Monday, 7 September 2020

भाषा-भाषा का अंतर् समझिये व् इसी के अनुसार चलिए!

व्यवहार व् भावनाओं के आधार भाषा तीन प्रकार की होती है:

1) मातृ-भाषा: वह भाषा जो माँ को बोलते-देखते हुए बच्चा सीखता है व् जिसमें आपके लोकगीत-लोक्कोक्ति-लोकव्यवहार आदि होता है|
2) सहेली-भाषा: वह भाषा जिसमें आपकी मातृ-भाषा के 50% से अधिक शब्द मिलते हैं, लोकगीत-लोक्कोक्ति-लोकव्यहार मिलते हैं|
3) व्यापारिक-मात्र-भाषा: वह भाषा जो रुपया-पैसा कमाने को प्रयोग की जाती है या इसमें सहायक हो, परन्तु इसमें "व्यापारिक-मात्र" क्यों लिखा, क्योंकि व्यापार आप अपनी मातृभाषा व् सहेली-भाषा के जरिये भी कमा सकते हो, लेकिन इनसे मुख्यत: व्यापार ही कमा सकते हो इसलिए|

एक हरयाणवी (हरयाणवी के 10 रूप वर्तमान हरयाण-दिल्ली-वेस्ट यूपी में बोले जाते हैं) के मद्देनजर इन तीनों प्रकारों को जानते हैं:
एक हरयाणवी की मातृ-भाषा हरयाणवी है: क्योंकि यही एक हरयाणवी जब पैदा होता है तो माँ को बोलते-बरतते सुनता-देखता है और सीखता है व् इसी में एक हरयाणवी का लोकगीत-लोक्कोक्ति-लोकव्यवहार चलता है|
एक हरयाणवी की सहेली भाषाएँ: पंजाबी, मारवाड़ी व् उर्दू; क्योंकि इनके लोकगीतों से ले लोकव्यहार व् बोलने में प्रयोग आने वाले 50% से अधिक शब्द साझे हैं|
एक हरयाणवी की व्यापारिक-मात्र भाषाएँ: हिंदी, संस्कृत, इंग्लिश, फ्रेंच आदि| हिंदी "सहेली-भाषा" में आ सकती थी परन्तु सिर्फ शब्द कॉमन हैं शायद 40-50% के करीब परन्तु लोकगीत-लोक्कोक्ति व् लोकव्यवहार हिंदी व् हरयाणवी दोनों के भिन्न हैं|

विशेष: कोई भाषा अनादरणीय नहीं है, सभी का अपना-अपना महत्व व् आदर है; यहाँ सिर्फ इनकी प्रकार समझाने के उद्देश्य से इनका एक हरयाणवी के परिवेश में वर्गीकरण किया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आदरणीय कृष्णचन्द्र दहिया सर आपकी "जाट कृषि व् इतिहास" बारे लेखनी में एक छोटा सा सुझाव!

क्योंकि आप शुद्ध जाट इतिहास पर पुस्तक लिख रहे हैं तो इसको इसके शुद्धतम रूप तक ले जाने बारे कुछ विचार आये, जो इस प्रकार हैं|

"जाट संस्कृति" शब्द की जगह "जाट की जाटियत", "जाट की जातकी" या "जाट का जाटपन" या फिर सिर्फ "जाट इतिहास" जैसा कोई उचित शब्द प्रयोग कीजिए क्योंकि संस्कृति शब्द एक भाषा संस्कृत से घड़ा गया शब्द है| और यह पैटर्न सिर्फ संस्कृत को छोड़ किसी भी अन्य भाषा में देखने को नहीं मिलता| इंग्लिश देख लीजिये उसमें इसका वर्ड "कल्चर (culture) है ना कि संस्कृति की तरह इंग्लिश से "इंग्लिशिति" टाइप कुछ; फ्रेंच देख लीजिये इसमें इसका शब्द कुल्चर (culture) है ना कि संस्कृति की भांति "फ्रेंचीति"| इन्होनें सिर्फ संस्कृत बोलने भर वालों के लिए बना दिया है संस्कृत-संस्कृति-संस्कार; जबकि इसमें व्यवहार नगण्य है या है तो वह सिर्फ संस्कृत बोलने-बरतने वालों तक को ही रिप्रेजेंट करता है|

तो जब ऐसे ही प्रेजेंट करवाना है तो मेरे ऊपरी पहरे की प्रथम लाइन में दिए सुझाव से क्यों ना किया जाए? यानि जैसे भाषा से ही संस्कृति बनती है तो फिर हरयाणवी से "हरयाणवी-हरयाणी-हरयाणत-हरयाणव" होना चाहिए और जातकी भाषा से "जातकी-जाटियत-जाटपन-जाट" जैसा कोई उचित शब्द प्रयोग करें (सुझाव ऊपर दिए)| क्योंकि और जैसा कि ऊपर कहा जब किताब शुध्द जाट पर लिखी जा रही है तो जातकी उसकी भाषा रही है, उसी के अनुरूप यह शब्द होना चाहिए यानि जाट संस्कृति नहीं अपितु "जाट की जाटियत" या "जाट का जाटपन" या "जाट की जातकी" या जाट का इतिहास" या संस्कृति तर्ज पर शब्द चाहिए तो "जाट की जटिति" टाइप कुछ हो|

हालाँकि मार्केटिंग के उद्देश्य से देखा जाए तो ब्रैकेट में (संस्कृति) शब्द प्रयोग कर सकते हैं, जैसे "जाट की जटिति (संस्कृति)" या फिर "जाट कल्चर" ही रख लीजिये इससे भी ज्यादा व्यापक शब्द है यह|

हमें यह चीज भी समझने की जरूरत है कि विश्व में कहीं भी अन्य भाषा में ऐसा पैटर्न ही नहीं है कि culture जैसे चीज को agriculture के बजाये भाषा से निकाला गया हो, बल्कि आपके ही एक लेख में पढ़ा था कि इंग्लिश हो या फ्रेंच इनके यहाँ cult शब्द से agriculture व् culture निकले हैं तो यह शब्द भाषा से कैसे निकल सकता है फिर? और क्योंकि आप तो "जाट की जटिति यानि संस्कृति" के नाम पर ला ही agriculture मुख्यत: रहे हो तो फिर शब्दों का चुनाव भी उसी के अनुरूप हो| हालाँकि संस्कृत एक अच्छी भाषा है, इससे मेरा भी प्रेम है, धातु-रूप मुझे भी आजतक याद हैं परन्तु इसी का लॉजिक लिया जावे तो जैसे संस्कृत-संस्कृति-संस्कार हैं ऐसे ही जातकी-जटिति-जाटियत-जाटपन होना चाहिए या जाट के सबसे नजदीक लगती दो भाषाएँ हरयाणवी व् पंजाबी से ड्राइव किया जाए इस शब्द को| बाकी आपका विजडम|

चलते-चलते, एक शब्द पर और प्रकाश डाल दूँ; वह है universe| इंग्लिश हो या हिंदी, फ्रेंच हो या उर्दू क्या इनमें किसी भी भाषा में यह शब्द किसी जाति या वर्ण से निकला हुआ है या नश्ल-न्यूट्रल है? नश्ल-न्यूट्रल है ना? तो फिर यह ब्रह्म-ब्राह्मण-ब्रह्मा-ब्रह्मचारी-ब्रह्माण्ड क्यों हैं अगर यह हिन्दू धर्म की सम्पूर्ण जातियों-वर्णों को ही मान लो रिप्रेजेंट करते हैं तो? यूँ तो फिर इस तर्ज पे मैं जाट-जाटपन-जट्टा-जट्टचरयता-जाटांड क्यों ना कहने लग जाऊं; अगर इतना ही आत्म-जाति या वर्ण मुग्ध (आत्मुग्ध ) होने की बात है तो या नहीं?

Note: क्योंकि शुद्ध जाट चीजों पर पुस्तक ला कर आप जाट को इन विसंगतियों से निकालते प्रतीत होते हैं तो आशा है कि यह सुझाव आपके इस उद्देश्य में कुछ कारगर सिद्ध होवे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 2 September 2020

"माइथोलॉजी मिक्स" से बाहर निकाल "वास्तविक जाट इतिहास" लिखते 20th व् 21st शताब्दी के चेहरे:

इस केटेगरी में भी सिर्फ उन लेखकों का जिक्र होगा जो archeological प्रूफ्स के साथ अपनी लेखनी लिखे हैं|


सबसे पहला चेहरा: "हरयाणा के वीर यौद्धेय" सीरीज लिखने वाले आचार्य भगवान देव जी| हो सकता है इनसे भी पहले कोई और हो जिसने माइथोलॉजी से हट के जाट इतिहास को लिखा हो, ऐसी शोध कभी बंद नहीं होती; ऐसा कोई नाम सामने आया या मिला तो जरूर लिखूंगा|

दूसरा चेहरा: G व् J की कोडिंग को डिकोड करके पहली बार इंडिया की सीमा से बाहर जाट जड़ों का पटाक्षेप करने वाले पूर्व IRS डॉक्टर भीम सिंह दहिया जी (मेरी सगी चचेरी भाभी के सगे ताऊ जी)|

तीसरा चेहरा: वेटरन आर्कियोलॉजिस्ट सर रणबीर सिंह फोगाट| 2012 में जब हरयाणवी व् उदारवादी जमींदारी इतिहास को इसके शुद्धतम वास्तविक रूप में निडाना हाइट्स (www.nidanaheights.com) की वेबसाइट के जरिये ऑनलाइन लाने की ठानी तो सर से दिल खोल कर सहायता मिली; सर के शोधित व् लिखित 50 के करीब शोधपत्र व् आर्टिकल्स निडाना हाइट्स की वेबसाइट के विभिन्न सेक्शंस में पड़े हैं| सर के साथ "उदारवादी जमींदारी" पर मेरी पहली किताब भी आने की तैयारी हो चुकी थी, जो कि 150 पन्नों की तो लिखित पीडीएफ में आज भी पड़ी है, परन्तु अन्य व्यस्तताओं के चलते अभी तक पब्लिश नहीं हो पाई है, क्योंकि इसमें 100 पन्ने का कंटेंट और जोड़ना था|

चौथा चेहरा: हरयाणवी आर्ट-कल्चर-मोनुमेंट्स की फोटोग्राफी के लीडिंग चेहरे सर राजकिशन नैन जी (मेरे दादके अजायब से हैं, मेरी दादी के कुनबे से व् रिश्ते में मेरे ताऊ जी लगते हैं)| 2017 व् 2018 में इंडिया आया था तो आधा-आधा दिन ताऊ जी के पास बिताया| निडाना हाइट्स पर "मोखरा" का इतिहास वाला 20 से ज्यादा पेज का शोधपत्र ताऊ जी का ही है|

पांचवा चेहरा: सर धर्मपाल सिंह डूडी, लंदन में रहते हैं, "फ्रांस टू कारगिल" जैसी शुद्ध Jat War HIstory with archeological proofs लिखने वाले अद्भुत लेखक| जब अगस्त 2016 में लंदन में सर छोटूराम पर दूसरी इंटरनेशनल कांफ्रेंस की थी तो सर से वहीँ मुलाकात हुई थी| मेरी प्रेजेंटेशन को सर की तरफ से स्टैंडिंग ओवेशन मिली थी|

छटा चेहरा: सर कृष्ण चंद्र दहिया, इनकी शोध सीरीज की पहली बुक मार्किट में आ चुकी है, दूसरी आने को है| कई सालों से ईमेलों पर अपने शोध मुझे भेजते रहे हैं व् ईमेल और चैट्स के जरिये अच्छी खासी चर्चाएं हुई हैं| मैं इनके लेखन के प्रति सदा उत्साहित रहता हूँ व् इनकी किताबों के प्रति मेरी क्यूरोसिटी निरंतर बनी रहती है|

सातवां चेहरा: प्रोफेसर विवेक दांगी| अभी परसों ही जब पहली बार फ़ोन पर बातें हुई तो चर्चा इतनी रूचिकर हुई कि 1.5 घंटे तक चली| प्रोफेसर साहब के अंदर ना सिर्फ गॉड-गिफ्टेड टैलेंट है आर्कियोलॉजी के प्रति वरन एक ऐसी आग है अपने वास्तविक इतिहास को उभारने की जो मुझे मेरे अंदर समानांतर उबलती दिखती है| मेरे लिए खास बात यह है कि मेरे हमउम्र हैं और कौम-कल्चर-इतिहास-अस्तित्व के कई मर्म-दर्द पर मेरे से साझे मिलते हैं|

हालाँकि सहलेखक के तौर पर हरयाणवी लिंग्विस्टिक्स पर 2 बुक्स मेरी भी आ चुकी हैं परन्तु स्वछंद तौर पर पहली आनी अभी बाकी है, परन्तु आर्टिकल अनंत आ चुके हैं; उदारवादी जमींदारों के गैर-मैथोलॉजिकल इतिहास पर| अधिकतर निडाना हाइट्स पर पड़े हैं व् उदारवादी जमींदारी परिवेश के दीवानों में सोशल मीडिया पर जूनून के तौर पर एक दशक से ज्यादा से यदाकदा सर्कुलेट होते देखे जाते हैं|

बहुत खलती थी यह बातें जब बड़े-बड़े इतिहासकारों को जाट इतिहास को ले-दे-के घुमा-फिरा के माइथोलॉजी में घुसा दिया हुआ पाता था| "जट झट संघते" या "जटाओं से निकले जाट" या ऐसे ही किस्से को "जाट इतिहास" के नाम पर पढ़ता था; धन्य हो इन लेखकों व् शोधार्थियों का जो इस जूनून को वास्तविक रूप दे पाए| आगे भी कई युवा शोधार्थी आ रहे हैं, वास्तविक इतिहास को लेकर; जो अत्यंत सुखद अनुभूति है|

विशेष: हो सकता है कि कोई और चेहरा भी छूट गया हो, तो कृपया ऐसा सिर्फ जानकारी के अभाववश ही मानियेगा| और कृपया ऐसा हर नाम इस सूची में जुड़वाईयेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 28 August 2020

हिंदी मूवमेंट के जैसे हरयाणवी मूवमेंट!

 हिंदी मूवमेंट के जैसे हरयाणवी मूवमेंट:

अगर चलाया जाए तो फंडी इस तरह की किल्की तो नहीं मारेंगे कि:

1) यह देखो अलग दिशा निकाल रहे हैं|
2) यह देखो झगड़े के बीज बो रहे हैं|
3) यह देखो समाज को बाँट रहे हैं|
4) यह देखो समाज को पथभृष्ट कर रहे हैं .... आदि-आदि

क्योंकि अगर आपको हरयाणवी कल्चर से प्यार है तो वह बिना भाषा के नहीं बचेगा| किसी भी कल्चर का मूल होती है उसकी भाषा और हिंदी जो है वह हरयाणवी कल्चर के मूल यानि हरयाणवी भाषा को खा रही है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती| आज की हरयाणा सरकार तो इतनी बेगैरत और धूर्त साबित हो रही है कि आजकल हर गाम में लगवाए जा रहे "शौर्य-पट्टों" पर हरयाणा के हरयाणवी गाम होते हुए भी उसकी भाषा सिर्फ "हिंदी" लिखवा रही है, यह नहीं कि चलो हिंदी लिखवाना है कोई नी लिखवा लो परन्तु उसके साथ हरयाणवी भी तो लिखी जाए? यह अवस्था बहुत ही घातक है| एक-दो पीढ़ी बाद बच्चे इन्हीं पट्टों के रिफरेन्स में जब देखेंगे कि हरयाणवी तो कहीं, है ही नहीं, तो क्या मोह, क्या अपनापन पनपेगा उनमें हरयाणवी के प्रति? और कमाल की बात है कि कुछ-एक संस्थाओं, कुछ विशेष हरयाणवी प्रेमियों को छोड़ कर कोई नहीं चुसक रहा है इन पहलुओं पर|

आज तक तो पुरखों के तप का असर था कि चीजें पास होती आई और हरयाणवी अभी तक बची हुई है| परन्तु जिस तरीके से फंडी और फंडियों की सरकारें लगी हुई हैं उसको देख कर तो लगता है कि जैसे यह खुद ही हरयाणवी को खत्म करने का कोई एजेंडा लिए हुए हों; उदाहरण ऊपर दिया है कि कैसे हर गाम में लगाए जा रहे हैं शौर्य पट्टों पर गाम की भाषा सिर्फ हिंदी ही लिखवाई जा रही है| हमें हिंदी से नफरत नहीं, हम हरयाणवी हैं; हम हिंदी तो क्या गैर-हिंदी से भी प्यार करते हैं; परन्तु उस प्यार का यह मतलब तो नहीं हो सकता कि हमारी ही भाषा ऐसे कुचल दी जाए?

और भाषा खत्म तो कल्चर खत्म| यानि ना फिर तीज में कोई स्वाद रहेगा, ना संक्रांत में, ना बसंत पंचमी में और ना बैशाखी/मेख में; जो कि पूर्णत: शुद्ध हरयाणवी-पंजाबी त्यौहार हैं| भाषा का मर जाना यानि तीज-त्यौहारों समेत कस्टम-कॉस्ट्यूम सब कुछ नदारद होते चले जाना|

अत: इन सबको देखते हुए ही ख्याल आता है कि अगर हमें हरयाणवी बचानी है तो इसके लिए 1960-1970 के दशक में जब आज का हरयाणा, पंजाब, हिमाचल एक होते थे, तब यहाँ जो "हिंदी-मूवमेंट" चलाया गया था, वह अब "हरयाणवी" के लिए चलाने की जरूरत आन पड़ी है| आप क्या कहते-सोचते हैं इस पर? और अगर यह सम्भव हो सकता है तो कैसे?

इनकी चिंता मत करना जो आपको कॉर्पोरेट से ले स्कूलों तक में हरयाणवी बोलने पर नफरत करते हैं या आपको दरकिनार करते हैं| यह वही लोग हैं जो मौका मिलते ही व् 2-4 इकठ्ठे होते ही कॉर्पोरेट की हिंदी-इंग्लिश को छोड़, अपनी स्थानीय भाषा में बात करते हुए मिलते हैं, वह भी ऑफिसों में ही, कहीं कोने-खाबों में| यह हरयाणवी से नफरत इसलिए करते हैं क्योंकि एक तो इनमें अधिकतर वो हैं जो माइग्रेट हो के दूसरों राज्यों-कल्चरों से यहाँ आ के बसे हैं| और दूसरा इनको भय रहता है कि ऐसा नहीं करेंगे तो यह इनका कल्चर-राज्य ना भूल जाएँ कहीं| और तीसरा इसलिए कि इनको इस हीन भावना से ऊपर रहना होता है कि इनको यह हरयाणा, इसके हरयाणवी लोग ही भाषावाद, क्षेत्रवाद की शर्तों वाला गुजरात-महाराष्ट्र टाइप का माहौल नहीं देते, यानि हरयाणवी इतने लिबरल होते हुए भी इनको पसंद नहीं| यह आपकी-हमारी लिबरल सोच से चिढ़ते हैं| और बावजूद इसके चिढ़ते हैं कि आपके-हमारे क्षेत्र में बैठ के ही रोजगार से ले कारोबार पाते हैं, रेन-बसेरा पाते हैं; इन सब बुनियादी जरूरतों के लिए सबसे उपयुक्त माहौल पाते हैं| तो ऐसा माहौल, ऐसा लिबरल स्पेस जो कल्चर दे, उस कल्चर की बुनियाद उसकी भाषा बचानी लाजिमी हो जाती है कि नहीं?

विशेष: मुझे माफ़ कीजियेगा कि मैंने यह अपील फ़िलहाल हिंदी में लिखी| लिख हरयाणवी में भी सकता हूँ परन्तु नॉन-हरयाणवी लोगों तक भी यह जरूरत पहुंचे, खासकर उन तक जो पीढ़ियों से हरयाणा में रह रहे हैं और आजतक भी हरयाणा-हरयाणी-हरयाणत-हरयाणवी को तिजारत देते हैं (जो प्यार करने लगे हैं, वो इस लिस्ट में शामिल नहीं हैं), कुछ वह भी सोच सकें| सोच सकें कि क्यों-किस भाषा-माहौल-लिबरलिज्म के चलते वह इतने कम वक्त में इतने समृद्ध बन पाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 19 August 2020

आज पंजाबी फिल्म "मंजे-बिस्तरे" देखी और ऐसी देखी कि बचपन की सौधी से ले फ्रांस आने तक की तमाम बारातें जेहन में घूम गई, वो भी जिनमें बाराती बन के गए और वो भी जो अपने गाम-रिश्तेदारियों में आई|

और एक चीज बड़ी जंची कि आज वाले तथाकथित मॉडर्न लोग, इकनोमिक मॉडल के नाम के सबसे बड़े गधे हैं| बारातों की इकॉनमी तो पुराने पुरखे मैनेज करते थे, आज वाले तो बोर और चौड़ के भूखे, ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरों के कारोबार चलवाते हैं, ब्याह-शादी के नाम पर अपने घर का धोना सा धर के| देखो पहले पुरखों के ब्याह-शादियों के इकनोमिक मैनेजमेंट और तुम आज वाले तथाकथित अक्षरी ज्ञान से पढ़े-लिखे परन्तु दिमाग से पैदलों के मैनेजमेंट:


1) पहले वाले बूढ़े पूरा ब्याह-वाणा का इवेंट-मैनेजमेंट खुद करते थे और आज वाले इवेंट कंपनी हायर करते हैं; स्याणे व् बढ़िया इवेंट मैनेजर तुम अक्षरी व् डिग्री ज्ञान वाले हुए या वो अक्षरी ज्ञान में कम परन्तु इवेंट मैनेजमेंट के गुरु पुरखे होते थे?
2) तुम्हारा इवेंट मैनेजमेंट "घर फूंक तमाशा देख", तुम्हारे पुरखों का इवेंट मैनेजमेंट "घर व् भाईचारा बाँध, दिल बल्लियां करने वाले इवेंट"|
3) पुरखों के ब्याह-वाणे के इवेंट भाईयों-सगारों को मनाने-जोड़ने के इवेंट, तुम्हारे वाले आपस में जलन-अकड़-हैसियत-बोरपन-महाभारत टाइप छेछर भरे इवेंट, जिनमें सगे भाईचारे बेशक रूसे रहो परन्तु तथाकथित बिरादरियों के भाईचारे निभांदे हांडै; जाणू हों भांड किते के|
4) पहले वालों के परस-चौपालों-चुपाड़ों जैसे भव्य-आलिशान फ्री के बारात घर और आज तुम्हारे ये लाखों-लाख किराए के बिसाहे तथाकथित "मैरीज हॉल"|
5) पुरखों के खाट (मंजे)-बिस्तरे फ्री में मैनेज हो जाते थे और आज वालों थारे, ये महंगे-महंगे किराए के सिर्फ बिस्तरे, खाट तो बिछाणी ही भूल गए हो|
6) गाम के चौगरदे को केसूहड़े फिर के आया करदे, तुम आज वालो घर से सिर्फ 100 मीटर तक में गेड़ा मार के वापस घर में|
7) पहले वाले गाम-की-गाम में गाम की बिरादरियों को रोजगार देते, जैसे बैंड-बाजा गाम का होता, नाई गाम का होता, ब्याह-फेरे करवाने वाला दादा खुद के घर का बड़ा बूढा होता, दर्जी गाम का होता, सुनार गाम का, खाती गाम का और आज थारा गाम में होते हुए भी सब कुछ बाहर का| ब्याह के जरिये साथी-बिरादरियों के रोजगार सारे तथाकथित शहरियों के पढ़न बैठा दिए, वो भी पता नहीं कहाँ-कहाँ के पिछोके के लोगों के यहाँ| भाईचारे तो टूटेंगे ही ऐसे में|
8) पुरखों के वक्त ब्याह-वाणे का मतलब होता था पूरा इवेंट पूरे रंग-चाया चढ़, ले घर-कुनबे-गाम-ठोले को साथ अपने हाथों करने-करवाने का, जिसमें ना खर्चे का पता लगता था और ना थकावट का| और आज तुमने सब कुछ सिकोड़ के टोटल "इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों" के यहाँ गिरवी रख दिया और फिर भी वो लहरे-गाजे-बाजे-गूँज-रंग-चा नहीं|

और इस सब पे खुद के साथ अंजानपणा और बनावटपणा इतना कि खुद ही कहेंगे कि, "इब वें ब्याह-वाणे-रंग-चा कित रहे"? कित रहन नैं किते दूसर कै चाल कें जा रे सें अक छूछक कै चले गए? थम राखनिये, थम ल्यावनिये; और थम ही खुद के मखौल बना रहे इन मसलों के| बर्बाद तो थम यूँ ना हुए हो और के थारै लोग रात्यां नैं उठ-उठ खावैं सैं|

"मंजे-बिस्तरे" फिल्म देख के मुझे तो दर्जनों वह बारातें याद आ गई कि जिनके बारे मित्र-प्यारे आज भी याद करते हैं| किसी के बारात में गए तो वें नजारे नहीं भूलते और म्हारे गाम में किसी बुआ-बहन-भतीजी की बारातें आई तो उनके मैनेजमेंट करने आज भी आँखों आगै घूम ज्यावें सें| सबसे ज्यादा मजा तो बारात में आये बिगड़ैल बारातियों को सीधा करने की जब ड्यूटी लगती थी तो उसमें आता था या गाम की परस में खाट-बिस्तरे इकठ्ठे करने में| बड़े किस्से हैं बिगड़ैल बारातियों को बिना-रोला रब्दा होने देने के सीधा करने के, अलग से लेख बनेगा इनपे|

इहसे फ्रांस में आ के चढ़े कि 15 साल हो गए ऐसी किसी बारात में गेस्ट बने या किसी ऐसी बारात का होस्ट बने| इन 15 सालों में बस एक सगी बहणों के ब्याह जरूर मैनेज किये, नहीं तो ब्याह-वाणों-बारातों में कूदने-रचने-रमने-रंगने के नाम की तो जाणूं बेमाता ने आगै की लकीर ही मिटा दी| डब्बी बाट देख्या करते अक वो आवैगा तो कीमें रंग चढ़ेगा, सुसरा इहसे फ्रांस की पैड़ां चढ़े सब पाछै छूट गया; नहीं तो हम न्यूं बंध के बैठनीयां तो कदे रहे ही नहीं| वो ऊँचे महल-अटारियों-दरवाजों-नौहरों-घेरों-परस-चौपालों के ब्याह-वाणे और वो मस्त मेळ-माण्डों से ले रातजगों के गीत, केसूहड़े-बारोठी और हर बारात में अलग छाप छोड़ के आने के ढकोसले|

और इतनी मस्ती से यह इसलिए कर लिया करते थे क्योंकि इनके इवेंट मैनेजर दादे होते थे; हाँजी दादे, बाप-काके-ताऊओं का तो साइड में बैठने का नंबर हुआ करता था| वो मण्डासों वाले चौधरी, वो खंगारों वाले चौधरी वो डिठौरों वाले चौधरी; ईब वालों को तो सर पे खंडका धरते हाणें भी शर्म आवै| ऐसे बैठेंगे ब्याहों में सरफुल्ले जणूं मोहकान आ रे हों| बाजे-बाजे को तो यह चिंताएं तो सताने लग गई कि औरतों के घूंघट उतर रहे हैं, रै थमनें ना दिखती कि थारे सरों से पगड़ी-खंडके भी उतर के जा लिए? लुगाइयों के घूंघट चाहियें पर खुद के खंडके-पगड़ियों-पगों का ठिकाना मालूम ना रह रह्या|

लब्बोलवाब लेख का यही है कि घने चौड़े मत हुआ करो खुद को अक्षरी ज्ञान का चुघड़ा समझ के, थारे पुरखे कम अक्षरी-ज्ञान वाले होते हुए भी तुम से भी बड़े-बड़े इवेंट चुटकियों में मैनेज कर लिया करते थे| उनके लिए ब्याह-वाणे बोर-अकड़ आदि दिखाने के नहीं अपितु भाईचारे मनाने-मनवाने व् मिलके ब्याह निबटाने के प्रतीक हुआ करते थे| अब देख लो थम म्ह कित तैं और कब तैं डूबा पड़ी और क्यूकर इस्ते बाहर आओगे|

कड़वी सच्चाई यही है कि तुम इवेंट मैनेजरों की औलाद हुआ करते थे एक जमाने में, आज इवेंट मैनेजमेंट वालों के कंस्यूमर (ग्राहक) बन के रह गए हो 90%|

और हाँ, झूठ नहीं सच कहूंगा, जबसे ये फंडी जरूरत से ज्यादा सर पर धरे हैं तब से थारे धोने से दुहते आ रह हैं| वही पुरखों वाली इवेंट मैनेजरी व् डिठोरे चाहियें तो इन फंडियों को उसी औकात में रखो जिसमें पुरखे रखते थे; फिर चाहे थम लुगाई हो या माणस| ये फंडी माणस-खाणे हों सैं, बचो और बचाओ अपनी ऊजा-ज्यात-उलाद सब क्याहें नैं इनकी गिद्द नजरों से|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 11 August 2020

अस्थल बोहर मठ, रोहतक के महा-मंडलेश्वर को तीन दिन एक टांग पर खड़ा रहने पर भी नहीं मिली थी निडाना गाम से एक रूपये की भी भिक्षा!

जानिए वह किस्सा कि कैसे बोहर वाले मठ के महामंडलेश्वर को निडाना गाम मोड्डे-बाबाओं के नाम का "छुट्टा हुआ सांड घोषित करना पड़ा था"|

विशेष: आगे पढ़ने से पहले जान लें कि आज जब इतना तथाकथित धार्मिक माहौल हुआ पड़ा है तो हो सकता है आपके अपने पुरखों की यह 3-4 पीढ़ी पुराणी बातें, उनके तर्क आपको अजीब लगें और आप पढ़कर यह व्यक्त करें कि क्या ऐसे भी थे हमारे पुरखे, तो कोई अतिश्योक्ति मत मानियेगा खुद से; परन्तु जो घटना लिखी है यह सत्य पर आधारित है; खुद के दादे-दादियों की बताई हुई है|

बात लगभग 125-130 साल पुरानी है| मेरे सगे दादा से ले गाम के अनेकों बूढ़े दादा-दादियों की बताई हुई है| हुआ यूँ कि निडाना के पुरखों के तार्किक ज्ञान व् मूर्ती-पूजा के ढोंग-पाखंड-आडंबर नहीं करने की ख्याति जा पहुँची अस्थल बोहर मठ, रोहतक के महा-मंडलेश्वर के पास| बात पहुंची कि महाराज यह रियासत जिंद (आज जिला जींद) वाला निडाना बाबाओं को खाने व् कपड़े-लत्ते के अलावा धेला दान नहीं देता| सुन कर महा-मंडलेश्वर को अहम् पर लगी यह बात| बोला कि ऐसे-कैसे नहीं देता, मैं लाऊंगा निडाने से धन का दान|

मोड्डा ले कमंडल और तामझाम निकल लिया अस्थल-बोहर मठ से (बाबा मस्तनाथ यूनिवर्सिटी, रोहतक जहाँ है आज वहां से) और आ गाड्या चिमटा और धूणा जिंद वाले निडाना के गोरे पै| दो दिन हो गए, रोटी और पानी के अलावा निडाना में कोई जात भी ना पूछे मोड्डे की| बाबा जी के उठया छोह और साथ लाये चेले-चपाटों से कहा कि गाम के मौजिज आदमियों से मुलाकात का प्रबंध करो|

चेले-चपाटे आये गाम के भीतर और बात बताई, एक-दो बैठकों में| निडाने के पुरख देवते यानि म्हारे दादे बोले हमनें इस मोड्डे के चाल-ढाल से ही अंदाजा लगा लिया था कि यह कुणसे रंगा रंगया आया सै| बोले कि चलो बतलवाओ के भटकन हो गई बाबा कै?

बाबा भटकन की बात सुनते ही भड़का और बरसा, "मैं सांसारिक मोह-माया त्यागा हुआ घोर तपस्वी हूँ, थमनें मुझे भटका हुआ कैसे कह दिया?"
म्हारे बुड्ढे पुरखे बोले, "तपस्या तो हमनें तेरे लोवै-धोरै भी ना लिकड़ी दिखती, नहीं तो तेरे में ईबी भी धन यानि माया के दान की लालसा रह जावै ए के?"

सुन पुरखों का जवाब, बाबा हक्का-बक्का|
बाबा, "नहीं-नहीं, मुझे धन की कोई लालसा नहीं; मैं तो तुम्हारा घमंड तोड़ने आया था?"

पुरखे बोले, "कौनसा घमंड?"

बोहर का महामंडलेश्वर, "कि निडाना इतना एंडी पाक रह्या सै अक किसे बाबा को एक रूपये का भी दान ना देता?

पुरखे बोले, "रूपये किसी से लूट के लाये हैं हम, या किसी से कर्जे ले रखे हैं, आप बोल कैसे रहे हो?"

बाबा सकपकाया और बोला,"नहीं-नहीं मैंने ऐसा तो नहीं कहा?"

पुरखे बोले,"तो फिर?"

बाबा पकड़ समझ गया कि ऐन उस कहावत वाले जाटों के हाथों चढ़ा सै जिनके बारे कह्या जाया करै कि, "अनपढ़ जाट पढ़े बरगा और पढ़ा जाट खुदा बरगा"| ये तो वो जाट हैं जिन बारे कही जाया करै कि, "वो जाट ही क्या हुआ, जिसके आगे फ़ंडी ज्ञान झाड़ जा"|

बाबा, अपने रूख में नरमाई लाता हुआ बोला, "चौधरियो, असल में थारे गाम में आ कें पता लगा कि असली तपस्वी तो थम सो, जो दौलत कमा के भी उसका घमंड ना करते"| देखो ऐसा है कि मैं जोश-जोश में बाबा बिरादरी में बोल आया कि मैं लाऊंगा निडाना से धन का दान, थम मैंने एक रूपये का दान दे के विदा कर दो; मेरी इज्जत रह जाएगी और थारी बात|

म्हारे पुरखे बोले कि, "बाबा, भगमे बाणे वाले की दो जून की रोटी और साल के दो भगमे बाणे होते हैं| जितने दिन रहना हो रह, यह रशद गाम तेरी टूटने देगा नहीं और इस्ते फ़ालतू हम मुंह लगावेंगे नहीं|"

बाबा का कभी पारा चढ़े, कभी उतरे कि अच्छा फंसा चढ़ा-चढ़ा; असली जाटों के हाथों आन चढ़ा| बाबा कुछ और पार ना पड़ती देख क्रोध में बोला कि, "मैं श्राप दे दूंगा थारे गाम को"|

म्हारे चौधरी पुरखे बोले कि, "बाबा, आप संसार की जिम्मेदारियों से भागे भगोड़े तथाकथित तपस्वी, जो खुद को तो आजतक मोह-माया से मुक्त ना कर सके और आप हम सांसारिक तपस्वियों को श्राप दोगे? उनको जिनकी वजह से थारे पेट में अन्न और तन पे वस्त्र आता है? जा कर लो यह बहम भी पूरा|"

इस पर बाबा ने अपना आखिरी हथियार प्रयोग करते हुए, एक टांग पर खड़ा हो कर तपस्या शुरू कर दी; दिन में एक टांग पे खड़ा रहता और रात को सोता रहता| जब तीन दिन हो गए और म्हारे पुरखे दादे टस-से-मस ना हुए तो महा-मंडलेश्वर थक-हार के यह बोलते हुए धूणा उठा गए कि, "आज के बाद मैं इस गाम को बाबाओं के नाम छुट्टा हुआ सांड छोड़ता हूँ| आज के बाद जो भी बाबा इस गाम में रैन-बसेरे डटेगा और धूणा लगाएगा, वह लठ खा के जायेगा|"

हे मेरे पुरखो, थारे तेज की रौशनी बनी रहे निडाना की हर युवा पीढ़ी पे| और इस रौशनी की बुलंदी यानि हाइट में बसता रहे म्हारा निडाना और इसकी निडाना हाइट्स|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

निडाना की झोटा फ़्लाइंग; जो रखती थी गाम में फंड-पाखंड फ़ैलाने वालों की नकेल कस के!

जानिये फंडी क्यों बोलते थे कि "निडाना के जाट तो कसाई सें"|

हम छोटे होते थे, हुआ यूँ कि एक बार मेरी जन्मभूमि निडाना, जिला जींद में कुछ फ़ंडी जमात वालों ने सतसंग बुला लिया उनके घर में| कुछ जमींदारों की लुगाईयां भी बुला ली चोरी छुपे (हमारे यहां चोरी छुपे ही बुलाते हैं आज भी, क्योंकि अन्यथा मर्द लोग विरोध कर देते हैं)| और फ़ंडी फंड फ़ैलाने के लिए इसीलिए घरों में बैक-दूर एंट्री मारते हैं, घर की औरतों के जरिये| क्योंकि आर्य-समाजी गाम रहा है और आर्य-समाज आने से पहले आर्य-समाज की जड़ यानि "दादा नगर खेड़ों" को धोकने-ज्योतने वाला|

रात के 9-10 बजे के करीब लगी खड़ताल बजने और तथाकथित भक्ति के गीतों का शोर गली-चौराहों तक पहुँचने| पता नहीं यह निडाना के डीएनए में ही है शायद, कि सतसंग की खड़ताल हमें भड़क देने लगती है| यही भड़क पे पड़ोस के एक काका भड़क गए और जा खुड़काये किवाड़ सतसंग वालों के| और मारा रुक्का कि, "थमनें बेरा कोनी के कि गाम में झोटा-फ़्लाइंग ने सतसंग-फंड-पाखंड पर बैन लगा राख्या सै?" घर-वाला बोला, "हैड म्हाडा घड, हम जो चाहवें कड़ें"| वह काका अंदर गया तो देखा कि उसकी लुगाई और 12 साल की बेटी भी वहीँ बैठी है| बस फिर क्या था काका का तो पारा सातवें आसमान पर|

बेटी समझ गई और पापा को सामने देखते ही बोली कि, "पापा मैं तो मना कर दी थी, पर आपको सोया जान के माँ मुझे साथ ले आई"| बस फिर क्या था वहीँ पे हंगामा| और काका बोला कि, "यूँ चोरी छुपे आने की क्या जरूरत थी? चल ऐसा कर इस फ़ंडी के परिवार की औरतों को अपने घर ले आ| वहां मटकवायेंगे तेरे और इसकी औरतों के ढूँगे अपने घर में"?

इस पर फंडी बोला, "हड ऊत के ऊत, हड थाड़े बड़गे जाट-जमींदारा के, हड़ म्हाड़ी बीड़बांनी ना जाया कड़ती| ले जा आपणी नैं गेल"| थाड़े ढूँगे, मटकावेंगी म्हाड़ी जूती| हड कसाई किते के, आपणी लुगाईयां नैं नाचण देते ना गान देते"|

काका बोला, "आ गया जिगरा स्याह्मी? म्हारी लुगाई थारै नाचें तो हम माणस, थारी म्हारै नचाण बुला ली तो हम कसाई"| ला ईब बुलाई, झोटा फ़्लाइंग|

फ़ंडी, "हड तू के बलावैगा, मैंने हे मिलाया इब जुलाना थाणे में फ़ोन (उस टाइम लैंडलाइन शुरू ही हुए थे, इक्का-दुक्का घर लगे थे)|

काका, जा पहुंचा गाम की झोटा फ़्लाइंग के दरबार यानि दादा चौधरी दरियाव सिंह मलिक की बैठक में और दादा चौधरी जगबीर सिंह मलिक (दोनों आज दुनिया में नहीं है) को भी वहीँ बुला लिया| सारा मैटर बता दिया कि म्हारी लुगाइयाँ गेल धक्का कर रह्या सै| इसकी लुगाई म्हारे आ के नाच के जावै तो हम कसाई, म्हारी लुगाई इनके ढूँगे मटका आवैं तो हम इन खातर इंसान| इतने में फंडी के फ़ोन करे से निडाना में जुलाना थाने से पुलिस आ ली| पुलिस आई तो फंडी पुलिस को बोला कि लो थानेदार साहब एक गाखड़ा होया जाट जो म्हारी घर की लुगाइयाँ नैं डडावे अर म्हाड़ी बीड़बांनीयाँ नैं भुण्डा बोलै| बेडा ना कद बोलणा सीखेंगे| कड़ो उसने गिड़फ्ताड|

इधर दादा दरियाव सिंह को पता लगा कि इतनी जल्दी पुलिस भी बुला ली| तो शामलो के दादा चौधरी जिले सिंह मलिक (पूर्व एमएलए जुलाना) व् जुलाना में पड़ने वाले सारे मलिक गांमौ की झोटा फलाइंग के हेड को मारा फ़ोन| अक जल्ले न्यू-न्यू एक फ़ंडी नैं गाम तैं पूछे बिना गाम में पुलिस बुला ली, इसका मतलब ऑथर रह्या सै, पाधरा करना सै|

दादा जल्ले नैं मारया फ़ोन जुलाने, और बोला कि पुलिस जुणसे पायाँ निडाना गई से उन्हें पायां उल्टी आनी चाहिए| और आती-आती शामलो से मेरे पास से जुलाना के मलिक गामों की झोटा फ़्लाइंग का फंड-पाखंड-सतसंग के खिलाफ पास किये रेसोलुशन की कॉपी ले जावें, जिसका कि यह फ़ंडी उलंघन किये हुए है| बस फिर क्या था वायरलेस पर थाने ने पुलिस खाली हाथ वापिस बुला ली|

आगै फ़ंडी की क्या रेल बनाई झोटा फ़्लाइंग ने समझ जाओ| और समझ जाओ लुगाई खासकर, जब इनकी लुगाइयों पे तो ये इतनी नकेल रखें कि इनके घर से बाहर, किसी जाट-जमींदार के जा के नहीं नाच सकती तो थारे पायें तले कीमें न्यारी इ माटी कटे से जो थम जा खड़तल और ढूँगे मटकाओ इनके घरों में और गैर-मर्दों के स्याह्मी?

म्हारे दादे समझाया करते कि बेटो-पोतो, "ऐसी व्यवस्था कायम रखन ताहिं फ़ंडी चाहे थमनें कसाई बुलाओ या फूहड़; जमे रहो अन्यथा थारे घरों का धोना सा धुवा के धर देंगे ये| थारी ही लुगाइयों की नजरों में "ओपन-माइंडेड" बनेंगे और अपनी लुगाइयों पे अपनी जकड़न ढीली होने दें ना| इसलिए इससे पहले कोई और थारी लुगाइयों को "ओपन-माइंडेडनैस" के लेक्चर देवे, इनकी असलियत बता के रखो अपनी लुगाइयों को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 5 August 2020

तुम्हारे कल्चर-सिविलाइज़ेशन पर कटाक्ष करने वालों के मुंह व्यक्तिगत टॉपर्स से बंद ना होने, यह होंगे आपसी सर-जोड़ मुहिमों से!

फंडियों वाली बुद्धिमत्ता "सामूहिक व् सवैंधानिक परन्तु अनैतिक लूट" करने हेतु "सर-जोड़" के कम्युनिटी कहो या कैडर का गिरोह बना के काम करने और फिर लूटे हुए को आपस में बाँट के खाने को कहते हैं; व्यक्तिगत तौर पर परीक्षाओं में टॉप करने या ओहदा हासिल करने को नहीं| यूँ ओहदे वाले क्या आज से पहले नहीं थे; जो समझते हो कि फंडी जमात के दो ओहदेदारों (जिनको तुम जवाब मिल गया होगा की पोस्टें निकाल रहे हो कल से) को किन्हीं व्यक्ति-विशेषों के टॉप करने से जवाब मिल गया? नहीं बल्कि, फंडी लोग इन टॉपर्स व् ओहदेदारों को, आजकल क्या बोलते हैं उन तथाकथित दूतों को जो हर डीसी-एसपी ऑफिस में लगा के छोड़े हुए हैं; उन लपाड़ी-लफंगों से गवर्न करवाते हैं| निःसंदेह यह टॉपर्स कम्युनिटी का स्वाभिमान-गौरव बढ़ाये हैं, परन्तु इससे इन फंडियों को जवाब मिल गया; यह गलतफहमी ना पालें|

यह जवाब उस दिन मानेंगे जब इनकी तरह आपस में "सर-जोड़" के इनसे भी बड़ी अनैतिक लूट ना सही, बल्कि अपने एथिकल पूंजीवाद को आगे बढ़ाओगे| आपस में मिलके काम करने के नाम पर तो आजकल थारै माणस-माणस के बीच "घणिये अक्षोहिणी सेना टाइप वाले युद्ध" जस्टिफाई हो जा सैं, वैसे ना होवै तो ये थारे घरों में ही नई-नई पनपी कथा गुरुवों की चेलियां समझौता होणे दे ना| जबकि देखे हैं कभी वह आपस में "यही युद्ध" वो मचाते या "ऐसे युद्धों के मोर्चे भी खोलते" जो तुम्हें प्रवचन के नाम पे यही लठ-बजाने परोसते हैं? तुम इन लठ-बजानी कथाओं को धर्म मान बैठे हो, जबकि फंडियों के लिए यह सब तुमको आपस में सर नहीं जोड़ने देने की राजनीति है| जिस दिन यह समझ गए उस दिन समझना इनको जवाब दे गए|

परन्तु संकट यही तो है कि कद तो थम समझोगे और कद थारी लुगाई कि जमींदारों के यहाँ हर दूसरे घर में "खेत-डोळे के रोळे" होते आये, कद-कद इनको अक्षोहिणी सेना टाइप वाले काल्पनिक युद्धों के स्टाइल में निबटाओगे| म्हारै तो पंचायती यानि सोशल जस्टिस, सोशल जूरी कल्चर रहा है सै, उसके तहत रोळे निबटते आये और वापिस "सर-जुड़ते-जोड़ते-जुड़वाते" आये; जोड़ लो वापिस| एक पंचायत का ऐसा इतिहास दिखा दो जिसने कभी समझौता ना भी हो पाया हो तो आपस में हथियार तनवा दिए तो दूर, अगर बोहें भी सिकोड़ने दी हों; मामला उनकी सुपुर्दगी में आने के बाद? बेशक इनकी तरह अनैतिक लूट मचाने हेतु नहीं जोड़ने, परन्तु "सरजोड़" तो तुम्हारे "एथिकल कैपिटलिज्म" के फलते-फूलते रहने के लिए भी जरूरी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 2 August 2020

हरयाणवी सलूमण (सलूणे) यानि हिंदी की राखी!

हरयाणवी सलूमण (सलूणे) यानि हिंदी की राखी: सलामती शब्द से निकला बताया जाता है "सलूमण"| हरयाणवी में यह रक्षा से ज्यादा आपसी दुआ-सलामती व् भाण-भाई में आत्मीयता का प्रतीक है क्योंकि हरयाणवी कल्चर में औरत को मर्द के बराबर ही ताकतवर माना गया है| इसलिए हम इस सोच से भी बचते हैं कि औरत कोई छुई-मुई है व् वह अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकती; वक्त आने पर वह बड़े-बड़ों के भोभरे से ले भीतरले तक फोड़ सकती है|

हरयाणवी पोहंची यानि हिंदी की राखी: हरयाणवी में इसको पोहंची बोलते हैं क्योंकि यह हाथ के पोहंचे (हिंदी में कलाई) पर बंधती है| हिंदी में राखी शायद इसको रक्षा बंधन बोलने से निकाला गया होगा|

वैसे एक राखी थाईलैंड में भी मनाई जाती है: क्योंकि थाईलैंड की सबसे बड़ी इकॉनमी "वेश्यावृति" से चलती है तो वहां सुनने में आता है कि भाई, बदमाश ग्राहकों से अपनी बहन की रक्षा हेतु यह त्यौहार मनाते हैं| खैर, यह उनका उद्देश्य, वह जानें| और अगर यह उद्देश्य और इस वजह से नाम है इसका "राखी" या "रक्षा बंधन" " तो इससे तो म्हारा "सलूमण" नाम ही बेहतर भी और सुथरा-सूचा भी|

चित्र में सलंगित हैं, मेरी बुआओं द्वारा उनके हाथों से बनी, मुझे भेजी, फूंदों वाली शुद्ध हरयाणवी पोहंचीं| वो बुआ-भाण का प्यार ही क्या हुआ जो बाजार की तरफ भागने की बजाये अगर अपने भाई-भतीजों के लिए अपने हाथों से पोहंचीं बुनने की जेहमत नहीं उठा सकती| वैसे पोस्टें-तख्तियां लगाएंगे की "प्यार कोई पैसों से नहीं खरीद सकता"; अरे 90% से ज्यादा खरीद तो रही हो कई दशकों से, हर "सलूमण" पे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Sunday, 26 July 2020

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री की जाट व् सिख सरदारों पे कही बात को Ethical Capitalism बनाम Unethical Capitalism के पहलु से समझा जाए!



Ethical Capitalism: यानि उदारवादी जमींदारी, जहाँ खेत में फसल उठने से पहले सब देनदारों का निर्धारित करार के तहत हिस्सा खलिहान से ही बाँट के उसके बाद खसम फसल घर ले जाता रहा है, फिर चाहे उसमें बढ़ई का हिस्सा रहा हो, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का, कृषि के औजार बनाने वाले का, बाल बनाने वाले का, सीरी-साझी आदि का रहा हो| यह जमींदारी वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद से रहित, सीरी-साझी के वर्किंग पार्टनर कल्चर की एथिक्स की होती है, कि अपनी पूँजी बनाओ जितनी चाहे उतनी बनाओ परन्तु दूसरे का हक मत खाओ व् अमानवीयता मत अपनाओं| और जहाँ-जहाँ तक जाट व् सिख सरदार बहुलयता में बसते आये हैं, वहां-वहां 5-10% को छोड़ के यही Ethical Capitalism प्रैक्टिस होता आया है|

Unethical Capitalism: यानि सामंती जमींदारी, जहाँ खलिहान में फसल बंटने का कोई कांसेप्ट नहीं होता, बल्कि बेगारी और होती है| सीरी-साझी की जगह नौकर-मालिक का कल्चर रहता आया| वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद प्रकाष्ठा की नीचता के स्तर का होता है| और इनकी इस नीचता की बानगी ही है ये कि इनके यहाँ दलित-ओबीसी मात्र बेसिक दिहाड़ी कमाने तक को इन्हीं जाटों-सरदारों की धरती पर दशकों से आ रहे हैं| तो ऐसा है बिप्लब देब तेरी बुद्धिमत्ता उस दिन मानूं जिस दिन तू हमारी तरह तेरे यहाँ के वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद के प्रताड़ितों को रोजगार देना तो छोड़, तू तेरे यहाँ वालों के ही रोजगार के बंदोबस्त कर दे तेरे यहाँ|

और अगर तेरे यहाँ से बिकने वाली बेटियों (जो हरयाणा-पंजाब में बहुओं के रूप में आने से पहले कोलकाता के सोना-गाछी, हैदराबाद, मुंबई, दुबई आदि में वेश्यावृति के लिए बेची जाती रही हैं) की बिक्रियां बंद करवा दे तो तुझे वाकई अकलवान इंसान मानें हम| लोग बड़े चौड़े हो के थू-थू करते हैं कि बंगाल-बिहार से बहुएं लाते हैं हरयाणा-पंजाब वाले, अरे यह देखो किन बच्चियों को ला के अपने घरों की शान बनाते हैं, उनको जो हरयाणा-पंजाब में आने से पहले कोठों पर बेचीं जाती रही हैं| और भाई सुन, तू बंगाली है ना? तेरा अहसान होगा अगर यह वृन्दावन के विधवा आश्रम को उठा के तेरे त्रिपुरा या बंगाल में ले जाए तो क्योंकि यह जमा जाट बाहुल्य धरती पर रखा है जबकि इसमें 90% विधवाएं बंगालन बैठी हैं जो प्रोफेशनल वेश्याओं से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं और तथाकथित धर्म के मोड्डे-फलहरी ही इनका जीना मुहाल रखते हैं| बोंडेड-वेश्याओं जैसी जिंदगी चलती है इनकी| उस दिन मानूं तेरी अक्ल जिस दिन तेरी इन बंगालन विधवाओं (सही मायनों में बोंडेड-वेश्याएं) के गले की फांस काट दे|

पर मुझे इतना भी पता है कि क्योंकि तू Unethical Capitalism के सिस्टम की उपज है, तो चिकने घड़े की भांति तू यह नोट पढ़ भी लेगा तो सकपका के नजरें झेंपने के अलावा कुछ कर ले तो| तो जिनकी कोई एथिक्स ही ना हों, उनको एथिक्स पर चल के पूँजी बनाने वाले कम दिमाग के लगें, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं| लिखने को बहुत-कुछ है, 20 पन्ने जितना लेख छाप सकता हूँ परन्तु वक्त की कमी हो रखी है आजकल| इतने से ही समझ जाना कि अगर जाट-सरदार एथिक्स पे रहते हुए भी इतने ताकतवर हैं तो जिस दिन तेरी तरह Unethical हो गए तो तुम्हारा क्या होगा; सबसे पहले तुम ही फिर "लुटेरे" लिखते-लिखवाते-बिगोते-बड़बड़ाते हांडोगे|

अंतिम सुन ले, पूरे इंडिया में जाट-सरदार ही इकलौते Ethical Capitalism वो पैरोकार हैं जो इंडिया के बाद अमेरिका-यूरोप आदि वालों में ही मिलती है| तुमसे तो रीस तो छोड़, तकदीस भी ना होवे जाट-सरदारों की|

नोट: कुछ प्रोफेशनल-सोशल असाइनमेंट्स में बिजी था, इसलिए रिप्लाई लाने में लेट हो गया; हो सके तो पहुंचा दीजियेगा महाशय को यह लेख, वैसे तो पढ़ेंगे ही नहीं फिर भी दिमाग के किसी कोने में कोई बात चौंध जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक