बड़ा बोर में आ के कल कुछ फ्रेंच दोस्तों के साथ बैठ के उनको इंटरनेट से
डाउनलोड करी 'बाहुबली' फिल्म दिखा रहा था कि देखो तुम्हारी 'ट्रॉय',
'स्पार्टा' और 'ग्लैडिएटर', '300' का जवाब!
फिल्म देखकर वो बोले कि बहुत खूब, परन्तु क्या भारत में '300', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' जैसी कोई वास्तविक घटना नहीं हुई जो डायरेक्टर को इसको जस्ट इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? ना कहीं तारीख का जिक्र ना स्थान का?
वो बोलते हैं कि फ़िलहाल तो हम ही नहीं, हॉलीवुड वाले भी यही कहेंगे कि ठीक है इमेजिनेशन और फैंटेसी के तड़के और हमारी बहुत सारी चीजें कॉपी-पेस्ट करने के साथ 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा' तर्ज पे वर्क तो एक्सीलेंट किया है, परन्तु क्या भारत में ऐसी कोई वास्तविक ऐतिहासिक घटना नहीं हुई थी जो इसके डायरेक्टर को इसे उस घटना से जोड़ 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' की भांति रियल टच देने की बजाय फिल्म के कथानक को इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? और अगर हुई थी तो उससे जोड़ के फिल्म को रियल ऐतिहासिक टच देने में डायरेक्टर और टीम को क्या दिक्क़त थी?
जिस जोश और गर्व के साथ उनको फिल्म दिखाने बैठा था, उनकी इस टिप्पणी ने सारा जोश हवा कर दिया। और एक भारतीय होने के नाते मुझे भी इस फिल्म में रियल इन्सिडेंटल टच वाले पहलु की कमी महसूस हुई और फिल्म दूसरी 'रामायण' और 'महाभारत' जैसी माइथोलॉजी प्रतीत हुई|
उनके जाने के बाद मैं सोचता रहा कि क्या वाकई में हमारे पास वास्तविक इतिहास की ऐसी कोई घटना नहीं जो इस फिल्म से जोड़ी जा सकती थी? जब इतिहास पे नजर दौड़ाई तो 'बागरु (मोती-डूंगरी)' की ऐतिहासिक लड़ाई 'बाहुबली' फिल्म की स्क्रिप्ट में बिलकुल फिट बैठती नजर आई। इस लड़ाई का मुद्दा भी बिलकुल 'बाहुबली' फिल्म की तरह जयपुर रियासत के दो सगे भाईयों राजा ईश्वरी सिंह और राजा माधो सिंह के बीच राजगद्दी हथियाने का था।
20-21-22 अगस्त 1748 की इस ऐतिहासिक लड़ाई में हर वो मशाला वास्तविकता में मौजूद है जो 'बाहुबली' के डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर साहब को सिर्फ इमेजिनेशन और फैंटेसी के सहारे दिखाना पड़ा। एक तरफ तीन लाख तीस हजार (330000) सैनिकों से सजी मुगल-मराठा पेशवाओं और माधो सिंह के पक्ष वाले राजपूतों की 7-7 सेनायें, तो दूसरी तरह राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में सजी मात्र बीस हजार (20000) की कुशवाहा राजपूत और हरयाणा-ब्रज रियासत भरतपुर की सिर्फ 2 सेनाएं। एक तरफ छोटे आकार के सैनिक तो दूसरी तरफ ये 7-7 फुटिये लम्बे-चौड़े 150-150 किलो वजनी भरतपुर जाट सेना के सैनिक। एक तरफ अस्सी हजार (80000) की टुकड़ी तो दूसरी तरफ मात्र दो हजार (2000) की टुकड़ी उनको गुर्रिल्ला वार में छका-छका के पीटती हुई। एक तरफ गाजर-मूली की तरह कटते सैनिक तो दूसरी तरफ पचास-पचास (50-50) को मारने वाला एक-एक जाट और कुशवाहा राजपूत सैनिक। एक तरफ 7-7 राजा तो दूसरी तरफ 7 फुटी 200 किलो वजनी अकेले भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल। और यह लड़ाई चली भी पूरे तीन दिन थी और वो भी बरसाती तूफानों में अरावली के रेतीले मैदानों और पथरीले पहाड़ों के बीच सरे-मैदान लड़ी गई थी। कुल मिला के क्या 'ट्रॉय', क्या 'ग्लैडिएटर' और क्या 'बाहुबली' खुद, इस रिव्यु को लिखते हुए इनसे भी कालजयी थिएट्रिकल दृश्य दिमाग में मंडरा रहा है।
तो जब 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' से बढ़कर इतना विहंगम- रोमांचक-भयावह तीनों प्रकार का टच देने वाला शानदार दृश्य प्रस्तुत करने वाला ऐतिहासिक प्लेटफार्म हमारे इतिहास में मौजूद है तो 'बाहुबली' को रियल टच देने हेतु आखिर क्यों नहीं इसको प्रयोग किया गया?
ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि भारत के गौरव को अंतराष्ट्रीय स्तर पर इतना संजीदा स्थान दिलवाने के लिए 'एस. एस. राजामौली' जैसे जागरूक डायरेक्टर को इस बात का ना पता हो कि अगर उनको 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' का जवाब बनाना है तो भारतीय इतिहास का कौनसा किस्सा इसमें फिट करके दिखाना चाहिए?
निसंदेह विश्व को अगर रामायण और महाभारत की मीथोलॉजिकल लड़ाइयों का पहले से पता ना होता तो डायरेक्टर साहब ने यह प्लेटफार्म जरूर प्रयोग कर लिए होते, तो फिर 'बागरु (मोती-डुंगरी) का प्लेटफार्म क्यों नहीं प्रयोग किया?
लगता है अगर 'बाहुबली' बनाने वाले इसके पार्ट 2 में भी इसको रियल टच देने से चूकते हैं तो फिर इसके जवाब में "रियल बाहुबली" की स्क्रिप्ट लिखनी होगी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
फिल्म देखकर वो बोले कि बहुत खूब, परन्तु क्या भारत में '300', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' जैसी कोई वास्तविक घटना नहीं हुई जो डायरेक्टर को इसको जस्ट इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? ना कहीं तारीख का जिक्र ना स्थान का?
वो बोलते हैं कि फ़िलहाल तो हम ही नहीं, हॉलीवुड वाले भी यही कहेंगे कि ठीक है इमेजिनेशन और फैंटेसी के तड़के और हमारी बहुत सारी चीजें कॉपी-पेस्ट करने के साथ 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा' तर्ज पे वर्क तो एक्सीलेंट किया है, परन्तु क्या भारत में ऐसी कोई वास्तविक ऐतिहासिक घटना नहीं हुई थी जो इसके डायरेक्टर को इसे उस घटना से जोड़ 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' की भांति रियल टच देने की बजाय फिल्म के कथानक को इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? और अगर हुई थी तो उससे जोड़ के फिल्म को रियल ऐतिहासिक टच देने में डायरेक्टर और टीम को क्या दिक्क़त थी?
जिस जोश और गर्व के साथ उनको फिल्म दिखाने बैठा था, उनकी इस टिप्पणी ने सारा जोश हवा कर दिया। और एक भारतीय होने के नाते मुझे भी इस फिल्म में रियल इन्सिडेंटल टच वाले पहलु की कमी महसूस हुई और फिल्म दूसरी 'रामायण' और 'महाभारत' जैसी माइथोलॉजी प्रतीत हुई|
उनके जाने के बाद मैं सोचता रहा कि क्या वाकई में हमारे पास वास्तविक इतिहास की ऐसी कोई घटना नहीं जो इस फिल्म से जोड़ी जा सकती थी? जब इतिहास पे नजर दौड़ाई तो 'बागरु (मोती-डूंगरी)' की ऐतिहासिक लड़ाई 'बाहुबली' फिल्म की स्क्रिप्ट में बिलकुल फिट बैठती नजर आई। इस लड़ाई का मुद्दा भी बिलकुल 'बाहुबली' फिल्म की तरह जयपुर रियासत के दो सगे भाईयों राजा ईश्वरी सिंह और राजा माधो सिंह के बीच राजगद्दी हथियाने का था।
20-21-22 अगस्त 1748 की इस ऐतिहासिक लड़ाई में हर वो मशाला वास्तविकता में मौजूद है जो 'बाहुबली' के डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर साहब को सिर्फ इमेजिनेशन और फैंटेसी के सहारे दिखाना पड़ा। एक तरफ तीन लाख तीस हजार (330000) सैनिकों से सजी मुगल-मराठा पेशवाओं और माधो सिंह के पक्ष वाले राजपूतों की 7-7 सेनायें, तो दूसरी तरह राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में सजी मात्र बीस हजार (20000) की कुशवाहा राजपूत और हरयाणा-ब्रज रियासत भरतपुर की सिर्फ 2 सेनाएं। एक तरफ छोटे आकार के सैनिक तो दूसरी तरफ ये 7-7 फुटिये लम्बे-चौड़े 150-150 किलो वजनी भरतपुर जाट सेना के सैनिक। एक तरफ अस्सी हजार (80000) की टुकड़ी तो दूसरी तरफ मात्र दो हजार (2000) की टुकड़ी उनको गुर्रिल्ला वार में छका-छका के पीटती हुई। एक तरफ गाजर-मूली की तरह कटते सैनिक तो दूसरी तरफ पचास-पचास (50-50) को मारने वाला एक-एक जाट और कुशवाहा राजपूत सैनिक। एक तरफ 7-7 राजा तो दूसरी तरफ 7 फुटी 200 किलो वजनी अकेले भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल। और यह लड़ाई चली भी पूरे तीन दिन थी और वो भी बरसाती तूफानों में अरावली के रेतीले मैदानों और पथरीले पहाड़ों के बीच सरे-मैदान लड़ी गई थी। कुल मिला के क्या 'ट्रॉय', क्या 'ग्लैडिएटर' और क्या 'बाहुबली' खुद, इस रिव्यु को लिखते हुए इनसे भी कालजयी थिएट्रिकल दृश्य दिमाग में मंडरा रहा है।
तो जब 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' से बढ़कर इतना विहंगम- रोमांचक-भयावह तीनों प्रकार का टच देने वाला शानदार दृश्य प्रस्तुत करने वाला ऐतिहासिक प्लेटफार्म हमारे इतिहास में मौजूद है तो 'बाहुबली' को रियल टच देने हेतु आखिर क्यों नहीं इसको प्रयोग किया गया?
ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि भारत के गौरव को अंतराष्ट्रीय स्तर पर इतना संजीदा स्थान दिलवाने के लिए 'एस. एस. राजामौली' जैसे जागरूक डायरेक्टर को इस बात का ना पता हो कि अगर उनको 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' का जवाब बनाना है तो भारतीय इतिहास का कौनसा किस्सा इसमें फिट करके दिखाना चाहिए?
निसंदेह विश्व को अगर रामायण और महाभारत की मीथोलॉजिकल लड़ाइयों का पहले से पता ना होता तो डायरेक्टर साहब ने यह प्लेटफार्म जरूर प्रयोग कर लिए होते, तो फिर 'बागरु (मोती-डुंगरी) का प्लेटफार्म क्यों नहीं प्रयोग किया?
लगता है अगर 'बाहुबली' बनाने वाले इसके पार्ट 2 में भी इसको रियल टच देने से चूकते हैं तो फिर इसके जवाब में "रियल बाहुबली" की स्क्रिप्ट लिखनी होगी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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