आपसे मुखातिब बाबत: आपने कहा कि "ब्राह्मणों ने अपने गोत्र ऋषियों के नाम पर रख लिए और जाटों के पशुओं के नाम पर|"
पहली तो बात आप यह भान रखिये कि जाटों के यहां "गोत्र" नाम का कोई सिस्टम नहीं, हमारे यहां "गोत" होता है सिर्फ गोत| शायद आपकी गलती नहीं, क्योंकि अधिकतर पढ़ा लिखा और आपकी तरह खुद को एडवांस समझने वाला जाट अपनी ही इन चीजों का ज्ञान लेना, रखना, सम्भालना जरूरी नहीं समझता| खैर कोई नहीं, परन्तु आप याद रखिये कि जाटों की गोत प्रणाली ब्राह्मण गोत्र प्रणाली से एक दम भिन्न है| और ना ही हमारे गोत ब्राह्मणों के रखे हुए और ना ही हमने उनसे कभी रखवाए| हमारे गोत हमारे खुद के पुरखों के रखे हुए हैं|
अब दूसरी बात आपने कहा कि ब्राह्मणों ने अपने गोत्र ऋषियों के नाम पर रखे, नहीं ऐसा नहीं है खुद ऋषियों से ले इनके वंशजों ने भी अपने गोत्र पशुओं, हथियारों, कागज किताबों के नाम पर भी रखे हुए हैं, यह देखिये उदाहरण:
पशुओं के नाम पर ब्राह्मण ऋषि व् गोत्र: गोस्वामी, गौतम
लोहा-हथियारों के नाम पर ब्राह्मण गोत्र: परशुराम, चौबे (कील)
कागज-किताबों के नाप पर ब्राह्मण गोत्र: द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी
अब आता हूँ जाटों के उन गोतों पर जिनका आपने अपने उदाहरण में जिक्र किया:
आपने खुद का गोत उठाया "धनखड़": यह बना है धन और खड़ (हरयाणवी में ढेर) यानी धन के ढेर जिनके यहां होते थे वो धनखड़ कहलाये| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|
दूसरा आपने उठाया "ढांढा": कुरुक्षेत्र के पास एक कस्बा है ढांढ नाम का, जहां कहीं ओर की अपेक्षा ब्राह्मण अधिक घनत्व में हैं| और ढांढ का मतलब होता है हांड के ढाहने वाला| यानी दुश्मन को भगा-भगा के मारने वाला| अब अगर यह एक पशु का भी पर्यायवाची है तो वह संयोग मात्र है| यहां एक और रोचक बात यह ध्यान दीजियेगा कि ढांढा, गौ का खसम भी होता है|
तीसरा आपने गोत उठाया "खरे": हरयाणा में शब्द होता है "खरा" यानी "निग्र" यानी शुद्धतम और इसक बहुवचन होता है "खरे"। जैसे कई बार हरयाणवी में कहते हैं कि भाई फैलाने के बालक एक दम खरे हैं, खरा सोना हैं| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|
चौथा आपने उठाया "जाखड़": यानी के जहां भी जाए वहाँ खड़ के यानी अधिपत्य से बसो| और जाखड़ कहलाओ|
पांचवा आपने उठाया खोखर: यानी खो + खर यानी बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया कि तुम दुश्मन का खो (हिंदी में खात्मा) करके खर से बसने वाले हो| और जब दादावीर रामलाल जी खोखर ने मोहमद गौरी जैसे दुश्मन को मारा तो उन्होंने अपने नाम को सिद्ध किया, कि हम दुश्मन का खो करके खर से बसने वाले हैं|
छठा आपने उठाया "मोर": क्यों जब ब्राह्मण के लिए "कमल" का फूल (एक पौधा) शुद्ध हो सकता है, ब्राह्मण के लिए गाय (एक पशु) शुद्ध हो सकती है तो जाटों के लिए "मोर" (एक पक्षी) शुद्ध क्यों नहीं हो सकता? फिर भी आपको बता दूँ, "मोर", "मौर्य" शब्द का हरयाणवी रूपांतरण है| लेकिन मोर पक्षी की एक जाट के लिए वही महता है जो एक ब्राह्मण के लिए गाय की|
इस विषय पर मेरे पास कहने को बहुत कुछ है, परन्तु वो सब कभी अगर जीवन में आपसे साक्षात मुलाकात हुई तो, तब|
फ़िलहाल आपने से इतनी ही उम्मीद करता हूँ कि अपने व्यस्तम जीवन से दो पल अपनी सभ्यता-संस्कृति-शब्दावली-इतिहास का सही-सही ज्ञान समझने व् अर्जित करने पे भी लगाएं| धन्यवाद|
अपील: इस लेख की प्रति हरयाणा के कृषि मंत्री माननीय चौधरी ओम प्रकाश धनखड़ तक पहुंचाने वाले भाई का धन्यवाद| हालाँकि मैं भी कोशिश करूँगा इसको उन तक पहुंचाने की, परन्तु मेरी लिस्ट में जो भी बीजेपी का कार्यकर्त्ता हो और जागरूक जाट हो वो इसको उन तक जरूर पहुंचाए, मैं आपका आभारी होऊंगा|
जय योद्धेय! - फूल मलिक
वह खबर जिसके जवाब में मैंने यह लेख लिखा!
पहली तो बात आप यह भान रखिये कि जाटों के यहां "गोत्र" नाम का कोई सिस्टम नहीं, हमारे यहां "गोत" होता है सिर्फ गोत| शायद आपकी गलती नहीं, क्योंकि अधिकतर पढ़ा लिखा और आपकी तरह खुद को एडवांस समझने वाला जाट अपनी ही इन चीजों का ज्ञान लेना, रखना, सम्भालना जरूरी नहीं समझता| खैर कोई नहीं, परन्तु आप याद रखिये कि जाटों की गोत प्रणाली ब्राह्मण गोत्र प्रणाली से एक दम भिन्न है| और ना ही हमारे गोत ब्राह्मणों के रखे हुए और ना ही हमने उनसे कभी रखवाए| हमारे गोत हमारे खुद के पुरखों के रखे हुए हैं|
अब दूसरी बात आपने कहा कि ब्राह्मणों ने अपने गोत्र ऋषियों के नाम पर रखे, नहीं ऐसा नहीं है खुद ऋषियों से ले इनके वंशजों ने भी अपने गोत्र पशुओं, हथियारों, कागज किताबों के नाम पर भी रखे हुए हैं, यह देखिये उदाहरण:
पशुओं के नाम पर ब्राह्मण ऋषि व् गोत्र: गोस्वामी, गौतम
लोहा-हथियारों के नाम पर ब्राह्मण गोत्र: परशुराम, चौबे (कील)
कागज-किताबों के नाप पर ब्राह्मण गोत्र: द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी
अब आता हूँ जाटों के उन गोतों पर जिनका आपने अपने उदाहरण में जिक्र किया:
आपने खुद का गोत उठाया "धनखड़": यह बना है धन और खड़ (हरयाणवी में ढेर) यानी धन के ढेर जिनके यहां होते थे वो धनखड़ कहलाये| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|
दूसरा आपने उठाया "ढांढा": कुरुक्षेत्र के पास एक कस्बा है ढांढ नाम का, जहां कहीं ओर की अपेक्षा ब्राह्मण अधिक घनत्व में हैं| और ढांढ का मतलब होता है हांड के ढाहने वाला| यानी दुश्मन को भगा-भगा के मारने वाला| अब अगर यह एक पशु का भी पर्यायवाची है तो वह संयोग मात्र है| यहां एक और रोचक बात यह ध्यान दीजियेगा कि ढांढा, गौ का खसम भी होता है|
तीसरा आपने गोत उठाया "खरे": हरयाणा में शब्द होता है "खरा" यानी "निग्र" यानी शुद्धतम और इसक बहुवचन होता है "खरे"। जैसे कई बार हरयाणवी में कहते हैं कि भाई फैलाने के बालक एक दम खरे हैं, खरा सोना हैं| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|
चौथा आपने उठाया "जाखड़": यानी के जहां भी जाए वहाँ खड़ के यानी अधिपत्य से बसो| और जाखड़ कहलाओ|
पांचवा आपने उठाया खोखर: यानी खो + खर यानी बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया कि तुम दुश्मन का खो (हिंदी में खात्मा) करके खर से बसने वाले हो| और जब दादावीर रामलाल जी खोखर ने मोहमद गौरी जैसे दुश्मन को मारा तो उन्होंने अपने नाम को सिद्ध किया, कि हम दुश्मन का खो करके खर से बसने वाले हैं|
छठा आपने उठाया "मोर": क्यों जब ब्राह्मण के लिए "कमल" का फूल (एक पौधा) शुद्ध हो सकता है, ब्राह्मण के लिए गाय (एक पशु) शुद्ध हो सकती है तो जाटों के लिए "मोर" (एक पक्षी) शुद्ध क्यों नहीं हो सकता? फिर भी आपको बता दूँ, "मोर", "मौर्य" शब्द का हरयाणवी रूपांतरण है| लेकिन मोर पक्षी की एक जाट के लिए वही महता है जो एक ब्राह्मण के लिए गाय की|
इस विषय पर मेरे पास कहने को बहुत कुछ है, परन्तु वो सब कभी अगर जीवन में आपसे साक्षात मुलाकात हुई तो, तब|
फ़िलहाल आपने से इतनी ही उम्मीद करता हूँ कि अपने व्यस्तम जीवन से दो पल अपनी सभ्यता-संस्कृति-शब्दावली-इतिहास का सही-सही ज्ञान समझने व् अर्जित करने पे भी लगाएं| धन्यवाद|
अपील: इस लेख की प्रति हरयाणा के कृषि मंत्री माननीय चौधरी ओम प्रकाश धनखड़ तक पहुंचाने वाले भाई का धन्यवाद| हालाँकि मैं भी कोशिश करूँगा इसको उन तक पहुंचाने की, परन्तु मेरी लिस्ट में जो भी बीजेपी का कार्यकर्त्ता हो और जागरूक जाट हो वो इसको उन तक जरूर पहुंचाए, मैं आपका आभारी होऊंगा|
जय योद्धेय! - फूल मलिक
वह खबर जिसके जवाब में मैंने यह लेख लिखा!
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