Thursday, 16 July 2015

है कोई बाबा बामदेव, खिचड़ीवाल या दुभरमण्यम स्वामी या कोई आम भक्त ही?

जो धर्म के नाम पर भी इतने बड़े घोटाले करते हों तो, ख़ाक तो उनकी राष्ट्रवादिता और ख़ाक उनके देशभक्ति और धार्मिक एकता के जुमले! पिछली सरकार में तो कोई इटली वाली बाई के विदेशी होने की वजह को घोटालों का कारण बताता था और कोई सेक्युलर-वाद को। अब इनको कौनसे वाद से डंसा जो खुद के ही भगवान के नाम पे 1400 करोड़ ढकार के जमाही भी नहीं ले रहे और आगे सगूफे-पे-सगूफे घड़े ही जा रहे हैं।

स्विस का काला धन और सरकारी तंत्र के करप्शन का पैसा तो जब आएगा तब आएगा; है कोई माई का लाल अंधभक्त अथवा राष्ट्रवादी जो देश की देश में इनसे यह धर्म के घोटाले का 1400 करोड़ उगाह दे? है कोई जो इन धर्म के नाम पे घोटाले करने वालों की पूंछ पे पैर भी धर सकता हो, बाबा बामदेव, खिचड़ीवाल या दुभरमण्यम स्वामी या कोई आम भक्त ही?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: हिंदू महासभा का वीएचपी पर गंभीर आरोप : राम मंदिर के लिए मिले 1400 करोड़ रुपए हड़पे
http://hindi.news24online.com/hindu-mahasabha-allege-vhp-on-money-collected-for-ram-temple-85/

बाहुबली रिव्यु: फिल्म को 'बागरु (मोती-डूंगरी)' की लड़ाई से जोड़ा जाता तो '300', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' को बेहद तगड़ा जवाब होती!

बड़ा बोर में आ के कल कुछ फ्रेंच दोस्तों के साथ बैठ के उनको इंटरनेट से डाउनलोड करी 'बाहुबली' फिल्म दिखा रहा था कि देखो तुम्हारी 'ट्रॉय', 'स्पार्टा' और 'ग्लैडिएटर', '300' का जवाब!

फिल्म देखकर वो बोले कि बहुत खूब, परन्तु क्या भारत में '300', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' जैसी कोई वास्तविक घटना नहीं हुई जो डायरेक्टर को इसको जस्ट इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? ना कहीं तारीख का जिक्र ना स्थान का?

वो बोलते हैं कि फ़िलहाल तो हम ही नहीं, हॉलीवुड वाले भी यही कहेंगे कि ठीक है इमेजिनेशन और फैंटेसी के तड़के और हमारी बहुत सारी चीजें कॉपी-पेस्ट करने के साथ 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा' तर्ज पे वर्क तो एक्सीलेंट किया है, परन्तु क्या भारत में ऐसी कोई वास्तविक ऐतिहासिक घटना नहीं हुई थी जो इसके डायरेक्टर को इसे उस घटना से जोड़ 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' की भांति रियल टच देने की बजाय फिल्म के कथानक को इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? और अगर हुई थी तो उससे जोड़ के फिल्म को रियल ऐतिहासिक टच देने में डायरेक्टर और टीम को क्या दिक्क़त थी?

जिस जोश और गर्व के साथ उनको फिल्म दिखाने बैठा था, उनकी इस टिप्पणी ने सारा जोश हवा कर दिया। और एक भारतीय होने के नाते मुझे भी इस फिल्म में रियल इन्सिडेंटल टच वाले पहलु की कमी महसूस हुई और फिल्म दूसरी 'रामायण' और 'महाभारत' जैसी माइथोलॉजी प्रतीत हुई|

उनके जाने के बाद मैं सोचता रहा कि क्या वाकई में हमारे पास वास्तविक इतिहास की ऐसी कोई घटना नहीं जो इस फिल्म से जोड़ी जा सकती थी? जब इतिहास पे नजर दौड़ाई तो 'बागरु (मोती-डूंगरी)' की ऐतिहासिक लड़ाई 'बाहुबली' फिल्म की स्क्रिप्ट में बिलकुल फिट बैठती नजर आई। इस लड़ाई का मुद्दा भी बिलकुल 'बाहुबली' फिल्म की तरह जयपुर रियासत के दो सगे भाईयों राजा ईश्वरी सिंह और राजा माधो सिंह के बीच राजगद्दी हथियाने का था।

20-21-22 अगस्त 1748 की इस ऐतिहासिक लड़ाई में हर वो मशाला वास्तविकता में मौजूद है जो 'बाहुबली' के डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर साहब को सिर्फ इमेजिनेशन और फैंटेसी के सहारे दिखाना पड़ा। एक तरफ तीन लाख तीस हजार (330000) सैनिकों से सजी मुगल-मराठा पेशवाओं और माधो सिंह के पक्ष वाले राजपूतों की 7-7 सेनायें, तो दूसरी तरह राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में सजी मात्र बीस हजार (20000) की कुशवाहा राजपूत और हरयाणा-ब्रज रियासत भरतपुर की सिर्फ 2 सेनाएं। एक तरफ छोटे आकार के सैनिक तो दूसरी तरफ ये 7-7 फुटिये लम्बे-चौड़े 150-150 किलो वजनी भरतपुर जाट सेना के सैनिक। एक तरफ अस्सी हजार (80000) की टुकड़ी तो दूसरी तरफ मात्र दो हजार (2000) की टुकड़ी उनको गुर्रिल्ला वार में छका-छका के पीटती हुई। एक तरफ गाजर-मूली की तरह कटते सैनिक तो दूसरी तरफ पचास-पचास (50-50) को मारने वाला एक-एक जाट और कुशवाहा राजपूत सैनिक। एक तरफ 7-7 राजा तो दूसरी तरफ 7 फुटी 200 किलो वजनी अकेले भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल। और यह लड़ाई चली भी पूरे तीन दिन थी और वो भी बरसाती तूफानों में अरावली के रेतीले मैदानों और पथरीले पहाड़ों के बीच सरे-मैदान लड़ी गई थी। कुल मिला के क्या 'ट्रॉय', क्या 'ग्लैडिएटर' और क्या 'बाहुबली' खुद, इस रिव्यु को लिखते हुए इनसे भी कालजयी थिएट्रिकल दृश्य दिमाग में मंडरा रहा है।

तो जब 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' से बढ़कर इतना विहंगम- रोमांचक-भयावह तीनों प्रकार का टच देने वाला शानदार दृश्य प्रस्तुत करने वाला ऐतिहासिक प्लेटफार्म हमारे इतिहास में मौजूद है तो 'बाहुबली' को रियल टच देने हेतु आखिर क्यों नहीं इसको प्रयोग किया गया?

ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि भारत के गौरव को अंतराष्ट्रीय स्तर पर इतना संजीदा स्थान दिलवाने के लिए 'एस. एस. राजामौली' जैसे जागरूक डायरेक्टर को इस बात का ना पता हो कि अगर उनको 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' का जवाब बनाना है तो भारतीय इतिहास का कौनसा किस्सा इसमें फिट करके दिखाना चाहिए?

निसंदेह विश्व को अगर रामायण और महाभारत की मीथोलॉजिकल लड़ाइयों का पहले से पता ना होता तो डायरेक्टर साहब ने यह प्लेटफार्म जरूर प्रयोग कर लिए होते, तो फिर 'बागरु (मोती-डुंगरी) का प्लेटफार्म क्यों नहीं प्रयोग किया?

लगता है अगर 'बाहुबली' बनाने वाले इसके पार्ट 2 में भी इसको रियल टच देने से चूकते हैं तो फिर इसके जवाब में "रियल बाहुबली" की स्क्रिप्ट लिखनी होगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 July 2015

ग्रीक (भारत में इनका वंशज है खत्री-अरोड़ा समुदाय) के वित्तीय संकट को खत्म करने की बागडोर अब फ्रांस, जर्मनी (भारत में जर्मनी का वंशज समुदाय है जाट) के हाथों में!

'विक्की डोनर' में खुद को ग्रीक ओरिजिन का बताने वालों के ग्रीक पुरखे भारी कर्ज तले दबे हुए हैं, अब उनकी मदद जर्मनी के जाट करेंगे|

काश! ऐसी मिशाल भारत के ग्रीक 'खत्री' समुदाय भी भारत के जाटों के साथ मिलके पेश करें और सबसे पहले 'गुड्डू-रंगीला' जैसी फ़िल्में बनानी बंद करके, समाज में जर्मनी के जाट समुदाय का भी कोई अस्तित्व है इस बात को समझें|

जबसे हरयाणा में नई सरकार आई है, यह लोग जाटों के खिलाफ नित नए सार्वजनिक (व्यक्तिगत नहीं) स्वांग रच रहे हैं, जिनकी फेहरिस्त है कि लम्बी ही होती जा रही है| जैसे कि:

1) आते ही फसलों के दाम धरती को मिला दिए|
2) यूरिया खाद तक के लिए किसानों को थाने हाजिर करवा दिया|
3) 03/05/2015 को जाट आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं होते हुए भी हरयाणा पंजाबी सभा जाटों के खिलाफ आन खड़ी हुई|
4) विगत जून के महीने में रोहतक के वर्तमान एमएलए की ऑफिसियल लेटर पैड से एमडीयू रोहतक को निर्देश जाता है कि यूनिवर्सिटी के विशेष जाट कर्मचारियों के रिकॉर्ड खँगालो|
5) 04/07/2015 को सुभाष कपूर खाप और हरयाणवी समुदाय की खुल्ली बेइज्जती करते हुए 'गुड्डू-रंगीला' जैसी वाहियात फिल्म ले आते हैं|
6) 'गुड्डू-रंगीला' का खाप और जाट विरोध करते हैं तो जींद का पंजाबी समुदाय बजाय सुभाष कपूर को समझाने के सर्वखाप अध्यक्ष चौधरी नफे सिंह नैन के विरोध में यह लोग पंचायत बिठा के उनको देशद्रोही करार दिया जाने की वकालत करते हैं|

और अभी तो क्रॉस-फिंगर्स किये बैठा हूँ कि देखें यह और कौन-कौन से स्वांग और रचेंगे हरयाणवियों और खापों के खिलाफ!

मैं कहता हूँ अगर 1947 में अपने सीने से लगाने, 1984-86 में पंजाब से पिट के आने पे फिर से इनको गले लगाने का अगर हरयाणवियों और जाटों को इनसे यही सिला मिलना है तो क्यों नहीं इनकी तमाम तरह की दुकानों से खरीदारी ही करनी बंद कर देते| जब रोजी-रोटी के लाले पड़ेंगे तो दो हफ्ते में ही यह  बात समझ आ जाएगी कि आप लोग भी समाज में ही रहते हो, समाज का ही हिस्सा हो| तीन-तीन पीढ़ियां हो गई फिर भी खुद को हरयाणवी कहलाने को तैयार नहीं, बल्कि उसी पंजाबी शब्द से चिपके हुए हैं जिन्होनें 1984-86 में इनको वहाँ से खदेड़ दिया| चलो खैर वो इनकी मर्जी खुद हरयाणवी नहीं कहलवाना तो मत कहलवाएं, परन्तु समाज में कोई और भी रहता है इसका तो आभास रखें|

विशेष: विभिन्न यूरोेपियन एवं भारतीय इतिहासकार साबित कर चुके हैं कि जिस तरह खत्री समुदाय अपना ओरिजिन ग्रीक का बताता है, ऐसे ही भारतीय जाट समुदाय का ओरिजिन जर्मनी और सीथिया का है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 14 July 2015

मुल्खराज कत्याल जी पहले अपनी जाति तो बताइये?


(मजाक सहन करने  की आदत नहीं है तो आपकी कौम के सुभाष कपूरों को काबू कीजिये पहले।)

1966 से पहले हरयाणा पंजाब का हिस्सा था, जिसकी वजह से हर हरयाणवी बाई-डिफ़ॉल्ट पंजाबी कहलाता था और इस नाते हर हरयाणवी आधा पंजाबी तो आज भी है| तो जनाब आप पहले तो यह साबित कीजिये कि 'पंजाबी' एक सभ्यता नहीं अपितु मात्र आपकी जाति है|

दूसरा मुझे अहसास है कि कुरुक्षेत्र के निर्वाचित सांसद श्री राजकुमार सैनी के हाथों खुद पर्दे के पीछे रहकर हरयाणवी समाज में जो जाट बनाम नॉन-जाट का जहर बोने के मंसूबे आप लोगों ने चलवाए थे वो तो सर्वखाप अध्यक्षा डॉक्टर संतोष दहिया ने केस करके स्वाहा कर दिए| अब 'खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे' की भांति जब और कोई चारा नहीं देखा तो खुद मैदान में आ रहे हो| बढ़िया किया आ गए, कम से कम समाज को अब यह तो स्पष्ट दिख जायेगा कि वाकई में हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट की गन्दी राजनीति का सूत्रधार कौन है|

रही बात दादा नैन जी पे केस करने की, तो अगर आप इस वहम् में हों कि कुरुक्षेत्र के एमपी साहब की तर्ज पे ही आप दादा जी पे मुकदमा करवा देंगे तो अपना वहम् बटोर के रखिये| सांसद साहब तो सवैंधानिक प्रक्रिया के कानूनी प्रावधानों से बंधे हुए थे, इसलिए केस बन गया, दादा जी तो सामान्य जनता के पंचायती प्रतिनिधि हैं और समाज में किसी भी प्राणी को अपनी बात रखने का हक़ है| फिर भी कोर्ट चढ़ना है तो चढ़ के देख लेवें, दादा जी की कानूनी विद्वानों की फ़ौज उनके पीछे खड़ी है|

और सुभाष कपूर जैसे आपकी ही बिरादरी वालों द्वारा 'गुड्डू-रंगीला' किस्म की फ़िल्में बनाने वालों की हरकतें को देखते हुए दादा जी ने जो कहा सही कहा। अगर सुभाष कपूर की जुर्रत खप  सकती है तो दादा जी की भी खप सकती है।

वैसे एक नेक सलाह दूंगा आपको कि बेहतर होगा कि आप पहले 'पंजाबी' शब्द को कानूनी तौर पर जाति साबित करके दिखा दें| आपकी बिरादरी वाले इस फिल्म जैसी नीच हरकतें करेंगे तो कोई भड़का हुआ आपको गाली भी देगा। और मजाक सहन करने  की आदत नहीं है तो आपकी कौम के सुभाष कपूरों को काबू कीजिये पहले। इतने जिंदादिल और आलोचना सहन करने वाले भी नहीं कि जितने बड़े आलोचक बनके दिखाते हो।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: पंजाबियों के निशाने पर आये खाप प्रधान नफे सिंह नैन
http://dainiktribuneonline.com/2015/07/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%86%E0%A4%AF/

'गुड्डू-रंगीला' फिल्म के जरिये हरयाणवियों की 'चीर' कढ़ा रहे हैं यह माता की चौकियों वाले!


'माता के ईमेल' गाने से शुरू होने वाली इस फिल्म में इन माता के भक्तों की गंदी हरकतें तो इसमें आपने देख ही ली होंगी कि कैसे बेशर्म बनके दीये की थाली हाथ में लिए सीधा घर के ही अंदर घुस गया और वासना के भूखे भेड़िये की तरह घर की लुगाई से कैसी वाहियात-बदचलनी वाली हरकत कर रहा था।

इससे भी लोगों की आँखें नहीं खुलती और इन तथाकथित भक्तों के सरेआम फंड देख के भी इनकी 'खाल में वाकई में भूसा भरने' को मन नहीं कुलबुलाता तो फिर तो भगवान ही रक्षा करे हरयाणे की स्वछँदता भरे इतिहास, गौरव और परम्परा की।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फिर से खड़ी करनी होंगी 'झोटा फलाइयंगें'!


घबराईये नहीं यहां हरयाणा रोडवेज वाली 'झोटा फलाइंगों' की नहीं अपितु हरयाणा के विभिन्न कोनों में अभी विगत दशक तक किसी बहिष्कृत अपराधी की भांति 'सत्संगियों-मोडडों-पाखंडियों' पर पत्थर मार (स्टोन पेल्टिंग) कर गाँव से बाहर भगाने, जिन घरों में सतसंग होता था उनके आगे धरना देने और उन घरों का बहिष्कार करने/करवाने वाली टीम को हमारे यहां 'झोटा फलाइंग' कहते थे। हिंदी में जैसे 'ब्रह्मास्त्र' का रुतबा होता है ऐसे ही हरयाणवी में 'झोटा फलाइंग' का होता है।

हालाँकि आज बड़ा दुःख होता है जब सुनता हूँ कि मेरे इधर भी इन लोगों का जहर बढ़ता जा रहा है। मुझे मेरे बचपन के वो दिन आज भी किसी फिल्म की भांति दिमाग में ताजा हैं जब ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक हाट की दुकान वाले के घर में सतसंग हो रहा था। उनकी खड़तालों और कर्कश बोलों से मेरे कान फ़टे जा रहे थे। मन हो रहा था कि उठ के बोल दूँ, कि किसी को सोना भी होता है, कि तभी उनका दरवाजा धड़ाम वाले जोर से खड़का। मैंने मेरे चौबारे से नीचे झाँका तो देखा कि गाँव की 'झोटा-फलाइंग' के दो सदस्य उनका दरवाजा पीट रहे थे। ऊपर से आवाज आई, 'अं भाई कुन्सा सै?'

तो वो दोनों बोले कि या तो यह आवाजें कम करो वरना इन ढोल-खड़तल वालों के ऐसा ताड़ा लगाएंगे कि से गाम की सीम से पहले पीछे मुड़ के नहीं देखेंगे। ऊपर से आवाज आई कि, 'आच्छा इब पड़भु (प्रभु) का नाम भी नई लेवां के?' नीचे से आवाज आई कि, 'के थारा प्रभु बहरा सै, अक जिसको गळा फाड़ें बिना सुनता ही कोन्या? आवाज कम करो सो, अक काढूं किवाडां की चूळ?'

ऊपर से आवाज, 'अड़ थाडिये छुट्टी हो ली भी, हाह्में के जीवां सां!'

नीचे से फिर आवाज आई, 'तो फेर, थाह्मे थारी आवाजों को अपने घर के अंदर तक रखो!'
ऊपर से आवाज, 'अड़ यें आवाज तो न्यूं-ए छाती पाड़ गूंजेंगी, थारे से जो होता हो कर लो!' और हाट वाले ने पुलिस बुला ली।

जब तक पुलिस आई, तब तक झोटा फलाइंग वालों ने सतसंग बंद करवा दिया था और वो गाँव की झोटा फलाइंग बैठक में वापिस जा चुके थे।

पुलिस आई तो हाट वाले से पूछा कि क्यों फोन किया?

हाट वाला बोला कि, 'हड यें 'झोटा-फलाइंग' के खाड़कू, शांति तैं रडाम (राम) का नां (नाम) भी नी लेण द्यन्दे।' पुलिस वाले ने पूछा कि कहाँ है कौन है? हाट वाला बोला कि, 'अड़ जा लिए म्हाड़ा (म्हारा) सांग सा खिंडा कें!' पुलिस वाले बोले कि बताओ कहाँ मिलेंगे?

फिर हाट वाला पुलिस को 'झोटा फलाइंग' बैठक की ओर ले जाता है और वहाँ बैठे उन दोनों की ओर इशारा करता है। परन्तु वहाँ उस वक्त गाँव के गण्यमान्य बड़े-बडेरे बैठे होते हैं और सारा मामला सुना जाता है।

पहले वो गवाह बुलाये जाते हैं जिनको हाट वाले के घर से आ रहे शोर से आपत्ति हुई और उन्होंने बैठक में आ के झोटा फलाइंग को इस शोर को कम या बंद करवाने को कहा। इस पर पुलिस ने हाट वाले से कहा कि पब्लिक ऑब्जेक्शन करे आप लोग इतना शोर क्यों करते हो? हाट वाले के पास कोई जवाब नहीं था? पुलिस ने कहा कि चुपचाप अपने घर चले जाओ, वर्ना केस तो इन पर नहीं आप पर बनेगा।

मेरे बचपन तक के जमाने में घर की औरतें अपने मर्दों की इतनी सुनती और राय में रहती थी कि एक बार मेरी दादी जी मेरे पिता से छुप के एक सतसंग में चली गई थी। और वाकया ऐसा हुआ कि दादी जी को सतसंग से वापिस आते हुए पिता जी ने देख लिया। फिर क्या था पूरे पंद्रह दिन पिता जी ने दादी जी से बात ही नहीं की। आखिर दादी जी खुद ही बोली कि बेटा मैं तो बस यह देखने गई थी कि इनमें ऐसा होता क्या है। आगे से मैं तो क्या घर की किसी भी औरत को इनकी तरफ मुंह नहीं करने दूंगी। भगवान का नाम लेने के नाम पे कोरे नयन-मट्के के अलावा कुछ नहीं होता इनमें। और जो गाने-बजाने वाली मण्डली के देखने और घूरने का तरीका था उससे तो इतना गुस्सा उठ रहा था कि यहीं सर फोड़ दूँ उनका। मैं तो दो लुगाइयों को ले बीच में ही ऊठ के आ गई थी। बस तब जा के दादी जी और पिता जी के बीच सब नार्मल हुआ और बातें शुरू हुई।

दादी ने फिर हम घर के बालकों को जो रोचक बात बताई वो यह कि जब उठ के चलने लगी तो बोले कि नम्बरदारणी इतना ठाड्डा घराना तेरा कुछ तो चढ़ा के जा माता-राणी के नाम से। मैंने तो तपाक से जवाब दिया उसको कि 'गोसे से मुंह आळे, जी तो करै तेरे थोबड़े पै दो खोसड़े जड़ द्यूं।'

भगवान के नाम पै चढ़ावा/दान देना या ना देना मर्जी का होवै, किसे के कहे का नी! और पैसे के लिए ही यह सब करता है तो कोई ऐसा हल्ला कर ले जिसमें काम के बदले पैसे मांगने पे ऐसे हल्कारे ना खाने पड़ें। अतिआत्मविश्वास में शुरू करते हो भगवान के नाम पे और जब कोई नहीं देता है तो मांगने-कोसने-डराने पे उतर आते हो। आव मोमेंट के एक्सप्रेशंस चेहरे पे लाते हुए मैंने दादी से कहा कि दादी आपने तो बैंड बजा दी बेचारे की।

और दोस्तों मानों या ना मानों, मंडी-फंडी और मीडिया का खापों के पीछे पड़ने का, इनकी रेपुटेशन डाउन करने की वजह ही यही है क्योंकि इनको ऐसे बेबाकी के जवाब और लताड़ खाप-विचारधारा के लोगों से ही ज्यादा पड़ती आई है। और हरयाणा के लोगों का यही बेबाक रवैया वजह रहा है कि आज हमारी धरती दक्षिण के मंदिरों में पाली जाने वाली देवदासी जैसी मानवता की क्रूरतम प्रथाओं से मुक्त है। खाप के कवच को यह लोग इसीलिए तोड़ना चाहते हैं ताकि हमारे बच्चों-औरतों पर से हमारे गौरव और अभिमान का कवच हटे और हम लोग अपनी औरतों से संवाद तोड़ें ताकि इनकी यह भगवान के नाम की दुकानें निर्बाध बढ़ती रहें।

और इनको इसमें सबसे ज्यादा सहयोग किया है गोल-बिंदी गैंग, एनजीओ, लेफ्ट ताकतों ने। देख लो लेफ्ट ताकतों, जो जिसके लिए गड्डा खोदता है उसमें सबसे पहले वही गिरता है। अगर यह बिना-सोची समझी तथाकथित आधुनिक समझदारी आप लोगों ने नहीं दिखाई होती तो आज आपके धुरविरोधी यानी राइट वालों की सरकार ना होती। खैर लेफ्ट-राइट वाली लेफ्ट-राइट वाले जानें।

लेख का तोड़ और निचोड़ यही है कि घरों में अपनी औरतों से तार्किक संवाद और विवेचना बना के रखें। मत भूलें कि एक घर समाज रुपी ईमारत की एक ईंट है। आपके घर से ओपिनियन बन-बन के सामाजिक निर्णय बनते हैं। बाकी समझदार के लिए संदेश लेने हेतु यह लेख काफी होना चाहिए। और काफी होना चाहिए कि मैंने 'झोटा-फलाइंगों' को फिर से खड़ा करने पे क्यों जोर दिया है।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 13 July 2015

जो जिससे जितनी नफरत करता है, राजनीति चाहने वाला उसको उतना ही गले लगाता है!

1) सरदार पटेल ने आरएसएस बैन करी, आज आरएसएस उन्हीं सरदार पटेल का स्टेचू बनवा रही है|

2) 1984-86 में पंजाब ने पाकिस्तानी पंजाबियों को जूते मार कर खदेड़ा तो उन्होंने 1947 की पहली खेप की तरह दूसरी खेप बन हरयाणा में ही शरण ली, परन्तु गौरव फिर भी पंजाबी ही कहलाने में करते हैं| बेशक हरयाणा में 3-3 पीढ़ियां गुजर गई हों, फिर भी हरयाणवी कहलवाना वा हरयाणत का आदर करना तो दूर उल्टा इन टोटल आल हरयाणवी और इसमें भी खासकर हरयाणा की फायर ब्रांड जाट के नाम से ऐसे बिदकते हैं जैसे कुत्ता ईंट से| और वो भी बावजूद इसके कि हरयाणवियों ने ना ही तो इनको पंजाब वाला 1984-86 का अनुभव दिया और ना मुंबई मराठियों वाला क्षेत्रवाद और भाषावाद का जहरीला भेदभाव| हालाँकि मैं किसी व्यक्तिगत अपवाद से इंकार नहीं करता, परन्तु सामूहिक तौर पर तो हरयाणवी समाज ने इनको गले ही लगाया|

ऐसे ही आज वाले शरणार्थियों के परिपेक्ष्य में मानता हूँ कि खेतों में लेबर चाहिए, और घर में मजदूर नहीं मिलता तो प्रवासी लेना पड़ता है; परन्तु काम के बदले पैसा दिया जा रहा है और यही दिया जाता है, इसको बनाये रखने के लिए अपनी सभ्यता-संस्कृति से समझौता अपनी साख और पहचान मिटाने जैसा है| सस्ती लेबर चाहिए समझ आती है, परन्तु क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति के ऐवज में?

इन पहले के आये शरणार्थियों ने सारे हरयाणा को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा बना के धरा हुआ है, तो कम से कम इस अनुभव को नए आने वाले-शरणार्थियों के मामले में तो प्रयोग करो|

वैसे हरयाणवियों द्वारा शरणार्थियों को घर और दिल में जगह देने की रीत उतनी ही पुरानी है जितनी सिकंदर के भारत में आने की तारीख| परन्तु वो माइथोलॉजी के चरित्र लक्ष्मण वाली लक्ष्मण रेखा जरूरी है शरणार्थी की हर अच्छी-बुरी मंशा में फर्क करने के लिए और उसमें से योग्य को अपनाने और अयोग्य को नकारने के लिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 12 July 2015

मुंबई के मराठी की मार से घबराया शरणार्थी, हरयावणियों पर आफत!


उत्तरी-पूर्वी भारतीय, मुंबई के मराठी के हाथों साम्प्रदायिकता, भाषावाद और क्षेत्रवाद की मार का अनुभव हरयाणा में हरयाणा-हरयाणवी और हरयाणत पर दानावल बनके उतरा है। आखिर ऐसी क्या वजहें हैं कि मुंबई में खुद ही के हिन्दू भाईयों के हाथों छित्तर खाने वाला यह तबका हरयाणा, एनसीआर में आ के इतना विश्वस्त व् आश्वस्त हो कर हिंदुत्व की राष्ट्रवादिता का नाटक खेल रहा है? आखिर यह मुंबई में इसकी पिटाई के अनुभव को हरयाणा (पश्चिमी-मध्य-पूर्वी तीनों हरयाणा) में कैसे इस्तेमाल कर रहा है? वहाँ इसको खुद की सुरक्षा के लाले पड़े रहते थे और यहां स्थानीय समाज को विखंडित कर रहा है?

मैं इस पर डिबेट चाहता हूँ। कृपया अपने अनुभव साझा करें, ताकि स्थानीय हरयाणवी को यह समझने में आसानी हो कि आखिर वो अपनी 'हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत' की रक्षा करने में चूक कहाँ और क्यों रहा है?
यह शरणार्थी आखिर स्थानीय हरयाणवी से चाहते क्या हैं?

साथ ही जोड़ दूँ, कि इसके निशाने पर सिर्फ हरयाणा ही नहीं पंजाब भी है। इसलिए पंजाब-हरयाणा के बाशिंदे दोनों मिलकर इस पर अपने विचार रखें।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राजपूत बनाम जाट जिरह के विभिन्न रियल (असली) - फेक (नकली) एफ.बी. पेजों और आईडीज़ पर मुझे टैग करने वालों जाटों के लिए एकमुस्त फार्मूला!

जाट (ताऊ देवीलाल) द्वारा 2-2 बार राजपूत (VP Singh and Chandershekhar) प्रधानमंत्री बनाये गए, राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत मुख्यमंत्री बने तब उनको भी ताऊ देवीलाल की जनता दल और विधानसभा में दातारामगढ़ से निर्दलीय विधायक अजय सिंह ने अपना वोट दे मुख्यमंत्री के लिए जरूरी बहुमत दिलवाया था| तो ऐसे इतिहास से भी अगर किसी राजपूत को यह समझ नहीं आता कि कौन जाति उनके नफे की है और कौन उनके नुक्सान की, तो फिर मैं तो क्या हजार जाट भी मिलके राजपूत को जाट के खिलाफ फंडी वाली भाषा बोलने से नहीं रोक सकते।

वैसे कई बार देखने में आया है कि ऐसे आईडीज़ के पीछे एंटी-जाट ताकतों के एजेंट बैठे होते हैं, जो यह जानते हैं कि जब तक वो अजगर (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) की फूट को भुना रहे हैं तब तक जिन्दा हैं। खैर वो आईडीज़ के पीछे बैठे हों या वास्तव में किसी राजपूत को जाट के प्रति भड़का के बैठाते हों, जब तक ऐसे लोग अपनी फसलों के दामों और किसानी अधिकारों बारे संजीदा हो अजगर एकता के महत्व को नहीं समझेंगे, अपने और अपनी कौम समेत अजगर के अस्तित्व रुपी पैर पर अपने हाथों कुल्हाड़ी मारने वाला काम करते रहेंगे। ऐसे लोगों को खुद का समाज ही सम्मान नहीं देता| हाँ इनको सिर्फ मंडी-फंडी यानी अजगर एकता विरोधी ताकतें जरूर तवज्जो देती हैं।

ऐसी एंटी-जाट पोस्टों पर जाट भी गर्म-जोशी में अपनी प्रतिक्रिया देने से पहले, अपने आपको तार्किक बनाएं और ऐतिहासिक तथ्यों से अपनी बात रखें तो जरूर सामने वाले पर असर होगा। वर्ना भड़काऊ के बदले भड़काऊ जवाब देने से तो फिर आप भी मंडी-फंडी के मन की चाही कर रहे हैं।

इसीलिए दोनों ही समुदायों के युवाओं को ऐसे दुष्प्रचारों और घृणाओं में पड़ने से पहले बागरु (मोती-डूंगरी) की कुशवाहा राजपूत और भरतपुर के जाटों के आपसी सहयोग व् खापों के सहयोग के ऐतिहासिक किस्सों समेत 'अजगर' इतिहास को आगे रख के दोनों तरफ के दिशाहीन युवकों व् अनुभवियों को दोनों की आपसी समरसता और सहयोग की जरूरत पर जोर दिलवाना चाहिए। किसान इधर भी हैं और किसान उधर भी। आप लोगों की यह नादानियाँ किसानों के हितों हेतु दोनों समुदायों को एक हो के लड़ने के इरादों पर पानी फेरती हैं। इसीलिए जितना हो सके, ऐसी बहसों को नकारते हुए व् दरकिनार करते हुए चलना चाहिए।

अरे जब कॉमन इंटरेस्ट सेम, इतिहास में आपसी सहयोग के किस्से सेम तो फिर यह मंडी-फंडी को फूट रुपी जहर भरी दुनाली चलाने को अपने कंधे क्यों इस्तेमाल करने देना?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 11 July 2015

छाज तो बोलै, छालनी भी के बोलै जिसमें बाहत्तर छेद!

हास्यास्पद तो यह है कि बेटियों को बेचने वाले, विधवाओं को आश्रमों में भेजने वाले, विवाहिता की देखभाल के नाम पर 'कच्छा-टांग' संस्कृति पालने वाले, नवजन्मा को दूध के कड़ाहों में डुबो के मारने वाले, दलितों की बेटियों को देवदासी के नाम पर वेश्या बनाने वाले समाजों व् क्षेत्रों से आने वाले लोग न्यूजरूम्ज और एनजीओज में बैठ के हरयाणा को 'बेटी बचाओ', 'हॉनर किलिंग', 'वुमन एम्पावरमेंट', 'वुमन रेस्पेक्ट' और 'वुमन सेफ्टी' के लेक्चर देते हैं|

और इसपे भी मजे की बात तो यह है कि हरयाणा वाले जब से ऐसे लोगों की सुनने लगे, तब से हरयाणा में औरत के खिलाफ हर अपराध ने दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की करी है| मुझे तो डर है कि यह कच्छा-टांग और देवदासी पालने वाली संस्कृति के लोग हरयाणा में औरत का मान बढवावें या ना बढवावें परन्तु यहां देवदासियां जरूर पलवा देंगे|

जब से हरयाणा में, "छाज तो बोलै, छालनी भी के बोलै जिसमें बाहत्तर छेद!" जैसे झन्नाटेदार जवाब दे, कुबुद्धि व् दुर्बुद्धि दुष्टों का मुंह थोबने (बंद करने) वाले खामोश हुए हैं तब से इन छद्म समाजसुधारकों की समाज में पौ-बारह हुई पड़ी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आज के इस अंधभक्ति के दौर में जाट के आगे अपने "जाट जी" और "जाट देवता" टाइटल को बचाने का संकट!


अरे मखा, मैं न्यूं कहूँ पूरे हिन्दू धर्म में जाट अकेली ऐसी कौम है जिसकी, वो ब्राह्मण जो बाकी की हिन्दू कौमों को सिर्फ दिशा-निर्देशों से चलाता आया, वो जाट की स्तुति करता आया है| ब्राह्मण ने अपने हाथों घड़े तथाकथित क्षत्रियों-वैश्यों की इतनी प्रसंशा नहीं करी जितनी जाट की करी| आधुनिक काल का उदाहरण दूँ तो सम्पूर्ण ब्राह्मण समाज के निर्देश पे 1875 में रचित गुजरात वाले ब्राह्मण 'दयानंद सरस्वती' का "सत्यार्थ प्रकाश" उठा के पढ़ लो, "जाट जी" लिख के जाट के गुणों की स्तुति तो करी ही करी, साथ ही जाट सामाजिक मान्यताओं की प्रशंसा पर आधारित पूरी किताब यानी "सत्यार्थ प्रकाश" तक लिखी|

दूसरा आधुनिक काल का उदाहरण हाल ही में "भारत रत्न" से नवाजे गए पंडित मदन-मोहन मालवीय द्वारा जब 1932 में दिल्ली बिड़ला मंदिर की नींव रखने हेतु प्रस्ताव रखा गया कि वो ही राजा इस मंदिर की नींव रखेगा:

1) जिसका वंश उच्च कोटि का हो!
2) जिसका चरित्र आदर्श हो!
3) जो शराब व् मांस का सेवन ना करता हो!
4) जिसने एक से अधिक विवाह ना किये हों!
5) जिसके वंश ने मुग़लों को अपनी लड़की ना दी हो!
6) व् जिसके दरबार में रंडियाँ ना नाचती हों!

इस प्रस्ताव को सुनकर देश के कौनों-कौनों के रजवाड़ों से आये राजाओं-राणाओं ने अपनी गर्दनें झुका ली| तब धौलपुर नरेश महाराजा उदयभानु सिंह राणा अपनी जगह से उठे जो इन सभी 6 शर्तों पर खरे पाये गए| और मालवीय जी ने यह कहते हुए कि "जाट नरेश धौलपुर पूरे भारतवर्ष की शान हैं", राणा जी से दिल्ली बिड़ला मंदिर की नींव का पत्थर रखवाया| आज भी इस मंदिर के प्रांगण में राणा जी की मूर्ती व् संबंधित शिलालेख स्थापित हैं| तो सोचने की बात है कि जो कौम उच्च कोटि के मंदिरों की नींव रखती आई हो वह मंदिर में प्रवेश की मनाही वाली शूद्र की श्रेणी तो हो नहीं सकती| हालाँकि लेखक वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था का घोर विरोधी है परन्तु क्योंकि यह लेख इन्हीं पहलुओं बारे है तो यह लिखने हेतु जरूरी कारक के रूप में लिखा है|

ऐसे अद्वितीय व् अद्भुत उदाहरण अपनी जलन/द्वेष/प्रतिस्पर्धा शांत करने हेतु जाटों को कभी चांडाल, कभी शूद्र तो कभी लुटेरे कहने वालों के मुंह पे तमाचा मार देते हैं| अत: जिसको उच्च कोटि का ब्राह्मण लिखित और सम्बोधन में 'जी', 'देवता' और 'देश की शान' कहके सम्बोधित किया हो वो कौम भला शूद्र या चांडाल कैसे हो सकती है? सवाल ही पैदा नहीं होता| हालाँकि जाट का इतिहास रहा है कि वो अपनी स्वछंद मति के शब्द को अंतिम मानता आया है, जिसकी कि अपनी वाजिब वजहें भी रही हैं; परन्तु यह भी सच है कि ब्राह्मण ने जाट को "जी" भी कहा है और "देवता" भी|

एक बार मेरे को एक तथाकथित क्षत्रिय ने उसके दो परम्परागत एंटी-जाट यारों के सिखाये पे (सिखाये पे, वैसे सामान्य परिस्थिति में वो अच्छा और साफ़ दिल का दोस्त होता था) 'घुटनों में अक्ल वाला' बोल दिया| तो मैंने उसको तपाक से जवाब दिया था, 'मखा सुन, जिनके चरणों में तुम अपनी अक्ल गिरवी रखते हो ना, वो हमें लिखित में 'जाट जी' और 'जाट देवता' कहते रहे हैं|' इससे हिसाब लगा ले अगर तेरे अनुसार हमारी अक्ल घुटनों में है तो फिर तेरी तो तेरे तलवे भी छोड़ चुकी| जवाब सुनते ही गुम गया और उसको ऐसा बोलने के लिए उकसाने वाले उसके आजू-बाजू खड़े अचम्भित व् शब्दरहित|

लगे हाथ एक पहरे में चांडाल, शूद्र और लुटेरे शब्दों का भी हिसाब कर दूँ| कई लोग अपनी कुंठा को शांत करने हेतु चचनामा का उदाहरण उठा लाते हैं कि चचनामा में जाटों को चांडाल कहा गया है| अरे भाई जो मंत्री होते हुए धोखे से जाट राजा को मार, उसकी रियासत हथिया कर राजा बना हो वो भला फिर जाट की तारीफ कैसे कर देगा? वो तो घृणा वा दुश्मनीवश चांडाल ही कहेगा ना? फिर तर्क देने लग जाते हैं कि जाटों ने आरक्षण लेने के लिए ऐसे तथ्य कोर्ट में क्यों रखे? अरे भाई कोर्ट में रखे तो यह कहने को नहीं रखे कि हम चांडाल थे, अपितु यह बताने को रखे कि इतिहास में हमने क्या-क्या धोखे और दंश झेले हैं| अब फिर कुछ को चांडाल और शूद्र का बाण जब फ़ैल होता दीखता है तो 'लुटेरे' शब्द उठा लाता है| अरे भाई ऐसा कहना ही है तो हमको लुटेरे मत कहो, 'लुटेरों के लुटेरे' कहो! पूछो क्यों? अमां मियां, जो विश्व के महानतम लुटेरों जैसे कि सोमनाथ मंदिर के खजाने को लूटने वाले लुटेरे महमूद ग़ज़नवी की लूट को सिंध में ही लूट लेवें, देश के धन और शान को देश में ही रोक, विदेश जाने के कलंक से बचावें, तो वो तो फिर 'लुटेरों के लुटेरे' हुए ना? और समाजशास्त्र में लुटेरों के लुटेरे को मसीहा अथवा रोबिन हुड केटेगरी बोला जाता है| और ऐसे-ऐसे कारनामों की वजह से ही तो ब्राह्मण ने जाट को जाट देवता कहा, क्योंकि जिस खजाने को लुटने से खुद सोमनाथ देवता नहीं बचा सके, उसको जाट-देवताओं ने लुटेरे से छीन बचाया और देश-कौम-धर्म की लाज की रक्षा करी|

जोड़ते चलूँ कि यह कारनामा सिंध में औजस्वी दादावीर बाला जाट-देवता जी महाराज की नेतृत्व वाली खाप आर्मी ने धाड़ (धाड़ वही युद्ध-कला है जिसको हिंदी में गुर्रिल्लावार कहते हैं, जिसको मराठों और हैदराबादियों ने जाटों से सीखा और जिसको जाट जब सिख बने तो सिख धर्म में साथ ले गए) लगा के किया था| धाड़ के नाम पर आज भी हरयाणा में कहावत चलती है कि फलानि-धकड़ी बात 'रै के धाड़ पड़गी' या 'के धाड़ मारै सै'।

परन्तु दुःख तो आज इन अंधभक्त बने जाटों को देख के होता है कि जिनके पुरखे खुद जिन्दे देवता कहलाते थे और जिनसे फंडी-पाखंडी-आडंबरी इतना भय खाते थे कि उनकी धरती पे पाखंड फैलाने की तो बात बहुत दूर की अपितु जाट को "जाट जी" और "जाट देवता" कहके बुलाते थे; आज उन्हीं जाटों के वंशज कैसे वशीभूत हुए अविवेकी बन अज्ञानी-अधर्मियों की तरह इनके इशारों पे टूल रहे हैं| और शहरी जाट तो इस मामले ग्रामीणों से भी दो चंदे अगाऊ कूदे पड़े हैं|

खापलैंड के तमाम शहरों के जाट घरों में इक्का-दुक्का को छोड़, क्या मजाल जो एक भी घर ऐसा बचा हो कि जिसके यहाँ माता-मसानी पीढ़ा-चौकी लाएं/लगाएं ना बैठी/पसरी पड़ी हो| वैसे तो कहने को राजी हुए रहेंगे कि म्हारै तो जी आदमी-उदमी किमें ना मानते इन पाखंडां नैं, बस यें लुगाई-पताई ना मानती| मानती किसी ना उनके साथ बैठ के कभी खुद की जाति के टाइटल रहे 'जाट जी' और 'जाट देवता' जैसी बातों का कारण समेत जिक्र करो, उनको शुद्ध जाट सभ्यता और मान्यताओं बारे अवगत करवाओ तो कौन नहीं मानेगी?

याद रखना होगा जाट कौम के युवान और अनुभवी दोनों को, अगर हमें 'जाट जी' और 'जाट देवता' बने रहना है तो अपने पुरखों की हस्ती को याद करना होगा, याद रखना होगा, उसको जिन्दा रखना होगा| जाट का धर्म के साथ तभी रिश्ता सुलभ है जब तक जाट धर्म वालों के लिए "जाट जी" और "जिन्दा देवता" है| जिस दिन या जब-जब इन टाइटलों को छोड़ या भूल इनके वशीभूत या अभिभूत हुए, उस दिन सचली (असली) के भूत बना दिए जाओगे और समाज की क्रूरतम जाति बनने और कहलाने के ढर्रे पर धकेल दिए जाओगे| और जो आज के जाट के हालातों को जानता है वो मेरी भूत वाली पंक्ति से सहमत होयेगा|

चलते-चलते यह और कहूँगा कि धरती पर माँ के सिवाय (आपकी खुद की बीवी ना आने तक, उसके आने के बाद माँ की भी गारंटी नहीं) कोई भी आपकी प्रसंशा, अनुसंशा बिना स्वार्थ के नहीं करता| वह ऐसा या तो बदले में कुछ चाहने हेतु करता है या आपके जरिये अपनी कोई स्वार्थ सिद्धि करता है|  इसलिए उसकी प्रशंसा को तो स्वीकार करो परन्तु उसका शिकार कभी मत बनो| और यह बात जिस संदर्भ में मैंने कही है मेरी इस बात को मंडी-फंडी और जाट के ऐतिहासिक रिलेशन को जानने वाला अच्छे से समझता है|

जय जाट देवता!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 10 July 2015

जाटों व् जाट भाईचारा जातियों के यहां 'धाणी (ध्याणी/देहळ) की औलाद' का लिंग-समानता का स्वर्णिम नियम!


जाट व् समकक्ष भाईचारा जातियों में 'खेड़े के गोत' की मान्यता होती है| 'खेड़े के गोत' की परिभाषा लिंग समानता पर आधारित है जो कहती है कि गाँव में बसने वाली औलाद वो चाहे बेटा हो या बेटी, दोनों की औलादों के लिए खेड़े यानी बेटे-बेटी का ही गोत प्राथमिक गोत के तौर पर चलेगा| उदाहरण के तौर पर मेरे गाँव निडाना नगरी, जिला जींद में जाटों के लिए खेड़े का गोत मलिक है, धानक (कबीरपंथी) बिरादरी के खेड़े का गोत 'खटक' है, चमार (रविदासी) बिरादरी का 'रंगा' है, आदि-आदि|

तो 'खेड़े के गोत की परिभाषा' कहती है कि मलिक जाट का बेटा हो या बेटी, अगर वो ब्याह पश्चात निडाना में ही बसते हैं तो उनकी औलादों के लिए 'मलिक' गोत ही चलेगा| बहु ब्याह के आती है तो वो अपना गोत पीछे मायके में छोड़ के आती है और अगर जमाई गाँव में आ के बसता है तो वो भी अपना गोत अपने मायके में ही छोड़ के आएगा| यानी कि निडाना मलिक जाट की बेटी के उसकी ससुराल में जा के बसने पर उसकी औलादों के लिए जो गोत चलता वो उसके पति का होता, परन्तु अगर वो निडाना आ के बसती है तो उसकी औलादों का गोत पति वाला नहीं वरन बेटी वाला यानी मलिक होगा|

मेरे गाँव में 20 के करीब जाट परिवार ऐसे हैं जिनको धाणी यानी बेटी की औलाद बोला जाता है और उनका गोत उनके पिता का गोत ना हो के उनकी माँ यानी हमारे गाँव की बेटी का गोत मलिक चलता है|

बेटी के अपने मायके में बसने के निम्नलिखित कारण होते हैं:

1) अगर बेटी का कोई माँ-जाया (सगा) भाई नहीं है तो|
2) अगर बेटी का तलाक हो गया और दूसरा विवाह नहीं हुआ अथवा बेटी ने नहीं किया हो तो|
3) अगर बेटी के ससुराल में किसी विवाद या रंजिश के चलते, बेटी को विस्थापित हो के मायके आन बसना पड़े तो|

मुख्यत: कारण पहला ही होता है| दूसरे और तीसरे कारण में कोशिश रहती है कि तलाक ना होने दिया जाए या बेटी की ससुराल में जो भी विवाद या रंजिश है उसको बेटी का मायके का परिवार व् पंचायत मिलके सुलझवाने की कोशिश करते हैं|

यहां यह भी देखा गया है कि औलाद द्वारा पिता का गोत छोड़ माँ का धारण करने की सूरत पहले बिंदु में ज्यादा रहती है, जबकि दूसरे और तीसरे में निर्भर करता है कि मायके आन बसने के वक्त बेटी की औलादें कितनी उम्र की हैं| वयस्क अवस्था हासिल कर चुकी हों तो पिता व् माता दोनों की चॉइस रहती है| परन्तु पहले बिंदु में ब्याह के वक्त अथवा एक-दो साल के भीतर घर-जमाई बनने की सूरत में 'देहल' का ही गोत चलता है|

'धाणी की औलाद' का कांसेप्ट जींद-हिसार-सिरसा-भिवानी-कुरुक्षेत्र-करनाल-यमुनानगर, पंजाब की ओर पाया जाता है| वहीँ इसको रोहतक-सोनीपत-झज्जर-रिवाड़ी-गुड़गांव की तरफ 'देहल की औलाद' के नाम से जाना जाता है| बाकी की खापलैंड के क्षेत्र जैसे दोआब, दिल्ली और ब्रज में यह कैसे चलता है इसपे तथ्य जुटाने अभी बाकी हैं|

क्योंकि अभी पूरी खपलांड का शोध नहीं किया गया है इसलिए मैं किसी किवदंति अथवा अपवाद से इंकार नहीं करता| परन्तु जो भी हो, इन जातियों और समाजों के इस नियम में लिंग-समानता का इतना बड़ा तथ्य विराजमान करता है, यह अगर एंटी-जाट मीडिया (सिर्फ एंटी-जाट सारा मीडिया नहीं), एन.जी.ओ. और रेड-टेप गोल-बिंदी गैंग जानेंगे तो कहीं उल्टी-दस्त के साथ-साथ चक्कर खा के ना गिर जावें|

खापलैंड और पंजाब के भिन्न-भिन्न कोनों में बैठे, मेरे दोस्त-मित्रों से अनुरोध है कि उनके यहां इस तथ्य का क्या प्रारूप और स्वरूप है, उससे जरूर अवगत करवाएं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 8 July 2015

दक्षिण भारतीय हिन्दू वैवाहिक परम्परा - खुलेपन की निशानी अथवा औरत की जुबान बंद करने की चालाकी?

एक लाइन में: औरत द्वारा जमीन-जायदाद में हिस्से के लिए आवाज ना उठाने का रास्ता!

इसको समझने के लिए पहले नजर डालते हुए चलते हैं कि दक्षिणी भारत में किस-किस प्रकार के नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह हो सकते हैं!

1) मामा अपनी भानजी यानी बहन की बेटी से विवाह कर सकता है- कारण साफ़ है ताकि बहन  जमीन-जायदाद में हिस्सा ना मांगने लग जाए, इसलिए बहन की बेटी ब्याह के सब घर-की-घर में रख लो। 
2) बुआ की लड़की से शादी - कारण साफ़ है ताकि बुआ जमीन-जायदाद में हिस्सा ना मांगने लग जाए, इसलिए बुआ की बेटी ब्याह के सब घर-की-घर में रख लो।

साफ़ है कि हकीकत में दक्षिणी भारतीय हिन्दू मर्द उत्तरी भारतीय मर्द से कहीं ज्यादा प्रो-पुरुषवादी है और इतना ज्यादा पुरुषवादी कि औरतों द्वारा जमीन-जायदाद में हक की बात करने की नौबत ही नहीं आने देते।

उत्तरी भारत में भी स्वघोषित धर्मध्वजा वाहक समुदाय व् व्यापारिक समुदायों में कुछ-कुछ ऐसी ही चालाकी देखने को मिलती है, लेकिन अधिकतर लव मैरिज के मामलों में ही। जब कोई एक ही परिवार या स्वगोत में ऐसा लव मैरिज के केस का पेंच फंसता है तो यह लोग लड़की को मामा का गोत (गोत्र) दिलवा कर मामला नक्की करवा डालते हैं। लड़के का गोत नहीं बदला जाता क्योंकि

1) एक तो लड़का कुल-वंश का दीपक होता है|
2) दूसरा उसका गोत बदला तो खानदान की लाइन फिर किसी और ही गोत पे चली जाएगी। और फिर लड़के के प्रॉपर्टी राइट्स ट्रांसफर करने का लफड़ा। 
3) तीसरा लड़का फिर कहीं जो उसको अपना गोत देता है उसकी प्रॉपर्टी में हक ना क्लेम कर बैठे।

लड़की का क्या है मामा का गोत ले या बाप का, भेजना तो लड़के के साथ है, जिसमें प्रॉपर्टी देने का तो बाई-डिफ़ॉल्ट ऑप्शन ही नहीं होता। वैसे कायदे से देखो तो लड़की ने जिस भी रिश्तेदार का गोत अडॉप्ट किया, उसको अडॉप्ट करना तो तभी कहा जायेगा ना जब अडॉप्ट करने वाला परिवार लड़की को अपनी जमीन-जायदाद में भी हिस्सा देवे। ऐसा करने वाले इन डेढ़ स्यानों को यह भी नहीं इल्म रहता कि लड़की ने अगर अडॉप्ट करने वाले की प्रॉपर्टी में क्लेम कर दिया तो? खैर क्लेम तो बेचारी तब करेगी ना जब यह एडॉप्शन ऑफिसियल होता हो। कई लोग इसको लव मैरिज समस्या का आसान हल बताते हैं, परन्तु वास्तव में है यह औरत की प्रॉपर्टी को अपने कब्जे में बनाये रखने की चालाकी।

ऐसे में भारत में औरत को सबसे अधिक व् पक्षपात रहित हक देने वाली वैवाहिक प्रणाली है तो वह है जाट-कौम की। हालाँकि ऐसा नहीं है कि इसमें सुधारों की गुंजाइश नहीं| है, परन्तु इतनी नहीं जितनी कि इन औरों के यहां है। 

1) जहां इन ऊपर बताये समुदायों में माँ के गोत की कोई कद्र ही नहीं, वहीँ जाट सभ्यता कहती है कि माँ-बाप दोनों के गोत बराबरी की अहमियत से छूटेंगे।
2) जहां ऊपर बताये समुदायों की वैवाहिक प्रणाली औरत को उसकी जायदाद को बिना अवरोध के धूर्त चालाकी से अपने कब्जे में रखने की है, वहीँ जाट इसमें ज्यादा ईमानदारी बरतता है कि वो कम से कम औरत की जमीन को हथियाये रखने के लिए गोत टालने के वैज्ञानिक कारणों को ताक़ पे नहीं रखता है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी बंगाल की जलपाईगुड़ी इलाके की टोटो जनजाति जिनमें मामा-चाचा के बच्चों {नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों)} की शादी की जाती है, जिसकी वजह से व् कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र कैंसर रिसर्च सेंटर की शोध के अनुसार इस समुदाय में 56 फीसदी लोग थैलीसीमिया के शिकार हैं। दयानंद मेडिकल कॉलेज, लुधियाना पंजाब के प्रोफेसर सोबती के शोध के अनुसार इन्हीं वजहों के चलते पाकिस्तान पंजाब से आई नश्लों में भी 7.5% लोग थैलिसीमिया की बीमारी से ग्रस्त हैं| यहां तक कि विश्व के ईसाई समुदाय में भी नजदीकी खून व् सगोतीय विवाह वैज्ञानिक आधार पर मान्य नहीं हैं।
3) जाट समुदाय में औरत का सम्पत्ति हक विवाह से पहले पिता के यहां रहता है और विवाह पश्चात पति की सम्पत्ति में स्थानांतरित हो जाता है। जबकि इनके यहां औरत के विधवा होने पर उसको उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा-आश्रमों में भेजने की परम्परा है| जो साबित करता है कि इन्होनें औरत को यह हक किसी  भी सूरत में दिए ही नहीं हैं जबकि जाटों के यहां उसके पति की विरासत तो उसकी रहती-ही-रहती है साथ-साथ उसको पुनर्विवाह की भी अनुमति रहती है। 

ऐसे ही अन्य और भी बहुत से पहलु हैं जो जाट वैवाहिक प्रणाली ने ज्यादा खूबसूरती व् निष्पक्षता से पाले हुए हैं।

आखिर 2005 में यह कानून क्यों बनवाया गया कि औरत को पैतृक सम्पत्ति में हक होना चाहिए?:  वजह साफ़ है इन समुदायों को इस कानून से कोई खतरा ही नहीं, क्योंकि भतीजी-भांजियों से ब्याह करने की परम्परा होने की वजह से इनकी स्थिति में कोई बदलाव आना नहीं। इनके यहां औरत आवाज उठाएगी भी तो सम्पत्ति स्थांतरित कहाँ होएगी …… वहीँ घर की घर में ही? तो फिर अचानक यह औरत की प्रॉपर्टी के हक बारे जुबान को इतनी चालाकी से अपने ही घर में लपेट लेने वाले इतने प्रो-औरत कैसे बन गए? कारण साफ़ है ताकि युगों-युगों से भारत की सबसे प्रो-औरत कम्युनिटी जाट (हालाँकि सुधारों की गुंजाइस इनके यहां भी है) के यहां सामाजिक व् पारवारिक ताने-बाने में उथल-पुथल मचाई जा सके। वरना यह लोग और प्रो-औरत, क्यों मजाक करते हो भाई। और ज्यादा तो छोडो इनसे सिर्फ एक इतना करवा दो कि यह अपनी विधवा औरतों को उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में भेजना बंद कर दें, फिर विचार करूँगा कि इनका यह बदला रूप वाकई में निश्छल है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक