Tuesday, 4 June 2019

सीएम खटटर खुद को जाट बोल/बुलवा रहे हैं तो आप क्यों बौरा रहे हैं?

ऐसी कुछ रिएक्शंस आई हैं मेरे पर्सनल बॉक्स में मेरी कल वाली इस विषय पर लिखी पोस्ट को लेकर, जिसमें मैंने कही है कि अगर सीएम वाकई जाट हैं और वह राजनीति से परे सच्ची नियत रखते हुए खुद को लोकल जाट जाति में शामिल करना चाहते हैं तो इस पर जाट को भी विचार करके, बड़ी पंचायत कर लेनी चाहिए|

जैसा कि मैंने उस पोस्ट में कही यह दूसरी बार है जब सीएम जैसा यह प्रयास हो रहा है| पहला प्रयास जब 1947 में आये थे तब भी हुआ था| इस पर सीएम की बात को आगे रखते हुए, एक बार बैठ कर ऑफिसियल स्तर पर विचार कर लेना चाहिए| अगर सिर्फ पोलिटिकल स्टंट होगा तो वह भी पता चल जायेगा और अगर वाकई में वह जाट हैं वह भी सामने आ जायेगा| और ऐसे ही यह तमाम जातियां डिकोड होकर अपनी-अपनी स्थानीय जातियों में मर्ज हो जाती हैं तो इसके फायदे बहुत हैं:

1) 35 बनाम 1 का मुद्दा अपनी मौत खुद मर जायेगा|
2) इस 35 बनाम 1 के चलते आज हरयाणा, पंजाब के 1984 जैसे हालातों से गुजर रहा है और एक ऐसी भट्टी पर धधक रहा है कि एक छोटी सी करेली (छड़ी से दबी आग को उभारना) भी पूरी स्टेट को लपेटे में ले सकती है और अगर ऐसा हुआ तो सब ओर अव्यवस्था व् अराजकता फ़ैल जाएगी| और कहीं ना कहीं सीएम को इस बात का भान है शायद इसलिए वह ऐसा प्रयास करते होते हो सकते हैं; वही बात जो बार-बार दोहरा रहा हूँ कि क्या पता उनकी मंशा सच्ची हो| कम-से-कम इस पर एक पंचायत बुलाने में क्या हर्ज है? वरना कल को प्रदेश 1984 वाले आतंकवाद वाली मारकाट में उलझ गया तो कौन जिम्मेदार होगा?
3) कई कह रहे हैं कि फिर सर छोटूराम ने जिन सूदखोरों व् ढोंगी-पाखंडी फंडियों के खिलाफ किसान-मजदूरों-व्यापारियों के हकों बाबत आंदोलन किया था उनका क्या? उनसे इसी शैली में सवाल है कि जिन किसान-मजदूरों-व्यापारियों के लिए आंदोलन किया था क्या वह उधर वाले पंजाब में नहीं थे? थे ना, तो किधर हैं वो आज? कुछ मुठ्ठीभर की वजह से अलगाव रख के रहना कहाँ तक जायज है? वही सर छोटूराम वाली बात, उनको पहचानों और उनसे बचो; बाकियों को क्यों एक ही लपेटे में ले रहे हो? और ऐसे लोग क्या तब के इधर वाले पंजाब में नहीं थे या आज नहीं हैं?

मेरा तो अनुरोध रहेगा अगर कोई सामाजिक-पंचायती आदमी इस पोस्ट को पढ़ रहा हो तो बेशक इस लेख को किसी भी आम या खास पंचायत को पहुंचवा दीजिये और कहिये कि सीएम की इस एप्रोच पर एक बार बैठकर विचार जरूर करें| इससे दोनों ही बातें हो जाएँगी, अगर यह मिथ्या प्रचार होगा तो यहीं के यहीं थम जायेगा अन्यथा वही बात हरयाणा में नए सामाजिक समीकरण उभरेंगे जो 35 बनाम 1 के मुद्दे को तो बैठे-बिठाये निगल जायेंगे| और वैसे भी यह प्रयास सीएम की तरफ से है वह भी दूसरा ऐसा प्रयास; तो एक बार बैठ के बतलाने में क्या हर्ज?

मैं तो पूरा सहयोग करने को तैयार हूँ इस मुद्दे पर| जो शोध या स्ट्रेटेजी बनानी हो इस पहलु की सत्यता हेतु उस पर विचार को भी तैयार व् योगदान को भी| बाकी जिनको नाज के बहल की मारणी है, वह मारते रहें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अगर जैसा फैलाया जा रहा है वैसे मनोहरलाल खट्टर वाकई में जाट हैं तो!

बात थोड़ी मेरे बचपन से: हमारे गाम में एक दुकान को "पाकिस्तानी की दुकान" बोला जाता था| मेरी दादी जी जब भी मेरे से कुछ सामान मंगवाती तो कहती कि "पाकिस्तानी वाली दुकान" से लाना, ताकि उसकी कुछ आमदन हो जाए और उसका घर ठीक से चलता रहे| इसको दादी जी की मानवता ही कहूंगा| जात-बिरादरी समझने की जब तक अक्ल ना आई तो यही समझता रहा कि जाट-बाह्मण-कुम्हार आदि की तरह पाकिस्तानी भी कोई जाति ही होगी| परन्तु जब जानने लगा कि पाकिस्तान एक देश है तो एक दिन दादी से ही पूछा कि ऐसा है तो फिर उस दुकान वाले पाकिस्तानी ताऊ की बिरादरी क्या है?

तो दादी ने बताया कि जातियां तो इनकी भी हमारी तरह ही हैं, अन्यथा कौनसा पाकिस्तान बॉर्डर के उधर जातियाँ नहीं थी; परन्तु क्योंकि जब यह आये-आये थे तब इनके प्रयासों के बावजूद यहाँ लोगों ने इनको अपनी-अपनी बिरादरियों में जाति बताने के बाद भी स्वीकार नहीं किया तो यही इनकी पहचान बन गई|
दादी से पूछा कैसे प्रयास?

तो दादी बोली कि जब यह लोग वहां से आये थे तो यहाँ अपनी-अपनी जातियों के लोकल लोगों के साथ रिश्ते चाहते थे और अपनी-अपनी जाति में मिक्स होना चाहते थे| परन्तु स्थानीय लोगों ने उस वक्त के अविश्वसनीय माहौल को देखते हुए, इनको मिक्स करने में झिझक दिखाई| अन्यथा हिन्दू समाज के वर्णों के अनुसार चार वर्ण व् एक अवर्ण इनमें भी हैं| मैंने कहा चार वर्ण तो हुए बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व् शूद्र, यह अवर्ण कौन हैं? दादी बोली कि जाट अवर्ण हैं यानि हम, हमारे पुरखे इस चतुर्वर्णीय व्यवस्था को नहीं मानने वाले रहे हैं| और इसी वजह से ऋषि दयानन्द जैसे समझदार बाहमण हमें "जाट जी" व् "जाट देवता" कहते-लिखते-बोलते आये हैं|

खैर, यह तो है इस पहलु का वह इतिहास जो मेरी दादी जी से सुना-जाना| अब बात, फ़िलहाल चल रही सोशल मीडिया पर इस बात कि "हरयाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर खुद को जाट प्रचारित करवा रहे हैं" की|
इसके दो हवाले खुद सीएम के मुख से सुनने को आये हैं|

एक अभी निबटे लोकसभा चुनाव-प्रचार के दौरान उन्होनें रोहतक के निंदाना गाम की सभा में वहां के जाटों को यह कहा है कि, "हूँ तो मैं भी जाट ही, परन्तु पाकिस्तान से आया होने की वजह से आप लोग नहीं मानते वह अलग बात है"|

दूसरा वाकया रोहतक के ही मदीना गाम के सरपंच के साथ उनके सामाजिक संबंधों से निकल कर आता है, जहाँ इनके दूर के मामा भी रहते हैं जो कि ढिल्लो गौती जाट हैं|

खैर, मेरे लिए यह अचरज की बात नहीं क्योंकि चौधरी भजनलाल भी गैर-जाट की राजनीति करते-करते अंत में जाट ही निकले जो कि वह हैं भी| बस जाति छुपाकर गैर-जाट राजनीति करते रहे|

अब ऐसे मौके पर जबकि चार महीने बाद हरयाणा में विधानसभा चुनाव सामने खड़े हैं, उस वक्त पर सीएम खट्टर का यह जाट-प्रेम किन मंशाओं के चलते है बारीकी से समझने की बात है|

अगर यह सिर्फ जाट वोट लेने के चक्कर में है तो फिर जाट बनाम नॉन-जाट व् 35 बनाम 1 क्यों होने दिया हरयाणा में? होने दिया सो होने दिया, इसको अब खत्म करवाने हेतु क्या प्रयास रहेंगे सीएम के? और क्या यह सिर्फ आगामी विधानसभा में वांछित बहुमत के लिए जाट वोट कितना अहम् है यह भान के हो रहा है, प्रचारित करवाया जा रहा है?

राजनीति के परे अगर यह वाकई में सामाजिक स्तर पर मिक्स होने की दूसरी कोशिश (पहली कैसे हुई थी उस बारे ऊपर बताया) है तो सीएम को इसके लिए बाकायदा एक समिति बना के इस पर पूरी शोध करवानी चाहिए व् उन परिवारों से इसकी सत्यापना करवानी चाहिए जो आज के इंडिया-पाक बॉर्डर के दोनों तरफ के 100-50 किलोमीटर के दायरे में रहते थे व् आपस में वैवाहिक रिश्ते थे| यही वह परिवार हैं जो इस बात को सही से हल करवा सकते हैं| उस वक्त वाले प्रयास सिरे ना चढ़े हों परन्तु क्या पता अब वाले चढ़ जाएँ अगर वाकई में इसको लेकर सीएम की सोच व् नियत सूची है तो|

परन्तु कहीं यह इलेक्शन के वक्त का सीएम का जाट प्रेम इनकी पार्टी की पॉलिटिक्स तो नहीं ले डूबेगा? पता लगा जाट बनने के चक्कर में जाट बनाम नॉन-जाट हुआ पड़ा सारा माहौल ही पलटी मार गया और सब बीजेपी को छोड़ अन्यत्र चले गए? कितने जाट फेस सीएम नहीं चाहने वाले लोगों को झटके लगेंगे यह जानने पर कि भजनलाल की तरह यह भी जाट निकले?

अगर यह प्रचार कोरी राजनीति से प्रेरित है तो नहीं ही हो तो बेहतर अन्यथा अगर सीएम इसको सामाजिक बँटवारा पाटने हेतु कर रहे हैं तो यह विचारणीय कदम है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 3 June 2019

यह "भाऊ को भी हाऊ" कहने वाला कल्चर है, इसको ना जान्ने वाले बुरा ना मानें!

बड़े चौटाला साहब द्वारा हरयाणा सीएम को खटटर कहने के प्रकरण पर यह मेरी दूसरी व् अंतिम पोस्ट है|
इसमें है हरयाणा लाइव टीवी वाली महिला एंकर को मेरा जवाब, जो हरयाणवियों को मानवता-सभ्यता का पाठ पढ़ा रही थी|

मीडिया व् राजनीति में बैठे जितने भी लोग चौटाला साहब के बयान को बेवजह का तूल दे रहे हैं उनको बता दूँ कि यहाँ व्यक्तियों-क्षेत्रों-बोलियों के अपभृंश व् उपहास करने का विश्व का सबसे श्रेष्ट कल्चर है, इसलिए बुरा ना मानें|

यहाँ तो पानीपत की तीसरी लड़ाई जीतने को अपनी औरतों समेत आये सदाशिवराव भाऊ के जुल्म-क्रूरता-निर्दयिता को देख हमारी औरतों ने "हाऊ" शब्द घड़ लिया था| आज भी औरतें छोटे बच्चों को देर-सवेर बाहर निकलने या रात को सोते वक्त, वक्त से नहीं सोने पर यह कह के सुला देती हैं कि, "सो जा नहीं तो हाऊ खा ज्यांगे"| और उनके पास इसकी सबसे बड़ी वजह थी बिना युद्ध जीते, अपनी औरतें साथ ला, उनपे दुश्मन के जुल्म ढलवाने व् उनके कत्ले-आम व् बलात्कार होने की वजह बनना| यह तो जाट थे यहाँ सो मरहम पट्टी करके इनको बचा लिया वरना अब्दाली ने तो एक-एक तो मार देना था| और क्योंकि यह विश्व की सबसे बड़ी मूर्खता थी कि युद्ध जीते नहीं और अति-आत्मविश्वास की अति करते हुए औरतों-बच्चों को भी हाँक लाये| इसलिए हरयाणवी औरतों के मुख से "भाऊ" की जगह "हाऊ" कहलाये|

तो इस कल्चर ने तो ऐसे-ऐसे खब्बी-खां मजाक के पात्र बनाने से नहीं बख्शे तो आप क्यों मुंह सुजा रहे हो? आप क्यों इसको सभ्यता-मानवता-शालीनता का मुद्दा बनाते हो? और गजब की बात तो यह है कि इसको मुद्दा मीडिया में बैठी उस वर्ग की औरतें ज्यादा बना रही हैं जो यदाकदा जाटों के यहाँ औरतों की स्थिति को भी ऐसी दयनीय बता के दर्शाने से बाज नहीं आती हैं कि जैसे जाट तो औरत के मामले में सबसे क्रूर लोग हैं विश्व के|

जबकि इनके खुद के समाजों में इनकी इतनी भी औकात नहीं कि अपने मर्दों से मंदिरों में 50% पुजारी की पोस्टों पर पुजारनों का हक मांग सकें| 100 में असल तो 100 नहीं तो 99% पुजारी पोस्टों पर मर्द कब्जे किये बैठे हैं परन्तु इनको फिर भी औरतों के हक-हलूल दूसरों के यहाँ सही नहीं हैं वही दीखते हैं| चिंता ना करो अपने मर्दों से अपने यह हक तक नहीं मांग सकने तक की गुलामों, जाटों ने तो अपने "दादा नगर खेड़ों" में पूरा 100% पूजा-धोक का हक दे ही अपनी औरतों को रखा है| मर्दवाद को तो हम पूजा-पाठ के मामले में घुसने भी नहीं देते|
हाँ, यह टीवी सेरिअल्स, फ़िल्में और जगराते-भंडारे-चौंकियों की बहकावे में पड़ बहुत सी जाटणियां अपने कल्चर की इस ख़ूबसूरती से उल्टी हटी हुई सी दिखती हैं| क्योंकि शायद इनको मेरे जैसे ऐसे मानवीय पहलु दिखाने वाले जाट समाज में ही बहुत कम हैं तो कमी हमारी ही है| वरना जिस दिन हमने अपनी जाटणियों को अपना कल्चर उतनी सीरियसनेस से बताना शुरू कर दिया जितनी से तुम्हारे वाले तुम्हें बता के भी तुम्हारा 50% पुजारन का हक नहीं देते, उस दिन हमारे वाली तो थारे तोते उड़ा देंगी|

खैर, लब्बो-लवाब यही है कि "अधजल गगरी छलकत जाए" वाले ढकोसले कम-से-कम हमारे सामने तो करो मत| तुम में, तुम्हारे समाजों-वर्णों में मानवता-सभ्यता का क्या अर्श है और क्या फर्श है भलीभांति जानते हैं| वही बात जाओ पहले अपने हक ले लो अपने मर्दों से, फिर चाहे तुम "गोल बिंदी गैंग वाली हो" या मेरी दादी की भाषा में "चुंडे पाटी हुई हो" या लटूरों वाली हो| हमें पता है हम क्या हैं, यूँ ही नहीं सारा भारत तुम्हारी मीडिया वाली ही भाषा में कही जाने वाली "जाटलैंड" पर मजदूरी-दिहाड़ी-रोजगार-व्यापार करने चला आता है| यहाँ तक कि मुंबई में बाल ठाकरों व् राज ठाकरों से पिटे-छीते हुए व् गुजरात से भर-भर ट्रेनें उत्तर-पूर्व को भगाये हुओं को भी यही मीडिया की भाषा वाली "जाटलैंड" अंतिम आसरा दिखती है|

हरयाणवियों, यह लेख उस हरयाणा लाइव वाली एंकर को भेज देना जिसका बोलने का लहजा भी उत्तर-पूर्व भारत का है| और वहां अपनी स्टेट सुधारने हेतु वहीँ रह के कुछ करने के बजाये, चली है यहाँ आ के हरयाणवियों को शालीनता-सभ्यता सिखाने| अपने टूक खा लो टिक कें, हरयाणा से यू आड़े भाऊ का हाऊ बनाते आये, थमनें क्यों मुंह सुजाये?

"कह दो इन भांड-भंडेले-बेसुरों को कि तुम्हारी कहबत में ना हम अपने हास्यरस व् हास्यरंग का गला घोटेंगे, यूँ ही ठहाके म्हारे पुरखों ने ठोकें और यूँ ही हम ठोकेंगे"! वरना थारी कहबैत में तो हम अपनी बहु-बेटियों को साउथ इंडिया की भांति देवदासी बना के मंदिरों में पंडों के लिए परोस तक दे तो सभ्य व् शालीन ना कहलाएं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"हमें दिमाग की ताकत के साथ शरीर की ताकत भी चाहिए होगी" - बंच ऑफ़ थॉट्स पुस्तक में आरएसएस संस्थापक गोलवलकर के विचार|

इन्हीं को फॉलो करके, कितना भी बड़े दिमाग वाला हो वह भी आरएसएस की दी लाठी काँधे पर रख मार्च पास्ट करता देखा गया है| परन्तु सलंगित अख़बार को देखिये, यह शारीरिक बल का मजाक उड़ा कर सीएम साहब क्या गोलवलकर की बात का उलंघन व् अनादर नहीं कर रहे हैं? और दिमाग की ताकत पर इनको भी भरोसा नहीं तभी रोज आरएसएस में लाठियां भांजते हैं, वही शारीरिक ताकत हासिल करने को जिसका यह खबर मजाक उड़ा रही है? यानि एक हिसाब से स्वीकार रहे हैं कि हममें शारीरिक बल तो है ही नहीं, दिमाग की ताकत भी उतनी नहीं कि लाठी का सहारा ना लेवें? यानि घूम फिर के दिमाग की सारी तिगड़म लगा के भी आखिरकार आरएसएस की शाखाओं में पकड़ते तो वही लाठी हैं, जिसका फूफा लठ हर हरयाणवी के घर में बाई-डिफ़ॉल्ट रखा होता है?

तो बताओ अक्ल बड़ी या लाठी? गोलवलकर के अनुसार तो दोनों ही जरूरी| तो जब दोनों ही जरूरी तो यह चिढ़ कैसी? इस हिसाब से तो बल्कि हरयाणवी दोनों का बेजोड़ मेल हुआ? वरना क्या बिना अक्ल ही हरयाणा देश की सबसे अमीर स्टेट कहलाती, देश के सबसे ज्यादा करोड़पति ग्रामीणों की स्टेट कहलाती? अक्ल होगी तभी तो जोड़ा होगा? और लठ तो बाई-डिफ़ॉल्ट ट्रेडमार्क है ही हरयाणा का|

हाँ, हरयाणवी लोकतान्त्रिक होते हैं, बाँट के खाना-खिलाना जानते हैं, मुसीबत में पड़े को अपने रिसोर्सेज दे बसाना जानते हैं तो इसका मतलब यह थोड़े हुआ कि वह कंधे से ऊपर कमजोर हो गए; यह तो मानवता हुई ना?
सो टेंशन नहीं लेने का, सीएम साहब, आपके गुरु का जो नियम आरएसएस की शाखाएं भी ज्वाइन करके लोग हासिल नहीं कर पाते यानि बुद्धि व् लाठी दोनों की ताकत, एक हरयाणवी वह बाई-डिफ़ॉल्ट ले के पैदा होता है प्लस में वह तीसरी ताकत लोकतान्त्रिक मानवता भी लिए होता है| जिसके चलते मुंबई-गुजरात से पिट-छित के आये उत्तरी-पूर्वी भारतीय भी हमारे हरयाणा में ही सबसे ज्यादा सेफ रोजगार पाते हैं|

अत: जिस लेवल की अक्ल व् कंधे से ऊपर की मजबूती का शायद आप इशारा (चार-सौ-बीसी, दगाबाजी, टैक्सचोरी, 99 का फेर आदि-आदि) कर रहे हैं वह हमें चाहिए भी नहीं| वैसे भी हमें अपने लठ की ताकत से खुद ही डर लगता है इसलिए इसको आप भी मत जगाएं| यह सोई हुई ही अच्छी है, अन्यथा जब-जब जागी है तो शिवजी उर्फ़ दादा ओडिन-जी-वांडरर की भांति धरती के सारे जहर को साफ़ कर-कर गई है|

और ऐसे विचार रखकर भी आप "हरयाणा एक, हरयाणवी एक" जैसे नारे कैसे दे लेते हैं? इस खबर से साबित होता है कि हरयाणा में पैदा होकर भी हरयाणवी नहीं बन पाए आप तो| ऐसी धूर्तता अगर आपके अनुसार दिमागी ताकत है तो यह आपको ही मुबारक| वह चूहे-बिल्ली वाली बात| बिल्ली ने मारा झप्पटा चूहा जा घुसा बिल में, बिल्ली को उसकी पूँछ ही हाथ लग पाई| बिल्ली ने चूहे को बिल के अंदर आवाज लगाई कि, "आ जा रे चूहे तेरी पूंछ जोड़ दूँ"| चूहा बोला, "ना री मौसी रहने दे, हम तो यूँ लांडे ही खा कमाएंगे"| तो इतनी हद से ज्यादा अक्ल का भी क्या करना सीएम साहब जो समाज में तानाशाही/वर्णवादिता की परिचायक बन जाए|

वो जैसे कहते हैं ना कि साइंस तभी तक भली जब तक उसका पॉजिटिव प्रयोग हो, नेगटिव प्रयोग होव तो विश्व का विनाश कर दे साइंस| ऐसा ही मसला दिमाग की ताकत का है, पॉजिटिव व् मानवीय दिशा में इस्तेमाल करें तो सार्थक नहीं तो सब निरर्थक|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Sunday, 2 June 2019

ना मरया रे बेटा सींक-पाथरी, ना मरया रे आहुलाणे-मदीनें; अर जा मरया रे बेटा गैभाँ के निडाणे!

लेख का कनेक्शन हरयाणा सीएम को चौधरी ओमप्रकाश चौटाला जी द्वारा "खट्टर" कहने से है| वास्तविक हरयाणवी कल्चर क्या है, यह भी आपको इस लेख में बारीकी से जानने को मिलेगा, अत: पूरा पढियेगा|

यह ऊपर शीर्षक वाला क्रंदन आज से पांच-छह पीढ़ी पहले जागसी गाम में हुए नामी धाड़ी दादा निहाल सिंह की मेरे गाम निडाना में मौत होने पर उनकी माँ ने उनकी लाश देखकर चीत्कार किया था| हरयाणा में बदमासी के नाम से सबसे मशहूर गामों में नाम है गोहाना वाली जागसी का| "गैभाँ" शब्द का शुद्ध हरयाणवी भाषा में अर्थ होता है, "शुरू-शुरू में लड़ाई से डरने वाले, कन्नी काटने वाले, एक जगह कमा के मानवता को सर्वोपरि रख के बसने वाले परन्तु सर पे आई पे उठा-उठा पटकने वाले"| और ऐसा हुआ भी है, इसी निडाना में| दादा चौधरी सहिया सिंह मलिक (सांजरण पान्ने की उदमी क्लैन में हुए हैं) जैसे 100-100 घोड़ों से सजी गाम लूटने चढ़ने वाली धाड़ को अकेले वापस मोड़ने वाले अमर यौद्धेय निडाना के खेड़े में हुए हैं और धाड़ों से आमने-सामने की टक्कर में 18-18 को अकेले मौत के घाट उतारने वाले दादा चौधरी गुलाब सिंह मलिक (भंता पान्ने से, अक्सर पूछा करता हूँ कि इस भंते शब्द का बुद्ध धर्म वाले भंते से कोई कनेक्शन लगता है) भी हुए हैं| इस गाम के लोग वह हैं जिनसे प्रेरणा पा यहाँ के बाह्मणों तक ने अपनी विधवा बेटियों के पुनर्विवाह शुरू किये| आज से लगभग सौ साल पहले दादा जी गूगन बाह्मण ने उनकी विधवा बेटी (म्हारी बुआ, 36 बिरादरी की बेटी-बुआ, म्हारी बेटी-बुआ, यह सगी बुआ-बेटी के पैरलेल होती हैं) का पुनर्विवाह किया तो उनको गाम के बाह्मणों ने पंचायत कर जात-बिरादरी से गिरा गाम निकाला दिया तो गाम के जाटों ने गाम में मलवे ठोले की तरफ अपनी जमीनों पर बसाया व् खेती-बाड़ी को जमीनें दी| परन्तु गाम नहीं छोड़ने दिया क्योंकि दादा गूगन ने मानवता का वह काम किया था जिसके लिए जाट समाज पूरे विश्व में जाना जाता है|

यह रेपुटेशन रही है हरयाणा में जिला जिंद के निडाना नामी गणतंत्र, निडाना नगर खेड़े की| इस नगर शब्द को वह लोग अच्छे से समझ लें जो खामखा अपने को ग्रामीण कहते हैं, यह नगर शब्द हमारे गाम-खेड़ों के साथ तब से है जब जींद हो, रोहतक हो, सोनीपत हो, दिल्ली हो या 1947 में बसा कुरुक्षेत्र (इससे पहले कुरुक्षेत्र नाम के शहर का कोई रिकॉर्ड नहीं इंडिया में, किसी को बहम हो तो दूर कर लेना) हो, यह या तो बसे नहीं थे या गाम यानि हमारे नगर खेड़ों जैसे ही थे| जिसको इन बातों पर बहस करनी हो खुला स्वागत है| हरयाणवी कल्चर ना ग्रामीण कभी था ना आज है, आगे आपने धक्के से इसपे ग्रामीण का ठप्पा लगवाना हो तो नादानियों से लगवाते रहो| और ऐसी ही कहावतें-सामाजिक रुतबे व् आंकलन की बातें/कहावतें/लोकोक्तियाँ यहाँ हर गाम-नगर खेड़े रुपी गणतंत्र की हैं| जब तक आप हरयाणा के इस गणतंत्र रुपी कांसेप्ट को नहीं समझेंगे यहाँ के कल्चर के हास्यरंग व् हास्यरस आपको समझ नहीं आएंगे| अगर आप "गैभ" हैं तो यह कल्चर आपको गैभ ही कहेगा यही इसका बेबाकपना व् स्वछंदता है|

हरयाणवी भाषा की आठ मुख्य बोलियाँ हैं व् दस इसके जियोग्राफिक घेरे हैं जो यह हैं बाँगरू (बांगर), बागड़ी (बागड़), देशवाली/खादर, खड़ी बोली (नया शब्द कौरवी), रांगड़ी, ब्रजभाषा, मेवाती, अहिरावती| मेरा गाम पड़ता है बांगर व् खादर के बॉर्डर पर, ठेठ बांगर वाले हमें खादरी बोलते हैं और ठेठ खादर वाले बांगरू|

तो यह तो है यहाँ की कल्चरल सरंचना की कुछ बेसिक सी बातें| अब आते हैं विवादों में चल रहे "खट्टर" शब्द पर:

खट्टर हरयाणवी कल्चर में गौत भी है जो अरोड़ा/खत्री, जाट व् राजपूत तीनों में तो पक्के से पाया जाता है और आवारा पशु व् नालायक इंसान को भी यहाँ "खट्टर" ही कहते हैं व् कंडम हो चुकी बस-गाड़ी को "खटारा" कहते हैं|

सर छोटूराम की यूनाइटेड पंजाब सरकार में यूनियनिस्ट गवर्नमेंट के 2 दफा प्रीमियर रहे जनाब सर सिकंदर हयात खान, "खट्टर" गौती मुस्लिम जाट थे|

हरयाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर भी खुद को बार-बार जाट बता रहे हैं| ताजा मामला अभी लोकसभा चुनाव प्रचार में रोहतक के गाम निंदाना व् मदीना में उनकी जुबानी ही सुनने को मिला है| जिसमें निंदाना में उन्होंने चुनावी सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि पाकिस्तान से आया हूँ इसलिए आप नहीं मान रहे परन्तु मैं हूँ जाट ही| मदीना में तो सीएम के मामा हैं जो ढिल्लो गौती हैं, दूर के मामा हैं शायद|

अब बात उनकी जो "खट्टर" शब्द पर चौटाला साहब की टिप्पणी को व्यर्थ का मुद्दा बना रहे हैं|

एक तो यह वही लोग हैं जिन्होनें जब 2005 में चौटाला साहब की जगह हुड्डा साहब सीएम आये थे तो कहा था की "टांग-टांग बदली, बाकि तो वही है" यानि लंगड़िये की जगह दो टांग वाला आया है परन्तु है जाट ही| तो अभी चौटाला साहब के बयान पर मान-मर्यादा-सभ्यता का उवाच करने वाले, यह मात्र 15 साल पहले की अपनी सभ्यता ना भूलें और "नई-नई डूमणी अल्लाह ही अल्लाह पुकारे" की तर्ज पर ज्यादा सभ्य दिखाने और वास्तविक सभ्य होने में क्या फर्क हैं यह समझ लें|

दूसरा हरयाणा में चौटाला शब्द लंगड़े का प्रतीक भी माना जाता है और इसको ऐसा पकाने में सबसे ज्यादा योगदान जाट समाज का ही है|

चौधरी बंसीलाल के जमाने में जब भी किसी के यहाँ भैंस को कटड़ा होता था तो सब कहते थे कि बंसीलाल हुआ है|

मेरे जुलाने हल्के व् जिंद जिले में हुए दादा दल सिंह को "पानी का बादल" व् "भिंडा झोटा" कहते थे|

और आज के दिन गली-गोरों पर घुमते आवारा सांडों को क्या गाम वाले और क्या शहर वाले सब देखते ही बोलते हैं "खट्टर आ गया"| ना बोलते हों शहरों वाले भी तो बता दो?

जहाँ तक व्यक्तिगत बदजुबानी की बात है तो खुद सीएम खट्टर का 3 साल पहले का वह बयान भूल गए क्या जिसमें उन्होंने कटाक्ष किया था कि "हरयाणवी कंधे से ऊपर कमजोर व् नीचे मजबूत होते हैं"? तब तो किसी मीडिया ने हल्ला नहीं मचाया था यूँ?

वैसे बता दूँ, हरयाणवी दोनों ही से मजबूत होता है| बस थोड़ा लोकतान्त्रिक ज्यादा होता है, जिसको आपने उसकी बौद्धिक कमजोरी समझ लिया है| आपकी समस्या क्या है कि आप सिर्फ बुद्धि से मजबूत हैं शरीर से नहीं, इसलिए आपको बुद्धि ही सब कुछ दिखती है| परन्तु ऐसा होता तो आरएसएस के संस्थापक गोलवलकर उनकी पुस्तक "बंच ऑफ़ थॉट्स" में यह नहीं लिखते कि, "हमें दिमाग व् शरीर दोनों की ताकत संचित करनी होगी, चाहिए होगी"| और आपको बचपन से शायद चिड़ यह लगी कि हरयाणवी मानुष गोलवलकर महाशय की इस परिभाषा पर बाई-डिफ़ॉल्ट सेट बैठते हैं| आपको अपने ही गुरु का दिया मंत्र याद नहीं रहता, आखिर क्यों? यह कौनसी कमजोरी की निशानी है, दिमागी या शारीरिक?

यहाँ बाँगरू का मजाक बागड़ी बनाते हैं और बागड़ी का खादरी व् खादरों का खड़ी बोली वाले व् खड़ी बोली वालों का ब्रज वाले व् ब्रज वालों का अहिरावती वाले और अहिरावती वालों का बाँगरू| और ख़ास बता दूँ, यह लेग-पुल्लिंग करने वाले भी सबसे ज्यादा हरयाणवी चाहे किसी भी बिरादरी के हों और सबसे ज्यादा नकल घड़ने वाले भी हरयाणवी|

यह विश्व की सबसे लोकतान्त्रिक धराओं में से एक है, यहाँ "अनाज के ढेर पर बैठा जाट, राजा को उसका हाथी के बेचे है के" कहते रहने का कल्चर रहा है| यहाँ जिसको आप-हम अल्ट्रा मॉडर्न एडवांस कॉर्पोरेट कल्चर में बैठ "सर/मैडम" की बजाये डायरेक्ट नाम से बोलने को सिविलाइज़ेशन कहते हैं, यह हरयाणवी कल्चर में सदियों से रहा है| इसलिए यहाँ "आ जाट के", "आ बाह्मण के" बोल के आपको एक चमार जाति वाला बुलाता रहा है और "आ धानक के", "आ कुम्हार के" बोल के झीमर व् जाट बुलाते रहे हैं| ग्लोबल गूगल (Google) कंपनी में जो "एम्प्लायर-एम्प्लोयी" की बजाये "वर्किंग पार्टनर" का कल्चर है वह हरयाणा में "सीरी-साझी" शब्द के नाम से सदियों-युगों से चलन में है|

तो यहाँ यह राजशाही/तानाशाही/वर्णवाद की उच्चता-नीचता ना तो ढूंढना, ना कभी एक्सपेक्ट करना और ना ही थोंपने की कोशिश करना| और यह संदेश इस मुद्दे को बेवजह इतना तूल दिए हुए मीडिया के गैर-हरयाणवी भांड अच्छे से समझ लें| इन बातों पर ऐसे-ऐसे लजवाना कांड हो जाते हैं जिनके बारे आज भी पंजाब-पटियाला में कहावत चलती है कि, "लजवाने रे तेरा नाश जाईयो, तैने बड़े पूत खपाये"| जब तक बिखरे चलते हैं चलते हैं परन्तु जब सर जोड़ते हैं तो कटटर दुश्मनी वाले दादा भूरा सिंह व् दादा निंघहिया सिंह की तरह जोड़ते हैं व् पूरी की पूरी रियासत के ग्रास का काल बन जाते हैं|

आप हमारा कल्चर सीखना नहीं चाहते, हमारी भाषा बोलना नहीं चाहते, इससे नफरत भी करते हैं तो भी हमारे लिए चलेगा| कोई भी हिंदुस्तानी नागरिक देश के किसी भी कोने में रोजगार कर सकता है रह सकता है सिर्फ इस तर्ज पर हरयाणा में अपने अस्तित्व व् रिहायश को जस्टिफाई करने वालो हमें कोई दिक्क्त नहीं आपसे, परन्तु याद रखना यही हिंदुस्तान का कानून हमें हमारे कल्चर-मान-मान्यता को बचाने-बढ़ने व् प्रचारित रखने का भी अधिकार देता है| आप हमारे मुँहों पर ऐसे पट्टी नहीं रख सकते|

और रखने का बहम भी कभी मत पालना| क्योंकि हम महाराजा सूरजमल के अंश हैं, सहते हैं जब तक सहते हैं और जब विदा करने पर आते हैं तो हम मुंबई के बाल ठाकरों व् राज ठाकरों की भांति पीटते नहीं, गुजरात वालों की तरह गाड़ियां भर के भी नहीं भेजेंगे, अपितु पानीपत की तीसरी लड़ाई वाले पेशवों की जैसे मरहमपट्टी करके धुर घर तक छुड़वाए थे ऐसे छुडवायेंगे| तब ना रो पाओगे और हंस पाओगे| हमारे कल्चर-मान-मान्यता के उपहास या इसको कुचलने व् खत्म करने के सपनों में सिर्फ ग्याभण ही हुए रह जाओगे|
इधर थोड़ा हरयाणवियों से भी अनुरोध है कि मीडिया या सरकार के हर एजेंडा में गंडासे में चढ़ते गैरे की ढाल मत चढ़ा करो| कुछ देर इनके तमाशे भी देखा करो, इनको फूं-फ़ां करके शांत होने का मौका दिया करो| उससे भी जरूरी, कोई मुद्दा कितना दूरगामी है वह आंकलन करके अपने स्टाइल में प्रतिक्रिया दी जाए तो बेहतर व् इनके शब्द अपने मुंह में रखे जाने से खुद को बचाया जाये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक