(Dec 1, 1886 - April 29, 1979)
सन् 1915 में गांधी जी भारत आए थे। जिस दौरान में गांधी जी भारत आए थे, उस दौरान सन् 1915 में राजा महेंद्र प्रताप सिंह भारत से बाहर ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ने के लिए लॉबीइंग कर रहे थे और इसी दौरान 1 दिसम्बर 1915 , अपने जन्मदिन वाले दिन उन्होंने अफगानिस्तान में पहली निर्वासित सरकार का गठन किया, और राजा साहब को उस सरकार का राष्ट्रपति बनाया गया, मौलवी बरकतुल्लाह को राजा का प्रधानमंत्री घोषित किया गया और अबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री। राजा साहब की इस काबुल सरकार ने बाकायदा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जेहाद का नारा दिया। लगभग हर देश में राजा की सरकार ने अपने राजदूत नियुक्त कर दिए, पर यह सरकार सिर्फ़ प्रतीकात्मक बन कर रह गई।
हालाँकि, गांधी जी कोंग्रेसी थे पर राजा साहब और उनके बीच बहुत नज़दीकियाँ थी। राजा साहब 32 साल के लम्बे अंतराल के बाद जब भारत की धरती पर उतरे तो उनको लेने सरदार पटेल की बेटी मनिबेन गई थी, जिसके साथ राजा साहब सीधे गांधी जी से मिलने वर्धा पहुँचे।
राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने क्रांति की अलख के लिए 'निर्बल सेवक' नाम से देहरादून से समाचार पत्र शुरू किया। इस पत्र में जर्मनी के पक्ष में लिखने के कारण ब्रिटिश हुकूमत ने राजा साहब पर 500 रुपए जुर्माना लगा दिया, जो राजा साहब ने अदा तो कर दिया पर उसके बाद राजा साहब के मन में देश आज़ादी की इच्छा प्रबलतम होती गई। राजा साहब ने देश छोड़ने की सोच ली। अब पास्पोर्ट की दिक़्क़त, हुकूमत ने इन्हें पास्पोर्ट जारी नहीं किया। थोमस कुक एंड संस के मालिक बिना पास्पोर्ट के उनको अपनी दूसरी कम्पनी के पी. एण्ड ओ स्टीमर द्वारा इंगलैण्ड ले गए। राजा साहब ने हंगरी, तिब्बत, चीन, रूस, टर्की कई मुल्कों का भ्रमण किया। सन् 1929 में जापान में 'वर्ल्ड फ़ेडरेशन' नाम से पत्रिका निकाली। जब राजा साहब जर्मनी पहुँचे तो वहाँ के शासक ने उन्हें 'Order of the Red Eagle' से नवाज़ा। राजा साहब ने कुछ दिन पोलैंड की सीमा पर सेना व युद्धाभ्यास की जानकारी के लिए एक मिलिटेरी कैम्प गए। बताते है कि उसके बाद राजा साहब ने आईएनए की स्थापना की थी। हालांकि, इस फौज को जमीनी तौर पर दूसरे विश्व युद्ध के समय सिंगापुर में जनरल मोहन सिंह घुम्मन ने खड़ा किया था, जिसकी कमान बाद में नेता जी सुभाष चंद्र बोस को सौप दी थी। सिंगापुर की इस लड़ाई में मेरे दादा शहीद चौधरी बलदेव सिंह सांगवान और उनके साथ मेरे गांव से सात अन्य लोग भी थे, जोकि जाट रेजिमेंट में थे, वो भी जनरल मोहन सिंह जी घुम्मन के आह्वान पर आईएनए से जुड़े थे। इन कुल आठ में से चार वही जंग में शहीद हो गए थे, जिनकी लाशें भी नहीं आई, और चार कुशल घर वापिस लौटे थे।
राजा साहब का विवाह सन् 1902 में जींद रियासत की राजकुमारी बलवीर कौर से हुआ था। जींद रियासत सिक्ख जाट रियासत थी। उनके सन् 1909 में पुत्री हुई, जिसका नाम भक्ति रखा गया और सन् 1913 में पुत्र हुआ, जिसका नाम प्रेम रखा गया।
शिक्षा के क्षेत्र में राजा साहब का बहुत बड़ा योगदान रहा। सन् 1909 में वृन्दावन में राजा साहब ने प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की, जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले बाग़ को जो 80 एकड़ में था, सन् 1911 में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है। इसके ईलावा राजा साहब ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू)को भी भूमि दान में दी थी।
राजा साहब ने 'प्रेम धर्म' नाम से एक अलग धर्म की शुरुआत भी की थी। वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे। ब्राह्मण-भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष में नहीं थे। इस धर्म के अनुयायियों का एक ही उद्देश्य था कि प्रेम से रहना, प्रेम बांटना और प्रेम भाईचारे का संदेश देना। अकबर बादशाह के दीन-ए-इलाही की तरह प्रेम धर्म भी उसको चलाने वाले के साथ ही गुमनामी में खो गया।
राजा साहब का नाम नॉबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था। पर ऐसा इत्तफ़ाक़ हुआ कि उस साल किन्हीं कारणों से यह पुरस्कार किसी को नहीं दिया गया और पुरस्कार की राशि किसी स्पेशल फ़ंड में दे दी गई।
राजा साहब संसद सदस्य भी रहे। सन् 1957 के लोकसभा चुनावों में राजा साहब ने भारतीय जन संघ पार्टी के उम्मीदवार अटल बिहारी वाजपेयी जी की जमानत तक जब्त करा दी थी। बाद में यही अटल बिहारी वाजपई जी भारत देश के प्रधानमंत्री बने। राजा साहब अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष भी रहे।
राजा साहब का जीवन बड़ा ही संघर्ष वाला रहा पर तारीख़ व सरकार ने इनको वो सम्मान नहीं दिया जिसके वे असल हक़दार थे।
- राकेश सिंह सांगवान