Thursday, 17 February 2022

यूं ही कैसे भुला दें 19-20-21-22 फरवरी 2016 की शाहकाली थोंपी गई दंगाई रातों को; कोई सनातनी शूद्र थोड़े हैं!

विशेष: इस लेख में सिर्फ कड़वी सच्चाई है, विद्रोह तो हम भगवान के सिवाए किसी का किया ही नहीं करते, क्योंकि हम उस कौम से आते हैं जो अपने खेत बीच खड़ा हो ऊपर वाले से आँखें मिला उसको धमकाने से भी नहीं कतराती| जिसको इस कौम की यह फिलोसॉफी सही-सही समझ आती होगी, वह इस लेख को समझ पाएगा/गी|

इन रातों को थोंपने का सबसे पहला मकसद था: दुनिया की सबसे सेक्युलर कौम, सबसे अवर्णीय, अनस्लीय, मानवीय कौम जिसका कभी प्रवासियों पर मुंबई-गुजरात वाले बाल ठाकरे या राज ठाकरे के भाषीय-क्षेत्रीय आक्षेप व् हमले थोंपने का कोई इतिहास नहीं; अपितु 1761 से भी पहले से ले आजतक अपने बीच सबसे ज्यादा प्रवासी व् परदेसी बसाने व् समाहित करने का इतिहास रहा है; उस कौम को उनसे भी बदत्तर हालातों से गुजारने का मकसद था| मतलब था फंडियों द्वारा इस कौम को साफ़-साफ़ संदेश देना कि तुम्हारा यह सेकुलरिज्म-अनस्लीय-मानवीय होना, हमारी जूती की नौक पे| फंडियों ने इन चार रातों में दिखाया कि यह देखो भीड़ पड़ी में तुम भोले-भंडारियों की ही मदद ले, तुम्हारे बीच बसेंगे भी और तुम्हारे पल्ले यह महानता भी नहीं छोड़ेंगे| यही महानता दागदार की गई थी इस कौम की इन चार रातों में| यह करके भी तुम इनके लिए कभी स्वर्ण नहीं हो सके, हो गए होते तो ऐसा कभी नहीं होता| जिसको बहम हो स्वर्ण होने का, इस कौम से, वह इन चार रातों का जवाब ला दे मुझे| ऐसे में पुरखों का "अवर्णीय" मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग है; जिनको यह स्वर्ण-शूद्र खेलने का शौक चढ़ा है, उनको छोड़ दो इस व्यवस्था में ही| देर-सवेर समझेंगे तो स्वत: ही वापिस आन मिलेंगे|
दूसरा सबसे बड़ा मकसद: इन चार रातों में उगला गया 35 बनाम 1 कुछ और नहीं अपितु, धर्म के क्षेत्र में 1 वाली कौम के बाबाओं-संतों-डेरों के आधिपत्य को क्षीण-हीन कर; उन पर अपनी मोनोपॉली स्थापित करना था| किसी दलित बिरादरी वाले, ओबीसी बिरादरी वाले के कितने डेरे-संत-महंत ऐसे हैं जो धर्म के फील्ड में इन मोनोपॉली चाहने वालों को टक्कर देते हैं? विशाल हरयाणे में तो 40-50% इस 1 बिरादरी वाले ही देते आए हैं| तो असल झगड़ा इस 40-50% को भी हथियाने का है| ख़ास बात यह कि इनमें अधिकतर डेरे स्वर्ण-शूद्र के फंडियों के खेल को चुनौती देने वाली विचारधारा के हुए महापुरुषों पर बने हुए हैं| अगर आभास हो इन डेरों के बाबाओं-संतों को तो करवाओ कि 2014 के बाद से तुम्हारी वैचारिक स्वछंदता किस हद तक छिनभिन्न हुई है| इनसे मुकाबला करना इतना बड़ा भी खेल नहीं है; बस यह इनका खेल समझ, आप लोगों को आपस में सरजोड़ के अपनी स्वछंद परिषद बनाने भर तक की दूरी है|
और इन चार रातों के जहर व् तपन से ज्यादा तथाकथित फलाने-धिमकाणे आतंकवाद के मुद्दे, बेढंगे धर्म के मुद्दे, सच्चे-झूठे जातिवाद के मुद्दे ज्यादा जिनको तकलीफ देते हैं; वह लोग जिंदा होते हुए भी मृतप्राय हैं| इन रातों को भूल अन्य मुद्दों की परवाह करना जैसे कि, "घर में गधी मरी पड़ी व् भाड़े करै सुनपत लग के"| बाकी हम तो भाई कोई सनातनी शूद्र व् वर्णवादी पिछलग्गू नहीं, जो यूं ही भुला देंगे; इस हमारी मानवीय महानता के बदले मिले दंश को| असल खेड़ों वाले हिन्दू हैं, इन बातों से सीख ले अपनी अगली पीढ़ियों को इतना जागरूक व् हर तरह से सुदृढ़ करके जाएंगे कि इनके दांव कब इन पर ही उल्टे पडने लगे इनको समझ भी हैक्का होने के बाद आएगी; जैसे कि 2020-21 का किसान आंदोलन| इस विश्वास की वजह यह है कि फंडी वहीँ सर्वाइव करता है जहां आपकी अनुपस्तिथि हो; जहाँ आप सक्रिय हुए वहां से यह ऐसे भागते हैं जैसे रौशनी के आगे हो अँधेरा भागता है|
अत: आपकी आने वाली पीढ़ियों पर कोई फिर से 19-20-21-22 फरवरी 2016 ना कर पाए इसके लिए जरूरी है कि:
1) अपने पुरखों की किनशिप यानि खाप-खेड़ा-खेत पर सरजोड़ो| जादू है इस किनशिप में|
2) अपनी कौम से बाहर दान देना बंद करो| खासकर फंडियों को तो आज की आज ही बंद कर दो|
3) अपनी किनशिप की बैटन को अपनी अगली पीढ़ी में उसकी 1 से 5 साल की अवस्था में ही स्थान्तरित कर दो|
4) मानवता पालो, परन्तु फंडियों से अपनी फसल-नस्ल दोनों की पुख्ता बाड़ पहलम झटके करो|
5) स्वर्ण-शूद्र में, वर्ण में उलझाने वाली विश्व की सबसे अमानवीय व् नस्लीय व्यवस्था को तिलांजलि दे दो|
6) भाईचारा सबसे पहले अपने के लिए, फिर अहसान जो कौमें मानती-समझती हों उनके लिए; फंडियों व् वर्णवादियों के लिए कभी भी नहीं|
7) फंडियों के साथ सिर्फ कारोबारी रिश्ते रखो; आध्यात्मिक-कल्चरल व् सामाजिक रिश्ते सिर्फ अपनों व् गैर-फंडियों के साथ|
8 - फंडियों को समाज के सबसे बड़े अछूत-मलिन-चांडाल-नीच समझो| इसमें कोई अमानवता मत समझना; क्योंकि किसान खालिस मानवता ही आगे रख, अपनी फसल की आवारा जानवरों से बाड़ ना करे तो घर एक दाना भी खेत से ना ले जा सके| बस यही वाले आवारा जानवर होते हैं फंडी आपकी नस्लों के लिए| इसलिए इतनी न्यूनतम बाड़ जरूरी है, ताकि मानवता भी बची रहे| इसलिए इनसे बचो व् बचाओ|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 14 February 2022

शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष!

कृषि-दर्शनशास्त्र, युद्ध-दर्शनशास्त्र व् वैवाहिक-दर्शनशास्त्रों के प्रख्यात हरयाणवी शेक्सपियर, शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष:

"आह्मी-सयाह्मी":
दादा मेहर सिंह अर दादा लखमीचंद, एक बै सांपले म्ह भिड़े बताये|
दादा लखमी नैं दादा मेहरू धमकाया घणे कड़े शब्द सुणाए||
सुण दिल होग्या बेचैन गात म रही समाई कोन्या रै,
बोल का दर्द सह्या ना जावै या लगै दवाई कोन्या रै|
सबकी साहमी डाट मारदी गलती लग बताई कोन्या रै,
दादा लख्मी की बात कड़वी उस दिन दादा मेहरू नैं भाई कोन्या रै||
सुणकें दादा लख्मी की आच्छी-भुंडी उठ्कैं दूर-सी खरड़ बिछाये||
इस ढाळ का माहौल देख, लोग एक-बै दंग होगे थे,
सोच-समझ लोग उठ लिए, दादा लख्मी के माड़े ढंग होगे थे|
दादा लख्मी के उस दिन के सारे प्लान भंग होगे थे,
लोगां नें सुन्या दादा मेहरु, सारे उसके संग होगे थे||
दादा लख्मी अपणी बात पै भोत घणा फेर पछताए||
दादा मेहर सिंह कै एक न्यारा सा अहसास हुया,
दुखी करकें दादा लख्मी नैं, उसका दिल भी था उदास हुया|
दोनूं जणयां नैं उस दिन न्यारे ढाळ का आभास हुया,
आह्मा-सयाह्मी की टक्कर तैं पैदा नया इतिहास हुया||
उस दिन पाछै एक स्टेज पै वें कदे नजर नहीं आये||
गाया दादा मेहर सिंह नैं दूर के ढोल सुहान्ने हुया करैं सें,
बिना विचार काम करें तैं, घणे दुःख ठाणे हुया करैं सें|
सारा जगत हथेळी पिटे यें लाख उल्हाणे हुया करैं सें,
तुकबन्दी लय-सुर चाहवै लोग रिझाणे हुया करैं सें||
रणबीर सिंह बरोणे आळए नैं सूझ-बूझ कें छंद बणाए||
ऊपर पढ़ी रागणी विख्यात विद्वान्, कवि डॉक्टर रणबीर सिंह दहिया जी की लेखनी में उकेरित है|
दादा मेहरु यानि शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" जन्मदिवस की सभी को शुभकामनायें व् दादा को शत-शत नमन|



Friday, 11 February 2022

कोक्को व् हाऊ!

चौधरी राकेश टिकैत जी को धन्यवाद जो उन्होंने शुद्ध हरयाणवी भाषा के ऐसे शब्द पुनर्जीवित करने का विगत एक साल से जैसे सिलिसला सा चला रखा हो, जो गैर-हरयाणवी पत्रकार लॉबी व् हरयाणवी को हिंदी का सबसेट समझने की भूल करने वालों को सक्ते में डाल दे रहे हैं| जैसे कि "गोला-लाठी दे देंगे", "बक्क्ल तार देंगे", "भुरड़ फेर देंगे" व् कल बोला "कोक्को ले गई"| कोक्को की केटेगरी का एक शब्द और है "हाऊ"| आइए थोड़ा इन बारे विस्तार से जानते हैं| 


"कोक्को" व् "हाऊ" शब्द ऐसे विचार का प्रतिबिम्ब होते हैं जो आसपास की कई चीजों का सामूहिक दर्पण होता है| जो चीजें हम देख सकते होते हैं व् उनका अस्तित्व भी होता है; परन्तु वह डरावनी होती हैं| जैसे कि 


"कोक्को": यह ऐसे पक्षियों की केटेगरी का नाम है जो आपके सर पर हमला कर देते हैं, आपकी थाली से रोटी उठा ले जाते हैं| बच्चों की थाली व् हाथ से तो जबरदस्ती उठा के या छीन के ले जाते हैं| जैसे कि कव्वा-कव्वी, चील, काब्बर आदि| काब्बर हालाँकि हमला नहीं करती, परन्तु आपकी थाली के पास मंडराती रहती है व् आपके इधर उधर होते ही या आपकी नजर इधर उधर होते ही चुपके से खा जाती है या उठाने लायक टुकड़ा हो तो ले के उड़ जाती है| और बच्चों के दिमाग में ऐसे पक्षियों के इम्प्रैशन का फायदा बड़े-स्याणे बच्चों से कोई चीज छुपाने को करते हैं व् नाम "कोक्को" का लगा देते हैं ताकि बच्चे को यकीन हो जाये कि वाकई में कोक्को ही ले गई| 


हाऊ: कपास के खेतों में, गोदामों में, धतूरे-आक-आकटे के पेड़ों-बोझड़ों के पास छोटी गेंद के आकार का सफेद रंग का बालों का चमकीला झुण्ड सा उड़ता हुआ देखा होगा? किसान व् खेत-मजदूरों के बालकों ने तो अवश्य ही देखा होगा? उसी को हाऊ कहते हैं| इसको सफ़ेद भूतों की केटेगरी में रखा जाता है, क्योंकि इसको छूने पे यह अटपटा सा अहसास देता है; उब्क या उल्टी या ग्लानि सी आने का| हानिकारक नहीं होता परन्तु इसका चिपकना किसी को अच्छा भी नहीं लगता| स्पर्श में अति-मुलायम व् सफ़ेद भूतों जैसा अहसास करवाता है| 


यह ज्यादा मशहूर तब हुआ था जब 1761 की पानीपत लड़ाई में आये पुणे के पेशवे भाउओ (भाऊ) से भी हमारी औरतों ने इस हाउ को जोड़ दिया| क्योंकि यह लोग भी यही गलानि व् ग्लीजता का अहसास दिलाते थे; इसीलिए हरयाणवी औरतों ने कहावत शुरू कर दी कि, "गैर-बख्त बाहर मत जाईयो, नहीं तो हाउ यानि भाउ उठा ले जायेंगे"| 


यह हरयाणवी भी कमाल की भाषा है, एक शब्द बोल दो; तथाकथित ज्ञानियों को इतने में ही दस्त लग जाते हैं| 


बाकी पहले दौर की कल हुई वोटिंग में गठबंधन 40 सीटें (हो सकता है ज्यादा भी जीते) तो आराम से जीत रहा है; बस यह फंडी लोग एडमिनिस्ट्रेटिव मशीनरी का दुरुप्रयोग नहीं करेंगे तो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक