Wednesday, 11 November 2015

मुझसे ज्यादा पापी बैठे, इस अग में ब्रह्मज्ञानी!

मुझसे ज्यादा पापी बैठे, इस अग में ब्रह्मज्ञानी,
छोटा सा एक दोष मेरे में, आँख मेरी है काणी।

बैठा इंद्र आज सभा में, बन सबका सरदार,
गौतम के घर जारी करने, पहुँच गया बदकार। ...
दाग छूटा नहीं कभी चाँद का, जाने सब संसार,
नारद ने रंडी के आगे, पल्ला दिया पसार।
वेद-व्यास ना है पैदा, माँ छोड़ बनी राणी।
छोटा सा एक दोष मेरे में, आँख मेरी है काणी।


कुंती और माद्री के यहाँ बैठे पाँचों लाल,
पाण्डु से नहीं एक भी पैदा, मन में कर लिए ख्याल|
पार्वती के संग में आ गया, भस्मासुर का काल,
ब्रज में सताई गोपिका, तुम भी तो चांडाल।।
मेरी आँख फूटी हुई है यह, तेरी एक निशानी,
छोटा सा एक दोष मेरे में, आँख मेरी है काणी।

विष्णु ने वृंदा के संग, जा के करी जारी,
विश्वामित्र को हूर मेनका, लगी थी बहुत प्यारी।
पाराशर ने अपनी बेटी, जा पकड़ी थी कुंवारी,
भरद्वाज ऋषि ने इज्जत, जा भाभी की थी उतारी।।
कम कौनसा बैठा है यहां, मुझे बतला दो कहानी।
छोटा सा एक दोष मेरे में, आँख मेरी है काणी।

राजा बल को छलने गया, जब बनके अत्याचारी,
टेंट के अंदर बैठा था, तूने सिंक आँख में मारी।
चंद्रपाल की आज सभा में, बैठे सब सत्तधारी,
गुरु बाबा समझाने लगे, तू सुन ले बात हमारी।
बेशक आँख मेरी काणी, पर आन जगत ने मानी।
छोटा सा एक दोष मेरे में, आँख मेरी है काणी।

मुझसे ज्यादा पापी बैठे, इस अग में ब्रह्मज्ञानी,
छोटा सा एक दोष मेरे में, आँख मेरी है काणी।

भूल हुई जो पश्चाताप की, वो शब्द सुनाये देते हैं।

भूल हुई जो पश्चाताप की, वो शब्द सुनाये देते हैं।
जिनका नहीं कसूर, उन्हें क्यों लोग बुराई देते हैं।।

उस पंचवटी पे लक्ष्मण ने सरुपण की नाक उड़ाई क्यों ॥
रावण पै दिया दोष लगा, कि राम की सिया चुरायी क्यों॥...
भई बहन की इज्जत लूटे किसी की, वो कर ले सहन बुराई क्यों।
न्याय और अन्याय विचारो, ली राम ने मोल लडाई क्यों ॥
कुकर्म करने वालों को भी लोग भलाई देते है।
जिनका नहीं कसूर, उन्हें क्यों लोग बुराई देते हैं।


दुर्योधन को द्रोपदी जो, अन्धे का अँधा ना कहती|
केस खींचे, लगी लात गात में, सर पे रंदा ना सहती||
जेठ के आगे बहु की आँखें, क्या शर्मिंदा ना रहती।
रच दिया महाभारत बोलों ने, यूँ खून की नदियां ना बहती ।
उन जुआ खेलने वालों को भी धर्म-दुहाई देते हैं|
जिनका नहीं कसूर, उन्हें क्यों लोग बुराई देते हैं।

शक्‍ितसिंह जा मिला अकबर से, ये बातें चुपचाप की थी ।
मानसिंह भी मिलने आया, ये तो घडियां मित्र-मिलाप थी||
घर आये का किया निरादर, भूल अपने आप की थी।
सर में दर्द बताया गलती यो महाराणा प्रताप की थी||
जख्म के ऊपर फोवे जहर के नहीं दिखाई देते हैं।
जिनका नहीं कसूर, उन्हें क्यों लोग बुराई देते हैं।

पृथ्वीराज संयोगिता (उसकी भतीजी) को, जो जबरन जा उठाता ना।
सपने में भी सलाऊदीन को, जयचन्द यहाँ बुलाता ना|
होकर के पथभ्रष्ट कमठ गुरु, अपना दरस गिराता ना।
गजनी का सुल्तान यहाँ से, बच के जिन्दा जाता ना।
ऋषि विचारक चाल ऐसी घर लुटे लुटाई देते है।
जिनका नहीं कसूर, उन्हें क्यों लोग बुराई देते हैं।

भूल हुई जो पश्चाताप की, वो शब्द सुनाये देते हैं।
जिनका नहीं कसूर, उन्हें क्यों लोग बुराई देते हैं।।

Tuesday, 10 November 2015

बुतपरस्ती का विरोध करते हैं हिन्दू धर्म के उपनिषद, यजुर्वेद और भगवद गीता!

