Wednesday, 25 November 2015

और हमारे देश और धर्म की सदियों से कड़वी सच्चाई है ही यह कि!

ना हमारे धर्माधीस सहिष्णु हैं, और ना ही देश को जातिवाद के जहर के दम पे देश चलाने वाले सहिष्णु हैं| वो कैसे, उसकी एक झलक इस कड़वी सच्चाई में झांक के खुद का चेहरा आईनें में देखने की भांति स्वत: ही देख लीजिये|

दलितो के अत्याचार पर देश मे असहिष्णुता का माहौल क्यो नही बना?

वर्षो से आजादी के बाद से आज तक दलितो पर अत्याचार हो रहे है। देश का ऐसा कोई कोना नही जहाँ इन्होने अपमान ना झेला हो। इनके घर की औरतो को हवस का शिकार नही बनाया गया हो। तरह-तरह से प्रताडित किया जाता रहा है। ये समाज आज भी आजादी की लडाई लड रहा है। इतना सब होने के बाद भी भारत मे असहिष्णुता नजर नही आयी। किसी ने इस पर अवार्ड नही लौटाया। किसी ने मार्च नही निकाला। किसी बुद्विजीवी प्राणी, सेलिब्रिटी, राजनीतिक पार्टी या किसी फेसबुकिया गिरोह ने इस पर चर्चा नही की। जिन टी.वी चैनलो पर लम्बे टाईम से असहिष्णुता पर बहस जारी है उन्होने इस पर बात करना ठीक नही समझा। ये सब इसलिए है क्योकि वो दलित् है? और ये सब झेलना तो उनका अधिकार है।

आश्चर्य की बात तो ये है कि जो दलित आज की असहिष्णुता पर हल्ला मचा रहे है वो अपने समाज पर बढ रही असहिष्णुता समझ ही नही पाये है। उन्हे ऊपर के सवालो पर सोचना चाहिए। साथ मे ये भी कि आज तक कितने लोग उनके प्रति इस असहिष्णुता पर आगे आये है? उन्हे बहती गंगा मे हाथ न धोकर कुछ जरुरी तर्क भी करने चाहिए।

दलितो पर अत्याचार सबकी सरकारो मे होते है। लेकिन सफाई देने के अलावा किसी ने कुछ नही किया। ये असहिष्णुता सिर्फ एक विशेष धर्म के लिए ही क्यो? इतनी हमदर्दी दलितो के लिए क्यो नही? क्या दलितो को कोई अपना नही समझता?

Phool Malik

Tuesday, 24 November 2015

यह है असली असहिषुणता, अगर किसी नेता-अभिनेता-लेखक से इसपे आवाज उठाई जाती हो तो उठा लो!

असहिषुणता का असली मुद्दा अगर किसी को उठाना है तो वो मरते किसान की, आत्महत्या करते किसान की आवाज के साथ उठाओ, मैं गारंटी देता हूँ या तो कोई तुम्हारा विरोध नहीं करेगा अन्यथा वास्तव में असहिष्णु लोगों के चेहरे सामने आ जायेंगे|

लो मैं कहता हूँ देश का किसान मर रहा है, कहीं आत्महत्या करके तो कहीं भूख से तो कहीं कर्जे से तो कहीं सूखे और अकाल से तो कहीं उसकी मेहनत पर मची लूट से|

क्या किसी को चुपचाप मरते देखना असहिषुणता नहीं होती? किसी के दर्द को और बढ़ाना, उसको जानबूझकर फसलों के दाम ना देना और फसल का सीजन जाते ही फसलों के दोगुने दाम कर लेना, क्या यह असहिषुणता नहीं इस बात की कि किसान की जेब में उसकी मेहनत के बराबर तक का भी पैसा मत जाने दो, पंरतु अपनी जेबें भर लो?

ताजा उदाहरण चाहिए किसी को तो हरयाणा में आ के देख लो, महीना भर पहले जिस धान (चावल) की फसल को सरकार और व्यापारी 1200 रूपये में भी नहीं खरीद रहे थे, आज उसी धान का भाव वापिस 3000 रूपये चल रहा है| अगला सीजन आएगा तो इसको फिर से यह बीजेपी और आरएसएस वाले 1200 करवा देंगे और सीजन निकलते ही वापिस 3000|

लगता है असहिषुणता शब्द को भुनाने वालों ने जानबूझकर इसकी दिशा बदली हुई है और ऐसे लोगों के बयानों पे इस शब्द को टिका रहे हैं, जिनके बोलने से आमजन को कुछ फर्क नहीं पड़ना| शायद यह जानते हैं कि ऐसे शब्दों को उधर नहीं मोड़ा गया तो कहीं किसान-कमेरे-दलित की आवाज ना फूट पड़े और इनके कान बहरे हो जाएँ| इन फाइव-स्टार लोगों की असहिषुणता सुनने और उसको भुनाने से किसी को फुर्सत मिल जाए तो यह मेरे वाली उठाई असहिषुणता की तरफ भी ध्यान घुमा लेना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 23 November 2015

किसानों के भगवान एक बार फिर हो आणा हो!

किसानों के भगवान एक बार फिर हो आणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा,
वो खुदाई दुनिया ने दादा, आपमें पाई थी|
पढ़ा ब्रामण समाज तोड़े, पढ़ा जाट समाज जोड़े,
किसान-दलित की ऐसी जोट तूने बनाई थी||
आ फिर से समाज जोड़ना, ना तो हो जा धिंगताणा हो|
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

दमनचक्र काले अंग्रेजों का,
गौरों की लय पे चढ़ आया है|
मंडी के हितैषी गांधी-लाजपत खड़े,
इनके आगे अड़ने का बुलावा आया है||
आजा सपूत साँपले के, घना अँधेरा छाँट जा हो|
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

किसानों के भाव देते ना,
किसानों को भाव देते ना!
अंग्रेजों से अड़ के जिद्द पे जैसे,
किवंटल पे 6 के 11 दिलवाए थे|
ऐसे ही आज, इन काले अंग्रेजों से दिलवाना हो|
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

हिन्दू बाँट दिया, मुसलमान बाँट दिया,
मंडी ने बाँट दिया, फंडी ने बाँट दिया|
कहीं आपसी नादानी ने, जहर जख्म का टांट दिया,
जिन्ना-नेहरुओं ने मिलके, बाग़ तेरा उजाट किया||
हरयाणा-पंजाब एक रखने को, जिन्नाओं को बॉम्बे भगाना हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

अजगर-ब्राह्मण-सैनी-खाती-छिम्बी सबकी,
पक्की किसानी-मल्कियत करवाई थी|
बंधुवा और बालमजदूरी के संग,
साहूकारी-कर्जदारी की जड़ उखड़वाई थी|
सबसे पहले लाहौर सचिवालय में,
दलित-पिछड़ों की आरक्षण पे नौकरी लगाई थी|
उसी आरक्षण को अब, जनसंख्या अनुपात में करवाना हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

जज्बे की बात कर ज्या,
दादा हो जज्बात भर ज्या|
खाली तेरा डेरा हो रह्या,
किसानां का भाग सो रहया||
तेरे भोलों के हक पे बैठा, यह काग उड़ाणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

तेवर वही चाहियें फिर से,
जिनसे गांधीं थर-थर ठिठकें,
'फुल्ले-भगत' के जज्बात छलकें,
मंडी-फंडी को कैसे लूँ डट के,
इनको होश में लाऊँ कैसे, इसका राहगोर बनाणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

किसानों के भगवान एक बार फिर हो आणा हो,
खा गए मंडी-फंडी तेरे अन्नदाता का दाणा हो|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Special tribute to Sir Chhoturam on thou birth anniversary (24th Nov, 1881)!

जरूर दूसरा पक्ष नॉन-जाट रहा होगा, इसलिए जाति नहीं बताई!

वर्ना मोटे-मोटे अक्षरों में कुछ इस तरह का लिखा आता कि, "दबंग जाटों ने दलित को खिलाया गोबर!"

दलित खुद फैसला कर लें और समझें अब इस वाले राज को| जाट सीएम होता था तो भी अगर जाट से झगड़ा हुआ तो जाट के नाम के साथ उसकी जाति जरूर आती थी| और अब देख लो अब तो आप लोगों को यह भी पता नहीं लगने दिया जाता कि कौनसी जाति वाले ने दलित उत्पीड़न किया|

तो क्या था यह मीडिया और दलित हमदर्दी का खेल? सिर्फ और सिर्फ जाटों को आपका नंबर वन दुश्मन दिखाकर, जाट-दलित के वोट तोड़कर, दलित का वोट लेकर सत्ता हासिल करना और फिर ऐसे उत्पीड़न हों दलितों पर तो उत्पीड़न करने वाले की जाति का नाम तक अखबारों में ना आने देना|

मानता हूँ जाटों-दलितों में मनमुटाव होते आये हैं, परन्तु क्या इनसे भी बुरे तरीके से कि आज तो दलित उत्पीड़न करने वाले की जाति अगर जाट ना हो तो सबको सिर्फ "दबंग बनाम दलित" से ढांप दे रहे हैं|


फूल मलिक

 

Sunday, 22 November 2015

सर छोटूराम को अंग्रजों का पिट्ठू कहने वाले अपने कानों के पट खोल के सुनें!

यह जो नीचे सर छोटूराम द्वारा पास करवाये जिन कानूनों की फेहरिश्त रख रहा हूँ, यह ना ही तो किसानों के लिए किसी गांधी ने पास करवाये, ना ही किसी नेहरू ने, ना ही किसी शंकराचार्य-महंत आदि ने, ना ही किसी आर.एस.एस. वाले ने, ना ही किसी जिन्नाह ने; अंग्रेजों को लट्ठ दे के यह पास करवाये तो सिर्फ और सिर्फ सर छोटूराम ने| और उनके इस गट के आगे "सर' तो उनके लिए बहुत छोटी उपाधि है, उनको "किसानों का भगवान" भी कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं|

डालें नजर जरा इन पर राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य जैसे मंडी-फंडी के इशारों पर बरगलाते फिर रहे लोग| आप लोग अपनी सरकार-सत्ता और ताकत होते हुए इन जैसा एक भी कानून अगर किसान बिरादरी के लिए पास करवा दो, तो ताउम्र आपकी वंदना करूँ| जब गांधी-जिन्नाह-लाला लाजपत राय जैसे लोग मंडी-व्यापारियों के हितों हेतु कभी असहयोग आंदोलन तो कभी साइमन कमीशन का विरोध कर रहे थे, जब बालगंगाधर तिलक और गांधी वर्ण व् जातीय व्यवस्था को ज्यों-का-त्यों कायम रख पाखंडियों के हितों हेतु "पूना पैक्ट" कर रहे थे, जब आर.एस.एस. वाले अपने बिलों में घुसे बैठे रहा करते थे, तब इस शेर जाटनी के जाए ने, अंग्रेजों के हलक से निकाल यह कानून दिलवाए थे किसान-कमेरे को, पढ़ो इनको और सोधी में आओ कुछ:

साहूकार पंजीकरण एक्ट - 1938 - यह कानून 2 सितंबर 1938 को प्रभावी हुआ था । इसके अनुसार कोई भी साहूकार बिना पंजीकरण के किसी को कर्ज़ नहीं दे पाएगा और न ही किसानों पर अदालत में मुकदमा कर पायेगा। इस अधिनियम के कारण साहूकारों की एक फौज पर अंकुश लग गया।

गिरवी जमीनों की मुफ्त वापसी एक्ट - 1938 - यह कानून 9 सितंबर 1938 को प्रभावी हुआ । इस अधिनियम के जरिए जो जमीनें 8 जून 1901 के बाद कुर्की से बेची हुई थी तथा 37 सालों से गिरवी चली आ रही थीं, वो सारी जमीनें किसानों को वापिस दिलवाई गईं। इस कानून के तहत केवल एक सादे कागज पर जिलाधीश को प्रार्थना-पत्र देना होता था। इस कानून में अगर मूलराशि का दोगुणा धन साहूकार प्राप्‍त कर चुका है तो किसान को जमीन का पूर्ण स्वामित्व दिये जाने का प्रावधान किया गया।

कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम - 1938 - यह अधिनियम 5 मई, 1939 से प्रभावी माना गया। इसके तहत नोटिफाइड एरिया में मार्किट कमेटियों का गठन किया गया। एक कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार किसानों को अपनी फसल का मूल्य एक रुपये में से 60 पैसे ही मिल पाता था। अनेक कटौतियों का सामना किसानों को करना पड़ता था। आढ़त, तुलाई, रोलाई, मुनीमी, पल्लेदारी और कितनी ही कटौतियां होती थीं। इस अधिनियम के तहत किसानों को उसकी फसल का उचित मूल्य दिलवाने का नियम बना। आढ़तियों के शोषण से किसानों को निजात इसी अधिनियम ने दिलवाई।

व्यवसाय श्रमिक अधिनियम - 1940 - यह अधिनियम 11 जून 1940 को लागू हुआ। बंधुआ मजदूरी पर रोक लगाए जाने वाले इस कानून ने मजदूरों को शोषण से निजात दिलाई। सप्‍ताह में 61 घंटे, एक दिन में 11 घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकेगा। वर्ष भर में 14 छुट्टियां दी जाएंगी। 14 साल से कम उम्र के बच्चों से मजदूरी नहीं कराई जाएगी। दुकान व व्यवसायिक संस्थान रविवार को बंद रहेंगे। छोटी-छोटी गलतियों पर वेतन नहीं काटा जाएगा। जुर्माने की राशि श्रमिक कल्याण के लिए ही प्रयोग हो पाएगी। इन सबकी जांच एक श्रम निरीक्षक द्वारा समय-समय पर की जाया करेगी।

कर्जा माफी अधिनियम - 1934 - यह क्रान्तिकारी ऐतिहासिक अधिनियम दीनबंधु चौधरी छोटूराम ने 8 अप्रैल 1935 में किसान व मजदूर को सूदखोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बनवाया। इस कानून के तहत अगर कर्जे का दुगुना पैसा दिया जा चुका है तो ऋणी ऋण-मुक्त समझा जाएगा। इस अधिनियम के तहत कर्जा माफी (रीकैन्सिलेशन) बोर्ड बनाए गए जिसमें एक चेयरमैन और दो सदस्य होते थे। दाम दुप्पटा का नियम लागू किया गया। इसके अनुसार दुधारू पशु, बछड़ा, ऊंट, रेहड़ा, घेर, गितवाड़ आदि आजीविका के साधनों की नीलामी नहीं की जाएगी।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मंडी-फंडी पर किसानी एकता का चाबुक रहना बहुत जरूरी है!

वर्ना यह बेलगाम बेदिशा बेदर्दी से लूटते हैं। किसानों को राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य जैसे कठपुतली नेताओं को यह बात समझानी होगी, वरना ऐसे नेता जाट को कोसने के नाम पर किसान बिरादरी की इतनी अपूर्णीय क्षति कर देंगे कि सर छोटूराम - चौधरी चरण सिंह - ताऊ देवीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत एक साथ पैदा हों तब ही जा के पूरी हो पाये।

अब क्योंकि चारों किसान नेता जाट जाति से हैं तो इसमें भी जातिवाद के कीड़े के काटे हुए लोग जाति मत देखने लग जाना, क्योंकि हकीकत यही है कि किसान और कमेरी जातियों के लिए जो-जो लड़ाईयां यह लोग लड़ गए और जो-जो कानून यह लोग बना गए, आज तक कोई और किसान नेता नहीं बनवा पाया, फिर चाहे वो किसी जाति से क्यों ना आता हो। और अगर उत्तर भारत में इनसे बड़ा कोई किसान मसीहा हुआ हो तो मैं जरूर उसका नाम जानना चाहूंगा।

लेख के शीर्षक पर आगे बढ़ते हुए कहना चाहूंगा कि जब गुलामी के दौर में मंडी-फंडी पर अंग्रेजों का चाबुक रहता था तो यह कंट्रोल में रहते थे। बेशक हम उनके गुलाम थे परन्तु किसान के दर्द और दुःख से वो कभी भी इस तरह विमुख हो कर या तो खुद ही नहीं बैठते थे और अगर यदि बैठते थे तो सर छोटूराम जैसे मसीहा उनको विवश कर देते थे किसानों की सुनने के लिए।

अंग्रेजों के जाने के बाद, मंडी-फंडी के खुल्ले बारणे हुए और 1300 साल की घोर गुलामी से कुछ भी प्रेरणा ना लेते हुए मंडी-फंडी लग गया किसानी एकता को तोड़ने पर। और इसमें भी तल्लीन तरीके से किसानी एकता की धुर्री जाट जाति को इससे अलग करने पर। इनको पहली बड़ी कामयाबी तब मिली थी जब 1990 में इन्होनें वीपी सिंह (एक राजपूत) और ताऊ देवीलाल (एक जाट) की जोड़ी को तोड़ा था। उसके बाद से ही यह लग गए किसान जातियों में से जाट का प्रभाव खत्म करने पर। हालाँकि बाबा टिकैत ने फिर भी किसानों को एक पिरोये रखा, पंरतु बाबा के जाने के बाद और उनके जैसे जज्बे का कोई उत्तराधिकारी अभी तक किसानों को नहीं मिलने की वजह से आज किसान बिलकुल अनाथ सा भटक रहा है।

राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य जैसों के माध्यम से तो अब मंडी-फंडी किसान के बिल्कुल वही हालात लाने की ओर अग्रसर है जब ना किसानों में एकता रहे और ना ही किसान हकों की कोई बात भी उठाने वाला रहे। सिर्फ इतना ही नहीं इनकी मंजिल जाती है किसानों में इतनी हीन-भवन भरने तक कि कोई किसान नेता किसानों की बात करने तक से घबराये। अभी जो सैनी और आर्य जैसे कठपुतली नेताओं के जरिये से चल रहा है यह मंडी-फंडी का यही मिशन चल रहा है कि किसानों में तुम्हारे नाम का इतना भय बैठा दिया जाए कि किसान सिर्फ तुम्हारा बंधुआ मजदूर बनके रहे जाए। और अगर ऐसा हुआ तो सैनी और आर्य जैसे लोग इसके जिम्मेदार होंगे।

जरूर सैनी और आर्य जैसे लोगों में किसान-कमेरे का नेता बनने की ललक होगी, परन्तु इन्होनें जो रास्ता अख्तियार कर रखा है वो एक दम गलत है। इनको अगर वाकई में किसान का मसीहा बनना है तो इन ऊपर चर्चित किसान मसीहाओं की जीवनी इन्हें पढ़नी चाहिए। वर्ना तो जाट को कोसने के रस्ते चलके यह खुद को कितने ओबीसी के शुभचिंतक साबित कर पाएंगे यह तो ओबीसी ही जाने, परन्तु किसान की किस्मत में अँधेरे-ही-अँधेरे भर देंगे यह जरूर सुनिश्चित है।

हालाँकि ताऊ देवीलाल के सानिध्य में राजनीति के गुर सीखे हुए लालू यादव, शरद यादव और नितीश कुमार से बिहार चुनाव के बाद से कुछ आस जगी है, परन्तु यह कितना इन किसान मसीहाओं जैसा साबित कर पाएंगे, यह भी देखने वाली बात रहेगी| सच कहूँ तो आज के दिन एक ऐसे वक्त में जब बाकी के किसान नेता सत्ता में नहीं हैं तो इन लोगों के पास मौका है उत्तर भारत में किसानों के अगला मसीहा बनने का और किसानी एकता को मजबूत कर मंडी-फंडी पर इस एकता का चाबुक चलाने का|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 21 November 2015

बीजेपी में जा के किसान पृष्ठभूमि के नेता की बुद्धि भी कैसे मंद हो जाती है, उसका जीता-जागता उदाहरण है भिवानी-महेंद्रगढ़ के सांसद धर्मबीर पंघाल!

एक किसान ने जब पूछा कि यह हजारों गाय आवारा छोड़ दी, यह हमारी रबी-खरीफ दोनों फसलें उजाड़ रही हैं, इनका कुछ क्यों नहीं किया जा रहा?

तो महोदय जवाब में कहते हैं कि देशी गाय नहीं अपितु जर्सी-अमरीकन गाय ज्यादा आवारा घूमती हैं और खेतों को चरती हैं| अब इन महाशय को कौन बताये कि जर्सी-अमरीकन तो बालट भर के दूध देती है, उसको तो कोई विरला ही आवारा छोड़ता है| 90% आवारा तो घूम ही देशी नश्ल रही है|

ओह अच्छा जनाब आरएसएस और बीजेपी से गाय-ज्ञान पा के इतने ज्ञानी हो गए हैं कि इनको यह भी पता लग गया कि जर्सी-अमेरिकन गाय में दिमाग नहीं होता और देशी में होता है| जनाब यह जो अमेरिका और यूरोप पूरे विश्व पे राज करते हैं ना वो इन्हीं जर्सी और अमेरिकन गाय का दूध पी के करते हैं, और यह आपकी देशी नश्ल का दूध पीने वालों के दिमाग ने क्या दिमागी करिश्मे दिखाए हैं जरा देश की 1300 साल की गुलामी काल में झाँक के देख लो|

ऐंड-बैंड-सैंड कुछ भी क्या? आळु जैसा व्यवहार मत करो जनाब अगर आपके हाथ बंधे हैं तो साफ़ बोल दो|

वैसे किधर गए ये सारे गौ-भगत, आओ भाई आगे, कम-से-कम एक-एक तो बांधों अपने कोठी-बंगलो में, और नहीं तो दूकान के अगाडे-पिछाड़े या मंदिर के आँगन में ही बाँध लो|

जागो किसान की औलादो, इन पाखंडियों के ढोंगों में फंसोगे तो ऐसे ही अपने दोहरे-तिहरे नुकसान करवाओगे|
मतलब क्या खूब मजे ले रही है हरयाणा सरकार भी किसानों के, एक तो फसलों के भाव नहीं, और ऊपर से जो कुछ थोड़ा बहुत पैदा होवे तो उसको यह आवारा गायें छोड़ के उजड़वा रही है| और कमाल की बात तो यह है कि किसानी जातियों से आने वाले राजकुमार सैनी और रोशनलाल आर्य तक को यह चीजें नहीं दिख रही| हाँ भाई, आरएसएस और बीजेपी के जातीय जहर के एजेंडा को फ़ैलाने से इनको फुर्सत मिले तो किसान का दर्द सुनेंगे ना| क्या विडंबना है किसान की| शायद आरएसएस और बीजेपी की घूंटी ऐसी ही होती है, किसी और को भी पीनी हो तो देख लो भाई, सोच लो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: BJP सांसद धर्मबीर बोले, गाय एक बिना दिमाग वाला पशु है
http://hindi.news18.com/news/chandigarh/cow-is-without-mind-animal-says-dharambir-1041163.html

गर्व से कहो हम हरयाणवी हैं!



जैसे मंडी-फंडी बाकी के समाज की इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन रखता है, ऐसे ही इनकी रखो!

मंडी-फंडी खुद नफरत नहीं फैलाता, राजकुमार सैनी, मनोहरलाल खट्टर और रोशनलाल आर्य जैसे मंद्बुद्धियों के जरिये से फैलवाता है, फूट डालता है और राज हथियाता है| खुद तो यह तभी सामने आता है जब इसको पुष्टि रहती है कि अब समाज पूरी तरह से बिखरा हुआ है|

इनके पास लोकराज लोकलाज से चलता है व् राजनैतिक-सामाजिक लिहाज-शर्म के नाम पर कुछ नहीं होता| यह कोरी नफरत और फूट डालने की नीति की राजनीती पर फलते-फूलते हैं| क्योंकि पूंजीवादी सिर्फ पैसा कमाने के लिए राजनीति करता है, समाज में शांति-न्याय और व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए नहीं| शांति-न्याय और व्यवस्था की सुदृढ़ता तो इसकी राजनीति के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं|

तो क्या कोई ऐसी सोच या समाज नहीं जो इन मंडी-फंडी में भी फूट डलवा सके? है ऐसी सोच और समाज हर जगह मुमकिन है बशर्ते, लोग मंडी-फंडी की नीतियों को क्रिटिसाइज करने में वक्त ज्याया करने की बजाय, इनकी सामाजिक सरंचना और सूझबूझ पर फोकस करे तो|

आश्चर्य नहीं कि अगर पूछने लगूं कि मंडी-फंडी के समाजों को तोड़ने की कमजोर कड़ियाँ कौनसी-कौनसी हैं तो कोई विरला ही जवाब दे पाये कि यह-यह हैं| जबकि मंडी-फंडी के पास इतनी इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन रहती है कि इनको ओबीसी हो, दलित हो या माइनॉरिटी, हर एक की सामाजिक कमजोरी और रग पता होती है|

अत: अगर इनसे पार पाना है तो सिर्फ इनकी नीतियों को क्रिटिसाइज करने से काम नहीं चलने वाला, अपितु इनकी भांति इनके भीतर की सामाजिक सरंचना और इनके कमजोर बिन्दुओं की इंटेलिजेंस और इनफार्मेशन हासिल करने पे और उसको छुपाने की बजाय साझा करने पे (कम-से-कम एक जैसी सोच वालों के साथ) फोकस करना होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 20 November 2015

राजनैतिक चुटकी है, बुरा नहीं मनाने का!

लालू से मोदी मिले तो स्ट्रेटेजी, केजरीवाल  मिले तो बेइज्जती, वाह रे भगतन क्या मापदंड है तोहार?

अभी बिहार इलेक्शन से दो-एक महीने पहले मुलायम-लालू के बेटे-बेटियों के ब्याह में जनाब मोदी जब गलबहियाँ पा-पा सेल्फ़ी खिंचाई रहे तो वो स्ट्रेटेजी था, अउर कल ललवा ने केजरिया को पकड़ गलबहियां लिए तो बेइज्जती हुई गवा, हुड़ सुसरा बुड़बक।

केजरी-लालू-नितीश-दुष्यंत-ममता-अजित-देवेगौड़ा आदि एक स्टेज पर मिले तो आँख में किरकिरी गिर गवा, अउर उ बख्त जब ई भगवा वाला J&K उग्रवादियों को दबी जुबान समर्थन देने वाली पार्टी से प्यार की पींघ चढ़ाई रहे, तब का आँखों में जाला पड़ गवा था? ओह नाहीं शायद चोर-चोर मौसेरे भाई मिलत रही, एक आईएसआईएस से प्रेम करने वाला और दूजो आरएसएस से।

का रे बुड़बक भगतो, जब सेंटर में बारहवीं पास देश की शिक्षामंत्री झेल सकत हो, गंवार-झाहिल-बदजुबान मंत्रियों-एम्पियों की पूरी फ़ौज झेल सकत हो, तो आठवीं पास ललवा के सुपुत्वा ने कोनों काले चना चबाये हैं का जो वो देश की एक स्टेटवा का डिप्टी सीएम भी नाहीं बन सकत?

अरे हो,आरएसएस का एजेंटवा हरयाणा का चीफ मिनिस्टरवा, तू काहे को दसवीं से नीचे पढ़ा लोगन को उन्हां सरपंच नाहीं बनन देत रे? जब तोरो जैसन असामाजिक जीव अढ़ाई करोड़ का हरयाणा संभाले रही, तो का दसवीं से नीचे पढ़ा हुआ इक दुइ-चार हजार का गाँव नहीं संभाल पाहिं?

हुड़ बुड़बक, किधर हो रे बुधना, ज़रा इन भगतन को हाँक के हमार बाड़ा में बंद करके ताला लगाई के चाबी हमका देई तो जरा! ससुरा जब देखो छूट लेइत है खुल्ला सांड की जोई!

मस्करी, ऊ भी राजनीति का बाघड़ बिल्ला ललवा के साथ, ससुर का नाती सबको ठिकाने ना लगाई दई का?

फूल मलिक

गौहत्थों वाले बाड़ों से पहले विधवा-हत्थों वाले बाड़े तोड़ो!

गाय जैसे पशु के लिए तणे-तुड़ाने वाले, उनको गौहत्थों के बाड़ों से छुड़ाने हेतु त्राहिमाम मचाने वाले धर्म के ठेकेदारो, यह विधवा-आश्रमों वाले बाड़ों से विधवा औरतों को कब छोड़ोगे? कब विधवाओं का जीवन इन बाड़ों में सड़ाना बंद करोगे?

अब वक्त आ गया है कि विधवा-आश्रमों की कुप्रथा का अंत हो| गंगोत्री से ले हुगली तक के नदी घाटों और वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों को समूल नष्ट किया जाए| विधवा को उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर धर्म के नाम पर आजीवन इन बाड़ों में सड़ाना अब बंद हो|

विधवा-आश्रम जीवन तो सती-प्रथा से भी घिनोनी क्रूरता है, सती-प्रथा में औरत कम से कम एक बार में स्वाहा हो के अपना पिंड तो छुड़ा लिया करती| इन विधवा-आश्रमों में तो तिल-तिल तो औरत की जिंदगी फफक-फफक मरती ही है, और अगर कोई इनका जीवन देख ले तो साक्षात धरती पर ही नरक के दर्शन हो जावें| 

और कहीं से इसकी शिक्षा और प्रेरणा नहीं मिलती हो तो कम से कम अपने ही धर्म बाहुल्यता के हरयाणा के मूल-हरयाणवियों से ही प्रेरणा ले लो कि कैसे इस धरती के लोग विधवा को भी स्वेच्छा से दूसरा जीवन चुनने की आज़ादी देते आये हैं| विडंबना तो यह है कि भारत में सबसे ज्यादा मानवाधिकारों को व्यवहारिकता में पालने वाले हरयाणा को मीडिया के माध्यम से यही मति के लोग ज्यादा तालिबानी दिखाते हैं जो अपने यहां विधवाओं को चुपचाप आश्रमों में सड़-सड़ के मरने हेतु पशुओं की भांति ठूंस दिया जाना देख-2 के बड़े हुए होते हैं|

क्या व्यक्तिगत अपराधों से बड़े और भयावह इस तरह के सामूहिक अपराध नहीं, और वो भी सरेआम धर्म के नाम पर? क्या बाकी तरह की तमाम करुणा पालने से पहले, मानवता को ठीक से पालने की सुध और सलीका आना सबसे जरूरी नहीं?

मुझे तो अचरज इस बात का होता है कि नेटिव हरयाणवियों की धरती वृन्दावन पर यह बंगाली विधवाओं का आश्रम बन कैसे गया और कैसे इसको यहां चलने दिया जा रहा है| जबकि यहां का स्थानीय हरयाणवी तो अपनी विधवाओं को पुनर्विवाह या स्वेच्छा से दिवंगत पति की सम्पत्ति की मालकिन होते हुए उस पर राज करते व् उसको भोगते हुए स्वाभिमान भरा जीवनयापन का हक देता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"हिन्दू एकता और बराबरी" के फोबिया से जितना जल्दी हो सके बाहर निकलें!

क्योंकि अगर इसमें ज़रा सी भी सच्चाई होती तो, इस नारे को उछालने वालों द्वारा ही:
1) मुज़फ्फरनगर का जो दंगा हिन्दू-मुस्लिम के टैग से शुरू हुआ था वो बाद में जाट-मुस्लिम बना के प्रचारित ना किया जाता|
2) हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा ना रचा जाता|
3) बिहार में कुर्मी-यादव बनाम नॉन-कुर्मी-यादव का अखाडा ना रचा जाता|
4) गुजरात में पटेल बनाम नॉन-पटेल का अखाडा ना रचा जाता|
5) महाराष्ट्र में मराठा बनाम नॉन-मराठा का अखाडा ना रचा जाता|
6) इनको हिन्दू एकता की ज़रा सी भी चिंता होती तो हरयाणा में कभी मनोहरलाल खट्टर, कभी राजकुमार सैनी तो कभी रोशनलाल आर्य से जाट समाज के खिलाफ न्यूनतम स्तर की टिप्पणियाँ नहीं करवाते|
यह लक्षण "हिन्दू एकता और बराबरी" की बात करने वालों के तो कदापि नहीं हो सकते, या हो सकते हैं? यह लोग "हिन्दू एकता और बराबरी" को लेकर तंज मात्र भी सीरियस होते तो सबसे पहले हिन्दू धर्म से वर्ण व् जातीय व्यवस्था को खत्म करते, नहीं? दलित-शूद्र-छुआछूत-ऊंच-नीच-रंग-नश्लभेद-लिंगभेद को खत्म करने पे कार्य करते? क्या दिखा ऐसा कार्य आजतक एक भी इन ऐसी बात करने वालों का?
कबीले गौर है कि आरएसएस और बीजेपी के कैडर से अगर यह पूछा जाए कि है उनके द्वारा कितने भारतीय गाँवों से दलित-शूद्र-छुआछूत-ऊंच-नीच-रंग-नश्लभेद-लिंगभेद को खत्म करवाया जा चुका है? कितने ऐसे मंदिर हैं जिनके आगे से इनके द्वारा "दलित प्रवेश निषेध" की तख्तियां हटवाई जा चुकी हैं? हिन्दुओं में मौजूद औरतों को जानवर स्तर का गुलाम बना के रखने वाली तालिबानी प्रथाओं जैसे कि विधवा पुनर्विवाह निषेध, सतीप्रथा, देवदासी, पहली बार व्रजस्ला हुई नाबालिग लड़की का मंदिरों में सार्वजनिक भोग, औरत का मंदिर में पुजारी बनना लगभग नगण्य आदि-आदि, इनमें से कितनियों को बंद करवाया है इन लोगों ने? पूछने लग जाओ तो जवाब आएगा शायद एक भी नहीं?
तो किस बात की "हिन्दू एकता और बराबरी"? हवाईयों की या ख्वाबों की "हिन्दू एकता और बराबरी"?
यह लोग क्या सोचते हैं कि इनकी थोथी हवाईयों पे चढ़े चले जाओ और इस धरातलीय भयावह कर देने वाली सच्चाई को नजर-अंदाज करके किसी भोंपू की तरह सिर्फ "हिन्दू एकता और बराबरी" चिल्लाने मात्र से हिन्दुओं में "एकता और बराबरी" आ जाएगी?

कड़वा और चुभता सच तो यह है कि यह लोग जितनी धार्मिक सेक्युलरिज्म से नफरत करते हैं उससे भी बढ़ के जातीय सेक्युलरिज्म से नफरत करते हैं| और जो जातीय सेक्युलरिज्म से धार्मिक सेक्युलरिज्म से भी बढ़ के नफरत करते हों, वह लोग "हिन्दू एकता और बराबरी" कैसे ला देंगे? और यह इस दिशा में कभी ना तो थे और ना हो सकते, ऊपर बताये उदाहरण इसका मुंह-चिढ़ाता प्रमाण हैं|
गौर फ़रमाओ तो दिन की रौशनी से भी ज्यादा स्पष्ट दीखता है कि यह "हिन्दू एकता और बराबरी" इन द्वारा फेंका हुआ भारतीय राजनीति का आजतक का सबसे काला जुमला है और सबसे बदनुमा मजाक है हिन्दू समाज के साथ| इस जुमले के प्रभाव से देश जितना जल्दी बाहर निकल आएगा, उतना जल्दी गृहयुद्ध के साथ-साथ अपनी अवनति और बर्बादी को टाल सकेगा|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 19 November 2015

ट्रेडिशनल "नगरी इकनोमिक मॉडल" की फिर से जरूरत आन पड़ी है हरयाणे की धरती को!

बाकी के भारत के किसान की तो ज्यादा कह नहीं सकता परन्तु हरयाणे के किसान को अगर बढ़ती हुई मंडी-फंडी की मार से निबटना है तो अपने पुरखों के पुराने "नगरी इकनोमिक मॉडल" को मूलभूत सुधारों के साथ अपनाना होगा। क्योंकि मंडी-फंडी के साथ-2 शरणार्थियों के पहले के प्रेशर और आये दिन और ज्यादा बढ़ते जा रहे प्रेशर से विशाल हरयाणा (मोटे तौर पर वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यूपी + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान) को अगर कोई बचा सकता है तो वह सिर्फ यही मॉडल है।

पूर्वोत्तर की तरफ से आ रहा बुद्धिजीवी वर्ग सामंतवादी सोच का है| पूर्वोत्तर और विशाल हरयाणा (खापलैंड) पर खेती के मॉडल में मूलभूत अंतर हैं, जो इस प्रकार हैं:

1) पूर्वोत्तर में जमींदार खेत में काम नहीं करता अपितु मजदूरों को आदेश देकर करवाता है। जबकि खापलैंड पे जमींदार मजदूर के साथ खुद भी खेत में खट के कमाता है। इसलिए खापलैंड की जमींदारी पद्द्ति सामंती नहीं अपितु आधुनिकतावादी है|

2) पूर्वोत्तर में जहां आज भी बेगार बहुतायत में पाई जाती है, वहीँ खापलैंड पर सदियों से सीरी-साझी के बीच बनियों-मुनिमों द्वारा सालाना ऑफिसियल कॉन्ट्रैक्ट बनते आये हैं। आजकल तो तहसीलदार के यहां कच्ची रिजस्ट्री भी होने लगी हैं।

3) पूर्वोत्तर में जमींदार और मजदूर का रिश्ता मालिक-नौकर का कहलाता है। जबकि खापलैंड पर यह रिश्ता सीरी-साझी यानी पार्टनर्स का होता है।

खापलैंड के किसान का हर वो बालक इस बात को नोट करे जो खेतों से निकल के कॉर्पोरेट में जॉब करने चढ़ता है कि सीरी-साझी वाला कल्चर ही गूगल (google) जैसी विश्व की लीडिंग कंपनी का है। गूगल में हर कोई पार्टनर होता है कोई नौकर-मालिक नहीं। सो यह वर्किंग कल्चर आप अपनी खापलैंड की विरासत से ले के वहाँ जा रहे हैं। अत: वहाँ जो नया सीखना है वो वर्किंग कल्चर नहीं अपितु टेक्नोलॉजी और ग्लोबल कम्युनिकेशन भर सीखना है।

4) पूर्वोत्तर का स्वर्ण ऊपर बताये बिंदु एक की वजह से बिहार में अपने खेतों में काम नहीं करेगा, बेशक उसको हरयाणा में आ के मजदूरों के साथ काम करना पड़ जाए।

इस पर एक निजी अनुभव बताता हुआ आगे बढूंगा। बारहवीं कक्षा के एग्जाम के बाद की छुट्टियों में मेरे पिता जी ने गेहूं कढ़ाई सीजन में हमारे यहां आई 20 बिहारी मजदूर भाईयों की टोली और मशीनों की निगरानी हेतु मेरी ड्यूटी लगा दी। हरयाणा में आने वाली ऐसी टोलियों का एक ठेकेदार यानी मैनेजर होता है जिसका काम पूरी टोली के खाने-पीने, रहन-सहन, दवा-दारू और टोली का फाइनेंस सम्भालना होता है। उसके अलावा बाकी हर कोई हाड-तोड़ काम करता है। हुआ यूँ कि उस साल हमारे यहां आई टोली में दो बन्दे ऐसे थे जो जब मर्जी आये काम करें और जब मर्जी आये बैठ जाएँ। उनके अलावा कोई बैठे तो ठेकेदार उसको हड़का के लेवे परन्तु उन दोनों को कुछ ना कहवे। मैंने यह देख ठेकेदार को कहा कि यह दो तुम्हारे रिश्तेदार हैं क्या जो इनको कुछ नहीं कहते? तो ठेकेदार बोला कि नहीं भैया जी असल में यह दोनों हमारे गाँव के ठाकुर और बाह्मन लोग हैं। अहम के कारण अपने खुद के खेतों में तो काम करते नहीं, इसलिए चोरी-छुपे यहां आ के मजदूरी कर रहे हैं। और हम ठहरे दलित और यह ठाकुर-बाह्मन, इनको अभी कुछ कहेंगे तो फिर वापिस गाँव में जाने पे हमारी खैर नहीं। मैंने विषयमित होते हुए पूछा चोरी-छुपे? वो बोला जी भैया जी, उन्हां बोल के आये हैं कि हम पिकनिक पे जा रहे हैं| मैंने ओहके टाइप फील करते हुए आगे पूछा कि क्या इनको पूरी दिहाड़ी दोगे? तो बोले नाहीं भैया जी, सबका घंटा नोट करत हूँ, जो दिन में जित्तो घंटा खटेगा उका उत्ता मजूरी; पर अगर बाकी को ना हड़काऊं तो काम कैसे पूरा होगा। मैंने कहा ओके ठीक है। उस दिन मुझे समझ आया कि उपजाऊ जमीन और नदियों की भरमार के बावजूद भी यह लोग यहाँ तक क्यों दौड़े आते हैं और शायद यही झूठे अहम के कारण बिहार आज भी पिछड़ा हुआ है।

अब इस मूलभूत फिलोसोफी के अंतर की वजह से समस्या यह आ रही है कि पूर्वोत्तर से खापलैंड पे आ के बसने वाला बुद्धिजीवी और लेखक वर्ग खापलैंड के कृषि मॉडल को भी उसी तरीके से सोचता है, उसी चश्मे से खापलैंड के किसान और मजदूर के रिश्ते को देखता है जैसा उसके वहाँ है| और बजाय खापलैंड की फिलॉसफी को समझे अपने वाली के चश्मे से लिखके किताबें और आर्टिकल पाथता है और मीडिया को उसी परिपाटी का मटेरियल सौंपता है, जिससे विशाल हरयाणा यानी तमाम खापलैंड की साख दिनों-दिन गिरते-गिरते इतनी गिर चुकी है कि इन लोगों की कही ही हरयाणा की तस्वीर मानी जाने लगी है ऐसा प्रतीत होने लगा है|

इसकी दूसरी वजह यह भी है कि पूर्वोत्तर से मध्यमवर्गीय इतना नहीं आ रहा जितना या तो बिलकुल मजदूर वर्ग का आ रहा है या गोलमेजों पर बुद्धिजीविता के बखान करने वाला कलम वाला आ रहा है। और इनमें से यह कलम वाला यहां क्या गुल खिला रहा है उसका नतीजा हरयाणा पर बनाये जा रहे आइडेंटिटी क्राइसिस के रूप में साफ़ महसूस किया जा सकता है। और यही आहट मेरी नींद उड़ाए हुए है।

वैसे सच कहूँ तो 1947 से ही हरयाणवियों ने ना ही तो अपनी शुद्ध संस्कृति जी के देखी है और ना ही इसकी डॉक्यूमेंटेशन पर इतना ध्यान दे पाये हैं। वजह साफ़ है कभी देश के बंटवारे के कारण से 1947 में आये शरणार्थी को अपने में समाहित करने में, तो कभी फिर पंजाब में आतंकवाद के चलते दूसरी बार फिर उसी शरणार्थी वर्ग के पंजाब वाले हिस्से को 1984-86 में अपने यहां समाहित करने में, तो अब पूर्वोत्तर से आ रहे को समाहित करते-करते हरयाणवी अपनी पहचान लुप्तराय सी बना बैठे हैं। शरणार्थियों को इसके सहयोग का आउटपुट भी हरयाणवी संस्कृति और मानुष की गिरती साख के रूप में नकारात्मक आया है| क्योंकि इन शरणार्थी समुदायों की सोच में शरणार्थी को अपने में समाहित करने की हरयाणवी की दरियादिली को उसकी कंधे से ऊपर की कमजोरी के रूप में लिया जा रहा है। जैसे ही यह लोग हरयाणवियों के बनाये इंफ्रा और समायोजन से समर्थ हो जाते हैं यह हरयाणवी संस्कृति को नकारात्मक तरीके से दूर हटाते जाते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे हरयाणा के पुरखों ने इनका क्या सहयोग किया उसको याद ही नहीं रखना चाहते हों। शायद महाराष्ट्रीयों की भांति हरयाणवियों ने कभी क्षेत्रवाद-जातिवाद-भाषावाद को नहीं छुआ, इसलिए। ख़ुशी-ख़ुशी अपने रोजगार और संसाधन बंटवाए परन्तु हाथ लगता दिख रहा है तो सिर्फ इनका बेगैरतपना|

पूर्वोत्तर के शरणार्थियों के आने से पहले खापलैंड का हर गाँव, गाँव नहीं अपितु नगरी बोला जाता था क्योंकि हर गाँव अपनी जरूरतें पूरी करने में स्वसमर्थ था। गाँव का कांसेप्ट तो पूर्वोत्तर वालों के यहां आने के बाद इधर आया है, वरना हमारे यहां अधिकतर या तो नगर होते आये हैं या नगरी। और यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वैसे तो आज भी, परन्तु एक दशक पहले तक तो पक्के से खापलैंड के हर गाँव में जब भी कोई बड़ा फंक्शन होता था तो उसमें सबसे बड़ा जयकारा उस नगरी और उस नगरी के खेड़े का लगता रहा है। जैसे मेरे गाँव का नाम निडाना है तो जयकारा लगता था "जय निडाना नगरी", "जय नगर/दादा खेड़ा या जय बड़ा बीर"। लेकिन हमने इसमें किसी की "जय माता दी" तो किसी की "काली कलकत्ते वाली” तक साफगोई से बेझिझक शामिल कर ली, परन्तु इसमें हमारी सहिषुणता और निष्पक्षता देखने की बजाये, यह लोग हमें ही कंधों से ऊपर कमजोर बताने लगे हैं वो भी बावजूद सीएम तक की कुर्सी पर इनको हंसी-हंसी स्वीकार करने के। यह इस अति भलाई का ही फल है कि हम नगरी से गिर के गाँव बन चुके हैं। अब इन पर ध्यान देने की बजाय खुद को सम्भालना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब हम गाँव से भी गिर के इनके यहां की "बस्ती" या "झुग्गी-झोंपड़ी" मॉडल में सिकुड़ जावेंगे।

सबसे पहले इन पर से अपना ध्यान हटावें और खापलैंड के ट्रेडिशनल इकनोमिक मॉडल को फिर से बहाल करने पे लगावें। इसके लिए सबसे जरूरी है कि:

1) हर हरयाणवी को यह बात अच्छे से पता हो कि पूर्वोत्तर में जिन बौद्धिक और आध्यात्मिक विचारों पर गोलमेज डिस्कशन भर होते हैं, उनपे हरयाणा और खापलैंड सदियों-सदियों से प्रैक्टिकल करता आया है। अत: हमें इनकी थ्योरियों में नहीं घुसना, अपितु अपनी प्रक्टिकल्स को डॉक्यूमेंट करना है।

2) प्राचीन समय से खापलैंड का हर गाँव एक "स्वतंत्र इकनोमिक मॉडल" होता आया है। हमें इस मॉडल को आज के अनुसार फिट बना के अपने यहां के हर गाँव में उतारना होगा।

3) मोदी जैसे नेता जब यह कहें कि पश्चिमोत्तर भारत के गाँव तो बहुत अग्रणी हैं, यहां का इंफ्रा बहुत मजबूत है इसलिए पैसा भारत के अन्य हिस्सों में ले जाने की जरूरत है तो कहा जाए कि जनाब हमें नगरी से गाँव नहीं नगर बनना है। देश के बाकी हिस्से को जो पैसा देना है दो, परन्तु हमें इतंजार क्यों? क्या जब तक वो झुग्गी-झोंपड़ी-बस्ती से गाँव और गाँव से नगरी बनेंगे तब तक हम इतंजार करेंगे? बिलकुल नहीं, ऐसे तो हम ही नगरी से गाँव और गाँव से झुग्गी-झोंपड़ी बन जाएंगे। हमें हमारा हिस्सा लगातार मिलना चाहिए ताकि हम नगरी से गाँव बनते जा रहे, वापिस नगरी और फिर उससे नगर बनें। अब हमें हमारे हर गाँव में शहर की भांति सीवरेज का इंफ्रा चाहिए।

4) धर्म-पाखंड के दिन-प्रतिदिन चादर से बाहर पसरते जा रहे पांवों को चादर में समेटना होगा और मंडी-फंडी के अधिनायकवाद से बाहर निकल शुद्ध खाप सोशल थ्योरी के सोशल इन्जिनीरिंग मॉडल पे वर्कआउट करना होगा। ताकि गाँव-नगरियों में किसान इतनी सूझ-बूझ बना सकें कि अपने गाँव के खाद्दान और फल-सब्जी की जरूरतें अपने ही गाँव से पूरी कर सकें। आखिर क्या नहीं है हमारे पास। हमारे पुरखों द्वारा हाड-तोड़ मेहनत से तैयार किये समतल खेत, सिंचाई के साधन और तमाम तरह का मित्र कलाइमेट। गाँवों को खुद को फिर से स्वतंत्र अर्थव्यवस्था घोषित कर आपस में आयत-निर्यात शुरू करना होगा।

5) किसानों को यह समझना होगा कि अगर आप एक दूसरे की जरूरत पूर्ती का जरिया नहीं बने तो फिर आपकी जरूरतें वो पूरी करेंगे जो आपसे आपकी फसल भी लेंगे और दाम भी मनमर्जी के देंगे।

6) एक ऐसे मॉडल के तहत जिसमें एक गाँव में हर प्रकार की जरूरत पूरी हो ऐसी लघु मार्किट (इकोनॉमी सेंटर) खड़ी करनी होंगी।

बिंदु और भी बहुत हैं, परन्तु फ़िलहाल इतना ही कहना है कि हरयाणा वालो जाट बनाम नॉन-जाट के कौतुक से बाहर निकल के इस हरयाणवी माँ की भी सुध ले लो| शरणार्थी यहां सिर्फ पैसा कमाता है, हद मार के वापिस अपनी ही संस्कृति में घुस जाता है। तुम्हारी तीज – सांझी – अहोई – संक्रांत - मेख(बैशाखी) - सीली सात्तम - हरयाणा शहीदी दिवस - बसंत पंचमी आदि ना कोई "जय माता दी" वाला मनाएगा और ना ही कोई "छट पूजा" या "काली कलकत्ते वाली" वाला| यह तो तुमको ही मनानी होंगी। इससे यह भी समझना होगा कि यह लोग तुम्हारी ही धरती पे आकर अपने त्यौहार तक मनाने लग जाते हैं परन्तु तुम्हारों में कभी नहीं घुलते-मिलते फिर तुम बेशक चाहे कितने ही इनके चौकी-चुबारे सर पे धरे बौराये फिरो।

विशेष: मैं उस धरती और सभ्यता का सपूत हूँ जो क्षेत्रवाद-जातिवाद-धर्मवाद-भाषावाद पर ना ही तो लड़ना सिखाती और ना ही उलझना, इसलिए इस लेख को कोई भी इस तरीके से ना लेवे कि यह मैंने क्या कह दिया। कहीं कोई ठाकरे/पेशवा तो नहीं हरयाणा पर उतर आया, बिलकुल भी नहीं क्योंकि हम मरहमपट्टी/फर्स्ट-ऐड (पानीपत की तीसरी लड़ाई) करने वाले लोग हैं, इसलिए हम इनकी तरह उत्तरी भारतियों की पिटाई वाले रंडी-रोणों में यकीन नहीं किया करते। परन्तु इससे भी आगे नरम और सीधा बने रह के कटना नहीं है हमें, क्योंकि सीधे पेड़ ही सबसे पहले काटे जाया करते हैं। और यकीन मानिए हरयाणवी काटे जा रहे हैं। आशा करता हूँ कि इस लेख को हर कोई सिर्फ इस मंशा लेगा कि हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत को कैसे बचाना है, उस बारे इसमें लिखा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक