Monday, 9 November 2015

जय माँ काली, हरयाणे वाली!

बोंधु बोला, "जय माँ काली कलकत्ते वाली!"

हरयाणवी बोला, "जय माँ काली, हरयाणे वाली! जिसको घर तू उस घर हर दिन दिवाली!"

बोंधु चौंक के बोला भाई यह हरयाणा में कौनसी "माँ काली" आ गई?

हरयाणवी ने कहा हमारे यहाँ भैंस को "माँ काली" बोलते हैं। जिसके घर यह हो उस घर कभी कर्जा नहीं चढ़ता, घर में दूध से ले के पैसे की कमाई की कोई कमी नहीं रहती। हरयाणवी बोला तू बता तुम्हारी "माँ काली" जिसके घर हो उस घर देखी है कभी दूध देती या कमाई से उस घर को भर्ती?

हरयाणवी के तर्क के आगे बेचारा बोंधु गस खा के गिर गया।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जंगलराज के सिद्धांत पर चलती है आरएसएस!

आरएसएस कितने बड़े जंगलराज के सिद्धांत पर चलती है इसका नमूना संघ प्रमुख गोलवलकर द्वारा 8 जून, 1942 में आरएसएस. के नागपुर हेडक्वार्टर पर दिए गए इस भाषण में साफ़ झलकता है – “संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जाएगा।”

तो क्या इसका मतलब "जंगल में दिमाग नहीं होता, इंसान में होता है", "इंसान में भावना और हृदय होता है जंगली में नहीं" आदि-आदि आध्यात्मिक तर्कों से जंगली और इंसानियत को अलग-अलग दिखाने वाले मानवीय सभ्यता और अनुभूति कहे जाने वाले इन तथ्यों की थ्यूरीयों और मनोविज्ञान को आरएसएस नकार के, जंगलराज की पद्द्ति पर चलता है? कम से कम इनके फॉउंडिंग गुरु का इंटेलेक्ट तो यही कहता है।

मतलब इसके साथ ही यह जनाब इस बात को भी सत्यापित करते थे कि ब्रिटिश रुपी शक्तिशाली हम शक्तिहीन भारतियों पर राज कर रहे हैं, जुल्म कर रहे हैं तो उसमें उनका कोई दोष नहीं। कमाल है ऐसी सोच वाले देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति का जुमला उठा कैसे लेते हैं, मुझे तो सोच के अचरज होता है।

इसका एक संकेत और साफ़ है कि कल को अगर हम फिर से गुलाम बन गए तो यह लोग "अपने गुरु की इस परिभाषा" के अनुसार सबसे पहले गुलामी स्वीकार करने वालों में होंगे। यह है इनकी थोथी कोरी जुमलों वाली राष्ट्रवादिता की परिभाषा।

इससे यह बात भी समझी जा सकती है कि बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री बार-बार क्यों जंगलराज-जंगलराज पुकार रहे थे, शायद इनकी खुद की जंगलराज की थ्योरी जनता की नजर में ना चढ़े इसलिए।

फूल मलिक

Sunday, 8 November 2015

बिहार इलेक्शन परिणाम पर मोदी जी की अतंर्वेदना कराह रही है, कुछ ऐसे!

गाने की तर्ज: "कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो!"

अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,
क्या कहना है, क्या सुनना है, मोदी को सब पता है, तुमको कुछ ना पता है|
पाकिस्तान में पटाखा फुटा है, और काऊ शर्मिंदा बनी है|

........................ ख़ामोशी दा म्यूजिकल ........................

बस एक जुमले हैं, बस एक सेल्फ़ी-बाबू हैं|
अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,

कितने सयाने निकल-निकल के, मनोहर खट्टर जैसे बोल घड़-घड़ के,
बीफ पे लेक्चर झाड़ें थे पागल, कंधों से ऊपर अक्ल की गागर, अधजल छलके-छलके!
बिहार तक पहुंचे टहलते-फिरते, भगवे के रंग में ढलते-ढलते,
बीफ पे लेक्चर झाड़े था पागल, चले था कोई काऊ की पूंछ पकड़े-पकड़े!

........................ ख़ामोशी दा म्यूजिकल ........................

और इस पल में कोई नहीं है,
बस एक जुमले हैं, बस एक सेल्फ़ी-बाबू हैं|
अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,

सुलगी-सुलगी जनता, बहकी-बहकी समता,
धधकते-धधकते, धर्म के ठेकेदार आये, पिघले-पिघले सब छन-छन|
सुलगी-सुलगी जनता, बहकी-बहकी समता,
धधकते-धधकते, धर्म के ठेकेदार आये, पिघले-पिघले सब छन-छन|

........................ ख़ामोशी दा म्यूजिकल ........................

और इस पल में कोई नहीं है,
बस एक जुमले हैं, बस एक सेल्फ़ी-बाबू हैं|
अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,

सप्रेम - फूल मलिक

Saturday, 7 November 2015

केवल सीमा पर गोली खाना या भगत सिंह की भांति फाँसी पर झूलना ही देशसेवा अथवा देशभक्ति नहीं होती, कहने वाले ध्यान देवें!

1) पान-गुटखा खा कर ना थूकना देश-सेवा नहीं, समाज को साफ़ रखना कहलाता है।

2) अमितशाह और आरएसएस जो करते हैं उसको राष्ट्रभक्ति नहीं, राजनीति कहते हैं। बेशक खुद भले ही अपने आपको सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्त सौ-बार बताते रहें, परन्तु देशसेवा और राष्ट्रभक्ति के आप आसपास भी नहीं।

3) योगी आदित्यनाथ-साध्वी प्राची-बाबा रामदेव-साक्षी महाराज की केटेगरी तुम जो करते हो वो हिन्दुइज्म की सेवा नहीं। क्योंकि अगर तुम लोग वाकई में हिन्दुइज्म की सेवा करते तो हिन्दुइज्म से जाति और वर्ण व्यवस्था को समूल मिटाने पे काम करते। हिन्दुइज्म में सबके लिए बराबरी का मान और व्यवहार सुनिश्चित करके देखो, धर्म अपने आप सुरक्षित और पोषित हो जायेगा।

4) नरेंद्र मोदी जो आप करते हो उसको "जनता का प्रधान सेवक" तो नहीं, परन्तु हाँ "अम्बानी-अडानी का प्रधान सेवक" भले ही कहा जा सकता है।

इसलिए बात-बात पर इस देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति और देशसेवा को हर इस उस ऐरी-गैरी चीज से जोड़ के इतना भी मत दिखाओ कि तुम्हारे यह दावे सुन-सुन के देश की सेना के जवानों को शक होने लगे कि अगर यह जो कह रहे हैं वही देशभक्ति है तो हम क्या झक मराते रहते हैं बॉर्डर पे दिन-रात।

शब्द और उसकी परिभाषा की भी अपनी गरिमा और मर्यादा होती है, उनका ऐसे बलात्कार करना छोड़ दो।

फूल मलिक

जातिय सेकुलरिज्म अपनाओ, धार्मिक सेक्युलरिज्म को कोसने की नौबत ही नहीं आएगी!

मेरा मानना है कि अगर हिन्दू धर्म में जाति और वर्ण-व्यस्था नहीं बनाई गई होती तो कश्मीरी पंडितों को विस्थापन नहीं झेलना पड़ता|

बात कड़वी है परन्तु जो अंतरात्मा से साफ़ होगा उसको जरूर यह अहसास होगा कि अगर जो हिन्दू वर्ण व् जाति व्यवस्था के ऊपरले पायदान पर बैठा है वो इसके सबसे निचले पायदान पर इन ऊपरलों द्वारा बैठा दिए गए दलित-शूद्र-ओबीसी वर्ग को अपने से ऊपर का ना सही परन्तु अपने बराबर समझने का भी व्यवहार रखे तो कश्मीरी पंडित तो क्या किसी भी हिन्दू के उत्पीड़न पर हर हिन्दू उठ खड़ा होगा|

इसलिए अपनी अंदर की कमियों की वजह से पनपने वाली प्रोब्लम्स को धार्मिक सेक्युलरिज्म के नाम मत मढ़ो और सबसे पहले जातीय सेक्युलर बनो, हिन्दू और हिन्दू धर्म स्वत: सुरक्षित और अजेय हो जायेगा| धार्मिक कटटरता उन्हीं की चली है जो अपने धर्म के अंदर सेक्युलर रहे हों, फिर चाहे वो ईसाई हों या मुस्लिम| वो क्या ख़ाक धार्मिक कट्टर बनेंगे जो अपने धर्म के इंसान के साथ रंग-नस्ल-वर्ण-जाति सरीखी कटटरताएँ निभाते आये हों| और आज भी ना ही इस सिलसिले को रोकने पर कुछ करते हों|

और अगर इस जातिवाद और वर्णवाद को हिन्दू धर्म के ऊपरले पायदान पर बैठे लोग खत्म नहीं करवा सकते तो सेक्युलरिज्म के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाना और लोगों को कोसना और रोना छोड़ो| वर्ण व् जाति व्यवस्था के भेदभाव संबंधित विचाधारा और साहित्य को त्यागो, हिन्दुइज्म स्वत: सुरक्षित और अजेय हो जायेगा!

मानवता का सिद्धांत है कि जिस आदमी से तुम सामान्य परिस्थिति में सही व्यवहार नहीं कर सकते, उसको मानवता में बराबरी का दर्जा नहीं दे सकते, आपातकाल में उसकी मदद तो क्या आप उसकी सहानुभूति भी नहीं पा सकते|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक
 
 

दहेज़ की एक एडजस्टमेंट यह भी हो सकती है!

भारत में दहेज का दावानल कितना क्रूर है इसका इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे यहां दहेज़ की वजह से होने वाली हत्याओं जिसमें ख़ुदकुशी से ले कत्ल तक शामिल हैं की दर 'एक मृत्यु प्रति घंटा' है| भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है जहां दहेज़ की वजह से होने वाली हत्याओं की दर सबसे ज्यादा है|

हालाँकि इस समस्या का सबसे बड़ा हल तो यही है कि ना दहेज़ लो और ना दो| वैसे आज के बदले माहौल और दहेज कानून के गलत प्रयोग के कारण ऐसे मामले भी बहुत देखे जा रहे हैं जिनमें लड़की पक्ष लड़का पक्ष को बेवजह भी टार्चर करता है, परन्तु ज्यादा संगीन और गंभीर पहलु दहेज़ की वजह से वधुओं की हत्या या आत्महत्या है|

फिर भी एक ऐसा हल भी इस समस्या का है जो आधुनिक भी कहा जा सकता है और इस समस्या से निजात पाने में बहुत सार्थक भी और वो है ब्याह-शादी में पार्टियों-समारोहों-आयोजनों और अपनी पहुँच से बाहर जा कर, दोनों पक्षों द्वारा भोज-आयोजन और बारात के रूप में लोगों को भोज करवाना, बंद करके ऐसे फंक्शन्स पर आने वाले खर्च को दोनों साइड्स इकठ्ठा सीधे वर-वधु को दे देवें|

इस पर आज के दिन अमूमन गरीब-से-गरीब परिवारों का भी पांच-दस लाख और एवरेज परिवारों का बीस लाख व् अमिर परिवारों का तो काउंट भी ना किया जा सके इतना इन्वेस्टमेंट रहता है जबकि इस इन्वेस्टमेंट का आउटपुट होता है शून्य| हाँ कुछ लोग इसको रिलेशन एंड सोशल बिल्डिंग से जरूर जोड़ के बताते हैं, परन्तु इसके साथ यह पहलु भी नहीं नकारा जा सकता कि किसी के दिवालियेपन की कीमत पे सोशल रिलेशंस नहीं बना करते, बनते हैं तो दुःख देते हैं। और दहेज उन्हीं दुखों में से एक है।

और इसी तरफ मेरा इशारा है| अगर दोनों पक्षों द्वारा यह पैसा जो इस तरह से फिजूल उड़ाया जाता है इसको दोनों इकट्ठा करके नव-दम्पत्ति को सीधे-सीधे दे देवें तो मेरा दावा है कि दहेज की अस्सी प्रतिशत समस्या बैठे-बिठाये हल हो सकती है|

और सोशल एंड रिलेशंस बिल्डिंग की उस नवदम्पत्ति को ही सबसे ज्यादा जरूरत होती है, जो तभी सम्भव है जब उनकी जिंदगी को ना सिर्फ दहेज जैसी समस्या से रहित जीवन दिया जावे अपितु उनको आर्थिक तौर पर भी सुरक्षित किया जावे। और इस राह में आज का शादी-ब्याह पैटर्न ही सबसे बड़ा रोड़ा है, जिसमें दहेज भले ही कम चला जाए परन्तु लोगों को जिमाने के बजट में कटौती ना हो।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 4 November 2015

आखिर हरयाणा-दिल्ली-पश्चिमी यूपी में यह जाट बनाम नॉन-जाट का क्या मसला है?

उत्तरी भारत कभी मंडी-फंडी की पद्द्ति पर नहीं जिया वरन जाटू सभ्यता की पद्द्ति पर जिया है, और आज "मंडी-फंडी अधिनायक थ्योरी" "जाटू सोशल थ्योरी" को रद्द कर खुद को लागू करना चाहती है; बस यही भर है यह मंडी-फंडी द्वारा फैलाया गया जाट बनाम नॉन-जाट का मसला| 

उन्नीसवीं सदी में एक ब्रिटिश समाजशास्त्री हुए श्रीमान आर. सी. टेम्पल (1850-1931), उन्होंने पूरे भारत की नरविज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) का अध्यन किया और अपने शोध में पाया कि जहां बाकी के भारत में मंडी-फंडी की अधिनायक थ्योरी का एकछत्र राज चलता है, इसी की पद्द्ति पर लोग जीते हैं; वहीँ जाट बाहुल्य उत्तरी भारत में इसका बिलकुल विपरीत है| यहां लोग "जाटू सोशल थ्योरी" की खाप लोकतान्त्रिक पद्द्ति से जीते हैं| वो आगे कहते हैं कि "जाटू सोशल थ्योरी" इतनी ताकतवर और आमजन की प्रिय रही है कि इसने कभी भी मंडी-फंडी अधिनायकवाद को यहां प्रभावशाली नहीं होने दिया|

और जो आज के हरयाणा का सारा माहौल जाट बनाम नॉन-जाट बना खड़ा है यह और कुछ नहीं सिवाय मंडी-फंडी सोशल थ्योरी बनाम जाटू सभ्यता सोशल थ्योरी की लड़ाई के| आज की इस लड़ाई में जहां जाट शांत और प्रतिक्रियाहीन सा दीखता है वहीँ मंडी-फंडी पूरी आक्रामकता से जाटू सभ्यता के प्रभाव को निष्क्रिय करने में तल्लीन है| मंडी-फंडी यहां जाटू सभ्यता को हटा अपनी पद्द्ति लागु करना चाहता है, और इसीलिए उसने नॉन-जाट के नाम पर हर वो समाज भी तोड़ने की कोशिश कर रखी है जिसको यह खुद कभी शूद्र तो कभी दलित तो कभी अछूत तो कभी ओबीसी ठहराते, लिखते और कहते आये हैं| और ताज्जुब की बात तो यह है कि यह सब लोग इनके इस जाल से सम्मोहित चल रहे हैं|

लेकिन मंडी-फंडी यह नहीं जानते कि जो "सोशल इकनोमिक मॉडल" जाटू सभ्यता रखती और बरतती आई है वो ना ही तो इनके पास है और एक पल को जाटू वाले की कॉपी करके ऐसा ही कुछ करना भी चाहें तो कभी नहीं कर सकते, क्योंकि उसको अपनाना इनके जींस में ही नहीं है|

इन दोनों बेसिक मॉडल में जो फर्क हैं और जो ना सिर्फ जाट के लिए अपितु मंडी-फंडी के बहकावे में आने वाले नॉन-जाट के लिए भी जानने जरूरी हैं वो इस प्रकार हैं:

1) खाप सोशल थ्योरी "सीरी-साझी" यानी गूगल जैसी कंपनी के वर्किंग कल्चर "पार्टनर" की संस्कृति पे सदियों से चलती आई है जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी सोशल थ्योरी का एकछत्र राज है यह लोग वहाँ "नौकर-मालिक" की पद्द्ति पर चलते हैं और चलते आये हैं|

2) खाप अथवा जाटू सोशल थ्योरी का अपना एक "विलेज इकनोमिक मॉडल" रहा है जिसके तहत हर गाँव एक स्वतंत्र गणराज्य व् लोकतंत्र के साथ-साथ उन्मुक्त आर्थिक समर्थता का मॉडल होते हुए "गाँव" की जगह "नगरी" कहलाता आया है| जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी थ्योरी चलती आई है, वहाँ सिर्फ इन्हीं लोगों की अधिनायकवादी (totalitarian) सामंती चलती आई है और आज भी मौजूद है|

3) जहां जाटू सोशल थ्योरी में जाट किसान अपने सीरी के साथ (स्वतंत्र लिखित कॉन्ट्रैक्ट के तहत) कंधे-से-कंधा मिला के काम करता आया है वहीँ मंडी-फंडी सिस्टम में खेत के किनारे खड़ा हो के नौकरों से (बंधुआ मजदूरी के तहत) काम लेने की संस्कृति रही है| और जहां-जहां यह आज भी एकछत्र हैं, वहाँ ऐसा ही वर्किंग कल्चर है|

4) जहां जाटू सभ्यता की संस्कृति में एक खाप पंचायत में किसी भी जाति सम्प्रदाय का आदमी पंच, अध्यक्ष या आयोजक आदि होता/बनता आया और आज भी होता/बनता है, वहीँ मंडी-फंडी सभ्यता में सिर्फ यही लोग पंचायत में पंच, अध्यक्ष या आयोजक हो सकते हैं| इसके प्रत्यक्ष उदहारण देखने हैं तो इनके एकछत्र राज वाले भागों में जा के देखे जा सकते हैं|

5) आज अगर उत्तरी भारत (जाट-बाहुल्य क्षेत्र) में बाकी भारत की अपेक्षा धार्मिक कर्मकांड-पाखंड-ढोंग की अति वाले कुकृत्य जैसे कि दलितों की बेटियों को मंदिरों में देवदासी (चिंगारी और गिद्द जैसी फिल्म देखें) बनाना, लड़की के व्रजस्ला होते ही मंदिरों के गर्भगृहों में उसका भोग लगाना ('माया' फिल्म देखें), विधवा को पुनर्विवाह की जगह विधवाश्रम भेजना (वाटर एवं दामुल फ़िल्में देखें) आदि बिलकुल भी नहीं और बाकी भी एक नियंत्रित अवस्था यानी अपनी हद की परिधि में रही हैं तो यह सिर्फ जाटू सभ्यता के प्रभाव की वजह से| ऊपर से जाट आर्य-समाज की विचारधारा ने भी इनके मनमाने पाखंडों को उत्तरी भारत में पैर पसारने से बहुत हद तक रोका है| और यही वो उत्तेजना और बेचैनी है कि आज यह जाटू सोशल थ्योरी को जितना हो सके उतना बदनाम कर रास्ते से राह के रोड़े की भांति हटाना चाहते हैं|

ऐसे ही बहुत सारे तुलनात्मक उदाहरण हैं जो इन दोनों सोशल थ्योरीज़ को एक दूसरे के विपरीत खड़ा करते हैं| जिन पर एक खुली बहस भी की जा सकती है| इसको ज्यादा ना खींचते हुए अब आता हूँ कि आखिर जब जाटू सभ्यता ना ही तो मंडी-फंडी सभ्यता की तरह आज के दिन इतनी आक्रामक दिख रही और ना ही ऐसे प्रोपेगैंडे रच रही जैसे कि मंडी-फंडी इसके खिलाफ रच रही है तो जाटू सभ्यता फिर भी इतनी जकड़न में क्यों आई हुई है?

इसका सबसे बड़ा कारण है कि जाटों में बहुत से ऐसे लोग हैं जो मंडी-फंडी सभ्यता के जातिपाती से ले छुआछूत और ऊँच-नीच के पाश को अपने गले में डाले चल रहे हैं| इसका परिणाम यह होता है कि इससे मंडी-फंडी को दलित-पिछड़े के आगे जाट को उनका उसी चीज के लिए दुश्मन बताने का प्रोपेगेंडा फ़ैलाने का मौका मिलता है जो वास्तव में इन्हीं की देन है| यानि जाटों की यह नादानी इनको ही मंडी-फंडी का सॉफ्ट-टारगेट बनाती है|

दूसरा सबसे बड़ा कारण है खाप जैसी सोशल इंजीनियरिंग मॉडल में अपग्रेडेशन कर इन द्वारा अपने लिए एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी ना खड़ी करना| इसको कुछ इस तरह समझें| जैसे पुराने मकानों में चिमनी वाले चूल्हे होते थे, और ताकि बरसात का पानी या पक्षी की बीट वगैरह अंदर ना आ सके इसलिए वो चिमनियां एक छतरी से ढंकी जाती थी| आज की खापों की हालत यही हो रखी है कि इन्होनें उस चिमनी को एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी रुपी छतरी से नहीं ढंका हुआ| इसलिए मंडी-फंडी का खड़ा किया हुआ एंटी-जाट मीडिया लेता है और उसमें प्रोपेगेंडा रुपी पानी की दो-चार बूँदें टपका जाता है और नीचे ठीकठाक चलते उस चूल्हें में वो बूँदें गिरने से सब धुआं-धुआं हो जाता है|| अगर कोई इस चिमनी पे छतरी ढंक दे तो सारी समस्या हल|

तीसरा सबसे बड़ा कारण है कि शहरी जाट ग्रामीण और ग्रामीण जाट शहरी से तालमेल नहीं कर रहा| इसको कुछ इस तरीके से समझें| एक कमरे में छत से लगता परन्तु चार-एक फुट नीचे टांड (शेल्फ) होता है| अब मान लो ग्रामीण जाट तो बैठा है उस कमरे के फर्श पे यानी धरती पे और शहरी जाट तरक्की करके जा बैठा है उस टांड पे| दोनों के स्तर में इतना फर्क तो आया कि शहरी जाट ग्रामीण से ऊपर उठ गया परन्तु हैं दोनों उसी कमरे में और दोनों के ऊपर जो छत है वो है मंडी-फंडी की| जिसको तोड़ने के लिए दोनों की एकता और तालमेल जरूरी है| वो तालमेल स्वत: तो हो ही नहीं रहा, खुद जाट कर नहीं रहे और इसीलिए परेशान हुए जा रहे हैं, मंडी-फंडी की जकड़न में घुट बैठे हैं| अगर शहरी जाट टांड से नीचे उतर आये और ग्रामीण थोड़ा ऊपर हाथ बढ़ा के उनको सहयोग करे तो जब चाहें इस मंडी-फंडी के छत रुपी जिंक को तोड़ सकते हैं|

जाट बस इतना मात्र कर लेवें, और अपनी शुद्ध बिना मिलावट की "दादा खेड़ा" और जातिपाती से रहित शुद्ध खाप परम्परा को शुद्ध करके उसको पकड़े रहे तो मंडी-फंडी और जाटों के खिलाफ इनके प्रोपेगण्डे खुद ही अपनी मौत मर जायेंगे|

इन चीजों को करने का इतना फायदा और होगा कि सारा भले ही ना आये परन्तु आज के दिन मंडी-फंडी के बहकावे में चढ़ जो दलित-ओबीसी जाट से दूर जाता सा प्रतीत हो रहा है, असल में जा रहा है वो अधिकतर वापिस आ जायेगा|

अब कोई जाट यह कहे कि क्या दलित-पिछड़े को खुद नहीं दीखता कि वो किधर जा रहे हैं, तो जवाब यही है कि आप पहले उनके ऊपर से मंडी-फंडी के जाल का आवरण हटाओ, तभी तो वो आपको और आपके साथ रहने से उनके फायदे देख पाएंगे| और यह आवरण उनपे किस हद तक हावी है इसको फसलों के धरती में मिला दिए गए भाव से समझा जा सकता है| इस सरकार के एक साल में ही दलितों पर दोगुने हुए उत्पीड़न व् अत्याचारों (पिछले साल जहां 470 के करीब दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए थे वहीं इस साल 830 के करीब हुए हैं) से समझा जा सकता है|

ओबीसी और अन्य किसानी जातियों को मंडी-फंडी ने जाट के इतना खिलाफ कर दिया है कि इस नफरत में उनको फसलों की लागत तक पूरी ना कर देने वाले भाव की वजह से अपने घरों की खस्ता हाल होती जा रही इकनोमिक हालत भी 'जाट-विरोध' के आगे नहीं दिख रही| और शायद दिखने भी लगी है तो इसके खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं| वह चुप्पी भय की भी हो सकती है या अनिश्चितता की भी हो सकती है| और अनिश्चितता यह हो सकती है कि शायद वो जाट के उठ खड़ा होने की इंतज़ार कर रहा हो कि जाट उठे तो उसके सुर में मैं भी सुर मिलाऊँ|

दलित भी शायद 'मंडी-फंडी' के षड्यंत्र को भांप चुका है, परन्तु शायद वो इंतज़ार कर रहा है कि कब जाट "मंडी-फंडी" की दी हुई जातिपाती और ऊँच-नीच की मानसिकता से बाहर निकले और हम एक हों|

इसलिए जाट समाज को इतना तो जरूर करना होगा कि मंडी-फंडी के आवरण को तोड़ो| बेशक इसके लिए मंडी-फंडी की भांति जाट को आक्रामक होने की जरूरत नहीं, बस जाट का उठ के इन चीजों के प्रति बोलना शुरू कर देना और चल देना ही काफी होगा| इसी से "मंडी-फंडी" के हाथ-पाँव फूल जायेंगे, इनकी बुग्गी सी उलळ जाएगी| बुग्गी सी उलळ जाना को हिंदी में औंधे मुंह गिरना कहते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक गौभक्त मुझे बोला कि मलिक साहब आपको गाय को राजनीति में नहीं खींचना चाहिए, गाय मीन्स हमारी माँ!

मैंने यही जवाब दिया कि, "मुझे आपसे काऊ की भक्ति सीखने की जरूरत नहीं, हर फसल सीजन पर मेरे घर से तूड़े और अनाज की ट्रॉलियां (लॉरी) जाती हैं गौशालाओं में| हर इस उस गौशाला फंक्शन्स में दान रुपया जो जाता रहता है वो अलग से| परन्तु मैं बेवकूफ नहीं हूँ कि जानवर को अपनी माँ कहूँ| आपको अपनी माँ, अपनी असली इंसान रुपी माँ में नजर नहीं आ के एक जानवर में नजर आती है तो नजरिया ठीक करें अपना|"

और रही राजनीति में खींचने की बात तो यह उपदेश जा के पहले आरएसएस और बीजेपी को दो, जो जानवरों को जबरदस्ती लोगों के माँ-बाप घोषित करने को उतारू फिर रहे हैं| अधिकतर रंडवे हैं इनमें, अपने घरों को जो त्याग चुके {वो हरयाणवी किस्से की तरह कि किसी की जोरू रूठ के भागी जा रही थी, पीछे-पीछे पति, आगे से बाबा आ रहा था| पति ने भागती बीवी की तरफ इशारा करते हुए हरयाणवी में रुक्का मारा, "हेरिये-बाबा-हेरिये (यानी रोकना बाबा)। बाबा तपाक से बोला, "बच्चा अपणी-ए-छोड्डें फिरूँ!" यानी मैं तो अपना ही घरबार त्यागे फिर रहा, तेरी को क्या हेरुंगा}। तो यह सब अपने-अपने घर से भगोड़े (यहां तक कि खुद पीएम भी) लोग हैं| इनको शायद असली माँ-बाप में माँ-बाप नजर नहीं आये, बीवी-बच्चे तक नजर नहीं आये; इसीलिए जानवरों को माँ-बाप बना यह कमी पूरी कर रहे हैं|

फिर भी करनी है तो अपनी कमी पूरी करें, मेरी तरफ से सिर्फ गाय को माँ ही क्यों, चाहे तो भैंस को मौसी, सांड को बापू, भैंसे को मौसा, बकरी को छोटी बहन आदि-आदि जो चाहे वो बनाओ, परन्तु मुझे किसको माँ कहना है इसके लिए कम से कम खुद निर्णय लेने में सक्षम हूँ|

वैसे मुझे इंतज़ार तो उस दिन और उस जानवर का है, जिसको जब यह लोग "पत्नी" घोषित करेंगे, ठीक वैसे ही जैसे "गाय" को माँ घोषित कर रखा है| जंगल के जानवरों को अर्जी डलवा दो कि इंसानों की "पत्नी" का दर्जा पाने हेतु फुल प्रोफाइल विद एडिशनल फीचर्स भेजें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 3 November 2015

Shame on you Professor Nonika Dutta of Miranda House, D.U.

एक युवा मित्र (नाम गोपनीय रख रहा हूँ) ने बताया कि आज उनके इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी कॉलेज, द्वारका (दिल्ली) में मैडम नोनिका दत्ता "socialism, communism and casteism in India" विषय पर भाषण देने आई थी तो जो वो भाषण दे के गई उसमें भगत फूल सिंह मलिक और जाटों पर ऐसा जहर उगल के गई है कि उनको सुनके मित्र को इतनी आग लगी हुई थी कि उसने सशब्द सब बातें मुझे बताई, जिनको मैं यहां साझा कर रहा हूँ|

युवा विद्यार्थी मित्र ने बताया कि मैडम ने भाषण में कुछ ऐसे बातें रखी, "जो भैंसवाल-गोहाना की तरफ के मलिक जाट हैं जो भगत फूल सिंह को अपना हीरो मानते हैं, भगत फूल सिंह और वहाँ मलिक व् अन्य गोतों के लोकल जाटों ने उनके साथ मिलके बहुत गंदे काम किये हैं| यह कहते हुए उसने कहा कि भगत फूल सिंह ने निजी तौर पर हत्याएं तक की थी| मैडम यहीं नहीं रूकती कहती हैं कि 1947 के दंगों में गठवाला जाटों ने मुस्लिमों को मार दिया, उनके जन-धन को जला दिया, जितने गंदे काम हो सकते थे उतने किये| और मैडम भाषण में ही दावा करती हैं कि यह सब बातें उनको भगत फूल सिंह जी की बेटी बहन सुभाषिनी जी ने खुद बताई| और जाटों को क्रूर दिखाते हुए आगे जोड़ती हैं कि और इसीलिए आज गोहाना-रोहतक-सोनीपत-जींद की तरफ आपको कोई मुस्लिम नहीं दिखेगा|"

मित्र आगे बोला कि एक छात्रा ने जब उनसे पूछा कि mam there are many stories in india why you chose this only?

तो मैडम का जवाब था कि मेरा मकसद है अनपॉपुलर हिस्ट्री को पॉपुलर करना|

युवा मित्र फिर बताता है कि उस मैडम ने इस किस्से को हिटलर के नाजिज्म से जोड़ के प्रस्तुत किया|

मेरी प्रतिक्रिया: एंटी-जाट लोगो तुम किस नीचता तक गिरोगे? खैर तुम पड़ो कुँए में या निकलो झेरे में, मेरी बला से| मेरी प्रतिक्रिया तो सिर्फ मेरे जाट समाज के युवा, विद्वान व् बुद्धिजीवी वर्ग से है कि:

1) सर्वप्रथम तो आप भगत फूल सिंह जी द्वारा हिन्दू धर्म, आर्य समाज, गौसेवा और हिन्दू से मुस्लिम बनाने हेतु लोगों के शुद्धिकरण के लिए किये कार्यों बारे पढ़ें| उन्होंने 1916 से ले 1938 तक के काल में भिन्न-भिन्न मौकों पर समालखा व् उस वक्त के पंजाब के कई अन्य स्थानों पर कई गौहत्थे नहीं खुलने दिए| आपने 1920 में गुरुकुल भैंसवाल और 1936 में गुरुकुल खानपुर की स्थापना की| 1928-29 में होडल और पलवल के मुस्लिम जाट शुद्धिकरण करके वापिस हिन्दू बनाये| 1940 में गाँव मोठ में मुस्लिम रांघड़ चमारों का कुआँ नहीं बनने दे रहे थे परन्तु आपने 23 दिन तक आमरण अनशन करके कुआँ बनवाया और उसी कुँए के पानी से अनशन तोड़ा| 1941 के लोहारू कांड में आर्य समाज बनाम मुस्लिम जिरह में लाठियां खाई, मूर्छा झेली| और फिर तब हिन्दू धर्म और आर्यसमाज की सेवा के फलस्वरूप आपसे द्वेष खाए बैठे मुस्लिमों ने 1942 में घात लगाकर आपको मार दिया|

2) इन मैडम जैसे दोमुहें सांपों से जाट युवा और बुद्धिजीवी सावधान व् सतर्क रहें| ऐसे लोगों के बारे इनके उगले इन जहरों को दबावें ना, छुपावें ना अपितु मान-प्रतिष्ठा के साथ अपने बच्चों और युवा को बता के ऐसे लोगों से उनको सचेत करें|

3) हर खाप, हर गाँव और हर गोत अपने-अपने इतिहास, इसकी मुख्य तिथियाँ और हस्तियां अपने बच्चों को जरूर बतावें ताकि ऐसे लोगों के बरगलाने से ना सिर्फ बच सकें अपितु ऐसे लोगों का विरोध भी कर सकें|

4) ऐसे एंटी-जाट लोगों और इनके बनाये धर्म के लिए जाट अगर अपने प्राण भी दे देवें तो आपका क्या स्तुति गान यह लोग करेंगे, इसकी जीती-जागती मिशाल हैं यह मैडम| इसलिए ऐसी मैडम और इनके समुदाय के लोगों के किसी भी प्रकार के धार्मिक एजेंडा या देशभक्ति एजेंडा के बहकावे में जाट युवा ना आवें और इन मामलों में अपना मार्ग अपना इतिहास (हो सके तो सीधा अपने बड़ों और बुजुर्गों से) जान के ही निर्धारित करें|

चलते-चलते मैडम नोनिका दत्ता से सविनय निवेदन: मैडम सुना है आप उसी बंगाल की हैं जिनके लिए वृन्दावन विधवा आश्रम बनाये गए हैं और अस्सी प्रतिशत आपकी ही कौम की बंगाली विधवाएं इन आश्रमों में रहती हैं| मैडम आपसे निवेदन है कि आप पहले अपने इतिहास और आपके समाज में औरतों के साथ होते वृन्दावन जैसे सामूहिक सार्वजनिक सर्वविदित सामाजिक अपराध का अध्यन कर, उनको मुक्त करवा लेवें; जाट तो खुद को संभालने में पहले भी सक्षम थे और आज भी हैं| और जैसे आप जहर उगल रही हैं ऐसे जरियों से ना तो जाट इतिहास में दबा या बदनाम हुआ और ना ही अब आप कुछ कर पाएंगी, क्योंकि हमारा युवा अब जो भी बाहर या आप जैसों के भाषणों में सुन के आता है आके अपने समाज से साझा करने लगा है|

मैडम का जाट कौम का बताया यह इतिहास साझा करने हेतु ब्रदर आपका धन्यवाद| जाट युवा ऐसे ही दिखती-सुनती-मिलती जानकारियों को साझा करते रहें, हम आपके बड़े उसकी सच्चाई आपको बताने हेतु आपके पीछे खड़े हैं|

विशेष: हालाँकि मैं खुद भी इन मैडम को यह प्रतिक्रिया पहुंचाउंगा, फिर भी इसको इन मैडम तक पहुंचाने वाले का पहले से धन्यवाद!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 2 November 2015

मंडी-फंडी क्यों मीडिया के जरिये खापों को बदनाम करता है?

खापों में विद्यमान रूढ़िवादिता की वजह से? ...... जवाब है नहीं!

तो फिर खाप मान्यता के समाजों में होने वाले अपराधों की वजह से? ...... जवाब है नहीं, क्योंकि जो समाज हो गया वहाँ अपराध तो सास्वत सत्य है, हर एक में मिलेगा|

तो फिर क्या है यह लड़ाई?

यह लड़ाई है, मंडी-फंडी के फैलाये गैरजरूरी पैसा ऐंठने, बनाने और पाखंड फैलाने के गोरख धंधों से समाज को बचाने हेतु निर्भीक स्वछँदता वाली खापों की छवि और भूमिका से|

कल ही कालीरमण खाप ने हरयाणे के सबसे बड़े व् इस खाप के भी सबसे बड़े गाँव (हरयाणवी में नगरी) सिसाय में उनकी वर्षगांठ के उत्सव पर इस खाप के सारे 150 गाँवों में "काज" यानी मृत्युभोज आयोजित ना करने का आह्वान किया और इसके लिए जागरूकता अभियान चलाने का भी ऐलान किया है|

अब जो खाप समाज के बच्चे-युवा हैं वो इस फैसले का आपके अपने यानी खाप-मान्यता के समाज और मंडी-फंडी पर पड़ने वाले प्रभावों पर नजर डालिये:

मृत्युभोज नहीं होने से किस-किसको नुकसान पहले इस पर नजर डालिये:
1) मृत्युभोज नहीं होगा तो व्यापारी और दुकानदार की वो चीजें नहीं बिकेंगी जो मृत्युभोज पर चाहिए होती हैं|
2) मृत्युभोज नहीं होगा तो इसको बनाने वालों की पूछ नहीं होगी, हवन इत्यादि के जरिये पैसा और मुफ्त भोज छकने का अवसर नहीं मिलेगा| उनको इसके जरिये सामाजिक उपस्थिति में एक गैर-जरूरी आदरणीय सी रहने वाली सुविधा और अवसर नहीं मिलेगा|

मृत्युभोज नहीं होने से किस-किस को फायदा होगा:
1) रिश्तेदारियों के भाड़े-तेल के खर्चे बचेंगे|
2) मृत्युभोज परिवार व्यर्थ कर्जे या खर्चे से बच, उसको सही जगह उपयोग कर सकेगा|

अब इस पर मंडी-फंडी कैसे प्रतिक्रिया देता है:
1) 90% से ज्यादा इनके ही आधिपत्य वाले इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया हाउसों के जरिये खापों की छवि धूमिल करने हेतु, पारिवारिक स्तर पर होने वाली हॉनर किल्लिंग्स को खापों से जोड़ेगा|
2) खुद मंडी-फंडी लोगों के यहां सबसे ज्यादा कन्या भ्रूण हत्या व् सबसे कम लिंगानुपात होते हुए भी इसको खाप-मान्यता के समाज पर उड़ेलेगा|
3) खुद इनके संचालित संस्थानों और ठिकानों (धार्मिक हों या सामाजिक) पर नगण्य महिलाएं होते हुए भी खापों के चबूतरों पे औरतें ढूंढेगा, इनको रूढ़िवादी दिखायेगा|

अब यहां गायब क्या है?:
1) खापों द्वारा अपना खुद का मीडिया ना होना गायब है|
2) किसी भी खाप की अपनी मैगज़ीन या सर्वखाप का सामूहिक रूप से कोई अख़बार या टीवी चैनल गायब है|
3) खापों के लोग मंडी-फंडी की इन गैर-कानूनी हरकतों को कोर्टों में खींचने को ले के उदासीन हैं|
4) खापों द्वारा यह प्रचार करना कि हमारे यह फैसले हर सामान्य व् आमजन के घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाये रखने हेतु व् आमजन को समाज के दिखावे के प्रेशर से उसको मुक्त रखने हेतु होता है|

यह चीजें खापों की अपनी क्यों जरूरी हैं?:
1) ताकि मंडी-फंडी संचालित मीडिया को काउंटर किया जा सके| उसके प्रत्यारोपों का उसी की भाषा और लहजे में खंडन किया जा सके|
2) कल की कालीरमन खाप में हुए रेसोलुशन्स जैसे बिन्दुओं को हर सम्भव जन तक लिखित व् इलेक्ट्रॉनिक रूप में पहुँचाया जा सके| …... आदि-आदि!

क्या कभी देखा है मंडी-फंडी को इन चीजों का विरोध करते हुए? वो इसका विरोध क्यों नहीं करते, इसके क्या कारण हैं?

कारण सिर्फ एक है कि यही मंडी की दुकानदारी और फंडी की पेट-पूजा और सामाजिक मान पाने के जरिये हैं? तो फिर किसान वर्ग क्यों नहीं पाना चाहता यह सम्मान? क्योंकि किसान अन्न पैदा करके उससे आमजन का पेट भरने का कारण बनके पहले से ही यह सम्मान पा इससे संतुष्ट हुआ होता है| जबकि मंडी-फंडी ने अब तक यह हासिल नहीं किया हुआ होता, तो वह इन चीजों को जारी रखने के पक्ष में होता है| और इस तरह से जन्मा सम्मान बनावटी, दिखावटी, दुखदायक व् स्वार्थी होता है जो इंसान में दम्भ और उददंड होने की खाद भरता है|
तो मूलत: खाप एक ऐसी प्रणाली है जो आपातकाल में युद्धों के लिए यौद्धेय पैदा करने के साथ-साथ समाज की समुचित आर्थिक व्यवस्था के संतुलन को भी संभालती आई है, उसके बैलेंस को सुनिश्चित करती आई है| और गजब की बात तो इतिहास में यह रही है कि मंडी-फंडी का खापों द्वारा युद्धों के लिए यौद्धेय पैदा करने और बनाने पे कभी मतभेद नहीं रहा, रहा तो सिर्फ उनके येन-केन-प्राकेण वाले आर्थिक लाभ कमाने वाले हथकंडों पर खापों द्वारा लगाम लगाने पर|

इसलिए खाप मान्यता का युवा इस तथ्य को अच्छे से समझ ले कि मंडी-फंडी द्वारा खापों पे हमले आपके यहां से बुराई खत्म करने या कुछ सुधार लाने हेतु नहीं अपितु इनके आर्थिक हित साधने व् सुनिश्चित करने हेतु होते आये हैं| वर्ना समाज से बुराई दूर करने में इनकी जरा भी रुचि होती तो आज ना ही तो समाज में दलित होते, ना ही शूद्र, ना ही चार वर्ण, छत्तीस कौम और हजारों जातियां| ना ही छुआछूत होती, ना ही ढोंग और पाखंड होते| और कमाल की बात तो यह है कि यह चीजें इन्हीं की घड़ी हुई, बनाई हुई हैं; इनमें से खापों द्वारा बनाई एक भी चीज नहीं|

तो एक लाइन में निचोड़ सिर्फ इतना है कि मंडी-फंडी का मीडिया के द्वारा खाप पर हमला सिर्फ इनके आर्थिक हथकंडों का रास्ता साफ़ करना होता है|

अंत में कालीरमण खाप को उनके कल के रिज्योलुसनों की बधाइयाँ! आशा है कि खाप के रिज्योलुसनों का धरातल पर भी अच्छा आउटपुट दिखे|

कालीरमण खाप के कल के ऐतिहासिक फैसले की खबर का लिंक: Kaliraman khap tells villagers to shun feast on death of elderly - http://www.tribuneindia.com/news/haryana/kaliraman-khap-tells-villagers-to-shun-feast-on-death-of-elderly/153804.html

जय यौद्धेय! - फूल मलिक
 

हैप्पी हरयाणवी मदर डे (होई का त्यौहार)!


वैसे जो हरयाणवी (वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यूपी + दक्षिणी उत्तराखंड + हरयाणा से लगता राजस्थान) संस्कृति से संबंध रखता है उसको बताने की जरूरत नहीं, "होई" शब्द सुनते ही समझ गए होंगे, कि आज "हरयाणवी मदर डे" है|

आज के दिन हर हरयाणवी माँ अपने बच्चों की लम्बी आयु, अच्छे रोजगार और सुखद वैवाहिक जीवन के लिए बच्चे के जन्म से तब तक लगातार हर साल इस दिन व्रत रखती है जब तक कि उसके बच्चे का ब्याह नहीं हो जाता|

तो जो अपनी माँ के पास नहीं है, फटाफट फोन उठाओ और घुमाओ| शादीशुदा हो चुके हो तो भी घुमाओ| और जो पास में हो वो अपनी माँ को स्पेशल ट्रीट दो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 1 November 2015

ऐतिहासिक हरयाणा सर्वखाप के कुछ ख़ास यौद्धेय-यौद्धेयाओं की सूची – Volume 1:

1) महाराजा हर्षवर्धन - अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया इत्यादि में आज जिस प्रकार "सोशल-ज्यूरी' है, ऐसे सर्वखाप को कानूनी रूप से राजकीय न्याय प्रणाली से जोड़ 643 ईश्वी में विश्व की प्रथम सोशल ज्यूरी प्रणाली स्थापित करने वाले लोकतान्त्रिक सोच के नरेश|

2) दादावीर मोहना जाट जी महाराज: सातवीं सदी में राजा दाहिर के खिलाफ हुई बगदाद के खलीफाओं की लड़ाई में सर्वखाप सेना की दाहिर को सहायता टुकड़ी में लड़ते हुए अब्दुल्ला नामक सरदार को ढाक पर चढ़ा के जमीन पे पटक के मारने वाले यौद्धेय|

3) दादावीर बाला जी जाट महाराज - 1025 में गजनवी लुटेरे की सोमनाथ लूट को वापिस लूट के देश में ही रखा - पौराणिक चरित्र हनुमान को आपका नाम "बाला जी" दिया गया है|

4) दादावीर रामलाल खोखर जाट - 1206 में पृथ्वीराज चौहान के कातिल मोहम्मद घोरी को मारने वाले|

5) दादावीर जाटवान जी गठवाला महाराज - भारत के प्रथम वीर जिन्होनें 1267 में मुस्लिम शासन की खिलाफत कर कुतबुद्दीन ऐबक से हाँसी-हिसार के टिब्बों में ऐसा रण लिया कि ऐबक दिल्ली जाकर यह कहते हुए रोया था कि मैं क्यों जाटों से उलझा| और वो हिन्दू धर्म के पहले ऐसे योद्धा भी बने जिसने मुस्लिम-शासन की सर्वप्रथम खिलाफत करी|

6) दादा चौधरी मस्तपाल सिरोहा - 1287 में महानदी के तट पर लाखों जाट-गुर्जर-अहीर-राजपूतों से सजी सर्वखाप महंचायत में पहली बार विदेशी आक्रान्ताओं के खिलाफ कई क्रांतिकारी प्रस्ताव पास करवाने वाले मुखर यौद्धेय।

7) दादीराणी भागीरथी महाराणी - 1355 में चुगताई वंश के चार सरदारों समेत, चुगताई सेना के सेनापति को अढ़ाई घंटे के मल्ल युद्ध में हरा, उनको गोहाना से ले टोहाना तक भगा-भगा के पीटने वाली जींद की योद्धेया|

8) दादावीर जोगराज गुर्जर जी महाराज - 1398 में तैमूर लंग के खिलाफ हुई विजयी लड़ाई में "हरयाणा सर्वखाप" की सेना के प्रधान सेनापति|

9) दादावीर हरवीर सिंह गुलिया जी - 1398 में तैमूर लंग के खिलाफ हुई विजयी लड़ाई में तैमूर की छाती में भाला मार उसकी हार को सुनिश्चित करते हुए वीरगति देने वाले "हरयाणा सर्वखाप" की सेना के उप-प्रधान सेनापति -1।

10) दादावीर धूला भंगी जी - 1398 में तैमूर लंग के खिलाफ हुई विजयी लड़ाई में "हरयाणा सर्वखाप" की सेना के उप-प्रधान सेनापति -2।

11) दादीराणी रामप्यारी गुर्जरी जी: 1398 में तैमूर लंग के खिलाफ हुई विजयी लड़ाई में "हरयाणा सर्वखाप" की सेना की महिला इकाई की प्रधान सेनापति|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 31 October 2015

एन.सी.आर. और जाटलैंड में दो तरह के बिहारी और दो तरह के ही जाट हैं, बताओ दोनों में फर्क क्या?

पहले दो तरह के कौन-कैसे वो देखते हैं:

दो तरह के बिहारी: एक मजदूर क्लास, दूसरी हाई-फाई मीडिया से ले अफसर क्लास|
दो तरह के जाट: एक ग्रामीण किसान जाट, दूसरा शहरी अफसरी-व्यापार-कारोबार से ले साधन-सम्पन जाट|

अब फर्क समझते हैं:

हाई-फाई मीडिया और अफसर क्लास बिहारी, ना सिर्फ इस बात का ख्याल रखता है कि बिहार से हजार कोस दूर आकर भी उनकी संस्कृति (जैसे छट पूजा मानना इत्यादि) तो कायम रहे ही रहे साथ ही मजदूर क्लास बिहारी से अन्याय ना हो| रवीश कुमार जैसे बिहारी -मूल के रिपोर्टर को देखा है ना यदाकदा एन.सी.आर. में उसके बिहारी मजदूर समाज के दर्द को उठाते हुए?

जबकि शहरी जाट अफसरी-व्यापार-कारोबार से ले साधन-सम्पन जाट, हजार कोस दूर की तो छोड़ो मात्र दस-बीस कोस गाँव से शहर में आकर भी अपनी संस्कृति को संभाले रखने की जिम्मेदारी के बिल्कुल उल्ट सबसे पहले उसी को तोड़ता है और पीछे मुड़ के अपने भाई ग्रामीण जाट किसान के अधिकारों व् सम्मान को कैसे संभाल के रखवाए या रखने में मदद करे इसपे ना कोई विचार, ना संगठन या रुचि|

फिर कहते हैं कि जाटलैंड पर ही जाट अकेले पड़ते जा रहे हैं, सौतेला व्यवहार हो रहा है उनसे| भाई तुम आपस में अपने ही भाईयों से और अपने ही संस्कृति से सौतेला व्यवहार बंद करके देखो पहले, अगर ना वापिस वही बहारें और खुशनुमा फिजायें लौट आये तो|

Jai Yoddhey! - Phool Malik