1) तैत्तिरिया उपनिषद, अध्याय 4, मंत्रा नंबर 19 - "न तथ्यप्रतिमास्ति"!
2) यजुर्वेद अद्ध्याय 32, मंत्रा नम्बर 3 - "न तथ्यप्रतिमास्ति"!

अर्थात उस ईश्वर की उस भगवान की कोई प्रतिमा नहीं, कोई फोटो नहीं, कोई पेंटिंग नहीं, कोई बुत नहीं|

3) भगवद गीता, अध्याय 7, मंत्रा 20 - जिनकी इच्छाओं ने भौतिकवाद का रूप ले लिया है, वो लोग बुतपरस्ती करते हैं
4) भगवद गीता, अध्याय 7, मंत्रा 21 - अगर आप काल्पनिक और झूठे भगवानों की पूजा करोगे तो भगवान तुमको झूठे भगवानों की दुनिया के अंधकार में ही भेज देंगे|

इन हिन्दू धर्म की किताबों में साफ़ लिखा हैं कि मूर्तिपूजा गलत है परन्तु फिर भी हिंदुत्व में पसरे पाखंडी (शुद्ध स्पष्ट हिन्दू गुरुवों को छोड़ के) मूर्तिपूजा के जरिये कमाई के गोरख-धंधे चलाते हैं और वो भी इतने बड़े कि भारत के कुल सालाना बजट से ज्यादा इनका टर्नओवर रहता है|

सोचने वाले सोचते रहो कि धर्म के असली ज्ञान के साथ जीना है या धर्म के नाम पर व्यापार करने वालों द्वारा रोज-रोज उतारे जाने वाले नए-नए काल्पनिक भगवानों के साथ?

मुझे ख़ुशी है कि मैं हिन्दू धर्म की मूल भावना का अनुसरण करता हूँ और बुतपरस्ती नहीं करता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 9 November 2015

जातिपाति की सड़ांध मारते अनुपम खेर और भारतीय मीडिया!

अभी श्रीमान अनुपम खेर जी ने दो-चार दिन पहले इनटॉलेरेंस के मुद्दे पर राष्ट्रपति भवन तक "वाक फॉर नेशन" लांच किया और उसमें कश्मीर से विस्थापित पंडितों का मसला उठाया।

ऐसे ही जब-जब कश्मीर से विस्थापितों की बात होती है तो भारतीय मीडिया की तमाम प्रिंट एंड इलेक्ट्रॉनिक रिपोर्ट्स में भी सिर्फ कश्मीरी पंडितों का ही नाम आता है।

क्या वाकई में कश्मीर से सिर्फ पंडितों को ही खदेड़ा गया है? खदेड़ने वालों का हिन्दू धर्म की सिर्फ इसी एक जाति से ही बैर है या वहाँ हिन्दू धर्म की अन्य जातियाँ भी बसती हैं? और अगर अन्य जातियाँ भी बसती हैं तो क्या उनको नहीं खदेड़ा गया? और अगर उनको भी खदेड़ा गया तो फिर यह सिर्फ एक जाति विशेष के ही विस्थापन का जिक्र क्यों होता है, किया जाता है और वो भी अनुपम खेर जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी और सुलझे व्यक्तित्व से ले खुद को भारत के लोकतंत्र का चौथा खम्बा क्लेम करने वाले मीडिया द्वारा?

और इसपे भी कमाल तो यह है कि जनाब अनुपम खेर उस पार्टी की वकालत करने उतरे थे जिसका नारा ही "हिन्दू एकता और बराबरी" होता है। तो ऐसे में वो सिर्फ हिन्दू की एक जाति के उत्पीड़न तक कैसे सिमित रह सकते हैं, उन्हें हिन्दू होते हुए सारे हिन्दू ना दिखने की बजाय अकेली एक जाति क्यों दिखती हैं? लगता है यह "हिन्दू एकता और बराबरी" भी नारा नहीं, जुमला ही होता होगा इनके लिए।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राजकुमार सैनी को पत्थर मारने वाले अभियुक्तों में 11 सैनी और 1 नाई हैं!

अभी पिछले महीने ही जाट-विरोध की फायर-ब्रांड कुरुक्षेत्र से भाजपा सांसद श्रीमान राजकुमार सैनी साहब पर गाँव सीवन, जिला कैथल में पत्थर पड़े थे और आपको याद होगा कि सैनी साहब ने इसका इल्जाम भी तोते की तरह रटी-रटाई जुबान में जाट समाज पर मढ़ा था?

पता चला है कि जनाब पर हुई इस stone-pelting (पत्थर मारना) में नामजद अभियुक्तों में 11 अभियुक्त सैनी समाज के ही हैं और बारहवां अभियुक्त नाई समाज का है|

मतलब खुद सैनी समाज इन जनाब की इन उल-जुलूल हरकतों से इतना उक्ता गया है कि इससे पहले कि इन जनाब की इन बेहूदगियों की वजह से सैनी और जाट समाज का भाईचारा बिगड़े, सैनी भाई ही इनको पत्थर मारने लगे हैं|

चलो इससे यह तो सुकून हुआ कि राजकुमार सैनी कितना ही जातिपाति का जहर उगल लेवें, परन्तु इस बेहूदगी में खुद सैनी समाज इनके साथ नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणवियो बाहर आओ इस जाट बनाम नॉन-जाट से, क्योंकि इसके चक्कर में तुम्हारी हरयाणवियत दम तोड़ रही है!

बिहार में मात्र 'बिहारी बनाम बाहरी' का नारा ही चुनाव की हवा पलट देता है और प्रधानमंत्री के कद के आदमी की भी हवा निकाल देता है| यह होता है एक राज्य की एथिकल आइडेंटिटी के प्रति उनके लोगों के अभिमान और स्वाभिमान का जादू और उसकी ताकत|

और एक हम हरयाणवी हैं, हमारे ऊपर ऐसे लोग सीएम थोंपे गए हैं जो हरयाणवियों द्वारा बिना विरोध के सीएम स्वीकार करने पर भी, हमारा शुभचिंतक होने की बजाये हमें ही कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर कह के हम पर चुटकी लेते हैं|

कमांडेंट चौधरी हवा सिंह सांगवान जी और उनकी टीम जैसे आम हरयाणवी तो फिर भी लगातार सीएम की इस बात का विरोध करके अपना फर्ज निभा रहे हैं परन्तु बात तो तब बने जब सारे हरयाणवियों की हरयाणत जागे| या कम से कम हर कौम से एक-दो, एक-दो हवा सिंह सांगवान सीएम दवारा हरयाणवियों के इस अपमान पे उन पर गरजे| क्या सिर्फ जाट ही अकेले हरयाणवी हैं, आप हरयाणा में जन्मे और मूल रूप से इस मिटटी के बाशिंदे दलित-ओबीसी या जाट के अतरिक्त अन्य कृषक व् व्यापारिक जातियां हरयाणवी नहीं?

अब तो बिहार के लोग जो हमारे यहां नौकरी-रोजगार करने आते हैं उन्होंने भी इनको अपनी औकात बता दी, आप कब उठोगे? जे.पी. जी ने कहा था कि जिन्दा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करती|

क्या हरयाणा का दलित-ओबीसी-कृषक समाज बिहार के दलित-ओबीसी-कृषक समाज से भी कमजोर है या अपनी हरयाणवी आइडेंटिटी को ले के स्वाभिमानी नहीं है? या फिर जिन लोगों को बिहारी दलित-ओबीसी-कृषक समाज ने उखाड़ बाहर किया, उन्हीं लोगों द्वारा हरयाणा में फैलाया गया जाट बनाम नॉन-जाट का जहर आप पर इतना गहरा छाया हुआ है कि आपको ना तो यह जहर पिलाने वाले दिख रहे और ना ही इस जहर की आड़ में आपकी हरयाणत पर चुटकी लेने वाले हरयाणा सीएम जैसे गैर-हरयाणवी दिख रहे?

और हरयाणा के अहीर-यादव को तो लालू यादव जी से प्रेरणा ले के सीएम द्वारा हरयाणत के इस अपमान पर एक पल में खड़ा हो जाना चाहिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जय माँ काली, हरयाणे वाली!

बोंधु बोला, "जय माँ काली कलकत्ते वाली!"

हरयाणवी बोला, "जय माँ काली, हरयाणे वाली! जिसको घर तू उस घर हर दिन दिवाली!"

बोंधु चौंक के बोला भाई यह हरयाणा में कौनसी "माँ काली" आ गई?

हरयाणवी ने कहा हमारे यहाँ भैंस को "माँ काली" बोलते हैं। जिसके घर यह हो उस घर कभी कर्जा नहीं चढ़ता, घर में दूध से ले के पैसे की कमाई की कोई कमी नहीं रहती। हरयाणवी बोला तू बता तुम्हारी "माँ काली" जिसके घर हो उस घर देखी है कभी दूध देती या कमाई से उस घर को भर्ती?

हरयाणवी के तर्क के आगे बेचारा बोंधु गस खा के गिर गया।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जंगलराज के सिद्धांत पर चलती है आरएसएस!

आरएसएस कितने बड़े जंगलराज के सिद्धांत पर चलती है इसका नमूना संघ प्रमुख गोलवलकर द्वारा 8 जून, 1942 में आरएसएस. के नागपुर हेडक्वार्टर पर दिए गए इस भाषण में साफ़ झलकता है – “संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जाएगा।”

तो क्या इसका मतलब "जंगल में दिमाग नहीं होता, इंसान में होता है", "इंसान में भावना और हृदय होता है जंगली में नहीं" आदि-आदि आध्यात्मिक तर्कों से जंगली और इंसानियत को अलग-अलग दिखाने वाले मानवीय सभ्यता और अनुभूति कहे जाने वाले इन तथ्यों की थ्यूरीयों और मनोविज्ञान को आरएसएस नकार के, जंगलराज की पद्द्ति पर चलता है? कम से कम इनके फॉउंडिंग गुरु का इंटेलेक्ट तो यही कहता है।

मतलब इसके साथ ही यह जनाब इस बात को भी सत्यापित करते थे कि ब्रिटिश रुपी शक्तिशाली हम शक्तिहीन भारतियों पर राज कर रहे हैं, जुल्म कर रहे हैं तो उसमें उनका कोई दोष नहीं। कमाल है ऐसी सोच वाले देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति का जुमला उठा कैसे लेते हैं, मुझे तो सोच के अचरज होता है।

इसका एक संकेत और साफ़ है कि कल को अगर हम फिर से गुलाम बन गए तो यह लोग "अपने गुरु की इस परिभाषा" के अनुसार सबसे पहले गुलामी स्वीकार करने वालों में होंगे। यह है इनकी थोथी कोरी जुमलों वाली राष्ट्रवादिता की परिभाषा।

इससे यह बात भी समझी जा सकती है कि बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री बार-बार क्यों जंगलराज-जंगलराज पुकार रहे थे, शायद इनकी खुद की जंगलराज की थ्योरी जनता की नजर में ना चढ़े इसलिए।

फूल मलिक

Sunday, 8 November 2015

बिहार इलेक्शन परिणाम पर मोदी जी की अतंर्वेदना कराह रही है, कुछ ऐसे!

गाने की तर्ज: "कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो!"

अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,
क्या कहना है, क्या सुनना है, मोदी को सब पता है, तुमको कुछ ना पता है|
पाकिस्तान में पटाखा फुटा है, और काऊ शर्मिंदा बनी है|

........................ ख़ामोशी दा म्यूजिकल ........................

बस एक जुमले हैं, बस एक सेल्फ़ी-बाबू हैं|
अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,

कितने सयाने निकल-निकल के, मनोहर खट्टर जैसे बोल घड़-घड़ के,
बीफ पे लेक्चर झाड़ें थे पागल, कंधों से ऊपर अक्ल की गागर, अधजल छलके-छलके!
बिहार तक पहुंचे टहलते-फिरते, भगवे के रंग में ढलते-ढलते,
बीफ पे लेक्चर झाड़े था पागल, चले था कोई काऊ की पूंछ पकड़े-पकड़े!

........................ ख़ामोशी दा म्यूजिकल ........................

और इस पल में कोई नहीं है,
बस एक जुमले हैं, बस एक सेल्फ़ी-बाबू हैं|
अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,

सुलगी-सुलगी जनता, बहकी-बहकी समता,
धधकते-धधकते, धर्म के ठेकेदार आये, पिघले-पिघले सब छन-छन|
सुलगी-सुलगी जनता, बहकी-बहकी समता,
धधकते-धधकते, धर्म के ठेकेदार आये, पिघले-पिघले सब छन-छन|

........................ ख़ामोशी दा म्यूजिकल ........................

और इस पल में कोई नहीं है,
बस एक जुमले हैं, बस एक सेल्फ़ी-बाबू हैं|
अमितशाह कहो, भागवत कहो, नहीं तुम कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो,

सप्रेम - फूल मलिक

Saturday, 7 November 2015

केवल सीमा पर गोली खाना या भगत सिंह की भांति फाँसी पर झूलना ही देशसेवा अथवा देशभक्ति नहीं होती, कहने वाले ध्यान देवें!

1) पान-गुटखा खा कर ना थूकना देश-सेवा नहीं, समाज को साफ़ रखना कहलाता है।

2) अमितशाह और आरएसएस जो करते हैं उसको राष्ट्रभक्ति नहीं, राजनीति कहते हैं। बेशक खुद भले ही अपने आपको सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्त सौ-बार बताते रहें, परन्तु देशसेवा और राष्ट्रभक्ति के आप आसपास भी नहीं।

3) योगी आदित्यनाथ-साध्वी प्राची-बाबा रामदेव-साक्षी महाराज की केटेगरी तुम जो करते हो वो हिन्दुइज्म की सेवा नहीं। क्योंकि अगर तुम लोग वाकई में हिन्दुइज्म की सेवा करते तो हिन्दुइज्म से जाति और वर्ण व्यवस्था को समूल मिटाने पे काम करते। हिन्दुइज्म में सबके लिए बराबरी का मान और व्यवहार सुनिश्चित करके देखो, धर्म अपने आप सुरक्षित और पोषित हो जायेगा।

4) नरेंद्र मोदी जो आप करते हो उसको "जनता का प्रधान सेवक" तो नहीं, परन्तु हाँ "अम्बानी-अडानी का प्रधान सेवक" भले ही कहा जा सकता है।

इसलिए बात-बात पर इस देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति और देशसेवा को हर इस उस ऐरी-गैरी चीज से जोड़ के इतना भी मत दिखाओ कि तुम्हारे यह दावे सुन-सुन के देश की सेना के जवानों को शक होने लगे कि अगर यह जो कह रहे हैं वही देशभक्ति है तो हम क्या झक मराते रहते हैं बॉर्डर पे दिन-रात।

शब्द और उसकी परिभाषा की भी अपनी गरिमा और मर्यादा होती है, उनका ऐसे बलात्कार करना छोड़ दो।

फूल मलिक

जातिय सेकुलरिज्म अपनाओ, धार्मिक सेक्युलरिज्म को कोसने की नौबत ही नहीं आएगी!

