Wednesday, 18 November 2015

आरएसएस और बीजेपी, 'जाट-समाज' 'हिन्दू-धर्म' का 'चार्ली-हेब्दो' है इससे नफरत मत करो!

'चार्ली-हेब्दो' पेरिस-फ्रांस से निकलने वाली ऐसी मैगज़ीन है जो पॉप से ले के पैगंबर मुहम्मद तक पर व्यंग्य कसती है। यह कोई पचास-सौ लोगों का समूह है।

पेरिस में हाल ही में हुए आतंकी हमले में इस मैगज़ीन द्वारा पैगंबर मुहम्मद का एक व्यंग्यात्मक कार्टून मुख्य वजह बताया जा रहा है।

एक ऐसा ही समूह भारत में भी है जिसको 'जाट-समाज' बोलते हैं जो हिन्दू धर्म में पैदा होने वाले ढोंग-पाखंड की आलोचना करने में सदियों से अग्रणी रहा है। परन्तु विडंबना देखो कि भारत के जो लोग 'चार्ली-हेब्दो' की प्रशंसा करते हैं, वो भारत में जाट-समाज के खिलाफ होते हैं। जाट की इस 'चार्ली-हेब्दो' गट की वजह से वो जाट को अधार्मिक और एंटी-ब्राह्मण तक ठहराने लग जाते हैं।

आरएसएस और बीजेपी, यह दोहरे मापदंड मत अपनाओ और भारत के इस 'चार्ली-हेब्दो' समूह को गले लगाओ। याद रखना जाट ना रहे तो तुम्हें कोई नहीं बता पायेगा कि वाकई में धर्म की राह पर चलते हो या ढोंग-पाखंड की राह पर।

मैंने जिंदगी में महसूस किया है कि जो समाज में वाकई में धर्म और मानवता का पक्षधर है वो जाट से जुड़ के चलता है परन्तु धर्म के नाम पर पाखंड और ढोंग कर जिसको सत्ता और पैसा बटोरना है वो जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीति करते हैं।

इसलिए अंधभक्त बने जाट भी अपनी कौम की ख़ूबसूरती के इस नायाब गट को समझें और खूबसूरत बने रहें। और धर्म में घुसे ढोंग-पाखंड की पोल खोलने में यह ना सोचें कि आप अधार्मिक हो गए या धर्म के गद्दार हो गए।
सनद रहे कि जैसे घर से कूड़े की सफाई जरूरी होती है उसी तरह धर्म को साफ़-सुथरा रखने के लिए इसके अंदर छुपे ढोंग-पाखंड के कूड़े को झाड़ना जाट का फर्ज होता है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 17 November 2015

धर्मभक्त और देशभक्त बिलकुल भिन्न परिभाषाएं हैं!

धर्मभक्त और देशभक्त में कंफ्यूज ना हों, दोनों एक दम भिन्न परिभाषाएं हैं, आपस में दूर-दूर तक कोई कनेक्शन नहीं| भिन्न-भिन्न धर्म के लोग एक ही देश में रहते हुए देश के लिए देशभक्त हो सकते हैं, परन्तु सभी देशभक्त किसी एक धर्म के धर्मभक्त हों यह कदापि सम्भव नहीं|

ऐसे धर्म के लिए भक्ति करने वाले ही देशभक्त कहलाने लगे तो फिर फौजी और किसान कहाँ जायेंगे? फौजी सीमा पर खड़ा हो देश के अंदर के हर धर्म को मानने वाले के लिए गोली खाता है और किसान हर धर्म को मानने वाले के लिए अन्न पैदा करता है| जबकि धर्मभक्त सिर्फ अपने धर्म के लिए जीता-मरता है, देश के लिए नहीं|

अत: इन छद्द्म राष्ट्रभक्तों की मनमर्जी की बनाई परिभाषाओं को बिना विवेचना और विवेक के स्वीकार करने से बचना चाहिए वरना एक दिन भाषा के शब्दकोश की खिचड़ी बना के धर देंगे यह लोग|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भारत में बढ़ती सब्जियों के दामों और बढ़ती जमाखोरी की यह है असली वजह!

मोदी की रैली में अधिकतर मेरे जैसे कॉर्पोरेट वर्ल्ड में काम करने वाले एम्प्लोयी थे, जिनमें अधिकतर को ठीक उसी तरीके से रैली में हाजिर होने के आदेश दिए गए थे जैसे भारत में जब कोई रैली हो तो प्राइवेट स्कूलों की बसों को जबरन आदेश होते हैं कि उस दिन वो रैली की भीड़ ढोयेंगी और सरकारी कर्मचारी सपरिवार-जानकार रैली में उपस्थित होंगे|

रयूटर न्यूज़ एजेंसी के अनुसार इस रैली पर 2.5 मिलियन पाउंड्स यानी 250 करोड़ रूपये खर्च हुए, जो कि कॉर्पोरेट घरानों ने प्रायोजित किये थे| इससे साफ़ है कि यह कार्यक्रम स्थानीय ब्रिटिश नागरिकों या सरकार द्वारा प्रायोजित नहीं था| यह भारतीय कॉर्पोरेट की रैली थी, जिसकी 6 महीने पहले से तैयारी की गई थी|

और इन प्रायोजित रैलियों के लिए कॉर्पोरेट को पैसा चाहिए, जो कभी प्याज, कभी दाल, कभी टमाटर महंगे बेच-बेच के तो कभी अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की आधी कीमत होने पर भी उसको अपने यहां महंगा बेच-बेच के आम भारतीय की जेबों से ही वसूला जा रहा है| इसीलिए सटोरियों, जमाखोरों को मनचाहा अवैध भण्डारण करने की छूट से ले के, हर प्रकार के कॉर्पोरेट कर्जे से मुक्ति मिली हुई है|

और यहीं तक सिमित है इनके अच्छे दिन की परिभाषा! कोई भगत या अंधभक्त इस कड़वी सच्चाई को पढ़ के सुलगे तो सौ बार सुलगे| - फूल मलिक

Monday, 16 November 2015

ताकि आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे!

1) क्यों व्यापार और धर्मदार का कार्य आदरमान से देखा जाता है?
2) क्यों व्यापार और धर्मदार की बुनियादों को हिलाना इतना आसान नहीं होता?
3) क्यों किसान अपने कार्य का सम्मान कायम नहीं रख पाता?
4) क्यों किसान धर्म-व्यापार और मजदूर (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ) की भांति अपनी मेहनत का न्यूनतम सुरक्षित नहीं रख पाता?
5) क्यों किसान की मेहनत बीच चौराहे लावारिस पड़ी किसी वस्तु की भांति होती है?

जब से यह दुनिया बनी है तब से इस जगत में धन कमाने की 4 मुख्य धाराएं रही हैं, एक धर्म, दो व्यापार, तीन खेती और चौथा मजदूरी (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ)। ऊपर उठाये सवालों के जवाब समझने के लिए जरूरी है कि इनके कुछ पहलुओं को समझें:

1) धर्म-व्यापार-मजदूरी तीनों अपनी मेहनत खुद तय करते आये हैं सिवाय मजदूरी की एक प्रकार बंधुआ को छोड़ के| आधुनिक काल में बंधुआ तो कम होती जा रही है परन्तु भारतीय खेती में इसका अभी कोई अंत नजर नहीं आता|
2) धर्म-व्यापार-मजदूरी, खेती के परजीवी हैं| इनकी आमदन मुद्रा में चाहे कितनी भी हो अंत में उसका प्रथम और मुख्या हिस्सा होता खेती से कपड़ा और अन्न (रॉ और प्रोसेस्ड मटेरियल दोनों) खरीदने हेतु ही है|
3) इंसान की मूलभूत सुविधाओं रोटी-कपडा और मकान में से धर्म-व्यापार-मजदूरी सिर्फ मकान बिना किसान की मदद के बना सकते हैं जबकि रोटी-कपड़ा के लिए इनको किसान का मुंह ताकना ही पड़ता है| हालाँकि किसान मकान भी बिना इनकी मदद के बना सकता है|
4) इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं की सर्विसों में धर्म ही एक इकलौती ऐसी सर्विस है जो बिना गारंटी एवं वारंटी के होती है| अन्यथा व्यापारी का प्रोडक्ट हो तो वो आपको रिटर्न की गारंटी देता है, किसान का प्रोडक्ट 'अन्न' आपको पेट की भूख शांत होने की गारंटी देता है, मजदूरी की मजदूरी आपके पैसे के ऐवज के काम की गारंटी देती है|

मतलब कुल मिला के देखा जाये तो व्यवहारिकता और उपयोगिता के हिसाब से किसान का कार्यक्षेत्र और महत्व इन बाकी तीनों से सर्वोत्तम और पवित्र है| तो फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से भारतीय किसान इन बाकी तीनों में और खुद में भी:

1) अपने कार्य के प्रति सार्वजनिक व् सार्वभौमिक सम्मान नहीं बना पाता या इनके बीच हासिल नहीं कर पाता?
2) समाज के लिए इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी इनके स्तर तक का अपना गुणगान नहीं करा पाता या करवा पाता?
3) इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी लाचार, असहाय और बेबस रह जाता है?
4) अपने उत्पाद के प्रति इनकी तरह रक्षात्मक रवैया नहीं बना पाता?

धर्म वाला धर्म के साथ-साथ धर्मस्थल का भी मालिक होता है, व्यापार वाला व्यापार के साथ व्यापार-स्थल का भी मालिक होता है, खेती वाला खेत के साथ-साथ खेती का भी मालिक होता है परन्तु हकीकत में है नहीं क्योंकि उसका भाव कोई और निर्धारित करता है| हालाँकि मजदूर सिर्फ दिहाड़ी का हकदारी होता है|

सुना है फ़्रांसिसी क्रांति में औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ किसानी के इन पहलुओं को लेकर भी क्रन्तिकारी लड़ाई हुई थी| एक जमाना था जब फ्रांस में धर्म और व्यापार मिलकर किसान को ठीक इसी तरह खाए जा रहे थे जैसे आज भारत में खा रहे हैं| परन्तु जब इनकी लूट-खसोट और मनमानी की इंतहा हो गई थी तो फ्रांस का किसान उठ खड़ा हुआ था और ऐसा उठ खड़ा हुआ था कि धर्म को तो हमेशा के लिए चर्चों के अंदर तक सिमित रहने का समझौता तो धर्म के साथ किया ही किया और व्यापार को भी यह समझा दिया गया कि अगर हमारे उत्पाद और मेहनत का जायज दाम हमें नहीं मिला तो तुम्हारी गतिविधियों पर ताले जड़ दिए जायेंगे|

और इसीलिए आज फ्रांस विश्व में जितना धर्म-व्यापार और मजदूरी को लेकर संवेदनशील जाना जाता है उतना ही संवेदनशील कृषि और इसके कृषकों को लेकर जाना जाता है| यहां किसान इतने ताकतवर हैं कि जरूरत पड़े तो व्यापारियों के बड़े-से-बड़े शॉपिंग मॉल में भी जानवर बाँधने से नहीं कतराते| और ना ही सरकार किसान के इस गुस्से पर कोई कार्यवाही करती अपितु जब-जब फ़्रांसिसी किसान की तरफ से ऐसा गुस्सा आता है तो वो समझ जाती है कि किसान का बेस मूल्य रिसेट करने का टाइम और इशारा आ गया है|

अब भारत को भी एक फ़्रांसिसी क्रांति की दरकार आन पड़ी है| धर्म इतना दम्भी हो चुका है कि वो इस तरह जताने लगा है कि जैसे देश का पेट भी किसान नहीं वो ही भर रहा हो| व्यापार इतना घमंडी होता जा रहा है कि किसान को उसकी मेहनत की लागत तक नहीं छोड़ना चाहता, खेती में फायदा होना शब्द तो जैसे गायब ही हो चला है| निसंदेह किसान को यह समझना होगा कि:

1) माँ नौ महीने बच्चे को पेट में पाल के, एक दम से पेट से निकाल के ही समाज को नहीं सौंप दिया करती, वो उसको बड़ा करने में भी वक्त और मेहनत लगाती है| ऐसे ही किसान समझें इस बात को कि उनका खेत उनके लिए माँ का पेट है और उस खेत से पक के निकलने वाली उपज उनका नवजात शिशु और नवजात शिशु को मंडी को तुरंत ही नहीं सौंपा जाया करता| पहले आपस में बैठ के अपने उत्पाद की लागत और मजदूरी खुद धरो, उसपे अपना बचत का मार्जिन धरो और फिर इनको दो| ऐसा करते हुए किसान को घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि परजीवी आप नहीं, धर्म-व्यापार और मजदूर हैं| कितना ही माथा पटक लेवें हार फिर के आवेंगे आपके ही पास| इसलिए इस पहलु को ले के किसान को संजीदा होना होगा|
2) पंडित फेरे करवाता है तो 500-1000 न्यूनतम लेता है, झाड़-फूंक-पूछा वाला 100 से 1000 तक की पत्ती आपसे पहले रखवा लेता है, मंदिर में कम रूपये चढ़ाओ और पुजारी की नजर पड़ जाए तो मुंह सिकोड़ने लगता है, कई मंदिरों में तो न्यूनतम 100-200 से नीचे दिया तो पर्ची भी नहीं मिलती यानी वो आपके दान से खुश नहीं हुए| इनके द्वारा आपको दी गई भाषा में दान परन्तु इनकी खुद की भाषा में वो इनका सर्विस चार्ज होता है|
3) व्यापारी का तो सीधा सा सटीक फार्मूला है, 'कॉस्ट ऑफ़ प्रोडक्शन + प्रॉफिट मार्जिन = विक्रय मूल्य
4) मजदूर की दिहाड़ी, नौकर की नौकरी का न्यूनतम निर्धारित करने के लिए भी विभिन्न मजदूर संगठन तो रहते ही रहते हैं, जहां यह नहीं हैं वहाँ भी यह लोग अपनी न्यूनतम दिहाड़ी पहले सुनिश्चित करते हैं उसके बाद काम पर जाते हैं|
5) तो दिखती सी बात है धर्म हो, व्यापार हो या मजदूर, जब यह तीनों अपनी मेहनत की दिहाड़ी के न्यूनतम को ले के इतने संजीदा और सचेत हैं तो फिर किसान क्यों यह हक अपने पास नहीं रखता? इस पहलु पर आज के भारतीय किसान को कालजयी आंदोलन छेड़ना होगा|
6) मंदिर में आप पुजारी से हर वक्त नहीं मिल सकते, व्यापारी से आप हर वक्त तो क्या कई बार अपॉइंटमेंट ले के भी नहीं मिल सकते, मजदूर/नौकर से भी आपको अपॉइंटमेंट लेनी होती है, परन्तु यह तीनों ही जब चाहें किसान को डिस्टर्ब कर सकते हैं? यह क्या तुक हुआ? निसंदेह फ्रांस की तरह इनको भी चर्चों के अंदर तक सिमित करना होगा, गलियों-घरों में वक्त-बेवक्त किसान की प्राइवेसी डिस्टर्ब करने के इनके हठ को लगाम लगानी होगी| यानि इतना प्रोफेशनलिज्म एटीच्यूड किसान को भी लाना होगा|
7) धर्माधीस का बेटा/बेटी धर्म छोड़ के व्यापार में घुसता है तो कभी धर्म की बुराई ना तो वो खुद करता, ना उसके माँ-बाप करते| व्यापारी का बेटा/बेटी जब मजदूर या नौकर बने तो वो भी कभी व्यापार की बुराई नहीं करते, ना वो बच्चा करता| तो फिर जब किसान के बच्चे को अपना कार्यक्षेत्र बदलना होता है तो किसान क्यों उसको किसानी के सिर्फ दुःख दिखा के ही प्रेरित करता है कि यहां बहुत दुःख हैं, यह कार्य बड़ा तुच्छ है इसलिए इसको छोड़ के नौकरी पे चढ़ो या व्यापार करो| किसान को अपने बच्चों को अपना पुश्तैनी कार्यक्षेत्र छोड़ने के ऐसे प्रेरणास्त्रोत देने होंगे जिससे कि किसानी का स्वाभिमान भी उनमें कायम रहे और वो कार्यक्षेत्र भी बदल लेवें| यह इतना गंभीर और बड़ा कारण है कि गाँवों से शहरों को गए किसानों के 90% बच्चे वापिस मुड़कर गाँव और अपनी जड़ों की तरफ देखते ही नहीं हैं| कार्यक्षेत्र बदलते या बदलवाते वक्त उनमें अपने पुश्तैनी कार्य के स्वाभिमान को छोड़ा हो तो मुड़ेंगे ना?
8) और यह लोग नहीं मुड़ रहे इसीलिए किसानी सभ्यता, संस्कृति और हेरिटेज पीढ़ी-दर-पीढ़ी दम तोड़ता जाता है| और यह स्थाई ना रहे, इसी से धर्म और व्यापार का अँधा-मनचाहा और यहां तक अवैध रोजगार चलता है| इसलिए इन चीजों को ले के किसान संजीदा हो, वर्ना आप सभ्यता बनाते जायेंगे, धर्म और व्यापार उसको मिटाते जायेंगे और जायेंगे और जायेंगे और आपपे हावी बने रहेंगे|

इस लेख के अंत के सार में लिखने को कोई एक लाइन नहीं बन रही, बस जो बन रहा है वो यह ऊपर लिखा एक-दूसरे से गुंथा पहलुओं का झुरमुट| किसी भी सिरे से पकड़ लो, इसको संभालने पर चलोगे तो बाकी अपने आप सम्भलते जावेंगे और दरकिनार करोगे तो बाकी के भी दरकिनार हो बिखर जावेंगे| और इसी बिखराव को समेटने हेतु लाजिमी है कि किसान भी धर्म, व्यापारी और मजदूर की तरह प्रोफेशनल हो और फ़्रांसिसी क्रांति जैसी एक लड़ाई को तैयार हो, ताकि इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

9 अप्रैल 1944 को चौधरी छोटूराम ने जाट महासभा के लायलपुर अधिवेशन मे!

9 अप्रैल 1944 को चौधरी छोटूराम ने जाट महासभा के लायलपुर अधिवेशन मे इन धर्मों के ठेकेदारों इन शहरी लोगो के इस खेल पर जो आज भी ज्यों का त्यों चल रहा हैं बोलते हुए कहा था :

" हमारी जाट कौम गहरी नींद मे थी , उन्नति प्राप्त वर्ग खास तौर पर शहरी शिक्षित वर्ग और व्यापारी वर्ग हमारे अधिकारों को चट कर जाते थे | जब उन्होने देखा कि जाट संगठित हो रहे हैं और अपने अधिकारों पर दावा जताने लगे हैं तो ये शहरी बेचैन हो उठे ! उन ने सोचा धार्मिक मुद्दे सहायक हो सकते हैं | वे जाटों को मूर्ख और असभ्य मानते रहे थे ; वे जाटों कि सादगी और अज्ञानता का मज़ाक उड़ाते रहे थे ; जाटों कि साफ़गोई को उन में सभ्यता और संस्कृति का आभाव माना जाता था | ये शहरी लोग अब भोले-भाले गूंगे-बहरे अशिक्षित गरीब जाटों के जाग जाने के कारण दुखी हैं , चिन्तित हैं ; और उन लोगो ने इन्हे नींद मे बनाए रखने के लिए षड्यंत्र रचा हैं ; इन के साथ भेड़-बकरियों कि तरह बर्ताव करते रहने और इन कि जुंबानों और दिमागों को धर्म की नशीली खुराक दे कर बंद कर देने का षड्यंत्र रचा हैं , वे डरे हुए हैं कि जाट यदि जाग गए तो उन मे बदले कि भावना आ सकती हैं..... वे हमारी कष्ट कमाई पर डाका डालने कि योजनाए बना रहे हैं .... वे हम पर दोषारोपण कर के और अपने पापो और कुकृत्यों पर पर्दा डालने कि कोशिश करते हैं ; वे बहुत चालाक बनने की कोशिश करते हैं ; जैसे की वे हमारे भाग्य विधाता हों, हमारे जीवन-दाता हों और हमारे भविष्य के निर्माता हो ! वे हमारी उन्नति को पचा नहीं पा रहे हैं ... हमारी जागृति को वे अपनी मौत का संकेत मान रहे हैं ; भगवान का मुखौटा लगाए हुए ये शैतान बेचैन हैं ....... "

हम आधुनिक और विकसित विश्व के साथ चल रहे हैं या उसके उल्टा बह रहे हैं?

आस्ट्रेलिया में एक नया कानून बनाया गया है जिसके अनुसार स्कूलों में धर्म की पढ़ाई को पूरी तरह से रोका जा रहा है, अगर स्कूलों में कोई धर्म पढ़ाते हुए मिलेगा/मिलेगी तो उन्हें जेल भेजा जाएगा| ब्रिटेन में स्कूलों में धार्मिक प्रार्थनाएं बन्द करने पर विचार किया जा रहा है। अमेरिका और फ्रांस में पहले से ही स्कूलों में हर प्रकार की धार्मिक शिक्षा बंद है|

और अपने यहाँ भारत में इन चीजों को कहीं पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है तो कहीं इसकी मांग उठ रही हैं। फिर भी कौन कहता है कि हम विकसित व् आधुनिक विश्व से ताल-पे-ताल मिला के चल रहे हैं| इससे तो लगता है कि हम विकसित विश्व के उल्टा जा रहे हैं|

फूल मलिक

जाति-कौम का प्यार, स्वाभिमान, अभिमान और उसकी प्रकाष्ठा!

अपने आपको यदाकदा जाट जाति से होने पर, उसपे अभिमान होने पर इतराने वाले नादान जाट उस दिन खुद को जाति-प्रेमी या स्वाभिमानी कहना जिस दिन ब्राह्मणों की तरह देश की कोर्ट द्वारा देशद्रोही साबित होने पर फांसी तोड़ दिए जाने वाले नत्थूराम गोडसे की तरह अपनी कौम के अपराधी लोगों को भी राष्ट्रभक्त बना के पेश करना सीख जाओ।

अब कोई जाट मुझे यह मत बोलना कि देशद्रोही हमारे लिए देशद्रोही है फिर वो चाहे जिस कौम का हो। यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि बहुत से अंधभक्त जाट भी बने हुए हैं और देश की कोर्ट में साबित हो के कबके फांसी तोड़े दिए जा चुके देश के अपराधी को देशभक्त ठहराने वालों के साथ लगे हुए हैं।

फिर अगर ऐसी ही बात है तो देश की तमाम पुरानी रियासतों और उनके राजाओं को भी अंग्रेजों का साथ देने की शिकायत से मुक्त कर दिया जाना चाहिए, और उनका आदर-मान वापिस स्थापित किया जाना चाहिए, नहीं?

विशेष: कोई ब्राह्मण भाई मेरी इस पोस्ट को अन्यथा ना लेवे, क्योंकि मैं आपके अंदर कौम के प्रति अभिमान और प्रतिष्ठा का जो अनूठा जज्बा है उसका उदाहरण जाट समाज के समक्ष रख रहा हूँ।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 15 November 2015

Natthuram versus Yakub

जब कुछ लोग याकूब मेमन की funeral को attend कर रहे थे तो उसी वक्त कुछ अवसरवादी व तथाकथित देशभक्त लोग भोंक रहे थे कि इन लोगों को पाकिस्तान भेज दिया जाना चाहिए| इस पर उनका तर्क था कि इन लोगों को भारत की न्यायप्रणाली पर विश्वास नहीं है| यानि कि जिस आदमीं को हमारी न्याय-प्रणाली ने आतंकवादी करार देकर फांसी दे दी हो, उससे कैसी हमदर्दी? ........आदि-आदि!

पर पिछले दो-तीन दिन से वही लोग उसी नयाय-प्रणाली को मजाक बना नाथूराम गोंडसे को माँ भारती का पुत्र व देशभक्त कहते-गाते फिर रहे हैं| .........

क्या इन तथाकथित देशभक्तों के लिए किसी दूसरे देश (क्योंकि पाकिस्तान तो यह इनके उधर साइड वालों को भेजते हैं, तो खुद क्या जायेंगे वहाँ) के visa का प्रबंध भी है या नहीं .......... क्योंकि नत्थूराम गोडसे को भी हमारी न्यायप्रणाली ने ही देशद्रोही ठहराते हुए फांसी दी थी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास!

शायद इसी को कहते हैं कि गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास, ना गंगा मिली और ना रही जमुना की आस|

सत्ता में आते ही केंद्र से जाट आरक्षण रद्द किया, सिर्फ इसलिए कि इससे बिहार के यादव को यह कह के खुश कर लेंगे कि देखो जो तुम्हारी सबसे ज्यादा नौकरियां बँटवाते हमने उन जाटों को ओबीसी लिस्ट से बाहर कर दिया है| और ऐसे इनको यादव वोट मिल जाता| राव इंद्रजीत को वहाँ इसी बात को फैलाने के लिए ले जाने वाले थे, परन्तु राजनीति के "भाग़ड बिल्ले" लालू यादव के आगे इनकी एक ना चली| गंगा की आस सा यादव वोट भी गया और इधर जाट को रूष्ट करके उसके वापिस आने की जमुना रुपी आस खुद अपने ही हाथों खो ली|

सुगबुगाहट है कि बीजेपी और आरएसएस, हरयाणा को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाड़ा बना के अब पछता रहे हैं| परन्तु इसका यकीन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक राजकुमार सैनी और मनोहर लाल खट्टर जैसों के एंटी-जाट इरादों को यह पब्लिकली बंद नहीं करवाते|

सुनने में आ रहा है कि अब जाट लोस का डैमेज कंट्रोल करने के लिए नई कवर-अप स्ट्रेटेजी आने वाली है, जिसका टैग होगा कि बीजेपी और आरएसएस ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा+खत्री के साथ-साथ राजपूत और जाट को जनरल में रख के देश की सबसे सक्षम और बड़ी कौमों को एक रखना चाहती थी इसलिए जाट का आरक्षण रद्द करके उनको ओबीसी नहीं बनने दिया|

खैर जो भी होने वाला है फ़िलहाल जिस तरीके से हरयाणा में इनके नुमाइंदे दिन-प्रतिदिन जाट समाज पर जहर उगलने में मसगूल हैं, उससे नहीं लगता कि जल्दी ही इसपे कुछ एक्शन दिखेगा| जाटों की नाराजगी का आलम इतना बढ़ चूका है कि आरक्षण रद्द होने से जो नाराजगी पूरे भारत के जाट की बढ़ी थी उसमें इधर हरयाणा में इनके नुमाईन्दों द्वारा जाट बनाम नॉन-जाट के खड़े किये अखाड़े के चलते और इजाफा होता जा रहा है और इसको ले के पश्चिमी यूपी और पंजाब तक का जाट भी इनसे क्रुद्ध और उबलता देखा जा रहा है|

तो क्या ऐसे में पंजाब और यूपी के 2017 में आने वाले चुनावों के वक्त कुछ ऐसा ही सगूफा फेंका जाने वाला है जिसकी सुगबुगाहट सुनी गई है?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक नोबल पुरस्कार वीजेता पाकिस्तानी की सर छोटूराम को श्रद्धांजलि

'किसान - कल्याण - कोष ' के उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए यह कहा गया था के इस के मुख्य उद्देश्यों में से एक उद्देश्य देहात के योग्य छात्रों को उन की आगे की पढ़ाई में सहायता देना हैं | इस से लाभान्वित होने वालों में एक मुसलमान लड़का भी था , जो आगे जाकर विश्वभर के वैज्ञानिको में सर्व प्रसिद्ध हुआ | इस विषय का एक समाचार 14 अगस्त 1995 को पाकिस्तान के एक प्रमुख समाचार पत्र " दी डॉन " में छपा था | जो समाचार शब्दशः इस प्रकार हैं :-
 

" छोटूराम की बहुत बड़ी मदद "

अन्य बहुत से परोपकारी कार्यकर्मों के अतिरिक्त छोटूराम ने '' किसान - कल्याण - कोष " भी स्थापित किया था , जिस में से 25 रुपए या इस से कम मालिया देने वाले छोटे जमींदार के बच्चों को छात्रवृतियाँ दी जाती थी | लाभान्वित होने वालों में पाकिस्तान के ' नोबल पुरस्कार ' प्राप्त डॉ अब्दुस सलाम भी थे | उन के भाई अब्दुल हमीद ने ' दी डॉन ' मे लिखा : " इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि मेरा बड़ा भाई अब्दुस सलाम बुजुर्गों कि दुआओं और सर छोटूराम के किसान - कल्याण - कोष , जिस में से उसे कैम्बरिज विश्व विध्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु 550 रुपए माहवार वजीफा मिलता था , की वजह से इस सदी के दुनिया के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों की गिनती में आ पाया था और सन 1979 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार प्राप्त कर पाया था | सन 1946 में 550 रुपए एक बहुत बड़ी राशि होती थी |
 

"सन 1946 में पंजाब यूनिवेर्सिटी से प्रथम दर्जे में स्नाकोत्तर परीक्षा पास करने के बाद डॉ अब्दुस सलाम आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता था | लेकिन पिताजी के पास उसे विदेश भेजने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे | पिताजी का नाम चौधरी मोहम्म्द हुसैन था जो मूलतान के ' सम्भागीय इंसपैक्टर ऑफ स्कूल्ज़ ' के कार्यालय में कार्यरत थे | उन्हे किसान-कल्याण-कोष , जिसका उपयोग नहीं हुआ था , की जानकारी थी | उन्होने छोटे जमींदार की हैसियत में अपने बेटे के लिए तीन वर्ष तक वजीफा दिये जाने के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया |
फिर अब्दुस सलाम सैंट जोन्स कॉलेज कैम्बरीज़ ( इंगलैंड , अक्टूबर 1946) में प्रविष्ट हो गया और 1948 में एप्लाइड मैथेमेटिक्स में मास्टरज डिग्री प्रथम दर्जे में सर्वप्रथम रह कर प्राप्त कर ली और प्रथम पाकिस्तानी रैंगलर बन गया | कहा जाता हैं कि सलाम ने मास्टर डिग्री दो वर्ष में ही कर ली थी , जबकि वजीफा तीन वर्ष के लिए था | अपने मैंटर की सलाह पर वह रुका रहा और एक और मास्टर डिग्री ले ली - इस बार भौतिकी में ! अंत में अब्दुस हमीद लिखता हैं ; " कठोर परिश्रम के कारण अब्दुस सलाम ने दो वर्ष का कोर्स एक वर्ष में ही पूरा कर लिया और सफल छात्रों की सूची में सब से ऊपर रहा | इसी से फिजिक्स में डोकटरेट और एलेमैंटरी के क्षेत्र में आगे खोज - जिस के लिए अंततः उसे नोबल पुरस्कार मिला - का मार्ग प्रशस्त हुआ | यदि सर छोटूराम ने ' किसान - कल्याण - कोष ' की स्थापना न की होती तो अब्दुस सलाम इतनी ऊंचाइयों तक कभी न पहुँच पता !

राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य, लोकराज लोकलाज से चलता है इसको ना भूलें!

जाटों को आरक्षण चाहिए तो जमीन छोड़ दो! - राजकुमार सैनी

आप माली समाज से आते हैं, जमीनें तो आपके भी पास हैं तो क्या आपने छोड़ दी जमीनें आरक्षण की ऐवज में? रोशनलाल आर्य के समाज के पास भी हैं जमीनें या उन्होंने छोड़ दी?

बाकी जमीनें किसी से जाटों ने खैरात में नहीं ली हैं, जब जाटलैंड एक जंगल हुआ करती थी तो हमारे पुरखों ने अथक परिश्रम से समतल बनाई थी|

वैसे राजकुमार सैनी आप एक बार यह क्यों नहीं कह देते कि व्यापारियों को कर्जा माफ़ी चाहिए तो वो फैक्टरियां छोड़ दें? या फंडियों को आदर-मान चाहिए तो दलित-पिछड़ों को नीच-अछूत कहना छोड़ दें? उनको मंदिरों-कुओं पे चढ़ने दे?

अरे बावले जिस जाट चौधरी छोटूराम की वजह से आज जमींदार कहलाता है कम से कम उसी की लाज रख ले| मंडी-फंडी के हाथों ऐसा भी क्या बिकना कि लोकलाज सब बेच खाई है|

रोशनलाल आर्य साथ ही यह भी बता देते कि जाट कब किस हिन्दू के डंडों से डरे? और किसके सहन करे? हमेशा पाखंड और मंडी-फंडी के विरुद्ध हमने नेतृत्व वाली लड़ाईयां लड़ी हैं और हमें ही डंडे से डराने की घुर्खी घालते हो?
मतलब कुछ भी क्या?

लगता है बेचारे बिहार की हार से बोखला गए हैं और बीजेपी और आरएसएस ने छोड़ दिए हैं जाटों पे भोंकने को खुल्ले| जाट समाज सावधान, सेंटर में बैठे लोग अब बिहार का गुस्सा इधर निकालना चाहते हैं और जाट समाज को दूसरे 1984 में धकेलना चाहते हैं| इससे अपना धैर्य और संयम मत खोना| अपनी ऊर्जा को अपनी कौम को सहेज के रखने में लगाना| हाँ, कानूनी तरीके से जो लड़ाई हो सके इनके खिलाफ वो लड़ना| ज्यादा जरूरत पड़े तो मंडी-फंडी से असहयोग शुरू कर लेना परन्तु इन दो नादानों की वजह से बाकी पिछड़ा समाज से बैर मत बांधना| क्योंकि देर-सवेर यह भटके हुए भी वापिस आएंगे|

इन दोनों जैसे लोगों के लिए बस इतना ही कहूँगा कि तुम लोग आरक्षण मिलने के बाद, नौकरियों से तुम्हारी आमदनी और रोजगार बेशक बढ़ गया हो परन्तु सोच से वहीँ के वहीँ खड़े हो, दोनों के दोनों आज भी पिछड़े ही पड़े हो| तुम जैसे लोगों को मंडी-फंडी पहले भी प्रयोग करता रहा है और आज भी हो रहे हो| और जब तक होते रहोगे तब तक पिछड़े ही कहलाओगे| किसान-कमेरे को साथ ले के चलने की कूबत सिर्फ जाटों में रही और रहेगी, वो तुम यह रवैया बदले बिना कभी हासिल नहीं कर सकते, चाहे जितने तो थोथे धान पिछोड़ लो और जितने बड़े बोल बोल लो|

फिर भी किसी पल लोकलाज आये तो अपने गिरेबान में झाँक के देख लेना कि इस मंडी-फंडी की दी हुई चिंगारी को जाटों पे फेंकते-फेंकते कहीं अपने ही हाथ ना जला बैठो|

विशेष: अंधभक्त बने जाट अब तो आँखें खोलेंगे या अब भी इन्हीं की पीपनी बनके डोलेंगे? निकल आओ इस धर्म के कीड़े से बाहर और कौम की सुध ले लो कुछ| कल को जाट समाज बाकी जाटों से ज्यादा तुमपे थू-थू करा करेगा, जो बीजेपी और आरएसएस में बैठ के भी ना तो इन लोगों के मुंह बंद करवा पा रहे और ना ही इनको छोड़ पा रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 14 November 2015

जाट उलाहना देने की आदत ना डालें, किसी को कोसने पर अपनी ऊर्जा व्यय ना करें!

कल यूँ ही विकिपीडिया पर जा के हरयाणा के पेज पर झाँकनेँ का मौका मिला| देश-राज्यों में जैसे सरकारें बदलते ही उनके रवैये भी बदल जाते हैं ऐसे ही विकिपीडिया पेज पर जब देखा तो करीब 30% जनसंख्या का हिस्सा रखने वाले, शहादत-शौर्य-खेती-खेल-बिज़नेस में 70% से 30% तक की पैठ रखने वाले जाट समाज का नगण्य जिक्र है| पिछली सरकार थी तो इस पेज पर सब कुछ भिन्न था, ऐसा लगता है यह सरकार आते ही ना सिर्फ धरातल पर जाट से भेदभाव हुआ अपितु विकिपीडिया को आदेश दिया गया कि हरयाणा के पेज से और खासकर इसके "इतिहास और ऐतिहासिक हीरो" सेक्शन से जाटों का नाम तो बिलकुल ही मिटा दो| और वही हुआ पड़ा है, गूगल पे जाएँ विकिपीडिया हरयाणा डाल के देखें और पढ़ें|

सोच में पड़ गया कि जब मुझे इसको पढ़के धक्का लगा तो आम जाट युवा इसको पढ़ेगा तो बिफरेगा| तो ऐसे में जो सबसे बढ़िया समझ आया वो यही कि हमें किसी को उलाहना नहीं देना, किसी को नहीं कोसना अपितु हमें अपनी कौम के भीतर इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन नेटवर्क को खुद ही मजबूत रखना होगा| वैसे भी भारत में पैदा हुए उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश मूल के नरवैज्ञानिक (anthropoligist) आर. सी. टेम्पल के अनुसार बाकी भारत में सिर्फ "मंडी-फंडी अधिनायकवाद थ्योरी" चलती आई है, रही है जबकि हरयाणा में इसको "जाटू सोशल थ्योरी" ने टक्कर दी है| तो ऐसे में यह तो अपना फर्ज निभाएंगे ही, जहाँ मौका मिलेगा वहाँ से जाटू थ्योरी और जाट को मिटायेंगे ही|

स्वाभाविक है कि जब जाट-खाप की सोच और थ्योरी मंडी-फंडी से भिन्न रही है तो मंडी-फंडी वर्ग के लेखक व् बुद्धिजीवी उतना ही और उसी हिसाब से जाट-खाप का इतिहास लिखे होंगे या लिखेंगे, जितने से इनको फायदा रहा होगा या हो| और विकिपीडिया का हरयाणा पेज यह साबित करता है कि यह लोग आज भी इसी पथ पर अग्रसर हैं|

और ऐसे में जब जाट-युवा पीढ़ी यह देखती है कि हमारे समाज के इतिहास व् इतिहास के महापुरुषों को इनकी लेखनी में वो तवज्जो नहीं दी गई है, जिसके हम अधिकारी और दावेदार हैं तो जाट युवा-युवती में बेचैनी और किसी मौके पर कुंठा भी होती है कि हमारा इतिहास क्यों छुपाया जा रहा है| सही भी है इन लोगों को इनकी थ्योरी पे चल के महान बनने वालों का इतिहास लिखने और गुणगान करने से फुर्सत हो तो हमारी सुध लेवें| और वो कब और क्यों लेंगे उसके बारे ऊपर बताया| वैसे मैं इनसे इसकी अपेक्षा भी नहीं करना चाहूंगा परन्तु विकिपीडिया ऐसी जगह नहीं कि जिसपे हरयाणा के बारे लिखा गया हो और जाट को ऐसे सिरे से ख़ारिज कर दिया गया हो|
 
ऐसा होने का साफ़ स्पष्ट कारण है "मंडी-फंडी अधिनायकवाद थ्योरी" और "जाटू सोशल थ्योरी" में दिन-रात का अंतर| वाजिब है कि अगर यह "जाटू सोशल थ्योरी" के बारे व् इसकी वजह से बने इतिहास के बारे ईमानदारी से लिखेंगे तो फिर इनकी थ्योरी और हिस्ट्री ठहर ही नहीं पायेगी| या ठहरेगी तो उसका अलग स्थान और मकाम होगा और जाटू थ्योरी का अपना अलग| फ़िलहाल तो कोशिश यह है कि यह थ्योरी जाटू थ्योरी को इसका स्थान देने या छोड़ने की बजाय इसको खाने की फ़िराक में है|
 
इन दोनों थ्योरियों को आप उस कंपीटिशन की तरह ले के चलें जिसको जीतने के लिए प्रतिभागियों के बीच कोई रेस होती है अथवा परीक्षा होती है| सामान्य सी बात है एक प्रतिभागी थोड़े ही अपने प्रतिध्वंधी को आगे निकलने देगा|
शायद हमें एक ब्रिज की भी जरूरत है जो कि आजतक दोनों थ्योरियों के लोगों की तरफ से बनाने के नगण्य ही प्रयास हुए हैं| परन्तु ब्रिज से भी जरूरी है कि हम अपनी ऊर्जा को इनको कोसने व् उलाहना देने पर लगाने की बजाय अपने आध्यात्म, बौद्धिकता, इतिहास व् हेरिटेज को ज्यों-के-त्यों व् जहां संसोधन जरूरी हो वो आगे की पीढ़ियों को सौंपने के आधुनिक जरिये बना के अपने अंदर के अभिजात वर्ग को और सुदृढ़ व् सुनिश्चित करें| और इसको एक परम्परा में ढाल दें|

 
आपस में विचार और जानकारी का आदान-प्रदान करते रहें और उसको आधुनिक टेक्नोलॉजी से संकलित करते रहें| बेझिझक हो "जाटू सोशल थ्योरी" पर वर्कशॉप व् सेमिनार आयोजित करने की शुरुवात करें| हमें यह समझ के चलना होगा कि हमें इन मामलों बारे इनपे भरोसा करने की बजाये हमारे खुद के समाज के अभिजात वर्ग, इंटेलेक्चुअल वर्ग को आगे बढ़ाना होगा, उनका प्लेटफार्म बनाना होगा, अन्यथा यह लोग ना हमें छोड़ेंगे और ना ही हमारे इतिहास को|

इनको कभी धर्म के नाम पर, कभी दान के नाम पर दान देने बारे भी जाट समाज को सोचना होगा, क्योंकि इस दान दिए धन से यह लोग लेखन करते आये हैं| और जब धन दे के भी यह हमारे हिस्से का इतिहास नहीं संजो रहे हमारे लिए तो फिर इनको काहे का दान? बेहतर होगा कि जाट समाज अपने धन की दिशा इनको दान देने से पहले अपने इन कार्यों को पुख्ता करने और रखने में लगावे, जिनको यह हमसे धन ले के भी नहीं कर रहे|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 13 November 2015

जाटों को मंडी-फंडी से सीखना होगा कि अपनी कौम के लीडरों और हुतात्माओं को कैसे निर्विवाद सर्वोपरी रखना होता है!

"ब्रिटेन की संसद के बाहर महात्मा गाँधी की प्रतिमा गौरव की बात!" - नरेन्द्र मोदी

यह बात यह जनाब तब कहे हैं जब खुद आरएसएस और बीजेपी गांधी के हत्यारे नत्थूराम को अपना प्रेरणास्त्रोत मानती है| है ना कमाल की बात, इनको गांधी भी चाहिए और गोडसे भी?

जबकि जाट, जो अजित सिंह खेमे का हो गया, जो बंसीलाल खेमे का हो गया, जो देवीलाल खेमे का हो गया, जो बादल खेमे का हो गया, जो कप्तान अमरिंदर खेमे का हो गया, जो नाथूराम मिर्धा खेमे का हो गया या जो हुड्डा खेमे का हो गया; तो मजाल है जो आपस में एक-दूसरे खेमे वाले जाट लीडर की प्रशंसा कर लेवें? हाँ उल्टा पब्लिकली कोसते जरूर मिल जायेंगे| न्यूट्रल रहने का तो शायद स्कोप ही नहीं होता कि चलो भाई अगर तारीफ नहीं कर सकते तो अपनी ही कौम के लीडर के बारे बुरा बोलने की बजाय न्यूट्रल रह लो|

मेरे ख्याल से कौम के हीरो की और कौम के लीडर की दूसरे खेमे में होते हुए भी कैसे इज्जत बना के रखनी है वो कोई मोदी से सीखें| मोदी बनिया जाति से हैं और गांधी भी बनिया जाति से, राजनैतिक विचारधारा भिन्न होते हुए भी गांधी को इज्जत देने से नहीं कतराते| जबकि कोई हुड्डा खेमे का जाट देवीलाल को या अजित खेमे का जाट अगर चौटाला की प्रसंशा करता हुआ मिल जाए तो बवाल हो जाते हैं, अपने खेमे के प्रति उसकी निष्ठां संदेह में घेर दी जाती है|

झूठे हैं हमारे दावे कि हम जाट सबसे ज्यादा कौम के प्रति वफ़ादारी या कटटरता रखते हैं जबकि हमसे ज्यादा आपसी टांग खिंचाई कोई नहीं करता होगा|

मेरे ख्याल से यह एक ऐसा अध्याय है राजनीति का जिसको जाट जितना जल्दी सीख लेंगे, उतना जल्दी अपनी राजनैतिक ताकत को अप्रत्याशित रूप से बढ़ा लेंगे| राजनीति किसी के घर की नहीं, परन्तु कौम का नेता सबका होता है| मंडी-फंडी से और कुछ नहीं परन्तु इतना तो सीख ही सकते हैं|

वोट डालने की चॉइस और कौम के तमाम लीडरों और हुतात्माओं को सम्मान देने को अलग-अलग रखके चलना होगा, वर्ना राजनीति ही जाट-कौम को खा जाएगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक