Sunday, 14 March 2021

आर्य-समाज को संभालिये, फंडियों के भरोसे उनके कब्जे में मत छोड़िए!

जैसे मतदान पर रिकॉल का अधिकार होता है, ऐसे ही धनदान-जमीनदान पर भी रिकॉल का अधिकार होता है| अगर लगता है कि कुपात्र को दान दिया गया और गलती हुई तो गलती ठीक कीजिए और कुपात्र को वहां से उखाड़ फेंकिए; फिर चाहे वह कोई शिक्षा स्थल हो या धर्मस्थल| अन्यथा वह कुपात्र आपके दान को वरदान की बजाए समाज-सभ्यता पर श्राप साबित कर देगा| और श्राप के लिए तो आप दान देते नहीं हो, इसलिए यह मर्यादा कोई लांघे तो आप उसको वहां से हटा दीजिए|

दान, वंशानुगत होता है| अगर पुरखे ने या जाति ने दान दिया है तो उस दान से बने-खड़े तंत्र-सिस्टम से बदनामी या शाबाशी का श्रेय-लांछन आप पर भी चढ़ता है| वरदान साबित होता है तो लोग जिक्र में जरूर रखते हैं कि फलां के बाप-दादा ने या फलां जाति-समुदाय ने बनाया था और अगर प्रबंधकों के कुप्रबंधन-बदनीयत से उसमें गलत काम होते हैं तो वह श्राप साबित होता है व् ऐसा करने वालों के साथ-साथ उसको बनवाने वालों को भी गाली पड़ती हैं; यश घटता है| इसलिए वह चीज शाबाशी के लिए ही बनी रहे; इसलिए नजर व् नियंत्रण दोनों रखिए|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

15 मार्च 1206 - वह ऐतिहासिक तारीख जब झेलम, पंजाब में खोखर खाप के जाटों ने पृथ्वीराज चौहान के कातिल मौहम्मद गोरी को मारा था!

खोखर खाप के दादा चौधरी रायसाल खोखर वह यौद्धेय हुए जिन्होंने मौहम्मद गोरी को मारा|
सोचिये कि इस 900 साल पुरानी वास्तविक घटना पर ही फंडियों ने कैसे सारा खेल, सारा इतिहास 360° घुमाया हुआ है कि लिटरेचर से ले इतिहास की किताबों तक में फैलाया हुआ है कि मौहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान ने मारा था, वह भी इनके बीच हुई 17वीं लड़ाई में, जबकि पृथ्वीराज चौहान को गोरी ने दूसरी लड़ाई के बाद सन 1192 में ही मार दिया था| तो जो काल्पनिक यानि मैथोलॉजिकल पोथे फंडियों ने पाथ रखे हैं, इनमें कितनी गपोड़ें हैं; अंदाजा लगा लीजिए| और इसको इन फंडियों की जाटों के प्रति कृतघ्नता का आलम ही कहा जाएगा कि एक के द्वारा भी जाटों को इसका कोई क्रेडिट या धन्यवाद तक कहीं नहीं लिखा मिलता|
खैर, यौद्धेय दादा चौधरी रायसाल खोखर जी को आज उनके द्वारा नसीब करवाई गई इस ऐतिहासिक तारीख की आप सभी को लख-लख वधाईयां जी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 12 March 2021

आलोचना करने वालों को तो बस आलोचना से मतलब होता है, हालात से नहीं!

आज जो यह कह रहे हैं कि अजी जब पता था कि, "किसान आंदोलन के समर्थन में अविश्वास प्रस्ताव गिरेगा तो कांग्रेस लाई ही क्यों"? खुद ही जवाब भी दिए दे रहे हैं कि, "भाजपा को अगले 6 महीने के लिए सुरक्षित जो करना था"|

और अगर इसी विधानसभा सत्र में यह प्रस्ताव नहीं लाया गया होता तो इन्हीं आलोचकों ने यह कह के आलोचना करनी थी कि, "जब पता था कि इस सत्र के बाद अगला सत्र 6 महीने बाद सितंबर में आएगा तो अभी अविश्वास प्रस्ताव लाने का मौका क्यों गंवाया? और इसका भी जवाब खुद ही दे रहे होते कि, "अजी, बीजेपी के हाथों जो बिके हुए हैं हरयाणा कांग्रेस के लीडर; सीबीआई के केसों से डर गए जी; हिम्मत ही नहीं पड़ी प्रस्ताव लाने की; कर दिया बीजेपी को अगले 6 महीने के लिए सुरक्षित, क्योंकि अगला विधानसभा सत्र अब 6 महीने बाद सितम्बर में आएगा; किसानों से, उनके दर्द से तो इनको कोई लेना देना ही नहीं जी"|
बताओ, हो सकता है ऐसे लोगों का कुछ? जबकि ऐसे लोग यह भी जानते हैं कि हरयाणा विधानसभा सत्र 6 महीने के अंतराल के बाद होते हैं; परन्तु जेजेपी, निर्दलीय, यहाँ तक कि बीजेपी के MLA चाहें तो वह आज की आज भी समर्थन वापिस ले, इस्तीफे दे किसानों के पक्ष में आन खड़े हो जावें; या नहीं हो सकते? अब दोनों तरह के आलोचक फ्रंट्स समझ लिए हों तो इसी सत्र में इस अविश्वास प्रस्ताव को लाने और इसके गिर जाने के फायदे भी देख लें?
फायदा 1) फ्री-फंड में किसानों के हितैषी जो बने घूम रहे थे, उनके नकाब 6 महीने बाद यानि सितंबर में उतरवाने की बजाए, अभी उतरवा दिए|
फायदा 2) 6 महीने और किसान इनके आगे-पीछे दुहाई देते, गुहार लगाते फिरते; वह आस, ऊर्जा बची और उसको फ्रेश स्ट्रेटेजी बनाने में लगा सकेंगे|
फायदा 3) हरयाणा में खासकर किसान आंदोलन भावनात्मक रूप से और मजबूत हुआ| जेजेपी, निर्दलीय समेत बीजेपी वाले भी और दोहरे निशाने पर आ गए| पिछले तीन दिन से प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक से ले सोशल मीडिया यही बोल रहा है ना कि किसान दोगुने और भड़क गए हैं, दोगुने और दृढ हो गए हैं, दोगुने और लामबंद हो गए हैं? तो इसका मतलब यह प्रस्ताव उनमें नई ऊर्जा व् आग भर गया, राइट?
फायदा 4) यह भी पता लग गया कि आरएसएस का बनाया तथाकथित "राष्ट्रीय किसान संघ" भी किसी काम का नहीं? मात्र मुखौटा है, जिसमें किसान के नाम पे बंधुआ बैठे हैं| वरना पूरे साढ़े तीन महीने तो यह कुछ बोला ही नहीं था, अब तो बोलता, बीजेपी पे दबाव डालता?
फायदा 5) हरयाणा कांग्रेस के शिखर के नेता में वो गट्स निकले कि दिन के दिन पहले वह सीबीआई कोर्ट से अपनी बेल करवाते हैं और उसी दिन विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव की अर्जी लगाते हैं| अब बताओ बीजेपी को विधानसभा सत्र के दौरान ही ऐन अविश्वास प्रस्ताव से पहले हुड्डा जी पर सीबीआई छोड़ने की क्या पड़ी थी; इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि बीजेपी नहीं चाहती थी कि अविश्वास प्रस्ताव आये?
फायदा 6) किसी बीजेपी-आरएसएस को यह बहम रहा हो कि दबाव डाल के भी किसी कांग्रेसी नेता को प्रयोग कर सकते हैं; तो उसी कांग्रेसी नेता ने कैसे उसी बीजेपी-आरएसएस को विधानसभा में नंगा किया; उनको भी समझ आ गया होगा? प्रस्ताव बेशक गिरा (जिसका पहले से पता ही था), परन्तु भरे बाजार ऑफिसियल व् साबित रूप से यूँ नंगे भी आज तक हुड्डा साहब के अलावा किसी ने नहीं किये ये, या किये?
फिर भी किसी को आलोचना की रट्ट ही लगाए रखनी है तो रखो| लेखक दावा नहीं रखता कि आज के दिन किसानों का सबसे बड़ा हितैषी कौन, परन्तु उनसे तो बड़े ही साबित हुए जिनके पड़पोतों ने खुद की तो छोडो अपने पड़दादा तक को विधानसभा में "नेचुरल संघी" ही बता दिया| इनको इतना भी भान नहीं रहा कि तुम संघ की चाटुकारिता में बोल क्या गए? और एक एंडी तो मुद्दा किसानों का और टेशन पकड़े मिला कश्मीर व् अयोध्या का? खटटर के मुंह से क्या-क्या नहीं उगलवाया, हुड्डा साहब व् कादयान जी की जोड़ी ने? गोयल तो देशद्रोही ही बोल गया?
विशेष: लेखक आज के हालात के हिसाब से लिखता है, भारतीय राजनीति है यह, जो ब्यांदड भैंस की तरह आज इस करवट बैठ के उक्मती होती है तो कल उस करवट; सो आज की लिखी, कल की यह राजनीति रुपी रोज-रोज उक्मती भैंस जाने|
फूल मलिक

Wednesday, 10 March 2021

हरयाणा समेत तमाम इंडिया के लोगों की साइकोलॉजिकल ट्रेनिंग करता "हरयाणा विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव" गिरना!

बीजेपी की स्टेट-सेण्टर में सरकार होते हुए बीजेपी मना कर देती तो इस अविश्वास प्रस्ताव पर विधानसभा में ना डिबेट होनी थी ना वोटिंग लेकिन जैसे इन पर देश की जनता को ट्रेंड करने का भूत सवार हो, जनता में 99% को पता था कि यह प्रस्ताव गिरेगा ही गिरेगा फिर भी होने दिया| इसके 3 मायने मुख्यत: निकाले जा सकते हैं:

1) ताऊ देवीलाल परिवार की राजनीति को भविष्य के लिए समूल दफन करने की बीजेपी-आरएसएस की इस खानदान से खानदानी दुश्मनी की साजिस को क्रियान्वित करना : विधानसभा में उन ताऊ देवीलाल तक को नेचुरल जनसंघी बोल दिया (उन्हीं के पड़पोते ने) जिनकी राजनीति का टैग ही "लुटेरा बनाम कमेरा" होता था| क्या इनको आभास हुआ कि यह क्या कर बैठे कल? इतनी अपरिपक्वता का ब्यान कि पुरखे की लिगेसी भी खाते दिखे कल? राजनीति में अलायन्स करना गलती कही जा सकती है, नासमझी कही जा सकती है परन्तु राष्ट्रीय ताऊ जैसी हस्ती को पूर्णत: संघी बता देना; ना सिर्फ इनकी किसान राजनीति पर सवाल लगा गया वरन कुछ दिनों-महीनों तक तो लोग ताऊ के दूसरे पोते को जिसने किसानों के पक्ष में विधायकी छोड़ दी, उन तक को संदेह के घेरे में खड़ा करवाएगा| मैं इस परिवार में सबसे ज्यादा चौधरी ओमप्रकाश चौटाला का फैन रहा हूँ क्योंकि 1999 से 2004 के इनेलो राज में ताऊ के साथ 1990-91 में बीजेपी व् संघ ने जो किया था, अपने बाप के उस अपमान का सूद समेत बदला किसी ने लिया था तो इस शेर ने लिया था; फिर चाहे वह मोदी को उस वक्त उसकी औकात दिखाना था या रामबिलास शर्मा समेत सारी बीजेपी-संघ को खुड्डे लाइन लगाना था| मैं कदाचित भी बड़े चौटाला जी के लिए उदास नहीं हूँ क्योंकि उनके साथ बदले में यह होना स्वाभाविक था| परन्तु जैसे उन्होंने ग्रीन-ब्रिगेड बना अपने बाप के लिए बीजेपी-आरएसएस खुड्डे लाइन लगाई थी ऐसे ही जिम्मेदारी बड़े चौटाला जी के बेटे-पोतों की बनती थी कि 1990-91 का बदला तुम्हारे बाप-दादा ने 1999-2004 में लिया तो बीजेपी-आरएसएस पलटवार करेगी, उसकी तैयारी रखो; परन्तु यह तो कुछ और ही तैयारी खा गए| अब चौधरी अभय चौटाला व् इनके लड़के तो बेशक कुछ इस खानदान की पॉलिटिक्स को बचा लें; उसके लिए भी अगर यह बड़े चौटाला साहब की तरह वापिस "ग्रीन ब्रिगेड" को खड़ा कर पाए तो| इनफैक्ट इनको अपना पुराना कैडर तैयार कर, इस ब्रिगेड को फिर से खड़ा करने की तैयारी अभी से करनी होगी, आरएसएस की शाखाओं को मुंह-चिढ़ाती इनेलो के ग्रीन-ब्रिगेड ट्रेनिंग के कैडर कैम्प्स अभी से लगाने शुरू करने होंगे जो ताऊ देवीलाल वाले कमेरे शब्द में आने वाले लोगों से बने हों अन्यथा वही 1-2 सीट से ज्यादा कुछ नहीं मिलना| यही तो प्रॉब्लम व् डिसकनेक्ट है जो हमारे लोग समझते नहीं कि ग्रीन-ब्रिगेड की KINSHIP carry-forward क्यों नहीं की गई? इस लेख के लेखक जैसे लोग आजकल इसी KINSHIP शब्द पर फोकस्ड हैं अपने साथियों के साथ| इनेलो भी जितना जल्दी इसको संभाल ले, उतना दुरुस्त|
2) 6 महीने के लिए अविश्वास प्रस्ताव की सरदर्दी से पीछा छुड़वाना: बस बीजेपी अपने को सिर्फ इतना ही सिक्योर कर पाई है|
3) कांग्रेस को नीचे दिखाना: बीजेपी खुश हो सकती है कि उसने कांग्रेस की नहीं चलने दी, परन्तु चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा जी पॉलिटिक्स में कल मुझे महाराजा सूरजमल की प्रति-कॉपी के रूप में विधानसभा में दिखे, वही महाराजा सूरजमल जिनकी विलक्षण बुद्धि ने बिना लड़े ही एक तरफ अब्दाली को कंपाया तो दूसरी तरफ पुणे के पेशवाओं की हेकड़ी निकाली| 1980 के अड़गड़े से बॉलीवुड सिनेमा के जरिये जिस तरीके की 4th grade पॉलिटिक्स जनता को परोस जनता का दिमाग उसी तरह का बनाने की कवायद चल रही थी, कल वह पॉलिटिक्स "सांप की केंचुली" की भांति जनता के आगे नंगी होती दिखी| और यह इस स्तर तक नंगी हो गई है कि हरयाणा के लोग तो खासकर अब "जमना पार", "मर जायेंगे परन्तु बीजेपी को साथ नहीं देंगे" जैसे, ऐसे-ऐसे शब्दों के सम्बोधनों से प्रभावित होने वाले नहीं| मतलब साफ है नेताओं को अपने भाषण व् नियत दोनों अपडेट करने होंगे| किसान-मजदूरों के नेताओं को भी वही कमिटमेंट व् साफ़ नियतें दिखानी होंगी जैसे अभी उत्तराखंड में एक वर्ग विशेष के नाराज होने से उनकी पार्टी ने वहां सीएम ही बदल दिया| जनता व् नेताओं को इस नयी लाइन की पॉलिटिक्स पर डालने हेतु हुड्डा साहब का नाम इतिहास में दर्ज हो गया| वैसे छोटे-मोटे आरोप-प्रत्यारोप छोड़ दिए जाएँ तो चौधरी बंसीलाल के बाद हरयाणा को असली में तरक्की की राह कोई ले कर गया तो वह चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही ले कर गए| कोई रोता-पीटता या वर्ण-जाति के मोह-द्वेष में पड़ के हुड्डा साहब बारे जो बड़बड़ाता रहे परन्तु तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो उनके शासनकाल को स्वच्छतम शासनकालों में लोग आज भी याद करते हैं| हरयाणा के भविष्य की राजनीति की एक बड़ी सुबह की आहट कांग्रेस के ऐसे दिग्गज नेताओं के होते हुए इस दर से आती है| बस हुड्डा साहब को यह ध्यान रखना होगा कि फंडियों की emotional v spiritual कारगुजारियों में ना उलझ जाएँ कहीं|
इस प्रस्ताव के गिरने से बीजेपी को खुद क्या नुकसान हुआ अब थोड़ी इस पर बात हो जाए:
1) लोगों की वह सोच मिट गई होगी जिसके अनुसार वह यह आस लिए हुए रहें होंगे कि बीजेपी के भीतर कोई तो 2-4-5 MLA ऐसे होंगे जो वैसे ना सही परन्तु किसान-मजदूर पृष्ठभूमि का होते हुए ही साढ़े तीन महीनों से दिल्ली बॉर्डर्स पर आंदोलनरत किसान-मजदूर के दर्द-पीड़ा-तप को समझेंगे व् पार्टी से बगावत करते हुए उनके पक्ष में वोट करेंगे|
2) "बीजेपी सिर्फ सर छोटूराम वाली बात वाली फंडियों की पार्टी है" पहले यह बात पुरखे कहते-बताते व् इनसे दूर रहने के रूप में बरतते भी थे, कल उन्हीं पुरखों की नई पीढ़ी ने यह बात ऑफिसियल तौर पर साबित होती देखी| किसान-मजदूर की युवा पीढ़ियों को यह फ्री की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग देने के लिए बीजेपी का साधुवाद|
3) आरएसएस का किसान-मजदूर प्रेमी चेहरा भी ऑफिशियली बेनकाब हो गया अन्यथा आरएसएस ही रुकवा देती इनको इस प्रस्ताव को लाने से ही| लगता है या तो बीजेपी की तरह यह भी ओवरकॉन्फिडेन्स में हैं अन्यथा इनको यह नहीं पता कि यह किसान आंदोलन इंसान नहीं अपितु प्रकृति-परमात्मा-पुरखे तीनों मिलके चला रहे हैं; इसलिए इस वक्त में यह दांव तुम्हें भारी साइकोलॉजिकल नुकसान दे के जाएगा इसलिए इसको ना होने दिया जाए|
चलिए अब इनको पैक कर देते हैं| कोई और आउटपुट आपको लगा हो तो जरूर बताएं-बतलाएं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 5 March 2021

कैसा लग रहा है फंडियों को अंगीकार करके, इनके यहाँ अपनी "peace of mind" गिरवी रख के?

लेख का निचोड़: सामाजिक दंड से समाज को अनुशासित रखने वाले, रोजगार की धमकियां दे के समाज को काबू रखने वाले वर्णवादी फंडियों के हत्थे चढ़े हुए हैं|

बावजूद इसके चढ़े हुए हैं कि ना आपस में कल्चर मिलता, ना लाइफ स्टाइल मिलता, ना जिंदगी की फिलॉसोफी मिलती| खुद की KINSHIP रखने की आदत जो नहीं रखी, इसलिए रिफले हुओं को कोई भी फंडी जिस पटे पे चढ़ा जाता है उसी पे चढ़ के पिसे जा रहे हैं| वरना जरा बताओ इस तथ्य बारे:
एक तरफ: समाज को अनुशासित रखने हेतु गलती करने वाले को उसकी गलती की गंभीरता के हिसाब से social security and justice system (a worldwide phenomena, in India it had/s been practiced by yours ancestors/elders only) की सोशल पंचायतों के जरिये हुक्का-पानी बंद करने का विधान वाला वो उदारवादी सिस्टम जिसने सजा के तौर पर कभी किसी को उसके खेत-घर-रोजगार आदि छीनने की सजा नहीं सुनाई; इतनी मानवता हर फैसले में दिखाई| इसीलिए इनकी सामाजिक खाप पंचायत बारे कहा गया है कि, "अकेले-दुकेले चौधरी के फँसियों मत, इनकी पंचायत से डरियो मत"; यानि नियमानुसार बुलाई गई इनकी पंचायत में कभी अन्याय नहीं हो सकता|
दूसरी तरफ: वर्णवादी फंडियों का समाज को काबू (अनुशासित रखने की काबिलियत नहीं होती इनमें) रखने का क्या तरीका है? इनकी सजा में सजा पाने वाले को जुर्म का पता भी नहीं होता, परन्तु नौकरी हर किसी को हर पल खतरे में नजर आती है| नौकरी की तन्खा में से इनकम टैक्स के अलावा इतना चंदा महीने का फिक्स है, कभी इस काम में दो तो कभी उसमें; मर्जी से दो अन्यथा धक्के से लेंगे| पुलिस-सीआरपीएफ समेत सरकारी कर्मचारियों की पेंशन खत्म| DA/TA/PF सब में कटौती| सरकारी अथवा सामुदायिक सहकारी आदि सिस्टम में यकीन ही नहीं इनका, सब प्राइवेट चाहिए; इसीलिए तो सब खत्म करते जा रहे हैं| और इनकी सामाजिक पंचायत आरएसएस तक में जाने की हिम्मत नहीं किसी की कि जा के शिकायत ही कर सके| या है, चुस्क भी पा रहे हो?
आ रही है ना, "फलां चला, फलां की चाल; अपनी ही चाल भूल बैठा" वाली फीलिंग? कैसा लग रहा है इन फंडियों को अंगीकार करके, इनके यहाँ अपनी "peace of mind गिरवी रख के"? समझ लो यार, और कैसे समझाऊं? अपनी KINSHIP संभाल लो, सीधा सा एक ही सलूशन है| धैर्य की प्रैक्टिस करो, अपने पुरखों का स्मरण करो; हर भय-क्लेश-द्वेष-संशय जाते रहेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 3 March 2021

ये जो थारे खंडकों और डोगे वाले चौधरी थे ना, फद्दू नहीं थे वो!

कभी भैंस को कुरड़ियों पे या कचरे के ढेरों पर कचरा खाते देखा है? गाय को देखा है ना? - जिस दिन फंडियों की मान गाय में माता की जगह सिर्फ जानवर देखना शुरू कर दोगे, उस दिन गाय की भी भैंस जैसी स्थिति होगी|

कभी खापलैंड पर आज तक कोई दलित-ओबीसी की औरत किसी धर्मस्थल में देवदासी बना पब्लिक के संज्ञान में होते हुए पंडों द्वारा उसका सामूहिक देह-भोग लगते देखा है या पढ़ा हो कभी? जबकि साउथ-ईस्ट इंडिया में जाओ हजारों में मिलती हैं| - क्यों? क्योंकि वहां के लोग अपनी औरतों को औरत की बजाए देवी कहलवाने में बोर मानने लगे| और देवी से देवदासी बनाना पंडों का देवी के आगे का टारगेट होता ही है|
ये जो थारे खंडकों और डोगे वाले चौधरी थे ना, फद्दू नहीं थे वो| इन फंडियों को खोद पे रखते थे क्योंकि इनकी औकात जानते थे| जानते थे कि इनके दिमाग में कोई धर्म नहीं, वीर्य व् वासना रहती है| सम्भल जाओ वक्त रहते| कुछ नहीं धरा अपनी औरतों को देवी बनाने में, यह कौर कही हैं हमारे पुरखों ने; इनको कौर ही रख लोग तो बड़ी शाबाशी मानना| हांडो बंधुआ मजदूर बने फंडियों के; और गाम वालों से भी दो चंदे अगा के शहरी पढ़े-लिखे मूर्ख हांडै सैं|
इनका रत्ती भर भी धर्म व् मानवता से कोई लाग्गा-देग्गा होता तो सिखों व् मुस्लिमों के गुरुद्वारों व् मस्जिदों की तरह किसानों के धरना स्थलों पर लंगर चल रहे होते इनकी तरफ से| यह प्रैक्टिकल सच्चाई देख के ही ठिठक जाओ|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

खुद आतंकवाद की जड़ अलगाववाद पालते हो और खुद ही अलगाववादी व् आतंकवादियों से डरते हो; यार गज़ब घंटाल हो तुम!

अलगाववाद व् अलगाववादी से नफरत करते हो ना?

अलगाववाद को ही आतंकवाद की जड़ मानते हो ना?
आओ तुम्हें धर्म का चोला ओढ़ तुम्हारे ही बीच घुसे हुए सबसे बड़े व् भयंकर अलगाववादी से मिलवाऊं:
उस अलगाववादी का नाम है फंडी| वह फंडी जो धर्म के नाम पर चार वर्ण बना के खुद को सबसे उच्च प्रचारित कर, खुद को तुम से अलग दिखाता है| वो कितना ईमानदार है, खुद ही बोल देता है सुसरे नीचो ; मैं तुमसे अलग हूँ| मेरे से बराबरी की सोचना भी मत|
और तुम उस खुद को ही तुमसे अलग बताने-चिल्लाने वाले को अपने बीच घुसाए रहते हो?
तो फिर अलगाववाद से क्यों डरते हो? समाज में कोई अन्य अलगाववादी बन जाता है तो उसके विरुद्ध नफरत-भय में क्यों चिंघाड़ते हो? कोई आतंकवादी बन जाता है तो क्यों बवाल काटते हो? जब डंके की चोट पर तुम्हारे बीच रहने वाले फंडी नामक अलगाववादियों से तुम्हें कोई दिक्क्त नहीं, परेशानी नहीं तो औरों से क्यों?
और अलगाववादी व् आतंकवादी से डरते हो तो निकाल बाहर करो इस वर्ण-कुल की श्रेष्ठता के नाम पर तुम्हारे बीच बैठे अलगाववादी को सबसे पहले| यानि जो धर्म-जाति-वर्ण-कुल के आधार पर खुद को तुमसे अलग दिखाए, सर्वश्रेष्ठ दिखाए; उसको ठेंगा दिखाओ, अपने बीच से उठाओ और चलता करो| ऐसा नहीं करना ही तुम्हारी गलती है, नासमझी है, जिस दिन यह ठीक कर ली; उस दिन ना समाज में 35 बनाम 1 रहने, ना इस बनाम उस रहने|

और नहीं तो कम से कम इनसे गुपचुप कन्नी काटना ही शुरू कर लो, सीख लो; इनको "Just avoid them" मोड में डाल छोड़ दो; परन्तु शुरू तो करो कहीं से|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 2 March 2021

क्या मुस्लिमों में भी खाप होती हैं?

हाँ, होती हैं:
1) कुशवाहा खाप, हेडक्वार्टर गाम जौला, जिला मुज़फ्फरनगर के प्रधान चौधरी गुलाम मुहम्मद जौला जी हैं| यह वही जौला जी हैं जिनको 28 जनवरी को राकेश टिकैत जी की कॉल हुई तो दूसरी तरफ चौधरी नरेश टिकैत ने 29 जनवरी की मुज़फ्फरनगर किसान महापंचायत के लिए इनको भी बुलावा भेजा व् चौधरी जौला साहब उस महापंचायत में पहुंचे भी| इस खाप की ख़ास बात यह है कि इसके अंतर्गत आने वाले 24 गांव में, 22 गाम हिन्दुओं के हैं|
2) लाडो-सराय, लाठ-महरौली खाप का थाम्बा है; जिसके थांबेदार चौधरी मुस्लिम हैं| लाठ-महरौली खाप के चौधरियों को लाट-साहब कहा जाता रहा है; वही लाट-साहब शब्द जो बॉलीवुड फिल्मों में 60 के दशक से ले 90 के दशक तक प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता आया है|
3) मेवात में तो जितनी भी खापें हैं, लगभग सब के चौधरी मुस्लिम हैं|
इधर सिखों में मिसलें जो हैं यह वही खाप हैं जो गुरु नानक देव जी ने जब सिख धर्म बनाया तो मिसल कहलाई| थोड़ा बहुत प्रारूप अलग कहा जा सकता है, परन्तु हैं दोनों एक दूसरे का समरूप ही|
इसलिए खाप किसी धर्म-जाति में बंधा हुआ कांसेप्ट नहीं है अपितु उत्तर-पश्चिमी भारत के उदारवादी जमींदारों का खालिस मानवता आधारित ऐसा सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम है जो समाज में सोशल सिक्योरिटी व् सोशल जस्टिस सुनिश्चित करता आया है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 1 March 2021

किसान आंदोलन को टैकल करने हेतु फंडी ला रहे हैं FPC नाम का पैंतरा, किसान सावधान!

फंडी प्रोपैगैंडा डिफ्यूज एजेंसी के हवाले से पता लगा है कि अबकी बार मंडियों की बजाए, फंडी, FPC (farmer produce company) को फसल खरीद हेतु मैदान में उतार रहे हैं; जो कि अल्टीमेटली आपसे खरीदे हुए अनाज को अडानी-अम्बानी के गोदामों में पहुंचाने का काम करेंगे, बिचौलियों की तरह| यह आपसे MSP से भी 100-200 रूपये ज्यादा के दाम पर अनाज उठाएंगी, फटाफट आपकी पेमेंट भी करवाएंगी| इससे होगा यह कि किसानों में से जो भी इनके झांसे में आएगा, उसको सरकार के नए कानून लाभकारी प्रतीत होंगे| वाह क्या प्रेशर है किसान आंदोलन का!

परन्तु सावधान, यह "नई बोतल में पुरानी शराब" वाली कहावत जैसी बात होगी; यानि सरकारी मंडियों को खत्म करने हेतु अडानी-अम्बानी सीधे-सीधे मार्किट में ना आ कर, इन FPCs वालों के जरिये साल-दो-साल लगा के MSP से ऊँचे रेट पर खरीदवा के सरकारी मंडियां खत्म करेंगे; बिल्कुल JIO फ़ोन की तरह, शुरू में फ्री में दिया और फिर जब मार्किट कैप्चर हो गई तो आज कितना पे करते हो सब जानते ही हो|
और इसीलिए छोटे कस्बों स्तर की मंडियां उठाई जा रही हैं, तो किसान इनको वापिस लगवाने बारे सरकार पर प्रेशर बनावें अभी से| ताकि जब सीजन पे फसल आवे तो यह मंडियां उपलब्ध मिलें व् किसान इनकी अनुपलब्धता के चलते कहीं FPC वालों के ही हत्थे ना चढ़ जावें|
यह FPC वही हैं जो लोग 2011-12 से बना के छोड़ देते आ रहे हैं, जिनमें 95% आज तक धेले का बिज़नेस नहीं कर पाई अर्थात फ़ैल-सुसुप्त पड़ी हुई थी| अब अडानी-अम्बानी की नैया पार लगाने को फंडियों की सरकार ने यह बाईपास का रास्ता निकाला है| यह FPC वाले वही ग्रुप्स हैं, जिनके 50-60 मालिकों को सरकार ने दिसंबर महीने में हरयाणा के किसान बता के बिलों के समर्थन में बताया था, टीवियों पे कृषि मंत्री को बिलों पे समर्थन देते दिखाया था| FPC अच्छी चीज हो सकती हैं परन्तु इस बार यह गलत उद्देश्य साधने हेतु सरकार द्वारा इस बिचौलिया किरदार में उतारी जा रही हैं|
वैसे तो किसान स्वत: ही बहुत जागरूक हो रखा है और जो किसान खड़ी फसल को जलाने या खड़ी फसल में आग लगाने तक को तैयार है; वह MSP पर मंडियों में ही बेचेगा या अपने घर रोक लेगा| फिर भी किसान और ज्यादा सतर्क रहे, उसके लिए यह जानकारी दी जा रही है|
सावधान: वैसे तो किसान नेताओं की इंटेलिजेंस इतनी मजबूत है आज के दिन कि उनको हाथों-हाथ यह खबर पहुँच चुकी होगी; फिर भी हर सम्भव किसान व् किसान नेता तक इसको पहुंचाने हेतु आपका धन्यवाद होवे| इससे किसान नेता और ज्यादा बेहतर स्ट्रेटेजी बनाने व् सुझाने में प्रसस्त होवेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 28 February 2021

क्या किसान को लस्सी भी 50 रूपये प्रति लीटर नहीं कर देनी चाहिए, यूँ फ्री में पिलाने की बजाए?

ये टैक्स-भरते हैं, टैक्स-भरते हैं चिल्लाने वालों को बता दो कि जितने का तुम टैक्स भरते हो (95% बड़े-बड़े टैक्स चोर भी तुम ही पाए जाते हो) साल में इतने की तो किसान लस्सी पीला देता है फ्री की, गन्ने चूसा देता है फ्री के; वह भी बिना जाति-वर्ण-धर्म देखे| गाम-कस्बों-शहरों के सरकारी स्कूलों के मास्टर-मास्टरनियों, पीएचसी, आंगनवाड़ी, पुलिस थानों से ले शहरों तक में पूछ लो और खुद में झांक लो मुकाबला करेंगे किसान का| मिनिमम वेज एक्ट व् MRP अपने हाथ में रख के तो टैक्स कोई भी भर दे, किसान की तरह MSP लो और फिर दिखाओ भर के टैक्स| बावजूद MSP पे फसल बेचने के पेट्रोल-डीजल से ले बाजार के तमाम उत्पाद व् सर्विसेज पे बराबर से टैक्स किसान भी देता है| तुम जरा एक महीने फ्री की मांगी लस्सी की बजाये खरीद के पी के देख लो, अंदाजा लग जाएगा किसान की इंसानियत व् जिंदादिली का|

किसानों से अपील: दूध ही 100 रूपये प्रति लीटर मत करो, लस्सी भी 50 रूपये प्रति लीटर कर दो| ये शहर तो शहर, गामों तक में किसान के प्रति जलन-अकड़-हेय-हीनता रखने वालों के दीद्दे बाहर आ जायेंगे, इतने मात्र ही प्रोफेशनलिज्म दिखाने से| लेकिन सिर्फ उनके लिए जो किसान के साथ नहीं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 25 February 2021

जब तक फंडी के साथ "फंडी बनाम नॉन-फंडी" नहीं करोगे, यह सेल्हे से राह नहीं देने के!

फंडी को सबसे ज्यादा घमंड है कि यह "इस बनाम उस" की लड़ाई-फूट कभी भी करवा सकता है| जब तक इसके साथ आप फंडी बनाम नॉन-फंडी नहीं करोगे, यह बाज नहीं आने वाला| यह तुम्हारी "जियो और जीने दो" की थ्योरी को "आगला शर्मांदा भीतर बड़ गया, बेशर्म जाने मेरे से डर गया" मान के तुम्हें कायर मानते रहेंगे और समाज को यूँ ही "सिंगा माट्टी उठाये" फिरेंगे|

कोई ओबीसी या दलित ऐसा नहीं जिसका किसान के साथ फंडी से कहीं कई गुणा ज्यादा व्यवहारिक-इंसानियत-समानता-रोजगारी का रिश्ता नहीं| तो फिर ऐसा क्या है कि फंडी वर्णवाद नाम की दुनिया की सबसे जहरीली अलगाववाद, मानसिक आतंकवाद व् नश्लवाद की थ्योरी पर सवार हो कर इन्हीं ओबीसी व् दलित को शूद्र, छूत-अछूत बता कर इनकी नीचतम दर्जे की हंसी उड़ाता है और फिर भी किसान को इनसे अलग करने में कामयाब हो जाता है?
इसकी सबसे बड़ी वजह है किसान की "जियो और जीने दो" की नीति का मानवता पर समरूप से लागू करना| बस इसमें इतना सुधार करना होगा कि तुम फंडी के साथ फंडी बनाम नॉन-फंडी कर सको| इनको ही समाज के अछूत जिस दिन बना दोगे, शूद्र जिस दिन बना दोगे; तो जंग जीती मानियो| और यह सम्भव भी है, तुम्हारे पुरखों ने किया है; बस उनका इतिहास पढ़ लो, उनके सिद्धांत समझ लो|
और उन्होंने तो इस स्तर तक का किया है कि इन तथाकथित स्वघोषित उच्च वर्गों की औरतें तुम्हारे पुरखों के यहाँ रसोई के रोटी-टूका-बर्तन-भांडे के काम करके जाती रही हैं| हालाँकि ऐसा काम आधुनिक भाषा वाली "MAID" भी करती हैं और करना बुरा भी नहीं| परन्तु इन हद से मुंह-ऊँचे घमंडियों को चिढ़ाने व् इनका पिछोका जताये रखने को ऐसी बातें शीर्ष पर रखना बेहद जरूरी है; तभी यह बेशर्म औकात में आ बगलें झाँकने लायक होते हैं| पहचानों अपने पुरखों की थ्योरियों की शक्तियों को|
हद है इनके उघाड़ेपन की, 85 दिन होने को आये, 90% इन्हीं के धर्म का किसान दिल्ली धरनों पर बैठा है और इनके कानों जूं नहीं रेंग रही? च्योड़-च्योड़ रिफळ-रिफळ ये झाड़ उगा लिए छातियों पे, कदे भाईचारे के ओहडे तो कदे फलानि-धकडी भक्ति के ओहडे; उखाड़ने होंगे ये वक्त रहते|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 24 February 2021

चाचा सरदार अजीत सिंह जी की सोच-आंदोलन-क्रांति की ऊंचाई व् गूँज!

चाचा सरदार अजीत सिंह जी बारे बचपन से जानते पढ़ते आए, वह व् सरदार करतार सिंह सराभा, शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह की प्रेरणा थे यह भी जानते-बताते आये| परन्तु वह कितने बड़े हुतात्मा थे, उनके किसानी योगदान का, उनकी सोच का कद कितना व्यापक था; इसका आभास इस किसान अंदोलन ने ही करवाया|


अब से पहले 20वीं सदी में किसान के उत्थान की शुरुवात सर छोटूराम से ही मानते थे परन्तु अब यह सरदार अजीत सिंह जी के 1907 के किसान आंदोलन के वक्त से पुख्ता हुआ करेगी| क्या-क्या इतिहास-विरासतें ना दे के जायेगा यह किसान आंदोलन| ताज्जुब है कि इस 1907 के इतने विश्वविख्यात किसान आंदोलन बारे कभी स्कूली किताबों में पढ़ने को नहीं मिला| इतना भयंकर आंदोलन और उनसे इतना भय कि अंग्रेजों ने उनको 38 साल के लिए देश-निकाला ही दे दिया था| जानबूझकर नहीं पढ़ाया गया क्या? हाँ, शायद इसीलिए; क्योंकि ऐसे इतिहास पढ़ाए जायेंगे तो कोप-कल्पित कथाओं को इतिहास के नाम पर कौन सुनेगा फिर?

फंडी ना पढ़ाए, परन्तु आप सुनिश्चित कर लीजिये यह लिगेसी यह किनशिप अपनी पीढ़ियों को पास करने की| शायद तथाकथित संघ-शाखाओं वाले जो जैसे राष्ट्रवाद का कॉपीराइट अपने नाम ही लिखवा बैठे हों; आशंका है कि उन तक की शाखाओं में यह किस्से पढ़ाए-बताए जाते हों| ना स्कूलों में ना शाखाओं तो फिर कैसे पास की जाए यह लिगेसी? अपनी बैठकें बनाईये, अपने निर्देशन की लाइब्रेरियां बनाईये; उनको सम्पूर्ण किसानी इतिहास की सच्ची व् वास्तविक लिगेसी व् किनशिप पास करने के सिस्टम बनाईये|

वैसे सरदार अजीत सिंह जी (23/02/1881 से 15/08/1947 तक) व् सर राय रिछपाल उर्फ़ सर छोटूराम (24/11/1881 से 09/01/1945 तक) एक ही साल में जन्मे थे; दोनों की मृत्यु भी आज़ादी से ऐन पहले हो गई और दोनों को ही अंग्रेजों ने देश निकाला दिया था| चाचा अजित सिंह को 38 साल विदेश में ईरान रहना पड़ा जबकि सर छोटूराम का देश निकाला जनता के दबाव में वापिस लेना पड़ा था| सोचिये अगर यह दोनों आज़ादी के बाद 2 - 4 साल और जिन्दा रह जाते तो किसानी के लिए और क्या-क्या ना कर जाते| यही इन पुरखों से मेल खाते जूनून की निरन्तरता चाहिए होगी हमारे आज के किसान अग्गुओं में; तभी टस-से-मस होंगे ये फंडी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Tuesday, 23 February 2021

जमींदारी परिवेश के शहरों में बसे लोगों को कृषि बिलों के नुकसान!

सुनने में आ रहा है कि यह लोग इन बिलों को किसी नए business model अथवा proposal अथवा opportunity की तरह ज्यादा ले रहे हैं, व् कुछ तो इनको ले कर अति-उत्साहित हैं, ज्यादा ही आशान्वित हैं| इनको लगता है कि गाम में किसी को ठेके-हिस्से-बाधे पे जमीन देने की बजाए, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पे बड़े मुनाफे पे, बड़ी कॉन्ट्रैक्ट अमाउंट पे कॉर्पोरेट वालों को देंगे व् शहर में बैठे-बैठे ज्यादा मुनाफा कमाएंगे, "हींग-लगे न फिटकरी, रंग चोखे का चोखा स्टाइल" में बिजनेसमैन बनेंगे|
अगर ऐसा सोचे हुए हैं, वह भी इन बिलों को ना ढंग से पढ़े-समझे तो समझिये गाम वालों से पहले आप लोगों की जमीनें सबसे पहले कुर्क होने तक पहुंचेंगी| वजह बिलों में है वह पढ़ लीजियेगा| फार्म बिल्स का कॉन्ट्रैक्ट क्लॉज़ कहता है कि
1) कॉन्ट्रैक्ट करने वाली कंपनी आपकी जमीन के कागजों पर भारी लोन्स ले सकेंगी|
2) अगर लोन नहीं चुका पाई कंपनी तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा बल्कि उस लोन की वसूली आपकी जमीनों की कुर्की से की जा सकेगी| और ताज्जुब मत मानियेगा, जब आपसे कॉन्ट्रैक्ट करने वाली कंपनी ही आपकी जमीन की कुर्की की बोली में भी शामिल मिलेगी तो| यानि उसी ने आपको उस हालत तक पहुँचाया होगा व् वही आपकी जमीन कुर्की के जरिये खरीद भी जाएगी| तब उसको खरीदने के लिए उसके पास पैसा होगा परन्तु आपकी जमीन पे लिए लोन को चुकाने को नहीं होगा|
3) SDM कोर्ट से आगे आप अपील भी नहीं कर सकेंगे|
मेरे कहे से नहीं समझ आती तो आज ही 3 कृषि बिलों की कॉपी मँगवाइए, इंग्लिश में समझ आती हो तो इंग्लिश में; अन्यथा हिंदी में| यह भी मत सोचना कि आप सयानी बुद्धि दिखाते हुए किसी कंपनी से इन तीन बातों को हटवा के कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लोगे| नहीं होगा, क्योंकि कानून बन चुकी यह बातें अब|
और वैसे भी गाम वालों से ज्यादा कॉर्पोरेट के लिए शहरों में बैठे आप लोग ही सरल-सुगम व् पहला निशाना होंगे| देखियो कदे अब अपने गाम के भाई-भतीजों-अडोसी-पड़ोसियों को जमीनें हिस्से-बाधे पे दे जो मुनाफा कमा लेते हो शहरों में रह कर ही; उससे भी सदा के लिए जाते रहो|
अत: इनको समझो और ग्रामीण किसानों के साथ आवाज उठाओ| वरना आने वाली पीढ़िया गाम वालों को आपसे ज्यादा समझदार आँका करेंगी| और आप कहलाओगे शहरों में बैठी एक ऐसी जमात जो अन्य शहरियों के लिए एक कंस्यूमर मार्किट से ज्यादा कुछ नहीं (होती तो यूँ फरवरी 2016 वाला 35 बनाम 1 होता क्या आप पे?) और गाम-खेड़ों से तो खुद ही छिंटके बैठे हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक