Tuesday, 14 July 2015

फिर से खड़ी करनी होंगी 'झोटा फलाइयंगें'!


घबराईये नहीं यहां हरयाणा रोडवेज वाली 'झोटा फलाइंगों' की नहीं अपितु हरयाणा के विभिन्न कोनों में अभी विगत दशक तक किसी बहिष्कृत अपराधी की भांति 'सत्संगियों-मोडडों-पाखंडियों' पर पत्थर मार (स्टोन पेल्टिंग) कर गाँव से बाहर भगाने, जिन घरों में सतसंग होता था उनके आगे धरना देने और उन घरों का बहिष्कार करने/करवाने वाली टीम को हमारे यहां 'झोटा फलाइंग' कहते थे। हिंदी में जैसे 'ब्रह्मास्त्र' का रुतबा होता है ऐसे ही हरयाणवी में 'झोटा फलाइंग' का होता है।

हालाँकि आज बड़ा दुःख होता है जब सुनता हूँ कि मेरे इधर भी इन लोगों का जहर बढ़ता जा रहा है। मुझे मेरे बचपन के वो दिन आज भी किसी फिल्म की भांति दिमाग में ताजा हैं जब ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक हाट की दुकान वाले के घर में सतसंग हो रहा था। उनकी खड़तालों और कर्कश बोलों से मेरे कान फ़टे जा रहे थे। मन हो रहा था कि उठ के बोल दूँ, कि किसी को सोना भी होता है, कि तभी उनका दरवाजा धड़ाम वाले जोर से खड़का। मैंने मेरे चौबारे से नीचे झाँका तो देखा कि गाँव की 'झोटा-फलाइंग' के दो सदस्य उनका दरवाजा पीट रहे थे। ऊपर से आवाज आई, 'अं भाई कुन्सा सै?'

तो वो दोनों बोले कि या तो यह आवाजें कम करो वरना इन ढोल-खड़तल वालों के ऐसा ताड़ा लगाएंगे कि से गाम की सीम से पहले पीछे मुड़ के नहीं देखेंगे। ऊपर से आवाज आई कि, 'आच्छा इब पड़भु (प्रभु) का नाम भी नई लेवां के?' नीचे से आवाज आई कि, 'के थारा प्रभु बहरा सै, अक जिसको गळा फाड़ें बिना सुनता ही कोन्या? आवाज कम करो सो, अक काढूं किवाडां की चूळ?'

ऊपर से आवाज, 'अड़ थाडिये छुट्टी हो ली भी, हाह्में के जीवां सां!'

नीचे से फिर आवाज आई, 'तो फेर, थाह्मे थारी आवाजों को अपने घर के अंदर तक रखो!'
ऊपर से आवाज, 'अड़ यें आवाज तो न्यूं-ए छाती पाड़ गूंजेंगी, थारे से जो होता हो कर लो!' और हाट वाले ने पुलिस बुला ली।

जब तक पुलिस आई, तब तक झोटा फलाइंग वालों ने सतसंग बंद करवा दिया था और वो गाँव की झोटा फलाइंग बैठक में वापिस जा चुके थे।

पुलिस आई तो हाट वाले से पूछा कि क्यों फोन किया?

हाट वाला बोला कि, 'हड यें 'झोटा-फलाइंग' के खाड़कू, शांति तैं रडाम (राम) का नां (नाम) भी नी लेण द्यन्दे।' पुलिस वाले ने पूछा कि कहाँ है कौन है? हाट वाला बोला कि, 'अड़ जा लिए म्हाड़ा (म्हारा) सांग सा खिंडा कें!' पुलिस वाले बोले कि बताओ कहाँ मिलेंगे?

फिर हाट वाला पुलिस को 'झोटा फलाइंग' बैठक की ओर ले जाता है और वहाँ बैठे उन दोनों की ओर इशारा करता है। परन्तु वहाँ उस वक्त गाँव के गण्यमान्य बड़े-बडेरे बैठे होते हैं और सारा मामला सुना जाता है।

पहले वो गवाह बुलाये जाते हैं जिनको हाट वाले के घर से आ रहे शोर से आपत्ति हुई और उन्होंने बैठक में आ के झोटा फलाइंग को इस शोर को कम या बंद करवाने को कहा। इस पर पुलिस ने हाट वाले से कहा कि पब्लिक ऑब्जेक्शन करे आप लोग इतना शोर क्यों करते हो? हाट वाले के पास कोई जवाब नहीं था? पुलिस ने कहा कि चुपचाप अपने घर चले जाओ, वर्ना केस तो इन पर नहीं आप पर बनेगा।

मेरे बचपन तक के जमाने में घर की औरतें अपने मर्दों की इतनी सुनती और राय में रहती थी कि एक बार मेरी दादी जी मेरे पिता से छुप के एक सतसंग में चली गई थी। और वाकया ऐसा हुआ कि दादी जी को सतसंग से वापिस आते हुए पिता जी ने देख लिया। फिर क्या था पूरे पंद्रह दिन पिता जी ने दादी जी से बात ही नहीं की। आखिर दादी जी खुद ही बोली कि बेटा मैं तो बस यह देखने गई थी कि इनमें ऐसा होता क्या है। आगे से मैं तो क्या घर की किसी भी औरत को इनकी तरफ मुंह नहीं करने दूंगी। भगवान का नाम लेने के नाम पे कोरे नयन-मट्के के अलावा कुछ नहीं होता इनमें। और जो गाने-बजाने वाली मण्डली के देखने और घूरने का तरीका था उससे तो इतना गुस्सा उठ रहा था कि यहीं सर फोड़ दूँ उनका। मैं तो दो लुगाइयों को ले बीच में ही ऊठ के आ गई थी। बस तब जा के दादी जी और पिता जी के बीच सब नार्मल हुआ और बातें शुरू हुई।

दादी ने फिर हम घर के बालकों को जो रोचक बात बताई वो यह कि जब उठ के चलने लगी तो बोले कि नम्बरदारणी इतना ठाड्डा घराना तेरा कुछ तो चढ़ा के जा माता-राणी के नाम से। मैंने तो तपाक से जवाब दिया उसको कि 'गोसे से मुंह आळे, जी तो करै तेरे थोबड़े पै दो खोसड़े जड़ द्यूं।'

भगवान के नाम पै चढ़ावा/दान देना या ना देना मर्जी का होवै, किसे के कहे का नी! और पैसे के लिए ही यह सब करता है तो कोई ऐसा हल्ला कर ले जिसमें काम के बदले पैसे मांगने पे ऐसे हल्कारे ना खाने पड़ें। अतिआत्मविश्वास में शुरू करते हो भगवान के नाम पे और जब कोई नहीं देता है तो मांगने-कोसने-डराने पे उतर आते हो। आव मोमेंट के एक्सप्रेशंस चेहरे पे लाते हुए मैंने दादी से कहा कि दादी आपने तो बैंड बजा दी बेचारे की।

और दोस्तों मानों या ना मानों, मंडी-फंडी और मीडिया का खापों के पीछे पड़ने का, इनकी रेपुटेशन डाउन करने की वजह ही यही है क्योंकि इनको ऐसे बेबाकी के जवाब और लताड़ खाप-विचारधारा के लोगों से ही ज्यादा पड़ती आई है। और हरयाणा के लोगों का यही बेबाक रवैया वजह रहा है कि आज हमारी धरती दक्षिण के मंदिरों में पाली जाने वाली देवदासी जैसी मानवता की क्रूरतम प्रथाओं से मुक्त है। खाप के कवच को यह लोग इसीलिए तोड़ना चाहते हैं ताकि हमारे बच्चों-औरतों पर से हमारे गौरव और अभिमान का कवच हटे और हम लोग अपनी औरतों से संवाद तोड़ें ताकि इनकी यह भगवान के नाम की दुकानें निर्बाध बढ़ती रहें।

और इनको इसमें सबसे ज्यादा सहयोग किया है गोल-बिंदी गैंग, एनजीओ, लेफ्ट ताकतों ने। देख लो लेफ्ट ताकतों, जो जिसके लिए गड्डा खोदता है उसमें सबसे पहले वही गिरता है। अगर यह बिना-सोची समझी तथाकथित आधुनिक समझदारी आप लोगों ने नहीं दिखाई होती तो आज आपके धुरविरोधी यानी राइट वालों की सरकार ना होती। खैर लेफ्ट-राइट वाली लेफ्ट-राइट वाले जानें।

लेख का तोड़ और निचोड़ यही है कि घरों में अपनी औरतों से तार्किक संवाद और विवेचना बना के रखें। मत भूलें कि एक घर समाज रुपी ईमारत की एक ईंट है। आपके घर से ओपिनियन बन-बन के सामाजिक निर्णय बनते हैं। बाकी समझदार के लिए संदेश लेने हेतु यह लेख काफी होना चाहिए। और काफी होना चाहिए कि मैंने 'झोटा-फलाइंगों' को फिर से खड़ा करने पे क्यों जोर दिया है।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 13 July 2015

जो जिससे जितनी नफरत करता है, राजनीति चाहने वाला उसको उतना ही गले लगाता है!

1) सरदार पटेल ने आरएसएस बैन करी, आज आरएसएस उन्हीं सरदार पटेल का स्टेचू बनवा रही है|

2) 1984-86 में पंजाब ने पाकिस्तानी पंजाबियों को जूते मार कर खदेड़ा तो उन्होंने 1947 की पहली खेप की तरह दूसरी खेप बन हरयाणा में ही शरण ली, परन्तु गौरव फिर भी पंजाबी ही कहलाने में करते हैं| बेशक हरयाणा में 3-3 पीढ़ियां गुजर गई हों, फिर भी हरयाणवी कहलवाना वा हरयाणत का आदर करना तो दूर उल्टा इन टोटल आल हरयाणवी और इसमें भी खासकर हरयाणा की फायर ब्रांड जाट के नाम से ऐसे बिदकते हैं जैसे कुत्ता ईंट से| और वो भी बावजूद इसके कि हरयाणवियों ने ना ही तो इनको पंजाब वाला 1984-86 का अनुभव दिया और ना मुंबई मराठियों वाला क्षेत्रवाद और भाषावाद का जहरीला भेदभाव| हालाँकि मैं किसी व्यक्तिगत अपवाद से इंकार नहीं करता, परन्तु सामूहिक तौर पर तो हरयाणवी समाज ने इनको गले ही लगाया|

ऐसे ही आज वाले शरणार्थियों के परिपेक्ष्य में मानता हूँ कि खेतों में लेबर चाहिए, और घर में मजदूर नहीं मिलता तो प्रवासी लेना पड़ता है; परन्तु काम के बदले पैसा दिया जा रहा है और यही दिया जाता है, इसको बनाये रखने के लिए अपनी सभ्यता-संस्कृति से समझौता अपनी साख और पहचान मिटाने जैसा है| सस्ती लेबर चाहिए समझ आती है, परन्तु क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति के ऐवज में?

इन पहले के आये शरणार्थियों ने सारे हरयाणा को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा बना के धरा हुआ है, तो कम से कम इस अनुभव को नए आने वाले-शरणार्थियों के मामले में तो प्रयोग करो|

वैसे हरयाणवियों द्वारा शरणार्थियों को घर और दिल में जगह देने की रीत उतनी ही पुरानी है जितनी सिकंदर के भारत में आने की तारीख| परन्तु वो माइथोलॉजी के चरित्र लक्ष्मण वाली लक्ष्मण रेखा जरूरी है शरणार्थी की हर अच्छी-बुरी मंशा में फर्क करने के लिए और उसमें से योग्य को अपनाने और अयोग्य को नकारने के लिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 12 July 2015

मुंबई के मराठी की मार से घबराया शरणार्थी, हरयावणियों पर आफत!


उत्तरी-पूर्वी भारतीय, मुंबई के मराठी के हाथों साम्प्रदायिकता, भाषावाद और क्षेत्रवाद की मार का अनुभव हरयाणा में हरयाणा-हरयाणवी और हरयाणत पर दानावल बनके उतरा है। आखिर ऐसी क्या वजहें हैं कि मुंबई में खुद ही के हिन्दू भाईयों के हाथों छित्तर खाने वाला यह तबका हरयाणा, एनसीआर में आ के इतना विश्वस्त व् आश्वस्त हो कर हिंदुत्व की राष्ट्रवादिता का नाटक खेल रहा है? आखिर यह मुंबई में इसकी पिटाई के अनुभव को हरयाणा (पश्चिमी-मध्य-पूर्वी तीनों हरयाणा) में कैसे इस्तेमाल कर रहा है? वहाँ इसको खुद की सुरक्षा के लाले पड़े रहते थे और यहां स्थानीय समाज को विखंडित कर रहा है?

मैं इस पर डिबेट चाहता हूँ। कृपया अपने अनुभव साझा करें, ताकि स्थानीय हरयाणवी को यह समझने में आसानी हो कि आखिर वो अपनी 'हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत' की रक्षा करने में चूक कहाँ और क्यों रहा है?
यह शरणार्थी आखिर स्थानीय हरयाणवी से चाहते क्या हैं?

साथ ही जोड़ दूँ, कि इसके निशाने पर सिर्फ हरयाणा ही नहीं पंजाब भी है। इसलिए पंजाब-हरयाणा के बाशिंदे दोनों मिलकर इस पर अपने विचार रखें।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राजपूत बनाम जाट जिरह के विभिन्न रियल (असली) - फेक (नकली) एफ.बी. पेजों और आईडीज़ पर मुझे टैग करने वालों जाटों के लिए एकमुस्त फार्मूला!

जाट (ताऊ देवीलाल) द्वारा 2-2 बार राजपूत (VP Singh and Chandershekhar) प्रधानमंत्री बनाये गए, राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत मुख्यमंत्री बने तब उनको भी ताऊ देवीलाल की जनता दल और विधानसभा में दातारामगढ़ से निर्दलीय विधायक अजय सिंह ने अपना वोट दे मुख्यमंत्री के लिए जरूरी बहुमत दिलवाया था| तो ऐसे इतिहास से भी अगर किसी राजपूत को यह समझ नहीं आता कि कौन जाति उनके नफे की है और कौन उनके नुक्सान की, तो फिर मैं तो क्या हजार जाट भी मिलके राजपूत को जाट के खिलाफ फंडी वाली भाषा बोलने से नहीं रोक सकते।

वैसे कई बार देखने में आया है कि ऐसे आईडीज़ के पीछे एंटी-जाट ताकतों के एजेंट बैठे होते हैं, जो यह जानते हैं कि जब तक वो अजगर (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) की फूट को भुना रहे हैं तब तक जिन्दा हैं। खैर वो आईडीज़ के पीछे बैठे हों या वास्तव में किसी राजपूत को जाट के प्रति भड़का के बैठाते हों, जब तक ऐसे लोग अपनी फसलों के दामों और किसानी अधिकारों बारे संजीदा हो अजगर एकता के महत्व को नहीं समझेंगे, अपने और अपनी कौम समेत अजगर के अस्तित्व रुपी पैर पर अपने हाथों कुल्हाड़ी मारने वाला काम करते रहेंगे। ऐसे लोगों को खुद का समाज ही सम्मान नहीं देता| हाँ इनको सिर्फ मंडी-फंडी यानी अजगर एकता विरोधी ताकतें जरूर तवज्जो देती हैं।

ऐसी एंटी-जाट पोस्टों पर जाट भी गर्म-जोशी में अपनी प्रतिक्रिया देने से पहले, अपने आपको तार्किक बनाएं और ऐतिहासिक तथ्यों से अपनी बात रखें तो जरूर सामने वाले पर असर होगा। वर्ना भड़काऊ के बदले भड़काऊ जवाब देने से तो फिर आप भी मंडी-फंडी के मन की चाही कर रहे हैं।

इसीलिए दोनों ही समुदायों के युवाओं को ऐसे दुष्प्रचारों और घृणाओं में पड़ने से पहले बागरु (मोती-डूंगरी) की कुशवाहा राजपूत और भरतपुर के जाटों के आपसी सहयोग व् खापों के सहयोग के ऐतिहासिक किस्सों समेत 'अजगर' इतिहास को आगे रख के दोनों तरफ के दिशाहीन युवकों व् अनुभवियों को दोनों की आपसी समरसता और सहयोग की जरूरत पर जोर दिलवाना चाहिए। किसान इधर भी हैं और किसान उधर भी। आप लोगों की यह नादानियाँ किसानों के हितों हेतु दोनों समुदायों को एक हो के लड़ने के इरादों पर पानी फेरती हैं। इसीलिए जितना हो सके, ऐसी बहसों को नकारते हुए व् दरकिनार करते हुए चलना चाहिए।

अरे जब कॉमन इंटरेस्ट सेम, इतिहास में आपसी सहयोग के किस्से सेम तो फिर यह मंडी-फंडी को फूट रुपी जहर भरी दुनाली चलाने को अपने कंधे क्यों इस्तेमाल करने देना?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 11 July 2015

छाज तो बोलै, छालनी भी के बोलै जिसमें बाहत्तर छेद!

हास्यास्पद तो यह है कि बेटियों को बेचने वाले, विधवाओं को आश्रमों में भेजने वाले, विवाहिता की देखभाल के नाम पर 'कच्छा-टांग' संस्कृति पालने वाले, नवजन्मा को दूध के कड़ाहों में डुबो के मारने वाले, दलितों की बेटियों को देवदासी के नाम पर वेश्या बनाने वाले समाजों व् क्षेत्रों से आने वाले लोग न्यूजरूम्ज और एनजीओज में बैठ के हरयाणा को 'बेटी बचाओ', 'हॉनर किलिंग', 'वुमन एम्पावरमेंट', 'वुमन रेस्पेक्ट' और 'वुमन सेफ्टी' के लेक्चर देते हैं|

और इसपे भी मजे की बात तो यह है कि हरयाणा वाले जब से ऐसे लोगों की सुनने लगे, तब से हरयाणा में औरत के खिलाफ हर अपराध ने दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की करी है| मुझे तो डर है कि यह कच्छा-टांग और देवदासी पालने वाली संस्कृति के लोग हरयाणा में औरत का मान बढवावें या ना बढवावें परन्तु यहां देवदासियां जरूर पलवा देंगे|

जब से हरयाणा में, "छाज तो बोलै, छालनी भी के बोलै जिसमें बाहत्तर छेद!" जैसे झन्नाटेदार जवाब दे, कुबुद्धि व् दुर्बुद्धि दुष्टों का मुंह थोबने (बंद करने) वाले खामोश हुए हैं तब से इन छद्म समाजसुधारकों की समाज में पौ-बारह हुई पड़ी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आज के इस अंधभक्ति के दौर में जाट के आगे अपने "जाट जी" और "जाट देवता" टाइटल को बचाने का संकट!


अरे मखा, मैं न्यूं कहूँ पूरे हिन्दू धर्म में जाट अकेली ऐसी कौम है जिसकी, वो ब्राह्मण जो बाकी की हिन्दू कौमों को सिर्फ दिशा-निर्देशों से चलाता आया, वो जाट की स्तुति करता आया है| ब्राह्मण ने अपने हाथों घड़े तथाकथित क्षत्रियों-वैश्यों की इतनी प्रसंशा नहीं करी जितनी जाट की करी| आधुनिक काल का उदाहरण दूँ तो सम्पूर्ण ब्राह्मण समाज के निर्देश पे 1875 में रचित गुजरात वाले ब्राह्मण 'दयानंद सरस्वती' का "सत्यार्थ प्रकाश" उठा के पढ़ लो, "जाट जी" लिख के जाट के गुणों की स्तुति तो करी ही करी, साथ ही जाट सामाजिक मान्यताओं की प्रशंसा पर आधारित पूरी किताब यानी "सत्यार्थ प्रकाश" तक लिखी|

दूसरा आधुनिक काल का उदाहरण हाल ही में "भारत रत्न" से नवाजे गए पंडित मदन-मोहन मालवीय द्वारा जब 1932 में दिल्ली बिड़ला मंदिर की नींव रखने हेतु प्रस्ताव रखा गया कि वो ही राजा इस मंदिर की नींव रखेगा:

1) जिसका वंश उच्च कोटि का हो!
2) जिसका चरित्र आदर्श हो!
3) जो शराब व् मांस का सेवन ना करता हो!
4) जिसने एक से अधिक विवाह ना किये हों!
5) जिसके वंश ने मुग़लों को अपनी लड़की ना दी हो!
6) व् जिसके दरबार में रंडियाँ ना नाचती हों!

इस प्रस्ताव को सुनकर देश के कौनों-कौनों के रजवाड़ों से आये राजाओं-राणाओं ने अपनी गर्दनें झुका ली| तब धौलपुर नरेश महाराजा उदयभानु सिंह राणा अपनी जगह से उठे जो इन सभी 6 शर्तों पर खरे पाये गए| और मालवीय जी ने यह कहते हुए कि "जाट नरेश धौलपुर पूरे भारतवर्ष की शान हैं", राणा जी से दिल्ली बिड़ला मंदिर की नींव का पत्थर रखवाया| आज भी इस मंदिर के प्रांगण में राणा जी की मूर्ती व् संबंधित शिलालेख स्थापित हैं| तो सोचने की बात है कि जो कौम उच्च कोटि के मंदिरों की नींव रखती आई हो वह मंदिर में प्रवेश की मनाही वाली शूद्र की श्रेणी तो हो नहीं सकती| हालाँकि लेखक वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था का घोर विरोधी है परन्तु क्योंकि यह लेख इन्हीं पहलुओं बारे है तो यह लिखने हेतु जरूरी कारक के रूप में लिखा है|

ऐसे अद्वितीय व् अद्भुत उदाहरण अपनी जलन/द्वेष/प्रतिस्पर्धा शांत करने हेतु जाटों को कभी चांडाल, कभी शूद्र तो कभी लुटेरे कहने वालों के मुंह पे तमाचा मार देते हैं| अत: जिसको उच्च कोटि का ब्राह्मण लिखित और सम्बोधन में 'जी', 'देवता' और 'देश की शान' कहके सम्बोधित किया हो वो कौम भला शूद्र या चांडाल कैसे हो सकती है? सवाल ही पैदा नहीं होता| हालाँकि जाट का इतिहास रहा है कि वो अपनी स्वछंद मति के शब्द को अंतिम मानता आया है, जिसकी कि अपनी वाजिब वजहें भी रही हैं; परन्तु यह भी सच है कि ब्राह्मण ने जाट को "जी" भी कहा है और "देवता" भी|

एक बार मेरे को एक तथाकथित क्षत्रिय ने उसके दो परम्परागत एंटी-जाट यारों के सिखाये पे (सिखाये पे, वैसे सामान्य परिस्थिति में वो अच्छा और साफ़ दिल का दोस्त होता था) 'घुटनों में अक्ल वाला' बोल दिया| तो मैंने उसको तपाक से जवाब दिया था, 'मखा सुन, जिनके चरणों में तुम अपनी अक्ल गिरवी रखते हो ना, वो हमें लिखित में 'जाट जी' और 'जाट देवता' कहते रहे हैं|' इससे हिसाब लगा ले अगर तेरे अनुसार हमारी अक्ल घुटनों में है तो फिर तेरी तो तेरे तलवे भी छोड़ चुकी| जवाब सुनते ही गुम गया और उसको ऐसा बोलने के लिए उकसाने वाले उसके आजू-बाजू खड़े अचम्भित व् शब्दरहित|

लगे हाथ एक पहरे में चांडाल, शूद्र और लुटेरे शब्दों का भी हिसाब कर दूँ| कई लोग अपनी कुंठा को शांत करने हेतु चचनामा का उदाहरण उठा लाते हैं कि चचनामा में जाटों को चांडाल कहा गया है| अरे भाई जो मंत्री होते हुए धोखे से जाट राजा को मार, उसकी रियासत हथिया कर राजा बना हो वो भला फिर जाट की तारीफ कैसे कर देगा? वो तो घृणा वा दुश्मनीवश चांडाल ही कहेगा ना? फिर तर्क देने लग जाते हैं कि जाटों ने आरक्षण लेने के लिए ऐसे तथ्य कोर्ट में क्यों रखे? अरे भाई कोर्ट में रखे तो यह कहने को नहीं रखे कि हम चांडाल थे, अपितु यह बताने को रखे कि इतिहास में हमने क्या-क्या धोखे और दंश झेले हैं| अब फिर कुछ को चांडाल और शूद्र का बाण जब फ़ैल होता दीखता है तो 'लुटेरे' शब्द उठा लाता है| अरे भाई ऐसा कहना ही है तो हमको लुटेरे मत कहो, 'लुटेरों के लुटेरे' कहो! पूछो क्यों? अमां मियां, जो विश्व के महानतम लुटेरों जैसे कि सोमनाथ मंदिर के खजाने को लूटने वाले लुटेरे महमूद ग़ज़नवी की लूट को सिंध में ही लूट लेवें, देश के धन और शान को देश में ही रोक, विदेश जाने के कलंक से बचावें, तो वो तो फिर 'लुटेरों के लुटेरे' हुए ना? और समाजशास्त्र में लुटेरों के लुटेरे को मसीहा अथवा रोबिन हुड केटेगरी बोला जाता है| और ऐसे-ऐसे कारनामों की वजह से ही तो ब्राह्मण ने जाट को जाट देवता कहा, क्योंकि जिस खजाने को लुटने से खुद सोमनाथ देवता नहीं बचा सके, उसको जाट-देवताओं ने लुटेरे से छीन बचाया और देश-कौम-धर्म की लाज की रक्षा करी|

जोड़ते चलूँ कि यह कारनामा सिंध में औजस्वी दादावीर बाला जाट-देवता जी महाराज की नेतृत्व वाली खाप आर्मी ने धाड़ (धाड़ वही युद्ध-कला है जिसको हिंदी में गुर्रिल्लावार कहते हैं, जिसको मराठों और हैदराबादियों ने जाटों से सीखा और जिसको जाट जब सिख बने तो सिख धर्म में साथ ले गए) लगा के किया था| धाड़ के नाम पर आज भी हरयाणा में कहावत चलती है कि फलानि-धकड़ी बात 'रै के धाड़ पड़गी' या 'के धाड़ मारै सै'।

परन्तु दुःख तो आज इन अंधभक्त बने जाटों को देख के होता है कि जिनके पुरखे खुद जिन्दे देवता कहलाते थे और जिनसे फंडी-पाखंडी-आडंबरी इतना भय खाते थे कि उनकी धरती पे पाखंड फैलाने की तो बात बहुत दूर की अपितु जाट को "जाट जी" और "जाट देवता" कहके बुलाते थे; आज उन्हीं जाटों के वंशज कैसे वशीभूत हुए अविवेकी बन अज्ञानी-अधर्मियों की तरह इनके इशारों पे टूल रहे हैं| और शहरी जाट तो इस मामले ग्रामीणों से भी दो चंदे अगाऊ कूदे पड़े हैं|

खापलैंड के तमाम शहरों के जाट घरों में इक्का-दुक्का को छोड़, क्या मजाल जो एक भी घर ऐसा बचा हो कि जिसके यहाँ माता-मसानी पीढ़ा-चौकी लाएं/लगाएं ना बैठी/पसरी पड़ी हो| वैसे तो कहने को राजी हुए रहेंगे कि म्हारै तो जी आदमी-उदमी किमें ना मानते इन पाखंडां नैं, बस यें लुगाई-पताई ना मानती| मानती किसी ना उनके साथ बैठ के कभी खुद की जाति के टाइटल रहे 'जाट जी' और 'जाट देवता' जैसी बातों का कारण समेत जिक्र करो, उनको शुद्ध जाट सभ्यता और मान्यताओं बारे अवगत करवाओ तो कौन नहीं मानेगी?

याद रखना होगा जाट कौम के युवान और अनुभवी दोनों को, अगर हमें 'जाट जी' और 'जाट देवता' बने रहना है तो अपने पुरखों की हस्ती को याद करना होगा, याद रखना होगा, उसको जिन्दा रखना होगा| जाट का धर्म के साथ तभी रिश्ता सुलभ है जब तक जाट धर्म वालों के लिए "जाट जी" और "जिन्दा देवता" है| जिस दिन या जब-जब इन टाइटलों को छोड़ या भूल इनके वशीभूत या अभिभूत हुए, उस दिन सचली (असली) के भूत बना दिए जाओगे और समाज की क्रूरतम जाति बनने और कहलाने के ढर्रे पर धकेल दिए जाओगे| और जो आज के जाट के हालातों को जानता है वो मेरी भूत वाली पंक्ति से सहमत होयेगा|

चलते-चलते यह और कहूँगा कि धरती पर माँ के सिवाय (आपकी खुद की बीवी ना आने तक, उसके आने के बाद माँ की भी गारंटी नहीं) कोई भी आपकी प्रसंशा, अनुसंशा बिना स्वार्थ के नहीं करता| वह ऐसा या तो बदले में कुछ चाहने हेतु करता है या आपके जरिये अपनी कोई स्वार्थ सिद्धि करता है|  इसलिए उसकी प्रशंसा को तो स्वीकार करो परन्तु उसका शिकार कभी मत बनो| और यह बात जिस संदर्भ में मैंने कही है मेरी इस बात को मंडी-फंडी और जाट के ऐतिहासिक रिलेशन को जानने वाला अच्छे से समझता है|

जय जाट देवता!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 10 July 2015

जाटों व् जाट भाईचारा जातियों के यहां 'धाणी (ध्याणी/देहळ) की औलाद' का लिंग-समानता का स्वर्णिम नियम!


जाट व् समकक्ष भाईचारा जातियों में 'खेड़े के गोत' की मान्यता होती है| 'खेड़े के गोत' की परिभाषा लिंग समानता पर आधारित है जो कहती है कि गाँव में बसने वाली औलाद वो चाहे बेटा हो या बेटी, दोनों की औलादों के लिए खेड़े यानी बेटे-बेटी का ही गोत प्राथमिक गोत के तौर पर चलेगा| उदाहरण के तौर पर मेरे गाँव निडाना नगरी, जिला जींद में जाटों के लिए खेड़े का गोत मलिक है, धानक (कबीरपंथी) बिरादरी के खेड़े का गोत 'खटक' है, चमार (रविदासी) बिरादरी का 'रंगा' है, आदि-आदि|

तो 'खेड़े के गोत की परिभाषा' कहती है कि मलिक जाट का बेटा हो या बेटी, अगर वो ब्याह पश्चात निडाना में ही बसते हैं तो उनकी औलादों के लिए 'मलिक' गोत ही चलेगा| बहु ब्याह के आती है तो वो अपना गोत पीछे मायके में छोड़ के आती है और अगर जमाई गाँव में आ के बसता है तो वो भी अपना गोत अपने मायके में ही छोड़ के आएगा| यानी कि निडाना मलिक जाट की बेटी के उसकी ससुराल में जा के बसने पर उसकी औलादों के लिए जो गोत चलता वो उसके पति का होता, परन्तु अगर वो निडाना आ के बसती है तो उसकी औलादों का गोत पति वाला नहीं वरन बेटी वाला यानी मलिक होगा|

मेरे गाँव में 20 के करीब जाट परिवार ऐसे हैं जिनको धाणी यानी बेटी की औलाद बोला जाता है और उनका गोत उनके पिता का गोत ना हो के उनकी माँ यानी हमारे गाँव की बेटी का गोत मलिक चलता है|

बेटी के अपने मायके में बसने के निम्नलिखित कारण होते हैं:

1) अगर बेटी का कोई माँ-जाया (सगा) भाई नहीं है तो|
2) अगर बेटी का तलाक हो गया और दूसरा विवाह नहीं हुआ अथवा बेटी ने नहीं किया हो तो|
3) अगर बेटी के ससुराल में किसी विवाद या रंजिश के चलते, बेटी को विस्थापित हो के मायके आन बसना पड़े तो|

मुख्यत: कारण पहला ही होता है| दूसरे और तीसरे कारण में कोशिश रहती है कि तलाक ना होने दिया जाए या बेटी की ससुराल में जो भी विवाद या रंजिश है उसको बेटी का मायके का परिवार व् पंचायत मिलके सुलझवाने की कोशिश करते हैं|

यहां यह भी देखा गया है कि औलाद द्वारा पिता का गोत छोड़ माँ का धारण करने की सूरत पहले बिंदु में ज्यादा रहती है, जबकि दूसरे और तीसरे में निर्भर करता है कि मायके आन बसने के वक्त बेटी की औलादें कितनी उम्र की हैं| वयस्क अवस्था हासिल कर चुकी हों तो पिता व् माता दोनों की चॉइस रहती है| परन्तु पहले बिंदु में ब्याह के वक्त अथवा एक-दो साल के भीतर घर-जमाई बनने की सूरत में 'देहल' का ही गोत चलता है|

'धाणी की औलाद' का कांसेप्ट जींद-हिसार-सिरसा-भिवानी-कुरुक्षेत्र-करनाल-यमुनानगर, पंजाब की ओर पाया जाता है| वहीँ इसको रोहतक-सोनीपत-झज्जर-रिवाड़ी-गुड़गांव की तरफ 'देहल की औलाद' के नाम से जाना जाता है| बाकी की खापलैंड के क्षेत्र जैसे दोआब, दिल्ली और ब्रज में यह कैसे चलता है इसपे तथ्य जुटाने अभी बाकी हैं|

क्योंकि अभी पूरी खपलांड का शोध नहीं किया गया है इसलिए मैं किसी किवदंति अथवा अपवाद से इंकार नहीं करता| परन्तु जो भी हो, इन जातियों और समाजों के इस नियम में लिंग-समानता का इतना बड़ा तथ्य विराजमान करता है, यह अगर एंटी-जाट मीडिया (सिर्फ एंटी-जाट सारा मीडिया नहीं), एन.जी.ओ. और रेड-टेप गोल-बिंदी गैंग जानेंगे तो कहीं उल्टी-दस्त के साथ-साथ चक्कर खा के ना गिर जावें|

खापलैंड और पंजाब के भिन्न-भिन्न कोनों में बैठे, मेरे दोस्त-मित्रों से अनुरोध है कि उनके यहां इस तथ्य का क्या प्रारूप और स्वरूप है, उससे जरूर अवगत करवाएं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 8 July 2015

दक्षिण भारतीय हिन्दू वैवाहिक परम्परा - खुलेपन की निशानी अथवा औरत की जुबान बंद करने की चालाकी?

एक लाइन में: औरत द्वारा जमीन-जायदाद में हिस्से के लिए आवाज ना उठाने का रास्ता!

इसको समझने के लिए पहले नजर डालते हुए चलते हैं कि दक्षिणी भारत में किस-किस प्रकार के नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह हो सकते हैं!

1) मामा अपनी भानजी यानी बहन की बेटी से विवाह कर सकता है- कारण साफ़ है ताकि बहन  जमीन-जायदाद में हिस्सा ना मांगने लग जाए, इसलिए बहन की बेटी ब्याह के सब घर-की-घर में रख लो। 
2) बुआ की लड़की से शादी - कारण साफ़ है ताकि बुआ जमीन-जायदाद में हिस्सा ना मांगने लग जाए, इसलिए बुआ की बेटी ब्याह के सब घर-की-घर में रख लो।

साफ़ है कि हकीकत में दक्षिणी भारतीय हिन्दू मर्द उत्तरी भारतीय मर्द से कहीं ज्यादा प्रो-पुरुषवादी है और इतना ज्यादा पुरुषवादी कि औरतों द्वारा जमीन-जायदाद में हक की बात करने की नौबत ही नहीं आने देते।

उत्तरी भारत में भी स्वघोषित धर्मध्वजा वाहक समुदाय व् व्यापारिक समुदायों में कुछ-कुछ ऐसी ही चालाकी देखने को मिलती है, लेकिन अधिकतर लव मैरिज के मामलों में ही। जब कोई एक ही परिवार या स्वगोत में ऐसा लव मैरिज के केस का पेंच फंसता है तो यह लोग लड़की को मामा का गोत (गोत्र) दिलवा कर मामला नक्की करवा डालते हैं। लड़के का गोत नहीं बदला जाता क्योंकि

1) एक तो लड़का कुल-वंश का दीपक होता है|
2) दूसरा उसका गोत बदला तो खानदान की लाइन फिर किसी और ही गोत पे चली जाएगी। और फिर लड़के के प्रॉपर्टी राइट्स ट्रांसफर करने का लफड़ा। 
3) तीसरा लड़का फिर कहीं जो उसको अपना गोत देता है उसकी प्रॉपर्टी में हक ना क्लेम कर बैठे।

लड़की का क्या है मामा का गोत ले या बाप का, भेजना तो लड़के के साथ है, जिसमें प्रॉपर्टी देने का तो बाई-डिफ़ॉल्ट ऑप्शन ही नहीं होता। वैसे कायदे से देखो तो लड़की ने जिस भी रिश्तेदार का गोत अडॉप्ट किया, उसको अडॉप्ट करना तो तभी कहा जायेगा ना जब अडॉप्ट करने वाला परिवार लड़की को अपनी जमीन-जायदाद में भी हिस्सा देवे। ऐसा करने वाले इन डेढ़ स्यानों को यह भी नहीं इल्म रहता कि लड़की ने अगर अडॉप्ट करने वाले की प्रॉपर्टी में क्लेम कर दिया तो? खैर क्लेम तो बेचारी तब करेगी ना जब यह एडॉप्शन ऑफिसियल होता हो। कई लोग इसको लव मैरिज समस्या का आसान हल बताते हैं, परन्तु वास्तव में है यह औरत की प्रॉपर्टी को अपने कब्जे में बनाये रखने की चालाकी।

ऐसे में भारत में औरत को सबसे अधिक व् पक्षपात रहित हक देने वाली वैवाहिक प्रणाली है तो वह है जाट-कौम की। हालाँकि ऐसा नहीं है कि इसमें सुधारों की गुंजाइश नहीं| है, परन्तु इतनी नहीं जितनी कि इन औरों के यहां है। 

1) जहां इन ऊपर बताये समुदायों में माँ के गोत की कोई कद्र ही नहीं, वहीँ जाट सभ्यता कहती है कि माँ-बाप दोनों के गोत बराबरी की अहमियत से छूटेंगे।
2) जहां ऊपर बताये समुदायों की वैवाहिक प्रणाली औरत को उसकी जायदाद को बिना अवरोध के धूर्त चालाकी से अपने कब्जे में रखने की है, वहीँ जाट इसमें ज्यादा ईमानदारी बरतता है कि वो कम से कम औरत की जमीन को हथियाये रखने के लिए गोत टालने के वैज्ञानिक कारणों को ताक़ पे नहीं रखता है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी बंगाल की जलपाईगुड़ी इलाके की टोटो जनजाति जिनमें मामा-चाचा के बच्चों {नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों)} की शादी की जाती है, जिसकी वजह से व् कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र कैंसर रिसर्च सेंटर की शोध के अनुसार इस समुदाय में 56 फीसदी लोग थैलीसीमिया के शिकार हैं। दयानंद मेडिकल कॉलेज, लुधियाना पंजाब के प्रोफेसर सोबती के शोध के अनुसार इन्हीं वजहों के चलते पाकिस्तान पंजाब से आई नश्लों में भी 7.5% लोग थैलिसीमिया की बीमारी से ग्रस्त हैं| यहां तक कि विश्व के ईसाई समुदाय में भी नजदीकी खून व् सगोतीय विवाह वैज्ञानिक आधार पर मान्य नहीं हैं।
3) जाट समुदाय में औरत का सम्पत्ति हक विवाह से पहले पिता के यहां रहता है और विवाह पश्चात पति की सम्पत्ति में स्थानांतरित हो जाता है। जबकि इनके यहां औरत के विधवा होने पर उसको उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा-आश्रमों में भेजने की परम्परा है| जो साबित करता है कि इन्होनें औरत को यह हक किसी  भी सूरत में दिए ही नहीं हैं जबकि जाटों के यहां उसके पति की विरासत तो उसकी रहती-ही-रहती है साथ-साथ उसको पुनर्विवाह की भी अनुमति रहती है। 

ऐसे ही अन्य और भी बहुत से पहलु हैं जो जाट वैवाहिक प्रणाली ने ज्यादा खूबसूरती व् निष्पक्षता से पाले हुए हैं।

आखिर 2005 में यह कानून क्यों बनवाया गया कि औरत को पैतृक सम्पत्ति में हक होना चाहिए?:  वजह साफ़ है इन समुदायों को इस कानून से कोई खतरा ही नहीं, क्योंकि भतीजी-भांजियों से ब्याह करने की परम्परा होने की वजह से इनकी स्थिति में कोई बदलाव आना नहीं। इनके यहां औरत आवाज उठाएगी भी तो सम्पत्ति स्थांतरित कहाँ होएगी …… वहीँ घर की घर में ही? तो फिर अचानक यह औरत की प्रॉपर्टी के हक बारे जुबान को इतनी चालाकी से अपने ही घर में लपेट लेने वाले इतने प्रो-औरत कैसे बन गए? कारण साफ़ है ताकि युगों-युगों से भारत की सबसे प्रो-औरत कम्युनिटी जाट (हालाँकि सुधारों की गुंजाइस इनके यहां भी है) के यहां सामाजिक व् पारवारिक ताने-बाने में उथल-पुथल मचाई जा सके। वरना यह लोग और प्रो-औरत, क्यों मजाक करते हो भाई। और ज्यादा तो छोडो इनसे सिर्फ एक इतना करवा दो कि यह अपनी विधवा औरतों को उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में भेजना बंद कर दें, फिर विचार करूँगा कि इनका यह बदला रूप वाकई में निश्छल है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 6 July 2015

इसे कहते हैं, "उत्तां के नाम बदनाम अर घुण्यां नैं खो दिए गाम!"



का हो ससुर का नाती, ई छड़ों (मलंग-रंडवे-कुवांरे-बिन ब्याहे) की संख्या में तो ई पंजाब-हरयाणा देश में क्रमश पच्चीसवें और छब्बीसवें नंबर पर है। ई कैसे हुई गवा ससुरा हम तो हरयाणा को सेक्स रैस्वा की सबसे ढुलमुल हालत में टॉप दिखाई रही, तो फिर सबसे ज्यादा कुंवारा-स्टाफ भी तो इधर ही होना चाहिए था ना?

ओ तेरी इह्मा तो साहेब का गुजरात भी हरयाणा से आगे है, का हो साहेब ई प्योर बिना बयाहे का संख्या है या अइसन का भी जो ब्याह के बीवी छोड़ दिए हूँ?

कोन्हों ठो तो है जुई हरयाणा का फिरकी लेवत रही!


हम ऊत तो अळबाद (शरारत) करने में ही रह लिए, असली बदनामी के खड्डे तो यें घुन्ने खोद्गे!


जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Saturday, 4 July 2015

जब 330000 की पेशवा नेतृत्व की 7 सेनाओं को मात्र 20000 की जाट नेतृत्व की 2 सेनाओं ने हरा, जयपुर (आमेर) की गद्दी बचाई थी!


स्थान: बागरु (बागड़ू)
समय: 20 अगस्त 1748

मुद्दा: जयपुर की गद्दी के लिए राजा ईश्वरी सिंह और माधो सिंह, दो सगे भाईयों के बीच सत्ता विवाद!

21 सितम्बर 1743 को सवाई राजा जय सिंह की मौत के बाद जयपुर की गद्दी के लिये विवाद शुरू हुआ| राज-परम्परानुसार गद्दी बड़े भाई को मिलती है इसलिए ईश्वरी सिंह गद्दी पर बैठे| पर माधो सिंह ने उदयपुर के राजा जगत सिंह को साथ लेकर जयपुर पर हमला बोल दिया। 1743 में जहाजपुर में कुशवाह और जाट सैनिकों की फ़ौज का उदयपुर और जयपुर के बागी सैनिकों से सामना हुआ। जाट और कुशवाहा संख्या में बहुत कम होते हुए भी बहादुरी से लड़े और हमलावरों को कई हज़ार सैनिक मरवाकर लड़ाई के मैदान से भागना पड़ा। जयपुर और भरतपुर के क्रमश: कुशवाहा और जाट जश्न में डूब गए।

राजा ईश्वरी सिंह को गद्दी संभाले हुए अभी एक साल ही हुआ था कि माधो सिंह की गद्दी की लालसा फिर बढ़ने लगी और उसने पेशवाओं से मदद मांगी। पेशवा 80000 फ़ौज लेकर निवाई तक आ पहुँचे और ईश्वरी सिंह को मज़बूरी में बिना लड़े ही 4 परगने माधो सिंह को देने पड़े।

अब माधो सिंह अपने राज्य का विस्तार करने में लग गया और राजा ईश्वरी सिंह के लिए खतरा बनने लगा। ऐसे में राजा ईश्वरी सिंह को संसार की कितनी भी बड़ी सेना को अकेले हरा सकने वाली जाट जाति की याद आई और वर्तमान हरयाणा के रोहतक से ले सहारनपुर-अलीगढ़-आगरा-मथुरा तक पसरी भरतपुर जाट-रियासत की ओर आश भरी टकटकी से देखा। राजा ईश्वरी सिंह ने जाट नरेश ठाकुर बदन सिंह को पत्र लिखा (यह पत्र भरतपुर हिस्ट्री meuseum में रखा है), जो इस प्रकार था:

“करी काज जैसी करी गरुड ध्वज महाराज,
पत्र पुष्प के लेत ही थै आज्यो बृजराज|”


यानी, हे! बृज-भूमि महाराज, जैसे वो गरुड़ ध्वज-धारी अंतर्यामी सब भीड़-पड़ों को मदद को आते हैं ऐसे मदद को आवें! जिस तरह आपने पिछली कई बार मदद करी, उसी तरह हमारी मदद करें और पत्र मिलते ही तुरंत आ जावें, वरना जयपुर ख़त्म समझो|


महाराज बदन सिंह ने अबकी बार खुद आने की बजाय अपने बेटे ठाकुर सुजान सिंह (सूरज-मल्ल जाट) को 10000 जाट सैनिकों के साथ जयपुर रवाना किया। महाराज बदन सिंह ने अपनी फ़ौज का सबसे खतरनाक लाव-लश्कर ईश्वरी सिंह की सहायतार्थ भेजा था। इन जाटों में कोई भी 7 फुट और 150 किलो से कम ना था।

कुंवर सुजान सिंह पहलवानी करते थे और पूरे राजस्थान और बृजभूमि में एक भी दंगल नहीं हारे थे| इसलिए उनको मल्ल यानी पहलवान कहा जाता था| कुंवर सूरजमल सिनसिनवार 7 फुट ऊँचे और 200 किलो वजनी थे।
जैसे ही सूरजमल जयपुर पहुंचे, उन्होंने राजा ईश्वरी सिंह के साथ मिलकर पेशवा के साथ हुआ समझौता संधि-पत्र फाड़ कर फिंकवा दिया।

इस हिमाकत की सुन पेशवाओं का लहू खौल उठा और मल्हार राव होल्कर की अगुवाई में 80000 धुरंधर पेशवा सैनिकों को भेज दिया। ऐसे में अब माधो सिंह गद्दी के लिए और भी लालायित हो उठा। बागरु का रण सजने लगा और बढ़ते-बढ़ते माधो सिंह की सेना इतनी बड़ी हो गई कि पूरे उत्तर भारत को मिट्टी में मिला दे। उसकी तरफ से लड़ने को मराठों के नेतृत्व में अब

1) 80000 सेना पेशवा होल्कर की
2) 20000 सेना मुग़ल नवाब शाह की
3) 60,000 सेना लगभग सभी राठौर राजाओं की
4) 50,000 सेना सभी सिसोदिया राजाओं की
5) 60,000 सेना हाडा चौहान (कोटा, बूंदी व अन्य रियासतों की)
6) 30,000 सेना सभी खिची राजाओं की
7) 30,000 सेना सभी पंवार राजाओं की,

कुल मिलाकर 330000 की सेना हुंकार भर रही थी और दूसरी तरफ थे मात्र

20,000 जाट और कुशवाहा राजपूत, जिनकी कि सैन्य बल को देखते हुए हार निश्चित थी| पर क्षत्रिय कभी मैदान छोड़कर नहीं भागता, इसलिए जाट और कुशवाह शहीद होने की तैयारी कर रहे थे| कुशवाह राजपूत और हर जाट सैनिक को मारने के दिशा-निर्देश देकर मराठों के नेतृत्व में माधो सिंह की विशाल फ़ौज जयपुर पर टूट पड़ी|

20 अगस्त 1748 को बागरु में ये दोनों फ़ौज टकराई| भारी बारिश के बीच लड़ाई तीन दिन तक चली| क्योंकि जाट और कुशवाह तो सर पर कफ़न बाँध कर आये थे इसलिये मराठों के नेतृत्व की बड़ी फ़ौज को यकीन हो गया कि लड़ाई इतनी आसान ना होगी| शुरुवात में जयपुर की फ़ौज का संचालन सीकर के ठाकुर शिव सिंह शेखावत कर रहे थे जो दूसरे दिन बहादुरी से लड़ते हुए गंगाधर तांत्या के हाथो शहीद हो गए| इनकी शहादत के बाद अब ठाकुर सूरजमल जाट ने जयपुर की फ़ौज की कमान संभाली और जाट सैनिकों को साथ लेकर मराठों पर आत्मघाती हमला बोला। मराठों ने इतने लंबे तगड़े आदमी पहले कभी नहीं देखे थे। सूरजमल ने 50 घाव खाये और 160 मराठों को अकेले ही मार दिया। इस हमले ने मराठों की कमर तोड़ कर रख दी।

सूरजमल एक महान रणनीतिकार थे, उन्हें यकीन था कि अगर दुश्मन के सबसे बड़े जत्थे पेशवाओं को हरा दिया जाए तो दूसरे कमजोर जत्थों का मनोबल टूट जाएगा और वही हुआ। दूसरे मोर्चे पर 2 हज़ार जाट मुग़लों को मार रहे थे तो तीसरे मोर्चे पर 2 हज़ार जाट राठौर और चौहानों को संभाल रहे थे। बृजराज के जाटों को चौहानों का तोड़ पता था क्योंकि वो पिछले 100 साल से कोटा और बूंदी समेत हर चौहान रियासत को लूट पीट रहे थे। इस प्रकार जाटों ने ईश्वरी सिंह की निश्चित हार को जीत में बदल दिया। बचा हुआ काम कुशवाहों ने कर दिया। एक दिन पहले तक चिंता के भाव लिए लड़ रहे कुशवाह राजपूत अब इतने उग्र हो चुके थे कि हरेक ने सामने के कम से कम तीन-तीन दुश्मनों को मारा।

इस लड़ाई में हर बहुतेरे जाट सैनिकों ने तो 50-50 दुश्मनों को मारा और सूरजमल जाट इतने मशहूर हुए कि उनकी चर्चा पूरे संसार में होने लगी। इस लड़ाई के बाद देश-विदेशों से सुल्तानों-शासकों द्वारा जाटोँ से लड़ाई में मदद मांगने की अप्रत्याशित मांग बढ़ी।

बागरु युद्ध का वर्णन करने के लिए कोटा रियासत के राजकवि शूरामल्ल भी मौजूद थे जिन्होनें अपने दुश्मन की तारीफ़ इस तरह लिखी:

"सैहयो मलेही जट्टणी जाए अरिष्ट अरिष्ट,
जाठर तस्स रवि मल्ल हुव आमेरन को ईष्ट|
बहु जाट मल्हार सन लरन लाग्यो हर पल,
अंगद थो हुलकर ,जाट मिहिर मल्ल प्रतिमल्ल||"


हिंदी अनुवाद:
ना सही जाटणी ने व्यर्थ प्रसव की पीर,
गर्भ ते उसके जन्मा सूरजमल्ल सा वीर|
सूरजमल था सूर्य, होल्कर था छाहँ,
दोनों की जोड़ी फबी युद्ध भूमि के माह||


तीसरे दिन बारिश से ज्यादा खून बहा। जाटों और कुशवाहों से दुश्मनों की हमलावर फ़ौज अपने आधे से ज्यादा सैनिक मरवाकर भाग गयी और ऐसे सूरज-सुजान बृज रो बांकुरों री मदद से राजा ईश्वरी सिंह फिर से जयपुर की गद्दी पर बैठे।

यह मुख्यत: इसी लड़ाई की हार का दंश था कि पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त पेशवाओं ने तब तक कुंवर से महाराज बन चुके महाराजा सूरजमल की एक सलाह ना सुनी और जाटों के प्लूटो और समस्त एशिया के ओडीसियस सूरज सुजान को संदेशे का इंतज़ार करते छोड़, घमंड और दम्भ में भरे पेशवा बिना जाटों के मैदान-ए-पानीपत जा चढ़े और अब्दाली के हाथों मुंह की खाई। और तब से हरयाणे में कहावत चली कि, 'बिन जाटां किसनें पानीपत जीते!' व् 'जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया'!

काश, पेशवाओं ने महाराजा सूरजमल की मान ली होती तो तीसरा मैदान-ए-पानीपत हिन्दुस्तानियों के नाम रहता।

ओ! टीवी सीरियल और फिल्मों वाले मेरे बीरो, कभी हिन्दू-मुस्लिम व् वर्णवाद से बाहर निकल के भी कुछ बना के देखो। देखो बना के कि जब जाट रण में निकलते हैं तो दुश्मन की खो-माट्टी से ले बिरान माट्टी और रे-रे माट्टी सब करके छोड़ते हैं।

जय यौद्धेय!
लेखक: फूल मलिक
सहयोग: अमन कुमार

Wednesday, 1 July 2015

विज जी, डॉक्टर-इंजीनियर-साइंटिस्ट्स को रोक लें तो हरयाणा का स्वास्थ्य और बेहतर हो जायेगा!


माननीय स्वास्थ्य मंत्री, हरयाणा सरकार अनिल विज जी ने स्टार बॉक्सर बिजेन्दर सिंह के वर्ल्ड ओपन बॉक्सिंग में चले जाने पर इसको राष्ट्रभक्ति से जोड़ दिया| कमाल है इतिहास में जब-जब असली राष्ट्रभक्ति दिखाने के सोमनाथ की लूट जैसे मौके आने पे मूक-दर्शक बने देखते रह जाने वाले अब देश के लिए राष्ट्रभक्ति की परिभाषा निर्धारित करने लगे हैं!

मंत्री जी आप क्या चाहते हैं कि बिजेन्दर सिंह बॉक्सर अंतराष्ट्रीय ओपन बॉक्सिंग में करियर ना बनाये, अथवा तीस-चालीस हजार रूपये की नौकरी करते हुए आपके आगे-पीछे सलूट ठोंकता हुआ रिटायर हो जाए?

और अगर अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी खिलाडी के निकल आने से वो देशद्रोही कहलाता है तो यह बड़े-बड़े भारतीय मूल के डॉक्टर-इंजीनियर-साइंटिस्ट्स ने तो फिर राष्ट्रभक्ति तोड़ने का ग्लोबल-रिकॉर्ड ही बना दिया होगा अब तक? क्या रोक सकते हैं उनकी भारी-भारी रकमों के साथ विदेशी कम्पनियों की विदेशो में नौकरी करने की रिक्रूटमेंट लेने को? उनके डॉक्टर-इंजीनियर-साइंटिस्ट्स बनने पे लाखों-लाख खर्च करे भारत और नाम कमाएं विदेशी?

और हाँ, क्या आपने मोदी जी से पूछ के यह बयान दिया है? क्योंकि मोदी जी तो भारत से बाहर विदेशी कंपनियों के लिए विदेशों में बैठ कार्य करने वालों को बड़ा देशभक्त ही नहीं कहा है अपितु जिस भी देश में जाते हैं वहाँ स्वदेशी कन्फेरेन्सेस भी करवाते हैं| अपने भारतीय मूल के भाईयों से मिल-बैठ के बातें करना बड़े गर्व की बात समझते हैं|

आपको बिजेन्दर के कदम पर कहना तो यह चाहिए था कि बड़ी अच्छी बात है हमारा लड़का वर्ल्ड ओपन बॉक्सिंग के गुर सीखेगा तो हरयाणा सरकार उसको स्पांसर करेगी ताकि कल को 'भारतीय बॉक्सिंग का मक्का' कहे जाने वाले हरयाणा का भी अपना वर्ल्ड ओपन बॉक्सिंग क्लब बनाया जाए; और कहाँ आपने इतना निरुत्साहित करने वाला ब्यान दिया? या तो आप गैर-जिम्मेदार हैं या आपकी बिजेन्दर से कोई व्यक्तिगत खुंदक है या फिर उसके पिछोके से चिड़ है, कुछ तो है जो आपने ऐसा बचकाना बयान दिया|

और फिर बिजेन्दर कोई चोरी-छुपे नहीं जा रहा; बाकायदा ऑफिशियली डिक्लेअर करके जा रहा है| अत: आप उसके कदम का स्वागत नहीं कर सकते तो कृपया अपने शब्दों पर तो नियंत्रण रख सकते हैं?

हालाँकि मैं खुद भी भेज रहा हूँ, फिर भी मेरी इस बात को (पोस्ट को) मंत्री साहब तक पहुँचाने वाले का शुक्रिया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राष्ट्रवादियों-धर्माधीसों-राजनीतिज्ञों व् नीतिनिर्धारकों को अगर वाकई में भारत डेवलप्ड बनाना है तो!


जब तक फ्रांस-यूरोप या किसी भी अन्य ऐसे ही डेवलप्ड कंट्री की भांति एक वीवीआईपी और गरीब भिखारी एक ही लैविश शॉपिंग मॉल में एक ही काउंटर पे खड़े हो के वो भी बिना कोई नाक-भों सिकोड़े शॉपिंग नहीं करते मिलते, उस दिन तक भारत डेवलप्ड राष्ट्र नहीं बन सकता।

डेवलप्ड कन्ट्रीज में महँगे से महँगे कपड़े-प्रसाधन वाला एक मैले-कुचैले कपड़ों वाले भिखारी के साथ एक ही दुकान/मॉल पे एक ही पंक्ति में लग सामान खरीदता है, क्योंकि वास्तविक एवं व्यवहारिक राष्ट्रवादिता क्या होती है यह लोग प्रैक्टिकल में जानते हैं।

मेरे ख्याल से फ़िलहाल तो भारत में एक भिखारी के लिए शॉपिंग मॉल की तरफ देखना भी एक स्वपन जैसा है; जबकि यूरोप जैसे देशों में भिखारी के पास पचास सेण्ट या एक यूरो तक भी भीख में इकठ्ठे हुए नहीं, सीधे शॉपिंग मॉल से जा के सामान खरीद के लाते हैं।

क्या हमारे योगियों-जोगियों-कर्मयोगियों के तप में इतना सामर्थ्य-धैर्य व् अपनापन भर पाया है कि वो लोग ऐसा कल्चर क्रिएट कर सकें? यदि नहीं तो हम अभी डेवलप्ड कहलाने की सोच से ऐसे ही दूर हैं जैसे संस्कृति से सभ्यता। ओबामा अपनी विगत भारत यात्रा के दौरान कोई व्यर्थ ही नहीं कह के गए थे कि डेवलप्ड बनना है तो पहले जाति-पाति, उंच-नीच की सोच के जहर से पार पाना होगा।

हमारी संस्कृति में दो बहुत बड़े झूठ घुसे पड़े हैं। पहला अगर आप किसी के लाइफ-स्टाइल से सहमत नहीं हैं तो आप उससे या तो नफरत करते मिलेंगे या उससे भय खाते मिलेंगे। और दूसरा हमारे यहाँ किसी से प्यार करने का मतलब यह बताया जाता रहा है कि आप वह जो करता/मानता है या करती/मानती है उसको अंधश्रद्धा से स्वीकार करो या करते हैं, (just like emotional fools) इसको साइकोलॉजिकल टर्म्स में अति टोर्चरिंग अथवा सफ्फरिंग कल्चर (extreme torchering or suffering culture) भी कहते हैं। हमारे पास न्यूट्रल नाम का गियर ही नहीं है जो यह सीखा सके कि अरे क्या हुआ मेरे बगल में भिखारी खड़ा हो के शॉपिंग कर रहा है तो। यह सीधा-सीधा गुलामी का वो सिंड्रोम है जो किसी भी राष्ट्र को 1300 साल तक गुलाम बनाये रखने के लिए काफी होता है।

परन्तु हाँ कुछ-एक रेस हैं भारत में जो वाकई में न्यूट्रल होने का इतिहास व् स्वभाव रखती आई हैं, परन्तु उनके मुकाबले भारत नफरत-भय और अंधश्रद्धा का लोचा ज्यादा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट एकता कर तो लें, परन्तु मुस्लिम और सिख जाट करें तब ना?


मैंने अक्सर यह जवाब उन तथाकथित हिन्दू जाटों के मुख से सुना है जो उदारवादी हैं और जाट की अंतर्धार्मिक एकता के पक्षधर हैं। वो इसके साथ यह भी शिकायत करते हैं कि एक हिन्दू जाट ही क्यों धार्मिक एकता की बात करे, मुस्लिम या सिख जाट क्यों नहीं करता?

वैसे तो यह बात सिख और मुस्लिम जाट के लिए भी ध्यान देने की है, वो आगे आएं और अपनी झिझक या संकोच के कारण समक्ष रखें। परन्तु इसके पीछे एक तथाकथित हिन्दू जाट होने के नाते जो कारण मैं देखता हूँ वो भी काबिले-गौर हो सकते हैं।

1) हमें आज भी हिन्दू धर्म में वो सम्मान और स्थान हासिल नहीं, जिसकी कमी की वजह से हमारे सिख और मुस्लिम भाइयों ने हिन्दू धर्म छोड़ा था। इससे यह दोनों क्या सोचते हों कि हम जाटिस्म के साथ तो एडजस्ट कर लेंगे परन्तु जिस हिन्दू टैग को हम छोड़ चुके, उसको जब हिन्दू जाट, जाटिस्म में साथ लाएंगे तो उसको कैसे एडजस्ट करेंगे? नंबर एक संभावित कारण।

2) सिख और मुस्लिम जाट यह सोचता होगा कि कहीं हिन्दू जाटों के जरिये भावनाओं में डाल हमें वापिस हिन्दू बनाने हेतु तो हिन्दू धर्म वालों द्वारा यह जाट-यूनिटी का नारा नहीं छुड़वाया जा रहा?

3) सिख और जाट एक ही हैं एक ही थे, परन्तु दयानन्द ने सिखों को बरगलाकर कि जाट हुक्का पीते हैं जबकि सिख धर्म में धूम्रपान निषेध है कहकर इनमें दरार डाल दी| हुक्का जाट संस्कृति का प्रमुख अंग रहा है| जाट के टाठ हुक्का और खाट| जाटों में हुक्का पानी समाप्त करना महान दंड माना जाता था|

हो ना हो मेरा सहजबोध तो यही कहता है। अब इस पर हिन्दू जाटों को जाट-एकता आगे बढ़ाने से पहले सिख और मुस्लिम जाट से इस बारे खुलासा करना होगा। क्योंकि जिस वजह से वो इस धर्म को छोड़ चुके हैं उससे उनकी झिझक स्वाभाविक है।

इसका हल यह हो सकता है कि जो हिन्दू धर्म का जाट है वो पहले अपना स्वछंद धर्म घोषित करे यानी शुद्ध जाट मान्यताओं को ही निर्वाहित करता रहे, अथवा हिन्दू धर्म में ही रहते हुए बिश्नोई पंथ की तरह शुद्ध जाट मान्यताओं के साथ अपना अलग पंथ बना ले, अथवा मुस्लिम और सिख जाट को इस बात का आश्वासन देवे कि हम उनकी और हमारी धार्मिक मान्यताओं को कभी भी जाटिस्म के आड़े नहीं आने देंगे।

अत: जाट यूनिटी चाहिए तो पहले यह कम्युनिकेशन गैप्स (communication gaps) खत्म करने होंगे, हर धर्म के जाट के विचार छान के उससे जाट-यूनिटी का एक मिनिमम कॉमन इंट्रेस्ट एजेंडा (minimum common interest agenda) बनाना होगा; तभी जा के धरातल पर अंतर्धार्मिक जाट यूनिटी उतर पायेगी।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक