Tuesday, 12 January 2016

मखा ओ सुन जाट की अक्ल घुटनों में बताने वाले!

मैंने भी कह दिया उसको उस दिन, "मखा ओ सुन जाट की अक्ल घुटनों में बताने वाले"! जाट के बच्चे को कोई खरोंच भी मार दे तो जाट अगले ही पल अगले का चाम उतार दे और मखा तुम्हारे तो वंश के वंश 21-21 बार मारे बताये और तुमको फिर भी दर्द नहीं, वरन उन्हीं की स्तुति और भक्ति करते नहीं थकते| मखा मुझे हंसा मत, पहले अपनी अक्ल ढूंढ कि तेरी कहाँ खोई है| इन द्वारा मारे अपने उन पुरखों के लिए कोई दर्द या सम्मान नहीं जिसमें, वो तू मुझे बताएगा कि मेरी अक्ल कहाँ है? जिनकी तुम स्तुति और भक्ति करते हो उनसे हम "जाट जी" कहलवाते और लिखवाते आये हैं| और इतनी अक्ल भतेरी हमनैं| कोई जवाब ना सूझ कहने लगा कि क्षत्रिय तो तुम भी हो, जो 21 बार मारे थे वो तुम्हारे भी तो थे| मैंने पड़ते ही जवाब दिया मखा हमें तो शूद्र बतावैं, हम इनके लिए क्षत्रिय कब से हो गए? हाँ वो अलग बात है कि हमारे शौर्य का डंका बिना इनके तमगों और टैगों के यूरोटनल से ले चाईना तक बजता आया और बजता है| और मखा इसी वजह से तुमको जाटों का तुम्हारे लिए भाईचारा ना कभी समझ आया और ना आएगा| - जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मीडिया वालो रहम करो 'हरयाणा' शब्द पर!

उत्तर प्रदेश में 2001 में लिंगानुपात जहां 916 था, वहां अब 2011 में 902, इसी तरह बिहार में 2001 में 942 जो घटकर 2011 में 935, मध्यप्रदेश में 2001 में 932 जो 2011 में घटकर 918 हो गया है| लेकिन मीडिया नें इन आकड़ों का कभी भी विश्लेषण करके नहीं दिखाया|

हरयाणा में 2011 में लिंगानुपात 879 है, जो कि 2001 में 861 था। हरियाणा में 2011 के जनगणना के अनुसार 0-6 वर्ष बच्चों का लिंगानुपात 1000 लड़कों पर सिर्फ 834 लड़कियाँ हैं| जो एक चिंता का विषय है| लेकिन हम यह क्यूँ भूल जाते हैं कि सन 2001 में यह आंकड़ा सिर्फ 819 था जो कि घटने के बजाय बढ़ा है; वो भी तब जब यहाँ सन 47 से ले के अब तक लगातार ऐसे सम्प्रदायों का शरणार्थी आ के बसा है जिनके यहाँ 24 लड़कों पर 9 लड़कियाँ होने की औसत रही है| वो भी तब जब पूर्वोत्तर से आने वाला 70% शरणार्थी बिना बीवी-बच्चों के आता है, जिसमें वो अपना वोट तो हरयाणा में बना लेता है और बाकी परिवार का अपने मूल राज्य में| इनमें से औसतन 80% को औसतन दस साल लगते हैं अपना परिवार यहां लाने में, अन्यथा तब तक उसके परिवार के नाम पर हरयाणा में सिर्फ उसी का वोट और जनगणना काउंट होती है।

मीडिया ट्रायल में यह भी खूब दिखाया जाता हैं कि भूर्ण हत्या कि वजह से हरियाणा में 40.3% लोग अविवाहित हैं| लेकिन मीडिया नें यह कभी नहीं बतलाया कि क्या कारण है कि पूरे भारत में 49.8%, गुजरात में 40.98%, नागालैंड में 55.83%, अरुणांचल में 53.33%, जम्मू-कश्मीर में 51.64%, मेघालय में 47.96%, आसाम में 47.09% मणिपुर में 47.96%, लोग अविवाहित क्यों हैं?

किसी अज्ञात और अनिश्चित भय से पीड़ित यह मीडिया अगर यही बक्वासें मुंबई में बैठ महाराष्ट्र के बारे काट रहा होता तो अब तक तो मुम्बईया पेशवा-मराठाओं ने इनको पीट-पीट के इनकी जय बुलवा दी होती। और यह फिर भी कहते हैं कि हरयाणवी उददंड होते हैं| पता नहीं उस दिन क्या होगा जिस दिन इनकी इन बकवासों से परेशान हो हरयाणवी वास्तव में अपनी उददण्डता पर उतर आये तो; क्योंकि इतिहास गवाह है कि मराठी-पेशवा तो सिर्फ उनके यहां से मार कर भगाते हैं, जबकि हरयाणवी तो इससे भी आगे जाते हुए घर तक गया कि नहीं इस तक की भी तसल्ली किया करते हैं। इसीलिए तो हम अपने गुस्से से डरते हैं और यह वाहियात लोग हैं कि इस बात को समझते ही नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

नौनिहाल-ददकान-पितृसाल के वो गलियार-खेड़े याद आते हैं!

नौनिहाल-ददकान-पितृसाल के वो गलियार-खेड़े याद आते हैं,
हवेलियों-चौबारों-चौपालों की अटारियाँ और मंडेर याद आते हैं|

उन मुंडेरों की फिरकियों में जो घूमा करते थे, वो मोर याद आते हैं,
पिछवाड़े धूप लगे जो मारा करते थे, वो मरोड़े जी-तोड़ याद आते हैं|

खेतों को जाते रेवड़ों-रेहड़ों के घूं-चूं करते लारे आज भी जगा जाते हैं,
बंगले की बुर्जियों-हालों-पलंगों पर जो सजते थे, वो सभागार याद आते हैं|

पनघट की पौड़ियों पे छन-छम करते बजते-भिड़ते टूमों के टाल याद आते हैं,
कुँए की फिरकी से चर-चर-चूं-चूं करते चढ़ते-उतरते ढोल के राग याद आते हैं|

लीला-काका के साथ मिलके वो आक पे बर्तन चढाने याद आते हैं,
ददकाने में चलाने सीखे मेस्सी-फोर्ड-आयशर के हाल याद आते हैं|

उबलते घुड़ के कढ़ाहे में पकवा के खाए वो गजरैले याद आते हैं,
दादी-नानी के चरखे पे उतरती कुकडियों के घुमाव याद आते हैं|

घुड़चढ़ी के आगे धौंसे की ताल पे नाचती चलती घोड़ी के ढमढमे याद आते हैं,
बारिस के पतरालों में धुल के जो चमचमा उठती थी वो गलियाँ याद आते हैं|

चढ़ती-सिसकती शिखर दुपहरी में ट्यूबवेल पे वो नंग-धड़ंग नहाने याद आते हैं,
नहर के किनारे धुंए-धुआरें भून के जो खाते थे, वो चने के होळ याद आते हैं|

या फलाने नगर की लाड़ली, ब्याही फलाने गाम, के हल्कारे याद आते हैं,
चन्द्रबादी के सांग, आरों पे मुंह से सतहीर उठाने वाले जौहर याद आते हैं|

"दादा-खेड़ा" पे ज्योत लगाने जाती बीर-बानियों के गीत और बाणे याद आते हैं,
पिंडारे वाले झोटे के जोहड़ में नहाने से बच्चे जनने के हंसी-मखौल याद आते हैं|

'फुल्ले-भगत' लिल्ल-पेरिस की गलियों में भी तो मिलते हैं वही नज़ारे,
फिर क्यों तुझे वो ठोर-डहारे-कल्लर-कारे ही यूँ रह-रह याद आते हैं?

जय यौद्धेय!

Author: Phool Kumar Malik

Monday, 11 January 2016

अगर एक किलिंग और Mass किलिंग में से चुनना हो तो!

सुब्रमण्यम स्वामी जी, अगर आपकी बेटी को मुस्लिम ब्याह ले गया या उसने मुस्लिम से ब्याह किया; तो अब इसके खुंदक (गुस्से) में सारे देश को जलाओगे क्या? फिर भी जलाना ही है तो सैंकड़ों-हजारों की जगह अपनी बेटी को आग लगा दो; और हमें चैन से जीने दे| या अपने दामाद मियाँ के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटा लो|

हद है, कुम्हार की कुम्हारी पे तो पार बसावे ना जा के गधे के कान खींचें| अपनी बेटी तो समझा-बुझा के वापिस लाई नहीं जाती, देश को डंडा दिए हुए है खाम्खा!

देश-विदेश और जनता इतनी बावली-बूच ना है कि जो आपके घाघपने को ना समझे और यह ना देखे कि किसी धर्म से कौन कितनी नफरत कर सकता है के आधार पर लोगों को राष्ट्रवादिता और देशभक्ति के सर्टिफिकेट बांटने वाले, खुद उसी धर्म में अपनी बेटी दिए हुए घूमते हैं|

विशेष: मैं व्यक्तिगत स्तर पर किसी भी प्रकार की किलिंग के विरुद्ध हूँ, फिर वो Mass Killing हो या एक किलिंग| लेकिन अगर एक किलिंग और Mass किलिंग में से चुनना हो तो वाजिब है कि उस एक को मार के Mass को बचाओ| इसलिए अगर आपका गुस्सा अपनी बेटी से है, तो भाई हजारों-सैंकड़ों जाने खत्म करवाने की बजाये यही ज्यादा अच्छा है कि आप उसकी ही जान ले लें और देश का पिंड छोड़ दें| 

फूल मलिक

Saturday, 9 January 2016

शहीद राजा नाहर सिंह तेवतिया को उनके शहीदी दिवस पर नमन!

"1857 में जमकर जौहर दिखलाया था, फतेहपुर और पलवल से अंग्रेज़ो को दौड़ाया था"
 
हम जाट सर दे देते है पर पगड़ी नहीं, दाबे की जिंदगी से लाख गुना बढ़िया होती है मौत---

बुरी तरह हराया था अंग्रेजो को फरीदाबाद (बल्लभगढ़) के जाट राजा नाहर सिंह तेवतिया ने 1857 में---

जो भी असली जाट होगा वो शेयर करेगा, नॉन जाट हिन्दू तो जाट शहीदों का नाम उजागर नहीं होण देंगे

------सन् 1857 की रक्तिम क्रांति के समय दिल्ली के बीस मील पूर्व में जाटों की एक रियासत थी। इस रियासत के नवयुवक राजा नाहरसिंह बहुत वीर, पराक्रमी और चतुर थे। दिल्ली के मुगल दरबार में उनका बहुत सम्मान था और उनके लिए सम्राट के सिंहासन के नीचे ही सोने की कुर्सी रखी जाती थी। मेरठ के क्रांतिकारियों ने जब दिल्ली पहुँचकर उन्हें ब्रितानियों के चंगुल से मुक्त कर दिया और मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को फिर सिंहासन पर बैठा दिया तो प्रश्न उपस्थित हुआ कि दिल्ली की सुरक्षा का दायित्व किसे दिया जाए? इस समय तक शाही सहायता के लिए मोहम्मद बख्त खाँ पंद्रह हजार की फौज लेकर दिल्ली चुके थे। उन्होंने भी यही उचित समझा कि दिल्ली के पूर्वी मोर्चे की कमान राजा नाहरसिंह के पास ही रहने दी जाए। बहादुरशाह जफर तो नाहरसिंह को बहुत मानते ही थे।
ब्रितानी दासता से मुक्त होने के पश्चात् दिल्ली ने 140 दिन स्वतंत्र जीवन व्यतित किया। इस काल में राजा नाहरसिंह ने दिल्ली के पूर्व में अच्छी मोरचाबंदी कर ली। उन्होंने जगह-जगह चौकियाँ बनाकर रक्षक और गुप्तचर नियुक्त कर दिए। ब्रितानियों ने दिल्ली पर पूर्व की ओर से आक्रमण करने का कभी साहस नहीं दिखाया। 13 सितंबर 1857 को ब्रितानी फौज ने कश्मीरी दरवाजे की ओर से दिल्ली पर आक्रमण किया। ब्रितानियों ने जब दिल्ली नगर में प्रवेश किया तो भगदड़ मच गई। बहादुरशाह जफर को भी भागकर हुमायूँ के मकबरे में शरण लेनी पड़ी। नाहरसिंह ने सम्राट बहादुरशाह से वल्लभगढ चलने के लिए कहा, पर सम्राट के ब्रितानी भक्त सलाहकार इलाहिबख्श ने एक न चलने दी और उन्ही के आग्रह से बहादुरशाह हुमायूँ के मकबरे में रुक गए। इलाहिबख्श के मन में बेईमानी थी। परिणाम वही हुआ जो होना था। मेजर हडसन ने बहादुरशाह को हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया और उनके शाहजादों का कत्ल कर दिया। नाहरसिंह ने बल्लभगठ पहुँचकर ब्रितानी फौज से मोरचा लेने का निश्चय किया। उन्होंने नए सिरे से मोरचाबंदी की और आगरा की ओर से दिल्ली की तरफ बढनेवाली गोरी पलटनों की धज्जियाँ उड़ा दी। बल्लभगढ़ के मोर्चे में बहुत बड़ी संख्या में ब्रितानियों का कत्ल हुआ और हजारों गोरों को बंदी बना लिया गया। इतने अघिक ब्रितानी सैनिक मारे गए कि नालियों में से खून बहकर नगर के तालाब में पहुँच गया और तालाब का पानी भी लाल हो गया।
जब ब्रितानियों ने देखा कि नाहरसिंह से पार पाना मुश्किल है तो उन्होंने धूर्तता से काम लिया। उन्होंने संधि का सूचक सफेद झंड़ा लहरा दिया। युद्ध बंद हो गया। ब्रितानी फौज के दो प्रतिनिधि किले के अंदर जाकर राजा नाहरसिंह से मिले और उन्हें बताया कि दिल्ली से समाचार आया है कि सम्राट बहादुरशाह से ब्रितानियों की संधि हो रही है और सम्राट के शुभचिंतक एवं विश्वासपात्र के नाते परार्मश के लिए सम्राट ने आपको याद किया है। उन्होंने बताया कि इसी कारण हमने संधि का सफेद झड़ा फहराया है।
भोले-भाले जाट राजा धूर्त ब्रितानियों की चाल में आ गये। अपने पाँच सौ विश्वस्त सैनिकों के साथ वह दिल्ली की तरफ चल दिए। दिल्ली में राजा को समाप्त करने या उन्हें गिरफ्तार करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में पहले ही ब्रितानी फौज छिपा दी गई थी। राजा का संबंघ उनकी सेना से विच्छेद कर दिया और राजा नाहरसिंह को गिरफ्तार कर लिया। शेर ब्रितानियों के पिंजरे में बंद हो गया। अगले ही दिन ब्रितानी फौज ने पूरी शक्ति के साथ वल्लभगढ पर आक्रमण कर दिया। तीन दिन के घमासान युद्ध के पश्चात ही वे राजाविहीन राज्य को अपने आधिपत्य में ले सके।
जिस हडसन ने सम्राट बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार किया था उनके शहजादों का कत्ल करके उनका चुुल्लू भरकर खून पिया था, वही हडसन बंदी नाहरसिंह के सामने पहुँचा और ब्रितानियों की ओर से उनके सामने मित्रता का प्रस्ताव रखा। वह नाहरसिंह के महत्व को समझ सकता था। मित्रता का प्रस्ताव रखते हुए वह बोला- नाहरसिंह मैं आपको फाँसी से बचाने के लिए ही कह रहा हूँ कि आप थोड़ा झुक जाओ। नाहरसिंह ने हडसन का अपमान करने की दृष्टि से उनकी ओर पीठ कर ली और उत्तर दिया- नाहरसिंह वह राजा नहीं है जो अपने देश के शत्रुओं के आगे झुक जाए। ब्रितानी लोग मेरे देश के शत्रु हैं। मैं उनसे क्षमा नहीं माँग सकता। एक नाहरसिंह न रहा तो क्या, कल लाख नाहरसिंह पैदा हो जाएँगे। मेजर हडसन इस उत्तर को सुनकर बौखला गया। बदले की भावना से ब्रितानियों ने राजा नाहरसिंह को खुलेआम फाँसी पर लटकाने की योजना बनाई। जहाँ आजकल चाँदनी चौक फव्वारा है, उसी स्थान पर वधस्थल बनाया गया, जिससे बाजार में चलने-फिरने वाले लोग भी राजा को फाँसी पर लटकता हुआ देख सकें। उसी स्थान के पास ही राजा नाहरसिंह का दिल्ली स्थित आवास था। ब्रितानियों ने जानबुझकर राजा नाहरसिंह को फाँसी देने क लिए वह दिन चुना, जिस दिन उन्होंने अपने जीवन के पैंतीस वर्ष पूरे करके छतीसवें वर्ष में प्रवेश किया था। राजा ने फाँसी का फंदा गले में डालकर अपना जन्मदिन मनाया। उनके साथ उनके तीन और नौजवान साथियों को भी फंदों पर झुलाया गया। वे थे खुशालसिंह, गुलाबसिंह और भूरेसिंह। दिल्ली की जनता ने गर्दन झुकाए हुए अश्रुपूरित नयनों से उन लोकप्रिय एवं वीर राजा को फंदे पर लटकता हुआ देखा।
फाँसी पर झुलाने के पूर्व हडसन ने राजा से पूछा था - आपकी आखिरी इच्छा क्या है? राजा का उत्तर था - मैं तुमसे और ब्रितानी राज्य से कुछ माँगकर अपना स्वाभिमान नहीं खोना चाहता हूँ। मैं तो अपने सामने ख़डे हुए अपने देशवासियों से कह रहा हूँ क्रांति की इस चिनगारी को बुझने न देना।

Friday, 8 January 2016

दोनों ही अवमानना करने वाले, एक राष्ट्रगान को ले के तो एक राष्ट्रवध्वज को ले के!

"राष्ट्रगान गाने से जिस किसी को चोट पहुंचे, क्या ऐसे समुदायों को देश में रहने का हक़ है" का स्लोगन कम से कम वो लोग तो ना ही उठायें जिनके संघ मुख्यालय में राष्ट्रध्वज फहराने हेतु भी कोर्ट से आदेश दिलवा के उनकी अवमानना को मानना में तब्दील करवाना पड़ता है| मेरे जैसा सेक्युलर तो यह सवाल उठा भी ले, परन्तु यह दोनों ही अवमानना करने वाले (एक राष्ट्रगान को ले के तो एक राष्ट्रवध्वज को ले के) जब एक दूसरे पर यही सवाल उठाते हैं तो समझ लो यह अपनी कमीज दूसरे से ज्यादा उजली दिखाने के चक्र में हैं, बाकी राष्ट्र-चिन्हों की भावनाओं के बागी दोनों हैं|

राष्ट्रगान वालों को कोसने का रोना तब तक रुदाली-विलाप ही कहलायेगा जब तक उनपर उँगलियाँ उठाने वाले खुद राष्ट्रवध्वज हाथ में उठा के यह बात नहीं कहते| - फूल मलिक

अगर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिस्थितियाँ आपको अनुमति नहीं देतीं तो!

अगर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिस्थितियाँ आपको अनुमति नहीं देतीं तो उनसे मुक्ति पाने हेतु लड़िये। और अगर वो अनुमति देती हैं तो अपने दिल और दिमाग को मत झगड़ने दीजिये। दिल को स्वतंत्रता देने का मतलब है अपने ही हाथों दिमाग की बैंड बजवाना। दिल कुत्ते के स्वभाव का होता है, डांट-फटकार के रखो तो दुम हिलाता हुआ आपको फॉलो करेगा और अगर सर चढ़ाओ तो अवमानना व् मनमानी करने के स्तर तक चला जायेगा। परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं कि दिमाग को ही सारे अधिकार दे दिए जाएँ। दिमाग के ऊपर भी आपकी चेतना और अंतरात्मा का चाबुक होना जरूरी है।

सामाजिक रिश्तों में उन लोगों से बच के चलिए जो आपको बचपन में बड़े दिलवाला बोलते हैं| बचपन में किसी को बड़े दिलवाला बोलने का मतलब है कि वो रिश्तेदार दुनिया का सबसे बड़ा घाघ है  जो आपको बड़े-दिलवाला होने की कंपनसेशन दे के, उसके द्वारा आपको दिए जा रहे दुःख या दिग्भर्मित पथ को छुपाना चाहता है। ऐसे लोग बाद में आपके मान-सम्मान का मर्दन करने या कहो आपके स्वाभिमान का जनाजा निकालने वाले सर्वप्रथम होते हैं और आपको आत्मसम्मान से रहित बना के छोड़ते हैं।  

इसमें सामाजिक पहलु के हिसाब से एक पहलु और भी है और वो है फिल्मों में जो दिल के ड्रामे दिखाए जाते हैं वो। उन ड्रामों को ही सारा संसार या जीवनगाथा मत समझिएगा। फिल्मों वाले लोग ऐसी फिल्मों के जरिये आपको लिटरल वे (literal way) में स्पॉइल (spoil) करने के अलावा कुछ नहीं करते। दिल के ड्रामों वाली फ़िल्में जिनमें दिल को ही खुदा बना के परोसा जाता है ऐसी फ़िल्में उस श्रेणी में चली जाती हैं जहां मनोरंजन का दूसरा नाम आपको स्पॉइल करना होता है।

फूल मलिक

Monday, 4 January 2016

खापद्वारा – हरयाणा सर्वखाप मुख्यालय!

ऐतिहासिक न्यायपीठ चबूतरा व् चौपाल सोरम, जिला मुज़फ्फरनगर, यू.पी.

खापों के इस सर्वोच्च खापद्वारे का ऐतिहासिक महत्व:
हिंदुस्तान का इकलौता ऐसा द्वारा जिस पर 2-2 मुग़ल बादशाह सिकंदर लोधी (1490) और बाबर (1528) शीश नवाने आये| अन्य किसी भी सामाजिक-राजनैयिक-धार्मिक महत्व के हिंदुस्तानी दर को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं|

1) जब सहायता मांगी रजिया (1237) ने तो इस द्वारे को पुकारा, पृथ्वीराज (1192) ने इसी की शय पे गौरी को हराया!
2) 1857-क्रांति की कमान लेने को बहादुरशाह ने यहीं संदेशा पहुंचवाया, गुलामवंशी नसीरुद्दीन (1246-66) का राज था इसी चबूतरे के आशीर्वाद ने निष्कंटक बनाया|
3) विजयनगर के राजा देवराय (1424-46) की सेना को युद्ध कला सिखाने का सहयोग इसी दर से था माँगा व् सफल सहयोग दिया गया|
4) चितौड़ के राणा लाखा (1421) के पुत्र मोकल और रानी की जान को दुश्मनों से बचाने हेतु पुकार यहीं आई थी और तब यूँ सर्वखाप ने उनकी जान बचाई थी|
5) राणा सांगा (1508-28) ने बाबर से लड़ने हेतु इसी दर्श को पुकारा था, तब यौद्धेय कीर्तिमल, राणा सांगा के प्राण बचाने हेतु, अपने प्राणों को हारा था| ………..… आदि

विशेष: यहां हरयाणा से अर्थ है वर्तमान हरयाणा+दिल्ली+वेस्ट यू.पी.+दक्षिणी उत्तराखंड+उत्तरी-पूर्वी राजस्थान| यह स्थान हर मूल- हरयाणवी के लिए गौरव, स्वाभिमान, शान और प्रेरणा की जीती-जागती इबारत है| जिसने इसको नहीं देखा और जाना उसने प्राचीन व् नवीन हरयाणा बारे कुछ नहीं जाना|

चित्र सौजन्य: प्रोफेसर राजकुमार सिवाच

जय यौद्धेय! - फूल मलिक










 

पालम 360 खाप के लाडो-सराय-12 तपा के मुस्लिम प्रधान से मिले कुछ रोचक तथ्य!

सबसे बड़ा रोचक तथ्य तो मेरे लिए यही है कि कोई मुस्लिम भी खाप-तंत्र में कई जमानों से प्रधान पद पर है|

दिल्ली की पालम 360 खाप के 32 तपों में एक तपा है लाडो-सराय-12| इसके प्रधान हैं इस तपे में पड़ने वाले गाँव हौजरानी के मियां इज़राइल-हाजी-मोहम्मद| इनके पिता जी साहिब सिंह वर्मा जी से खाप-चौधर की पगड़ी ग्रहण कर चुके हैं और स्वंय खापों ने कई मौकों पर इनको खाप-चौधर की पगड़ी बांधी है| इजराइल जी बताते हैं कि सन 47 में जब भारत के टुकड़े हुए तो खाप-व्यवस्था के कारण तमाम स्थानीय निवासियों का इतना गूढ भाईचारा था कि जब मुस्लिम यहां से जाने लगे तो बिलख-बिलख के रोये थे| उनके ही साथ बैठे 82 वर्षीय ब्राह्मण वृद्ध बताते हैं कि कुछ-एक तो वापिस भी आ गए थे|

दोनों कहते हैं कि मुस्लिम लीग और आरएसएस जैसे कट्टरवादियों ने इस देश को सिवाय दंगे और कटटरता के जहर के कुछ भी नहीं दिया| यह दोनों ही संगठन सिर्फ युद्ध विराम या शांति के वक्त लोगों की शांति भंग करने के समूह रहे हैं, वर्ना देख लो अभी पठानकोट का आतंक हमला हुआ तो इनकी विचारधारा वाला जो एक भी चुसक रहा हो तो| खुद पीएम तक "योग टीचर" बनाने का संदेश देते दिख रहे हैं और पठानकोट पर अटैक करने वालों को "पाकिस्तानी" ना कह के "मानवता के दुश्मन" मात्र बता रहे हैं| देखा जब असलियत सामने आई तो लव-लेटर की जगह मुंहतोड़ जवाब देने के बोल भी उड़ गए हवा में और एक के बदले दस सर लाने वाले जुमले भी छू-मंत्र| जैसे किसी ने इनकी तुंगभद्रा पे लाठी दे मारी हो, ऐसे झन्न हुए बैठे हैं सब|

खाप व्यवस्था के कारण दोनों वृद्धों की आजतक कायम जुगलबंदी को देखकर आत्मा पुलकित हो गई| यह किस्सा इसलिए साझा करना जरूरी समझा ताकि आज का युवा खासकर जो खाप विचारधारा में विश्वास रखता है वो समझे कि हम लोग धर्म और जाति की बेड़ियां मानने वाली विचारधारा के लोग नहीं हैं| हम वो लोग हैं जिनके बारे सर छोटूराम कहा करते थे कि "धर्म अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु खून अलग नहीं हो सकता|"  और खापों में गैर-जाट तो क्या, गैर-हिन्दू तक आज भी प्रधान पदों पर आसीन हैं| इससे यह मिथ्या प्रचार भी धत्ता हुआ कि खापें सिर्फ जाटों की होती हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 3 January 2016

युवा जाट और जाट समाज दोनों में बदलाव की बयार बह चली है!

अबकी बार सिरोहा, मथुरा "लार्ड (गॉड/भगवान) गोकुला" की जन्मनगरी में उनके 346वें बलिदान दिवस पर इस वीडियो में सुनाई पड़ रहे यह उद्घोष हुए, अगली बार इसका और फैलाव होगा|

अक्सर दूसरों की खुशियों और हस्तियों के जन्मोतस्वों में शरीक हो उनको ही अपना मानने वाले जाट ने आखिर अपने खुद के वास्तविक अवतारों की सुध लेनी शुरू तो की| कौन कह रहा है कि जाट कौम जाट बनाम नॉन-जाट के बनाये जाल में फंस कर मायूस हो बैठी है| उत्सव मनाओं कि इसी जाट बनाम नॉन-जाट के जहर की वजह से हमेशा दूसरों को अपनों पर ज्यादा तरजीह देने वाले जाट ने अपनों की ओर मुड़ के देखा तो| वर्ना 345 बरस बीत गए थे, कभी निकली थी हमारे लार्ड गोकुला की झांकी?

वो भी तब जब बहुतेरे राष्टवादी से ले हिंदूवादी संगठन तो हिन्दू धर्म-रक्षक जाटों के युगपुरुषों को तो छू भी नहीं रहे| गैर-जाट स्वर्ण हिन्दुओं की झांकियां, जन्मतिथियाँ व् मरणतिथियाँ जरूर चाव से निकालते और मनाते हैं| शायद वो राजी हो रहे हैं कि वो जाट को जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैला समाज से छींटक रहे हैं| परन्तु वो नादाँ यह नहीं जानते कि उनके प्रयासों की वजह से ही जाट अपने मसीहाओं की पूछ और प्रमोशन करनी सीख रहा है| अपनी जड़ों से जुड़ रहा है| और जो जड़ों से जुड़ा, समझो उससे हर कोई जुड़ा|

यही बदलाव हम लाना चाहते हैं अपने जाट समाज में, कि पहले अपनी सुध लो फिर दूसरों को सम्भालना, वर्ना दूसरों का ठेका पहले उठाओगे तो लोग तुम्हारा ही ठिकाना उठा देंगे|

इस भव्य आयोजन के लिए आदर्श जाटमहासभा मथुरा को धन्यवाद| प्रिय भ्राता चौधरी पंकज सिंह को यह वीडियो भेजने के लिए खासकर धन्यवाद|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

Saturday, 2 January 2016

खाप-व्यवस्था को आलोचनाओं को झेलने से एक कदम आगे बढ़ते हुए उनके आधुनिक हल ढूंढने होंगे!

आरएसएस के जरिये मंडी-फंडी ने उत्तरी भारत में दो तरीके से अपना सामाजिक आधार मजबूत किया है| एक लोगों के बीच पहुँच के और दूसरा इनकी चिरप्रतिदव्न्दी धर्म-जाति से रहित खाप व्यवस्था की नकारात्मकता बारे प्रोपगैंडे फैला के|

जिसमें सबसे बड़ा प्रोपेगैंडा होता है कि खापें तो अतिप्राचीन कांसेप्ट होने की वजह से रूढ़िवादी हो चुकी| और ताज्जुब होगा यह जानकार कि ऐसा तर्क देने वाले शायद खापों से भी पुराने मनुवाद, ग्रन्थ-शास्त्र इत्यादि को मानने वाले होते हैं| तो ऐसे में जाहिर सी बात है एक समयकाल मात्र के सिद्धांत पर खापें रूढ़िवादी कैसे हो सकती हैं?

आगे विचारने की बात यह है कि जब मंदिर एक जाति की सत्ता होने पर भी सबके कहलाते हैं तो खाप एक जाति द्वारा जन्मित व् पोषित होने पर एक ही जाति की कैसे कहला सकती हैं? क्योंकि उत्तरी भारत के मूल-समाजों की सामाजिक जीवन शैली "खाप सोशल इंजीनियरिंग" पद्द्ति से चलती आई है, इसलिए व्यवहारिकता में यह एक जाति की हो भी नहीं सकती|

बेशक जैसे ब्राह्मण जाति मंदिर व्यवस्था को चलाने हेतु समाज में फैली उनकी आलोचना पर ध्यान देने की बजाये, यही ही सोचती है कि इन आलोचनाओं से पार पाते हुए अपने आपको अग्रणी कैसे रखना है| वो भावुक हो के नहीं बैठते और ना ही यह सोचते कि तुम्हारे फैलाये वर्ण-नश्ल-रंग-छुआछूत भेद से समाज तुमको कितना कोसता है| बावजूद 36 बिरादरी का समाज उन्हीं मंदिरों में चढ़ने हेतु लालायित रहता है|

और फिर खाप तो ऐसे वाले नकारात्मक कार्य भी नहीं करती| तो फिर किसी प्रोपेगंडा के तहत फैलाई जाने वाली आलोचनाओं को थामने हेतु उनके जवाब व् सटीक कदम उठाने में कोई रुकावट भी नहीं होनी चाहिए| कोई आपका साथ छोड़ के जा रहा है या आपकी आलोचना कर रहा है, ऐसे कहने या इस विरह और विपदा में भावुक हो के बैठने से यह मसले कदापि हल नहीं हो सकते|

खाप प्रणाली सर्वसमाज की तभी है जब तक समाज को यह पता है कि जाट-समाज इसको पालने और संभालने में सक्षम है| अगर जाट समाज खाप व्यवस्था की आलोचना देख, उसके सुधार के उपाय करने की बजाय, इस मोह में घिर जायेगा कि लोग तो तुम्हें छोड़ने लगे हैं; तो निसंदेह वो एक दिन असली में ही छोड़ देंगे|

ऐसे में घबराना अथवा आत्मविश्वास नहीं खोना चाहिए तो नहीं कहूँगा क्योंकि जाट समाज में यह चीजें तो हैं ही नहीं| बल्कि उसमें तो इसका उल्टा है और वो है "देख लेंगे, के बिगड़े सै" वाला एटीच्यूड| इसलिए इसके चक्कर में सब कुछ छोड़ निष्क्रिय बैठने से स्थिति में कभी सुधार नहीं हुआ करता| अपितु बात को अपनी चेतना पर लेते हुए बाकी के समाज से दूर हट के, ठीक उसी तरह जैसे ब्राह्मण उनके मंदिर चलाने हेतु एकांत मंथन किया करता है, जाट समाज को ऐसे एकांत मंथन करने चहिये। अगर इस मंथन से निकले कदम में सुधार का वो माद्दा होगा जो कि समाज को चाहिए तो वो फिर से वापिस आन जुड़ेगा|

इसलिए अकेला होकर भी कुछ समय बिताना पड़े तो खापों को इससे परहेज नहीं करना चाहिए| वैसे भी खाप सोशल इंजीनियरिंग मॉडल में आपके पास एकांत और अकेले में बैठ के मंथन करने का विकल्प मौजूद है| और वो है सिर्फ 'जाट सर्वखाप' के तले बैठ पहले खुद के समाज में वो चीजें ठीक करने का जिसकी कि बाकी का समाज शिकायत करता है या प्रोपेगंडा उठाता है| खुद के यहां ठीक करके फिर उसको 'सर्वजातीय सर्वखाप मंच' पे ले के जाया जायेगा तो निसंदेह सर्वसमाज उसको ज्यादा तवज्जो से अपनाएगा|

विशेष: चूंकि इस लेख का विषय शुद्ध रूप से सोशल इंजीनियरिंग है, जिसको समझने हेतु मंदिर और धर्म-ग्रंथों का सिर्फ तुलनात्मकता प्रयोग किया गया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 1 January 2016

कल खुद जिनको दिल्ली सौंपा करते थे, आज उन्हीं के खिलाफ लवजिहाद, बीफ इत्यादि, आखिर यह कैसा राष्ट्रवाद?

अकबर के वक्त से लेकर और अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक देश की सत्ता का मुख्य केंद्र व् मुग़ल राजधानी आगरा थी| दिल्ली उस वक्त किसी अन्य साधारण रियासत की भांति ही थी। इसलिए दिल्ली को बचाये रखने के लिए इसके मुस्लिम नवाबों को अन्य शासकों की सहायता की दरकार रहती थी, जिसमें मराठा पेशवा उनकी सबसे ज्यादा सहायता करते थे| इसलिए जब दिल्ली सुरक्षित हो जाती तो पेशवा उसको मुस्लिमों को ही सौंप देते| यह मेरे लिए बड़ा हैरान कर देने वाला सवाल है कि पूरे देश पर फ़ैल जाने का दवा करने वाले मराठे कभी दिल्ली को मुस्लिमों से मुक्त क्यों नहीं करवाना चाहते थे?

मुझे समझ यह नहीं आता कि यह मराठा पेशवा खुद बार-बार जिन मुस्लिम नवाबों को दिल्ली की गद्दी पर बैठा जाया करते थे, वो आज उनके ही कट्टर दुश्मन क्यों हुए फिरते हैं?

1761 में पानीपत की लड़ाई में महाराजा सूरजमल ने दो वजह से इनका साथ छोड़ा; एक तो यह महाराजा सूरजमल को बंदी बना के उनकी सेना प्रयोग करना चाहते थे, दूसरा पानीपत जीतने की परिस्थिति में दिल्ली मुगल को देना चाहते थे| 1771 में फिर से इन्होनें दिल्ली का सहयोग किया और जब दिल्ली की जीत हुई तो फिर से मुग़ल शाह-आलम को ही गद्दी दी|

और आज देखो तो इन्हीं के खिलाफ कभी लव-जिहाद तो कभी बीफ तो कभी पाकिस्तान| राष्ट्रवाद चिल्लाने वाले लोग जवाब जरूर देवें, कि क्या इनको हिन्दुओं में कोई नहीं मिलता था दिल्ली की गद्दी सौंपने को? जाट न सही, राजपूत तो थे, सिंधिया तो थे? कल जो खुद मुस्लिमों को बार-बार दिल्ली की गद्दी दिया करते थे, वो आज हिन्दू कटटरता से इतने क्यों चिपके पड़े हैं?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Hail the social engineering of Jats, nothing can't beat it!

Instead of burgalring the society on false propagandas of jat versus non-jat, dare the anti-jat lobbies come up with these examples setting?

1) Sumra Khera village elected a Backward Class candidate as their sarpanch even though it was an unreserved post
2) Issarwal village elected Scheduled Caste candidate as their sarpanch for an open category post
3) Bhiwani Rohilan village elected an all-woman panchayat without reservation for women
4) Kheri Sheru village of Kaithal village elected Backward Class sarpanch in the general category
5) Harsola village of Kaithal elected sarpanch from ROR community.
6) Village Alakhpura also has elected a school teacher as Sarpanch unanimously.
7) And here comes the 7th of democratic strock in row from Jat dominant village Sahdawa with start of new year, who has elected a Kumhar, Backward Class as Sarpanch of village unanimously ignoring 14 general caste claimants.

Jats should promote, advertise their this image in public as much as possible. Theirs walking on their this core theory of social engineering in itself is self-efficient of cracking jat versus non-jat propaganda.

Source: http://www.tribuneindia.com/news/haryana/breaking-caste-barriers-hisar-village-elects-bc-sarpanch/177811.html

Jai Yauddhey! - Phool Malik