Tuesday 23 June 2015

हरयाणवी समाज से निवेदन है कि वो ब्याह-शादी के कार्डों में चार लोगों के कन्धों पे वाली डोली के सिंबल की जगह चार-पहियों वाली डोली यानी बैल्हड़ी-रथ का सिंबल प्रयोग करें!

स्वछंद हरयाणवी सभ्यता इतनी मानवीय रही है कि पुराने जमाने में जहां दूसरे राज्यों-समाजों में दुल्हन की डोली उठाने के लिए किसी जानवर की भांति चार दलित लोग लगाए जाया करते थे और आगे घोड़ी पे दूल्हा चला करता था; वहीँ हरयाणा और इसमें भी खासकर जाटों के यहां चार लोगों की जगह चार पहिये वाली बैल्हड़ी-रथ होता था और उसको दो बैल खींचते हुए, घोड़े पे बैठे दूल्हे के पीछे चला करते थे|

अपनी शुद्ध सभ्यता को जिन्दा रखें और मानवीयता को बनाये व् पाले रखें| किसी भी इंसान को गुलाम की भांति पालना अथवा रखना, ना ही तो हरयाणवी सभ्यता रही है और जाट की तो रही ही नहीं है| और इसलिए शुद्ध हरयाणवी सभ्यता में नौकर को नौकर नहीं साझी बोला जाता है साझी यानी पार्टनर| वैसे भी चार कन्धों (वो भी अपनों के गुलामों या बेगानों या भाड़े के नहीं) पे अर्थी जाती हुई अच्छी लगा करती है, डोली नहीं|

बचपन में मेरी दादी बताती थी कि जब अंग्रेज कलकत्ते से नए-नए खापलैंड पे आये और खापलैंड के दिल दिल्ली में राजधानी शिफ्ट करी तो यहां की सभ्यता में यह अनोखी चीज देख अचंभित थे| कहते थे कि कलकत्ता देखा, जयपुर देखा, हैदराबाद देखा यहां तक मद्रास देखा, परन्तु कहीं भी दुल्हन रथ में जाती नहीं देखी| वो कहते थे कि राजे-रजवाड़ों तक के यहां दुल्हन चार कन्धों वाली मानव डोली में जाती है परन्तु इस हरयाणे की धरती पर तो क्या छोटा और क्या बड़ा किसान-इंसान, सबकी दुल्हनें बैल्हड़ी-रथ में जाती हैं| और इसीलिए हमारे यहां इसको डोली नहीं 'डोहळा' बोला जाता था| दादी कहती थी कि वो अक्सर कहते थे कि कोई ताज्जुब नहीं कि 1857 की क्रांति दबाने में खापलैंड के लोगों ने हमें क्यों नाकों-चने चबवा दिए और क्यों इनकी वजह से राजधानी कलकक्ते से दिल्ली लानी पड़ी| यह लोग कितनी स्वछंद सभ्यता के हैं इनकी इन्हीं चीजों से अंदाजा लग जाता है| ऐसा प्रतीत होता है कि यहां हर कोई राजा है, भिखारी तो इस धरती पर दीखते ही नहीं| ना कोई यहां के गाँवों-नगरों में भूखा सोता| यह चमक और धाक होती थी हरयाणवी सभ्यता की|

तो जो हरयाणवी, आज इन नए छद्म आधुनिक राष्ट्रवादिता और सभ्यता के पैरोकार बने लोगों के बहकावे में आ रहे हैं वो इनके साथ जुड़ने अथवा इनकी किसी भी प्रकार की दानवीय सभ्यता के बहकावे में आने से पहले इनसे यह सुनिश्चित जरूर करवा लेवें कि आपकी मानवीय सभ्यता के रक्षण-संरक्षण व् पालन के लिए इनके पास क्या है| वरना दो-एक दशक बाद ऐसा अहसास होगा जैसा धोबी के कुत्ते को घर के ना घाट के वाला होता है|

इसलिए कुछ भी करें, किसी के भी साथ करें, परन्तु अपनी रॉयल हरयाणवी सभ्यता (यानी सबसे मानवीय सभ्यता) को साथ ले के चलें|

चलते-चलते मेरा हरयाणवी फिल्मकारों से भी निवेदन है कि बॉलीवुड ना सही परन्तु आप तो अपनी इस रॉयल-हरयाणवी सभ्यता के ऐसे-ऐसे सुनहरे पहलुओं को अपनी फिल्मों-सीरियलों में उतारना शुरू कीजिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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