मेरा मानना है कि अगर हिन्दू धर्म में जाति और वर्ण-व्यस्था नहीं बनाई गई होती तो कश्मीरी पंडितों को विस्थापन नहीं झेलना पड़ता|

बात कड़वी है परन्तु जो अंतरात्मा से साफ़ होगा उसको जरूर यह अहसास होगा कि अगर जो हिन्दू वर्ण व् जाति व्यवस्था के ऊपरले पायदान पर बैठा है वो इसके सबसे निचले पायदान पर इन ऊपरलों द्वारा बैठा दिए गए दलित-शूद्र-ओबीसी वर्ग को अपने से ऊपर का ना सही परन्तु अपने बराबर समझने का भी व्यवहार रखे तो कश्मीरी पंडित तो क्या किसी भी हिन्दू के उत्पीड़न पर हर हिन्दू उठ खड़ा होगा|

इसलिए अपनी अंदर की कमियों की वजह से पनपने वाली प्रोब्लम्स को धार्मिक सेक्युलरिज्म के नाम मत मढ़ो और सबसे पहले जातीय सेक्युलर बनो, हिन्दू और हिन्दू धर्म स्वत: सुरक्षित और अजेय हो जायेगा| धार्मिक कटटरता उन्हीं की चली है जो अपने धर्म के अंदर सेक्युलर रहे हों, फिर चाहे वो ईसाई हों या मुस्लिम| वो क्या ख़ाक धार्मिक कट्टर बनेंगे जो अपने धर्म के इंसान के साथ रंग-नस्ल-वर्ण-जाति सरीखी कटटरताएँ निभाते आये हों| और आज भी ना ही इस सिलसिले को रोकने पर कुछ करते हों|

और अगर इस जातिवाद और वर्णवाद को हिन्दू धर्म के ऊपरले पायदान पर बैठे लोग खत्म नहीं करवा सकते तो सेक्युलरिज्म के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाना और लोगों को कोसना और रोना छोड़ो| वर्ण व् जाति व्यवस्था के भेदभाव संबंधित विचाधारा और साहित्य को त्यागो, हिन्दुइज्म स्वत: सुरक्षित और अजेय हो जायेगा!

मानवता का सिद्धांत है कि जिस आदमी से तुम सामान्य परिस्थिति में सही व्यवहार नहीं कर सकते, उसको मानवता में बराबरी का दर्जा नहीं दे सकते, आपातकाल में उसकी मदद तो क्या आप उसकी सहानुभूति भी नहीं पा सकते|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक
 
 

दहेज़ की एक एडजस्टमेंट यह भी हो सकती है!

भारत में दहेज का दावानल कितना क्रूर है इसका इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे यहां दहेज़ की वजह से होने वाली हत्याओं जिसमें ख़ुदकुशी से ले कत्ल तक शामिल हैं की दर 'एक मृत्यु प्रति घंटा' है| भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है जहां दहेज़ की वजह से होने वाली हत्याओं की दर सबसे ज्यादा है|

हालाँकि इस समस्या का सबसे बड़ा हल तो यही है कि ना दहेज़ लो और ना दो| वैसे आज के बदले माहौल और दहेज कानून के गलत प्रयोग के कारण ऐसे मामले भी बहुत देखे जा रहे हैं जिनमें लड़की पक्ष लड़का पक्ष को बेवजह भी टार्चर करता है, परन्तु ज्यादा संगीन और गंभीर पहलु दहेज़ की वजह से वधुओं की हत्या या आत्महत्या है|

फिर भी एक ऐसा हल भी इस समस्या का है जो आधुनिक भी कहा जा सकता है और इस समस्या से निजात पाने में बहुत सार्थक भी और वो है ब्याह-शादी में पार्टियों-समारोहों-आयोजनों और अपनी पहुँच से बाहर जा कर, दोनों पक्षों द्वारा भोज-आयोजन और बारात के रूप में लोगों को भोज करवाना, बंद करके ऐसे फंक्शन्स पर आने वाले खर्च को दोनों साइड्स इकठ्ठा सीधे वर-वधु को दे देवें|

इस पर आज के दिन अमूमन गरीब-से-गरीब परिवारों का भी पांच-दस लाख और एवरेज परिवारों का बीस लाख व् अमिर परिवारों का तो काउंट भी ना किया जा सके इतना इन्वेस्टमेंट रहता है जबकि इस इन्वेस्टमेंट का आउटपुट होता है शून्य| हाँ कुछ लोग इसको रिलेशन एंड सोशल बिल्डिंग से जरूर जोड़ के बताते हैं, परन्तु इसके साथ यह पहलु भी नहीं नकारा जा सकता कि किसी के दिवालियेपन की कीमत पे सोशल रिलेशंस नहीं बना करते, बनते हैं तो दुःख देते हैं। और दहेज उन्हीं दुखों में से एक है।

और इसी तरफ मेरा इशारा है| अगर दोनों पक्षों द्वारा यह पैसा जो इस तरह से फिजूल उड़ाया जाता है इसको दोनों इकट्ठा करके नव-दम्पत्ति को सीधे-सीधे दे देवें तो मेरा दावा है कि दहेज की अस्सी प्रतिशत समस्या बैठे-बिठाये हल हो सकती है|

और सोशल एंड रिलेशंस बिल्डिंग की उस नवदम्पत्ति को ही सबसे ज्यादा जरूरत होती है, जो तभी सम्भव है जब उनकी जिंदगी को ना सिर्फ दहेज जैसी समस्या से रहित जीवन दिया जावे अपितु उनको आर्थिक तौर पर भी सुरक्षित किया जावे। और इस राह में आज का शादी-ब्याह पैटर्न ही सबसे बड़ा रोड़ा है, जिसमें दहेज भले ही कम चला जाए परन्तु लोगों को जिमाने के बजट में कटौती ना हो।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 4 November 2015

आखिर हरयाणा-दिल्ली-पश्चिमी यूपी में यह जाट बनाम नॉन-जाट का क्या मसला है?

उत्तरी भारत कभी मंडी-फंडी की पद्द्ति पर नहीं जिया वरन जाटू सभ्यता की पद्द्ति पर जिया है, और आज "मंडी-फंडी अधिनायक थ्योरी" "जाटू सोशल थ्योरी" को रद्द कर खुद को लागू करना चाहती है; बस यही भर है यह मंडी-फंडी द्वारा फैलाया गया जाट बनाम नॉन-जाट का मसला| 

उन्नीसवीं सदी में एक ब्रिटिश समाजशास्त्री हुए श्रीमान आर. सी. टेम्पल (1850-1931), उन्होंने पूरे भारत की नरविज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) का अध्यन किया और अपने शोध में पाया कि जहां बाकी के भारत में मंडी-फंडी की अधिनायक थ्योरी का एकछत्र राज चलता है, इसी की पद्द्ति पर लोग जीते हैं; वहीँ जाट बाहुल्य उत्तरी भारत में इसका बिलकुल विपरीत है| यहां लोग "जाटू सोशल थ्योरी" की खाप लोकतान्त्रिक पद्द्ति से जीते हैं| वो आगे कहते हैं कि "जाटू सोशल थ्योरी" इतनी ताकतवर और आमजन की प्रिय रही है कि इसने कभी भी मंडी-फंडी अधिनायकवाद को यहां प्रभावशाली नहीं होने दिया|

और जो आज के हरयाणा का सारा माहौल जाट बनाम नॉन-जाट बना खड़ा है यह और कुछ नहीं सिवाय मंडी-फंडी सोशल थ्योरी बनाम जाटू सभ्यता सोशल थ्योरी की लड़ाई के| आज की इस लड़ाई में जहां जाट शांत और प्रतिक्रियाहीन सा दीखता है वहीँ मंडी-फंडी पूरी आक्रामकता से जाटू सभ्यता के प्रभाव को निष्क्रिय करने में तल्लीन है| मंडी-फंडी यहां जाटू सभ्यता को हटा अपनी पद्द्ति लागु करना चाहता है, और इसीलिए उसने नॉन-जाट के नाम पर हर वो समाज भी तोड़ने की कोशिश कर रखी है जिसको यह खुद कभी शूद्र तो कभी दलित तो कभी अछूत तो कभी ओबीसी ठहराते, लिखते और कहते आये हैं| और ताज्जुब की बात तो यह है कि यह सब लोग इनके इस जाल से सम्मोहित चल रहे हैं|

लेकिन मंडी-फंडी यह नहीं जानते कि जो "सोशल इकनोमिक मॉडल" जाटू सभ्यता रखती और बरतती आई है वो ना ही तो इनके पास है और एक पल को जाटू वाले की कॉपी करके ऐसा ही कुछ करना भी चाहें तो कभी नहीं कर सकते, क्योंकि उसको अपनाना इनके जींस में ही नहीं है|

इन दोनों बेसिक मॉडल में जो फर्क हैं और जो ना सिर्फ जाट के लिए अपितु मंडी-फंडी के बहकावे में आने वाले नॉन-जाट के लिए भी जानने जरूरी हैं वो इस प्रकार हैं:

1) खाप सोशल थ्योरी "सीरी-साझी" यानी गूगल जैसी कंपनी के वर्किंग कल्चर "पार्टनर" की संस्कृति पे सदियों से चलती आई है जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी सोशल थ्योरी का एकछत्र राज है यह लोग वहाँ "नौकर-मालिक" की पद्द्ति पर चलते हैं और चलते आये हैं|

2) खाप अथवा जाटू सोशल थ्योरी का अपना एक "विलेज इकनोमिक मॉडल" रहा है जिसके तहत हर गाँव एक स्वतंत्र गणराज्य व् लोकतंत्र के साथ-साथ उन्मुक्त आर्थिक समर्थता का मॉडल होते हुए "गाँव" की जगह "नगरी" कहलाता आया है| जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी थ्योरी चलती आई है, वहाँ सिर्फ इन्हीं लोगों की अधिनायकवादी (totalitarian) सामंती चलती आई है और आज भी मौजूद है|

3) जहां जाटू सोशल थ्योरी में जाट किसान अपने सीरी के साथ (स्वतंत्र लिखित कॉन्ट्रैक्ट के तहत) कंधे-से-कंधा मिला के काम करता आया है वहीँ मंडी-फंडी सिस्टम में खेत के किनारे खड़ा हो के नौकरों से (बंधुआ मजदूरी के तहत) काम लेने की संस्कृति रही है| और जहां-जहां यह आज भी एकछत्र हैं, वहाँ ऐसा ही वर्किंग कल्चर है|

4) जहां जाटू सभ्यता की संस्कृति में एक खाप पंचायत में किसी भी जाति सम्प्रदाय का आदमी पंच, अध्यक्ष या आयोजक आदि होता/बनता आया और आज भी होता/बनता है, वहीँ मंडी-फंडी सभ्यता में सिर्फ यही लोग पंचायत में पंच, अध्यक्ष या आयोजक हो सकते हैं| इसके प्रत्यक्ष उदहारण देखने हैं तो इनके एकछत्र राज वाले भागों में जा के देखे जा सकते हैं|

5) आज अगर उत्तरी भारत (जाट-बाहुल्य क्षेत्र) में बाकी भारत की अपेक्षा धार्मिक कर्मकांड-पाखंड-ढोंग की अति वाले कुकृत्य जैसे कि दलितों की बेटियों को मंदिरों में देवदासी (चिंगारी और गिद्द जैसी फिल्म देखें) बनाना, लड़की के व्रजस्ला होते ही मंदिरों के गर्भगृहों में उसका भोग लगाना ('माया' फिल्म देखें), विधवा को पुनर्विवाह की जगह विधवाश्रम भेजना (वाटर एवं दामुल फ़िल्में देखें) आदि बिलकुल भी नहीं और बाकी भी एक नियंत्रित अवस्था यानी अपनी हद की परिधि में रही हैं तो यह सिर्फ जाटू सभ्यता के प्रभाव की वजह से| ऊपर से जाट आर्य-समाज की विचारधारा ने भी इनके मनमाने पाखंडों को उत्तरी भारत में पैर पसारने से बहुत हद तक रोका है| और यही वो उत्तेजना और बेचैनी है कि आज यह जाटू सोशल थ्योरी को जितना हो सके उतना बदनाम कर रास्ते से राह के रोड़े की भांति हटाना चाहते हैं|

ऐसे ही बहुत सारे तुलनात्मक उदाहरण हैं जो इन दोनों सोशल थ्योरीज़ को एक दूसरे के विपरीत खड़ा करते हैं| जिन पर एक खुली बहस भी की जा सकती है| इसको ज्यादा ना खींचते हुए अब आता हूँ कि आखिर जब जाटू सभ्यता ना ही तो मंडी-फंडी सभ्यता की तरह आज के दिन इतनी आक्रामक दिख रही और ना ही ऐसे प्रोपेगैंडे रच रही जैसे कि मंडी-फंडी इसके खिलाफ रच रही है तो जाटू सभ्यता फिर भी इतनी जकड़न में क्यों आई हुई है?

इसका सबसे बड़ा कारण है कि जाटों में बहुत से ऐसे लोग हैं जो मंडी-फंडी सभ्यता के जातिपाती से ले छुआछूत और ऊँच-नीच के पाश को अपने गले में डाले चल रहे हैं| इसका परिणाम यह होता है कि इससे मंडी-फंडी को दलित-पिछड़े के आगे जाट को उनका उसी चीज के लिए दुश्मन बताने का प्रोपेगेंडा फ़ैलाने का मौका मिलता है जो वास्तव में इन्हीं की देन है| यानि जाटों की यह नादानी इनको ही मंडी-फंडी का सॉफ्ट-टारगेट बनाती है|

दूसरा सबसे बड़ा कारण है खाप जैसी सोशल इंजीनियरिंग मॉडल में अपग्रेडेशन कर इन द्वारा अपने लिए एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी ना खड़ी करना| इसको कुछ इस तरह समझें| जैसे पुराने मकानों में चिमनी वाले चूल्हे होते थे, और ताकि बरसात का पानी या पक्षी की बीट वगैरह अंदर ना आ सके इसलिए वो चिमनियां एक छतरी से ढंकी जाती थी| आज की खापों की हालत यही हो रखी है कि इन्होनें उस चिमनी को एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी रुपी छतरी से नहीं ढंका हुआ| इसलिए मंडी-फंडी का खड़ा किया हुआ एंटी-जाट मीडिया लेता है और उसमें प्रोपेगेंडा रुपी पानी की दो-चार बूँदें टपका जाता है और नीचे ठीकठाक चलते उस चूल्हें में वो बूँदें गिरने से सब धुआं-धुआं हो जाता है|| अगर कोई इस चिमनी पे छतरी ढंक दे तो सारी समस्या हल|

तीसरा सबसे बड़ा कारण है कि शहरी जाट ग्रामीण और ग्रामीण जाट शहरी से तालमेल नहीं कर रहा| इसको कुछ इस तरीके से समझें| एक कमरे में छत से लगता परन्तु चार-एक फुट नीचे टांड (शेल्फ) होता है| अब मान लो ग्रामीण जाट तो बैठा है उस कमरे के फर्श पे यानी धरती पे और शहरी जाट तरक्की करके जा बैठा है उस टांड पे| दोनों के स्तर में इतना फर्क तो आया कि शहरी जाट ग्रामीण से ऊपर उठ गया परन्तु हैं दोनों उसी कमरे में और दोनों के ऊपर जो छत है वो है मंडी-फंडी की| जिसको तोड़ने के लिए दोनों की एकता और तालमेल जरूरी है| वो तालमेल स्वत: तो हो ही नहीं रहा, खुद जाट कर नहीं रहे और इसीलिए परेशान हुए जा रहे हैं, मंडी-फंडी की जकड़न में घुट बैठे हैं| अगर शहरी जाट टांड से नीचे उतर आये और ग्रामीण थोड़ा ऊपर हाथ बढ़ा के उनको सहयोग करे तो जब चाहें इस मंडी-फंडी के छत रुपी जिंक को तोड़ सकते हैं|

जाट बस इतना मात्र कर लेवें, और अपनी शुद्ध बिना मिलावट की "दादा खेड़ा" और जातिपाती से रहित शुद्ध खाप परम्परा को शुद्ध करके उसको पकड़े रहे तो मंडी-फंडी और जाटों के खिलाफ इनके प्रोपेगण्डे खुद ही अपनी मौत मर जायेंगे|

इन चीजों को करने का इतना फायदा और होगा कि सारा भले ही ना आये परन्तु आज के दिन मंडी-फंडी के बहकावे में चढ़ जो दलित-ओबीसी जाट से दूर जाता सा प्रतीत हो रहा है, असल में जा रहा है वो अधिकतर वापिस आ जायेगा|

अब कोई जाट यह कहे कि क्या दलित-पिछड़े को खुद नहीं दीखता कि वो किधर जा रहे हैं, तो जवाब यही है कि आप पहले उनके ऊपर से मंडी-फंडी के जाल का आवरण हटाओ, तभी तो वो आपको और आपके साथ रहने से उनके फायदे देख पाएंगे| और यह आवरण उनपे किस हद तक हावी है इसको फसलों के धरती में मिला दिए गए भाव से समझा जा सकता है| इस सरकार के एक साल में ही दलितों पर दोगुने हुए उत्पीड़न व् अत्याचारों (पिछले साल जहां 470 के करीब दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए थे वहीं इस साल 830 के करीब हुए हैं) से समझा जा सकता है|

ओबीसी और अन्य किसानी जातियों को मंडी-फंडी ने जाट के इतना खिलाफ कर दिया है कि इस नफरत में उनको फसलों की लागत तक पूरी ना कर देने वाले भाव की वजह से अपने घरों की खस्ता हाल होती जा रही इकनोमिक हालत भी 'जाट-विरोध' के आगे नहीं दिख रही| और शायद दिखने भी लगी है तो इसके खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं| वह चुप्पी भय की भी हो सकती है या अनिश्चितता की भी हो सकती है| और अनिश्चितता यह हो सकती है कि शायद वो जाट के उठ खड़ा होने की इंतज़ार कर रहा हो कि जाट उठे तो उसके सुर में मैं भी सुर मिलाऊँ|

दलित भी शायद 'मंडी-फंडी' के षड्यंत्र को भांप चुका है, परन्तु शायद वो इंतज़ार कर रहा है कि कब जाट "मंडी-फंडी" की दी हुई जातिपाती और ऊँच-नीच की मानसिकता से बाहर निकले और हम एक हों|

इसलिए जाट समाज को इतना तो जरूर करना होगा कि मंडी-फंडी के आवरण को तोड़ो| बेशक इसके लिए मंडी-फंडी की भांति जाट को आक्रामक होने की जरूरत नहीं, बस जाट का उठ के इन चीजों के प्रति बोलना शुरू कर देना और चल देना ही काफी होगा| इसी से "मंडी-फंडी" के हाथ-पाँव फूल जायेंगे, इनकी बुग्गी सी उलळ जाएगी| बुग्गी सी उलळ जाना को हिंदी में औंधे मुंह गिरना कहते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक