Friday 18 September 2020

जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!

 मेरी हरयाणवी भाषा में रचित यह कविता पढ़िए:

यह सन 1355 में चंगेज खान के चुगताई वंश की सेना के चार कमांडरों को गोहाना से ले बरवाला के मैदानों के बीच दौड़ा-दौड़ा पीट-पीट के मारने वाली सर्वखाप आर्मी की यौद्धेया जिला जिंद की "दादिराणी भागीरथी कौर" के विलक्षण पराक्रम को दर्शाती है|

साथ ही यह उन नादानों के लिए भी एक ऐतिहासिक पन्ना है जिनको जाट-खाप-हरयाणा में 1980 से पहले नारी उत्थान, नारी किरदार के रूप में सिर्फ इनकी मनघड़ंत क्रूर-तालिबानी-निर्दयी खाप ही दिखती हैं| देखो कैसे थारी नजर में निर्दयी खापों में ही ऐसी यौद्धेयायें हो जाया करती थी कि जिन चुगताईयों को देख के तुम्हारी घड़ी वीरांगनाएं शायद सीधा जौहर करने को कूद पड़ें, म्हारी जाटणी उनकी ले सांटा-तलवारां खाल उतार लिया करती, चाम छांग दिया करती, रमाण्ड ले लिया करती| तो पेश-ए-नजर है May-2014 में लिखी मेरी यह कविता:

"जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!"

चंगेजों की उड़ी धज्जियाँ, जब चली रणचंडी चढ़ कें,
घोड़े की जब चापें पड़ें, धरती दहले धड़ाम धड़ कें|
सर्वखाप चले जब धुन में, दुश्मन के कळेजे फड़कें,
दिल्ली-मुल्तान एक बना दें, मौत नाचती चढ़ै अंबर म||
जब प्रकोप जाटणी का झिड़कै, दुश्मन पछाड़ मार छक जें,
पिंड छुड़ा दे दादीराणी तैं, मालिक रहम कर तेरे बन्दे पै|||

चालीस हजार की महिला आर्मी, खड़ी कर दूँ क्षण म,
जित बहैगा खून म्हारे मर्दों का, हथेळी उड़ै धर दे वैं|
वो आगे-आगे बढ़ चलें, हम पीछे मळीया-मेट पटमेळैं,
अटक नदी के कंटकों तक, दुश्मन की रूह जा कंब कैं||
खापलैंड की सिंह जाटणी सूं, तेरी नाकों चणे भर दूँ,
दुश्मन बहुत हुआ भाग ले, नहीं "के बणी" ऐसी कर दूँ|||

पच्चीस कोस तक लिए भगा के, दुश्मन के पसीने टपकें,
खुल्ला मैदान है तेरा भाग ले, विचार करियो ना मुड़ कैं|
पार कर गया तो पार उतर गया, वर्ना लूंगी साँटों के फटकैं,
चालीस हजार यौद्धेयायें नभ म, करें कोतूहल चढ़-चढ़ कैं||
सर्वखाप है यह हरयाणे की, बैरी नहीं लियो इसको हल्के हल म,
जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं|||

प्राण उखड़ गए मामूर के, 36 धड़ी सिंहनी ने जब लिया आंट में धर कैं,
अढ़ाई घंटे तक दंगली मौत खिलाई, फिर फाड़ दिया छलणी कर क|
जट्टचारिणी दादीराणी म्ह फ्लाणों की दुर्गा-काळी, सब दिखी एक शक्ल म्ह,
दुश्मन भोचक्का रह गया, या के बला आई थी घुमड़ कैं||
हरयाणे की सिंहनी गर्जना तैं, मंगोलों के सीने फ़टे फड़-फड़ कर कैं,
"फुल्ले भगत" पे मेहर हो दादी, दूँ छंद तेरे पै निरोळे घड़-घड़ कैं||

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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