दो तीन दिन पहले मैं गांव गया तो, ताऊ जी ने, हरफूल जाट जुलानी वाले का एक किस्सा सुनाया, जो सामाजिक भाई- चारे की अदभुत मिसाल है।
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Saturday, 13 May 2023
हरफूल जाट जुलानी वाले का एक किस्सा, जो सामाजिक भाई- चारे की अदभुत मिसाल है:
Thursday, 11 May 2023
पहलवान सुशील कुमार व् पहलवान नर सिंह यादव मसले पर एक खाप-पंचायत बुलाई जानी चाहिए!
क्योंकि कोर्ट तो इस देश में सिर्फ फैसले सुनाते हैं, वह न्याय नहीं करते व् ना न्याय के बाद दोनों पक्षों के आपस में दिल-साफ़ करके उनको गले लगवाते| जबकि खाप-पंचायत की परम्परा ही यह है कि वह न्याय करके, दोनों पक्षों को गले भी लगवाती है|
होनी चाहिए, एक पंचायत इस मसले पर ताकि घिनौनी राजनीती द्वारा इस मसले के चलते जाट व् यादव समुदायों में डाली खाई पाटी जा सके|
दोनों तरफ के 'रियो ओलिंपिक घटना' के पूरे सबूत दोनों साइड्स ले के आवें व् पंचायत बैठ के दोनों को देखे| मेरा मानना है कि दोनों एक-दूसरे के प्रति साफ़ निकलेंगे व् दोषी मिलेगा बृजभूषण जैसा कोई षड्यंत्रकारी| क्योंकि वाडा की ड्रग्स वाली रिपोर्ट में यह साफ़ निकल के आया हुआ है कि नर सिंह "डोपिंग टेस्ट" में "खाने में मिला के दी गई" दवाई के चलते फ़ैल नहीं हुआ अपितु इंजेक्शंस से लम्बे वक्त तक ली जाने वाली ड्रग के चलते फ़ैल हुआ|
यह करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि दोनों कम्युनिटी एक ही कल्चर-किनशिप से निकलती हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Thursday, 4 May 2023
बेबे गीता-बबीता के नाम संदेश!
आएं बेबे गीता, बागेश्वर धाम सरकार की पोस्ट में बस इतना-ए-जादू था ए, अक तू म्हारी लाडो अपने फील्ड यानि कुश्ती स्पोर्ट्स की शंकराचार्य अर तू आज जंतरमंतर पर भी ना जाण दी; बावजूद तू खुद एक पुलिस अधिकारी होने के, ए?
आएं बेबे बबीता, आएं तेरै वैं तब्लीगी-जमात आळयां नैं कोसदी होई की पोस्ट भी कीमें काम ना कर री ए आपणी पहलवान बाहण-भाई-बैणोंईयां ताहिं न्याय दुवाण म्ह ए बेबे? जिंदगी का सिद्धांत तो थम (हरयाणवी में 'थम' सिंगल 'तू' व् सिंगल के लिए आदर स्वरूप 'आप' दोनों के लिए प्रयोग होता है; आड़े 'आप' आळा थम सै बेबे) उसे दिन भटक गई थी बेबे, जय्ब "दंगल" बरगी मूवी बणा थमनें वर्ल्ड-फेमस करणीए की जमात बाबत उल्ट-सुलट लिखी|
पर गलती आपणे समाज की भी सै उरै; जो हर पहलवान को अपनी "खाप-खेड़े-खेत की किनशिप" ट्रांसफर करने का कोई रिवाज ना बना राख्या; नहीं तो थम भी कित इन सर छोटूराम की टर्म आळे फंडियां के हाथां न्यू खिलौना बनती ए!
याहे कहाणी आदरणीय गवर्नर सत्यपाल मलिक जी गेल बनी; बावजूद इन फंडियों को अपनी जिंदगी के 25 साल देने के| पर मलिक साहब तो इब उस राह पै आ लिए सें अक सुणां सां के इहसा काम बांधण लाग रे सें अक फंडी रोवेंगे उनका अपमान करण के पल नैं| अर खाप-खेड़े-खेत का सर्वसमाज उनकी गेल सै; अर गेल तो थारै भी सां बेबे|
हालाँकि ये हैके टळ सकें थे या थम इन्नें ज्वाइन ना करदी तो होंदे ए ना; पर फेर भी थारे पै इस ऊपर लिखे मलाल की गेल गर्व घणा से बेबे| गर्व न्यू सै अक थम बख्त रहते इन्नें समझ गई सो; अर जंतर-मंतर पर धरणा देणे आळे आपणे पहलवानां गेल गीता बेबे थम तो घाट-तैं-घाट लीक्ड कैं चाली| बबीता भी देखो वारी-सवेरी लिकड़ आवै तो इनमें तैं|
बाकी बेबे, म्हारे बरगयां कै दर्द तो भोत सै, पर हम भी लाग रे सां काम पै; इन सारी समस्याओं की जड़ म्हारी किनशिप नैं खड्या करने पै|
जुग-जुग जियो म्हारी भाण!
जय यौधेय! - फूल मलिक
Tuesday, 2 May 2023
जंतर-मंतर पर पहलवान बनाम बृजभूषण जो धरना है; इसका आइडियोलॉजीकल, फिलोसॉफीकल अंतर क्या है?
1 - यह सामंती वर्णवाद बनाम उदारवादी खापवाद की लड़ाई है|
2 - यह स्वर्ण-शूद्र बनाम सीरी-साझी कल्चर की लड़ाई है|
3 - यह अधिनायकवाद बनाम लोकतान्त्रिक-गणतांत्रिक खेड़ावाद है|
4 - यह अनैतिक पूंजीवाद बनाम नैतिक पूंजीवाद है|
5 - यह orthodox बनाम protestant मसला है|
6 - यह मूर्तिपूजक बनाम निराकार पुरखपूजक लड़ाई है|
7 - यह बहमवाद बनाम यथार्थवाद लड़ाई है|
निचोड़ यह है कि यह जितने भी "खाप-खेड़ा-खेत" थ्योरी से आने वाले लोग, इन सामंतियों वर्णवादियों के कल्चरल-स्पिरिचुअल स्तर पर भी गलबहियां हुए पड़े हैं; यह अपना इंटेल्लेक्ट ही नहीं पहचानते| प्रोफेशनल-पावर पोलिटिकल फ्रंट पे इनसे मिलके काम करना, अलायन्स करना समझ आता है; परन्तु जब तक अपने कल्चरल-स्पिरिचुअल फ्रंट को समझ के इसपे अपना स्वछंद स्टैंड नहीं रखेंगे; यूँ ही इनके जवान-किसान-पहलवान-मजदूर-कर्मचारी-व्यापारी सब परेशान रहेगा|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Friday, 28 April 2023
विनेश फोगाट और साक्षी मलिक; सत्रहवीं सदी की खाप यौधेया दादीराणी समाकौर मलिक का प्रतिरूप बन गई हैं!
आज से 403 साल पहले; सन 1620, डबरपुर गाम, सोनीपत (उस वक्त गठवाळा खाप की चौधर इसी गाम में थी) की बेटी दादीराणी समाकौर के आह्वान पर मलिक खाप ने सर्वखाप बुलाई व् फैसला हुआ कि सर्वखाप कलानौर रियासत तोड़ेगी| गढ़ी-टेकणा-मुरादपुर में सर्वखाप ने गढ़ी यानि अंडरग्राउंड-फौजी-बैरक बनाई (खापलैंड में जितने भी गामों के नाम में गढ़ी लगा हुआ है; यह सब सर्वखाप की किसी न किसी लड़ाई के कैंप होने की वजह से गढ़ी कहलाये हैं) वहां से कलानौर का घेरा डाला व् अपनी बेटी के सम्मान व् आवाज पर कलानौर रियासत तोड़ दी गई|
साक्षी और विनेश की भांति ही दादीराणी समाकौर भी उस रियासत के जुल्मों की पीड़ित नहीं थी बल्कि अन्य समाजों पर वहां हो रहे जुल्मों को देख व् उसकी आंच जब उस तक पहुँचने का उसको पता चला तो उसने ऐसी आवाज उठाई कि तमाम खापें ऊठ खड़ी हुई और कर दिया कलानौर का ऊट-मटीला|
विनेश व् साक्षी आज उसी रूप में नजर आती हैं व् सर्वखाप के चौधरी भी अपनी बेटियों के साथ अड़-खड़े हुए हैं| यह मामला अब एक नाजीर बनेगा जो ना सिर्फ कुश्ती संघ में अपितु तमाम स्पोर्ट्स से ले कॉर्पोरेट जगत तक में होने वाले यौन-शोषणों के लिए बेटियों-बहनों को लम्बे वक्तों तक प्रेरणा व् हौंसला देने वाला किस्सा बनेगा|
और यहाँ कुछ गधे के बच्चे, बृजभूषण शरण द्वारा बेटियों के शोषण का "सामंती क्षत्रियों वाले ऐटिटूड वाला गंवार-गान" करने में लगे हैं| बेहूदा पोस्ट्स निकाल रहे हैं कि देखो एक क्षत्री ने 1000 फलाणियों का ये किया वो किया: मतलब क्या जंगलीपन है कि इस बात की बड़ाई गा रहे हैं; दिमाग में वासना भरे यह लोग और इन्हीं को क्षत्रिय कहा गया है| देखना कल को इसी पे इन क्षत्रियों को बार-बार धरती खाली करने के दावे करने वाला स्वघोषित ग्रुप इनको इसपे अध्याय भी लिख के देगा कि देखो तुमने फलानों की बहु-बेटियों का शोषण किया; इसलिए तुम वीर क्षत्रिय हुए कि नहीं? इसीलिए मैं इन जाटों समेत तमाम खाप-खेड़े-खेतों के पिछोके वालों को बार-बार बोलता हूँ कि नहीं हो तुम क्षत्रिय; ना सोच से, ना कर्म से ना जीन्स से| तुम प्रोटोस्टेंट स्वभाव के लोकतान्त्रिक लोग हो, उसको समझो व् जैसे थारे पुरखे अवर्ण रहे; वैसे अवर्ण रहो|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Thursday, 27 April 2023
अपने intellect heritage के ही विरुद्ध, भावनावश या अल्पज्ञानवश ही सही जा कर व् उनके व् अपने बीच कोई बाड़ निर्धारित ना करके:
अपने intellect heritage के ही विरुद्ध, भावनावश या अल्पज्ञानवश ही सही जा कर व् उनके व् अपने बीच कोई बाड़ निर्धारित ना करके; जब किसी सामंती स्वर्ण-शूद्र वर्णी व्यवस्था को पोषित करोगे या उसमें फिट होने की कोशिश करोगे तो कहीं-ना-कहीं जा के तो टकराव होगा ही, 'पहलवानों का धरना इसका ताजा उदाहरण है":
विशेष: यह पोस्ट उसी को समझ आएगी जो "genetical ideological and psychological intellectaul heritage" जैसे कॉन्सेप्ट्स समझता/ती होगी| ऊपरी तौर पर इसका मंतव्य है कि कोई भी समाज अनुवांशिक तौर पर किस मनौविज्ञान व् विचारधारा के आधार पर खड़ा है| यह क्या, कितनी प्रकार की होती हैं का अध्याय खोलने की बजाए, ऐसे एक-दो और उदाहरण देते हुए सीधा विषय पर आता हूँ| एक-दो और उदाहरण हैं सत्यपाल मलिक जी ने जो पुलवामा व् भ्र्ष्टाचार खोला ((खोला पहले भी था, परन्तु रिटायरमेंट के बाद सिक्योरिटी छीनने से आंतरिक तौर पर जब अपमान मिला तो intellect heritage ज्यादा जागृत हुआ व् अति-मुखर हो गए), 13 महीने जो किसान आंदोलन हुआ| इन सब में एक बात कॉमन है; तीनों में ही खाप भी थी और हैं व् जो भूमि इनका उद्गमबिंदु रही वह है मिसललैंड (पहले खापें ही थी, सिख धर्म बनने के बाद मिसल कहलाई) व् खापलैंड| और कई तो जलते-बलते-चिढ़ते यह भी कह देते हैं कि इनमें भी बस एक जाति-विशेष वालों को ही चूल रहती है|
आगे बढ़ने से पहले सलंगित चार्ट को पढ़ें, तो आगे की पोस्ट ज्यादा सलरता से समझ आएगी|
दरअसल, जैसे "ट्रेडिशनल-व्यापारियों" व् "मोहन-भागवत जी की परिभाषा वाले पंडितों" का एक मूक समझौता रहता है जिसके तहत व्यापारी धर्म के नाम पर पंडित के लिए धर्मस्थल इत्यादि बनाता है; पंडित इसको जैसे प्रचारित-प्रसारित करे; व्यापारी करने देता है| व् बदले में व्यापारी को पंडित से मिलता है धर्मस्थलों के जरिए व्यापार, मनोवैज्ञानिक रूप से व्यापारी की दुकानों की तरफ मोड़ दिया गया क्षत्रिय व् शूद्र वर्ण का ग्राहक व् इन दोनों से भी सबसे जरूरी चीज जो अगर पंडित ना करे तो ट्रेडिशनल-व्यापारी व् पंडित का समझौता एक दिन में टूट जाए| और वह है व्यापारी की सोशल आइडेंटिटी, रेपुटेशन व् सिक्योरिटी की गारंटी| और यही वजह है कि आपने ट्रेडिशनल-व्यापारी समाज के "सामाजिक पहलुओं व् जीवन-शैली की खामियों" पर कभी भी प्रिंट से ले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कभी ऐसी "मीडिया-ट्रायल्स" होती नहीं देखी होंगी जैसी 2000 व् 2010 के दशकों में "खाप", "जाट" व् "हरयाणवी" शब्दों की हुई| व्यापारी व् पंडित आपस में इस तालमेल से चलते हैं जो कि बहुत अच्छी बात है और कोई दो समाज आपस में इतना तालमेल से चलते हैं तो यह अनुसरणीय भी है| परन्तु इस दर्शनशास्त्र का अंत रिजल्ट निकलता है "सामंतवाद", जो कि बाकी दो वर्णों क्षत्रिय व् शूद्र को दबा के रखता है| आप कहोगे कि शूद्र की तो समझ है कैसे दबाता है परन्तु क्षत्रिय को भी? जी, क्षत्रिय को भी, क्योंकि पंडित की मर्जी व् निर्देश के बिना क्षत्रिय एक शब्द नहीं बोल सकता पब्लिक में व् ना ही वह कोई विरोध कर सकता; भले; क्षत्रिय के घरों के आगे से क्षत्रियों को बार-बार मारने वाले क्षत्रियों के पुरखों के कातिल की झांकियां ही क्यों ना निकाले| हालाँकि क्षत्रिय को, अपना यह फ़्रस्टेशन शूद्रों पर निकालने का अधिकार पूरा है| तो यह तो है इनकी सामंती व्यवस्था|
अब बात करते हैं इसके विपरीत एक "उदारवादी" व्यवस्था की, जो दबंग पर दबंग है परन्तु मानवता को सर्वोपरि रखती है| "दबंग पर दबंग" जैसे कि तीन काले कृषि कानून लाने वाले "दबंगों पर दबंग", सत्यपाल मलिक जी ने जो दबंगों का पुलवामा खोला वह "दबंगों पर दबंग" या अभी जो पहलवान धरना दे रहे हैं "दबंगों पर दबंग"| और इनमें से जो ऊपरी पहरे में बताई "सामंती व्यवस्था" में पड़ गया वह "क्षत्रिय की शूद्र" पर होने वाली अमानवीय दबंगई करता इनमें भी पाया जाता है|
सलंगित चार्ट पढ़ा होगा तो पाया होगा कि "ट्रेडिशनल व्यापारी + पंडित" जैसा समझौता "खाप-खेड़ा-खेत" वालों का भी हुआ था व् वह कब तक चला, कैसे टूटना शुरू किया गया व् कब-कैसे टूटा आपने चार्ट में पढ़ ही लिया होगा|
तो बस यह जो आजकल एक क्षेत्र विशेष, एक थ्योरी विशेष की तरफ से जो यह इतने धरना-प्रदर्शन-पटाक्षेप-आवाजें उठ रही हैं इन सबकी की मूल में यही "उदारवादी पुरख इंटेल्लेक्ट" है; जिसको समझ के जब तक साफ़-साफ़ दायरा नहीं समझा जाएगा; यह जद्दोजहद चलेगी ही चलेगी| और इसका सबसे बड़ा दोषी खुद "उदारवादी खाप-खेड़े-खेतों का समाज" है; वह या तो इनसे बैठकर अपने "पुरख इंटेल्लेक्ट" की "सामाजिक सुरक्षा, सम्मान व् पहचान" को फिर से सुनिश्चित व् दृढ़ करे; अन्यथा हल नहीं मिलेंगे; बल्कि ऐसे ही समाज का कोई न कोई तबका रोड़ों पर निकलता ही रहेगा| क्योंकि दबेंगे ये नहीं व् दबाने वाले दबाने से बाज आएंगे नहीं|
और आज जिस हालत में समाज का "पहलवान वर्ग" आ चुका है, यह इसीलिए हुआ है कि सामंती चीजों को बेइंतहा छूट देते गए व् अब जा के घुटन महसूस होने लगी है; (घुटन तो उनको भी है जो सामंती हैं, परन्तु वो तो इस मॉडल में फिट हैं, बोलेंगे ही नहीं या "विशेष-जाति" की मूढ़मति वाली पट्टी पकड़ के "बिल्ली की तरह, आँख मूँद लेंगे)| यहाँ पहलवान वर्ग को भी अपना यह intellect-heritage पढ़ाये जाने की जरूरत है व् समाज को भी इसको रिवाइज करने की जरूरत है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Tuesday, 25 April 2023
कराला 17 का इतिहास – दिल्ली का प्रजातांत्रिक अध्याय- जिसका कही जिक्र नहीं।
मेरे गाँव मुंडका पश्चिमी दिल्ली मे है। दिल्ली के भूतपूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ( लाकड़ा ) इसी गाँव से है। हमारी लोक बातों मे प्रजातन्त्र का जिक्र है पर राजाओ का कही नहीं है। न अकबर का, न जहांगीर या शाहजहां का, न उनसे पहले कभी किसी हिन्दू राजा का । बस औरंगजेब का जिक्र ज़रूर आता है कि हमने उनके खिलाफ कई विद्रोह किए और बहुत खूनी युद्ध लड़े थे। बचपन मे एनसीईआरटी की किताब मे भी पढ़ा था कि दिल्ली की जाटो ने औरंजेब के खिलाफ कई विद्रोह किए थे। (मेरे ख्याल से सभी जातिया होती थी शामिल क्योंकि खाप व्यवस्था किसी एक जाति की हो ही नहीं सकती , जैसे गुज्जर तो हमेशा साथ रहे हैं, पर इतिहासकार सिर्फ एक ही जाति लिख देते हैं।)
हमारी खाप का नाम है पालम 360 जिसमे आज के दिल्ली के 350 और हरयाणा के कुछ तपे जैसे दलाल (84) और कुछ और आते है। उस समय जब औरंजेब से युद्ध होता था तो खाप सेना जो कि वॉलंटियर से बनती थी उसके द्वारा लड़े युद्धो के बारे मे अक्सर बड़ो से सुनते थे कि फरसे खून मे संधे आते थे। पालम 360 मे अनेकों तपे आते है – जैसे तिहाड 28, बवाना -52, महरौली 96, शाहदरा घोंडा -24, मान 8, राणा 8 , महिपालपुर 12, सुरहेडा 18, अलीपुर 17, कादीपुर 12 एवं अन्य ।
हमसे लगान ज़रूर लेते थे, पर हमारे गांवो के अंदरूनी मामले मे किसी बादशाह की हिम्मत नहीं थी कि हस्तक्षेप करे। औरन्गजेब ने कि और वह असफल रहा – दिल्ली के सभी गाँव हिन्दू रहे। पहाड़ी धीरज गाँव जिसकी जमीन पर लाल किला बना हुआ है, वह भी हिन्दू है। हिन्दू से मेरा मतलब हिन्दुत्व वाले नहीं- प्रजातांत्रिक हिन्दू एक अलग कैटेगरी है जो कि आरएसएस वाले हिन्दुओ से अलग है।
अब आते है कराला 17 के इतिहास पर :
पश्चिमी दिल्ली मे यह एक 17 गांवो की confederation है। कराला गाँव को इसका headship यानि चौधर है। किसी वक्त पर इन 17 गांवो की headship सैयद नांगलोई गाँव को सौप रखी थी। यह गाँव अफगानों का था। अफगानों का मुगलो से 36 का आंकड़ा रहा था। अफगान हथियार बनाने और रखने का काम करते थे। जब भी कोई मुगलो से लड़ाई की चुनौती आती तो यह गाँव हथियार सप्लाइ करता तपे या खाप की सेना को। इसलिए सम्मान के रूप मे इस गाँव को चौधर सौप राखी थी। सैयद नांगलोई गाँव भी बड़ी बेहतरीन तरीके से संचालन का काम कर्ता। पंचायत मे हुक्के पानी और खाने का पूरा इंतजाम करता। 17 गांवो मे चिट्ठी बांटना दुरुस्त करता। पर समय के साथ सैयद गाँव थक गया और आए पंचायत करके मुंडका को headship यानि चौधर सौप दी गयी। काफी समय , शायद एक दो शताब्दी तक यह चौधर मुंडका गाँव के पास रही।
पर एक समय एक दिक्कत आई। डबास गोत्र के दिल्ली मे काफी गाँव है जो पुराने समय मे दहिया खाप के अंतर्गत आते थी। मुंडका के पास डबासो के कई गाँव है। डबास मुंडका के जंगलो मे अतिक्रमण करने लगे । उस समय जंगल गौचर और फॉरेस्ट प्रोड्यूस और अन्य कामो मे बहुत आवश्यक था। ऐसे मे मुंडका गाँव के समर्थन मे कराला गाँव तुरंत मदद करने पहुंचा और इस तरह मुंडका गाँव के जंगल अतिक्रमण से बच पाये।
समय पर मदद करने का एहसान चुकाने के लिए मुंडका गाँव ने मुंडका-17 की चौधराहट कराला गाँव को एक पंचायत करके सौंप दी। कराला गाँव ने यह ज़िम्मेदारी सह सम्मान ली। इस तरह मुंडका -17 से कराला -17 नामकरण हुआ।
इन 17 गांवो कि लिस्ट मे कुछ गाँव इस प्रकार है – मुंडका, नांगलोई, निलोठी, रनहोला, पीरा गढ़ी, मंगोल पुर, सुल्तानपुर, पुंठ कलाँ, किराडी, इत्यादि । By: Diwan Singh Mundka
Friday, 21 April 2023
अगस्त 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप से अंग्रेजों की विदाई और सितम्बर से लगभग 1.5 करोड़ लोगों की बर्बादी की शुरूआत!
हर साल की तरह इस बार भी 14 व 15 अगस्त को भारत व पाकिस्तान में अंग्रेजों से मुक्ति का जश्न बड़ी धूमधाम से मनाया गया | इस खुशी के साथ ही उस समय के लगभग 1.5 करोड़ लोगों ( जिनके बारे में आंकड़ों और कारणों का मैं इस लेख में विस्तार से वर्णन कर रहा हूं ) की बर्बादी की दास्तान जुड़ी हुई है | अगर वर्तमान की जनसंख्या के हिसाब से अनुमान लगाया जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग 6 करोड लोगों के परिवारों से ये बर्बादी की यादें जुड़ी हुई हैं | इस बारे में उसी समय एक लेख लिखने का विचार आया था लेकिन फिर मन में आया कि इस खुशी के मौके पर निराशाजनक यादों को याद दिलाना ठीक नहीं है| इसलिए तय किया कि या तो सितम्बर के प्रथम सप्ताह या फिर सितंबर के दूसरे सप्ताह में इस पर लेख लिखूंगा | इसलिए आज 12 सितंबर को मैं प्रवीन कुमार, तहसील बादली,जिला झज्जर ये लेख लिख रहा हूं जो संभवत: कल तक पूरा कर लूंगा |
आज "ईद-उल-फितर" के मौके पर आईए जानते हैं कि वेस्टर्न यूपी के मुस्लिम भारत-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त पाकिस्तान ना जा के यहीं क्यों रह गए थे!
एक लाइन का जवाब है: सर्वखाप पंचायत के चौधरियों की वजह से| एक चींटी तक नहीं फटकने दी थी सर्वखाप ने इस हिंसा-हेय के नाम पर खापलैंड में, वेस्टर्न यूप में तो खासतौर से|
आप जब खाप-पंचायतों का इतिहास पढ़ते हैं तो आपको 1947 में "कांधला सर्वखाप पंचायत" का चैप्टर मिलता है| हुआ यह था कि उस वक्त जब हिन्दू-मुस्लिम मारकाट चल रही थी व् दक्षिण से ले मध्योत्तर भारत से मुस्लिमों को पाकिस्तान जाने का रास्ता अधिकतर पंजाब बॉर्डर से था जहाँ से दोनों तरफ से धर्म-आधारित जनसंख्या के पलायन हो रहे थे व् देश के नए बॉर्डर की तरफ कई जगह भारी दंगे भड़क गए थे| और क्योंकि खाप-पंचायतें, हमेशा मानवता पर नश्लीय हेय व् हिंसक अति होने के विरुद्ध रही हैं; क्योंकि यह बसासत में गणतांत्रिक हैं व् न्याय यानि सोशल-सिक्योरिटी देने में लोकतान्त्रिक तो जब खाप चौधरियों ने यह देखा तो तुरंत "कांधला" में सर्वखाप पंचायत बुलाई गई और ऐलान हुआ कि खापलैंड से कोई पलायन नहीं होगा; जो जहाँ है वहीँ रहे| इसका वेस्टर्न यूपी में तो इतना जोरदार संदेश गया कि ना तो एक भी दंगा हुआ व् शायद ही कोई-कोई मुस्लिम पाकिस्तान गया इधर से|
और यही वह गणतांत्रिक व् लोकतान्त्रिक सोशियोलॉजी थी, जिस पर तब के यूनाइटेड पंजाब में सर छोटूराम व् यमुनापार चौधरी चरण सिंह की धर्मरहित राजनीति इतनी परवान चढ़ी कि एक ने आज़ादी से पहले ही यूनाइटेड पंजाब पर 25 साल निरतंर राज किया व् दूसरा आज़ादी के बाद देश का प्रधानमंत्री बना|
बंधे रहिए सभी धर्म व् जातियों के साथ, इस एकता व् पुरख-सोशियोलॉजी से व् इसकी प्रमोशन कीजिए!
आप सभी को "ईद मुबारक"!
जय यौधेय! - फूल मलिक
Tuesday, 18 April 2023
सत्यपाल मलिक जी का इंटरव्यू, क्षत्रिय व् अवर्णीय का फर्क क्रिस्टल क्लियर कर देता है!
अवर्णीय यानि पांचवा वर्ण यानि जो ना स्वभाव से, ना कल्चर से, ना DNA से, ना किनशिप से चतुर्वर्णीय व्यवस्था में फिट बैठता और ना बैठा कभी| ऐसा व्यक्ति चतुर्वर्णियों के साथ काम कर भी लेगा तो उसका प्रोटोस्टेंट स्वभाव फायर-बैक करेगा-ही-करेगा| कर्ण थापर का इंटरव्यू इसकी बानगी है| J&K 370 हटना, UT बनना, सरकार भंग करना; सब वहां इनके कार्यकाल में हुआ व् इन्हीं को देश में Z सिक्योरिटी नहीं तो फिर कौन डिसर्व करता है? व् इसी से उनके आत्म-सम्मान को ठेंस लगी है व् उनका भय भी सच्चा है कि क्या मुझे यह लोग ऐसे मुफ्त में ही निबटाना चाहते हैं? जनता ने भी अब सुनी उनकी बात, वरना 2 बार टीवी पे तो वो 2019 में ही बोल चुके थे| खैर, बीजेपी ने इनके साथ जो व्यवहार किया व् उसपे जिस तरह से आरएसएस चुप है; इससे इतना तो है कि कोई भी सत्यपाल जी की बिरादरी का जो इनसे साथ जुड़ा है वह यह नहीं कह सकेगा कि हमें आरएसएस में यथोचित स्थान व् सम्मान दोनों हैं व् उसकी गारंटी भी है|
इधर, अपमान व् डिग्रडेशन तो जो पहले गृहमंत्री थे फिर दूसरे नंबर से तीसरे पे डिफेंस में खिसका दिए गए; मोदी ने सरेआम कितनी बार उनका पब्लिकली अपमान भी किया तो भी वह एडजस्ट करके चलते आ रहे हैं| क्योंकि क्षत्रिय को चतुर्वर्णीय व्यवस्था में शिक्षा ही यह है कि चुप रहो| वीरता भी दिखानी है तो जब बोला जाए तब|
तो यही है अवर्णीय व् क्षत्रिय का फर्क| नादाँ हैं यह "अवर्णीय" जो खामखा अपने DNA, किनशिप एथिक्स सब से लड़ते हैं व् ऐसी व्यवस्था में घुसने को आतुर हैं जो इनकी अंतरात्मा को स्वीकार हो ही नहीं सकती; हकीकत सामने आने पर वह ऐसे ही उबाल मारती है जैसे सत्यपाल मलिक जी की ने मारा|
लोग कहते तो हमें भी है कि हम तो अपनी जॉब या बिज़नेस सिक्योरिटी के चलते इनमें शामिल होते हैं; इतना भर हो तो सही भी है परन्तु यह लोग इनका प्रचार, प्रसार व् आत्मसात करने तक पहुँच जाते हैं; जिसका सीधा-सीधा असर इनके बच्चों पर पड़ता है व् इसी को "शूद्रता" कहते हैं|
जिनको शूद्र कहा गया है उनको भी इनके इस शब्द को ओढ़ने से बचना चाहिए; अन्यथा तो आप इसको ओढ़ के इनके इस शब्द को सत्य स्थापित करते हो; जो कि मानवता के ऊपर सबसे भीषण प्रहार है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Monday, 17 April 2023
"जिस महामानव के कारण 60 के दशक में दुनिया के 100 करोड़ लोग भूखे मरने से बचे, आओ आज उनको जानें…"
आज हम बात कर रहे हैं "हरित क्रांति" के अग्रदूत विश्व विख्यात कृषि वैज्ञानिक राव बहादुर डॉ रामधन सिंह हुड्डा जी की:-

अतीक अहमद के कत्ल ने मोदी की "पसमांदा मुस्लिम्स" को लुभाने की पॉलिटिक्स तहस-नहस कर दी है; साथ ही अखिलेश यादव से भी मुसलमानों का मोह भंग होता दिख रहा है!
विवेचना: क्या अब मुस्लिम "जय श्री राम" वालों की बजाए, "हे राम" या "हर-हर महादेव + अल्लाह-हू-अकबर" वाले अपने पुराने समीकरणों की तरफ तो नहीं मुड़ेगा?
Thursday, 6 April 2023
लंगर व् भंडारे में फर्क!
लंगर: गुरु नानक देव जी के जमाने से चल रहा है| दाता का नाम, पता, ओहदा गुप्त होता है| शुद्ध मानवता की सेवा की सही वाली निस्वार्थ नियत से लगाया जाता है| आसपास जो कोई किसी भी धर्म-जात से भूखा हो, वह खा सकता है|
भंडारा: नाम की भूख, पाप धोने का लालच, बोल रखा था इसलिए खिलाना, तथाकथित मन्नत पूरी हुई तो खिलाना या किसी बात का भय दूर भगाने हेतु खिलाना आदि-आदि| भंडारा स्थल पर सबको पता होगा कि कौन खिला रहा है, अथवा अगला स्वत: ही बड़ा बैनर लगाए मिलता है कि मैं खिला रहा/रही हूँ| इसके साथ एक और अवधारणा जुडी है कि इसको जरूर इलेक्शन लड़ने होंगे, बड़ा समाजसेवक दिखाना चाहता/चाहती है खुद को आदि-आदि| निस्वार्थ शब्द झलका कहीं इसके उद्देश्यों में? बल्कि इसमें तमाम वो वजहें हैं जो लोगों को कम्पटीशन की भावना में डाल के जो इसको नहीं भी करना चाहते हों, उनको भी इसको करने को मजबूर करती हैं| अन्यथा तान्ने एक्स्ट्रा तैयार मिलते हैं कि "के धरती म्ह हाथ टिक रे सें", "कीमें धर्म-कर्म भी कर लिया करो", "धर्म नैं मानदे ए कोन्या के" आदि-आदि|
भंडारों से अच्छा तो म्हारे पुरखों का सदियों पुराना यह सिद्धांत रहा है कि "गाम-नगर खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" - इसके तहत मैंने मेरी दादी समेत गाम की बहुत औरतों-मर्दों को गाम के किसी भी लाचार व्यक्ति को खाना-कपड़ा देते बालकपन से देखा| गाम की परस में कोई राह चलता रैन-बसेरे रुका तो उसको खाना पहुंचाते/पहुंचवाते देखा (परन्तु वाकई में राहगीर हुआ तो, वरना कोई फंडी-फलहरी इस बात का फायदा उठाने हेतु आया तो वह लठ भी खूब खा के जाता देखा)| और यह लाचार व्यक्ति चाहे जिस किसी जाति-धर्म का रहा हो गाम से, सबके बारे हमारे दादे/दादी यही कहते थे कि "खेड़ों की सदियों पुरानी बसावट से नगर-खेड़ों (भैयों-भूमियों) का यह सिद्धांत रहता आया है| इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता था कि अगर गाम-की-गाम में कोई बेऔलादा, निर्धन या बेवारसा बूढा/बुढ़िया/मंदबुद्धि आदि भूखा होता तो वह हक से भी गाम के किसी भी घर में जा के खा सकता था या कोई-कोई घर ऐसे किसी भी जरूरतमंद को स्थाई तौर पर खाना देते रहते थे| घर के आगे से या गली से निकलते वक्त मुलाकात होती तो आगे से पूछ लेते थे कि आज खाना खाया तो सामने वाला बता देता था व् पूछने वाला उसको अपने घर से आदरसहित बिना दिखावे के खाना दे देता था| और यही वह सिद्धांत रहा है "गाम-नगर खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" जिसके चलते खापलैंड बारे यह कहावत मशहूर हुई कि, "यहाँ के गाम-नगर खेड़ों में कोई भिखारी नहीं मिलता/होता"| अगले की हालत देख, आगे से खुद ही हाथ बढ़ा के बिना तंज-ताने के उसको खाना दे देना; ताकि अगले की सेल्फ-एस्टीम व् सेल्फ-रेस्पेक्ट भी कायम रहे|
आज हम इसको कितना पाल रहे हैं, पता नहीं| आज तो खाना खिलाना भी प्रदर्शन का विषय जो हो चला है या कहो कि फंडियों के फैलाए इस भंडारे के कांसेप्ट ने इससे मानवता निकाल कोरी प्रसिद्धि व् स्वार्थसिद्धि की लालसा का सौदा बना छोड़ा है; जो पूरी हुई कि नहीं यह खुद इसको लगाने वाले अधिकतर को नहीं पता चल पाता|
विशेष: आशा है कि मैंने भंडारे की तमाम सम्भव परिभाषा देने की कोशिश करी है, फिर भी कोई अन्यत्र पक्ष रह गया हो तो इसमें बिना तू-तू मैं-मैं के शांति से बता दीजिएगा; मैं सीखने को हर वक्त तैयार रहता हूँ| हाँ, भंडारे में इतनी ईमानदारी तो है कि सामने वाला घोषित करके बता चुका होता है कि मैं यह इस स्वार्थसिद्धि के लिए कर रहा हूँ; यही इसका पॉजिटिव एंगल है; बाकी धर्म-कर्म का इसमें कोई बीज तब तक आ ही नहीं सकता, जब तक इसमें "निस्वार्थ" का कांसेप्ट नहीं डलेगा; वह डला तो यह लंगर या खेड़ों वाला ऊपर बताया कांसेप्ट हो जाएगा| धर्म किसी भी कम्पटीशन से बाहर रहने का नाम है; वह धर्म कैसे हो जाता है जहाँ कम्पटीशन-जलनवश या लोगों के तानों से बचने हेतु चीजें की जाती हों? भंडारा वही तो है या कहीं धर्म का भी कुछ है इसमें? अच्छी बात है स्वार्थ के लिए भंडारे लगाओ परन्तु फिर इसको धर्म का चोला क्यों पहनाते हो; यह पहनाते हो इसीलिए तुम्हारे आंतरिक भय-क्लेश-द्वेष-लोभ-लालसा कट नहीं पाते व् आजीवन भरमते फिरते हो|
जय यौधेय! - फूल मलिक