उत्तरी-भारत खासकर खापलैंड पर समाज में आदिकाल से दो व्यवस्थाएं एक दूसरे
के सन्मुख चलती आई हैं, एक मंदिर व्यवस्था और एक खाप व्यवस्था|
मंदिर व्यवस्था पौराणिक और मनुस्मृति आधारित है जबकि खाप व्यवस्था काल विशेष की सामाजिक मान-मान्यताओं पर आधारित है|
एक भगवान व् पाप-पुण्य का डर दिखा के चलती है तो एक समाज जो कहता है उसको मान्यता देकर|
एक पौराणिक और चमत्कारिक यौद्धा व् भगवानों में विश्वास करती है तो एक सर्वप्रथम गाँव-नगर की नींव रखने वाले व् देश-कौम के नाम सर्वश्रेष्ठ कार्य करने वाले यौद्धेयों को साक्षात देवता (भगवान नहीं, क्योंकि उसको खाप व्यवस्था एकल, अदृश्य, अस्पृश्य व् निरंकारी व् हर मानव में स्थापित मानती है) व् अपना पूज्य और जीवनदर्शन का प्रेरणास्त्रोत मानती है|
एक व्यवस्था की जनक ब्राह्मण कौम रही है तो दूसरी की जाट कौम|
एक स्वहित केंद्रित है तो एक जनहित केंद्रित है|
एक दान-पुण्य के पैसे के जरिये आजीविका कमाने के सूत्र पे चलती है तो एक पूर्णतया समाज को निशुल्क न्याय देने के मंत्र पर|
एक के अंदर पुजारी ब्राह्मण ही बनेगा ऐसा विधान है, जबकि दूजी के अंदर सामाजिक ज्ञान, अनुभव और समरसता के अनुसार कोई भी पंच चुना या माना जा सकता है और न्याय करने के काबिल होता आया है|
एक बिखेरने-बिगोने के दायित्वहीन सिद्धांत पे चलती है तो एक समाज को समेटने-सहेजने के दायित्व सिद्धांत पर|
एक नौकर-मालिक के रिश्ते पर चलती है तो एक सीरी-साझी यानी नौकर को भी पार्टनर मानने के सिद्धांत पर|
एक औरत को देवदासी, सती, नवजन्म्या को दूध के कड़ाहों में डुबो के मारना, विधवा के लिए आश्रम की प्रणाली की जन्मदेत्या जानी जाती है तो एक इन तमाम प्रथाओं के विपरीत व् विधवा के पुर्नविवाह की प्रणाली पर चलती आई है|
एक इतिहास को अपने चहेतों हेतु तोड़-मरोड़ के लिखती और पेश करती आई है तो एक के इतिहास पे पहले वाली ने तोड़-मरोड़ मचाई है, परन्तु फिर भी दूसरे वाली अपने इतिहास को ज्यों का त्यों संभाल के रखने में सक्षम निकली है और दलित वीर हुआ तो उसको दलित के नाम से लिखा, ब्राह्मण वीर हुआ तो ब्राह्मण के नाम से|
एक दूसरों के क्रेडिट पे अपना हक जमाती आई है तो एक क्रेडिट के लिए मौके और माहौल पैदा करती आई है|
दोनों में समानता यह है कि दोनों ने दूसरी जातियों को परोक्ष रूप से ही अपनी ओर खींचा, सीधे सम्बोधन कभी नहीं लिया| अपने डर-पाप-भय-शंका मिटाने को छत्तीस कौम का बन्दा मंदिर जाता रहा है तो दूसरी ओर निशुल्क व् त्वरित सामाजिक न्याय व् प्रेरणा पाने हेतु छत्तीस कौम का बंदा खाप के यहां जाता है रहा है| विगत दशक पहले तक ना मंदिर को यह कहने की नौबत आई कि हम छत्तीस कौम के हैं और ना ही खापों को यह कहने की नौबत आई कि हम छत्तीस कौम के हैं|
परन्तु एक इतनी सीढ़ियां चढ़ गया कि पूरा मीडिया लगभग अपने लोगों का खड़ा कर लिया और अपने समानांतर अपनी प्रतिद्वंदी यानी खापों को बदनाम करने लगा| और कारण जो भी हो आज खापों की यह हालत हो गई है कि वो छत्तीस कौम की हैं, यह तक भी उनको अपने मुन्हों से कहना पड़ रहा है|
साफ़ है ताली एक हाथ से नहीं बजती| खापों को भी सोचना तो होगा कि आखिर क्या अपने भीतर सुधार लाये जावें और क्या इन बदनाम करने वालों के मुंह थोबने के लिए किया जावे| और इसका सर्वप्रथमया हल है कि खापों को कौन उनके अंदर से राजनैतिक प्रतिनिधित्व में जावे और कौन पूर्णतया सामाजिक प्रतिनिधित्व धारण कर, खाप व्यवस्था में इक्क्सवीं सदी के अनुकूल मूल-चूल परिवर्तन व् आधुनिकीकरण ला, इस विश्व की प्राचीनतम कालजयी सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था को जीवित रखे, इसपे स्पष्ट होना पड़ेगा| क्योंकि आज हालत यह हो गई है कि खापों को लोगों ने राजनैतिक करियर का लॉन्चिंग पैड ज्यादा मान लिया है| इसलिए समाज के काम अच्छे से करते-करते कब राजनीतिज्ञों के भुलावों में पड़ मकसद व् क्रेडिट से भटक गए, खुद उनको तब पता लगता है जब हार का मुंह देखना पड़ता है| हालाँकि आज भी ऐसे शुद्ध खाप-पंथक बचे हैं जो शुद्ध रूप से खाप परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं, परन्तु संख्या दिन-भर-दिन घटती ही जा रही है|
और दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकतर खापलोग खापों को देश की कानून व्यवस्था के तहत एक एन.जी.ओ. बना के रजिस्टर करवाने से या तो बचते चले आ रहे हैं, या करवाना नहीं चाहते और एक आध जानकार ने अगर रजिस्टर करवानी चाही है तो सुनने में आ रहा है कि अधिकारी यह कह के लौटा देते हैं कि "खाप" शब्द रजिस्टर नहीं हो सकता| मैं इस बात से हैरान हूँ कि खाप शब्द के नाम से सुप्रीम कोर्टों तक में केस चल सकते हैं, मीडिया-हाउसों में मीडिया ट्रायल चल सकते हैं, विभिन्न विश्वविधालयों में पी.एच.डी. के थेसिस "खाप" शब्द पर लिखने हेतु पास हो सकते हैं, खापों को प्रधानमंत्री तक उनकी "बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ" मुहीम को आगे बढ़ाने हेतु सहायता के लिए बुला सकते हैं, परन्तु "खाप" शब्द के नाम से कोई एन.जी.ओ. या सोसाइटी रजिस्टर नहीं हो सकती| पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है या यह अफसरशाही व्यवस्था में एंटी-खाप सोच के विद्यमान लोगों की शरारत है| परन्तु जो भी हो इसके तुरंत निवारण की आवश्यकता है|
तीसरी खाप की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसने अपनी युवा पीढ़ी को अपने प्रतिध्वंदी के हवाले छोड़ दिया है| अपना इतिहास-मान-मान्यता-सिद्धांत तक नहीं बताती ना प्रचारित करती| जिसके अभाव में युवा खाप वंशज खापों के प्रतिध्वंदी के हत्थे सहज ही चढ़ कटटरता के अंधकार में अविरल धंसता जा रहा है| इस बिंदु पे खापों को प्राथमिकता से सोचना होगा|
और चौथा पॉइंट फंडी के साथ मंडी जो "पापी के मन में डूम का ढांढा" बनके खाप वंशजों खासकर शहरी वंशजों को मुस्लिमों का डर दिखाए जा रहे हैं, इसको समझना होगा और इसके विरुद्ध उपयुक्त प्रचार करना होगा| खाप वंशजों को समझना होगा कि आपकी सर्वखाप का मुख्यालय चबूतरा ही पूरे भारत में एक ऐसा ऐतिहासिक स्थल है जहां एक नहीं बल्कि तीन-तीन मुस्लिम बादशाह (रजिया सुल्तान, सिकंदर लोधी व् बाबर) इतिहास में शीश नवां के गए हैं और यह अभिमान और गौरव देश के किसी भी बड़े से बड़े मंदिर के पास नहीं| खापों ने तो मुसलामानों के साथ मिलके हमेशा तरक्की की बुलंदियों को छुवा है, फिर चाहे वो अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र द्वारा सर्वखाप को 1857 की क्रांति की बागडोर दे उनके नेतृत्व में 1857 लड़ना रहा हो, या सिकंदर-ए-हयात, सर फजले-हुसैन व् सर छोटूराम का मिलके यूनियनिस्ट पार्टी के झंडे तले किसान-कमेरे को समृद्ध व् धनाढ्य बनाने का दौर रहा हो, या चौधरी चरण व् मुस्लिमों का वो गठबंधन जिसको अभी 2013 के मुज़फरनगर दंगे से पहले तक मंडी-फंडी हिला भी नहीं सके थे और जिसके बल पे हम सत्ता पर सीधी पकड़ रखते थे वो दौर रहा हो, या बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की "किसान-यूनियन" के वो झलसे-जुलूस रहे हो, जिनमें कि अगर स्टेज से आवाज आती "अल्लाह-हू-अकबर" तो भीड़ ललकारा देती "हर-हर महादेव", भीड़ अगर "अल्लाह-हू-अकबर" पुकारती तो स्टेज से हलकारा आता "हर-हर महादेव"। तो युवा खाप वंशजों से इतनी ही तकरीर है कि आखिर कुछ तो था आपके/हमारे उन पुरखों/बुजुर्गों में जो उन्हीं मुस्लिमों के गलों में गलबहियां डाल के रहते थे, जिनका कि आज आपको यह मंडी-फंडी भय दिखा रहे हैं? मैं बताता हूँ यह भय क्या है| यह भय है आपका कहीं उनसे अधिक साधन-सम्पन व् समर्थ बन जाने का या बने रहने का| वर्ना बताओ मंडी-फंडी की क्या झोटी बंध हुई है आपके/हमारे आँगन में जो उसको आपसे पलवानी हो? यह धर्म-आडंबर के ढिंढोरे और कुछ नहीं, सिवाय आपको आर्थिक रूप से कंगाल व् मानसिक रूप से नपुंसक बना अपना पिछलग्गू बनाने के| हाँ अगर किसी ने समाज का चौधरपना छोड़ के इनका भांड बनके गली-गली बजना ही ठान रखा है या लिया है तो फिर मैं भी बेबस हूँ|
इन चार बिन्दुओं पर खापों को तुरंत प्रभाव से एक्शन में आके काम करने होंगे| - फूल मलिक
मंदिर व्यवस्था पौराणिक और मनुस्मृति आधारित है जबकि खाप व्यवस्था काल विशेष की सामाजिक मान-मान्यताओं पर आधारित है|
एक भगवान व् पाप-पुण्य का डर दिखा के चलती है तो एक समाज जो कहता है उसको मान्यता देकर|
एक पौराणिक और चमत्कारिक यौद्धा व् भगवानों में विश्वास करती है तो एक सर्वप्रथम गाँव-नगर की नींव रखने वाले व् देश-कौम के नाम सर्वश्रेष्ठ कार्य करने वाले यौद्धेयों को साक्षात देवता (भगवान नहीं, क्योंकि उसको खाप व्यवस्था एकल, अदृश्य, अस्पृश्य व् निरंकारी व् हर मानव में स्थापित मानती है) व् अपना पूज्य और जीवनदर्शन का प्रेरणास्त्रोत मानती है|
एक व्यवस्था की जनक ब्राह्मण कौम रही है तो दूसरी की जाट कौम|
एक स्वहित केंद्रित है तो एक जनहित केंद्रित है|
एक दान-पुण्य के पैसे के जरिये आजीविका कमाने के सूत्र पे चलती है तो एक पूर्णतया समाज को निशुल्क न्याय देने के मंत्र पर|
एक के अंदर पुजारी ब्राह्मण ही बनेगा ऐसा विधान है, जबकि दूजी के अंदर सामाजिक ज्ञान, अनुभव और समरसता के अनुसार कोई भी पंच चुना या माना जा सकता है और न्याय करने के काबिल होता आया है|
एक बिखेरने-बिगोने के दायित्वहीन सिद्धांत पे चलती है तो एक समाज को समेटने-सहेजने के दायित्व सिद्धांत पर|
एक नौकर-मालिक के रिश्ते पर चलती है तो एक सीरी-साझी यानी नौकर को भी पार्टनर मानने के सिद्धांत पर|
एक औरत को देवदासी, सती, नवजन्म्या को दूध के कड़ाहों में डुबो के मारना, विधवा के लिए आश्रम की प्रणाली की जन्मदेत्या जानी जाती है तो एक इन तमाम प्रथाओं के विपरीत व् विधवा के पुर्नविवाह की प्रणाली पर चलती आई है|
एक इतिहास को अपने चहेतों हेतु तोड़-मरोड़ के लिखती और पेश करती आई है तो एक के इतिहास पे पहले वाली ने तोड़-मरोड़ मचाई है, परन्तु फिर भी दूसरे वाली अपने इतिहास को ज्यों का त्यों संभाल के रखने में सक्षम निकली है और दलित वीर हुआ तो उसको दलित के नाम से लिखा, ब्राह्मण वीर हुआ तो ब्राह्मण के नाम से|
एक दूसरों के क्रेडिट पे अपना हक जमाती आई है तो एक क्रेडिट के लिए मौके और माहौल पैदा करती आई है|
दोनों में समानता यह है कि दोनों ने दूसरी जातियों को परोक्ष रूप से ही अपनी ओर खींचा, सीधे सम्बोधन कभी नहीं लिया| अपने डर-पाप-भय-शंका मिटाने को छत्तीस कौम का बन्दा मंदिर जाता रहा है तो दूसरी ओर निशुल्क व् त्वरित सामाजिक न्याय व् प्रेरणा पाने हेतु छत्तीस कौम का बंदा खाप के यहां जाता है रहा है| विगत दशक पहले तक ना मंदिर को यह कहने की नौबत आई कि हम छत्तीस कौम के हैं और ना ही खापों को यह कहने की नौबत आई कि हम छत्तीस कौम के हैं|
परन्तु एक इतनी सीढ़ियां चढ़ गया कि पूरा मीडिया लगभग अपने लोगों का खड़ा कर लिया और अपने समानांतर अपनी प्रतिद्वंदी यानी खापों को बदनाम करने लगा| और कारण जो भी हो आज खापों की यह हालत हो गई है कि वो छत्तीस कौम की हैं, यह तक भी उनको अपने मुन्हों से कहना पड़ रहा है|
साफ़ है ताली एक हाथ से नहीं बजती| खापों को भी सोचना तो होगा कि आखिर क्या अपने भीतर सुधार लाये जावें और क्या इन बदनाम करने वालों के मुंह थोबने के लिए किया जावे| और इसका सर्वप्रथमया हल है कि खापों को कौन उनके अंदर से राजनैतिक प्रतिनिधित्व में जावे और कौन पूर्णतया सामाजिक प्रतिनिधित्व धारण कर, खाप व्यवस्था में इक्क्सवीं सदी के अनुकूल मूल-चूल परिवर्तन व् आधुनिकीकरण ला, इस विश्व की प्राचीनतम कालजयी सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था को जीवित रखे, इसपे स्पष्ट होना पड़ेगा| क्योंकि आज हालत यह हो गई है कि खापों को लोगों ने राजनैतिक करियर का लॉन्चिंग पैड ज्यादा मान लिया है| इसलिए समाज के काम अच्छे से करते-करते कब राजनीतिज्ञों के भुलावों में पड़ मकसद व् क्रेडिट से भटक गए, खुद उनको तब पता लगता है जब हार का मुंह देखना पड़ता है| हालाँकि आज भी ऐसे शुद्ध खाप-पंथक बचे हैं जो शुद्ध रूप से खाप परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं, परन्तु संख्या दिन-भर-दिन घटती ही जा रही है|
और दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकतर खापलोग खापों को देश की कानून व्यवस्था के तहत एक एन.जी.ओ. बना के रजिस्टर करवाने से या तो बचते चले आ रहे हैं, या करवाना नहीं चाहते और एक आध जानकार ने अगर रजिस्टर करवानी चाही है तो सुनने में आ रहा है कि अधिकारी यह कह के लौटा देते हैं कि "खाप" शब्द रजिस्टर नहीं हो सकता| मैं इस बात से हैरान हूँ कि खाप शब्द के नाम से सुप्रीम कोर्टों तक में केस चल सकते हैं, मीडिया-हाउसों में मीडिया ट्रायल चल सकते हैं, विभिन्न विश्वविधालयों में पी.एच.डी. के थेसिस "खाप" शब्द पर लिखने हेतु पास हो सकते हैं, खापों को प्रधानमंत्री तक उनकी "बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ" मुहीम को आगे बढ़ाने हेतु सहायता के लिए बुला सकते हैं, परन्तु "खाप" शब्द के नाम से कोई एन.जी.ओ. या सोसाइटी रजिस्टर नहीं हो सकती| पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है या यह अफसरशाही व्यवस्था में एंटी-खाप सोच के विद्यमान लोगों की शरारत है| परन्तु जो भी हो इसके तुरंत निवारण की आवश्यकता है|
तीसरी खाप की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसने अपनी युवा पीढ़ी को अपने प्रतिध्वंदी के हवाले छोड़ दिया है| अपना इतिहास-मान-मान्यता-सिद्धांत तक नहीं बताती ना प्रचारित करती| जिसके अभाव में युवा खाप वंशज खापों के प्रतिध्वंदी के हत्थे सहज ही चढ़ कटटरता के अंधकार में अविरल धंसता जा रहा है| इस बिंदु पे खापों को प्राथमिकता से सोचना होगा|
और चौथा पॉइंट फंडी के साथ मंडी जो "पापी के मन में डूम का ढांढा" बनके खाप वंशजों खासकर शहरी वंशजों को मुस्लिमों का डर दिखाए जा रहे हैं, इसको समझना होगा और इसके विरुद्ध उपयुक्त प्रचार करना होगा| खाप वंशजों को समझना होगा कि आपकी सर्वखाप का मुख्यालय चबूतरा ही पूरे भारत में एक ऐसा ऐतिहासिक स्थल है जहां एक नहीं बल्कि तीन-तीन मुस्लिम बादशाह (रजिया सुल्तान, सिकंदर लोधी व् बाबर) इतिहास में शीश नवां के गए हैं और यह अभिमान और गौरव देश के किसी भी बड़े से बड़े मंदिर के पास नहीं| खापों ने तो मुसलामानों के साथ मिलके हमेशा तरक्की की बुलंदियों को छुवा है, फिर चाहे वो अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र द्वारा सर्वखाप को 1857 की क्रांति की बागडोर दे उनके नेतृत्व में 1857 लड़ना रहा हो, या सिकंदर-ए-हयात, सर फजले-हुसैन व् सर छोटूराम का मिलके यूनियनिस्ट पार्टी के झंडे तले किसान-कमेरे को समृद्ध व् धनाढ्य बनाने का दौर रहा हो, या चौधरी चरण व् मुस्लिमों का वो गठबंधन जिसको अभी 2013 के मुज़फरनगर दंगे से पहले तक मंडी-फंडी हिला भी नहीं सके थे और जिसके बल पे हम सत्ता पर सीधी पकड़ रखते थे वो दौर रहा हो, या बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की "किसान-यूनियन" के वो झलसे-जुलूस रहे हो, जिनमें कि अगर स्टेज से आवाज आती "अल्लाह-हू-अकबर" तो भीड़ ललकारा देती "हर-हर महादेव", भीड़ अगर "अल्लाह-हू-अकबर" पुकारती तो स्टेज से हलकारा आता "हर-हर महादेव"। तो युवा खाप वंशजों से इतनी ही तकरीर है कि आखिर कुछ तो था आपके/हमारे उन पुरखों/बुजुर्गों में जो उन्हीं मुस्लिमों के गलों में गलबहियां डाल के रहते थे, जिनका कि आज आपको यह मंडी-फंडी भय दिखा रहे हैं? मैं बताता हूँ यह भय क्या है| यह भय है आपका कहीं उनसे अधिक साधन-सम्पन व् समर्थ बन जाने का या बने रहने का| वर्ना बताओ मंडी-फंडी की क्या झोटी बंध हुई है आपके/हमारे आँगन में जो उसको आपसे पलवानी हो? यह धर्म-आडंबर के ढिंढोरे और कुछ नहीं, सिवाय आपको आर्थिक रूप से कंगाल व् मानसिक रूप से नपुंसक बना अपना पिछलग्गू बनाने के| हाँ अगर किसी ने समाज का चौधरपना छोड़ के इनका भांड बनके गली-गली बजना ही ठान रखा है या लिया है तो फिर मैं भी बेबस हूँ|
इन चार बिन्दुओं पर खापों को तुरंत प्रभाव से एक्शन में आके काम करने होंगे| - फूल मलिक
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