Saturday, 21 November 2015

बीजेपी में जा के किसान पृष्ठभूमि के नेता की बुद्धि भी कैसे मंद हो जाती है, उसका जीता-जागता उदाहरण है भिवानी-महेंद्रगढ़ के सांसद धर्मबीर पंघाल!

एक किसान ने जब पूछा कि यह हजारों गाय आवारा छोड़ दी, यह हमारी रबी-खरीफ दोनों फसलें उजाड़ रही हैं, इनका कुछ क्यों नहीं किया जा रहा?

तो महोदय जवाब में कहते हैं कि देशी गाय नहीं अपितु जर्सी-अमरीकन गाय ज्यादा आवारा घूमती हैं और खेतों को चरती हैं| अब इन महाशय को कौन बताये कि जर्सी-अमरीकन तो बालट भर के दूध देती है, उसको तो कोई विरला ही आवारा छोड़ता है| 90% आवारा तो घूम ही देशी नश्ल रही है|

ओह अच्छा जनाब आरएसएस और बीजेपी से गाय-ज्ञान पा के इतने ज्ञानी हो गए हैं कि इनको यह भी पता लग गया कि जर्सी-अमेरिकन गाय में दिमाग नहीं होता और देशी में होता है| जनाब यह जो अमेरिका और यूरोप पूरे विश्व पे राज करते हैं ना वो इन्हीं जर्सी और अमेरिकन गाय का दूध पी के करते हैं, और यह आपकी देशी नश्ल का दूध पीने वालों के दिमाग ने क्या दिमागी करिश्मे दिखाए हैं जरा देश की 1300 साल की गुलामी काल में झाँक के देख लो|

ऐंड-बैंड-सैंड कुछ भी क्या? आळु जैसा व्यवहार मत करो जनाब अगर आपके हाथ बंधे हैं तो साफ़ बोल दो|

वैसे किधर गए ये सारे गौ-भगत, आओ भाई आगे, कम-से-कम एक-एक तो बांधों अपने कोठी-बंगलो में, और नहीं तो दूकान के अगाडे-पिछाड़े या मंदिर के आँगन में ही बाँध लो|

जागो किसान की औलादो, इन पाखंडियों के ढोंगों में फंसोगे तो ऐसे ही अपने दोहरे-तिहरे नुकसान करवाओगे|
मतलब क्या खूब मजे ले रही है हरयाणा सरकार भी किसानों के, एक तो फसलों के भाव नहीं, और ऊपर से जो कुछ थोड़ा बहुत पैदा होवे तो उसको यह आवारा गायें छोड़ के उजड़वा रही है| और कमाल की बात तो यह है कि किसानी जातियों से आने वाले राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य तक को यह चीजें नहीं दिख रही| हाँ भाई, आरएसएस और बीजेपी के जातीय जहर के एजेंडा को फ़ैलाने से इनको फुर्सत मिले तो किसान का दर्द सुनेंगे ना| क्या विडंबना है किसान की| शायद आरएसएस और बीजेपी की घूंटी ऐसी ही होती है, किसी और को भी पीनी हो तो देख लो भाई, सोच लो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: BJP सांसद धर्मबीर बोले, गाय एक बिना दिमाग वाला पशु है
http://hindi.news18.com/news/chandigarh/cow-is-without-mind-animal-says-dharambir-1041163.html

गर्व से कहो हम हरयाणवी हैं!



जैसे मंडी-फंडी बाकी के समाज की इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन रखता है, ऐसे ही इनकी रखो!

मंडी-फंडी खुद नफरत नहीं फैलाता, राजकुमार सैनी, मनोहरलाल खट्टर और रोशनलाल आर्य जैसे मंद्बुद्धियों के जरिये से फैलवाता है, फूट डालता है और राज हथियाता है| खुद तो यह तभी सामने आता है जब इसको पुष्टि रहती है कि अब समाज पूरी तरह से बिखरा हुआ है|

इनके पास लोकराज लोकलाज से चलता है व् राजनैतिक-सामाजिक लिहाज-शर्म के नाम पर कुछ नहीं होता| यह कोरी नफरत और फूट डालने की नीति की राजनीती पर फलते-फूलते हैं| क्योंकि पूंजीवादी सिर्फ पैसा कमाने के लिए राजनीति करता है, समाज में शांति-न्याय और व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए नहीं| शांति-न्याय और व्यवस्था की सुदृढ़ता तो इसकी राजनीति के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं|

तो क्या कोई ऐसी सोच या समाज नहीं जो इन मंडी-फंडी में भी फूट डलवा सके? है ऐसी सोच और समाज हर जगह मुमकिन है बशर्ते, लोग मंडी-फंडी की नीतियों को क्रिटिसाइज करने में वक्त ज्याया करने की बजाय, इनकी सामाजिक सरंचना और सूझबूझ पर फोकस करे तो|

आश्चर्य नहीं कि अगर पूछने लगूं कि मंडी-फंडी के समाजों को तोड़ने की कमजोर कड़ियाँ कौनसी-कौनसी हैं तो कोई विरला ही जवाब दे पाये कि यह-यह हैं| जबकि मंडी-फंडी के पास इतनी इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन रहती है कि इनको ओबीसी हो, दलित हो या माइनॉरिटी, हर एक की सामाजिक कमजोरी और रग पता होती है|

अत: अगर इनसे पार पाना है तो सिर्फ इनकी नीतियों को क्रिटिसाइज करने से काम नहीं चलने वाला, अपितु इनकी भांति इनके भीतर की सामाजिक सरंचना और इनके कमजोर बिन्दुओं की इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन हासिल करने पे और उसको छुपाने की बजाय साझा करने पे (कम-से-कम एक जैसी सोच वालों के साथ) फोकस करना होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 20 November 2015

राजनैतिक चुटकी है, बुरा नहीं मनाने का!

लालू से मोदी मिले तो स्ट्रेटेजी, केजरीवाल  मिले तो बेइज्जती, वाह रे भगतन क्या मापदंड है तोहार?

अभी बिहार इलेक्शन से दो-एक महीने पहले मुलायम-लालू के बेटे-बेटियों के ब्याह में जनाब मोदी जब गलबहियाँ पा-पा सेल्फ़ी खिंचाई रहे तो वो स्ट्रेटेजी था, अउर कल ललवा ने केजरिया को पकड़ गलबहियां लिए तो बेइज्जती हुई गवा, हुड़ सुसरा बुड़बक।

केजरी-लालू-नितीश-दुष्यंत-ममता-अजित-देवेगौड़ा आदि एक स्टेज पर मिले तो आँख में किरकिरी गिर गवा, अउर उ बख्त जब ई भगवा वाला J&K उग्रवादियों को दबी जुबान समर्थन देने वाली पार्टी से प्यार की पींघ चढ़ाई रहे, तब का आँखों में जाला पड़ गवा था? ओह नाहीं शायद चोर-चोर मौसेरे भाई मिलत रही, एक आईएसआईएस से प्रेम करने वाला और दूजो आरएसएस से।

का रे बुड़बक भगतो, जब सेंटर में बारहवीं पास देश की शिक्षामंत्री झेल सकत हो, गंवार-झाहिल-बदजुबान मंत्रियों-एम्पियों की पूरी फ़ौज झेल सकत हो, तो आठवीं पास ललवा के सुपुत्वा ने कोनों काले चना चबाये हैं का जो वो देश की एक स्टेटवा का डिप्टी सीएम भी नाहीं बन सकत?

अरे हो,आरएसएस का एजेंटवा हरयाणा का चीफ मिनिस्टरवा, तू काहे को दसवीं से नीचे पढ़ा लोगन को उन्हां सरपंच नाहीं बनन देत रे? जब तोरो जैसन असामाजिक जीव अढ़ाई करोड़ का हरयाणा संभाले रही, तो का दसवीं से नीचे पढ़ा हुआ इक दुइ-चार हजार का गाँव नहीं संभाल पाहिं?

हुड़ बुड़बक, किधर हो रे बुधना, ज़रा इन भगतन को हाँक के हमार बाड़ा में बंद करके ताला लगाई के चाबी हमका देई तो जरा! ससुरा जब देखो छूट लेइत है खुल्ला सांड की जोई!

मस्करी, ऊ भी राजनीति का बाघड़ बिल्ला ललवा के साथ, ससुर का नाती सबको ठिकाने ना लगाई दई का?

फूल मलिक

गौहत्थों वाले बाड़ों से पहले विधवा-हत्थों वाले बाड़े तोड़ो!

गाय जैसे पशु के लिए तणे-तुड़ाने वाले, उनको गौहत्थों के बाड़ों से छुड़ाने हेतु त्राहिमाम मचाने वाले धर्म के ठेकेदारो, यह विधवा-आश्रमों वाले बाड़ों से विधवा औरतों को कब छोड़ोगे? कब विधवाओं का जीवन इन बाड़ों में सड़ाना बंद करोगे?

अब वक्त आ गया है कि विधवा-आश्रमों की कुप्रथा का अंत हो| गंगोत्री से ले हुगली तक के नदी घाटों और वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों को समूल नष्ट किया जाए| विधवा को उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर धर्म के नाम पर आजीवन इन बाड़ों में सड़ाना अब बंद हो|

विधवा-आश्रम जीवन तो सती-प्रथा से भी घिनोनी क्रूरता है, सती-प्रथा में औरत कम से कम एक बार में स्वाहा हो के अपना पिंड तो छुड़ा लिया करती| इन विधवा-आश्रमों में तो तिल-तिल तो औरत की जिंदगी फफक-फफक मरती ही है, और अगर कोई इनका जीवन देख ले तो साक्षात धरती पर ही नरक के दर्शन हो जावें| 

और कहीं से इसकी शिक्षा और प्रेरणा नहीं मिलती हो तो कम से कम अपने ही धर्म बाहुल्यता के हरयाणा के मूल-हरयाणवियों से ही प्रेरणा ले लो कि कैसे इस धरती के लोग विधवा को भी स्वेच्छा से दूसरा जीवन चुनने की आज़ादी देते आये हैं| विडंबना तो यह है कि भारत में सबसे ज्यादा मानवाधिकारों को व्यवहारिकता में पालने वाले हरयाणा को मीडिया के माध्यम से यही मति के लोग ज्यादा तालिबानी दिखाते हैं जो अपने यहां विधवाओं को चुपचाप आश्रमों में सड़-सड़ के मरने हेतु पशुओं की भांति ठूंस दिया जाना देख-2 के बड़े हुए होते हैं|

क्या व्यक्तिगत अपराधों से बड़े और भयावह इस तरह के सामूहिक अपराध नहीं, और वो भी सरेआम धर्म के नाम पर? क्या बाकी तरह की तमाम करुणा पालने से पहले, मानवता को ठीक से पालने की सुध और सलीका आना सबसे जरूरी नहीं?

मुझे तो अचरज इस बात का होता है कि नेटिव हरयाणवियों की धरती वृन्दावन पर यह बंगाली विधवाओं का आश्रम बन कैसे गया और कैसे इसको यहां चलने दिया जा रहा है| जबकि यहां का स्थानीय हरयाणवी तो अपनी विधवाओं को पुनर्विवाह या स्वेच्छा से दिवंगत पति की सम्पत्ति की मालकिन होते हुए उस पर राज करते व् उसको भोगते हुए स्वाभिमान भरा जीवनयापन का हक देता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"हिन्दू एकता और बराबरी" के फोबिया से जितना जल्दी हो सके बाहर निकलें!

क्योंकि अगर इसमें ज़रा सी भी सच्चाई होती तो, इस नारे को उछालने वालों द्वारा ही:
1) मुज़फ्फरनगर का जो दंगा हिन्दू-मुस्लिम के टैग से शुरू हुआ था वो बाद में जाट-मुस्लिम बना के प्रचारित ना किया जाता|
2) हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा ना रचा जाता|
3) बिहार में कुर्मी-यादव बनाम नॉन-कुर्मी-यादव का अखाडा ना रचा जाता|
4) गुजरात में पटेल बनाम नॉन-पटेल का अखाडा ना रचा जाता|
5) महाराष्ट्र में मराठा बनाम नॉन-मराठा का अखाडा ना रचा जाता|
6) इनको हिन्दू एकता की ज़रा सी भी चिंता होती तो हरयाणा में कभी मनोहरलाल खट्टर, कभी राजकुमार सैनी तो कभी रोशनलाल आर्य से जाट समाज के खिलाफ न्यूनतम स्तर की टिप्पणियाँ नहीं करवाते|
यह लक्षण "हिन्दू एकता और बराबरी" की बात करने वालों के तो कदापि नहीं हो सकते, या हो सकते हैं? यह लोग "हिन्दू एकता और बराबरी" को लेकर तंज मात्र भी सीरियस होते तो सबसे पहले हिन्दू धर्म से वर्ण व् जातीय व्यवस्था को खत्म करते, नहीं? दलित-शूद्र-छुआछूत-ऊंच-नीच-रंग-नश्लभेद-लिंगभेद को खत्म करने पे कार्य करते? क्या दिखा ऐसा कार्य आजतक एक भी इन ऐसी बात करने वालों का?
कबीले गौर है कि आरएसएस और बीजेपी के कैडर से अगर यह पूछा जाए कि है उनके द्वारा कितने भारतीय गाँवों से दलित-शूद्र-छुआछूत-ऊंच-नीच-रंग-नश्लभेद-लिंगभेद को खत्म करवाया जा चुका है? कितने ऐसे मंदिर हैं जिनके आगे से इनके द्वारा "दलित प्रवेश निषेध" की तख्तियां हटवाई जा चुकी हैं? हिन्दुओं में मौजूद औरतों को जानवर स्तर का गुलाम बना के रखने वाली तालिबानी प्रथाओं जैसे कि विधवा पुनर्विवाह निषेध, सतीप्रथा, देवदासी, पहली बार व्रजस्ला हुई नाबालिग लड़की का मंदिरों में सार्वजनिक भोग, औरत का मंदिर में पुजारी बनना लगभग नगण्य आदि-आदि, इनमें से कितनियों को बंद करवाया है इन लोगों ने? पूछने लग जाओ तो जवाब आएगा शायद एक भी नहीं?
तो किस बात की "हिन्दू एकता और बराबरी"? हवाईयों की या ख्वाबों की "हिन्दू एकता और बराबरी"?
यह लोग क्या सोचते हैं कि इनकी थोथी हवाईयों पे चढ़े चले जाओ और इस धरातलीय भयावह कर देने वाली सच्चाई को नजर-अंदाज करके किसी भोंपू की तरह सिर्फ "हिन्दू एकता और बराबरी" चिल्लाने मात्र से हिन्दुओं में "एकता और बराबरी" आ जाएगी?

कड़वा और चुभता सच तो यह है कि यह लोग जितनी धार्मिक सेक्युलरिज्म से नफरत करते हैं उससे भी बढ़ के जातीय सेक्युलरिज्म से नफरत करते हैं| और जो जातीय सेक्युलरिज्म से धार्मिक सेक्युलरिज्म से भी बढ़ के नफरत करते हों, वह लोग "हिन्दू एकता और बराबरी" कैसे ला देंगे? और यह इस दिशा में कभी ना तो थे और ना हो सकते, ऊपर बताये उदाहरण इसका मुंह-चिढ़ाता प्रमाण हैं|
गौर फ़रमाओ तो दिन की रौशनी से भी ज्यादा स्पष्ट दीखता है कि यह "हिन्दू एकता और बराबरी" इन द्वारा फेंका हुआ भारतीय राजनीति का आजतक का सबसे काला जुमला है और सबसे बदनुमा मजाक है हिन्दू समाज के साथ| इस जुमले के प्रभाव से देश जितना जल्दी बाहर निकल आएगा, उतना जल्दी गृहयुद्ध के साथ-साथ अपनी अवनति और बर्बादी को टाल सकेगा|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 19 November 2015

ट्रेडिशनल "नगरी इकनोमिक मॉडल" की फिर से जरूरत आन पड़ी है हरयाणे की धरती को!

बाकी के भारत के किसान की तो ज्यादा कह नहीं सकता परन्तु हरयाणे के किसान को अगर बढ़ती हुई मंडी-फंडी की मार से निबटना है तो अपने पुरखों के पुराने "नगरी इकनोमिक मॉडल" को मूलभूत सुधारों के साथ अपनाना होगा। क्योंकि मंडी-फंडी के साथ-2 शरणार्थियों के पहले के प्रेशर और आये दिन और ज्यादा बढ़ते जा रहे प्रेशर से विशाल हरयाणा (मोटे तौर पर वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यूपी + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान) को अगर कोई बचा सकता है तो वह सिर्फ यही मॉडल है।

पूर्वोत्तर की तरफ से आ रहा बुद्धिजीवी वर्ग सामंतवादी सोच का है| पूर्वोत्तर और विशाल हरयाणा (खापलैंड) पर खेती के मॉडल में मूलभूत अंतर हैं, जो इस प्रकार हैं:

1) पूर्वोत्तर में जमींदार खेत में काम नहीं करता अपितु मजदूरों को आदेश देकर करवाता है। जबकि खापलैंड पे जमींदार मजदूर के साथ खुद भी खेत में खट के कमाता है। इसलिए खापलैंड की जमींदारी पद्द्ति सामंती नहीं अपितु आधुनिकतावादी है|

2) पूर्वोत्तर में जहां आज भी बेगार बहुतायत में पाई जाती है, वहीँ खापलैंड पर सदियों से सीरी-साझी के बीच बनियों-मुनिमों द्वारा सालाना ऑफिसियल कॉन्ट्रैक्ट बनते आये हैं। आजकल तो तहसीलदार के यहां कच्ची रिजस्ट्री भी होने लगी हैं।

3) पूर्वोत्तर में जमींदार और मजदूर का रिश्ता मालिक-नौकर का कहलाता है। जबकि खापलैंड पर यह रिश्ता सीरी-साझी यानी पार्टनर्स का होता है।

खापलैंड के किसान का हर वो बालक इस बात को नोट करे जो खेतों से निकल के कॉर्पोरेट में जॉब करने चढ़ता है कि सीरी-साझी वाला कल्चर ही गूगल (google) जैसी विश्व की लीडिंग कंपनी का है। गूगल में हर कोई पार्टनर होता है कोई नौकर-मालिक नहीं। सो यह वर्किंग कल्चर आप अपनी खापलैंड की विरासत से ले के वहाँ जा रहे हैं। अत: वहाँ जो नया सीखना है वो वर्किंग कल्चर नहीं अपितु टेक्नोलॉजी और ग्लोबल कम्युनिकेशन भर सीखना है।

4) पूर्वोत्तर का स्वर्ण ऊपर बताये बिंदु एक की वजह से बिहार में अपने खेतों में काम नहीं करेगा, बेशक उसको हरयाणा में आ के मजदूरों के साथ काम करना पड़ जाए।

इस पर एक निजी अनुभव बताता हुआ आगे बढूंगा। बारहवीं कक्षा के एग्जाम के बाद की छुट्टियों में मेरे पिता जी ने गेहूं कढ़ाई सीजन में हमारे यहां आई 20 बिहारी मजदूर भाईयों की टोली और मशीनों की निगरानी हेतु मेरी ड्यूटी लगा दी। हरयाणा में आने वाली ऐसी टोलियों का एक ठेकेदार यानी मैनेजर होता है जिसका काम पूरी टोली के खाने-पीने, रहन-सहन, दवा-दारू और टोली का फाइनेंस सम्भालना होता है। उसके अलावा बाकी हर कोई हाड-तोड़ काम करता है। हुआ यूँ कि उस साल हमारे यहां आई टोली में दो बन्दे ऐसे थे जो जब मर्जी आये काम करें और जब मर्जी आये बैठ जाएँ। उनके अलावा कोई बैठे तो ठेकेदार उसको हड़का के लेवे परन्तु उन दोनों को कुछ ना कहवे। मैंने यह देख ठेकेदार को कहा कि यह दो तुम्हारे रिश्तेदार हैं क्या जो इनको कुछ नहीं कहते? तो ठेकेदार बोला कि नहीं भैया जी असल में यह दोनों हमारे गाँव के ठाकुर और बाह्मन लोग हैं। अहम के कारण अपने खुद के खेतों में तो काम करते नहीं, इसलिए चोरी-छुपे यहां आ के मजदूरी कर रहे हैं। और हम ठहरे दलित और यह ठाकुर-बाह्मन, इनको अभी कुछ कहेंगे तो फिर वापिस गाँव में जाने पे हमारी खैर नहीं। मैंने विषयमित होते हुए पूछा चोरी-छुपे? वो बोला जी भैया जी, उन्हां बोल के आये हैं कि हम पिकनिक पे जा रहे हैं| मैंने ओहके टाइप फील करते हुए आगे पूछा कि क्या इनको पूरी दिहाड़ी दोगे? तो बोले नाहीं भैया जी, सबका घंटा नोट करत हूँ, जो दिन में जित्तो घंटा खटेगा उका उत्ता मजूरी; पर अगर बाकी को ना हड़काऊं तो काम कैसे पूरा होगा। मैंने कहा ओके ठीक है। उस दिन मुझे समझ आया कि उपजाऊ जमीन और नदियों की भरमार के बावजूद भी यह लोग यहाँ तक क्यों दौड़े आते हैं और शायद यही झूठे अहम के कारण बिहार आज भी पिछड़ा हुआ है।

अब इस मूलभूत फिलोसोफी के अंतर की वजह से समस्या यह आ रही है कि पूर्वोत्तर से खापलैंड पे आ के बसने वाला बुद्धिजीवी और लेखक वर्ग खापलैंड के कृषि मॉडल को भी उसी तरीके से सोचता है, उसी चश्मे से खापलैंड के किसान और मजदूर के रिश्ते को देखता है जैसा उसके वहाँ है| और बजाय खापलैंड की फिलॉसफी को समझे अपने वाली के चश्मे से लिखके किताबें और आर्टिकल पाथता है और मीडिया को उसी परिपाटी का मटेरियल सौंपता है, जिससे विशाल हरयाणा यानी तमाम खापलैंड की साख दिनों-दिन गिरते-गिरते इतनी गिर चुकी है कि इन लोगों की कही ही हरयाणा की तस्वीर मानी जाने लगी है ऐसा प्रतीत होने लगा है|

इसकी दूसरी वजह यह भी है कि पूर्वोत्तर से मध्यमवर्गीय इतना नहीं आ रहा जितना या तो बिलकुल मजदूर वर्ग का आ रहा है या गोलमेजों पर बुद्धिजीविता के बखान करने वाला कलम वाला आ रहा है। और इनमें से यह कलम वाला यहां क्या गुल खिला रहा है उसका नतीजा हरयाणा पर बनाये जा रहे आइडेंटिटी क्राइसिस के रूप में साफ़ महसूस किया जा सकता है। और यही आहट मेरी नींद उड़ाए हुए है।

वैसे सच कहूँ तो 1947 से ही हरयाणवियों ने ना ही तो अपनी शुद्ध संस्कृति जी के देखी है और ना ही इसकी डॉक्यूमेंटेशन पर इतना ध्यान दे पाये हैं। वजह साफ़ है कभी देश के बंटवारे के कारण से 1947 में आये शरणार्थी को अपने में समाहित करने में, तो कभी फिर पंजाब में आतंकवाद के चलते दूसरी बार फिर उसी शरणार्थी वर्ग के पंजाब वाले हिस्से को 1984-86 में अपने यहां समाहित करने में, तो अब पूर्वोत्तर से आ रहे को समाहित करते-करते हरयाणवी अपनी पहचान लुप्तराय सी बना बैठे हैं। शरणार्थियों को इसके सहयोग का आउटपुट भी हरयाणवी संस्कृति और मानुष की गिरती साख के रूप में नकारात्मक आया है| क्योंकि इन शरणार्थी समुदायों की सोच में शरणार्थी को अपने में समाहित करने की हरयाणवी की दरियादिली को उसकी कंधे से ऊपर की कमजोरी के रूप में लिया जा रहा है। जैसे ही यह लोग हरयाणवियों के बनाये इंफ्रा और समायोजन से समर्थ हो जाते हैं यह हरयाणवी संस्कृति को नकारात्मक तरीके से दूर हटाते जाते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे हरयाणा के पुरखों ने इनका क्या सहयोग किया उसको याद ही नहीं रखना चाहते हों। शायद महाराष्ट्रीयों की भांति हरयाणवियों ने कभी क्षेत्रवाद-जातिवाद-भाषावाद को नहीं छुआ, इसलिए। ख़ुशी-ख़ुशी अपने रोजगार और संसाधन बंटवाए परन्तु हाथ लगता दिख रहा है तो सिर्फ इनका बेगैरतपना|

पूर्वोत्तर के शरणार्थियों के आने से पहले खापलैंड का हर गाँव, गाँव नहीं अपितु नगरी बोला जाता था क्योंकि हर गाँव अपनी जरूरतें पूरी करने में स्वसमर्थ था। गाँव का कांसेप्ट तो पूर्वोत्तर वालों के यहां आने के बाद इधर आया है, वरना हमारे यहां अधिकतर या तो नगर होते आये हैं या नगरी। और यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वैसे तो आज भी, परन्तु एक दशक पहले तक तो पक्के से खापलैंड के हर गाँव में जब भी कोई बड़ा फंक्शन होता था तो उसमें सबसे बड़ा जयकारा उस नगरी और उस नगरी के खेड़े का लगता रहा है। जैसे मेरे गाँव का नाम निडाना है तो जयकारा लगता था "जय निडाना नगरी", "जय नगर/दादा खेड़ा या जय बड़ा बीर"। लेकिन हमने इसमें किसी की "जय माता दी" तो किसी की "काली कलकत्ते वाली” तक साफगोई से बेझिझक शामिल कर ली, परन्तु इसमें हमारी सहिषुणता और निष्पक्षता देखने की बजाये, यह लोग हमें ही कंधों से ऊपर कमजोर बताने लगे हैं वो भी बावजूद सीएम तक की कुर्सी पर इनको हंसी-हंसी स्वीकार करने के। यह इस अति भलाई का ही फल है कि हम नगरी से गिर के गाँव बन चुके हैं। अब इन पर ध्यान देने की बजाय खुद को सम्भालना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब हम गाँव से भी गिर के इनके यहां की "बस्ती" या "झुग्गी-झोंपड़ी" मॉडल में सिकुड़ जावेंगे।

सबसे पहले इन पर से अपना ध्यान हटावें और खापलैंड के ट्रेडिशनल इकनोमिक मॉडल को फिर से बहाल करने पे लगावें। इसके लिए सबसे जरूरी है कि:

1) हर हरयाणवी को यह बात अच्छे से पता हो कि पूर्वोत्तर में जिन बौद्धिक और आध्यात्मिक विचारों पर गोलमेज डिस्कशन भर होते हैं, उनपे हरयाणा और खापलैंड सदियों-सदियों से प्रैक्टिकल करता आया है। अत: हमें इनकी थ्योरियों में नहीं घुसना, अपितु अपनी प्रक्टिकल्स को डॉक्यूमेंट करना है।

2) प्राचीन समय से खापलैंड का हर गाँव एक "स्वतंत्र इकनोमिक मॉडल" होता आया है। हमें इस मॉडल को आज के अनुसार फिट बना के अपने यहां के हर गाँव में उतारना होगा।

3) मोदी जैसे नेता जब यह कहें कि पश्चिमोत्तर भारत के गाँव तो बहुत अग्रणी हैं, यहां का इंफ्रा बहुत मजबूत है इसलिए पैसा भारत के अन्य हिस्सों में ले जाने की जरूरत है तो कहा जाए कि जनाब हमें नगरी से गाँव नहीं नगर बनना है। देश के बाकी हिस्से को जो पैसा देना है दो, परन्तु हमें इतंजार क्यों? क्या जब तक वो झुग्गी-झोंपड़ी-बस्ती से गाँव और गाँव से नगरी बनेंगे तब तक हम इतंजार करेंगे? बिलकुल नहीं, ऐसे तो हम ही नगरी से गाँव और गाँव से झुग्गी-झोंपड़ी बन जाएंगे। हमें हमारा हिस्सा लगातार मिलना चाहिए ताकि हम नगरी से गाँव बनते जा रहे, वापिस नगरी और फिर उससे नगर बनें। अब हमें हमारे हर गाँव में शहर की भांति सीवरेज का इंफ्रा चाहिए।

4) धर्म-पाखंड के दिन-प्रतिदिन चादर से बाहर पसरते जा रहे पांवों को चादर में समेटना होगा और मंडी-फंडी के अधिनायकवाद से बाहर निकल शुद्ध खाप सोशल थ्योरी के सोशल इन्जिनीरिंग मॉडल पे वर्कआउट करना होगा। ताकि गाँव-नगरियों में किसान इतनी सूझ-बूझ बना सकें कि अपने गाँव के खाद्दान और फल-सब्जी की जरूरतें अपने ही गाँव से पूरी कर सकें। आखिर क्या नहीं है हमारे पास। हमारे पुरखों द्वारा हाड-तोड़ मेहनत से तैयार किये समतल खेत, सिंचाई के साधन और तमाम तरह का मित्र कलाइमेट। गाँवों को खुद को फिर से स्वतंत्र अर्थव्यवस्था घोषित कर आपस में आयत-निर्यात शुरू करना होगा।

5) किसानों को यह समझना होगा कि अगर आप एक दूसरे की जरूरत पूर्ती का जरिया नहीं बने तो फिर आपकी जरूरतें वो पूरी करेंगे जो आपसे आपकी फसल भी लेंगे और दाम भी मनमर्जी के देंगे।

6) एक ऐसे मॉडल के तहत जिसमें एक गाँव में हर प्रकार की जरूरत पूरी हो ऐसी लघु मार्किट (इकोनॉमी सेंटर) खड़ी करनी होंगी।

बिंदु और भी बहुत हैं, परन्तु फ़िलहाल इतना ही कहना है कि हरयाणा वालो जाट बनाम नॉन-जाट के कौतुक से बाहर निकल के इस हरयाणवी माँ की भी सुध ले लो| शरणार्थी यहां सिर्फ पैसा कमाता है, हद मार के वापिस अपनी ही संस्कृति में घुस जाता है। तुम्हारी तीज – सांझी – अहोई – संक्रांत - मेख(बैशाखी) - सीली सात्तम - हरयाणा शहीदी दिवस - बसंत पंचमी आदि ना कोई "जय माता दी" वाला मनाएगा और ना ही कोई "छट पूजा" या "काली कलकत्ते वाली" वाला| यह तो तुमको ही मनानी होंगी। इससे यह भी समझना होगा कि यह लोग तुम्हारी ही धरती पे आकर अपने त्यौहार तक मनाने लग जाते हैं परन्तु तुम्हारों में कभी नहीं घुलते-मिलते फिर तुम बेशक चाहे कितने ही इनके चौकी-चुबारे सर पे धरे बौराये फिरो।

विशेष: मैं उस धरती और सभ्यता का सपूत हूँ जो क्षेत्रवाद-जातिवाद-धर्मवाद-भाषावाद पर ना ही तो लड़ना सिखाती और ना ही उलझना, इसलिए इस लेख को कोई भी इस तरीके से ना लेवे कि यह मैंने क्या कह दिया। कहीं कोई ठाकरे/पेशवा तो नहीं हरयाणा पर उतर आया, बिलकुल भी नहीं क्योंकि हम मरहमपट्टी/फर्स्ट-ऐड (पानीपत की तीसरी लड़ाई) करने वाले लोग हैं, इसलिए हम इनकी तरह उत्तरी भारतियों की पिटाई वाले रंडी-रोणों में यकीन नहीं किया करते। परन्तु इससे भी आगे नरम और सीधा बने रह के कटना नहीं है हमें, क्योंकि सीधे पेड़ ही सबसे पहले काटे जाया करते हैं। और यकीन मानिए हरयाणवी काटे जा रहे हैं। आशा करता हूँ कि इस लेख को हर कोई सिर्फ इस मंशा लेगा कि हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत को कैसे बचाना है, उस बारे इसमें लिखा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 18 November 2015

आरएसएस और बीजेपी, 'जाट-समाज' 'हिन्दू-धर्म' का 'चार्ली-हेब्दो' है इससे नफरत मत करो!

'चार्ली-हेब्दो' पेरिस-फ्रांस से निकलने वाली ऐसी मैगज़ीन है जो पॉप से ले के पैगंबर मुहम्मद तक पर व्यंग्य कसती है। यह कोई पचास-सौ लोगों का समूह है।

पेरिस में हाल ही में हुए आतंकी हमले में इस मैगज़ीन द्वारा पैगंबर मुहम्मद का एक व्यंग्यात्मक कार्टून मुख्य वजह बताया जा रहा है।

एक ऐसा ही समूह भारत में भी है जिसको 'जाट-समाज' बोलते हैं जो हिन्दू धर्म में पैदा होने वाले ढोंग-पाखंड की आलोचना करने में सदियों से अग्रणी रहा है। परन्तु विडंबना देखो कि भारत के जो लोग 'चार्ली-हेब्दो' की प्रशंसा करते हैं, वो भारत में जाट-समाज के खिलाफ होते हैं। जाट की इस 'चार्ली-हेब्दो' गट की वजह से वो जाट को अधार्मिक और एंटी-ब्राह्मण तक ठहराने लग जाते हैं।

आरएसएस और बीजेपी, यह दोहरे मापदंड मत अपनाओ और भारत के इस 'चार्ली-हेब्दो' समूह को गले लगाओ। याद रखना जाट ना रहे तो तुम्हें कोई नहीं बता पायेगा कि वाकई में धर्म की राह पर चलते हो या ढोंग-पाखंड की राह पर।

मैंने जिंदगी में महसूस किया है कि जो समाज में वाकई में धर्म और मानवता का पक्षधर है वो जाट से जुड़ के चलता है परन्तु धर्म के नाम पर पाखंड और ढोंग कर जिसको सत्ता और पैसा बटोरना है वो जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीति करते हैं।

इसलिए अंधभक्त बने जाट भी अपनी कौम की ख़ूबसूरती के इस नायाब गट को समझें और खूबसूरत बने रहें। और धर्म में घुसे ढोंग-पाखंड की पोल खोलने में यह ना सोचें कि आप अधार्मिक हो गए या धर्म के गद्दार हो गए।
सनद रहे कि जैसे घर से कूड़े की सफाई जरूरी होती है उसी तरह धर्म को साफ़-सुथरा रखने के लिए इसके अंदर छुपे ढोंग-पाखंड के कूड़े को झाड़ना जाट का फर्ज होता है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 17 November 2015

धर्मभक्त और देशभक्त बिलकुल भिन्न परिभाषाएं हैं!

धर्मभक्त और देशभक्त में कंफ्यूज ना हों, दोनों एक दम भिन्न परिभाषाएं हैं, आपस में दूर-दूर तक कोई कनेक्शन नहीं| भिन्न-भिन्न धर्म के लोग एक ही देश में रहते हुए देश के लिए देशभक्त हो सकते हैं, परन्तु सभी देशभक्त किसी एक धर्म के धर्मभक्त हों यह कदापि सम्भव नहीं|

ऐसे धर्म के लिए भक्ति करने वाले ही देशभक्त कहलाने लगे तो फिर फौजी और किसान कहाँ जायेंगे? फौजी सीमा पर खड़ा हो देश के अंदर के हर धर्म को मानने वाले के लिए गोली खाता है और किसान हर धर्म को मानने वाले के लिए अन्न पैदा करता है| जबकि धर्मभक्त सिर्फ अपने धर्म के लिए जीता-मरता है, देश के लिए नहीं|

अत: इन छद्द्म राष्ट्रभक्तों की मनमर्जी की बनाई परिभाषाओं को बिना विवेचना और विवेक के स्वीकार करने से बचना चाहिए वरना एक दिन भाषा के शब्दकोश की खिचड़ी बना के धर देंगे यह लोग|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

भारत में बढ़ती सब्जियों के दामों और बढ़ती जमाखोरी की यह है असली वजह!

मोदी की रैली में अधिकतर मेरे जैसे कॉर्पोरेट वर्ल्ड में काम करने वाले एम्प्लोयी थे, जिनमें अधिकतर को ठीक उसी तरीके से रैली में हाजिर होने के आदेश दिए गए थे जैसे भारत में जब कोई रैली हो तो प्राइवेट स्कूलों की बसों को जबरन आदेश होते हैं कि उस दिन वो रैली की भीड़ ढोयेंगी और सरकारी कर्मचारी सपरिवार-जानकार रैली में उपस्थित होंगे|

रयूटर न्यूज़ एजेंसी के अनुसार इस रैली पर 2.5 मिलियन पाउंड्स यानी 250 करोड़ रूपये खर्च हुए, जो कि कॉर्पोरेट घरानों ने प्रायोजित किये थे| इससे साफ़ है कि यह कार्यक्रम स्थानीय ब्रिटिश नागरिकों या सरकार द्वारा प्रायोजित नहीं था| यह भारतीय कॉर्पोरेट की रैली थी, जिसकी 6 महीने पहले से तैयारी की गई थी|

और इन प्रायोजित रैलियों के लिए कॉर्पोरेट को पैसा चाहिए, जो कभी प्याज, कभी दाल, कभी टमाटर महंगे बेच-बेच के तो कभी अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की आधी कीमत होने पर भी उसको अपने यहां महंगा बेच-बेच के आम भारतीय की जेबों से ही वसूला जा रहा है| इसीलिए सटोरियों, जमाखोरों को मनचाहा अवैध भण्डारण करने की छूट से ले के, हर प्रकार के कॉर्पोरेट कर्जे से मुक्ति मिली हुई है|

और यहीं तक सिमित है इनके अच्छे दिन की परिभाषा! कोई भगत या अंधभक्त इस कड़वी सच्चाई को पढ़ के सुलगे तो सौ बार सुलगे| - फूल मलिक

Monday, 16 November 2015

ताकि आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे!

1) क्यों व्यापार और धर्मदार का कार्य आदरमान से देखा जाता है?
2) क्यों व्यापार और धर्मदार की बुनियादों को हिलाना इतना आसान नहीं होता?
3) क्यों किसान अपने कार्य का सम्मान कायम नहीं रख पाता?
4) क्यों किसान धर्म-व्यापार और मजदूर (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ) की भांति अपनी मेहनत का न्यूनतम सुरक्षित नहीं रख पाता?
5) क्यों किसान की मेहनत बीच चौराहे लावारिस पड़ी किसी वस्तु की भांति होती है?

जब से यह दुनिया बनी है तब से इस जगत में धन कमाने की 4 मुख्य धाराएं रही हैं, एक धर्म, दो व्यापार, तीन खेती और चौथा मजदूरी (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ)। ऊपर उठाये सवालों के जवाब समझने के लिए जरूरी है कि इनके कुछ पहलुओं को समझें:

1) धर्म-व्यापार-मजदूरी तीनों अपनी मेहनत खुद तय करते आये हैं सिवाय मजदूरी की एक प्रकार बंधुआ को छोड़ के| आधुनिक काल में बंधुआ तो कम होती जा रही है परन्तु भारतीय खेती में इसका अभी कोई अंत नजर नहीं आता|
2) धर्म-व्यापार-मजदूरी, खेती के परजीवी हैं| इनकी आमदन मुद्रा में चाहे कितनी भी हो अंत में उसका प्रथम और मुख्या हिस्सा होता खेती से कपड़ा और अन्न (रॉ और प्रोसेस्ड मटेरियल दोनों) खरीदने हेतु ही है|
3) इंसान की मूलभूत सुविधाओं रोटी-कपडा और मकान में से धर्म-व्यापार-मजदूरी सिर्फ मकान बिना किसान की मदद के बना सकते हैं जबकि रोटी-कपड़ा के लिए इनको किसान का मुंह ताकना ही पड़ता है| हालाँकि किसान मकान भी बिना इनकी मदद के बना सकता है|
4) इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं की सर्विसों में धर्म ही एक इकलौती ऐसी सर्विस है जो बिना गारंटी एवं वारंटी के होती है| अन्यथा व्यापारी का प्रोडक्ट हो तो वो आपको रिटर्न की गारंटी देता है, किसान का प्रोडक्ट 'अन्न' आपको पेट की भूख शांत होने की गारंटी देता है, मजदूरी की मजदूरी आपके पैसे के ऐवज के काम की गारंटी देती है|

मतलब कुल मिला के देखा जाये तो व्यवहारिकता और उपयोगिता के हिसाब से किसान का कार्यक्षेत्र और महत्व इन बाकी तीनों से सर्वोत्तम और पवित्र है| तो फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से भारतीय किसान इन बाकी तीनों में और खुद में भी:

1) अपने कार्य के प्रति सार्वजनिक व् सार्वभौमिक सम्मान नहीं बना पाता या इनके बीच हासिल नहीं कर पाता?
2) समाज के लिए इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी इनके स्तर तक का अपना गुणगान नहीं करा पाता या करवा पाता?
3) इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी लाचार, असहाय और बेबस रह जाता है?
4) अपने उत्पाद के प्रति इनकी तरह रक्षात्मक रवैया नहीं बना पाता?

धर्म वाला धर्म के साथ-साथ धर्मस्थल का भी मालिक होता है, व्यापार वाला व्यापार के साथ व्यापार-स्थल का भी मालिक होता है, खेती वाला खेत के साथ-साथ खेती का भी मालिक होता है परन्तु हकीकत में है नहीं क्योंकि उसका भाव कोई और निर्धारित करता है| हालाँकि मजदूर सिर्फ दिहाड़ी का हकदारी होता है|

सुना है फ़्रांसिसी क्रांति में औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ किसानी के इन पहलुओं को लेकर भी क्रन्तिकारी लड़ाई हुई थी| एक जमाना था जब फ्रांस में धर्म और व्यापार मिलकर किसान को ठीक इसी तरह खाए जा रहे थे जैसे आज भारत में खा रहे हैं| परन्तु जब इनकी लूट-खसोट और मनमानी की इंतहा हो गई थी तो फ्रांस का किसान उठ खड़ा हुआ था और ऐसा उठ खड़ा हुआ था कि धर्म को तो हमेशा के लिए चर्चों के अंदर तक सिमित रहने का समझौता तो धर्म के साथ किया ही किया और व्यापार को भी यह समझा दिया गया कि अगर हमारे उत्पाद और मेहनत का जायज दाम हमें नहीं मिला तो तुम्हारी गतिविधियों पर ताले जड़ दिए जायेंगे|

और इसीलिए आज फ्रांस विश्व में जितना धर्म-व्यापार और मजदूरी को लेकर संवेदनशील जाना जाता है उतना ही संवेदनशील कृषि और इसके कृषकों को लेकर जाना जाता है| यहां किसान इतने ताकतवर हैं कि जरूरत पड़े तो व्यापारियों के बड़े-से-बड़े शॉपिंग मॉल में भी जानवर बाँधने से नहीं कतराते| और ना ही सरकार किसान के इस गुस्से पर कोई कार्यवाही करती अपितु जब-जब फ़्रांसिसी किसान की तरफ से ऐसा गुस्सा आता है तो वो समझ जाती है कि किसान का बेस मूल्य रिसेट करने का टाइम और इशारा आ गया है|

अब भारत को भी एक फ़्रांसिसी क्रांति की दरकार आन पड़ी है| धर्म इतना दम्भी हो चुका है कि वो इस तरह जताने लगा है कि जैसे देश का पेट भी किसान नहीं वो ही भर रहा हो| व्यापार इतना घमंडी होता जा रहा है कि किसान को उसकी मेहनत की लागत तक नहीं छोड़ना चाहता, खेती में फायदा होना शब्द तो जैसे गायब ही हो चला है| निसंदेह किसान को यह समझना होगा कि:

1) माँ नौ महीने बच्चे को पेट में पाल के, एक दम से पेट से निकाल के ही समाज को नहीं सौंप दिया करती, वो उसको बड़ा करने में भी वक्त और मेहनत लगाती है| ऐसे ही किसान समझें इस बात को कि उनका खेत उनके लिए माँ का पेट है और उस खेत से पक के निकलने वाली उपज उनका नवजात शिशु और नवजात शिशु को मंडी को तुरंत ही नहीं सौंपा जाया करता| पहले आपस में बैठ के अपने उत्पाद की लागत और मजदूरी खुद धरो, उसपे अपना बचत का मार्जिन धरो और फिर इनको दो| ऐसा करते हुए किसान को घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि परजीवी आप नहीं, धर्म-व्यापार और मजदूर हैं| कितना ही माथा पटक लेवें हार फिर के आवेंगे आपके ही पास| इसलिए इस पहलु को ले के किसान को संजीदा होना होगा|
2) पंडित फेरे करवाता है तो 500-1000 न्यूनतम लेता है, झाड़-फूंक-पूछा वाला 100 से 1000 तक की पत्ती आपसे पहले रखवा लेता है, मंदिर में कम रूपये चढ़ाओ और पुजारी की नजर पड़ जाए तो मुंह सिकोड़ने लगता है, कई मंदिरों में तो न्यूनतम 100-200 से नीचे दिया तो पर्ची भी नहीं मिलती यानी वो आपके दान से खुश नहीं हुए| इनके द्वारा आपको दी गई भाषा में दान परन्तु इनकी खुद की भाषा में वो इनका सर्विस चार्ज होता है|
3) व्यापारी का तो सीधा सा सटीक फार्मूला है, 'कॉस्ट ऑफ़ प्रोडक्शन + प्रॉफिट मार्जिन = विक्रय मूल्य
4) मजदूर की दिहाड़ी, नौकर की नौकरी का न्यूनतम निर्धारित करने के लिए भी विभिन्न मजदूर संगठन तो रहते ही रहते हैं, जहां यह नहीं हैं वहाँ भी यह लोग अपनी न्यूनतम दिहाड़ी पहले सुनिश्चित करते हैं उसके बाद काम पर जाते हैं|
5) तो दिखती सी बात है धर्म हो, व्यापार हो या मजदूर, जब यह तीनों अपनी मेहनत की दिहाड़ी के न्यूनतम को ले के इतने संजीदा और सचेत हैं तो फिर किसान क्यों यह हक अपने पास नहीं रखता? इस पहलु पर आज के भारतीय किसान को कालजयी आंदोलन छेड़ना होगा|
6) मंदिर में आप पुजारी से हर वक्त नहीं मिल सकते, व्यापारी से आप हर वक्त तो क्या कई बार अपॉइंटमेंट ले के भी नहीं मिल सकते, मजदूर/नौकर से भी आपको अपॉइंटमेंट लेनी होती है, परन्तु यह तीनों ही जब चाहें किसान को डिस्टर्ब कर सकते हैं? यह क्या तुक हुआ? निसंदेह फ्रांस की तरह इनको भी चर्चों के अंदर तक सिमित करना होगा, गलियों-घरों में वक्त-बेवक्त किसान की प्राइवेसी डिस्टर्ब करने के इनके हठ को लगाम लगानी होगी| यानि इतना प्रोफेशनलिज्म एटीच्यूड किसान को भी लाना होगा|
7) धर्माधीस का बेटा/बेटी धर्म छोड़ के व्यापार में घुसता है तो कभी धर्म की बुराई ना तो वो खुद करता, ना उसके माँ-बाप करते| व्यापारी का बेटा/बेटी जब मजदूर या नौकर बने तो वो भी कभी व्यापार की बुराई नहीं करते, ना वो बच्चा करता| तो फिर जब किसान के बच्चे को अपना कार्यक्षेत्र बदलना होता है तो किसान क्यों उसको किसानी के सिर्फ दुःख दिखा के ही प्रेरित करता है कि यहां बहुत दुःख हैं, यह कार्य बड़ा तुच्छ है इसलिए इसको छोड़ के नौकरी पे चढ़ो या व्यापार करो| किसान को अपने बच्चों को अपना पुश्तैनी कार्यक्षेत्र छोड़ने के ऐसे प्रेरणास्त्रोत देने होंगे जिससे कि किसानी का स्वाभिमान भी उनमें कायम रहे और वो कार्यक्षेत्र भी बदल लेवें| यह इतना गंभीर और बड़ा कारण है कि गाँवों से शहरों को गए किसानों के 90% बच्चे वापिस मुड़कर गाँव और अपनी जड़ों की तरफ देखते ही नहीं हैं| कार्यक्षेत्र बदलते या बदलवाते वक्त उनमें अपने पुश्तैनी कार्य के स्वाभिमान को छोड़ा हो तो मुड़ेंगे ना?
8) और यह लोग नहीं मुड़ रहे इसीलिए किसानी सभ्यता, संस्कृति और हेरिटेज पीढ़ी-दर-पीढ़ी दम तोड़ता जाता है| और यह स्थाई ना रहे, इसी से धर्म और व्यापार का अँधा-मनचाहा और यहां तक अवैध रोजगार चलता है| इसलिए इन चीजों को ले के किसान संजीदा हो, वर्ना आप सभ्यता बनाते जायेंगे, धर्म और व्यापार उसको मिटाते जायेंगे और जायेंगे और जायेंगे और आपपे हावी बने रहेंगे|

इस लेख के अंत के सार में लिखने को कोई एक लाइन नहीं बन रही, बस जो बन रहा है वो यह ऊपर लिखा एक-दूसरे से गुंथा पहलुओं का झुरमुट| किसी भी सिरे से पकड़ लो, इसको संभालने पर चलोगे तो बाकी अपने आप सम्भलते जावेंगे और दरकिनार करोगे तो बाकी के भी दरकिनार हो बिखर जावेंगे| और इसी बिखराव को समेटने हेतु लाजिमी है कि किसान भी धर्म, व्यापारी और मजदूर की तरह प्रोफेशनल हो और फ़्रांसिसी क्रांति जैसी एक लड़ाई को तैयार हो, ताकि इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

9 अप्रैल 1944 को चौधरी छोटूराम ने जाट महासभा के लायलपुर अधिवेशन मे!

9 अप्रैल 1944 को चौधरी छोटूराम ने जाट महासभा के लायलपुर अधिवेशन मे इन धर्मों के ठेकेदारों इन शहरी लोगो के इस खेल पर जो आज भी ज्यों का त्यों चल रहा हैं बोलते हुए कहा था :

" हमारी जाट कौम गहरी नींद मे थी , उन्नति प्राप्त वर्ग खास तौर पर शहरी शिक्षित वर्ग और व्यापारी वर्ग हमारे अधिकारों को चट कर जाते थे | जब उन्होने देखा कि जाट संगठित हो रहे हैं और अपने अधिकारों पर दावा जताने लगे हैं तो ये शहरी बेचैन हो उठे ! उन ने सोचा धार्मिक मुद्दे सहायक हो सकते हैं | वे जाटों को मूर्ख और असभ्य मानते रहे थे ; वे जाटों कि सादगी और अज्ञानता का मज़ाक उड़ाते रहे थे ; जाटों कि साफ़गोई को उन में सभ्यता और संस्कृति का आभाव माना जाता था | ये शहरी लोग अब भोले-भाले गूंगे-बहरे अशिक्षित गरीब जाटों के जाग जाने के कारण दुखी हैं , चिन्तित हैं ; और उन लोगो ने इन्हे नींद मे बनाए रखने के लिए षड्यंत्र रचा हैं ; इन के साथ भेड़-बकरियों कि तरह बर्ताव करते रहने और इन कि जुंबानों और दिमागों को धर्म की नशीली खुराक दे कर बंद कर देने का षड्यंत्र रचा हैं , वे डरे हुए हैं कि जाट यदि जाग गए तो उन मे बदले कि भावना आ सकती हैं..... वे हमारी कष्ट कमाई पर डाका डालने कि योजनाए बना रहे हैं .... वे हम पर दोषारोपण कर के और अपने पापो और कुकृत्यों पर पर्दा डालने कि कोशिश करते हैं ; वे बहुत चालाक बनने की कोशिश करते हैं ; जैसे की वे हमारे भाग्य विधाता हों, हमारे जीवन-दाता हों और हमारे भविष्य के निर्माता हो ! वे हमारी उन्नति को पचा नहीं पा रहे हैं ... हमारी जागृति को वे अपनी मौत का संकेत मान रहे हैं ; भगवान का मुखौटा लगाए हुए ये शैतान बेचैन हैं ....... "

हम आधुनिक और विकसित विश्व के साथ चल रहे हैं या उसके उल्टा बह रहे हैं?

आस्ट्रेलिया में एक नया कानून बनाया गया है जिसके अनुसार स्कूलों में धर्म की पढ़ाई को पूरी तरह से रोका जा रहा है, अगर स्कूलों में कोई धर्म पढ़ाते हुए मिलेगा/मिलेगी तो उन्हें जेल भेजा जाएगा| ब्रिटेन में स्कूलों में धार्मिक प्रार्थनाएं बन्द करने पर विचार किया जा रहा है। अमेरिका और फ्रांस में पहले से ही स्कूलों में हर प्रकार की धार्मिक शिक्षा बंद है|

और अपने यहाँ भारत में इन चीजों को कहीं पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है तो कहीं इसकी मांग उठ रही हैं। फिर भी कौन कहता है कि हम विकसित व् आधुनिक विश्व से ताल-पे-ताल मिला के चल रहे हैं| इससे तो लगता है कि हम विकसित विश्व के उल्टा जा रहे हैं|

फूल मलिक