जैसा कि मैंने पहली पोस्ट में वचन दिया था, अब मैं विस्तार से बताऊँगा कि भाटों ने अपनी वंशावलियों में जाटों को क्यों और कब राजपूतों की सन्तान बताना शुरू किया। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम के पीछे दो प्रमुख कारण हैं, जो एक-दूसरे से जुड़कर एक षड्यन्त्रकारी कारण-श्रृङ्खला बनाते हैं।
सबसे पहले हमें यह ऐतिहासिक तथ्य ज्ञात होना चाहिए कि सल्तनत काल से पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में काग़ज़ का प्रचलन नहीं था, इसीलिए लेखन कार्य ताड़-पत्र, भोज-पत्र अथवा कपड़े पर होता था, जो अत्यन्त महँगा, नाज़ुक और अल्पायु था। इन सामग्रियों पर लिखे गये ग्रन्थ:
- बहुत कम सङ्ख्या में लिखे जा सकते थे
- मुख्यतः धार्मिक ग्रन्थ ही लिखे जाते थे
- मठों और मन्दिरों तक सीमित रहते थे
- प्रत्येक 100-150 वर्षों में नष्ट हो जाते थे,
- इसीलिए बारम्बार उनकी नक़ल बनानी पड़ती थी
ऐसी परिस्थिति में हज़ारों जातियों और उनके भीतर पाए जाने वाले सैकड़ों गोत्रों की विस्तृत वंशावलियाँ लिखना व्यावहारिक रूप से असम्भव था। इसीलिये प्राचीन भारत में जाति-पुराण अथवा गोत्र-वंशावलियाँ नहीं मिलतीं हैं। मात्र कुछेक पौराणिक चरित्रों और बड़े राजवंशों की ही टूटी-फूटी वंशावलियाँ पुराणों में मिलती हैं।
सल्तनत काल में तुर्क मुसलमान भारत में दो निर्णायक तत्त्व लेकर आए:
1. मिस्र मूल का काग़ज़: सस्ता, टिकाऊ, और व्यापक उत्पादन के योग्य
2. ईरानी राजनीतिक संस्कृति: जिसमें वंशावली-लेखन सत्ता को वैध ठहराने का प्रमुख औज़ार था
ईरान में यह परम्परा पहले से स्थापित थी कि कोई भी राजवंश अथवा स्थानीय सामन्त अपनी वंशावली लिखवाता था और स्वयं को प्राचीन, दिव्य और वैध शासक सिद्ध करता था। सल्तनत काल में यही मॉडल भारत में आया।
विदेशी मुसलमानों के अलावा, वंशावलियाँ लिखने की इस नई रणनीति को सबसे पहले राजपूत राजाओं ने अपनाया। उन्होंने अपनी पहचान को 'स्थिर' और 'दैवी' बनाने के लिये स्वयं को:
- राम के वंशज (रघुवंशी)
- कृष्ण के वंशज (यदुवंशी)
- अर्जुन के वंशज (तोमरवंशी)
- किसी ऋषि के वंशज (ऋषिवंशी)
घोषित करना शुरू किया। इस प्रकार राजपूत राजाओं की वंशावलियाँ चार श्रेणियों में गढ़ी गयीं। राजपूतों ने ब्राह्मणों के पुराणों से पौराणिक चरित्रों की वंशावलियाँ उठायीं और अपने ज्ञात ऐतिहासिक पूर्वजों को उनसे जोड़ दिया। बीच के रिक्त स्थान को भरने के लिए अनेकों काल्पनिक पूर्वज भी बना लिए।
राजपूत राजाओं ने वंशावलियों का उपयोग केवल अपनी सत्ता वैध ठहराने के लिये नहीं किया, बल्कि अन्य समुदायों को मानसिक रूप से अधीन करने के लिये भी किया। जिस प्रकार ब्राह्मणों ने राजपूतों को नियोगी सन्तानें बताकर उन्हें द्वितीय श्रेणी का क्षत्रिय सिद्ध किया था, उसी तकनीक को पलटते हुये राजपूतों ने अन्य जातियों को अपनी अवैध संतानें अथवा पतित शाखा। इस कार्य में भाटों को लगाया गया।
भाट प्रत्येक समुदाय के घर-घर गये। लोगों से उनके पुरखों के बारे में जितनी स्मृति थी, उतनी संग्रहित की। फिर उनके गोत्रों के उद्गम को आसपास के किसी राजपूत सामन्त अथवा मुखिया से जोड़ दिया। उदाहरणस्वरूप: जाटों में किसी गोत्र का नाम 'सिद्धू' मिला, तो उन्होंने 'सिद्धू राव' नामक काल्पनिक पूर्वज तैयार कर दिया, भले ही इस गोत्र का वास्तविक नामकरण किसी अन्य कारण से हुआ। फिर सिद्धू राव को कुछ काल्पनिक पूर्वजों के माध्यम से जैसलमेर के भाटी राजपूत वंश से जोड़ दिया गया।
यह प्रक्रिया वैसी ही थी, जैसे नया बिजली कनेक्शन। हम नया बिजली कनेक्शन लेने के लिए ठेठ पॉवरहाउस से नई पॉवरलाईन नहीं खींचते है, बल्कि किसी पड़ोसी खम्भे से ही सर्विस केबल जोड़ देते हैं।
चूँकि भाट यह दावा करते हैं कि उनके पास ब्रह्मा से लेकर श्रृष्टि की उत्पत्ति तक, श्रृष्टि के उत्पत्ति से लेकर मनु के जन्म तक, मनु के जन्म से लेकर चार वर्णों की उत्पत्ति तक, चार वर्णों की उत्पत्ति से लेकर परशुराम युद्ध और परशुराम युद्ध से लेकर अब तक का सारा इतिहास लिखा हुआ है, इसीलिए किसी ग़ैर-राजपूत जाति के गोत्र को किसी पड़ोसी राजपूत राजा से जोड़ने के कारण वो सारी बकवास को फिर से लिखने से बच गए। इस प्रकार अन्य जातियों की वंशावलियाँ राजपूतों की वंशावलियों की ही सप्लीमेंट्री भाग बन गई।
चूँकि प्रत्येक जाति का प्रत्येक गोत्र एक बहुत बड़े भूभाग में बिखरा हुआ था, इसीलिए एक ही गोत्र की वंशावली कई सारे भाटों ने तैयार की, जिसके उनका मूल तीन से चार राजपूत वंशों से जोड़ दिया और उनको आपस में तोड़ दिया। जैसे किसी क्षेत्र में बेनीवाल चौहान बना दिए गए और अन्य क्षेत्र में भाटी।
यह प्रक्रिया बाहर से 'भाईचारा' लगती है, पर वास्तव में यह मानसिक दासता थी। लोगों के मन में यह बैठाया गया कि:
- तुम पिता की ओर से राजपूत हो
- पर माँ की ओर से नहीं
- इसीलिए तुमको मूल राजपूत से पृथक् कर दिया गया
- इसलिये तुम छोटे, पतित, अयोग्य भाई हो
इससे अन्य जातियों और समुदायों को यह विश्वास हो गया था कि:
- राजपूत हमारे अपने महान नायकों की संतानें हैं
- राजपूत राजा अनन्त काल से शासक बने हुए हैं
- राजपूतों का शासन प्राकृतिक और दैवी अधिकार है
- राजपूतों के विरुद्ध विद्रोह पाप है
- अन्य जातियाँ अपने पुरखों की नीचता के कारण राजपूतों से नीची हैं, क्योंकि उन्होंने अंतर्जातीय विवाह किए और राजपूत जाति से बाहर निकाल दिए गए।
जाटों के साथ एक दूसरी समस्या भी थी। इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि जाटों का हिन्दूकरण केवल मुग़ल काल में ही हुआ, उससे पहले नहीं। इससे पहले जाट एक स्वतन्त्र नृवंश समुदाय (distinct ethnicity) थे, जिनकी अपनी सांस्कृतिक परम्परायें, विधिक व्यवस्था, नैतिक मूल्य, लोककथायें और लोकगीत विद्यमान थे।
जब जाट नेताओं और सामाजिक नेताओं को ब्राह्मणों ने हिन्दू बनने के लिये प्रेरित—अथवा धोखे से तैयार—किया, तो उनके सामने एक बहुत ही सीमित विकल्प-संरचना थी। क्योंकि हिन्दू धर्म में ब्राह्मण केवल वो ही बन सकते हैं जो स्वयं को वैदिक ऋषियों का सीधा वंशज सिद्ध कर सके। ब्राह्मण कभी भी किसी बाहरी अथवा विदेशी समुदाय को ब्राह्मण नहीं बनने देंगे—यह असम्भव है।
यदि ब्राह्मण कभी भी किसी बाहरी समुदाय को ब्राह्मण नहीं बनने दे सकते, तो राजपूत (वैकल्पिक क्षत्रिय)—जो ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार परशुराम-युद्ध के पश्चात् नियोग से उत्पन्न हुये—क्यों किसी को राजपूत बनने देंगे? लेकिन राजपूतों अथवा ब्राह्मणों को इससे कोई आपत्ति नहीं थी कि यदि कोई 'पतित राजपूत' बनने के लिए तैयार हो जाए।
वैसे भी कोई बाह्य योद्धा समुदाय ब्राह्मण अथवा वैश्य अथवा शूद्र बनने की बजाय क्षत्रिय अथवा राजपूत बनना अधिक पसंद करेगा। स्वयं ब्राह्मणों ने तो शकों से लेकर मुग़लों तक के बाह्य योद्धा समुदायों को क्षत्रिय घोषित किया था। स्वयं राजपूतों ने तुर्क और मुग़ल वंशों को जैसलमेर के भाटी राजपूत राजवंश से निकला बताया हैं।
इसी मध्य, यदि इराक़ के लोग हिन्दू बन जाते, तो भाट उनको इराक़ राव भाटी के वंशज बता देते। यदि मिस्र के लोग हिन्दू बन जाते, तो भाट उनको मिश्रीलाल परमार के वंशज घोषित कर देते। यदि सीरिया के लोग हिन्दू बन जाते, तो भाट उनको श्रीमल तोमर के वंशज बना देते। यदि यमन के लोग हिन्दू बन जाते, तो भाट उनको यमराव प्रतिहार के वंशज घोषित कर देते।
सो हिन्दू खुजली वाले जाट नेताओं के सामने केवल एक ही 'सम्मानजनक' विकल्प बचा: राजपूतों की अवैध सन्तान होने का दावा स्वीकार करना। यद्यपि यह दावा उन्हें 'अपूर्ण राजपूत' बनाता था, फिर भी यह:
- वैश्य/शूद्र बनने से अच्छा था
- हिन्दू समाज में कुछ सम्मान दिलाता था
- ज़मींदारी और सैन्य भर्ती में सहायक था
लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि जाट नेताओं ने अपनी स्वतन्त्र जातीय पहचान का त्याग कर दिया और स्वयं अपनी अधीनता को वैध ठहराने में सहयोग किया। इस प्रकार जाट नेताओं की मूर्खता और राजपूत राजाओं की कुटिलता एक हो गई और इस पापी गठबंधन का परिमाण यह हुआ कि जाट मानसिक रूप से हिजड़े बन गए।
औरंगज़ेब के शासन काल में जाटों ने मुग़ल क्षेत्रों में मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध एक भारी विद्रोह किया, जिसकी जानकारी आप सब लोगों की पहले से ही ज्ञात है। जाटों ने सिंधु से गंगा नदी के मध्य मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के झण्डे बुलन्द किए और उन्होंने मुग़ल साम्राज्य की छाती पर मूंग दलने शुरू कर दिए। जाटों ने मुग़ल साम्राज्य की तीनों शाही राजधानियों—आगरा, दिल्ली और लाहौर—को लूटा और लाहौर से अलीगढ़ तक अपने राज्यों को खड़ा किया।
वहीं राजपूताना क्षेत्र के जाटों पर भाटों की झूठी वंशावलियों का प्रभाव यह हुआ कि यहाँ जाट अफीम के नशे में धूत रहने और मुग़ल साम्राज्य के पिट्ठू बने राजपूत राजाओं के सामने चूं तक नहीं की। यहाँ तक कि ब्रिटिश काल में भी कोई भगत सिंह ब्रिटिश क्षेत्र में जन्मा, किसी राजपूत क्षेत्र में नहीं। राजपूत राजाओं के विरुद्ध विद्रोह करना जाटों के लिए एक बहुत बड़ा पाप हो गया था। सो वो चुपचाप उनके अन्यायों को सहन करते रहे और अवैध राजपूत संतानें बनने का मानसिक सुख लेते रहें।
इसीलिए अब जाटों के पास सम्पूर्ण हिन्दू सभ्यता के विरुद्ध विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। इसी के लिए #DiA आया। - Shivatva Beniwal
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