळ चहल जी के अनुसार खाप-खेड़ा दर्शन में सामण व् आधा बाधवा 'विरह' के चेतन का होता है व् दूसरा आधा बाधवा व् कात्यक 'आध्यात्म' के चेतन का होता है।

इसको मनाने के तरीके वास्तविक खाप-खेड़ा रीति-रिवाजों से हूबहू मेळ खाते हैं: जैसे ज्यादा पुरानी बात नहीं बहुतेरी जगह आज भी व् एक-दो दशक पहले तो खापलैंड पर हर जगह ही, ब्याह के बाद पहली बार ससुराल से बहन-बुआ को लाने भाई-भतीजे आठवें दिन जाते हैं/थे व् वहां दो दिन रुक कर बहन की ससुराल व् ससुरालजनों में बहन-बुआ की क्या कितनी स्वीकार्यता, स्थान, घुलना-मिलना व् आदर-मान हुआ यह सब देख-परखते थे व् दसवें दिन बहन-बुआ को साथ ले कर घर आते थे व् माँ-बाप, दादा-दादी को इस बारे सारी रिपोर्ट देते थे।

सांझी को बनाने की विधि:
पर्यावरण की स्वच्छता व् सुरक्षा हमारे पुरखों के सबसे बड़े सिद्धांत "प्रकृति-परमात्मा-पुरख" से निर्धारित है; इसलिए इसको बनाने में सारा सामान ऐसा होना चाहिए, जो कि पानी-मिटटी में मिलते ही न्यूनतम समय में गल जाए।
यह 10 दिन की वर्कशॉप होती है, जिसमें रोजाना सांझी के अलग-अलग भाग डाले जाते हैं। जैसा कि ऊपर भी बताया 8वें दिन सांझी का भाई उसको ठीक वैसे ही लेने आता है जैसे वास्तविक हरयाणवी विधानों के अनुसार नवविवाहिता को उसकी ससुराल से प्रथमव्या लिवाने वह 8वें दिन जाता होता है। व् 2 दिन रुक कर 10वें दिन बहन के साथ अपने घर आता है। 2 दिन रुक कर वह ससुराल में उसकी बहन के साथ ससुरालियों का व्यवहार-घुलना-मिलना देखता है ताकि वापिस आ कर माँ-बाप को रिपोर्ट करे कि बहन की ससुराल में बहन की क्या जगह बनी है व् कैसे उसको रखा जा रहा है।
गाम के जोहड़ में फिरनी के भीतर क्यों बहाई जाती है, किसी नहर या रजवाहे में क्यों नहीं?: क्योंकि जब सांझी को उसका भाई ले के चलता है तो औरतें उसको अधिकतम फिरनी तक ही छोड़ने आती हैं। दूसरा फिरनी के भीतर ही सांझी को रोकने की रश्म पूरी की जाती है; जो करने को गाम के जोहड़ सबसे उपयुक्त होते हैं। जोहड़ में बहाने के पीछे दूसरी वजह यह भी है कि वह ठहरे हुए पानी में गिर के जल्द-से-जल्द गल जाए ताकि पर्यावरण पर उसका अन्यथा असर ना पड़े। इस रोकने को उसके प्रति ससुरालियों के स्नेह के रूप में भी देखा जाता है। इसका अगला कारण, गाम-खेड़ों की अपनी नैतिकता का यह सिद्धांत है कि "तुम्हारा कचरा, संगवाना तुम्हारी जिम्मेदारी है; इसको चलते पानी में बहा के आप अगले गाम-खेड़ों को दूषित नहीं करेंगे"; इसीलिए इसको हमेशा ठहरे पानी में व् गाम की फिरनी के भीतर ही बहाया जाता है; और उसके लिए उपयुक्त रहे हैं गाम की फिरनी के भीतर के जोहड़; ताकि कोई सामग्री नहीं भी गले व् पानी में तैरती दिखे तो गाम के युवक को जोहड़ में जा के किनारे ले आएं व् जोहड़ से निकाल उपयुक्त कचरे की जगह पर डाल दें।

सांझी क्या नहीं है?:
यह किसी भी प्रकार का कोई अवतार या माया नहीं है।
जैसा कि ऊपर बताया, यह एक वास्तविक रिवाजों के आधार पर बनी रंगोली वर्कशॉप है; यह कोई मिथक आधारित कथा आदि नहीं है।
इसका नाम सांझी, हरयाणवी कल्चर की कहावत से निकला है (जैसा कि ऊपर बताया), अत: इसके साथ कोई अन्य नाम या प्रारूप जोड़ता है तो वह इसके वास्तविक स्वरूप से खिलवाड़ मात्र है, भरमाना मात्र है।
हम इसके वास्तविक रूप को मनाने से सरोकार रखते हैं; इसके जरिए किसी भी अन्य मान-मान्यता को कमतर बताना-आंकना या उससे अलग चलना कुछ भी नहीं है।
आप जैसे औरों के ऐसे मौकों-त्योहारों पर खुले दिल से जाते हैं, शामिल होते हैं; ऐसे ही उनको भी इसमें शामिल करें।

लड़कों का रोल: इसमें लड़के खुलिया-लाठी के साथ कल्लर-गोरों पर चांदनी शाम में गींड खेलते हैं। अपनी बहन-बुआओं के लिए सांझी बनाने का सामान जुटाते/जुटवाते हैं। जो कि सांझी के ही इस लोकगीत से झलकता भी है कि, सांझी री मांगै दामण-चूंदड़ी, कित तैं ल्याऊं री दामण-चूंदड़ी! म्हारे रे दर्जी के तैं, ल्याइए रे बीरा दामण-चूंदड़ी। हरयाणवी-पंजाबी कल्चर में वीर, बीर व् बीरा, भाई को कहते हैं। और भाई की इस कद्र इस वर्कशॉप में मौजूदगी, इसके समकक्ष किसी भी अन्य त्यौहार में नहीं है। लड़के, सांझी को बहाने वाले दिन, जोहड़ों पर उसको जोहड़ में रोकने हेतु आगे तैयार मिलते हैं। यह भी एक ऐसा पहलु है जो इसको माया या अवतार या मिथक कहने के विपरीत है।

चाँद-सूरज-सितारे व् पशु-पखेरू उकेरने का कारण: बेलरखां गाम, जिला जिंद (जींद) की दादी-ताइयां बताती हैं कि आसुज महीने के चढ़ते दिनों में चाँद भी जल्दी निकल आता है व् सूरज-चाँद-सितारे एक साथ आस्मां में होते हैं, गोधूलि का वक्त होता है, धीरे-धीरे दिन छिप रहा होता है। पशु-पखेरू घरों को लौट रहे होते हैं। इस कृषि व् प्रकृति आधारित विहंगम दृश्य के मध्य सांझी को दर्शाना, हरयाणत की सम्पूर्णता को दर्शाना होता है। जो कि हमारे बच्चों की चित्रकला व् कल्पना शक्ति की क्रिएटिविटी को भी उभारना कहा जाता है।

इस बार की सांझी, 15 से ले 24 अक्टूबर तक मनाई जाएगी! आप सभी को एडवांस में सांझी की मुकारकबाद!

जय यौधेय! - फूल कुमार मलिक



Tuesday 26 September 2023

aish.com द्वारा सिख राज को याद किया जाना!

 aish.com यानि aish-ha-torah यानि orthodox yahudiyon (ऑर्थोडॉक्स यहूदियों) की इजरायली वेबसाइट पर "When Jews Found Refuge in the Sikh Empire" इस शीर्षक का लेख सितंबर 3, 2023 यानि निज्जर हत्यकांड के मसले के बीच, G20 से एक हफ्ता पहले छपती है (लिंक इस नोट के नीचे दिया है) तो इसके भी मायने क्यों न जोड़ के देखे जाएं, "कनाडा द्वारा इंडिया पर निज्जर की हत्या" के आरोप लगाने में? 


हमने चाहे 9 जनवरी 2015 को यूनियनिस्ट मिशन शुरु किया हो या फिर 5 अप्रैल 2020 को इसकी किनशिप आर्गेनाइजेशन उज़मा बैठक; यह विचार हमेशा से इन दोनों की बुनियाद में रहा कि सर छोटूराम ने जो लन्दन से रिश्ते कायम किये थे, वह किसान बिरादरी जब तक फिर से बहाल नहीं करेगी; फंडियों के हाथों पिटती रहेगी; बेइज्जत होती रहेगी| आज जब यह लेख aish.com पर देखा तो अहसास हुआ कि सिखों ने 1984 के बाद झक्क नहीं मारी हैं अपितु वहां तक पहुँच गए हैं, जहाँ से हो के लंदन के फैसले पूरी दुनिया में फैलते हैं| 


यह जैसे भी हुआ है, यह किसान जगत की बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक जीत है| अब फंडियों द्वारा सिखों को हराना कोई हंसी-खेल नहीं| संकेत साफ़ है कि फंडी कितना ही इजराइल का गुणगान करते रहें; सिख वहां भी अपनी राह बना चुके हैं| 


विशेष: यह विश्लेषण, वर्तमान में कनाडा-इंडिया में चल रही रार से बिलकुल अलग नजरिये से देखा जाए; हाँ लेखक यह जरूर देख रहा है कि इजराइल व् सिखों के रिश्ते ऐसे लेखों के जरिये कितने पनप रहे हैं| 


जय यौधेय! - फूल मलिक


Source: https://aish.com/when-jews-found-refuge-in-the-sikh-empire/

Thursday 21 September 2023

शूद्र की बेटी, स्वर्ण की रखैल यानि देवदासी वाला सनातन धर्म; जानें क्यों उदयनिधि स्टालिन को डेंगू की बीमारी जैसा लगता है!

आलोचना नहीं कर रहा हूँ, अपितु एक जीता-जगता उदाहरण दिखा रहा हूँ; लेख को आगे पढ़ने से पहले सलंगित वीडियो देखिए| कई अल्पमति, इन बातों को इसलिए नकार देते हैं क्योंकि यह चीजें, यह बातें उनके यहाँ नहीं पनप पाई तो इनको बाकी कहाँ-कहाँ पनपी हैं उससे मतलब नहीं| जबकि इस धर्म की अंत दशा व् दिशा यही है| 


इनको लगता है कि हमें क्या, हमारी औरतों के साथ तो ऐसा नहीं होता ना; शूद्रों यानि दलित-ओबीसी वालियों के साथ होता है, जैसा कि इस वीडियो में बताया गया है; तो हमें क्या पड़ी? मानवता के ऐसे गंभीर मसलों पर भी जो तुम्हें, "मुझे क्या पड़ी की फीलिंग देता हो, वह धर्म नहीं होता; वह आर्गनाइज्ड राजसत्ता पॉलिटिक्स होती है; जिससे तुम तभी बाहर आओगे जब इन मुद्दों को अपना मुद्दा मानोगे| 


मान लिया उदारवादी जमींदारी की खाप व्यवस्था ने यह चीजें नार्थ-वेस्ट इंडिया में ज्यादा नहीं फैलने दी सदियों से; परन्तु क्या तुम वह मानदंड तक भी आज के दिन बरकरार करके चल पा रहे हो, जिनके चलते यह फंडी तुम्हारे यहाँ इस हद तक का गंद नहीं फैला पाए, जितना इस वीडियो में दिखाया गया है? शायद नहीं, बल्कि फंडी इस मानसिकता को तुम्हारे यहाँ भी अब घुसा पाने में कामयाब होते जा रहे हैं| तुम शायद इस स्तर के स्वार्थी भी हो कि तुम्हें तुम्हारी पीढ़ी के आगे होते यह नहीं दिखेगा तो तुम नहीं मानोगे; परन्तु यकीन करो तुम्हारी यही सोच तुम्हारी अगली पीढ़ियों को इसी चंगुल में फंसा के जा रही है, जहाँ कल को तुम्हारी बहु-बेटियों को भी देवदासियां बना के यूँ ही बर्बाद किया जायेगा; ज्यूँ यह कर्नाटक की कहानी| साउथ इंडिया वाले इसको झेल चुके हैं, इसीलिए सनातन को डेंगू बोलते हैं; तुम खापों की वजह से इससे बचे रहे हो, इसलिए इस मर्म को अभी समझ नहीं पा रहे हो या समझना नहीं चाहते हो; परन्तु इतना भी बेफिक्रे मत बनो; कबूतर, बिल्ली की नजर में है; बिल्ली यानि फंडी और कबूतर यानि तुम| 




Wednesday 13 September 2023

रियासती और देहाती - दिल्ली - बहादुरशाह जफर- अंग्रेज - खाप और दिल्ली हाईकोर्ट

1947 तक भी अनेको स्वतंत्र क्षेत्र थे, जो सभी रियासतों से बाहर थे. स्वतंत्र इलाको को देहात के नाम से जाना जाता था, जैसे अब दिल्ली में शामिल पालम खाप 360 के गाँवो को दिल्ली देहात ( स्वतंत्र एवं गैर रियासती एवं गैर सरकारी ) क्षेत्र. ये क्षेत्र सामूहिकता के फैसलों से चलते थे. इस सिद्धांत को संविधान निर्माताओं ने "यूनिट ऑफ़ सेल्फ गोवेर्मेंट" के नाम से ग्रामीण क्षेत्रो को पहचान दी है.

1857 की क्रांति का दमन करते हुए जब अंग्रेजों विशाल सेना के साथ पुराने किले पर कब्जे के लिए बढ़ रहे थे. 19 सिंतंबर को बादशाह अपने पूरे परिवार और सैनिको के साथ महल छोड़कर पुराने क़िले चले जाते हैं. 20 सितंबर को हॉडसन को खबर मिली कि ज़फ़र पुराना क़िला छोड़ कर हुमायूं के मकबरे में पहुँच गए हैं. 20 सिंतंबर 1857 को मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर बचते-बचाते - पालम खाप 360 के गांव मालचा ( जो की एक बड़ा गांव था जहा आज संसद भवन और राष्टपति भवन बने हुए हैं ) में जाकर खाप की शरण लेते हैं. उसके बाद एक पालम 360 के प्रतिनिधियों की एक खाप पंचायत होती हैं और शरण में आये बुजुर्ग बादशाह की सुरक्षा का प्रस्ताव पास किया जाता हैं. इस समय में खाप रियासतों से अलग अपने स्वशासन के साथ अस्तित्व में थी. अंग्रेज और रियासती राजे रजवाड़े खाप कि सामूहिक ताकत से डरते थे. क्योकि खाप के पास जितने लोग थे न तो अंग्रेजो के पास इतने सैनिक थे और न रियासतों के पास इतनी बड़ी सेना. क्योकि खाप में हर व्यक्ति का सैनिक होता हैं. खाप कि जेलियो और फालियों से हर कोई डरता था.
उधर कैप्टन विलियम हॉडसन क़रीब 100 सैनिकों के साथ बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को पकड़ने के लिए हुमायु के मकबरे की ओर बढ़ते हैं. वह अपने सूत्रों को भेजकर यह पता लगाते हैं कि बहादुर शाह ज़फ़र वहा हैं या नहीं ? हॉडसन को इस बात का डर था कि पता नहीं हुमायूं के मकबरे पर मौजूद सैनिक उनपर हमला न कर दे. इसलिए हॉडसन ने मकबरे में महारानी ज़ीनत महल से मिलने और बादशाह को आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार करने के लिए अपने दो नुमाइंदों (मुखबिरों) मौलवी रजब अली और मिर्ज़ा इलाही बख़्श को भेजते हैं. मौलवी रजब अली और मिर्ज़ा इलाही बख़्श 2 घंटे बाद सुचना लेकर आते हैं कि बादशाह "पालम खाप" कि शरण में जा चुके हैं. खाप ने उनकी सुरक्षा कि जिम्मेदारी ले ली हैं और एक शर्त रक्खी हैं कि बुजुर्ग बादशाह के साथ कोई भी बदसलूकी न कि जाए. अगर हडसन ऐसा मानते हैं तो बादशाह ज़फ़र सिर्फ़ हॉडसन के सामने ही आत्मसमर्पण करेंगे और वो भी तब जब हॉडसन खुद जनरल आर्चडेल विल्सन द्वारा दिए गए वादे को उनके सामने दोहराएंगे कि उनके जीवन को बख़्श दिया जाएगा. ऐसा ना करने पर खाप रियासती संधि को तोड़ देगी और उसके परिणाम अंग्रेजो को भुगतने होंगे.
अंग्रेज़ी ख़ेमे में इस बात पर शुरू से उलझन थी कि किसने और कब बहादुरशाह ज़फ़र को उनकी ज़िदगी बख़्श देने का वादा किया था? इस बारे में गवर्नर जनरल के आदेश शुरू से ही साफ़ थे कि विद्रोही चाहे कितने ही बड़े या छोटे हों, अगर वो आत्मसमर्पण करना चाह रहे हों तो उनके सामने कोई शर्त या सीमा नहीं रखी जाए. हॉडसन इस इस शर्त को स्वीकार कर लेते हैं और बादशाह ज़फ़र को खाप ने सफ़ेद पगड़ी पहनाकर विदा किया, जिसका मतलब था कि अगर खाप कि पगड़ी उछाली गई तो विद्रोह होगा. बादशाह खाप का धन्यवाद कर अपने परिवार के पास हुमायु के मकबरे में पहुंच जाते हैं जहा से वो आत्मसमर्पण करना चाहते थे. इस फैसले से बादशाह ने अपनी रियासत में से कुछ जमीन मालचा गांव को भेंट कर दी. आज जहा इंडिया गेट बना हुआ हैं यहाँ से लेकर कनॉट प्लेस तक कि जमीन मालचा के किसानो को दे दी गई. इस क्षेत्र को मालचा पट्टी कहा जाता था.
ऐसा करना अंग्रेजो कि मज़बूरी भी थी और कूटनीति भी, एक तो बहादुरशाह बहुत बुज़ुर्ग थे और वो इस विद्रोह के सिर्फ़ एक कमजोर शासक थे. दूसरे अंग्रेज़ दिल्ली में दोबारा घुसने में सफल ज़रूर हो गए थे लेकिन उत्तरी क्षेत्र कि कुछ रियासते और देसी सैनिको का विद्रोह अब भी जारी था और अंग्रेज़ो को कहीं न कहीं डर था कि अगर बादशाह की जान ली गई तो लोगो भावनाएं भड़क सकती हैं. इसलिए विल्सन इस बात पर राज़ी हो गए कि अगर बादशाह आत्मसमर्पण कर दें तो उनकी जान बख़्शी जा सकती है.
विलियम हॉडसन अपनी किताब 'ट्वेल्व इयर्स ऑफ़ द सोलजर्स लाइफ़ इन इंडिया' में लिखते हैं, 'मकबरे से बाहर आने वालों में सबसे आगे थीं महारानी ज़ीनत महल. उसके बाद पालकी में बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र आ रहे थे. इसके बाद बहादुर शाह जफ़र को तय शर्तो के साथ गिरफ्तार कर लिए गया. बहादुर शाह जफ़र आत्मसमर्पण के समय राजशाही ताज कि जगह सफ़ेद पगड़ी बंधे हुए थे जो उन्हे खाप ने पहनाई थी.
कैप्टेन चार्ल्स ग्रिफ़िथ उन अफ़सरों में थे जिन्हें बहादुर शाह ज़फ़र की निगरानी की ज़िम्मेदारी दी गई थी.
बाद में उन्होंने अपनी किताब 'द नरेटिव ऑफ़ द सीज ऑफ़ डेल्ही' में लिखा, 'मुग़ल राजवंश का आख़िरी प्रतिनिधि एक बरामदे में एक साधारण चारपाई पर बिछाए गए गद्दे पर पालथी मार कर बैठा हुआ था. उनके रूप में कुछ भी भव्य नहीं था सिवाए उनकी सफ़ेद दाढ़ी के जो उनके कमरबंद तक पहुंच रही थी. मध्यम कद और 80 की उम्र पार कर चुके बादशाह सफ़ेद रंग की पोशाक पहने हुए थे और उसी सफ़ेद कपड़े की एक पगड़ी उनके सिर पर थी. उनके पीछे उनके दो सेवक मोर के पंखों से बनाए गए पंखे से उन पर हवा कर रहे थे. वो ज्यादातर शांत रहते और बहुत काम बात करते थे.
मालचा गांव की सीमाएं और उनकी जमीनें पहाड़गंज से लेकर धोला कुआँ तक फैली थीं. आज भी यहाँ एक सड़क का नाम मालचा गांव के नाम पर है. लाल किले और मालचा गांव में बिच में कुछ नहीं था बस हरे भरे खेत और आम - जामुन के बाग़ थे. इन्ही खेतो खेतो की करीब 4000 एकड़ जमीन के कुछ हिस्सों पर संसद भवन राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट और कनॉट प्लेस बने हुए हैं. 1912 अंग्रेजो दुवारा अधिनियम, 1894 का उपयोग करते हुए भूमि को खरीद कर अधिग्रहण किया गया था. हालाँकि बाद में बहुत से किसानो को मुआवजा नहीं मिला और अभी भी मालचा गांव के कुछ किसानो ने इस भूमि पर दिल्ली हाई कोर्ट में केस किया हुआ.
~Rajesh Dhull

बैटल ऑफ हांसी 13 सिंतबर 1192 AD

 

बैटल ऑफ हांसी 13 सिंतबर 1192 AD
कुत्तुब्बुद्दीन ऐबक बनाम दादावीर चौधरी जाटवान मलिक जी गठआळा (गठवाला)

सन् 1192 ई० में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली के सम्राट् पृथ्वीराज चौहान को तराइन के स्थान पर युद्ध में हरा दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। मोहम्मद गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का शासन सौंप दिया और स्वयं गजनी लौट गया कुतुबुदीन ऐबक ने आम जनता पर तरह तरह के कर लगा दिए और अत्याचार करने शरू कर दिए जाटो को ये अत्याचारी अधर्मी नया शासक सहन नही हुआ और उन्होंने खाप-यौधेय दादावीर जाटवान मलिक जी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। जाट इतिहास पृ० 714-715 पर ठा० देशराज ने दादावीर जाटवान के विषय में लिखा है कि इसी समय हांसी के पास दीपालपुर में गठवालों ने अपने नेता दादावीर जाटवान मलिक के साथ कुतुबुदीन ऐबक के सेनापति नुसुरतुदीन को हांसी में घेर लिया और मार दिया। गठवाले उसे भगाकर अपने स्वतन्त्र राज्य की राजधानी, हांसी को बनाना चाहते थे। इस खबर को सुन कर कुतुबुद्दीन पूरी सेना लेकर एक ही रात में 12 फसरंग (ध्यान रहे 1 फसरंग 12 km के बराबर होती हैं ) का सफर करके अपने सेनापति का बदला लेने के लिए हांसी पहुंचा

(“हसन निजामी जो कुताबुदीन के दरबारी लेखक थे जो अपनी किताब तुमुल सिमिर / Taju-l Ma-asir में pp 218 पे लिखते हैं जिसका इंग्लिश अनुवाद :- " When the 3rd day of honoured month of Ramazan, 588 H ( according to today that is 13th of September 1192 AD ), the season of mercy and pardon, arrived, fresh intelligence was received at the auspicious Court, that the accursed Jatwan, having admitted the pride of Satan into his brain, and placed the cup of chieftainship and obstinacy upon his head, had raised his hand in fight against Nusratu-d din, the Commander, under the fort of Hansi, with an army animated by one spirit." Digressions upon spears, the heat of the season, night, the new moonday , and the sun. — Kutbu-d din mounted his horse, and " marched during one night twelve parasangs.") ”

तो दादावीर जाटवान मलिक ने संख्याबल और हथियारों की कमी को देखते हुए छापामार युद्ध कौशल का प्रयोग किया, धीरे धीरे कुतुबुदीन को अपने चक्रव्यूह खानक की पहाड़ियों (जिस आजकल डाडम या तोशाम की पहाड़िया कहा जाता हैं) जिसमे संख्याबल महत्वहीन हो गया दोनों सेनाये 3 दिन 3 रात तक अपना अपना युद्ध कौशल दिखाती रही खुद Taju-l Ma-asir /तुमुल सिमिर के मुस्लिम लेखक हसन निजामी आगे लिखते हैं “The armies attacked each other " like two hills of steel, and the field of battle became tulip-dyed with the blood of the warriors." — The swords, daggers, spears, and maces struck hard. - The locals were completely defeated, and their leader Jatwan slain but he showed tremendous bravery.”

युद्ध बहुत घमासान हुआ जैसे दो पहाड़ आपस में टकरा गए हों। धरती रक्त से लाल हो गई थी। बड़े जोर के हमले होते थे |जाट थोड़े थे पर फिर भी वो खूब लड़े| सुल्तान स्वयं घबरा गया। जाटवान ने उसको निकट आकर नीचे उतरकर लड़ने को ललकारा। किन्तु सुल्तान ने इस बात को स्वीकार किया। जाटवान ने अपने चुने हुए साथियों के साथ हमारे गोल में घुसकर उन्हें तितर-बितर करने की चेष्टा की और मारा गया |

एक अत्याचारी की खिलाफ पहली तलवार उठाने वाला योद्धा दुर्भाग्य से तीसरे दिन, रात को युद्ध में शहीद गया| बेशक हार हुई पर गुलाम वंश यह मुस्लिम बादशाह युद्ध में हुई इस अप्रत्याशित क्षति को देखकर बोला किअगर मैं इस यौद्धा को संधि करके बहका लेता तो अपने साम्राज्य का बहुत विस्तार कर सकता थाऔर दिल्ली को राजधानी बनाने का विचार त्याग कर लाहौर चला गया| जाटवान के बलिदान होने पर गठवालों ने हांसी को छोड़ दिया और दूसरे स्थान पर आकर गोहाना के पास आहुलाना, छिछड़ाना आदि गांव बसाये। वीर जाटवान के बेटे हुलेराम ने संवत् 1264 (सन् 1207 ई०) में ये गांव बसाये| जाटवान मलिक के मारे जाने के बाद शाही सेना ने भयंकर तबाही मचाई जिससे गठवालो का यह गढ़ टूट गया, हजारों परिवारों को दूर जा कर बसना पड़ा। इसके बाद मलिक जाट अलग अलग दिशाओं में विभक्त हो कर उत्तरी भारत में फ़ैल गया। एक शाखा गोहाना, सोनीपत, पानीपत,रोहतक के आस पास फ़ैल गई। काफी संख्या में मलिक यमुना पार कर शामली, बडोत,मुज्जफर नगर,मेरठ तक बस गए, एक शाखा बीकानेर नागौर में जा बसी जिन्हें अब गिटाला, गथाला, गाट, घिटाला नाम से भाषा भेद के कारण जाना जाता है, इसी तरह एक शाखा बहादुरगढ़,दिल्ली,नोएडा,गाजियाबाद तक गई।वर्तमान में यदि सीमाओं को हटा कर बात की जाए तो गठवाला को 640 गांव का सबसे बड़ा खेड़ा भी कहा गया है, आज गठवाला गौत को मलिक के अलावा 12 से ज्यादा नामों से जाना जा सकता है।

दादा वीर जाटवान मलिक अपने हजारों साथियों के साथ बलिदान हुए और अपने वीरतापूर्ण जीवन के साहस एवं शौर्य से उन्होंने अपने पूर्वजों को गौरवान्वित किया जो सदा ही आने वाली नस्लो के लिए प्रेरणापुंज की तरह काम करता रहेंगा। यह बात शत-प्रतिशत सही है कि जिस कौम का इतिहास लिपिबद्ध नहीं होता, वह मृतप्राय हो जाती है। उसका स्वाभिमान और गौरव नष्ट हो जाता है। आज सर्वखाप के समाजों में गौरव और स्वाभिमान की भावना पैदा करने के लिए अति आवश्यक है कि ऐसे यौधेयों-यौधेयाओं की गौरवगाथाओं को लिपिबद्ध कर प्रचारित किया जाए, जिन्होंने अपनी अणख व् धरती हेतु और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए सर्वशः बलिदान कर दिया ताकि आने वाली संतान संरक्षित और गौरव का अनुभव कर सके।

लेखक: बेगपाल मलिक

संदर्भग्रन्थ / रेफ्फेरेंस :-
1. The history of India : as told by its own historians. Sir H. M. Elliot Edited by John Dowson, 1867 Volume II/V. Taju-l Maasir of Hasan Nizami
2. Qanungo, Kalika Ranjan (2017). History Of The Jats: A Contribution To The History Of Northern India. Gyan Books. ISBN 978-93-5128-513-7.pp 16 ,17
3. Said, Hakim Mohammad (1990). Road to Pakistan: 712-1858. Hamdard Foundation Pakistan. ISBN 978-969-412-140-6.
4. Jain, Meenakshi (2011-01-01). THE INDIA THEY SAW (VOL-2): Bestseller Book by Meenakshi Jain: THE INDIA THEY SAW (VOL-2). Prabhat Prakashan. p. 240. ISBN 978-81-8430-107-6.
5. Elliot, Sir Henry Miers (1869). The History of India, as Told by Its Own Historians: The Muhammadean Period; the Posthumous Papers of H. M. Elliot. Akbar Badauni. Susil Gupta (India) Private. pp. 71–72.
6. Habibullah, Abul Barkat Muhammud (1961). The Foundation of Muslim Rule in India: A History of the Establishment and Progress of the Turkish Sultanate of Delhi, 1206-1290 A.D. Central Book Depot. p. 62.
7. A Comprehensive History of India: The Delhi Sultanat (A.D. 1206-1526), ed. by Mohammad Habib and Khaliq Ahmad Nizami. People's Publishing House. 1970. p. 171.
8. James tod (1920). Annals and Antiquities of Rajasthan: Or The Central and Western Rajput States of India. H. Milford, Oxford University Press. p. 1164.
9. Rose, Horace Arthur (1999). A Glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North-West Frontier Province. Low Price Publications. p. 359. ISBN 978-81-7536-152-2.
10. Srivastava, Ashirbadi Lal (1953). The Sultanate of Delhi: Including the Arab Invasion of Sindh, 711-1526
11. जाट वीरो का इतिहासदलीप सिंह अहलावत pp 273
12. A.K. Majumdar (1956). Chaulukyas of Gujarat. Bharatiya Vidya Bhavan. OCLC 4413150. Pp 144
13. R. B. Singh (1964). History of the Chāhamānas. N. Kishore. OCLC 11038728.pp 213
14. Rima Hooja (2006). A History of Rajasthan. ISBN 9788129108906.pp 291
15. S.H. Hodivala (1979). Studies in Indo-Muslim History: A Critical Commentary on Elliot and Dowson's History of India as Told by Its Own Historians. Pp 179
16. 15. Srivastava, Ashok Kumar (1972). 1.The Life and Times of Kutb-ud-din Aibak. Govind Satish Prakashan.A.K. Majumdar 1956, pp. 143–144. 2. Disintegration of North Indian Hindu States, C. 1175-1320 A.D. Purvanchal Prakashan. pp. 87–89.




Monday 11 September 2023

जैसे आजकल RWA में rules and regulations पर monthly मीटिंग्स होती हैं; ऐसे ही खापलैंड के हर गाम के ठोलों के "बगड़" यानि RWA में बगड़-ठोले के बड़े बूढ़े monthly अथवा तिमाही counseling मीटिंग्स लिया करते थे!

1 - जिसमें औरतों-बच्चों को गाइडलाइन्स दी जाती थी|

2 - उनकी मानसिक-व्यवस्थापिक समस्याएं सुनी जाती थी|
3 - जो बगड़ में अशांति या पाखंड फ़ैलाने की जनक पाई जाती थी तो उनकी खासतौर से counseling से ले डांट-डपट होती थी|
जब से जिन-जिन गामों में यह पुरख-कल्चर हमने खूंटियों पे टांगा है; वहीँ सबसे ज्यादा वहां की औरत-मर्द-बच्चे फंडी-पाखंडी-फलहरियों के फटफेड़े में पड़े भरम रहे हैं, टूल रहे हैं|
मेरे ठोले-बगड़ की ऐसी आखिरी counseling मीटिंग मैंने मेरे चचेरे पड़दादा चौधरी दरिया सिंह मलिक की अध्यक्षता में होती देखी हुई है; जिसमें हमारे ठोले की तमाम औरतें व् बच्चे बैठे थे व् दादा सबके रिपोर्ट कार्ड से चेक कर रहे थे|
जहाँ-जहाँ बूढ़ों को ऐसे सुनना बंद हुआ है, वहां औरतों के मनों में विचलता फैली है व् ऐसे फंडियों के चक्र काट रही हैं; जैसे "म्हास का काटडू कहीं गोरे पे छूट गया हो, वाली म्हास धारों के बख्त खूंटे पे कटिये काटती होती है"| ऐसी मीटिंग्स में बड़ी दादियां व् बड़े दादे दोनों व्यवस्थानुसार यह किरदार निभाते थे|
वापिस ले आओ इस कल्चर को|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday 7 September 2023

आरएसएस का लाठी खेल!

आरएसएस, जोकि शहरियों का संगठन माना जाता रहा है। वह अलग बात है कि अब पिछले दस बीस सालों से इसमें देहाती भी दिखने लगे हैं। इसकी शाखाओं में हम सभी ने देखा है कि वहां स्वयंसेवकों को लाठी चलाना सिखाया जाता है। दरअसल इस लाठी वाले खेल का इतिहास आरएसएस की स्थापना से भी पैंसठ सत्तर साल पहले, यानी 1860 के दशक में बंगाल में शुरू हुए हिन्दू मेला से शुरू हुआ था और उस समय इसे नाम दिया गया लाठी खेला। इसके पीछे का इतिहास बड़ा ही रोचक है। और इसके पीछे के इतिहास को जानेंगे तो समझ आ जायेगा कि आज भी ये संघ वाले लाठी खेल को क्यों जारी रखे हुए हैं।

1857 के आज़ादी संग्राम के बाद अंग्रेजों ने सेना में मार्शल नस्ल भर्ती का आधार बना दिया। जिससे सेना में बंगालियों की नफरी घटा दी गई, या कहें कि इनकी भर्ती ही बंद कर दी गई थी। इससे जनता में धारणा बन गई कि बंगाली कायर नस्ल है। इससे बंगालियों में हीन भावना पैदा हो गई। यह भावना उस वक्त के पढ़ लिखे बंगालियों के लेखों व् भाषणों में साफ़ झलकती है। बंगाली बुद्धिजीवी वर्ग ने कलम के जरिये इस धारणा को तोड़ने का प्रयास किया। मई 22, 1867 के दी नेशनल पेपर में लेख लिखा गया ‘Can The Bengalees Be A Military Nation?’। औपनिवेशिक आरोप था कि बंगाली लोग जल्दी शादी कर लेते हैं, इसलिए उनकी संताने कमजोर व् जनाना पैदा होती हैं। इस लेख में इस औपनिवेशक आरोपों की तर्कों से जवाब देने की कोशिश की गई थी। लेख में कहा गया कि शारीरिक कमजोरी का आरोप शहरी व् पढ़े लिखे बंगालियों के मामले में शायद सही हो सकता है, परन्तु बंगालियों का निचला तबका जो या तो ज़मींदारों के यहाँ लठैत है, या फिर खूंखार डकैत हैं, यह तबका सेना में भर्ती किया जा सकता है। इसी पेपर में जून 12, 1867 को इसी विषय पर एक और लेख छपा था ‘courage and exercise’। बात ये है कि उस वक्त इस मार्शल नस्ल की थ्योरी ने रोटी बनाम चावल की बहस को जन्म दिया। एक कहावत जोकि हमारे यहाँ आज भी प्रचलन में है कि चावल खाने वाले शारीरिक तौर पर कमजोर होते हैं। आज भी हमारे यहाँ अक्सर ये ताना सुनने को मिल जायेगा कि चावल खानिया। बंगालियों की मुख्य खुराक चावल है और पंजाबियों (संयुक्त पंजाब जो दिल्ली पलवल से शुरू होकर पेशावर की सीमा तक था) की रोटी, तो उस दौर में चावल खाने वाले बंगाली बनाम रोटी खाने वाले पंजाबी की बहस चलती थी। इस बहस के कारण बंगालियों ने हिन्दू मेला की ऑर्गनाइजिंग कमेटी में शारीरिक शिक्षा का एक अलग से विभाग बनाया और मेले में तरह तरह के शारीरिक व्यायाम और टूर्नामेंटो को भी स्थान दिया गया। बंगालियों को प्रेरणा देने के लिए नबगोपाल मित्र ने नेशनल पेपर में ग्रीक, जर्मनी, फ़्रांस के जिम्नेजियम के स्केच प्रकशित किये। बंगाली कमजोर होते हैं ये मिथक तोड़ने और अपने लोगों को शारीरिक मजबूत बनाने और उनमें लड़ाई का जज्बा भरने के उद्देश्य से ही 1868 में हिन्दू मेला में लाठी खेला शुरू किया गया। पर बंगालियों यानि चावल खाने वाले में ये खुराक वाली हीन भावना निकलते नहीं बन रही थी। 1874 में बंकिम चन्द्र चटर्जी का बंगा दर्शन में बंगालीर बाहुबल नाम से लिखा एक लेख जिसमें बंकिम ने जेम्स जोहन्सटन की किताब Chemsitry of common life-I के हवाले से लिखा कि बंगाल एक चावल उत्पादक सूबा है, इसलिए यहाँ की चावल मुख्य खुराक है, और चावल में वो पोषक तत्व नहीं होते जो शारीर की बनावट में सहायक हों। गेहूं व मांस में ग्लूटेन की मात्र ज्यादा होती है। इसीलिए गेहूं व् मॉस खाने वालों का शारीर ज्यादा मजबूत होता है। 1878 के हिन्दू मेले में बंगाली और पंजाबी पहलवान के बीच कुश्ती का मुकबला जिसमें पंजाबी पहलवान बंगाली पहलवान को चित कर देता है। जिस पर संबाद प्रभाकर ने रिपोर्टिंग की कि “कोई बात नहीं इस बार पंजाब का पहलवान जीत गया, पिछली बार हमारा बंगाल का पहलवान जीता था, और हो सकता है कि अगली बार हमारा पहलवान पंजाब के पहलवान को हरा दे। इतिहास बंगाल और पंजाब को सियार और शेर के रूप में देखता है, इस नजरिये से बंगाली पंजाबी का मुकाबला करने के काबिल हुआ है हमारे लिए यही बहुत बड़ी बात है”।
खैर, ये खुराक की बहस काफी लम्बे समय तक चली और हर हिन्दू मेले में इस पर कोई न कोई वक्ता जरुर बात करता। ये इतिहास और दलीले काफी लम्बी हैं, मैंने थोडा संक्षेप में बताया है। हिन्दू मेला चौदह साल तक चला। इसके बाद 1925 में आरएसएस का गठन किया गया। हालाँकि, आरएसएस का गठन वैसे तो 1918 में मुंजे ने कर दिया था परन्तु इसका औपचारिक गठन 1925 माना जाता है। आरएसएस ने हिन्दू मेला के आयोजकों ने जो भी थ्योरी व् कार्यक्रम शुरू किये थे वे सभी ज्यों के त्यों शुरू किये, जिनमें लाठी वाला खेल भी शामिल है। हम लोग आरएसएस की लाठी का जो मजाक बनाते हैं उन्हें शायद अब इनके इस लाठी के खेल के पीछे का इतिहास समझ आ गया होगा! आरएसएस शहरियों का संगठन है और ये शहरी आज भी ताकत के मामले में उसी मानसिक दबाव में हैं। इसीलिए ये लोग लाठी का खेल और शास्त्र पूजा आदि अपने संगठन के कार्यक्रम का हिस्सा बनाए हुए हैं।
-राकेश सिंह सांगवान

Wednesday 6 September 2023

सामाजिक न्याय व् दक्षिण और उत्तरी भारत!

बाबा अम्बेडकर, महात्मा ज्योतिबा फूले व् पेरियार रामास्वामी जी; जिस काल में दक्षिण भारत में "सामाजिक-न्याय" यानि छूत-अछूत, स्वर्ण-शूद्र की लड़ाई लड़ रहे थे, उसी काल में पश्चिमोत्तर भारत - यूनाइटेड पंजाब) में सर छोटूराम "आर्थिक-न्याय" की लड़ाई लड़ रहे थे| और आर्थिक-न्याय की लड़ाई सामाजिक-न्याय के बाद आती है| और पश्चिमोत्तर भारत में समाजिक-न्याय को हद-गुजरने से आगे का अन्याय यानि छूत-अछूत, स्वर्ण-शूद्र इसलिए नहीं बनने दिए क्योंकि यहाँ मिसल व् खाप सिस्टम रहा है| जो आज के दिन भी आरएसएस जैसे समूहों के तथाकथित धार्मिक संगठनों को मेवात दंगे उकसाने में पैर मारने तक से रोक देता है; सोचें कि उस वक्त यह सिस्टम कितना मजबूत रहा होगा; कि सर छोटूराम जैसे हुतात्मा सीधा आर्थिक-लड़ाई लड़ रहे थे| 


परन्तु अब वक्त चिंता का आ रहा है, यही चलता रहा तो आर्थिक तो छोडो, सामाजिक लड़ाई लड़ने लायक सोच-क्षमता-संसाधन आरएसएस के फंडियों ने यहाँ नहीं छोड़ने हैं; परन्तु लोग हैं कि पाखंड की अफ़ीम में डूबे ही जा रहे हैं| एक ऐसी धरती, जिसने ना कभी साउथ इंडिया की सामाजिक न्याय की लड़ाई झेलनी पड़ी और ना ही यूरोप की 'ब्लैक प्लेग' व् फ़्रांसिसी क्रांति टाइप की सामाजिक न्याय की क्रांतियां झेलनी पड़ी; वह पश्चिमोत्तर भारत अब उसी खतरे के मुहाने पर है; अगर सही-सही "मुंह-थोबने" इन फंडी-पाखंडियों के नहीं हुए तो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday 1 September 2023

उत्तर-पश्चिमी भारत व् बाकी के भारत की "सामाजिक न्याय की लड़ाई" अलग प्रकार व् स्तर की रही हैं!

इसको कुछ यूँ समझें:

1) क्या वजह है कि वर्णवाद, छूत-अछूत की लड़ाई लड़ने वाले राष्ट्रीय महानायक साउथ इंडिया से आते हैं? जैसे कि महात्मा ज्योतिबा फूले, बाबा आम्बेडकर व् पेरियार स्वामी जी| क्यों नहीं यह लड़ाई लड़ने वाला इनके स्तर का कोई लीडर नार्थ इंडिया या कहें कि उत्तर-पश्चिमी भारत से हुआ? इनका साउथ इंडिया से होना, व् ऐतिहासिक दस्तावेजों के रिकार्ड्स भी इस बात को स्थापित व् सत्यापित करते हैं कि चाहे "गले में हांडी व् कमर पर झाड़ू लटका के चलने के अत्याचार रहे हों या बाबा आंबेडकर को तालाब से पानी नहीं पीने देने के या महात्मा ज्योतिबा फूले जी द्वारा शिक्षा के अलख जगाने पे उन पर व् उनकी पत्नी पर गोबर-कीचड़ फेंकने के मामले हों; यह साउथ इंडिया में उच्च स्तर के थे; माने की प्रकाष्ठा की अति होने वाले स्तर के थे| 

2) उत्तर-पश्चिमी भारत से हुआ तो सर छोटूराम हुए, जिन्होनें सामाजिक न्याय की अपेक्षा आर्थिक न्याय की लड़ाई ज्यादा लड़ी| यानि यहाँ सामाजिक न्याय की समस्या इतनी बड़ी नहीं थी, शायद खापों की व्यवस्था पहले से ही समानांतर में होने के चलते? जो थी भी तो फंडियों के बहकावे में आने वाले कुछ लोगों के चलते थी, वरना यहाँ के मूल में यह समस्या नहीं रही कही जा सकती है| इसका मजन "मेवात दंगों में खापों के स्टैंड" से भी समझा जा सकता है कि यह लोग जुल्म-की व्यापकता व् अति को कतई बर्दास्त नहीं करते, इसीलिए तो मेवात में खापें, मुस्लिमों के साथ खड़ी हुई| 

3) क्यों दलित-ओबीसी भाईयों को वर्णवाद, छूत-अछूत की लड़ाई लड़ने वाले महानायकों में कोई उत्तर-पश्चिम भारत से महात्मा ज्योतिबा फूले, बाबा आम्बेडकर व् पेरियार स्वामी जी जितना बड़ा चेहरा नहीं मिलता? आप जिस किसी भी छूत-अछूत, वर्णवाद विरोधी कार्यक्रम के पोस्टर देखें; उनमें मुख्यत; इन्हीं तीन महानायकों के चेहरे मिलते हैं| 


जय यौधेय! - फूल मलिक

Jat and their religious philosophy

मेरी पिछली पोस्ट पर चौधरी भाई ने कॉमेंट किया कि सनातनियों में भी धर्म के प्रति जागरूकता बढ़ी है इसलिए बड़े बूढ़ों को ये सब नया लगता है।

अब इस कॉमेंट के वैसे तो कई अर्थ निकलते हैं। जैसे कि हमारे बूढ़ों को ये सब नया लगता है क्योंकि वो जाहिल थे उन्हें ज्ञान नहीं था इसलिए उनमें सनातनी संस्कृति के प्रति जागरूकता नहीं थी? सवाल ये है कि आखिर अब नई पीढ़ी में ये जागरूकता लाया कौन? क्योंकि हमारे बूढ़ों को तो ज्ञान था नहीं, या कह सकते हैं कि उनमें जागरूकता नहीं थी।
खैर, चौधरी भाई की मजबूरी है क्योंकि वो एक विचारधारा से जुड़े हुए हैं इसलिए वो निष्पक्ष नहीं रह सकते। और न ही मैं उनको बदलने के लिए ये लिख रहा हूं। मैं इसलिए लिखता हूं कि कम से कम नई पीढ़ी के पास तर्क करने के लिए जानकारी हो। जागरूकता के नाम पर कोई और ना बहका ले जाए। उनकी जागरूकता की दिशा सही हो।
अब बात बूढ़ों में जागरूकता की। अजय भाई जिस विचारधारा से जुड़े हैं उसको डिफेंड करने के लिए उन्होंने अपने बूढ़ों को अज्ञानी या सुस्त बता दिया। यदि भाई ने इतिहास का बारीकी से, आंकड़ों सहित अध्ययन किया होता तो ऐसा नहीं कहते। भाई को पता होता कि बूढ़े कितने जागरूक थे। आज जो ये धर्मों के नाम पर जागरूकता की मुहीम चल रही है यह कोई नहीं है। हमारे यहां, यानी संयुक्त पंजाब में यह जागरूकता सन 1870-1880 में शुरू हो गई थी। इस क्षेत्र में इसकी शुरुआत की वजह जान लेते हैं पहले।
“The Punjab Past And Present, Vol-XI, Part I-II, Page no. 257 पर लिखा है कि -वास्तव में, 'पंजाब लॉ एक्ट, 1872,' 24 और 25 विक्ट..सी. 67, इंपीरियल पार्लियामेंट द्वारा अधिनियमित, महारानी विक्टोरिया के शासनकाल के 24वें और 25वें वर्ष में, इसकी धारा 5 द्वारा, विशेष रूप से मान्यता दी गई है कि पंजाब के जाट अपने विशिष्ट रीति-रिवाजों द्वारा शासित होते हैं - न कि किसी व्यक्तिगत या धार्मिक कानून, जैसे हिंदू कानून द्वारा। पंजाब में बाद के न्यायिक फैसलों ने दोहराया है कि कस्टम (रिवाज) पंजाब में फैसलों का पहला नियम है। मूल रूप से जाट पक्ष होने पर न तो हिंदू कानून और न ही मुस्लिम कानून लागू होता था।”
मतलब साफ है कि हमारे समुदाय में मिक्स कल्चर था। यहां धार्मिक कट्टरता नहीं थी। कबीले के रिवाज धार्मिक रिवाजों से ऊपर थे। फिर यहां कुछ लोग पूर्व से आए, कि इन्हें जागरूक किया जाए। उन्होने जागरुकता मुहीम चलाई और जाट जागरूक भी हुए। बाकि भी हुए पर मैं सिर्फ जाट समुदाय की ही बात करूंगा क्योंकि ये यहां बहुसंख्यक समुदाय है। जाटों में उस जागरुकता का असर ये हुआ कि 1881-1931, यानी के इन 50 सालों में हिंदू जाटों की आबादी 31% तक घट गई, मुस्लिम और सिख जाटों की आबादी में 90% तक की बढ़ोतरी हुई। इस दौरान जाट इस्लाम में ज्यादा गए। जबकि ये औरंगजेब का दौर भी नहीं था? जाटों के इस पलायन से सनातनियों में बेचैनी हुई, तो उन्होने अखबारों में लेख लिखने शुरू किए कि जाट हिंदू धर्म छोड़ रहें हैं। क्यों छोड़ रहें हैं इसका जवाब चौधरी छोटूराम ने जाट गजट अख़बार में लेखों के ज़रिए दिया।
जागरुकता! बड़ा ही बौद्धिक सा शब्द है। इसको सुनते ही हर कोई प्रभावित होता है। पर ये मायाजाल भी है। इसलिए ये देखने समझने की कोशिश जरूर करो कि तुम्हें जागरूक करने कौन आया है? अजय भाई के लिए सवाल है कि इस दौरान बूढ़े इस सनातन धर्म से क्यों कटे? जबकि इस दौरान में तलवार वाली भी कोई बात नहीं थी।
–राकेश सिंह सांगवान