Saturday, 9 May 2015

जाट, जमीन, आरक्षण और खडदू-खाड़ा:


पहली बात: इनको आरक्षण की क्या जरूरत, इनके पास तो जमीन है? अरे तो भाई आप कौनसे आस्मां पे रहो, जमीन पे ही रहो| खेत ना होगा तो मकान-कोठी-बाग़-फैक्ट्री-मंदिर आपके पास कुछ तो होगा; वो कहाँ बन रे, जमीन पे ही ना?

दूसरी बात: जमीन रखनी, साह्मणी और पालनी कौनसी सबके बस की बात हो? 1980-90 के दशक में (असल तो पूरे भारत अन्यथा उत्तरी भारत में तो पक्का) कुछ पिछड़ी व् एस.सी./एस.टी. जातियों (सही-सही जाति का नाम उन जातियों की मान-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए नहीं उछाल रहा, परन्तु तथ्य हेतु यह बात प्रयोग कर रहा हूँ) को गाँवों की सामलातों, खाली पड़ी जमीनों व् पंचायती जमीनों में से सरकार ने 1.75 एकड़ प्रति परिवार खेती करने को जमीन दी थी| परन्तु हरयाणा में तो आज हालत यह है कि 95% उस जमीन को बेच चुके हैं| उत्तर प्रदेश में मायावती ने इस प्रकार दी गई जमीन को बेचने पे रोक लगा दी थी, वरना वहाँ भी ऐसे ही होता| तो कहने का मतलब और जिनको यह बहम हो कि खेती हर कोई कर सके है, तो यह उदाहरण सामने है कि अगर जो खेती इतनी ही आसान और हर कौम-नश्ल के बन्दे के करने की बस की बात है तो यह लोग क्यों बेचते इसको? सरकार ने तो दिया था मौका मजदूर से जमींदार बनने का, परन्तु जमींदारी इतनी आसान चीज होती तो, इसको कुत्तेखानी कौन कहता|

तीसरी बात: जाट कहो या खापलैंड पर रहने वाली तमाम किसानी जातियां जैसे कि अजगर व् ब्राह्मण का किसान, कोई बिहार-बंगाल-पूर्वी भारत का ठाकुर या भूमिहार ब्राह्मण पद्द्ति पे खेती करने वाला किसान नहीं है कि खेत की मैंड पे या हवेलियों की अटालिकाओं पे खड़ा हो के आर्डर देवे और दलित-पिछड़ा मजदूर उसके लिए कमा के देवे; वो मजदूर के साथ खेत में कंधे-से-कन्धा मिला के उनके संग खुद खट के खेती करता है| और इसीलिए आज खापलैंड और पंजाब ही देश के अनाज के कटोरे कहलाते हैं, वर्ना बिहार-बंगाल की जमीनों को जितना पानी लगता है इतना पूरे भारत में कहीं की भी जमीनों को नहीं लगता| पर वहाँ का मजदूर (यहां तक कि जमींदार भी) धक्के खा के हमारे यहां ही रोजी-रोटी जोहता-खोजता हुआ चला आता है|

क्योंकि हम खेत की मैंड/डोल पे खड़े हो के नहीं अपितु खुद खेतों में उत्तर के खेती करी और अपनी भूमि को अपने खून-पसीने से सींच के दूसरों के भी रोजगार हेतु काम्मल बनाया|

चौथी बात: यह बात रखते हुए मैं दलितों या पिछड़ों को उलाहना नहीं दे रहा, और ना ही सरकार ने उनकी भलाई के लिए जो कदम उठाये उनको बुरा बता रहा; अपितु सरकार के उन क़दमों का जाट अथवा किसान पे क्या नकारात्मक प्रभाव पड़ा उसको बता रहा हूँ| सरकार ने दलित-पिछड़े को विभिन्न प्रकार के मुवावजे देने शुरू किये, आर्थिक से ले आवासीय, अनाज से ले चिकित्सीय हर सुविधा मुफ्त में या सस्ते में उपलब्ध करवानी शुरू करवाई; जिससे किसान को या तो मजदूर मिलना बंद हो गया अथवा महंगा मिलने लगा| जबकि सरकार को चाहिए था कि दलित-पिछड़े की इस भलाई के काम के साथ-साथ इस बात पर भी "सोशल इम्पैक्ट स्टडी" (social impact study) करवाती कि इसका किसान पे क्या आर्थिक प्रभाव होगा? अथवा किसान के खेत के लिए मिलने वाले मजदूर की बढ़ी मजदूरी सरकार वहन करती, अथवा उसको किसान की फसलों के दामों को बढ़ाने के जरिये पूरा करती| परन्तु ऐसा नहीं हुआ, क्यों?

क्योंकि यह था मंडी-फंडी का किसान को बर्बाद-लाचार-असहाय व् भूखा बनाने का पहला खड़दू-खाड़ा| अब इन इम्पैक्ट (impact) के ऐवज में भी जाट किसान को कुछ नहीं मिला और अब आरक्षण मांग रहा है तो आवाज उठा रहे? कर दो इसका हिसाब बराबर नहीं लेंगे आरक्षण|

पांचवीं बात: जाटों की जमीन की कीमत करोड़ों की है, इनके यहां तो सुख-समृद्धि छाल मर रही है| म्हारे हरयाणवी में कह्या करैं, "घूं कुत्त्याँ का छाळ मार रहा थोड़ा", सबकी तली लिकड़ी पड़ी है| हर नगरी-गाम गेल कोई दो-चार किसान इह्से हैं, जिनके सर कर्जा नहीं या जिनके घर भुखमरी नहीं, वर्ना सारे गरीबी और लाचारी ने तोड़ रखे| यह बात कहने वालों को जाट यह तर्क दे के समझाए कि जिस प्रकार बिज़नेस में करंट (current) यानी अलाइव (alive) व् फिक्स्ड (fixed) यानी डेड एसेट (dead asset) होते हैं, धरती डेड एसेट (dead asset) है| और इसकी प्रोडक्शन वैल्यू (production value) मंडी-फंडी की दमनकारी नीतियों के कारण कभी नहीं बढ़ती, इसलिए यह किसान पे डेपेरिसिअशन वैल्यू ऑफ़ एसेट (depreciation value of asset) की तरह 'सफ़ेद हाथी' बनके बैठी रहती है| यानी कुत्ते की हड्डी वाला हाल, जिसको ना निगलने से बनता और ना उगलने से|

इसको और सही से ऐसे समझो, मान लो एक व्यापारी ने एक बड़ी सी फैक्ट्री की बिल्डिंग खड़ी कर दी, परन्तु उसके अंदर बनने वाले उत्पाद का मूल्य मैनेजमेंट मेथड ऑफ़ डिफिायनिंग दी सेलिंग प्राइस ऑफ़ ए प्रोडक्ट (management method of definning the selling price of a product) के तहत नहीं, अपितु ठीक वैसे तय होता है जैसे साकार सरकार फसलों के एमएसपी (M.S.P.) निर्धारित करती है; तो वो व्यापारी दो दिन में या तो खुद को दिवालिया घोषित कर देगा अन्यथा जहर अथवा फांसी लगा के प्राण छोड़ देगा| चैलेंज करता हूँ, ज्यादा नहीं बस एक साल के लिए फैक्ट्री के उत्पादों का विक्रय मूल्य निर्धारण किसान वाले एमएसपी के तरीके से करवा दो, अगर आधे से ज्यादा व्यापारी फांसी पे ना झूल जाएँ तो| लेकिन फिर भी हम इन अनजस्टीफाईड (unjustified) तरीकों को झेल रहे हैं| और तुम कह रहे हो कि आरक्षण क्यों मांग रहे?

छटी बात: इनका तो अधिपत्य है, यह तो बहुसंख्यक हैं| अरे तो हैं तो फेर के किते कुँए-जोहड़-झेरे म्ह खोये जावां? थारा ठा लिया किमें, अक किमें खोस कैं खा लिया अक कोए-से की झोटी (ध्यान दियो जाट झोटी खोल्या करै तथाकथित राष्ट्रवादियों वाली गाय-गौकी नहीं) खोल ली? अरे सदियों से थारे भी तो रोजगार का साधन हम ही रहे? यें और जो अपने आपको सभ्य-सुशील कहलावैं हैं इनकी तरह किसी की बहु-बेटी देवदासी बना के सार्वजनिक तौर पर मंदिरों में ना बैठाई हमनें; बल्कि साबते गाँव की बेटी को अपनी बेटी कहने का और मानने का सिद्धांत चलाया है जाट ने| आज भी जाट किसी ब्याह-बारात के मौके पर हर सच्चा जाट उस गाँव-नगरी में अपने गाँव-नगरी की छत्तीस ज्यात (जाति) की बेटी की मान-मनुहार करकें आवै| और फिर भी थाम न्यू कहो अक यें दबंग सैं| फेर भी इनके बहुसंख्यक होने पे आपत्ति| हाँ रै न्यूं बताओ, जो अगर यें मंदिरों में देवदासी पालने वाले बहुसंख्यक हो जां, फेर आ जागा चैन थारे को?

आज खापलैंड पे अगर किसी दलित-पिछड़े के बेटी देवदासी बना के मंदिरों में ना बैठे जाती अगर तो वो हम जाटों की वजह से है, वर्ना जा के देखो दक्षिण-पूर्वी भारत में क्या हाल है आज भी| हाँ हैं हम दबंग परन्तु सबकी बहु-बेटी को अपनी बहु-बेटी कहने वाले दबंग, सबकी बहु-बेटी को इन देवदासियां पालने वालों से बचाने वाले दबंग|

सांतवीं बात: कैसे लैंड बिल के जरिये मंडी-फंडी कभी भी किसान को उसकी हैसियत और औकात दिखा सकते हैं, यह अब किसी से छुपा नहीं| किसान सिवाय बंधुआ मजदूर के कुछ भी नहीं| साधारण मजदूर की दिहाड़ी तो कम से कम उसको उसकी मर्जी से मिल जाती है, यहां तो किसान की फसल के भाव भी मंडी और व्यापारी तय करते हैं? यह तो सरकार ने जाट के पास इसलिए छोड़ रखी है क्योंकि और कोई इतनी बढ़िया खेती कर नहीं सकता; वरना कल को सरकार को कोई मिल जाए तो सबसे पहले जाट से जमीन ही छीनने का काम करे|
जाओ मंडी-फंडी के इन चन्गुलों से आज़ाद करवा के हमें हमारी खेती के उत्पादों के विक्रय मूल्य निर्धारण का हक़ दे दो, नहीं मांगेंगे आरक्षण|

और आज के जमाने में तुमको जमीन इतनी ही प्यारी है तो आ जाओ ले लो साल-दो साल के पट्टे पे मेरी जमीन| इस बात की गारंटी के साथ दूंगा कि अगर अकाल-बाढ़-ओला पड़ गया तो फसल के नुक्सान के अनुपात में पट्टा छोड़ दूंगा| आओ कौनसे-कौनसे हैं इस बात की ढींग हांकने वाले कि जाटों के पास तो जमीन है फलाना है ये है वो है करने वाले सारे ही आ जाओ मेरे खेतों में और खट के तो दिखाओ साल-दो साल| वो नेवा कर राखा, "अक अगला शर्मांदा भीतर बड़ ग्या, अर बेशर्म जाने मेरे से डर गया|" जिनको पादने के लिए भी टांग उठाने तक को नौकर चाहियें, वो जाटों पे जमीन को ले के तंज कसते हैं|

इसलिए जाटो, 11 मई को बिंदास भर दो जंतर-मंतर को| और इतना भर दो कि वो जवाहरलाल की कही हुई बात का अहसास दिल्ली में बैठे हर गैर-हरयाणवी को हो जाए कि दिल्ली के बाहर-भीतर-चारों ओर भी कोई बसै है, जो थारा हलक सुखा सकै है| आच्छी ढालाँ कटिये काट-काट कैं, भड़क बिठा कैं आना है राष्ट्रवादियों और खोदी जी कै |

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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