Sunday, 17 January 2016

चौपालें हैं खाप-सभ्यता की वास्तुकला और 'सोशल-ज्यूरी' प्रणाली की साक्षी!

किसी ने सिर्फ किले बनाये, तो किसी ने सिर्फ मंदिर!
किसी के यहां सिर्फ राजे हुए तो किसी के यहां सिर्फ पुजारी।
राजा-यौद्धेय-पंचायती, तीनों जिसके यहां हुए वो खाप सभ्यता हमारी।
राजा किले पे गर्व करे, करे खाप चौपाल पे और यौद्धेय करे गढ़ियों पे।

पूरे भारत में एक इकलौती खाप सभ्यता है जिसने किलों-मंदिरों से बढ़ के चौपालें बनाई। यह वो दर्श हैं जहां युगों-युगों से निशुल्क और बिना तारीख पे तारीख का ताबड़तोड़ न्याय मिलता रहा है। चौपालों के सभागारों में समाज के समाजों के बड़े से बड़े झगड़े अमन-चैन की रौशनी में बैठ के सुलझते आये हैं। गाँवों के गाँव के उजड़ने के बैर इनमें निमटते रहे हैं। राजा-महाराजा-नवाब-बादशाह तक इन दर्शों पर शीश नवाते रहे हैं।

जिस 'सोशल ज्यूरी' के दम पर अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-फ्रांस से ले के बड़े-बड़े माने हुए यूरोपियन देशों की न्याय व्यवस्था चलती है, उनके जैसा ग्लोबल स्टैण्डर्ड का यह सिस्टम इनसे भी सदियों पहले से भारत में रहा और हमारी 'खाप-सभ्यता' का रहा, जो इन चौपालों के जरिये चलता आया। पूरे भारत में ऐसे सभागार खापलैंड को छोड़ के कहीं नहीं हैं। विदेशों में जैसे कि यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया में यह 'सेंट्रल-हॉल' तो कहीं 'होटल-दू-विल' के नाम से मिलते हैं। यह ग्लोबल चरित्र की परिपाटी का भारत में खाप की चौपालों से मेल उन कारणों में से एक प्रमुख कारण है जिसकी वजह से खाप-सभ्यता का ग्लोबल स्टैण्डर्ड का चरित्र उभर के सामने आता है|
चौपाल पे हर धर्म-सम्प्रदाय का प्राणी चढ़ता-उतरता रहा है| चौपाल के चबूतरे पे आया दान-चंदा ऐसे कार्यों में लगता है जो सर्वहित के हों और सामाजिक हों और सबके सामने हों। जबकि जगत में ऐसे भी चंदे-दान ऐंठने के अड्डे हैं जो सिर्फ और सिर्फ एक जाति-विशेष के ही अधिकार क्षेत्र के होते हैं और उनको गए दान का यह तक पता नहीं लगता कि वो गया या लगा किस खाते।

यही वो कुछ मूलभूत अंतर हैं जिनकी वजह से मंडी-फंडी चाहते हैं कि जल्द से जल्द खाप और इसकी चौपाल जैसी स्वर्णिम संस्थाएं खत्म हो जावें। और इसीलिए इनका बाहुल्य व् निर्देशित मीडिया, खाप की अनूठी कृतियों और कार्यों पर से ध्यान हटवा, 'चूचियों में हाड ढूंढने' की भांति कभी खापों को हॉनर किलिंग तो कभी लिंगानुपात के मसलों से जोड़ता रहता है। ताकि एक तरफ खाप समाज इन चीजों में उलझा रहे और दूसरी तरफ चौपाल जैसी स्वर्णिम कलाकृतियों और परम्पराओं को संभालने का अवसर ही ना मिले और यह स्व:स्व: खात्मे के कगार पर पहुँच जावें। यह "कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना" वाली परिपाटी पे रचा जा रहा और खेला जा रहा खेल है।

यही खाप-सिस्टम की वो उच्च मान्यताएं हैं जिनकी वजह से एंटी-खाप मंडी-फंडी को यह फूटी आँख नहीं भाते। क्योंकि इनके लिए एक चौपाल के बनाने में व्यय होने वाला पैसा, उस पैसे को इनको मिल सकने की संभावना का खात्मा लगता है| इनको यह कभी नहीं दीखता कि न्याय और सामाजिक विवेचना का दर समाज की सबसे ऊँची और पहली जरूरत होती है।

पोस्ट में जो विभिन्न चौपालों की तस्वीरें साझी कर रहा हूँ, यह वास्तुकला के वो अनूठे उदाहरण हैं जो सोरम, मुज़फ्फरनगर से ले धनाणा, भिवानी, अबोहर से ले अमरोहा और अम्बाला से आगरा-भरतपुर और इनसे भी आरपार जहाँ तक खाप सोशल ज्यूरी सिस्टम चलता है वहाँ-वहाँ खाप-सभ्यता के ग्लोबल स्टैण्डर्ड की होने के टेस्टिमोनी रूप में खड़ी हैं।

फोटोज तो मैं इसमें शहरों में बनी चौपालों की भी डालना चाहता था। परन्तु क्योंकि लोगों ने इनको शहरों में जाते ही "चौपाल" की जगह कहीं "धर्मशाला" तो कहीं "भवन" कहना-लिखना शुरू कर दिया है इसलिए नहीं डाल रहा। पंरतु एक सुझाव जरूर सूझ रहा है कि अगर हमको अपनी चौपाल परम्परा, इस नाम और इसकी यूनीफ़ॉर्मिटी को जिन्दा और बरकरार रखना है तो खाप-विचारधारा के समाजों को "भवन" व् "धर्मशालाओं" से ज्यादा शहरों में भी "चौपालें" बनानी चाहियें। जहां "धर्मशाला" और "भवन" जाति सम्प्रदाय की सूचक हैं, वहीँ "चौपाल" सर्वसमाज की सूचक हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक











 

Saturday, 16 January 2016

चढ़ गई धाड़ जाट की, गूँज उठा ललकारा!

1620 में दादा चौधरी बिछाराम गठ्वाला, डबरपुर के नेतृत्व में सर्वखाप ने अपनी लाड़ली समाकौर की आन हेतु जब कलानौर रियासत तोड़ के कौला पूजन की प्रथा समाप्त करवाई तो उस वक्त यह सूक्ति बहुत मशहूर हुई थी:

कुंडू चढ़ गया, सांगवान बंध गया,
पाला मलिक सिरोही, सहरावत चढ़े नरवल लठवाला,
चढ़ गई धाड़ जाट की, गूँज उठा ललकारा!
ढोला चढ़ गया मालका गैल, माँझु और गठ्वाला!


पुस्तक: जाट इतिहास - समकालीन संदर्भ,
लेखक: श्री प्रताप सिंह शास्त्री, पत्रकार

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आमिर खान की दंगल के विरोध से आरएसएस, एक पंथ दो काज साध रही है!

वैसे आमिर खान भी बड़ा राजी हो के मंडी-फंडी के प्रोपेगैंडों पर चलते हुए कभी सत्यमेव जयते में खापों को बदनाम करता था तो कभी जाटों को असभ्य बोलता था| आज जब इससे मतलब सिद्द गया तो देखो मंडी-फंडी अब कैसे एक्सपोज करने पे लगे हुए हैं इसको| चलो इस बहाने आमिर खान को अहसास तो हो गया होगा कि समाज के असली असभ्य लोग कौन हैं|

मंडी-फंडी आमिर खान की 'दंगल' फिल्म तक का बहिष्कार करवाने जा रहे हैं और ऐसा करते हुए वो यह भी नहीं सोच रहे कि कुछ भी हो आखिर इस फिल्म के जरिये चार हिन्दू जाट लड़कियों और उनके पिता के संघर्ष व् सफलता की गौरवगाथा को पर्दे पर लाया जा रहा है| इसलिए तुम्हें विरोध करना है तो इसकी किसी और फिल्म का कर लेना| एक तो वैसे ही हरयाणवियों और जाटों पर कम सकारात्मक फ़िल्में बनती हैं ऊपर से जो बढ़िया ढंग की आएगी, उसका यह कच्छाधारी विरोध करवाएंगे|

यानि मुस्लिमों का भी विरोध, हरयाणवियों और जाटों का भी विरोध, हो गए एक पंथ दो काज|

वर्ना आमिर खान का ब्यान इतना बड़ा तो नहीं था जितना बड़ा ब्यान नरेंद्र मोदी ने विदेश में 'भारत में उनका जन्म लेना पिछले कर्मों का दुष्परिणाम" या ऋषि कपूर का यह कहना कि "मैं खाता हूँ बीफ, रोक लो मुझे" थे? और वैसे भी यह लोग आमिर खान की बीवी जिसका यह बयान था उसपे तो कुछ नहीं बोल रहे? हालाँकि अच्छा है आमिर की अक्ल ठिकाने आ जाएगी इससे, कि मंडी-फंडी खुद के सिवाय किसी के नहीं होते और वह शायद आगे ऐसे काम ना करे|

भाई मैं तो यह फिल्म जरूर देखूंगा और इसका प्रचार भी करूँगा, फिर किसी कच्छे वाले को मेरे खिलाफ मोर्चे निकालने हों या पुलिस में केस करना हो तो, करता फिरे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 15 January 2016

राजकुमार सैनी बड़े बोल मत बोलिए!

याद करिये वो जमाना जब महात्मा ज्योतिबा फुले को माली (सैनी) कम्युनिटी को फंडियों के चंगुल और शूद्र उत्पीड़न से बचाने हेतु आवाज उठानी पड़ी थी| इतनी जल्दी भूल गए क्या सैनी समाज की दुर्दशा? ऐसा क्या दे दिया है आपको मंडी-फंडी ने जो आज उन्हीं परम्परागत दुश्मनों की शय पर एक ऐसी जाति के खिलाफ जहर उगलते हो, जिनके सर छोटूराम की वजह से आपकी कम्युनिटी को किसानी स्टेटस मिला था और जमींदार कहलाये थे? लाहौर कोर्ट के दस्तावेज निकलवा के पढ़ लो जब अंग्रेजों ने ब्राह्मणों-मालियों-धोबियों-खातियों को किसानी स्टेटस देने से मना कर दिया था तो इस जाट के जाम ने दिन के दिन लाहौर विधानसभा से बिल पास करवाया था और तब आपके समाजों को जमीनें मिली थी|

मैं यह तो नहीं कहता कि जाट कोई खुदा हैं, बहुत सी खामियां हैं इस समाज में भी परन्तु याद रखना जिस दिन जाट रुपी दिवार बीच से हट गई, उस दिन मंडी-फंडी रही-सही खाल भी बेच खाएंगे आपके समाज की| ना यकीन होता हो तो एक बार महाराष्ट्र घूम के देख आओ, कि वहाँ आज भी क्या दशा और स्टेटस बना के रखते हैं फंडी लोग आपके समाज का|

आप जैसे लोगों की वजह से ही वो कहावतें चलती हैं कि लम्हों ने खता की और सदियों से सजा पाई| मत खेलिए इनके हाथों में कठपुतली बनके, वर्ना किसान कौम की बर्बादी की जब दास्ताँ लिखी जाएगी तो आपका नाम सबसे ऊपरी नामों में आएगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कौनसा राजा जी को 'भारत-रत्न' दे दिया?

एक भाई ने कही कि "मोदी ने अफगानिस्तान में जाट राजा महेंद्र प्रताप जी की तारीफ करनी पड़ी, वो खबर पढ़ी क्या?"

मैंने कहा' "और मखा आप इतने पे ही कूदने पड़ रहे हो, कौनसा राजा जी को 'भारत-रत्न' दे दिया, अगर जिक्र कर दिया या करना पड़ा तो? यहीं तो जाट भोले रह गए।"

मोदी तो जब फ्रांस गया था तब वहाँ प्रथम विश्व युद्ध के उसी वॉर-मेमोरियल पर शीश भी नवा के आया था जिसमें सबसे ज्यादा सैनिक रहबरे-आज़म सर छोटूराम के भर्ती करवाये हुए गए थे? तो मखा लिया वहाँ सर छोटूराम का नाम?

यें व्यापारी हैं, इनको जो करने में दो पैसे का भी फायदा दिखे, वहाँ यह नाम ही क्या, पूरी वंशावली तक बाच के सुना देवें, परन्तु असली बात तो तब मानूँगा जब राजा महेंद्र प्रताप और सर छोटूराम को "भारत-रतन" देवें।
मखा यें थाळ की बची-खुची खुरचन वाली बाकळियों में आप राजी हो सको, मैं नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट-जट्ट-जुट्ट की साँझी संस्कृति!

जाट-जट्ट-जुट्ट की साँझी संस्कृति सिद्ध करती है कि जाट एक ऐसी नश्ल है जो अपने अंदर हर धर्म को समाहित किये हुए है। जाट वो शब्द नहीं जो किसी धर्म में समाहित हो जावे| जाट वो हस्ती है जिसमें सब धर्म किसी संगम की भांति समाहित होते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक










































 

Thursday, 14 January 2016

जाट को अपने ऊपर से धार्मिक नहीं होने का टैग हटवाना होगा!

अक्सर सोचा करता हूँ कि जिस जाट और सहयोगी जातियों के यहां परम्परा रही कि जब भी नया गाँव-नगर-नगरी बसाई तो सबसे पहले उसका "दादा खेड़ा" पूजन किया गया| यानी उस बसासत की मिटटी और सर्वप्रथम पुरखों को देवता माना गया| तो फिर भला वास्तव में हुए भगवानों को पूजने वाले जाट अधार्मिक कैसे हो जाते हैं?

मेरे विचार से यह काल्पनिक भगवानों को पुजवाने वालों का फैलाया हुआ चोंचला है जिनको चाहिए कि जाट और सहयोगी जातियों का अपने वास्तविक भगवान "दादा खेड़ा जी" से ध्यान हटे और इनकी उल-जुलूल कोरी काल्पनिकताओं की परिकल्पनाओं को ढोता रहे|

मैं यहां यह बात कहते हुए इतना भी संवेदनशील हूँ कि किसी की काल्पनिकता को भी समाज में स्थान मिले, पहचान मिले परन्तु इस स्तर की नहीं कि वो भगवान बना के समाज में जड़ता पैदा करने लगे| उदाहरण के तौर पर डिज्नीलैंड| अब डिज्नीलैंड को कल को भगवान बना के पुजवाने लगे तो क्या यह व्यवहारिक है? हाँ उस काल्पनिकता को सम्मान देते हुए उसके एम्यूजमेंट पार्क बना दो, परन्तु कृपया करके उसको भगवान मानने की गलती मत करो|

बस यही छोटा सा खेल है सारा जाट और सहयोगी जातियों को विचलित किये रखने का, उसको बिचलाये रखने का| अब क्योंकि वास्तविकता को सबसे ज्यादा पूजने वाली जाति जाट है तो यह सबसे पहले अधार्मिक होने का ठीकरा जाट पे फोड़ते हैं, ताकि इससे अन्य जातियों में यह संदेश जाए कि देखो जाट तो अधार्मिक है या जब जाट ही अधार्मिक है तो फिर तुम किधर जाओगे| और उस जाने के चककर में समाज हो लेता है इनके पीछे|

"दादा खेड़ा" भगवान की थ्योरी समाज में फैलो (fellow) बनाने की है जबकि इनकी थ्योरी सिर्फ और सिर्फ फोल्लोवेर (follower) बनाने की| "दादा खेड़ा" पे कभी कोई पुजारी नहीं बैठाया गया और ना ही मूर्ती रखी गई क्योंकि यह स्थल पूरे गाँव-नगर-नगरी की नींव का प्रथम स्मारक स्थल होता है| जबकि इनके यहां सब तामझाम चाहियें, क्योंकि इनको फोल्लोवेर (follower) जो बनाने होते हैं| जबकि "दादा खेड़ा" की भक्ति उन्मुक्त होती है, जाओ पुरखों को शीश नवाओ, उस स्थल की साफ़-सफाई सुनिश्चित करो और हो गया|

बस यही मूल है जिसको जाट को बचाना होगा| अन्य समाज आपके साथ है और रहा है, परन्तु तब तक जब तक आपने अपनी राह नहीं छोड़ी| 'फैलो' बनाने की राह है जाट की 'फोल्लोवेर्स' बनाने की नहीं|

ताकि फोल्लोवेर्स बनाने वालों का प्रभाव ज्यादा ना बढ़ पाये, इसलिए जाट को जरूरी है कि उसके और सहयोगी जातियों के इतिहास में जो ऐतिहासिक हुतात्मा और युगपुरुष हुए हैं उनकी जीवनियों पर गाथाएं बनवा के उनका प्रचार करे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बन जाओ फ़ौज भी तुम ही, बोल दूंगा तुम्हें राष्ट्रभक्त!

मैंने एक कथित सनातनी कट्टर राष्ट्रवादी से पूछा कि भाई तुम लोग मुस्लिम पाकिस्तानी कट्टरवादियों की भांति जैसे वो भारत में घुस के हमारे लोगों को मारते हैं, ठीक ऐसे ही तुम लोग क्यों नहीं घुसते पाकिस्तान में?
महाशय बड़ा घुन्ना व् सदियों का रटा-रटाया तर्क लिए, चले आते हुए फरमाने लगा कि सनातन धर्म की रीत रही है कि हमने शांति से जीना सीखा है और देश की सीमा से बाहर आक्रमण करना हमारी रीत नहीं रही|

मखा चोखा ओ पहाड़ी बुच्छी, देश की सीमा से बाहर जा के तुम्हें आक्रमण करने नहीं और देश के अंदर किसी को चैन से रहने देना नहीं| वैसे भी वर्ण और जाति व्यवस्था से ही तुम्हारा मन जो भर जाता है समाजों में उथल-पुथल मचाये रखने का| और फिर तुम्हारी इस नीति को भारत से बाहर कोई झेलेगा भी नहीं, इसलिए बहाना अच्छा है कि हम शांतिप्रिय और देश की सीमा से बाहर आक्रमण करने वालों में नहीं है|

शायद तुम्हारी इसी शांतिप्रियता का ही तो नतीजा है कि ईरान से ले के कम्बोडिया तक कभी एक बताये जाने वाला यह भू-भाग आज वर्तमान भारत के रूप में सिकुड़ के रह गया| चीन-जापान तक जिस बुद्ध ने भारत का झंडा फहराया उसको तुमने भारत से उखाड़ फेंकने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी| अच्छा मजाक है शांतिप्रिय और देश की सीमा के भीतर|

अनोखे लोग हैं यह, जो धर्मभक्ति को ही देशभक्ति मनवाने पे तुले हैं| यह तो वो धक्के की माँ वाली हो रखी है कि एक बहुत ही बिगड़ैल भाभी थी, जिद्द पे अड़ गई और देवर से बोली कि मुझे माँ बोल| देवर बोला भाभी माँ| तो वो बोली कि नहीं सिर्फ माँ बोल| वो बोला कि सिर्फ माँ कैसे बोलूं? वो बोली कि ले मैं बुलवा के दिखाती हूँ| करके के त्रियाचरित्र, लगा के देवर पे छेड़खानी का आरोप और डलवा दिया जेल में| थाने में जा के बोली कि अब भी वक्त है बोल दे माँ| बोला कि नहीं| फिर पड़े पुलिस के डंडे और हुआ दर्द तो बेचारा लाचार हो के चिल्लाया "हाय रे धक्के की माँ"! यही कुछ इन तथाकथित राष्ट्रवादियों के साथ हो रखी है कि बोलो हमें राष्ट्रभक्त| धंधा धर्म का करते हैं, टैग इनको राष्ट्रभक्ति का चाहिए, तो देश की फ़ौज क्या भाड़ फोड़ने के लिए है? बन जाओ फ़ौज भी तुम ही, बोल दूंगा तुम्हें राष्ट्रभक्त|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 13 January 2016

जाटों को सबके मसीहा बनने के ढोंग से अब बाज आना होगा!

मेरा सवाल है दादरी कांड पे अवार्ड लौटने वालों से भी और अभी मालदा कांड पे दादरी कांड पे अवार्ड लौटने वालों की चुप्पी पे सवाल उठाने वालों से भी कि यह हरयाणा में "जाट बनाम नॉन-जाट" पे क्यों नहीं तुम लोग अवार्ड लौटाते; मालदा पे रोने वाले तुम लोग क्यों नहीं पहले हरयाणा के जाट बनाम नॉन-जाट पे रोते?

और इनसे भी बड़ा सवाल उन जाटों से है जो दादरी कांड पे भी दुःख मनाते हैं और मालदा के लिए भी रोते हैं| तुम इन अपने ही धर्म वाले कहलाने वालों द्वारा जाट कौम को दिए दुखों, उत्पीड़नों और भेदभावों पे कब रोवोगे? बाज आ जाओ सबके मसीहा बनने का ढोंग करने से ऐ नादाँ जाटो, वर्ना ढूंढी ना मिलेगी तुम्हारी जाटू सभ्यता और जाटू बोली| और यह नहीं बचे तो फिर तुम्हारा कोई नामलेवा ना होगा; शायद तुम खुद भी खुद को जाट कहने से डरा करोगे|

इसलिए सुनो ओ सबके मसीहा बनने वालो, अब तो रुक के साँस ले लो; आज तुम्हारी मसीहाई की सबसे ज्यादा जरूरत तुम्हारी अपनी कौम की जाटू सभ्यता और जाटू बोली को है| इनके यह कभी दादरी तो कभी मालदा के रुदाली विलाप तो तब भी चलते रहेंगे जब तुम इनके दर पे अपनी चमड़ी भी बेचने लग जाओगे या बेचने की नौबत तक पहुंच जाओगे; परन्तु क्या उससे तुम्हारी अपनी सभ्यता संस्कृति बच पायेगी? आज खड़ा करो जाटों का कोई तक्षिला या नालंदा; जिसमें सिर्फ जाट-खाप-हरयाणा शब्दों और इनसे जुडी काल्पनिकता से दूर वास्तविक और व्यवहारिक थ्योरियों पर ही शोध-विमर्श-मंथन और चर्चे होवें|

दिखती सी बात है जो खुद की कौम की मसीहाई करने से डरता हो, वो बाकी के समाज की मसीहाई भी उसी हद तक कर पाता है जहां तक उसको अकेले पड़ जाने का डर ना सताने लग जाए| और ज्यूँ ही डर सताने लगता है तो इनसे जुड़ने का कारण बस वही डर ही रह जाता है और यही बैठा दिया गया है आपके दिलों में कि कहीं हम अकेले तो ना पड़ जावें इसलिए इनके सुर-में-सुर मिलाने में ही भलाई|

कैसी पीढ़ी हो आप आज के जाट कि "जाट बनाम नॉन-जाट" के अखाड़े सजे खड़े हैं, आपको अकेला छोड़ दिए जाने के पुख्ता इंतज़ाम हो चले हैं और आप फिर भी सबकी मसीहाई का ठेका लिए टूल रहे हो| जरा ठहरो, लौटा दो इनके ठेके और पहले अपनी कौम-सभ्यता रुपी घर की मसीहाई का धर्म पुगाओ|

याद करो अपने पुरखों का जमाना, जिनकी चाल पे चल के उत्तरी भारत ने सभ्यता जी है| यह जो आज आपसे छींटक के जाते से प्रतीत होते हैं इनको हमारे पुरखे पकड़ के नहीं लाये थे या इनकी मानमनुहार नहीं किया करते थे कि आप जाटू सभ्यता से जियो या जाटू उर्फ़ हरयाणवी बोली बोलो| यह लोग बोला करते थे क्योंकि वो हमारे पुरखे जाट अपनी सभ्यता और बोली को गर्व से पकड़ के रखा करते थे| जी हाँ, सामाजिक परिदृश्य में सभ्यता और बोली का गर्व ही वो अस्त्र है जिसको पकड़े रहने पर ही दूसरे लोग आपसे जुड़े रहते हैं|

ग्लोबल सोच की कौम है हमारी, इसको जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र से हो सकने वाले अलगाव के भय के चलते मत त्यागो| हिंदी-हरयाणवी-अंग्रेजी को सीखते और काम में लेते हुए हमें अपनी सभ्यता-संस्कृति और बोली की मसीहाई करनी है अब|

अत: "तुम अपनी जगह राजी, हम अपनी जगह राजी" उर्फ़ "ना इनसे से बैर ना इनसे से दोस्ती" की नीति पे चलना ही आज की घड़ी में अपनी सभ्यता-संस्कृति बचने का सर्वोत्तम रास्ता होगा| कारोबारी राह पर आंच ना आवे और हमारी सभ्यता-संस्कृति भी जीवंत-अनंत चलती रहे, ऐसी राह और ऐसे सूत्र निकालने होंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक