Monday, 16 November 2015

जाति-कौम का प्यार, स्वाभिमान, अभिमान और उसकी प्रकाष्ठा!

अपने आपको यदाकदा जाट जाति से होने पर, उसपे अभिमान होने पर इतराने वाले नादान जाट उस दिन खुद को जाति-प्रेमी या स्वाभिमानी कहना जिस दिन ब्राह्मणों की तरह देश की कोर्ट द्वारा देशद्रोही साबित होने पर फांसी तोड़ दिए जाने वाले नत्थूराम गोडसे की तरह अपनी कौम के अपराधी लोगों को भी राष्ट्रभक्त बना के पेश करना सीख जाओ।

अब कोई जाट मुझे यह मत बोलना कि देशद्रोही हमारे लिए देशद्रोही है फिर वो चाहे जिस कौम का हो। यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि बहुत से अंधभक्त जाट भी बने हुए हैं और देश की कोर्ट में साबित हो के कबके फांसी तोड़े दिए जा चुके देश के अपराधी को देशभक्त ठहराने वालों के साथ लगे हुए हैं।

फिर अगर ऐसी ही बात है तो देश की तमाम पुरानी रियासतों और उनके राजाओं को भी अंग्रेजों का साथ देने की शिकायत से मुक्त कर दिया जाना चाहिए, और उनका आदर-मान वापिस स्थापित किया जाना चाहिए, नहीं?

विशेष: कोई ब्राह्मण भाई मेरी इस पोस्ट को अन्यथा ना लेवे, क्योंकि मैं आपके अंदर कौम के प्रति अभिमान और प्रतिष्ठा का जो अनूठा जज्बा है उसका उदाहरण जाट समाज के समक्ष रख रहा हूँ।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 15 November 2015

Natthuram versus Yakub

जब कुछ लोग याकूब मेमन की funeral को attend कर रहे थे तो उसी वक्त कुछ अवसरवादी व तथाकथित देशभक्त लोग भोंक रहे थे कि इन लोगों को पाकिस्तान भेज दिया जाना चाहिए| इस पर उनका तर्क था कि इन लोगों को भारत की न्यायप्रणाली पर विश्वास नहीं है| यानि कि जिस आदमीं को हमारी न्याय-प्रणाली ने आतंकवादी करार देकर फांसी दे दी हो, उससे कैसी हमदर्दी? ........आदि-आदि!

पर पिछले दो-तीन दिन से वही लोग उसी नयाय-प्रणाली को मजाक बना नाथूराम गोंडसे को माँ भारती का पुत्र व देशभक्त कहते-गाते फिर रहे हैं| .........

क्या इन तथाकथित देशभक्तों के लिए किसी दूसरे देश (क्योंकि पाकिस्तान तो यह इनके उधर साइड वालों को भेजते हैं, तो खुद क्या जायेंगे वहाँ) के visa का प्रबंध भी है या नहीं .......... क्योंकि नत्थूराम गोडसे को भी हमारी न्यायप्रणाली ने ही देशद्रोही ठहराते हुए फांसी दी थी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास!

शायद इसी को कहते हैं कि गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास, ना गंगा मिली और ना रही जमुना की आस|

सत्ता में आते ही केंद्र से जाट आरक्षण रद्द किया, सिर्फ इसलिए कि इससे बिहार के यादव को यह कह के खुश कर लेंगे कि देखो जो तुम्हारी सबसे ज्यादा नौकरियां बँटवाते हमने उन जाटों को ओबीसी लिस्ट से बाहर कर दिया है| और ऐसे इनको यादव वोट मिल जाता| राव इंद्रजीत को वहाँ इसी बात को फैलाने के लिए ले जाने वाले थे, परन्तु राजनीति के "भाग़ड बिल्ले" लालू यादव के आगे इनकी एक ना चली| गंगा की आस सा यादव वोट भी गया और इधर जाट को रूष्ट करके उसके वापिस आने की जमुना रुपी आस खुद अपने ही हाथों खो ली|

सुगबुगाहट है कि बीजेपी और आरएसएस, हरयाणा को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाड़ा बना के अब पछता रहे हैं| परन्तु इसका यकीन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक राजकुमार सैनी और मनोहर लाल खट्टर जैसों के एंटी-जाट इरादों को यह पब्लिकली बंद नहीं करवाते|

सुनने में आ रहा है कि अब जाट लोस का डैमेज कंट्रोल करने के लिए नई कवर-अप स्ट्रेटेजी आने वाली है, जिसका टैग होगा कि बीजेपी और आरएसएस ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा+खत्री के साथ-साथ राजपूत और जाट को जनरल में रख के देश की सबसे सक्षम और बड़ी कौमों को एक रखना चाहती थी इसलिए जाट का आरक्षण रद्द करके उनको ओबीसी नहीं बनने दिया|

खैर जो भी होने वाला है फ़िलहाल जिस तरीके से हरयाणा में इनके नुमाइंदे दिन-प्रतिदिन जाट समाज पर जहर उगलने में मसगूल हैं, उससे नहीं लगता कि जल्दी ही इसपे कुछ एक्शन दिखेगा| जाटों की नाराजगी का आलम इतना बढ़ चूका है कि आरक्षण रद्द होने से जो नाराजगी पूरे भारत के जाट की बढ़ी थी उसमें इधर हरयाणा में इनके नुमाईन्दों द्वारा जाट बनाम नॉन-जाट के खड़े किये अखाड़े के चलते और इजाफा होता जा रहा है और इसको ले के पश्चिमी यूपी और पंजाब तक का जाट भी इनसे क्रुद्ध और उबलता देखा जा रहा है|

तो क्या ऐसे में पंजाब और यूपी के 2017 में आने वाले चुनावों के वक्त कुछ ऐसा ही सगूफा फेंका जाने वाला है जिसकी सुगबुगाहट सुनी गई है?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक नोबल पुरस्कार वीजेता पाकिस्तानी की सर छोटूराम को श्रद्धांजलि

'किसान - कल्याण - कोष ' के उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए यह कहा गया था के इस के मुख्य उद्देश्यों में से एक उद्देश्य देहात के योग्य छात्रों को उन की आगे की पढ़ाई में सहायता देना हैं | इस से लाभान्वित होने वालों में एक मुसलमान लड़का भी था , जो आगे जाकर विश्वभर के वैज्ञानिको में सर्व प्रसिद्ध हुआ | इस विषय का एक समाचार 14 अगस्त 1995 को पाकिस्तान के एक प्रमुख समाचार पत्र " दी डॉन " में छपा था | जो समाचार शब्दशः इस प्रकार हैं :-
 

" छोटूराम की बहुत बड़ी मदद "

अन्य बहुत से परोपकारी कार्यकर्मों के अतिरिक्त छोटूराम ने '' किसान - कल्याण - कोष " भी स्थापित किया था , जिस में से 25 रुपए या इस से कम मालिया देने वाले छोटे जमींदार के बच्चों को छात्रवृतियाँ दी जाती थी | लाभान्वित होने वालों में पाकिस्तान के ' नोबल पुरस्कार ' प्राप्त डॉ अब्दुस सलाम भी थे | उन के भाई अब्दुल हमीद ने ' दी डॉन ' मे लिखा : " इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि मेरा बड़ा भाई अब्दुस सलाम बुजुर्गों कि दुआओं और सर छोटूराम के किसान - कल्याण - कोष , जिस में से उसे कैम्बरिज विश्व विध्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु 550 रुपए माहवार वजीफा मिलता था , की वजह से इस सदी के दुनिया के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों की गिनती में आ पाया था और सन 1979 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार प्राप्त कर पाया था | सन 1946 में 550 रुपए एक बहुत बड़ी राशि होती थी |
 

"सन 1946 में पंजाब यूनिवेर्सिटी से प्रथम दर्जे में स्नाकोत्तर परीक्षा पास करने के बाद डॉ अब्दुस सलाम आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता था | लेकिन पिताजी के पास उसे विदेश भेजने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे | पिताजी का नाम चौधरी मोहम्म्द हुसैन था जो मूलतान के ' सम्भागीय इंसपैक्टर ऑफ स्कूल्ज़ ' के कार्यालय में कार्यरत थे | उन्हे किसान-कल्याण-कोष , जिसका उपयोग नहीं हुआ था , की जानकारी थी | उन्होने छोटे जमींदार की हैसियत में अपने बेटे के लिए तीन वर्ष तक वजीफा दिये जाने के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया |
फिर अब्दुस सलाम सैंट जोन्स कॉलेज कैम्बरीज़ ( इंगलैंड , अक्टूबर 1946) में प्रविष्ट हो गया और 1948 में एप्लाइड मैथेमेटिक्स में मास्टरज डिग्री प्रथम दर्जे में सर्वप्रथम रह कर प्राप्त कर ली और प्रथम पाकिस्तानी रैंगलर बन गया | कहा जाता हैं कि सलाम ने मास्टर डिग्री दो वर्ष में ही कर ली थी , जबकि वजीफा तीन वर्ष के लिए था | अपने मैंटर की सलाह पर वह रुका रहा और एक और मास्टर डिग्री ले ली - इस बार भौतिकी में ! अंत में अब्दुस हमीद लिखता हैं ; " कठोर परिश्रम के कारण अब्दुस सलाम ने दो वर्ष का कोर्स एक वर्ष में ही पूरा कर लिया और सफल छात्रों की सूची में सब से ऊपर रहा | इसी से फिजिक्स में डोकटरेट और एलेमैंटरी के क्षेत्र में आगे खोज - जिस के लिए अंततः उसे नोबल पुरस्कार मिला - का मार्ग प्रशस्त हुआ | यदि सर छोटूराम ने ' किसान - कल्याण - कोष ' की स्थापना न की होती तो अब्दुस सलाम इतनी ऊंचाइयों तक कभी न पहुँच पता !

राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य, लोकराज लोकलाज से चलता है इसको ना भूलें!

जाटों को आरक्षण चाहिए तो जमीन छोड़ दो! - राजकुमार सैनी

आप माली समाज से आते हैं, जमीनें तो आपके भी पास हैं तो क्या आपने छोड़ दी जमीनें आरक्षण की ऐवज में? रोशनलाल आर्य के समाज के पास भी हैं जमीनें या उन्होंने छोड़ दी?

बाकी जमीनें किसी से जाटों ने खैरात में नहीं ली हैं, जब जाटलैंड एक जंगल हुआ करती थी तो हमारे पुरखों ने अथक परिश्रम से समतल बनाई थी|

वैसे राजकुमार सैनी आप एक बार यह क्यों नहीं कह देते कि व्यापारियों को कर्जा माफ़ी चाहिए तो वो फैक्टरियां छोड़ दें? या फंडियों को आदर-मान चाहिए तो दलित-पिछड़ों को नीच-अछूत कहना छोड़ दें? उनको मंदिरों-कुओं पे चढ़ने दे?

अरे बावले जिस जाट चौधरी छोटूराम की वजह से आज जमींदार कहलाता है कम से कम उसी की लाज रख ले| मंडी-फंडी के हाथों ऐसा भी क्या बिकना कि लोकलाज सब बेच खाई है|

रोशनलाल आर्य साथ ही यह भी बता देते कि जाट कब किस हिन्दू के डंडों से डरे? और किसके सहन करे? हमेशा पाखंड और मंडी-फंडी के विरुद्ध हमने नेतृत्व वाली लड़ाईयां लड़ी हैं और हमें ही डंडे से डराने की घुर्खी घालते हो?
मतलब कुछ भी क्या?

लगता है बेचारे बिहार की हार से बोखला गए हैं और बीजेपी और आरएसएस ने छोड़ दिए हैं जाटों पे भोंकने को खुल्ले| जाट समाज सावधान, सेंटर में बैठे लोग अब बिहार का गुस्सा इधर निकालना चाहते हैं और जाट समाज को दूसरे 1984 में धकेलना चाहते हैं| इससे अपना धैर्य और संयम मत खोना| अपनी ऊर्जा को अपनी कौम को सहेज के रखने में लगाना| हाँ, कानूनी तरीके से जो लड़ाई हो सके इनके खिलाफ वो लड़ना| ज्यादा जरूरत पड़े तो मंडी-फंडी से असहयोग शुरू कर लेना परन्तु इन दो नादानों की वजह से बाकी पिछड़ा समाज से बैर मत बांधना| क्योंकि देर-सवेर यह भटके हुए भी वापिस आएंगे|

इन दोनों जैसे लोगों के लिए बस इतना ही कहूँगा कि तुम लोग आरक्षण मिलने के बाद, नौकरियों से तुम्हारी आमदनी और रोजगार बेशक बढ़ गया हो परन्तु सोच से वहीँ के वहीँ खड़े हो, दोनों के दोनों आज भी पिछड़े ही पड़े हो| तुम जैसे लोगों को मंडी-फंडी पहले भी प्रयोग करता रहा है और आज भी हो रहे हो| और जब तक होते रहोगे तब तक पिछड़े ही कहलाओगे| किसान-कमेरे को साथ ले के चलने की कूबत सिर्फ जाटों में रही और रहेगी, वो तुम यह रवैया बदले बिना कभी हासिल नहीं कर सकते, चाहे जितने तो थोथे धान पिछोड़ लो और जितने बड़े बोल बोल लो|

फिर भी किसी पल लोकलाज आये तो अपने गिरेबान में झाँक के देख लेना कि इस मंडी-फंडी की दी हुई चिंगारी को जाटों पे फेंकते-फेंकते कहीं अपने ही हाथ ना जला बैठो|

विशेष: अंधभक्त बने जाट अब तो आँखें खोलेंगे या अब भी इन्हीं की पीपनी बनके डोलेंगे? निकल आओ इस धर्म के कीड़े से बाहर और कौम की सुध ले लो कुछ| कल को जाट समाज बाकी जाटों से ज्यादा तुमपे थू-थू करा करेगा, जो बीजेपी और आरएसएस में बैठ के भी ना तो इन लोगों के मुंह बंद करवा पा रहे और ना ही इनको छोड़ पा रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 14 November 2015

जाट उलाहना देने की आदत ना डालें, किसी को कोसने पर अपनी ऊर्जा व्यय ना करें!

कल यूँ ही विकिपीडिया पर जा के हरयाणा के पेज पर झाँकनेँ का मौका मिला| देश-राज्यों में जैसे सरकारें बदलते ही उनके रवैये भी बदल जाते हैं ऐसे ही विकिपीडिया पेज पर जब देखा तो करीब 30% जनसंख्या का हिस्सा रखने वाले, शहादत-शौर्य-खेती-खेल-बिज़नेस में 70% से 30% तक की पैठ रखने वाले जाट समाज का नगण्य जिक्र है| पिछली सरकार थी तो इस पेज पर सब कुछ भिन्न था, ऐसा लगता है यह सरकार आते ही ना सिर्फ धरातल पर जाट से भेदभाव हुआ अपितु विकिपीडिया को आदेश दिया गया कि हरयाणा के पेज से और खासकर इसके "इतिहास और ऐतिहासिक हीरो" सेक्शन से जाटों का नाम तो बिलकुल ही मिटा दो| और वही हुआ पड़ा है, गूगल पे जाएँ विकिपीडिया हरयाणा डाल के देखें और पढ़ें|

सोच में पड़ गया कि जब मुझे इसको पढ़के धक्का लगा तो आम जाट युवा इसको पढ़ेगा तो बिफरेगा| तो ऐसे में जो सबसे बढ़िया समझ आया वो यही कि हमें किसी को उलाहना नहीं देना, किसी को नहीं कोसना अपितु हमें अपनी कौम के भीतर इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन नेटवर्क को खुद ही मजबूत रखना होगा| वैसे भी भारत में पैदा हुए उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश मूल के नरवैज्ञानिक (anthropoligist) आर. सी. टेम्पल के अनुसार बाकी भारत में सिर्फ "मंडी-फंडी अधिनायकवाद थ्योरी" चलती आई है, रही है जबकि हरयाणा में इसको "जाटू सोशल थ्योरी" ने टक्कर दी है| तो ऐसे में यह तो अपना फर्ज निभाएंगे ही, जहाँ मौका मिलेगा वहाँ से जाटू थ्योरी और जाट को मिटायेंगे ही|

स्वाभाविक है कि जब जाट-खाप की सोच और थ्योरी मंडी-फंडी से भिन्न रही है तो मंडी-फंडी वर्ग के लेखक व् बुद्धिजीवी उतना ही और उसी हिसाब से जाट-खाप का इतिहास लिखे होंगे या लिखेंगे, जितने से इनको फायदा रहा होगा या हो| और विकिपीडिया का हरयाणा पेज यह साबित करता है कि यह लोग आज भी इसी पथ पर अग्रसर हैं|

और ऐसे में जब जाट-युवा पीढ़ी यह देखती है कि हमारे समाज के इतिहास व् इतिहास के महापुरुषों को इनकी लेखनी में वो तवज्जो नहीं दी गई है, जिसके हम अधिकारी और दावेदार हैं तो जाट युवा-युवती में बेचैनी और किसी मौके पर कुंठा भी होती है कि हमारा इतिहास क्यों छुपाया जा रहा है| सही भी है इन लोगों को इनकी थ्योरी पे चल के महान बनने वालों का इतिहास लिखने और गुणगान करने से फुर्सत हो तो हमारी सुध लेवें| और वो कब और क्यों लेंगे उसके बारे ऊपर बताया| वैसे मैं इनसे इसकी अपेक्षा भी नहीं करना चाहूंगा परन्तु विकिपीडिया ऐसी जगह नहीं कि जिसपे हरयाणा के बारे लिखा गया हो और जाट को ऐसे सिरे से ख़ारिज कर दिया गया हो|
 
ऐसा होने का साफ़ स्पष्ट कारण है "मंडी-फंडी अधिनायकवाद थ्योरी" और "जाटू सोशल थ्योरी" में दिन-रात का अंतर| वाजिब है कि अगर यह "जाटू सोशल थ्योरी" के बारे व् इसकी वजह से बने इतिहास के बारे ईमानदारी से लिखेंगे तो फिर इनकी थ्योरी और हिस्ट्री ठहर ही नहीं पायेगी| या ठहरेगी तो उसका अलग स्थान और मकाम होगा और जाटू थ्योरी का अपना अलग| फ़िलहाल तो कोशिश यह है कि यह थ्योरी जाटू थ्योरी को इसका स्थान देने या छोड़ने की बजाय इसको खाने की फ़िराक में है|
 
इन दोनों थ्योरियों को आप उस कंपीटिशन की तरह ले के चलें जिसको जीतने के लिए प्रतिभागियों के बीच कोई रेस होती है अथवा परीक्षा होती है| सामान्य सी बात है एक प्रतिभागी थोड़े ही अपने प्रतिध्वंधी को आगे निकलने देगा|
शायद हमें एक ब्रिज की भी जरूरत है जो कि आजतक दोनों थ्योरियों के लोगों की तरफ से बनाने के नगण्य ही प्रयास हुए हैं| परन्तु ब्रिज से भी जरूरी है कि हम अपनी ऊर्जा को इनको कोसने व् उलाहना देने पर लगाने की बजाय अपने आध्यात्म, बौद्धिकता, इतिहास व् हेरिटेज को ज्यों-के-त्यों व् जहां संसोधन जरूरी हो वो आगे की पीढ़ियों को सौंपने के आधुनिक जरिये बना के अपने अंदर के अभिजात वर्ग को और सुदृढ़ व् सुनिश्चित करें| और इसको एक परम्परा में ढाल दें|

 
आपस में विचार और जानकारी का आदान-प्रदान करते रहें और उसको आधुनिक टेक्नोलॉजी से संकलित करते रहें| बेझिझक हो "जाटू सोशल थ्योरी" पर वर्कशॉप व् सेमिनार आयोजित करने की शुरुवात करें| हमें यह समझ के चलना होगा कि हमें इन मामलों बारे इनपे भरोसा करने की बजाये हमारे खुद के समाज के अभिजात वर्ग, इंटेलेक्चुअल वर्ग को आगे बढ़ाना होगा, उनका प्लेटफार्म बनाना होगा, अन्यथा यह लोग ना हमें छोड़ेंगे और ना ही हमारे इतिहास को|

इनको कभी धर्म के नाम पर, कभी दान के नाम पर दान देने बारे भी जाट समाज को सोचना होगा, क्योंकि इस दान दिए धन से यह लोग लेखन करते आये हैं| और जब धन दे के भी यह हमारे हिस्से का इतिहास नहीं संजो रहे हमारे लिए तो फिर इनको काहे का दान? बेहतर होगा कि जाट समाज अपने धन की दिशा इनको दान देने से पहले अपने इन कार्यों को पुख्ता करने और रखने में लगावे, जिनको यह हमसे धन ले के भी नहीं कर रहे|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 13 November 2015

जाटों को मंडी-फंडी से सीखना होगा कि अपनी कौम के लीडरों और हुतात्माओं को कैसे निर्विवाद सर्वोपरी रखना होता है!

"ब्रिटेन की संसद के बाहर महात्मा गाँधी की प्रतिमा गौरव की बात!" - नरेन्द्र मोदी

यह बात यह जनाब तब कहे हैं जब खुद आरएसएस और बीजेपी गांधी के हत्यारे नत्थूराम को अपना प्रेरणास्त्रोत मानती है| है ना कमाल की बात, इनको गांधी भी चाहिए और गोडसे भी?

जबकि जाट, जो अजित सिंह खेमे का हो गया, जो बंसीलाल खेमे का हो गया, जो देवीलाल खेमे का हो गया, जो बादल खेमे का हो गया, जो कप्तान अमरिंदर खेमे का हो गया, जो नाथूराम मिर्धा खेमे का हो गया या जो हुड्डा खेमे का हो गया; तो मजाल है जो आपस में एक-दूसरे खेमे वाले जाट लीडर की प्रशंसा कर लेवें? हाँ उल्टा पब्लिकली कोसते जरूर मिल जायेंगे| न्यूट्रल रहने का तो शायद स्कोप ही नहीं होता कि चलो भाई अगर तारीफ नहीं कर सकते तो अपनी ही कौम के लीडर के बारे बुरा बोलने की बजाय न्यूट्रल रह लो|

मेरे ख्याल से कौम के हीरो की और कौम के लीडर की दूसरे खेमे में होते हुए भी कैसे इज्जत बना के रखनी है वो कोई मोदी से सीखें| मोदी बनिया जाति से हैं और गांधी भी बनिया जाति से, राजनैतिक विचारधारा भिन्न होते हुए भी गांधी को इज्जत देने से नहीं कतराते| जबकि कोई हुड्डा खेमे का जाट देवीलाल को या अजित खेमे का जाट अगर चौटाला की प्रसंशा करता हुआ मिल जाए तो बवाल हो जाते हैं, अपने खेमे के प्रति उसकी निष्ठां संदेह में घेर दी जाती है|

झूठे हैं हमारे दावे कि हम जाट सबसे ज्यादा कौम के प्रति वफ़ादारी या कटटरता रखते हैं जबकि हमसे ज्यादा आपसी टांग खिंचाई कोई नहीं करता होगा|

मेरे ख्याल से यह एक ऐसा अध्याय है राजनीति का जिसको जाट जितना जल्दी सीख लेंगे, उतना जल्दी अपनी राजनैतिक ताकत को अप्रत्याशित रूप से बढ़ा लेंगे| राजनीति किसी के घर की नहीं, परन्तु कौम का नेता सबका होता है| मंडी-फंडी से और कुछ नहीं परन्तु इतना तो सीख ही सकते हैं|

वोट डालने की चॉइस और कौम के तमाम लीडरों और हुतात्माओं को सम्मान देने को अलग-अलग रखके चलना होगा, वर्ना राजनीति ही जाट-कौम को खा जाएगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"ब्रिटेन की संसद के बाहर महात्मा गाँधी की प्रतिमा गौरव की बात!" - नरेन्द्र मोदी

नत्थूराम गोडसे की आत्मा को धोखा दे दिए हो या उसको बेच खाए हो क्या श्रीमान? इधर आरएसएस और बीजेपी पूरे देश में नत्थूराम गोडसे की जयंती मनाने की तैयारी में है और यह उनके गुण गाये जा रहे हैं जिनको मार नत्थूराम इनके प्रेरणास्त्रोत बने|

क्योंकि काजल की कोठरी अंदर-बाहर दोनों तरफ से तो काली नहीं दिख सकती, फिर भी आप उसके उल्ट खुद ही एक्सपोज हुए जाते हो| धक्के से तुले रहते हो खुद को दोनों तरफ से ही काला दिखाने पे|

अचरज ना करना जनता, अगर नत्थूराम गोडसे जयंती समारोह में श्रीमान गोडसे की स्तुति करते हुए मिल जावें तो|

दीखते-दिखाते भी जिसको ना दिखे उसी को अंधभक्त कहते हैं| अधिनायकवाद यही होता है कि लीडर जिस भी पाले पासा पल्टे बस चुपचाप पलटते जाओ, अपनी विचारक क्षमता प्रयोग मत करो|

यह तो खैर नहीं कहूँगा कि इन द्वारा देशद्रोही का तमगा दे दिया जायेगा, क्योंकि वो तो कानून का काम है, सेल्फ-स्टाइल्ड देशभक्तों का नहीं|

फूल मलिक

बात आस्था या भावनाओं की तो है ही नहीं, क्योंकि!

1) बात आस्था की होती तो चूहे मारने वाली दवा पे रोक होती, क्योंकि वो गणेश का वाहन है| वैसे भी खुद पुजारी ही मंदिरों में अक्सर हाथ में झाड़ू लिए चूहों को गणेश को ही चढ़ाये प्रसाद पर से और सामान्य परिस्थिति में भी भगाते तो सभी ने जिंदगी में देखे ही होंगे?

2) बात आस्था की होती तो सांप मारने वाले और सपेरे जेल में होते, क्योंकि वो शिवजी का कंठहार है|

3) बात आस्था की होती तो पूरे देश में सूअर की पूजा होती और उसके भी मंदिर होते क्योंकि वो विष्णु का वराह अवतार है|

4) बात आस्था की होती तो बंदर प्रयोगशालाओं में ना मरते क्योंकि वो साक्षात बजरंगबली का रूप है|
 

5) बात आस्था की होती तो भैंसे की भी पूजा होती क्योंकि वो ना सिर्फ यमराज वरन शनिदेव का भी वाहन है|
 

6) बात आस्था की होती तो बैल हलों-गाड़ियों में ना जोते और जोड़े जाते, क्योंकि नंदीमहाराज शिवजी भगवान की सवारी हैं|

बात इतनी भी नहीं है कि गाय को सिर्फ मुस्लिम ही खाता या काटता है, क्योंकि भारत के सबसे बड़े 5 कसाईखानों में से 4 तो अकेले स्वर्ण हिन्दूओं के ही हैं, सिर्फ एक मुस्लिम का है| और मुस्लिमों से कहीं अधिक संख्या में हिन्दू गाय का बीफ खाते रहे हैं और आज भी खाते हैं|

तो फिर बात है क्या जो पशुओं का बहाना ले इतना बवाल मचा है? बात यह है कि कुछ शरारती तत्व उन पर सदियों से रही विदेशी गुलामी जंजीरों से मुक्त हो अब खुद उनके नीचे के दबी-कुचली जातियों पर अपना आधियपत्य चाहते हैं| उनके संसाधनों, बौद्धिकता और श्रमशक्ति पर एकाधिकार चाहते हैं| यह है असली झगड़े की जड़, जिसको जितनी जल्दी समझ आई, वो उतना जल्दी पार हुआ समझो|

देश की गुलामी से पहले भी इनकी यही संकीर्णता थी और इतनी लम्बी गुलामी झेल के भी इससे कुछ सीखने को तैयार नहीं, यह लोग|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 12 November 2015

हिन्दू धर्म और हिन्द की रक्षा हेतु प्रथम शहादत 1675 में गुरु तेगबहादुर जी की नहीं अपितु 1193 में जाटवान जी गठवाला महाराज यौद्धेय की हुई थी!

आगे बढ़ने से पहले: मैं यहां गुरु तेगबहादुर की शहादत को छोटा नहीं दिखा रहा, परन्तु हिन्दुओं को यह बता रहा हूँ कि हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु प्रथम आवाज 1675 में नहीं अपितु 1193 में जाटों द्वारा उठा दी गई थी| गुरु तेगबहादुर मेरे लिए श्रद्धेय और पूजनीय हैं और सदा रहेंगे|

अब प्रथम हिन्दू और हिन्द रक्षा का वाकया: जाटों ने गौरी के खिलाफ पृथ्वीराज का साथ देते हुए गौरी को हरवाया, परन्तु पृथ्वीराज के चाटुकार दरबारियों ने गौरी को छुड़वा दिया और परिणाम यह हुआ कि गौरी दोबारा आया और दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज को ही मार गिराया| 1192 में पृथ्वीराज के बाद, गौरी ने दिल्ली में अपने प्रतिनिधि कुतुबद्दीन को गद्दी पर बैठाया| परन्तु जाट इसको सहन नहीं कर पाये|

सन 1193 ई. में दिल्ली के बादशाह कुतुबुदीन ऐबक के साथ सर्वखाप पंचायत, हरयाणा की सेना ने जाटवान गठवाला जी महाराज के नेतृत्व में 12 वीं सदी का सबसे भयंकर युद्ध हांसी (हिसार) के टिब्बों में लड़ा|

इस युद्ध को मुस्लिम लेखक भी भयंकर मानते हैं| इसमें जाट वीरों ने अपने परंपरागत हथियारों तलवार, लाठी, बल्लम, कुल्हाडी, गंडासी, भाला, बरछी, जेळी, कटार आदि से अंतिम दम तक शाही सैनिकों को कत्ल किया| युद्ध कई दिन चला और जाटवान जी यौद्धेय सहित अधिकतर मल्ल यौद्धेय शहीद हुए|

जीत ऐबक की हुई परन्तु कहते हैं वह अपनी आधी सेना के शवों को देखकर दहाड़-दहाड़ कर रोया और रोते हुए उसने कहा कि मुझे पता होता कि जाट इतने लड़ाकू होते हैं तो वह उनसे भूलकर भी न लड़ता, जाटवान जैसे यौद्धेयों को अपने साथ करके मैं सारी धरती जीत सकता था| इतिहासकार लिखते हैं कि यह पहला अवसर था जब जीतने के बाद भी कोई मुस्लिम शासक

रोते हुए दिल्ली लौटा और उसने जस्न की जगह मातम मनाया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हिन्दू धर्म में दूसरा महाविनाश होने की घड़ी नजदीक आ रही है!

पहला महाविनाश तब आया था जब आज के बिहार की तरह ही तमाम दलित-पिछड़ा-कमेरा लालू-नितीश की भांति उस वक्त बुद्ध धर्म पर झुक गया था और सेल्फ-स्टाइल्ड स्वर्ण मोदी की तरह अकेला और असहाय पड़ गया था। तब स्वर्ण हिन्दू ने ही बाकी के बुद्ध बने हिन्दू को कभी पुष्यमित्र सुंग तो कभी शशांक तो कभी चच और दाहिर बनके खुद ही मारा, ना सिर्फ मारा था अपितु तमाम बुद्ध मठ और बुद्ध बौद्धिकता के नालंदा और तक्षिला जैसे केंद्र भी जला दिए थे। खापलैंड में तो उस जमाने से ले आज भी किसी के नुकसान की अति को "मार दिया मठ", "हो गया मठ", "कर दिया मठ" जैसी कहावतों के जरिये मापा जाता है।

बुद्ध धर्म हिंसा नहीं सिखाता परन्तु हिन्दू फिलोसोफी इससे अछूती नहीं, इसलिए बुद्ध शांतिपूर्वक कटते रहे और यह काटते रहे। परन्तु यह सिलसिला तब थमा था जब हरयाणा की धरती पर एक लाख की इनकी सेना को मात्र नौ हजार बुद्ध बने हिन्दुओं ने भगा-भगा के मारा था। क्योंकि जब बुद्ध कटते-कटते इतने घट गए कि बात अस्तित्व पर आ गई तो फिर उठ खड़े हुए थे इनकी हिंसा का हिंसा से ही जवाब देने हेतु।

इतनी नफरत निभाने के बावजूद भी यह बात अलग है कि यह उसी बुद्ध को हमारे हिन्दू धर्म का नौवा अवतार बताते, लिखते, गाते नहीं थकते।

दूसरा महाविनाश आने की दस्तक अब दिल्ली से होते हुए बिहार में कटटरवादियों की लगातार दूसरी हार से हो चुकी है। अब अगर यह हार के सिलसिले यूँ ही बढ़ते रहे तो (जिसके कि पूरे आसार हैं, क्योंकि जनता घृणा और हिंसा की राजनीती और नीति दोनों सिरे से नकार रही है) इनकी परेशानियां इनकी बेचैनियों में बदलेंगी और बेचैनियाँ कुंठा में और कुंठा हिंसा में और हिंसा मारकाट में। 2016 में बंगाल-तमिलनाडु-केरल-असम में चुनाव हैं, फिर 2017 में पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड, गुजरात, यूपी, गोवा, मणिपुर में हैं, 2018 में छत्तीसगढ़, कर्नाटका, मध्यप्रदेश, राजस्थान, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा और नागालैंड में हैं। और फिर 2019 में लोकसभा।

अभी तो यह मुस्लिम्स और माइनॉरिटीज को आँखें दिखा के अपनी ताकत जताना चाहते हैं, परन्तु यह प्रयास सफल नहीं हुआ तो फिर हिन्दू धर्म के अंदर होगा। और जब बात हिन्दू धर्म के अंदर कलह की होगी तो क्या ड्रामे होंगे वो हरयाणा में अभी से ही इन द्वारा बना दिए गए हिन्दू जाट बनाम हिन्दू नॉन-जाट के माहौल से समझ लो।

हिन्दू धर्म में पहला महाविनाश ईशा पूर्व पहली सदी से ले ईसा पश्चात सातवीं सदी तक चला था, और फिर उसके बाद 1300 साल की गुलामी झेली देश ने। 1300 साल की आग अंदर लिए घूम रहे हैं यह लोग, अब हुआ तो पता नहीं कितना लम्बा खिंचेगा और पहले की तरह क्या-क्या खुशनसीबी या बदनसीबी ले के आएगा।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 11 November 2015

दूनागिरि से लंका वाया कानपुर या अयोध्या?

दूनागिरि उत्तराखंड में है जहां से हनुमान सुमेरु पर्वत उठा के लंका ले गए थे|  हवाई मार्ग का सीधा रुट निकालो तो उनका कानपुर के पश्चिम से होते हुए जाना हुआ होगा| कानपुर से अयोध्या 250 किलोमीटर पूर्व में है|

इसके दो ही मतलब हैं या तो हनुमान जी संजीवनी को समय पर पहुंचाने हेतु सीरियस नहीं थे और रुट से हट के 250 किलोमीटर लंबरूप अयोध्या हाय-हेलो करने पहुँच गए वो भी सुमेरु पर्वत उठाये-उठाये| क्योंकि रामायण का हर प्रारूप कहता है कि जब वो संजवीनी ले के लौटते समय अयोध्या के ऊपर से गुजरे तो भरत ने उनको कोई आकाशीय विपदा समझ के तीर मारा और वहीँ गिर पड़े| अब अयोध्या से चलाया हुआ तीर 250 किलोमीटर दूर कानपुर के ऊपर उड़ते हुए उनको आन लगा होगा, थोड़ा पचाना मुश्किल है; एक पल को पचा भी लो तो तीर लग के हनुमान जी का कानपुर में गिरने की बजाये अयोध्या जा के गिरना नहीं पचेगा|

या फिर दूसरा मतलब यह हो सकता है कि वो सीधे कानपुर के पश्चिम से ही निकले होंगे, जो कि रामायण का कोई भी प्रारूप नहीं कहता|

तो अब या तो यह एक और ऐसा तथ्य है जो रामायण को एक काल्पनिक ग्रन्थ साबित करता है अन्यथा हनुमान जी सीधे रुट को छोड़ के 250 किलोमीटर हट के क्यों उड़ेंगे, वो भी पर्वत उठाये हुए और ऐसी विपदा के वक्त जब एक-एक सेकंड लक्ष्मण के जीवन पर भारी बीत रहा था| ना ही तो वो खाली हाथ थे और ना ही पिकनिक मनाने निकले थे कि घूमते-घुमाते मुड़ गए अयोध्या को, है कि नहीं?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भाईचारे को चुराने वालो बाज आ जाओ, इस देश में चारा-चोर माफ़ किये जा सकते हैं परन्तु भाईचारा चोर नहीं!

1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने श्रृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा। उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान संपत्ति लूट ली। इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए। शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी। शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया। इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को 200 राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें।

टीपू सुल्तान का भले ही भारतीय शासकों ने साथ नहीं दिया, पर टीपू ने किसी भी भारतीय शासक के विरूद्ध, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अंग्रेज़ों से गठबंधन नहीं किया। जब टीपू अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में जुटा था, तब पेशवा, तंजौर के राजा और त्रावणकोर नरेश ब्रिटिश के साथ संधि कर चुके थे। टीपू इन राजाओं के खिलाफ भी लड़ा। अब इसका क्या किया जा सकता है कि ये राजा हिंदू थे। टीपू हैदराबाद के निज़ाम के खिलाफ भी लड़ा जो मुसलमान था। स्कूल की किताबों में तीसरा मैसूर युद्ध देखिए। इसमें टीपू के खिलाफ अंग्रेजों, पेशवा और निज़ाम की संयुक्त फ़ौज लड़ी थी।

यह हिंदू बनाम मुसलमान का मामला ही नहीं है। भारत को बचाने के लिए टीपू अपनी आखरी साँस तक अंग्रेजो से लड़ते लड़ते शहीद हो गए| पर इसका नतीजा भी वही हुआ जो होता आया है, आखिरकार टीपू सुल्तान जैसे देश के महान सपूत की कुर्बानी को भी सस्ता कर ही दिया गया, अफसोस| बहुत से लोगों ने सिर्फ इतना याद रखा कि टीपू सुल्तान एक मुसलमान था| फिर उसकी अज़ीम शहादत, उसकी वतन पर जां निसारी, उसकी अपनी गैर मुस्लिम आवाम से मोहब्बत, ये सारी बातें झूठ और फरेब मान ली गईं|

इसका मतलब तो यह हुआ कि यह चड्ढीधारी आज टीपू सुल्तान के खिलाफ इसलिए उठ खड़े हुए हैं क्योंकि टीपू ने अंग्रेजों की गुलामी नहीं स्वीकारी और जो हिन्दू नरेश अंग्रेजों से संधि कर रहे थे टीपू उनसे भी लड़ा? तो देश बेचने वाले वो हिन्दू राजा थे या टीपू?

इसका मतलब तो यह हुआ कि अगर यह चड्ढीधारी यूँ ही बेलगाम भोंकते रहे तो यह हिले-हिले कल जाटों के खिलाफ भी मोर्चा खोलेंगे? क्योंकि जाटों की पेशवाओं, होल्करों, राजपूतों सबसे लड़ाइयां हुई हैं और विरोध रहे हैं? जयपुर में सवाई ईश्वरी सिंह को गद्दी दिलवाने हेतु मशहूर बांगरू की लड़ाई में तो महाराजा सूरजमल ने मराठा-राजपूत-होल्कर-मुस्लिम सब एक साथ हराए थे| भरतपुर-धौलपुर और उधर पंजाब में महाराजा रणजीत जैसों के राज्यों ने अंग्रेजों-मुस्लिमों से लोहा लेने हेतु बड़े-बड़े रण लड़े तो क्या कल को अब इसकी भी आग सुलगाएंगे यह लोग और नया रंग देंगे?

पानीपत के तीसरे युद्ध में जब महाराजा सूरजमल और महाराष्ट्री पेशवाओं में समझौता होने के बाद भी उसको तोड़ते हुए पेशवा दिल्ली को मुग़लों को देने पे आमादा थे परन्तु जाटों को नहीं तो क्या अब यह चड्ढीधारी गैंग उसको भी नया रंग दे के उछालेंगे कि इन्होनें हमारे द्वारा पानीपत जीत जाने की स्थिति में भी दिल्ली मुस्लिमों को देनी नहीं स्वीकारी थी तो यह देशद्रोही हुए?

बाज आ जाओ भाईचारे को चुराने वालो, इस देश में चारा-चोर माफ़ किये जा सकते हैं परन्तु भाईचारा चोर नहीं|
देश को क्या डूबाधानी की तरफ घसीट रहे हैं यह नादान लोग, 1300 साल भी कम पड़ गए क्या तुम्हें अक्ल लेने के लिए? खा लिया खून इन लोगों ने कसम से, "शिकार के वक्त कुत्तिया हगाई" प्रवृति के यह लोग देश में यह निर्धारित कर रहे हैं कि कौन देशभक्त और कौन राष्ट्रभक्त| तब कहाँ मर गए थे जब इन्हीं मुग़लों के राज में कोई राजपुरोहित तो कोई महाजन बनके मजे मारा करता था?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक