Tuesday, 26 March 2019

आदरणीय सैणी समाज अगर नहीं चाहता कि "आदरणीय ज्योतिबा फुले" का वैसे ही करैक्टर-अस्सेसिनेशन हो जैसे राजकुमार सैनी पिछले 2-3 साल से "सर छोटूराम" पर अटैक कर करने की कोशिश कर रहा है तो कृपया उसको लगाम लगाइये!

सलंगित स्क्रीनशॉट: Crispin Bates लिखित पुस्तक "Mutiny at the Margins: New Perspectives on the Indian Uprising of 1857" के अध्याय दो का है जिसमें साफ़-साफ़ लिखा है कि महात्मा ज्योतिबा फुले ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ देने पर महार रेजिमेंट को बधाई दी थी| यह पंक्ति पढ़िए इस स्क्रीनशॉट की ध्यान से, ""It is not surprising that Jyotiba Phule congratulated the Mahars for aiding the British in suppressing the 1857 Revolt".

इसी सिलसिले में ज्योतिबाफुले का एक और वक्तव्य है जिसमें वह कहते हैं कि "अभी 1857 की जरूरत नहीं थी, देश पर कुछ साल और अंग्रेजों का राज रहना जरुरी है तभी देश में सुधर हो सकता है"|

और ऐसी ही बहुत सी बातें निकल आएँगी अगर और ज्यादा "चूचियों में हाड ढूंढने" की भांति मेरे जैसे भी ठीक वैसे ही महापुरुषों के करैक्टर असेसिनेशन पर उतर आये तो जैसे राजकुमार सैनी जब दांव लगता है चला आता है और "हिरै-फिरै गादड़ी और गाजरों म्ह को राह" की तर्ज पर जाट समाज पर लगता है बरगलाने|

और अबकी बार यह दांव लगा 23 मार्च 2019 को बरवाला में जननायक जनता पार्टी द्वारा किये गए शहीदी दिवस सम्मान समारोह में मुंहफट पंडित रामकुमार गौतम द्वारा आज़ादी के वक्त के 'सर', 'राव', राय-बहादुर आदि उपाधि मिले महापुरुषों को अपनी बेलगाम व् बेसोची जुबान द्वारा गद्दार बोलने व् कुर्सी के लालच में अंधे हुए अपने सगे दादा को दरकिनार गौतम में नया दादा ढूंढते हुए उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वाले दुष्यंत के बाद तुकबंदी जोड़ते हुए राजकुमार सैनी ने फिर से महापुरुषों के खिलाफ जहर उगला|

राजकुमार सैनी कितना ही फंडियों का भोंपू बन ले परन्तु एक बात याद रखना जाट-समाज जितनी रेपुटेशन और ओहदा आप तो क्या आपके तो फ़रिश्ते भी नहीं पा सकते| और इस ओहदे की ऊंचाई इस स्तर की है कि जाटों को तो महर्षि दयानन्द जैसे समझदार बाह्मणों तक ने अपने ग्रंथों में "जाट जी" और "जाट-देवता" लिखा-कहा और गाया है| यह ऐसा रुतबा जो बाह्मण उसके सबसे चाहते राजपूत तक को भी आजतक नहीं दिया, जाट के लिए उसके मुंह से निकलता आया| तो जाओ सैनियों के लिए लिखवा दे बाह्मणों से "सैनी जी" और "सैनी देवता" फिर बात करना जाटों से| एवीं खामखा लेते हैं और उठ के चले आते हैं| खैर कोई ना समंदर है जाट समाज, तेरे जैसे गंदंगी के नाले भी समेट लेंगे| परन्तु एक बात गौर फरमाए सैनी समाज|

मेरे जैसे समाज की ऐसी बातों पर नजर रखने वाले, राजकुमार सैनी जैसों की नादानियों को सिर्फ इसलिए दरकिनार करते आ रहे हैं क्योंकि हम उन फंडियों का भोंपू नहीं जिनका भोंपू बनके राजकुमार सैनी पिछले 2-3 साल से बदजुबानी किये जा रहा है| और इन महाशय के निशाने पर जाट समाज, सर छोटूराम और जाट रेजिमेंट यदाकदा चली आ रही हैं| अगर राजकुमार सैनी को जाट समाज के किसी व्यक्ति विशेष से कोई दिक्कत है तो उस व्यक्ति का सीधा नाम लेकर अपनी दिक्कत दूर करे; अगर वह दोषी होगा तो समाज सैनी के साथ होगा| परन्तु यह कौनसी भड़ास है कि कभी जाट रेजिमेंट, कभी जाट समाज में जन्में परन्तु सर्वसमाज के महापुरुष? वह भी उस इतिहास के जिस वक्त यह जनाब पैदा भी नहीं हुए थे?

हमारे पुरखों ने इस हरयाणा को बड़ी कुर्बानियां दे-दे इन फंडी-पाखंडियों से बचा के रखा हुआ है| जितनी सीधी टक्कर जाट समाज ने इनकी ली है सदियों से उसके राजकुमार सैनी जैसे तो पासंग भी नहीं| जहाँ आपके यहाँ फंडियों से टक्कर लेने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले जैसे इक्का-दुक्का ही हुए, वहीँ यह जाट समाज है यहाँ फंडी को फंडी कहने और ताड़ने का साहस तो जाट का बच्चा-बच्चा करता आया है| और जिन सर छोटूराम के खिलाफ इतनी लम्बी जुबान हुई जाती है उन जितनी खुली वाट तो फंडियों की पूरे हिंदुस्तान में कोई नहीं लगा सका| यहाँ तक कि बाबा साहेब आंबेडकर से ले ज्योतिबा फुले तक इनसे गच्चा खा गए थे परन्तु सर छोटूराम इनको आजीवन पटखनी दी| और जाट समाज इस मर्म को भलीभांति समझता है इसलिए राजकुमार सैनी की बकवासों पर चुप है| अन्यथा उसकी तरह बदजुबानी और अनादर करने पर उतरे तो ज्योतिबा फुले तक को घेर सकते हैं, उदाहरण ऊपर दिया है सबूत समेत|

ऐसे में मैं जिला जिंद हरयाणा में सैनी खाप के प्रधान दादा दरियाव सिंह सैनी जी (जिसने मैं 23 फरवरी 2017 को रोहतक मे खापलैंड वेबसाइट के लांच के वक्त मिला था) से अनुरोध रहेगा कि सैनी समाज या सर्वसमाज (जिसकी भी जरूरत पड़े) की खाप पंचायत बुलाकर राजकुमार सैनी की बदजुबानी को लगाम लगवाएं, अन्यथा हम आपके बालक यही मानेंगे कि आप जैसे समाज के मौजिज लोगों की भी इस मुंहफट को शय है| दादा जी तक मेरी यह चिट्ठी पहुँचाने वाले वाले का शुक्रिया| मैं खुद भी उन तक इसको पहुंचाने की कोशिश करूँगा|
अनुरोध सिर्फ इतना है कि हम नहीं चाहते कि राजकुमार सैनी जैसों के जरिये समाज को "डिवाइड एंड रूल" पर ले जाते हुए दांव लगाए बैठे फंडी का कोई और नया मौका लगे|

हम रामकुमार गौतम से सफाई लेते हुए नहीं डरे क्योंकि हमें पता है वह ना कभी हमारा था और ना होगा, चाहे जजपा वाले उसने घी में तो गाड़ लियो और दूध में नुहा लियो और गूगा बना लियो| इसीलिए शहीदी दिवस पर काटी उनकी बदजुबानी को लेकर उनके पीछे पड़े और पंडित रामकुमार गौतम एक ही दिन में फेसबुक पर आ कर सफाई दे गए| दूसरा सलंगित स्क्रीनशॉट उनकी सफाई की पोस्ट का है| परन्तु हम राजकुमार सैनी को घेरने से पहले इसलिए सोचते हैं क्योंकि फंडी ताक में बैठा है, ताक में बैठा है राजकुमार सैनी जैसों के जरिये समाज में पड़ी फूट को और गहरी करवाने को|

और यही फर्क समझा दिया जाए राजकुमार सैनी जैसों को कि पूरा सैनी समाज पिछड़ा नहीं है परन्तु तेरे जैसों की सोच के चलते समाज पर पिछड़ा होने का ठप्पा लगता है|

आशा करता हूँ कि सैनी समाज इस मर्म को समझेगा और राजकुमार सैनी जैसे फंडियों के भोंपुओं को समझायेगा|

विशेष: इस पोस्ट में प्रस्तुत किये गए महात्मा ज्योतिबा फुले के दोनों प्रसंग, इस मसले की गंभीरता को समझाने हेतु प्रयोग किये गये हैं, इसमें उनका कोई अपमान या उपहास ना देखा जावे| यह सिर्फ इस तौर पर पेश किये गए हैं कि अगर सामने वाला पक्ष भी ऐसी ही बेशर्मी पर उतर आवे जैसी पर राजकुमार सैनी उतरा हुआ है तो बेशर्मी उससे भी भारी बन जाए|

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जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Tuesday, 19 March 2019

जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये!

विषय: जाट व् इसके समकक्ष जातियों की सबसे बड़ी समस्याएं!

सबसे बड़ी समस्या: इन जातियों को अपना जातीय अभिमान संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होती| जिसकी वजह से यह बाहुबल के साथ-साथ बुध्दिबल का प्रयोग अपने साधन-सम्पदा संजोने की बजाये, उनको बाँटने, इस्तेमाल होने देने व् बिखरेने में ज्यादा करते हैं| और यह संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होने की वजह से इन जातियों के जो कुछ एडवांस्ड लोग होते हैं वह दूसरी जातियों के साथ बिना-सोचे समझे, बिना किसी मिनिमम कॉमन एजेंडा के मर्ज हो अपनी असली एथनिसिटी-कल्चर बिसरा के जीवन जीने को ही क्लास मानते हुए जीवन व्यतीत कर देते हैं|

जातिगत प्रेम को जातिवाद का नाम दे के चिढ़ने और बिदकने वाले जाट से कोई पूछे कि क्या आप अमूमन ब्राह्मण-बनिया-दलित आदि से भी बड़े जातीय-अभिमान रखने वाले हो या उनसे भी ज्यादा जातिवाद-वर्णवाद नस्लीय ऊंच-नीच की भावना रखने वाले हो (यहाँ बात कम-ज्यादा की कर रहा हूँ किसी पर इल्जाम नहीं लगा रहा हूँ, वरना जातिवाद-वर्णवाद से रहित लोग इन जातियों में बहुतायत में होते हैं), तो जवाब मिलेगा बिलकुल भी नहीं| तो फिर जो सबसे ज्यादा जातिवाद या जातीयप्रेम रखने वाले हैं आप उनकी तरह आश्वस्त होकर क्यों नहीं चलते हो? आपको ही क्यों 36 बिरादरी भाईचारे टाइप की चीजों की सबसे ज्यादा चिंता रहती है? चिंता क्या, लगभग इसका झाल्ला ही अपने सर उठाये से रहते हो, कि जैसे तुमने इसको नहीं संभाला तो दुनिया खत्म| कम-ऑन रिलैक्स दो अपने कंधों और सर को इससे|

तो जो जातीय प्रेम, स्वाभिमान, अभिमान, सम्मान व् बहुतेरे मामलों में जातिवाद-वर्णवाद वाले जो हैं वह कैसे इन चीजों को जाट जैसी जातियों से भी ज्यादा अच्छे से करते हुए सबकुछ संभाल के रख लेते हैं और समाज को अपने चॉइस के फ़ील्ड्स में लीड कर लेते हैं?

मेरे अनुभव व् सूझबूझ से जवाब ढूंढता हूँ तो कुछ यूँ चीजें निकलकर सामने आती हैं:

1) ब्राह्मण-बनिया लोग सबसे पहले जातीय अभिमान-स्वाभिमान-घमंड आदि नाम की जो मृग की खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध का नशा होता है उसको बचपन में ही साइड में रखना सिखाते हैं, मैनेज करना सिखाते हैं| जबकि जाट व् इसके जैसी जातियों इसकी कमी है| और वजह होती है इसको लेकर इच्छाशक्ति ना होना| 'देख ल्यांगे', 'देखी जागी', 'के बिगड़े सै' टाइप वाला ऐटिटूड, जो कि खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध वाले जातीय अभिमान को मैनेज करने की इच्छाशक्ति नहीं होने के चलते आता है|

यह जातीय अभिमान, घमंड में तब्दील हो जाए इसके लिए विरोधी प्रोपेगंडा भी करते हैं; ताकि आप इसके घमंड में ही उलझे रहें और वह अपनी राहें आसान करते चले जाएँ| इन समाजों में इन प्रोपेगंडा व् इनको रचने-बचने वालों के पास क्या हल होते हैं, शायद कुछ भी नहीं? यह प्रोपेगंडा खेत में बिना बाद की खड़ी फसल पर आवारा जानवरों द्वारा हमला करने जैसा होता है| यह बाड़ कौन करेगा? आखिर क्यों फसल तक की बाड़ करने की सूझ-बूझ-हिम्मत-जज्बा रखने वाले लोग, जातीय स्वाभिमान को सॉफ्ट-टारगेट नहीं बनने देने बारे बाड़ क्यों नहीं करते या कर पाते? जवाब अमूमन मृग की कस्तूरी वाला ही है|

2) ब्राह्मण-बनिया लोग इस कस्तूरी रुपी नशे को अपनी जाति के लिए नाम-प्रसिद्धि-संसाधन-सत्ता-पावर को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जोड़ते चले जाने में लगाते हैं| इसकी जरूरत इनको जातीय अभिमान की कस्तूरी के नशे में टूलने से ज्यादा सिखाई जाती है इसलिए यह जातीय प्रेम पर किसी भी अन्य जाति से ज्यादा संगठित होते हैं| ना होते हों तो बता दो| और इनकी इन क्वालिटीज़ का मैं कायल भी हूँ|

और क्या कहूं| फ़िलहाल इतना ही बहुत| लेख का निचोड़ यही समझिये कि जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये! इसके नशे में चढ़ टूलने, रिफल्ने, बिफरने या बिगोने की जरूरत नहीं होती अपितु इसको सही दिशा में प्रयोग करने की और चलना चाहिए|

इस नशे से पार नहीं पाने की स्थिति में विरोधी के हमले होने पर आप डिफेंसिव होते हो और डिफेंसिव हुए तो समझो सॉफ्ट-टारगेट हुए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 7 March 2019

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है, कुछ "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में महिलाओं व् उनके स्थान बारे बतला लें!

मैं जाट हूँ, मैं हरयाणवी भी हूँ और मेरी एक खाप भी है| गठवाला (मलिक) खाप, हिंदुस्तान की सबसे बड़ी खाप| ऐसी खाप जिसके गढ़ गज़नी से ले लिसाढ़-शामली तक गढ़-गढ़ी-खेड़े-खेड़ी-किस्से-कहानी बिखरे पड़े हैं|
अब पढ़ क्या रहे हो? पढ़ के डरो मुझसे| क्योंकि एक तो मैं जाट, ऊपर से हरयाणवी और सबसे बिघन की बात "खाप वाला जाट"; खाप यानी खौफ?

माफ़ करना परन्तु तुमको नेशनल मीडिया से ले, तथाकथित एनजीओ, तथाकथित गोल बिंदी गैंग, तथाकथित जाट बनाम नॉन-जाट, तथा कथित 35 बनाम 1, तथाकथित फंडी-पाखंडियों ने जाट-खाप-हरयाणा इन तीन शब्दों से दशकों से डराया ही इतना जो हुआ है! अरे सिर्फ तुम क्या, आधे से ज्यादा तो खुद जाट इन तीनों पहचानों से परेशान हैं| इतने परेशान कि बहुतेरे तो खुद को जाट ही कहने से घबराते हैं, बहुत से हरयाणवी शब्द से कन्नी काटते हैं और खाप शब्द तो बाजे-बाजे सुनना ही नहीं चाहते| और जहाँ मैं पहुँच चुका हूँ यानि पेरिस-लिल्ल-फ्रांस में, यहाँ बैठ के जाट-खाप-हरयाणा पे बात करूँ तो इसको पिछड़ापन कहने वाले भी बहुतेरे हैं कि देखो इस मूर्ख को, वहां बैठ के भी जाट-खाप-हरयाणा करता रहता है|

परन्तु मैं ठहरा जन्मजात प्रचारक| वर्णवादियों की तरह किसी से ना खुद को बड़ा बताता और ना किसी को छूत-नीच-गंवार कहता| बस प्रचार करता हूँ, इस जूनून की वजहें पूरा लेख पढ़ के समझ आएँगी| इसलिए पढ़ने लग तो गए ही हो 2-4-5 मिनट लगा के अंत तक पढ़ना|

बहुत बार सोचा करता हूँ कि नेशनल मीडिया द्वारा इतना एंटी जाट-खाप-हरयाणा प्रचार के बावजूद भी आज के दिन सारे भारत के हर कोने की ओर से कामगारों-मजदूरों-रेफुजियों-शरणार्थियों-व्यापारियों का माइग्रेशन इसी "जाट-खाप-हरयाणा" की छाप से बाहुल्य धरा की तरफ है| कमाल है मीडिया इनको इनसे इतना डराता है और यह फिर भी यहीं खिंचे चले आते हैं? तो कुछ तो है जालिम इस "जाट-खाप-हरयाणा" में कि ऊपर गिनाए आधा दर्जन-भर से ज्यादा इन शब्दों से नफरत वालों के बावजूद भी हर कोई इन्हीं की तरफ खिंचा चला आता है| तो ऐसा क्या माद्दा-जज्बा है यहाँ कि यह धरती सबको आसरा देती है, उनको भी जो कभी टीवी के डब्बों में तो कभी सामाजिक नफरतों में "जाट-खाप-हरयाणा" को पानी पी-पी के कोसते हैं?

बस ओये फूल कुमार बहुत हो चुका, अब पाठकों को मुद्दे की बात पर ले आ| और बता तेरे यहाँ हॉनर किलिंग, भ्रूण हत्या आदि की बदनामी के अलावा औरतों के नाम पर कुछ पॉजिटिव भी है या नहीं? तो चलिए आज "अंतराष्ट्रीय महिला दिवस" के अवसर पर जानते हैं कि इस "खाप-खेड़े-खेत" में औरतों के लिए मुस्कराने व् गर्व करने जैसा क्या है|

यूरोप में एक कहावत है कि जेंडर न्यूट्रैलिटी (यह लोग औरत को देवी या दुर्गा कहने की कभी नहीं कहते, बस उसको अपने बराबर मान लो वही बहुत है) जितनी ज्यादा रखोगे उतने समर्थ-समृद्ध और शालीन बनोगे| अब सोचोगे कि "जाट-खाप-हरयाणा" और "जेंडर न्यूट्रैलिटी"; क्यों मजाक करते हो साहेब|

मजाक नहीं, दावा भी नहीं परन्तु इतना कहैबा जरूर करूँगा कि जो कोई हिंदुस्तान में यह दावा करता हो कि हिंदुस्तान में उनके समाज-समूह-राज्य में सबसे ज्यादा जेंडर न्यूट्रैलिटी है या रही है, वह "जाट-खाप-हरयाणा" वाले समाज में औरत बारे एक बार यह नीचे लिखे पहलु जरूर पढ़ लें|

वैसे आगे बढ़ने से पहले मैं "जाट-खाप-हरयाणा" शब्दों को "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" टर्मिनोलॉजी से बदल कर इस लेख की असली आत्मा में जाना चाहूंगा| दरअसल "जाट-खाप-हरयाणा" तो इसको मीडिया व् इसके एंटी लोगों ने बना छोड़ा है| अन्यथा यह है "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" का कल्चर|

तो यह रही हैं "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में औरत के मान-सम्मान-स्थान-किरदार-हैसियत-हस्ती की स्वर्णिम बातें-रीतें-रवाजें:

1) धोक-पूजा-पुजारी का विभाग शुद्ध रूप से है ही औरतों का इस कल्चर में: दादा नगर खेड़ा (दादा भैया, गाम खेड़ा, ग्राम खेड़ा आदि) में मूर्ती नहीं होती, पूर्वजों को ही भगवान माना है इस कल्चर ने| इन खेड़ों में कोई पुजारी नहीं होता| दिया-ज्योत सब औरतें करती हैं, खुद करती हैं| यहाँ तक कि मर्दों को बच्चे से वयस्क और वयस्क से ब्याहता होने तक के तमाम मुख्य पड़ावों पर मर्द की पूजा (धोक मारना) तक औरत करवाती हैं| है ना गजब की बात? पूरे विश्व में यह इतनी सुंदर परम्परा व् औरत के महत्व की बात मैंने तो आज तक नहीं देखी| और यही वजह रही कि यहाँ कभी देवदासी कल्चर नहीं मिलता| क्योंकि पूजा-धोक आदि के कार्य में पुरुष ने कभी दखलंदाजी ही नहीं करी इस कल्चर में| परन्तु जहाँ-जहाँ करी वहां देख लो दक्षिण-पूर्वी-मध्य भारत में देवदासियों से ले प्रथमव्या व्रजसला की सामूहिक सीलभंग के रिवाज जैसी कितनी घिनौनी हरकतें होती हैं धर्मस्थलों के गृभगृहों में| और हमारे पुरखे पुरुष को पुजारी बनाने के यह नेगेटिव पहलु जानते थे इसीलिए कभी दादा खेड़ों की पूजा पुरुष के सुपुर्द नहीं की बल्कि आज भी यह महिलाओं के ही हाथ में है|

2) माँ का सरनेम (गौत) औलाद का सरनेम हो सकता है: और पूरे विश्व में यह अद्भुत सिस्टम इस "खाप-खेड़ा-खेत" वाले कल्चर वालों के यहाँ पाए जाने वाले "ध्याणी-देहल की औलाद" व् "दादा नगर खेड़ा के जेंडर न्यूट्रैलिटी" नियम के तहत होता है| बताओ और कहीं होता हो तो पूरे हिंदुस्तान तो क्या विश्व तक में?

3) स्वेच्छा से विधवा पुनर्विवाह अथवा दिवंगत पति की सम्पत्ति पर आजीवन बसे रहना: यह बात अपनी विधवा बेटी-बहुओं को उसके दिवंगत पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर वृन्दावन व् गंगा के घाटों वाले विधवा आश्रमों में भेजने वालों या विधवा को मनहूस बता ताउम्र काल-कोठरियों में गुजरवा देने वालों को जरूर अटपटी लगेगी| परन्तु यह होता है "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में| और यह होता है "शादी से पहले बेटी का हक बाप के और शादी के बाद पति के" नियम के तहत| शादी के बाद पति का हक वाकई में उसका रहता है फिर चाहे पति पहले मर जाए या बाद में| मेरे कुनबे-ठोले में मेरी चार काकी-ताइयाँ ऐसी हैं जो विधवा होते हुए भी स्वेच्छा से पुनर्विवाह नहीं करते हुए, अपने दिवंगत पतियों की प्रॉपर्टी पर शान से बसती हैं| कोई माई का लाल उनको उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में बिठवाने की कह के तो दिखा दे, जो ना खाल तार लें तो साले की|

4) तलाक का गुजारा भत्ता: हिंदुस्तान में तो तलाक पर गुजारे भत्ते हेतु कानून 2014 में आया परन्तु इस कल्चर में "दो जोड़ी जूती व् नौ मण अनाज" के नियम के तहत यह कानून सदियों से चलता आया| तो सोचो जो कल्चर तलाक के बाद भी औरत के हक-हलूल बारे सदियों पहले से जागरूक रहा हो, उसमें औरत का सम्मान किस दर्जे का रहा है? और ये काल के कुतरु, 2014 में इस पर कानून बनवा के औरतों के अधिकारों के मसीहा बनने को फिरते हैं और चले आते हैं इस कल्चर को औरत के हक-हलूल सिखाने| यह तो मेरी दादी वाली वही बात हो गई कि "छाज तो बोले, छालणी भी क्या बोले जिसमें बहतर छेद"|

5) गाम-गौत-गुहांड की बेटी सबकी बेटी (यह जट्टचरयता का नियम है): कोई कहता है कि ब्रह्मचारी रहने हेतु औरतों से दूर रहो, ब्रह्मचर्यता करो; कोई कहता है कि गुरुकुलों में रहो; परन्तु "गाम-गौत-गुहांड" का नियम यानि जट्टचरयता कहता है कि समाज में रहते हुए जट्टचारी रहो और बस मुझे निभा दो, संयम-सामर्थ्य-संकल्प-साहस सब सहसा ही आ जायेगा| बताता चलूँ कि ऐतिहासिक वजहों से कई गाम ऐसे भी हैं जो गौत को छोड़ते हैं, गाम व् गुहांड को नहीं| तो कह रहा था कि जरूरत ही नहीं कान फड़वाने या दर-दर मंगता बनने की| बस गौत भी छोड़ दो, गुहांड-गाम छोड़ दो तो और भी बढ़िया| बाकी, कृपया हमारे इस नियम को योगी आदित्यनाथ के "एंटी रोमियो स्क्वैड" या "बजरंगदल" वालों से मत तोलना| क्योंकि "गाम-गौत-गुहांड" छोड़ के सबसे ज्यादा लव-मैरिज हमारे यहाँ ही होती हैं| चार लव मैरिज तो मेरे ही परिवार में हैं| दो और होती, परन्तु उनके अपने गलत व् जल्दबाजी भरे चुनाव के चलते सिरे नहीं चढ़ पाई| हाँ तो अब चार लव मैरिज कह दी तो क्या सबकी लव-मैरिज ही हो जाएगी, कोई गलत चॉइस करेगा तो पीछे भी हटना पड़ जाता है|

बाकी यह भ्रूण-हत्या जैसी चीजें सब एक्स-रे व् अल्ट्रा साउंड की मशीनें आने के बाद के चोंचले हैं| मेरी आठ बुआ हैं, मेरे बाप-काका-ताऊ-फूफा-मामा वाली पीढ़ियों में सबकी 5-5, 6-6 बहनें हैं| तो बताओ पुराने जमाने में किधर थी भ्रूण हत्या या बेटियों को जिन्दा होते ही मारने की रवायतें? यह सब अभी के नए चोंचले हैं और वह भी तथाकथित पढ़े लिखों के ज्यादा|

अक्सर महसूस करता हूँ कि "जाट-खाप-हरयाणा" में औरतों इतनी ज्यादा दुखी या प्रताड़ित होती जितनी कि इनकी एंटी-ताकतें दिखाती हैं तो प्रकृति ही नहीं बनाती इस धरा को इतना समृद्ध व् हरा-भरा|

बिंदु-पहलु और भी बहुत हैं, परन्तु लेख बड़ा ना हो जाए इसलिए यहीं विराम ले रहा हूँ| इस लेख का उद्देश्य ध्यान में रखते हुए हरयाणा में औरतों की बुरी दशाओं बारे किसी अन्य लेख में लिखूंगा| आशा करता हूँ कि लेख को पढ़ना सार्थक रहा होगा| आपको आपकी कल्चर बारे सुखद अहसास व् गर्व अनुभव करने की बातें जानने को मिली होंगी|

बस एक चीज सीखी जगत में, कल्चर से मत भटको; भटके तो खुद को यूँ जानो ज्यूँ बिना पते की चिठ्ठी| फिर चाहे गाम में रहो, शहर में या विदेश में; अपने कल्चर को अपनी पहचान को ओढ़ के चलो| रोजगार-व्यापर आदि के चलते जरूरत पड़े तो नफरत करने वालों को इसे मत दिखाओ, बेशक उनसे छुपा के रखो परन्तु दिल-आत्मा-दिमाग में सजा के रखो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक