Tuesday 13 October 2015

यह हरयाणवी ही एक अनोखे ऐसे क्यों हैं?

गुजराती अमेरिका हो या इंग्लैंड, जहां भी हों वहीँ डांडिया मना लेते हैं| बिहार से दिल्ली-एनसीआर में आने वाले बिहारी भी अपनी "छट पूजा" यहां धूम-धाम से मना लेते हैं| बंगाली भी अपनी दुर्गापूजा दिल्ली-एनसीआर में धूमधाम से मना लेते हैं| पंजाबी हो, मलयाली हो, मराठी हो वो अपने प्रदेश में हो, गाँव में हो या शहर में या विदेश, हर जगह अपने त्यौहार साथ रखते हैं|

तो फिर यह हरयाणवी ही एक अनोखे ऐसे क्यों हैं कि गाँव से मात्र तीस-पचास (30-50) किलोमीटर शहर (वो भी अपने ही राज्य के जिले में) तक आते-आते अपने तीज-त्यौहार सब भूल के कोई नवरात्रों में मशगूल है तो कोई दुर्गापूजा में, खुद की "सांझी" विरले-विरले को ही याद दिखती है| 

सांझी की पूछो तो या तो पता ही नहीं होता या जिसको पता होता है वो कहते हैं कि वो भी मनाते हैं परन्तु गाँव में| अरे भाई जब तुम गाँव से शहर आ गए तो उसको साथ शहर में क्यों नहीं मना रहे? आखिर बाकी ये इतने जो ऊपर गिनाये हैं, यह भी तो साथ लिए चलते हैं अपने तीज-त्योहारों को, देश में भी प्रदेश में भी, गाँव में भी शहर में भी, तो एक आप हरयाणवी ही ऐसे क्या अनोखे हो गए कि गाँव से अपने ही राज्य में रहते हुए अपने जिले के शहर तक अपने त्यौहार-रिवाज नहीं निकाल के ला रहे?

ताज्जुब की बात नहीं अगर ऐसे में सीएम खट्टर जैसे यह कहते हुए कि "हरयाणवी कन्धों से ऊपर कमजोर होते हैं" तान्ना मार जाते हैं तो| और वास्तव में पूरे भारत में सिर्फ हरयाणवी ही ऐसे हैं जो गाँव से निकलते वक्त अपने तीज-त्यौहार भी गाँव में ही छोड़ देते हैं|

हरयाणवियो, यह खुद की आइडेंटिटी को खुद के ही हाथों मारने की रीत ठीक नहीं| अगर आप अपने तीज-त्यौहार को ही अपना नहीं कह सकते, उसको साथ ले के नहीं चल सकते, उसको प्रमोट नहीं कर सकते, तो फिर तो दूसरे आप पर तान्ने भी कसें तो कोई ताज्जुब नहीं| 

अपनी संस्कृति को पहचानिये, इसके जमाई नहीं खसम बनिए! इसको साथ ले के चलिए|

जय योद्धेय! - फूल मलिक 

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