Saturday, 31 August 2019

कहाँ था हरयाणवी कल्चर और कहाँ जा रहा है, जरा एक झलक देखिये!

जेंडर सेंसिटिविटी, जेंडर इक्वलिटी, औरत के सम्मान व् फेमिनिज्म तक की बातें करने वाले तो ख़ासा ध्यान देना!

"हो बाबा जी तेरी श्यान पै 'बेमाता' चाळा करगी,
कलम तोड़गी लिख दी पूँजी रात-दिवाळा करगी!"


बचपन से यह रागनी सुनके बड़ा हुआ हूँ, जिसको जब भी सुनता था तो हरयाणवी कल्चर में फीमेल का क्या ओहदा है स्वत: ही समझ आती थी| वह 'बेमाता' शब्द के जरिये इंसान को घड़ने वाली कही जाती थी, वह एक औरत बताई गई| परन्तु अब बदल रहा है कुछ, कैसे:

"बटुआ सा मुंह लेरी, पतली कमर,
आम जी नैं छोड़ी कोन्या किते रै कसर"

'आम', की जगह असल में क्या है इस गाने को सुनने वाले समझ ही गए होंगे| मैं इस जगह जो असल है उसका एक मैथोलॉजिकल अवतार के तौर पर बहुत सम्मान करता हूँ और यह दुर्भाग्य ही है कि इस मुद्दे पर ध्यान दिलवाने हेतु इस बात को इस तरीके से रख रहा हूँ| क्योंकि सीधा नाम ले के इनसे जुडी लोगों की भावना नहीं दुखाना चाहता परन्तु बात रखनी भी जरूरी थी तो राखी|

आदरणीय लेखकों और गायकों; अगर आप वाकई हरयाणवी कल्चर के पैरोकार हैं तो क्या बेमाता का ओहदा 'आम' को शिफ्ट करना, एक कल्चर में औरत के सम्मान का जो ओहदा है वह मर्द पर शिफ्ट कर देना नहीं है?
एक तो नेशनल से ले स्टेट मीडिया तक वैसे ही हरयाणवी कल्चर को घोर मर्दवादी बताने पर दिन-रात पिला रहता है तो ऐसे में किस से उम्मीद करूँ इसमें औरत के सम्मान की जो धारणाएं-मान-मान्यताएं हैं उनको बचाने की?

फ्रांस में रहता हूँ, औरत को सम्मान देने के मामले में इनसे बेहतर कल्चर आजतक नहीं देखा| भारतीय परिवेश में इस तरह का इसके नजदीक लगता कोई कल्चर है तो उसमें मैं सिखिज्म व् हरयाणवी को बहुत आगे काउंट करता हूँ| इतना आगे तो जरूर कि अगर कोई कम्पेरेटिव स्टडी खोल के बैठे तो उनको इतना तो जरूर साबित कर दूँ कि हरयाणवी कल्चर औरत को सम्मान देने में अन्य किसी भारतीय कल्चर से इतना ज्यादा तो जरूर है कि वह 19 की बजाये 21 साबित होवे|

अत: इन कलाकारों, लेखकों से इतना अनुरोध करूँगा कि एक ऐसे वक्त में जब सामाजिक संस्थाओं से ले समाज के जागरूक लोग तक इन चीजों की बजाये घोर राजनीति में ही उलझे पड़े हैं तो ऐसे में इन चीजों को मेन्टेन रखने की आपकी जिम्मेदारी सबसे बड़ी है| कृपया इसको सिद्द्त व् जिम्मेदारी से निभाएं| हो सके तो इस नए गाने के लेखकों गायकों तक जरूर यह बात पहुंचाएं और बताएं कि ठीक है धन कमाना भी जरूरी है परन्तु जहाँ कल्चर की कात्तर-कात्तर बिखरती दिखें उस राह जाना पड़े, आप इतने भी कम टैलेंट के साथ नहीं ज्वाजे हो बेमाता ने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कल्चर बनाम संस्कृति!

