जब से व्हट्स-ऐप, वाइबर, फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया साइटों ने
स्मार्टफोनों की दुनिया में एंट्री मारी है, टेलीफोन-मोबाइल कंपनियों ने
इनके प्रॉफिट (profit) में यह कहते हुए हिस्सेदारी मांगी है कि क्योंकि हम
इनको पहले से तैयार इंफ्रास्ट्रक्चर (infrastructure) प्रदान करवा रहे हैं,
इसलिए इनके प्रॉफिट (लाभ) में हमारा भी शेयर (हिस्सा) होना चाहिए|
और दूसरी तरफ यह पंजाब-हरियाणा-एन.सी.आर.-पश्चिमी यू. पी. यानी मोटे तौर पर 'खापलैंड का भोला-भाला किसान', जिसको "इंफ्रास्ट्रक्चर" नाम की बला का या तो पता ही नहीं है या भाग्यवान मानवता से ही इतना भरा हुआ है कि अपने यहां इनके द्वारा तैयार किये गए इंफ्रास्ट्रक्चर का प्रयोग कर-कर के 1947 से ले 1984-86 और अब विगत दो दशकों से बिहार-बंगाल-आसाम व् तमाम देश से स्किल्ड-अनस्किल्ड (skilled-unskilled both) मजदूर-मैनेजर (labor-manager) और फैक्ट्री (industry) वाला यहां आ के इसको प्रयोग कर दशकों से मुनाफा कूटे जा रहा है और इनको इस बात का भान या फिर लालच ही नहीं है कि ऐसे भी कोई कमाई होती है|
कहीं इन्हीं बातों से ध्यान हटाये रखने के लिए तो नहीं, खापलैंड पे कभी कल्चर-क्राइसिस (culture crisis) तो कभी ह्यूमैनिटी क्राइसिस (humanity crisis) जैसे कि हॉनर-किलिंग, भ्रूण हत्या आदि के मुद्दों में ही स्थानीय बाशिंदे को उलझाये रखा जा रहा है और यह लोग चुपचाप ना सिर्फ हमारे बनाये इंफ्रा पे बिना हिस्सा/रॉयल्टी दिए मुनाफा कूटे जा रहे हैं अपितु देश-दुनिया में हमको सबसे क्रूरतम प्रजाति बना के पेश किये जा रहे हैं?
खापलैंड का किसान व् इसकी औलादों के लिए गौर-फरमाने की बात है कि क्या हमारे-आपके बुजुर्गों-पुरखों और हमारे द्वारा दिए गए इस इंफ्रास्ट्रक्चर की वजह से जो फैक्ट्रियां अथवा व्यापार धंधे वाले देश के कोने-कोने से आकर हमारे यहां मुनाफे कमा रहे हैं, उनमें हमारा हिस्सा यानी रॉयल्टी बनती है कि नहीं; ठीक वैसे ही जैसे सोशल मीडिया साइटों से इंफ्रा के नाम पर आज मोबाईल कंपनियां प्रॉफिट में हिस्सा लेने को चिल्ला रही हैं और लोग उनके खिलाफ नेट-न्यूट्रैलिटी (Net-Neutrality) का आंदोलन चलाये हुए हैं|
देख लेना यह आंदोलन चलाने वाले मोबाईल कंपनियों का "बाबा जी का ठुल्लु" भी नहीं उखाड़ पाएंगे और कल चुपचाप सोशल मीडिया साइटें प्रयोग करने की ऐवज में इनको एक्स्ट्रा (अतिरिक्त) चार्जेज दे रहे होंगे|
तो यहां सोचने का मुद्दा यह है कि आपकी यह इसी तरह की हिस्सेदारी ना मांगने की वजह से आज देश के जी.डी.पी. में एक दशक पहले तक खेती का जो हिस्सा 25% हुआ करता था आज 13-14% बताया जाता है| और कल को शायद इस दहाई के आंकड़े से भी उतार के इकाई के आंकड़े में बताया जावे| सो अगर हमें शुद्ध मुनाफा नहीं भी मिलता है तो इस बात के लिए तो आवाज उठाओ कि हाड-तोड़ मेहनत से समतल की हुई जमीन,बिजली-पानी-रोड की सुविधा (ofcourse हम और हमारे पुरखे मेहनती रहे हैं और विकास की हमारी नीयत रही तभी ही आज यहां सब सुविधाएं आई, वर्ना बिहार-बंगाल में क्यों नहीं बनी आजतक; वो भी बावजूद लेफ्टिस्टों का पैंतीस साल वहाँ राज रहने के) पर यह लोग ये जो फैक्ट्रियां बनाते हैं, उसकी रॉयल्टी देवें ना देवें परन्तु उसकी पर्सेंटेज जी.डी.पी. में जरूर जोड़ी जावे; खेती से मिले इंफ्रा और प्राइमरी यानी रॉ मटेरियल की वजह से जो FMCG यानी फ़ास्ट मूविंग कंस्यूमर गुड्स (Fast Moving Consumer Goods) का व्यापार इतनी सस्ती कॉस्ट ऑफ़ बिज़नेस (cost of business) पे चलता है, उसमें मेरे-आपके-हमारे दिए और बनाये हुए इस इंफ्रास्ट्रक्चर का भी हाथ है; इसलिए इसके प्रॉफिट शेयरिंग में हिस्सा तो मिले ही मिले साथ ही साथ देश का जी.डी.पी. जब कैलकुलेट हो तो उसमें खेती शेयर प्रोपोर्सनेट्ली (proportionate share of agri contribution) जोड़ा जाए| क्योंकि वास्तविकता यह है कि खेती का देश के शुद्ध जी.डी.पी. में हिस्सा 25 से 13 या 14 नहीं अपितु 35 या 30 तो बनेगा ही, अगर इसी तर्ज पर मापा या मपवाया गया, जिस तर्ज पर कि आज मोबाइल कंपनियां सोशल मीडिया साईट वालों से मांग रही हैं|
और इन सबसे भी बड़ी रॉयल्टी जो हम और आप स्थानीय लोग अपने दूसरे राज्यों से आये भाइयों को देते हैं, वो है हमारा-आपका लोकतान्त्रिक व्यवहार, जिसकी वजह से यह सब लोग यहां इतना बड़ा बिज़नेस खड़ा कर लेते हैं, मजदूर कम से कम मानवीय खतरे में अच्छा लाभ कमा लेते हैं, वर्ना तो भाषावाद और क्षेत्रवाद से ग्रसित मुंबई क्या थी नहीं; जहां कि बिहार-बंगाल-पूर्वियों को भाषावाद और क्षेत्रवाद के नाम पर खदेड़ा गया और हमारे इन भाइयों ने मुंबई जाने की बजाय, हमारी खापलैंड पे हम लोगों द्वारा दिए गए लोकतान्त्रिक भाषावाद और क्षेत्रवाद से मुक्त माहौल में आ के काम करने को बेहतरी समझा|
वो अलग बात है कि यह लोग अहम और अहंकार में कभी आपका-हमारा धन्यवाद नहीं करते, हाँ कोस जरूर लेते हैं हमको, कभी हमारे हरियाणवीपने के नाम पे तो कभी अखड़ मिजाजी के नाम पे, परन्तु फिर भी हम इनको मुंबई वाले माहौल में नहीं उलझाते|
इसलिए अपनी ताकत और अपने द्वारा दिए इस सोशल-प्रोफेशनल-इकोनोमिकल-कल्चरल इंफ्रा की ताकत को खापलैंड के किसान की औलाद पहचानें और खापें और खापलैंड के तमाम तरह के किसान संगठन व् युवा किसान औलाद, इससे देश को हो रही कमाई में हिस्सेदारी मांगनी शुरू करे|
कई दिनों से उधेड़बुन में था कि खापलैंड पर यह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते ही जा रहे मानवीय-पलायन के बीच, हमारे यहां के स्थानीय बन्दे पर बढ़ चले सोशल-प्रोफेशनल-इकोनोमिकल-कल्चरल संकट का क्या हल हो; धन्य हो मोबाइल कम्पनियों, तुम्हारे सहारे मुझे भी यह मुद्दा उठाने का मौका मिल गया| - Phool Malik
और दूसरी तरफ यह पंजाब-हरियाणा-एन.सी.आर.-पश्चिमी यू. पी. यानी मोटे तौर पर 'खापलैंड का भोला-भाला किसान', जिसको "इंफ्रास्ट्रक्चर" नाम की बला का या तो पता ही नहीं है या भाग्यवान मानवता से ही इतना भरा हुआ है कि अपने यहां इनके द्वारा तैयार किये गए इंफ्रास्ट्रक्चर का प्रयोग कर-कर के 1947 से ले 1984-86 और अब विगत दो दशकों से बिहार-बंगाल-आसाम व् तमाम देश से स्किल्ड-अनस्किल्ड (skilled-unskilled both) मजदूर-मैनेजर (labor-manager) और फैक्ट्री (industry) वाला यहां आ के इसको प्रयोग कर दशकों से मुनाफा कूटे जा रहा है और इनको इस बात का भान या फिर लालच ही नहीं है कि ऐसे भी कोई कमाई होती है|
कहीं इन्हीं बातों से ध्यान हटाये रखने के लिए तो नहीं, खापलैंड पे कभी कल्चर-क्राइसिस (culture crisis) तो कभी ह्यूमैनिटी क्राइसिस (humanity crisis) जैसे कि हॉनर-किलिंग, भ्रूण हत्या आदि के मुद्दों में ही स्थानीय बाशिंदे को उलझाये रखा जा रहा है और यह लोग चुपचाप ना सिर्फ हमारे बनाये इंफ्रा पे बिना हिस्सा/रॉयल्टी दिए मुनाफा कूटे जा रहे हैं अपितु देश-दुनिया में हमको सबसे क्रूरतम प्रजाति बना के पेश किये जा रहे हैं?
खापलैंड का किसान व् इसकी औलादों के लिए गौर-फरमाने की बात है कि क्या हमारे-आपके बुजुर्गों-पुरखों और हमारे द्वारा दिए गए इस इंफ्रास्ट्रक्चर की वजह से जो फैक्ट्रियां अथवा व्यापार धंधे वाले देश के कोने-कोने से आकर हमारे यहां मुनाफे कमा रहे हैं, उनमें हमारा हिस्सा यानी रॉयल्टी बनती है कि नहीं; ठीक वैसे ही जैसे सोशल मीडिया साइटों से इंफ्रा के नाम पर आज मोबाईल कंपनियां प्रॉफिट में हिस्सा लेने को चिल्ला रही हैं और लोग उनके खिलाफ नेट-न्यूट्रैलिटी (Net-Neutrality) का आंदोलन चलाये हुए हैं|
देख लेना यह आंदोलन चलाने वाले मोबाईल कंपनियों का "बाबा जी का ठुल्लु" भी नहीं उखाड़ पाएंगे और कल चुपचाप सोशल मीडिया साइटें प्रयोग करने की ऐवज में इनको एक्स्ट्रा (अतिरिक्त) चार्जेज दे रहे होंगे|
तो यहां सोचने का मुद्दा यह है कि आपकी यह इसी तरह की हिस्सेदारी ना मांगने की वजह से आज देश के जी.डी.पी. में एक दशक पहले तक खेती का जो हिस्सा 25% हुआ करता था आज 13-14% बताया जाता है| और कल को शायद इस दहाई के आंकड़े से भी उतार के इकाई के आंकड़े में बताया जावे| सो अगर हमें शुद्ध मुनाफा नहीं भी मिलता है तो इस बात के लिए तो आवाज उठाओ कि हाड-तोड़ मेहनत से समतल की हुई जमीन,बिजली-पानी-रोड की सुविधा (ofcourse हम और हमारे पुरखे मेहनती रहे हैं और विकास की हमारी नीयत रही तभी ही आज यहां सब सुविधाएं आई, वर्ना बिहार-बंगाल में क्यों नहीं बनी आजतक; वो भी बावजूद लेफ्टिस्टों का पैंतीस साल वहाँ राज रहने के) पर यह लोग ये जो फैक्ट्रियां बनाते हैं, उसकी रॉयल्टी देवें ना देवें परन्तु उसकी पर्सेंटेज जी.डी.पी. में जरूर जोड़ी जावे; खेती से मिले इंफ्रा और प्राइमरी यानी रॉ मटेरियल की वजह से जो FMCG यानी फ़ास्ट मूविंग कंस्यूमर गुड्स (Fast Moving Consumer Goods) का व्यापार इतनी सस्ती कॉस्ट ऑफ़ बिज़नेस (cost of business) पे चलता है, उसमें मेरे-आपके-हमारे दिए और बनाये हुए इस इंफ्रास्ट्रक्चर का भी हाथ है; इसलिए इसके प्रॉफिट शेयरिंग में हिस्सा तो मिले ही मिले साथ ही साथ देश का जी.डी.पी. जब कैलकुलेट हो तो उसमें खेती शेयर प्रोपोर्सनेट्ली (proportionate share of agri contribution) जोड़ा जाए| क्योंकि वास्तविकता यह है कि खेती का देश के शुद्ध जी.डी.पी. में हिस्सा 25 से 13 या 14 नहीं अपितु 35 या 30 तो बनेगा ही, अगर इसी तर्ज पर मापा या मपवाया गया, जिस तर्ज पर कि आज मोबाइल कंपनियां सोशल मीडिया साईट वालों से मांग रही हैं|
और इन सबसे भी बड़ी रॉयल्टी जो हम और आप स्थानीय लोग अपने दूसरे राज्यों से आये भाइयों को देते हैं, वो है हमारा-आपका लोकतान्त्रिक व्यवहार, जिसकी वजह से यह सब लोग यहां इतना बड़ा बिज़नेस खड़ा कर लेते हैं, मजदूर कम से कम मानवीय खतरे में अच्छा लाभ कमा लेते हैं, वर्ना तो भाषावाद और क्षेत्रवाद से ग्रसित मुंबई क्या थी नहीं; जहां कि बिहार-बंगाल-पूर्वियों को भाषावाद और क्षेत्रवाद के नाम पर खदेड़ा गया और हमारे इन भाइयों ने मुंबई जाने की बजाय, हमारी खापलैंड पे हम लोगों द्वारा दिए गए लोकतान्त्रिक भाषावाद और क्षेत्रवाद से मुक्त माहौल में आ के काम करने को बेहतरी समझा|
वो अलग बात है कि यह लोग अहम और अहंकार में कभी आपका-हमारा धन्यवाद नहीं करते, हाँ कोस जरूर लेते हैं हमको, कभी हमारे हरियाणवीपने के नाम पे तो कभी अखड़ मिजाजी के नाम पे, परन्तु फिर भी हम इनको मुंबई वाले माहौल में नहीं उलझाते|
इसलिए अपनी ताकत और अपने द्वारा दिए इस सोशल-प्रोफेशनल-इकोनोमिकल-कल्चरल इंफ्रा की ताकत को खापलैंड के किसान की औलाद पहचानें और खापें और खापलैंड के तमाम तरह के किसान संगठन व् युवा किसान औलाद, इससे देश को हो रही कमाई में हिस्सेदारी मांगनी शुरू करे|
कई दिनों से उधेड़बुन में था कि खापलैंड पर यह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते ही जा रहे मानवीय-पलायन के बीच, हमारे यहां के स्थानीय बन्दे पर बढ़ चले सोशल-प्रोफेशनल-इकोनोमिकल-कल्चरल संकट का क्या हल हो; धन्य हो मोबाइल कम्पनियों, तुम्हारे सहारे मुझे भी यह मुद्दा उठाने का मौका मिल गया| - Phool Malik
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