Thursday 14 May 2015

जाटों को रूढ़िवादी वर्ण व् जाति व्यवस्था के प्रभाव व् उद्दंडता से बाहर आना होगा:


भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आदिकाल से दो धाराओं का आध्यात्मिक व् वैचारिक टकराव रहा है; ब्राह्मणों की बनाई हुई वर्ण व् जाति व्यवस्था और जाटों की बनाई खाप व् दादा खेड़ा व्यवस्था|

एक तरफ जहां ब्राह्मण रचित वर्ण व् जाति व्यवस्था पूर्णत इसके रचयिताओं के प्रभुत्व को लागू करने व् उसको पोषित-संरक्षित रखवाए जाने हेतु रंग-वंश-वर्ण-नश्ल भेद पर आधारित रही है, वहीँ दूसरी ओर जाटों की खाप व् दादा खेड़ा व्यवस्था सम्पूर्णत: समाज में समान न्याय, भागीदारी, हकदारी व् हर चीज की न्यूनतम शुल्क पर उपलब्धता आधारित रही है|

परन्तु ब्राह्मणी व्यवस्था जाट व्यवस्था को अपने रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा मानती रही है, क्योंकि जो नियम ब्राह्मण व्यवस्था बनाती आई है, जाट व्यवस्था विभिन्न खाप महापंचतयों के जरिये उनको नकारती व् ना अपनाने की वकालत करती आई है| उदाहरणत: पितृ श्राद्ध, मृत्यु भोज नहीं करने की वकालत, कम बारात व् विवाह में अधिक तामझाम से बचने की वकालत, विवाह में दहेज़ ना लेने-देने की वकालत (ध्यान दीजियेगा दहेज़ रोकने की सार्वजनिक वकालत आजतक सिर्फ खाप क्षेत्रों में खापों द्वारा ही हुई है, गैर खाप क्षेत्रों में इसके बारे कोई सामूहिक मंथन नहीं होते), आदि-आदि|

इसके अतिरिक्त विधवा विवाह समर्थक, नर अथवा पशु बलि विरोधी, सती-साक्का-जौहर प्रथा विरोधी व् कई और इसी प्रकार की अमानवीय मान्यताएं जैसे कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो जाट समाज आदिकाल से करता आ रहा है और इसी कारण जाट को एंटी-ब्राह्मण का तमगा ब्राह्मण समाज का प्रबुद्ध वर्ग अनंत काल से देता आ रहा है|

अन्य दूसरा सबसे बड़ा अंतर जो जाट थ्योरी का ब्राह्मण थ्योरी से प्रतिवाद करता है, वह है जाट की "सीरी-साझी सभ्यता", जो कि ब्राह्मण थ्योरी की "नौकर-मालिक सभ्यता" के बिकुल विपरीत धारणा पर है| सीरी-साझी सभ्यता जहां इतनी लचीली है कि यह नौकर को भी साझीदार-भागीदार बोलने को कहती है, वहीँ नौकर-मालिक सभ्यता इसके नाम को चरितार्थ करती है| और जाटलैंड को छोड़कर यह देश के किसी भी अन्य क्षेत्र में नहीं पाई जाती, गैर-जाटलैंड क्षेत्रों में सिर्फ "नौकर-मालिक" प्रणाली पाई जाती है|

परन्तु बावजूद इस सबके भी ऐसा क्या है कि जाट को अपनी इन मानवीय मान्यताओं को स्थाई व् सार्वजनिक मान्यता व् पहचान दिलाने में आज तक संघर्ष ही करते देखा गया है? इसकी मुख्य वजहें हैं:

1) जाट द्वारा इन चीजों को लिखकर एक स्थाई संदर्भ व् निर्देश पुस्तक का रूप ना देना|
2) जाट द्वारा अपनी दादा खेड़ा संस्कृति में वर्ण व् जाति भेद को घुसने देना|
3) जाट द्वारा अपनी इन मान्यताओं व् सभ्यताओं को काल व् समयानुसार पुरस्कृत, प्रचारित व् प्रमाणित ना करना|

और यह नहीं करने के परिणाम:
1) जाट समुदाय मौकापरस्त लोगों के सॉफ्ट-टारगेट पर बना रहता है|
2) सारे देश में जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैलाने वाले डंके की चोट पर इसको बढ़ावा देते हैं|
3) जाट युवा व् प्रौढ़ में समन्वय नहीं रहता|
4) शहर की तरफ निकल जाने वाला जाट, बहुत कम अपनी दादा खेड़ा व् जाट थ्योरी को तवज्जो देता है|
5) आडंबर व् पाखंड फैलाने वालों को जाट समाज एक ओपन मार्किट की तरह उपलब्ध रहता है|
6) जाट समाज को दलित व् ओबीसी जातियों के साथ संघर्षरत रहना पड़ता है अथवा पूर्वनिर्धारित एजेंडा के तहत गैर-जरूरी संघर्षों में झोंक दिया जाता है|
7) दलित व् ओबीसी समाज, जाट व्यवस्था के अधिक मानवीय होने के बावजूद भी इसकी प्रतिवादी व्यवस्था की तरफ ज्यादा झुकाव बनाये रखता है|
8) जाट उहापोह में डोलता रहता है, ना शुद्ध रूप से मानवीय बन पाता है और ना ही शुद्ध रूप से नश्लभेद का दूत|

और इस उहापोह की जाटों के लिए कितनी भयानक तस्वीर बन सकती है, उसको समझने और जानने के लिए उसके इर्द-गिर्द बनी हुई वर्तमान समय की परिस्थितियों से बेहतर कोई शिक्षक नहीं हो सकता|

इन दो विचारधाराओं के टकराव की बिलकुल यही स्थिति सांतवीं सदी में देश में मुग़लों की एंट्री से पहले थी| इन तेरह-सौ साल की गुलामी झेलने के बावजूद भी नस्लभेद के दूतों ने इससे कोई सबक नहीं लिया और थोड़ी सी आज़ादी मिली नहीं कि अपनी उन्हीं परिपाटियों को फिर से पकड़ लिया|

खैर, इससे निकलने के लिए हमें किसी के खिलाफ ना ही तो आवाज उठाने की जरूरत और ना ही हथियार उठाने की जरूरत; बस किसी एक जमाने से पुरानी-खाली-वीरान जालों-मकड़ियों-चमगादड़ों से सनी पड़ी किसी हवेली की भांति, अपनी हवेली में वापिस लौटने की जरूरत है| उसके जाले साफ़ कीजिये, उसकी रंगाई-पुताई करवाइये और उसको आधुनिक समयानुसार रहने के लायक बनाइये|

भरतपुर के अजेय लोहागढ़ किले की तरह अपने किले की दीवारों को मजबूत करना शुरू कीजिये; दुश्मन तो उस किले की दीवारों को तोड़ने में ही रींग जाएगा| हमें उनको हथियार अथवा धमकियां देना अथवा यहां तक कि उनकी तरफ घुर्राने की भी जरूरत नहीं| याद है ना कि 13 बार आक्रमण करने पर भी दुनिया में जिनके राज के सूरज नहीं छिपा करते थे, जिनकी विजय के सूर्यरथ नहीं थमा करते थे, वो कैसे लोहागढ़ के किले की दीवारों से टकरा-टकरा के खुद ही घुटने टेक गए थे? इसलिए बस अपनी खुद की आदिकालीन व्यवस्था में विश्वास रखते हुए, इसको मजबूत करने की जरूरत है|

वरना तो भाई फिर नश्लभेद का दूत तो आपको समाज में 35 बिरादरियों से काट, अकेला भटकने को छुड़वाने पे आमदा है ही|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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