जब तक फ्रांस-यूरोप या किसी भी अन्य ऐसे ही डेवलप्ड कंट्री की भांति एक वीवीआईपी और गरीब भिखारी एक ही लैविश शॉपिंग मॉल में एक ही काउंटर पे खड़े हो के वो भी बिना कोई नाक-भों सिकोड़े शॉपिंग नहीं करते मिलते, उस दिन तक भारत डेवलप्ड राष्ट्र नहीं बन सकता।
डेवलप्ड कन्ट्रीज में महँगे से महँगे कपड़े-प्रसाधन वाला एक मैले-कुचैले कपड़ों वाले भिखारी के साथ एक ही दुकान/मॉल पे एक ही पंक्ति में लग सामान खरीदता है, क्योंकि वास्तविक एवं व्यवहारिक राष्ट्रवादिता क्या होती है यह लोग प्रैक्टिकल में जानते हैं।
मेरे ख्याल से फ़िलहाल तो भारत में एक भिखारी के लिए शॉपिंग मॉल की तरफ देखना भी एक स्वपन जैसा है; जबकि यूरोप जैसे देशों में भिखारी के पास पचास सेण्ट या एक यूरो तक भी भीख में इकठ्ठे हुए नहीं, सीधे शॉपिंग मॉल से जा के सामान खरीद के लाते हैं।
क्या हमारे योगियों-जोगियों-कर्मयोगियों के तप में इतना सामर्थ्य-धैर्य व् अपनापन भर पाया है कि वो लोग ऐसा कल्चर क्रिएट कर सकें? यदि नहीं तो हम अभी डेवलप्ड कहलाने की सोच से ऐसे ही दूर हैं जैसे संस्कृति से सभ्यता। ओबामा अपनी विगत भारत यात्रा के दौरान कोई व्यर्थ ही नहीं कह के गए थे कि डेवलप्ड बनना है तो पहले जाति-पाति, उंच-नीच की सोच के जहर से पार पाना होगा।
हमारी संस्कृति में दो बहुत बड़े झूठ घुसे पड़े हैं। पहला अगर आप किसी के लाइफ-स्टाइल से सहमत नहीं हैं तो आप उससे या तो नफरत करते मिलेंगे या उससे भय खाते मिलेंगे। और दूसरा हमारे यहाँ किसी से प्यार करने का मतलब यह बताया जाता रहा है कि आप वह जो करता/मानता है या करती/मानती है उसको अंधश्रद्धा से स्वीकार करो या करते हैं, (just like emotional fools) इसको साइकोलॉजिकल टर्म्स में अति टोर्चरिंग अथवा सफ्फरिंग कल्चर (extreme torchering or suffering culture) भी कहते हैं। हमारे पास न्यूट्रल नाम का गियर ही नहीं है जो यह सीखा सके कि अरे क्या हुआ मेरे बगल में भिखारी खड़ा हो के शॉपिंग कर रहा है तो। यह सीधा-सीधा गुलामी का वो सिंड्रोम है जो किसी भी राष्ट्र को 1300 साल तक गुलाम बनाये रखने के लिए काफी होता है।
परन्तु हाँ कुछ-एक रेस हैं भारत में जो वाकई में न्यूट्रल होने का इतिहास व् स्वभाव रखती आई हैं, परन्तु उनके मुकाबले भारत नफरत-भय और अंधश्रद्धा का लोचा ज्यादा है।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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