Tuesday 9 May 2017

महाराजाधिराज सूरजमल महान पर कवि बलवीर घिंटाला जी की अद्भुत कविता!

बच रही थी जागीरें जब, बहु बेटियों के डोलों से,
तब एक सूरज निकला, ब्रज भौम के शोलों से|

था विध्वंश - था प्रलय वो, था जीता-जागता प्रचंड तूफां,
तुर्कों के बनाये साम्राज्य का, मिटा दिया नामो निशां|

बात है सन् 1748 की, जब मचा बागरु में हाहाकार,
7 रजपूती सेनाओं का, अकेला सूरज कर गया नरसंहार|

इस युद्ध ने इतिहास को, उत्तर भारत का नवयौद्धा दिया,
मुगल पेशवाओं का कलेजा, अकेले सूरज ने हिला दिया|

पेशवा मुगल रजपूतों ने, मिलकर मौर्चा एक बनाया,
मगर छोटी-गढी कुम्हेर तक को, यह जीत न पाया|

घमंड में भाऊ कह गया, नहीं चाहिए जाटों की ताकत,
पेशवाओं की दुर्दशा बता रहा, तृतीय समर ये पानीपत|

अब्दाली की सेना ने जब, पेशवाओं को औकात बताई,
महारानी किशोरी ने ही तब, ले शरण में इनकी जान बचाई|

दंभ था लाल किले को खुद पे, कहलाता आगरे का गौरव था,
सूरज ने उसकी नींव हीला दी, जाटों की ताकत का वैभव था|

हारा नहीं कभी रण में, ना कभी धोके से वार किया,
दुश्मन की हर चालों को, हंसते हंसते ही बिगाड़ दिया|

खेमकरण की गढी पर, बना कर लोहागढ ऊंचा नाम किया,
सुजान नहर लाके उसने, कृषकों को जीवनदान दिया|

ना केवल बलशाली था, बल्कि विधा का ज्ञानी था,
गर्व था जाटवंश के होने का, न घमंडी न अभिमानी था|

56 वसंत की आयु में भी, वह शेरों से खुला भिड़ जाता था,
जंगी मैदानों में तलवारों से, वैरी मस्तक उड़ा जाता था|

अमर हो गया जाटों का सूरज, दे गया गौरवगान हमें,
कर गया इतिहास उज्ज्वल, दे गया इक अभिमान हमें|

'तेजाभक्त बलवीर' तुम्हें वंदन करे, करे नमन चरणों में तेरे,
सदा वैभवशाली तेरा शौर्य रहे, सदा विराजो ह्रदय में मेरे|

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