वेस्टर्न वर्ल्ड में "कल्चर" शब्द "कल्ट" यानि "खेती" से बना है और हमारे यहाँ यह शब्द एक भाषा संस्कृत पर बना है जिसको बोलते ही मुश्किल से 1% लोग हैं| तो व्यापक स्तर पर जनसंख्या "कल्चर" शब्द में कवर हुई या एक सिमित दायरे में बोले जाने वाली भाषा वाले शब्द से? यह सवाल उन ज्ञानियों से है जो यह कहते हैं कि हमारी शब्दवाली ज्यादा उत्तम व् व्यापक है? इसका एक अर्थ यह भी है कि एक भाषा से इस शब्द को बनाने वालों के लिए बस उस भाषा को बोलने वाले ही कल्चर्ड हैं बाकी सब नगण्य| यह है वेस्टर्न वर्ल्ड के शब्दों की व्यापकता जो मेजोरिटी को कवर करते हैं, मात्र 1-2% को नहीं, फिर चाहे वह मेजोरिटी खेती करने वालों की हो या इससे उतपन्न अन्न से पेट भरने वालों की यानि 100% वह भी 100% दिन ऑफ़ लाइफटाइम| वह कल्चर शब्द से उस कृषक को भी आभार व्यक्त करते हैं जो ना हो तो जीवन में अन्न खाने को ना मिले जो कि हर जीवन का आधार है यानि पूर्णतया कृतज्ञ लोग व् कृतज्ञ सोच वाला कल्चर| भाषा तो वेस्ट वाले भी बोलते हैं परन्तु उन्होंने "कल्चर" के लिए "खेती से जुड़ा शब्द क्यों चुना", इनकी भाषा से ही जुड़ा चुन लेते? दोनों ही शब्दों से कोई बैर या हेय नहीं है, बस सवाल उठा तो पूछा; जिस महाज्ञानी के पास जवाब हो तो जरूर देवे| अन्यथा सोचिये इस पर, क्योंकि आपकी मानसिक गुलामी यहीं पर बंधी प्रतीत होती है|

बचपन से सुनते आये थे और तथाकथित हरयाणवी-कल्चर को कम जानने वाले व् इसका उपहास उड़ाने वाले पत्रकार अक्सर जब ताऊ देवीलाल से यह पूछते थे कि, 'बाकी सब तो ठीक है, पर आपका कल्चर क्या है?" तो वो म्हारा बुड्ढा, म्हारा पुरख इनको सही इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड का जवाब दिया करता था कि, "म्हारा कल्चर सै एग्रीकल्चर"| और जो कोई भी हरयाणवी, हरयाणे के ग्राउंड जीरो से बाहर देश-स्टेटों के शहरों या विदेशों में आन पहुंचा है वह सहज ही उस म्हारे पुरखे की इस बात को समझेगा, इसके मर्म को समझेगा|

ईबी खुद को खेती से जोड़ने से शर्म आती हो जिसने, उसको यह लेख पढ़वा दियो|

विशेष: संस्कृत तीन साल पढ़ी है, 95-97/100 नंबर से कभी कम ना आये, संस्कृति शब्द भी सुनहरा है, इसका मान-सम्मान-ओहदा सब कायम है मेरी नजरों में और रहेगा; परन्तु बात वह होनी चाहिए जो व्यापकता को समाहित करती हो, तभी तो असली "वसुधैव कुटुंभ्कम" चरितार्थ होवेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 17 August 2019

ओहो तो "नरसी के भात" वाला किस्सा यह है!

जिसको अक्सर ऑडियो केसेट्स के जरिये बचपन से कृष्ण से जुड़ा हुआ बता के फैलवाया गया है? यह फंडी भी ना मेरे बटे कति तैयार बैठे रह सैं कि समाज में आर्गेनिक तरीके से कुछ फेमस हुआ नहीं और इन्होनें जुट जाना उसपे अपनी स्टाम्प लगा के गाना-बगाना|


ऐसे ही "बाला जी जट्ट" जिन्होनें महमूद ग़ज़नवी से सोमनाथ मंदिर का लुटा हुआ खजाना वापिस लूट लिया था, उनको उठा के हनुमान जी से जोड़ दिया और "बाला जी" टेम्पल्स सीरीज ही चला दी| तो भाई "बाला जी जट्ट" कह के पुजवाने में क्या ऐतराज था आपको, फिर कहोगे कि जाट खार क्यों खाता है| तुम तथ्यों को ज्यों-का-त्यों बना के प्रचारित क्यों नहीं रखते हो, क्या कोई दान-चढ़ावे के जरिये धन की कमी रखता है जाट तुम्हें सही-सही प्रचार करने हेतु?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

My challenge to you: मुझे मेरी 17 पीढ़ियों के नाम पता हैं, आपको कितनियों के पता हैं?


1) फूल मलिक पुत्र 2) (राममेहर मलिक + माँ दर्शना प्रेमकौर) पुत्र 3) (स्व. फतेह सिंह + दादी खुजानी धनकौर) पुत्र 4) स्व. लछमन सिंह पुत्र 5) स्व. शादी सिंह पुत्र 6) स्व. गुरुदयाल (गरध्याला) सिंह पुत्र 7) स्व. बख्श सिंह पुत्र 8) स्व. दशोधिया सिंह पुत्र 9) स्व. थाम्बु सिंह पुत्र 10) स्व. शमाकौर सिंह पुत्र 11) स्व. डोडा सिंह पुत्र 12) स्व. इंदराज सिंह पुत्र 13) स्व. राहताश सिंह पुत्र 14) स्व. सांजरण सिंह पुत्र 15) स्व. करारा सिंह पुत्र 16) स्व. रायचंद पुत्र 17) स्व. मंगोल सिंह

Note: तीसरी पीढ़ी के बाद की दादियों के नाम और पता लगाने हैं|

दादा चौधरी मंगोल जी महाराज ने अपने सीरी भाई दादा श्री मिल्ला कबीरपंथी के साथ सन 1600 में मोखरा, महम रोहतक से आकर अपना "दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर, निडाना" बसाया था| दादा मंगोल जी के नाम पर ही निडाना के "मंगोल वाला जोहड़" का नाम है|

मोखरा से पहले गठवालों की लेन जाती है गढ़-ग़ज़नी से आ कासण्डा, गोहाना में "दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर" स्थापित करने वाले दादा मोमराज जी महाराज से| क्योंकि वह गढ़ ग़ज़नी की बेगम से लव-मैरिज करके लाये थे इसलिए कटटर टाइप हिन्दू, गठवालों को एक मुस्लिम लड़की से ब्याह करने के कारण "महाहिंदु" भी बोलते हैं| और इसी के चलते मुग़लों ने कभी गठवाले जाटों की बारातों में धौंसा बजते नहीं रोका, ना उनकी बारात रोकी| हाँ, एक बार सन 1620 में गठवालों की छोरी का डीघल, 'रोहतक गाम में दिया कलानौर से गुजरता डोला रांघड़ों (हिन्दू राजपूत से कन्वर्टड मुस्लिम को रांघड़ बोलते थे) ने रोकने की कोशिश जरूर की थी जिसका अंजाम सर्वखाप के झंडे तले "कलानौर रियासत को मलियामेट' करने के स्वर्णिम इतिहास के रूप में दर्ज है|

इस हमले को लीड किया था सर्वखाप सेनापति स्व. दादा धोला सिंह सांगवान (age 19 years) ने| जिसकी कि कलानौर रियासत तोड़ने के बाद में गलतफमियों के चलते हत्या कर दी गई थी व् इस पर गठवालों ने अफ़सोस जताते हुए यह फैसला लिया था कि जिस जगह सर्वखाप ने कलानौर रियासत तोड़ने हेतु पड़ाव डाल लड़ाई के लिए "गढ़ियाँ" (मॉडर्न भाषा में फौजी बंकर बनाये थे, वहां "गढ़ी टेकना मुरादपुर" नाम (मुरादपुर इसलिए क्योंकि यहाँ कलानौर रियासत तोड़ने रुपी मुराद पूरी हुई थी, टेकना इसलिए क्योंकि सर्वखाप ने यहाँ अपना पड़ाव टेका था रखा था और गढ़ी क्यों वह आप समझ ही गए होंगे ऊपर पढ़ के) से गाम बसेगा और इस गाम में अन्य बिरादरियों के साथ सांगवान गौत के जाटों का खेड़ा होगा (पहले जबकि प्रस्ताव मलिक जाटों के खेड़े का हुआ था क्योंकि इस लड़ाई का आयोजन मलिक जाटों के आहवान पर ही हुआ था) और गठवाले यानि मलिक जाट इस गाम को अन्य मलिक गांव की तरह भाईचारे के तहत मानेंगे व् इसलिए इस गाम से रिश्ते नहीं बल्कि भाईचारे निभाएगे; जो वीरवर दादा स्व. धोला सिंह सांगवान जी को श्रद्धांजलि स्वरूप आज तलक भी कायम हैं| इसलिए इस आदर-सम्मान स्वरूप इस गाम में मलिक ना छोरी ब्याहते और ना छोरा, बल्कि भाईचारा चलता है| जबकि अन्य गाम के सांगवान जाटों के यहाँ मलिक जाटों के ब्याह-शादी के रिश्ते ज्यों-के-त्यों चलते हैं| यह बात ख़ास तीन दिन पहले ही मुझे पता लगी है, घर से|

गाम के बालक दो-तीन दिन से गाम के ओरिजिन बारे जानकारी चाह रहे थे तो सोचा यह जानकारी देने के साथ-साथ, बाकी साथियों को अपनी पीढ़ियों के नाम गिनवाने का चैलेंज भी दे दूँ| तो दोस्तों बताओ आप आपकी कितनी पीढ़ी गिना/गिन सकते हो?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 16 August 2019

भारत में शिक्षा-स्वास्थ्य को लेकर ग्राउंड जीरो वाले भारतीय तो क्या 90% एनआरआई इंडियंस तक सेंसिटिव नहीं जबकि!


कोई गोरा ना पढ़ ले इसलिए हिंदी में लिख रहा हूँ| सोचा अमेरिका-यूरोप वाली शिक्षा-स्वास्थ्य की सुविधाएँ भी ग्राउंड जीरो पर पहुँचें इस बारे भी बतला लेना चाहिए| वरना पीढ़ियां पेट-भर ठहराएंगी तुमको-हमको|

यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कभी शिक्षा-स्वास्थ्य पर वर्ल्ड इंडेक्स उठा के देखो तो ऐसे-ऐसे कंट्री हमसे ऊपर हैं कि देख के शर्म आ जाए, तुमको-हमको| नहीं यकीन हो तो WTO व् UNSC की रिपोर्ट्स निकाल के पढ़िए|

खैर, इस विषय पर लेख लिखने का मन इसलिए हुआ कि आजकल इंडिया में डॉक्टर्स की सिक्योरिटी पर एक कानून लाये जाने बारे चर्चा हो रही है जिसमें अगर डॉक्टर से मारपीट की तो 10 साल के लिए अंदर जाओगे|

सरकार कानून ला रही है कि डॉक्टर्स से मारपीट की तो 10 साल की सजा तो सरकार जी अगला कानून क्या होगा आपका कि बैंक-जनता के पैसे लूटने वाले मोदी-माल्या-चौकसियों को गाली भी दी तो 10 साल की सजा?

यार पूंजीवाद तो अमरीका-यूरोप में भी है परन्तु किसी को खुल्ला सांड छूटने जैसी आज़ादी देने वाले कानून तो यहाँ भी नहीं| मतलब एक ऐसे माहौल में जहाँ लगभग हर दूसरा इंसान डॉक्टर्स की फीस की मनमर्जी, इलाज में लापरवाही का भुक्तभोगी है वहाँ डॉक्टर्स को ऐसा कानून और बना देना यानि इनको खुल्ला सांड बना देना| यह तो कुछ-कुछ उस रूढ़िवादी वर्णवाद जैसा हो गया कि डॉक्टर की लापरवाही से कोई मरीज का केस बिगड़ गया या मर गया तो बस खामोश रहो, विरोध या आक्रोश अंदर-ही-अंदर पी जाओ| क्या हम कभी इस वर्णवादी, गोबर से भी सड़ी विश्व की सबसे अमानवीय व्यवस्था से उभर भी पाएंगे या कोशिश भी करेंगे?

अरे छोडो यार, ग्राउंड जीरो पर बैठे इंडियंस तो क्या ही कोशिश करेंगे यहाँ तो 90% एनआरआई जो अमेरिका-यूरोप में बैठे हैं यही इस गोबर साइकोलॉजी को नहीं छोड़ पाते| और वह भी वर्ल्ड की बेस्ट हेल्थ एंड एजुकेशन सिस्टम्स में रहते हुए| उदाहरण के तौर पर फ्रांस की बताता हूँ| यहीं का हेल्थ सिस्टम अमेरिका तक में कॉपी हुआ है|

यहाँ एजुकेशन का मतलब है इंसान का उतना ही ज्यादा ह्यूमन ग्राउंड्स पर सेंसिटिव होना, जिम्मेदार होना जितना ज्यादा वह एडुकेटेड है; खासकर अपने देश-कौम की जनता के प्रति या अपने देश में रहने-बसने वालों के प्रति कहिये| जबकि हमारे यहाँ का वर्णवाद इसका बिलकुल विपरीत है, हमारे यहाँ एडुकेटेड होना मतलब सोसाइटी का बटेऊ/जमाई कहलाने जैसा होना, सोसाइटी पर एडुकेटेड होने का अहसान धर हर चीज पर "बाप का राज" टाइप की मेंटालिटी रखना|

पूंजीवाद अमेरिका-यूरोप में भी है परन्तु यहाँ का सिस्टम फेसबुक वाले जुकरबर्ग तक को कोर्ट के कठघरे में खींच लाता है जब बात पब्लिक की प्राइवेसी व् असिमता (dignity) की आती है| ऐसे नहीं कि कितने ही मोदी-माल्या-चौकसी बैंक-जनता के पैसे पर हाथ फेर, जनता की असिमता को ठेंगा दिखाएं परन्तु सरकार-सिस्टम उनका कुछ ना बिगाड़ पाए|

खैर बात फ्रांस के हेल्थ सिस्टम की: 0 से 25 साल तक हर प्रकार का इलाज फ्री (स्कूल के बाद वाले बच्चों पर 200 यूरो सालाना हेल्थ बीमा चार्ज), 26 से 55 साल तक हर प्रकार के इलाज की न्यूनतम 70 से 100% कॉस्ट सरकार भरेगी (इलाज-इलाज पर निर्भर है कि 70% या 100%), बाकी 30% का आपको इंसोरेंस लेना होगा, 55 साल से ऊपर जाते ही फिर इलाज फ्री|

डॉक्टर्स की फीस फिक्स है यूरो 25 डॉक्टर से एक मीटिंग के; चाहे आप सिंपल बीमार पड़ने से ले कैंसर-किडनी-पथरी जिस चीज का इलाज करवाओ, हर डॉक्टर पर सरकार की नकेल है; कोई भी इस फिक्स अमाउंट से ज्यादा चार्ज नहीं कर सकता चाहे 2 साल के अनुभव वाला डॉक्टर हो या 20 साल के अनुभव वाला| मेडिकल स्टोर्स पर बिना डॉक्टर की रिसीप्ट के आप सिर्फ ओटीसी मेडिसिन्स ही ले सकते हो वह भी तब जब आपकी मेडिकल स्टोर वाले से जानकारी हो जाए, अनजान स्टोर वाला आपको ओटीसी भी बड़ी मशक्क्त यानि 70 तरह के सवाल-जवाब के बाद देगा या नहीं ही देगा| झाड़-फूंक-टूना-टोटका-गृह-नक्षत्र देख-बता कर इलाज करने वाले तो यहाँ नाम सुनने तक को भी नहीं मिलते|

यही सिस्टम एजुकेशन का है, एजुकेशन में तो सरकार ने मोबाइल फ़ोन्स का इस्तेमाल तक बंद कर रखा है; वही इस्तेमाल जिसको कभी इंडिया में कोई सामाजिक संस्थाएँ बंद कर देती हैं तो सब तालिबान-तालिबान चिल्लाने लगते हैं| अरे जिन इंडियंस के खुद के बच्चे फ्रांस के मोबाइल यूज़ बंद स्कूलों में पढ़ते हैं, वह तक तालिबानी फैसला कह कर कोसते देखे हैं| किसी में इतनी सेंसिटिविटी नहीं कि अगर उस सामाजिक संस्था का बच्चों के फोन बंद करने का सलीका गलत है तो उनको सही सलीका सुझा सके, क्योंकि फैसला तो सही है| जब फ्रांस में सही है तो इंडिया में कैसे गलत हो जायेगा? परन्तु नहीं, सामाजिक सौहार्द और मेलजोल के नाम पर बस इतने ही सेंसिटिव हैं लोग कि चिल्ला लेंगे परन्तु किसी को फ़ोन करके यह नहीं बोलेंगे कि इस फैसले का टेक्स्ट चेंज करवाना चाहिए|

अब लेख हिंदी में लिखा है तो किसी गोरे के पढ़ लेने का तो भय है नहीं सिवाए अगर कोई इसका ट्रांसलेट मार के पढ़ने तक की जेहमत उठाये तो| दरअसल पेटभर कल्चर है यह वर्णवादी व्यवस्था वाला, जब तक इसको तिलांजलि नहीं दी जाएगी, तब तक ग्राउंड जीरो वाला इंडियन तो क्या 90% एनआरआई इंडियन तक भी ह्यूमन सेंसिटिव नहीं हो सकता|

बिना डॉक्टर्स की फीस व् इलाज में लापरवाहियों बारे सख्त कानून यथास्थान होने के साथ-साथ उनकी इम्प्लीमेंटेशन के ऐसे कानून लाने का पुरजोर विरोध होना चाहिए| यह सीधा-सीधा घिसा-पिटा वर्णवाद, लोगों की छाती पर बिठाने का नया खोल है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक