Tuesday, 21 July 2015

चूचियों में हाड टोहने वालों से सवाल!


जाटों की औरतों को रोड-सड़क के किनारों से खेतों में काम करते हुए देख, जाटों पे औरतों से डबल-डबल यानी घर का भी और खेत का भी काम लेने या सारा काम औरतों द्वारा ही करने का इल्जाम लगाने वाले अक्सर उन घरों से होते हैं जिनके यहां औरतें उनके लिए चूल्हा-चौका फूंकने के साथ घर में ही पचरंगा जैसे अचार डालने, ऑफिस एम्प्लाइज के लिए लंच-बॉक्स (मुम्बैया स्टाइल वाला टिफिन) तैयार करने से ले दरी-शाल-खेस बुनने के हथकरघों पे बैठी-बैठी खांसी-दमे की मरीज बन जाती हैं|

परन्तु वो इनको खुद को तो इसलिए नहीं दिखती क्योंकि इनके घर का मामला है, जाट इनको इसलिए नहीं दिखाता क्योंकि उसको चूचियों में हाड टोहने की लत नहीं| ऊपर से यह औरतें बंद घरों-गोदामों या दुकानों में ऐसे कार्य करती हैं, इसलिए बाहर के किसी इंसान को दिखती नहीं|

तो भाई चूचियों में हाड टोहने वालो, थम के चाहो कि इब हम थारे यहां सीसीटीवी कैमरे लगवा के तुम्हें तुम्हारे घरों में औरत की कितनी बदतर हालत है इसका आईना दिखावें तुमको, तब जा के यह चूचियों में हाड टोहने छोड़ोगे?

और बाई दी वे यह चूल्हे-चौकें के साथ जैसे ऑफिस गोइंग औरतें वर्किंग वीमेन कहलाती हैं और इस कल्चर को तुम लोग बड़ा हाई-स्टैण्डर्ड मान के बौराते फिरते हो, तो जाटों के यहां क्या वर्किंग वीमेन नाम के कल्चर पे कोई चीज नहीं होती या वो जाटों के यहां आते-आते वीमेन से डबल काम लेने से ले उसको काम के बोझ से लादे रखने का सगुफा बन जाती हैं? मैं कहूँ मखा थम टिक के खा लो, नहीं तो जो हमने कैमरे उठा लिए तो थमको अपने घरों की दीवारें सीसीटीवी कैमरा प्रूफ और सेंसिटिव बनवानी पड़ जांगी|

हरयाणवी कहावत "चूचियों में हाड टोहने' का मतलब होता है बिना बात की बात की बात बढ़ा के उसकी पूंछ बना देना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अंतर्जातीय ब्याह को बढ़ावा देने की बात पर कुछ जाट!


अंतर्जातीय ब्याह को बढ़ावा देने की बात पर कुछ जाट इतने भोलेपन में कहेंगे कि ठीक है हरयाणा में खुल जाए तो हमको उड़ीसा-बंगाल-बिहार की तरफ नहीं देखना पड़ेगा।

अरे भाई दूसरी जातियों में क्या छोरियाँ डबल संख्या में हैं, जो उड़ीसा-बंगाल-बिहार की तरफ नहीं देखना पड़ेगा? देखना तो फिर भी पड़ेगा ना? आखिर हरयाणा में हैं तो 877 छोरी ही हैं ना 1000 छोरों पर?

बल्कि इस एंगल से तो जाटों को नुक्सान और उठाना पड़ सकता है, क्योंकि हरयाणा में खत्री-अरोड़ा, बनिया जैसी ऐसी शहरी जातियां हैं जिनमें जाटों से भी कम छोरियां हैं। ना यकीन हो तो हरयाणा जनसांख्यिकी के शहरी बनाम ग्रामीण आंकड़े उठा के देख लो। हरयाणे के हर जिले में शहरी लिंगानुपात तो ग्रामीण से भी ढुलमुल है।

तो यें के इहसा छोरियाँ का गोदाम ले रे सैं कि जो अगर अंतर्जातीय ब्याह होने लग जावें तो इनकी भी सध जाएगी और जाटों की भी साध देंगे? बल्कि उल्टा इस अंतर्जातीय ब्याह के ओढ़े में थारी इंटेलीजेंट और अच्छी पढ़ी-लिखी व् समझदार लड़कियों को और ब्याह ले जायेंगे और फिर थम हाँडियो उलटे वहीँ बिहार-बंगाल-उड़ीसा के ही चक्कर काटते। मेरे बट्टे भोलेपन में उलटे-सीधे ताकू चलायें जां सैं।

वैसे भी जाटों के यहां तो खापों से ले खुद जाटों ने सदियों-सदियों से अंतर्जातीय ही नहीं अपितु अंतरधार्मिक ब्याह भी करे, तभी तो कहावत हुई कि 'जाट के आई और जाटनी कुहाई!'

तो भाई हमारे लिए अंतर्जातीय विवाह के पहलु में नया पहलु क्या? खाम्खा के विद्वता के झंडे कौम-राज्य की हंसी का सबब बनते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

अगर ब्राह्मण पुजारियों को उनकी जाति में भी अंतर्जातीय विवाह खोलने की बात नहीं करनी थी तो सिर्फ अजगर में खोलने की बात पर पंचायत क्यों बुलाई?

खाप-पंचायतों ने जब पहले से तमाम अंतर्जातीय विवाह खोले हुए हैं। सिर्फ अजगर तो क्या आप किसी भी जाति में विवाह करो इसपे पहले से ही कोई रोक नहीं है तो यह नया स्वांग किस शौक और उद्देश्य से? अजगर को बाकी जातियों से अलग-थलग करने के लिए?

अगर ब्राह्मण पुजारियों को उनकी जाति में भी अंतर्जातीय विवाह खोलने की बात नहीं करनी थी तो अजगर को यह पंचायत जाति -पाति के केंद्रबिंदु किसी मंदिर के प्रांगण में करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी? अथवा यह पंचायत किसी गैर-अजगर प्रतिनिधि ने बुलाई थी? और बुलाई थी तो इसमें अजगर के लोग व् प्रतिनिधि गए क्यों थे?

अजगर समूह से जो गए वो यह क्यों भूल गए कि आप जिन खाप-पंचायतों के प्रतिनिधि हैं वो जातिवाद व् वर्णवाद की विरोधी रही है? और इसीलिए इतिहास में खाप अथवा अजगर की कोई भी पंचायत मंदिर में होने का कोई इतिहास नहीं। मंदिर तो क्या वरन किसी भी धर्म के धर्मस्थल में ऐसी पंचायत होने का कोई इतिहास नहीं।

25-11-2014 को जींद में भी ऐसी खाप-पंचायत आयोजित हुई थी जो आर्ट ऑफ़ लाइफ वालों ने बुलाई थी। उस पंचायत के नतीजे इतने भयानक आये थे कि आज पूरा हरयाणा जाट बनाम नॉन-जाट की भट्टी में अपनी चरमसीमा के स्तर तक धधक रहा है। भगवान जाने यह गाज़ियाबाद में हुई इस तरह की दूसरी पंचायत के क्या दुष्परिणाम सामने आने वाले हैं।

और इस अख़बार वाले का 'अब' शब्द प्रयोग करना तो ऐसे हो गया जैसे कि इससे पहले अजगर में आपस में विवाह ही नहीं हुए। हद है इनकी भी धक्के का खुलापन और प्रतिनिधित्व सिद्ध करने की।

सर्वखाप में अंतर्जातीय स्वयंवर का अनूठा संयोग: इतिहास पर नजर डालने पर पता चलता है कि कई खाप वीरांगनाओं द्वारा स्वेच्छा से अंतर्जातीय वर चुने गए|

1355 में चुगताई और चंगेजों को लोहे के चने चबवाने वाली दादीराणी भागीरथी देवी जी महाराणी ने प्रतिज्ञा की थी कि अपने समान योग्य वीर योद्धा से ही विवाह करूंगी| और क्योंकि उस समय पंचायत संगठन में स्वंयवर करने की विधि का प्रचलन था तो इस युद्ध के दो वर्ष पीछे भागीरथी देवी ने स्वेच्छा से पंचायत के सानिध्य में एक महा-तेजस्वी पंजाब के रणधीर गुर्जर योद्धा से विवाह किया| इसके साथ ही कुछ और भी देवियों ने स्वंयवर किये, जिनमें दो देवियों के विवाह विवरण इस प्रकार हैं|

उसी काल में दादीराणी महादेवी गुर्जर वीरांगना ने दादावीर बलराम जी नाम के जाट योद्धेय से स्वयंवर किया|

वीरांगना महावीरी रवे की लड़की ने अपने समान दुर्दांत योद्धेय दादावीर भद्रचन्द सैनी जी से विवाह किया|

एक राजपूत जाति की लड़की ने कोली जाट वीर योद्धेय से विवाह किया|

इसी प्रकार भंगी कुल की तथा ब्राह्मण कुल की कन्याओं ने भी अपनी मनपसंद वीरों से स्वयंवर किये|

खापों के इतिहास में ऐसे यह अपने-आप में ऐसा विलक्षण अवसर था जब एक साथ इतनी वीरांगनाओं ने स्वयंवर किये थे| और एक बार फिर समाज में यह सन्देश गया था कि सर्वखाप एक जातिविहीन, ऊंच-नीच व् वर्ण-व्यवस्था रिक्त सामाजिक तंत्र है| अत: इसमें जातीय-कुल-वंश-रंग-भेद के हिसाब से कोई भेदभाव नहीं था|

भगवान बचाये अजगर समूह को इन लोगों की गन्दी नजरों और मंदी नियत से।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


 

Monday, 20 July 2015

जाट अगर अपनी 'जाट थ्योरी ऑफ़ सोशल लाइफ एंड कंडक्ट' पे रहे तो जाट और दलित का कभी झगड़ा ना हो!


1) पूरे भारत में जहाँ कृषि-क्षेत्र में नौकर-मालिक की संस्कृति चलती है, वहीँ जाटलैंड पर ‘सीरी-साझी’ की संस्कृति चलती है। जाट को यह संस्कृति कोई पुराण-शास्त्र-ग्रन्थ नहीं अपितु उसकी खाप सोशल इंजीनियरिंग सिखाती है। तो जो जाट नौकर तक को ‘सीरी-साझी’ यानी पार्टनर कहने की संस्कृति पालता आया हो तो जब उसका एक दलित से झगड़ा (90% झगड़ों की वजह कारोबारी) होता है वो उसी जाट को एंटी-जाट (सारा नहीं) मीडिया और एनजीओ द्वारा रंग-भेद-नश्ल अथवा छूत-अछूत का धोतक कैसे और क्यों ठहरा दिया जाता है?

2) जाट बाहुल्य गाँवों में पूरे गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ को अपनी बेटी-बहन-बुआ मानने की सभ्यता का सिद्धांत होना। निसंदेह यह शिक्षा भी किसी शास्त्र-ग्रन्थ-पुराण से नहीं आती, अपितु खाप सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी देती है। तो अगर जाट के लिए दलित नीच या अछूत होता तो वो उसकी बेटी-बहन-बुआ को अपनी बेटी-बहन-बुआ मानने का सिद्धांत क्यों बनाता? जबकि जाट तो दलित की बेटी को देवदासी बनाने के देवालयों में रखने का धुरविरोधी रहा है और यही वजह है कि उत्तर भारत खासकर खापलैंड के मंदिरों में कभी देवदासी नहीं बैठी।

3) जो जाटों के सयाने आज भी इस परम्परा से दूर नहीं हुए हैं वो तो आज भी इसको निभाते हैं। परम्परा कहती है कि जब भी किसी गाँव में बारात जाएगी तो उस गाँव में बारात वाले गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बुआ-बहन की मान करके आएगी। मेरे दादा, मेरे पिता और खुद मैंने यह मानें की हैं। तो सोचने की बात है कि अगर जाट अपनी जाट थ्योरी से वर्ण-नश्ल-भेद करने वाला होता तो उसको इतनी दूर जा के भी अपने गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ की मान करने की क्या जरूरत होती? वो अपनी या अधिक से अधिक अपनी बिरादरी तक भी तो इस परम्परा को सिमित रख सकता था?

4) सीरी-साझी को नेग से बोलने की मान्यता। नेग यानी गाँव की पीढ़ी के दर्जे के अनुसार सम्बोधन। यानी अगर कोई दलित सीरी गाँव के रिश्ते (नेग) में आपका दादा लगता है तो उसको दादा बोलना, चाचा-ताऊ लगता है तो चाचा-ताऊ बोलना, भाई या भतीजा लगता है तो नाम से बोलना। दादा-चाचा-ताऊ में अगर यानी सीरी भी और साझी भी दोनों हमउम्र हैं तो आपस में नाम ले के भी बोलने का विधान रहता है क्योंकि हमउम्र आपस में दोस्त भी होते हैं।

इस विधान पे तो मेरे घर का ही किस्सा रखते हुए चलूँगा। मेरे चाचा के लड़के में गधे वाले अढ़ाई (जवानी ) दिन आये-आये थे। वो ना घर में किसी को कुछ समझता था ना ही बाहर। एक बार मैं और वो खेतों में गए हुए थे। वहाँ उनका साझी (चमार रविदासी जाति से) जो रिश्ते में हमारे दादा लगते थे, काम कर रहे थे। तो चाचा के लड़के ने किसी कामवश साझी को दादा से सम्बोधन ना करने की बजाये उनके नाम से 'आ धीरे' सम्बोधन करके आवाज लगाई। गन्ने के खेत थे तो कुछ पता नहीं चल रहा था कि कौन किधर है। तो उसका आवाज लगाना हुआ और पीछे से किसी ने उसकी गुद्दी नीचे एक जड़ा। हमने पीछे मुड़ के देखा तो मेरे चाचा जी (उसके पिता जी) थे। चाचा जी की तरफ प्रश्नात्मक नजर से देखा ही था कि पूछने से पहले ही उसको चपाट लगाने का कारण बताते हुए उसको हड़का के बोले कि 'धीरा, के लागै सै तेरा? तो भाई ने जवाब दिया 'दादा'? तो चाचा जी ने एक और जड़ते हुए गुस्से से कहा तो फिर नाम ले के क्यों बोला? आजतक मैं खुद जिसको 'चाचा' कह के बोलता हूँ, तुम उसको ऐसे बोलोगे? इतने में सामने से दादा धीरा भी आ गए, जो चाचा जी को भाई की नादानी समझते हुए उसको ना मारने की कहने लगे। तो भाई ने आगे से ऐसी गलती ना दोहराने की कहते हुए चाचा जी और दादा जी दोनों से माफ़ी मांगी।

तो ऐसे में सवाल उठता है कि अगर किसी अ. ब. स. कारणवश दलित से जाट का झगड़ा होता है या जाटलैंड पर किसी गाँव में किसी दलित के लिए अलग कुआँ बना या बनाया गया तो उसकी मूल जड़ में कौनसी विचारधारा रही?

निसंदेह पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की समाज को वर्ण और जातिय आधार पर बांटनें की धारणा रही। और जब-जब जाट इसके प्रभाव में आया है वो नश्लवादी हुआ है। आज भी बहुतेरे ऐसे जाट हैं जो इन नश्लवादी धारणाओं से अपने को अलग रखते हैं और खेत में अपने दलित सीरी-साझी के साथ एक ही बर्तन में खाते भी हैं और पानी भी पीते हैं।

मुझे विश्वास है कि सिर्फ जाट के यहां ही नहीं खापलैंड पर बसने वाली हर किसान जाति के यहां जैसे कि 'अजगर' यानी अहीर-जाट-राजपूत-गुज्जर' रोड, सैनी आदि सबके यहां कुछ-कुछ ऐसी ही रीत मिलेंगी।

तो ऐसे में भेद समझने का यह है कि जिन पुराण-शास्त्र-ग्रंथों के प्रभाव में आ जाट दलितों को अपनी जाट थ्योरी ऑफ़ सोशल लाइफ एंड कंडक्ट की लाइन से हटकर ट्रीट करते हैं वो फिर इन्हीं पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की मीडिया व् विभिन्न एंटी-जाट एनजीओ में बैठी औलादों के हत्थे दलित विरोधी होने के नाम से कैसे चढ़ जाते हैं? और सिर्फ जाट-दलित के ही क्यों चढ़ते हैं और हद से ज्यादा उछाले जाते हैं, अन्य किसानी जातियों से दलित के हुए झगड़े इतनी हाईलाइट की लाइमलाइट क्यों नहीं पाते? इसका मतलब यह लोग यह मानते हैं कि क्योंकि इन ऊपरलिखित मान्यताओं का रचनाकार व् संरक्षक जाट है, इसलिए सिर्फ जाट-दलित के मामले ही उछालो या फिर कोई और वजह भी हो सकती है? ऐसी औलादों को चाहिए तो ऐसे जाटों की पीठ थपथपानी या कम से कम चुप रहना, क्योंकि उनके लिए तो ऐसे जाट उनकी लिखी पुस्तकों की बातों को साकार कर रहे होते हैं, है कि नहीं?
और जब यह औलादें ऐसी घटनाओं-वारदातों का अपनी रिपोर्टों-बाइटों में अवलोकन कर रहे होते हैं तो यह कभी नहीं कहते कि जिन शास्त्र-ग्रन्थ-पुराणों की थ्योरी से पनपी मानसिकता के चलते यह नौबत आई उनको या तो एडिट करवाया जावे या उनको समाज से हटाया जावे? अपितु झगड़ा हुआ होगा दो-चार जाटों का या की वजह से, उसको मत्थे पे जड़ के दिखाएंगे पूरी जाट बिरादरी के। है ना अजब तमाशा इनकी ही लिखी बातों को मानने अथवा उनके प्रभाव में रहने का?

एम.एन.सी. कॉर्पोरेट वर्क कल्चर में काम करने वाले जाट और जाटों के बच्चे यहाँ गौर फरमाएं कि पाश्चात्य सभ्यता के वर्किंग कल्चर के अनुसार बॉस को सर या मैडम कहके बुलाने की बजाये मिस्टर, मिस या मिसेज के आगे नाम लगा के या सीधा नाम या उपनाम से सम्बोधन करने का जो चलन है वो आपके अपने खेतों के ' सीरी-साझी' वर्किंग कल्चर से कितना मेल खाता है। यानि मालिक को मालिक (भारतीय कॉर्पोरेट की भाषा सर/मैडम) कहने जरूरत नहीं वरन उसको सीरी समझो और और मालिक भी आपको नौकर नहीं कहेगा, अपितु साझी यानि पार्टनर समझ के काम लेगा या देगा। एम.बी.ए. वगैरह के एच.आर. (Human Resource) कोर्सों में यही सब तो सिखाया जाता है जो कि आप खेतों की पृष्ठभूमि से आते हुए वहीँ से सीख के आये हुए होते हो, सिर्फ अंतर जो होता है वो होता है भाषा का। पीछे आप हरयाणवी या हिंदी में बोलते रहे हैं यहां आपको अंग्रेजी बोलना है, बाकी वर्किंग एथिक्स तो सेम रही। हालाँकि कई भारतीय मूल की कम्पनियों में तो आज भी सर, मैडम का कल्चर चलता है। क्यों और किस वजह से चलता होगा, वो आप समझ सकते हैं।

तो दोस्तों, जाट को दलित विरोधी दर्शाने का षड्यंत्री मकड़जाल यही भेद है, जिसको पकड़ में आ गया समझो पार नहीं तो खाते रहो हिचकोले भींत (पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की वर्णीय और जातिवाद सोच) बीच और खोद (इसी सोच वालों की एंटी जाट मीडिया और एनजीओ) बीच। और जब तक जाट इस चीज को समझ के इनसे अँधा हो चिपकना नहीं छोड़ेगा, यह ऐसे ही अपने जाल में घेर-घेर के आपकी शुद्ध लोकतान्त्रिक मानवता की थ्योरी को भी ढंकते रहेंगे और आपपे जहर उगल आपकी सामाजिक छवि और पहुँच को छोटा करने की और अग्रसर रहेंगे। सीधी सी बात है भाई, किसी को सर पे चढ़ने का अवसर दोगे या चढ़ाओगे तो वो तो मूतेगा भी और कूटेगा भी।

चलते-चलते यही कहूँगा कि अब तक जिन थ्यूरियों और मान्यताओं को हमने डॉक्यूमेंट नहीं किया, अब उनपे किताबें लिख के विवेचना और प्रचार करने का वक्त आ गया है, वरना जाट सभ्यता और थ्योरी को ढांपने-ढांकने हेतु, यह गिद्ध-भेड़िये यूँ ही कोहराम मचाते रहेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 17 July 2015

सेक्युलरवादियों को कोसने वाले अंधभक्तो आपने क्या तीर मार लिया?


राज अपना, राज्य से ले केंद्र में सरकार अपनी पर फिर भी यह हो गया? मान लो अगर जयपुर में एक भी मंदिर काँग्रेस या किसी दूसरी पार्टी के राज में तोड़ा गया होता तो ये धर्म के ठेकेदार पूरे प्रदेश का माहौल खराब कर देते!

भक्तों बजाओ ताली! जयपुर में जितने मंदिर सरकार ने तोड़े (लगभग 350) उतने तो शायद औरंगजेब ने भी नहीं तोड़े होंगे। सबसे बड़ी बात धर्म के नाम पर लोगो को गुमराह करने वाले संघ, विहिप और शिव सेना जैसे संगठन इनको तोड़े जाने के दौरान चुस्के तक नहीं। सांप निकल जाने के बाद लकीर को पीटने की तर्ज पे लोगों का उल्लू बना शीशे में उतारने हेतु जाम-बंद की नौटंकी करके, काम खत्म मामला हजम।

क्या सेक्युलरवादियों को कोसने वाले अंधभक्त बताएँगे कि आखिर यह था क्या? आज के बाद सेक्युलरवाद को गाली-गलोच करने अथवा कोसने से पहले इस किस्से को कम से कम याद रखना।

अंत में यही कहूँगा कि तुम राम मंदिर बनाने के दावे तो छोड़ो, अपना राज और राजा होते हुए पहले जो हैं उनको तो बचा लो। कल ही हिन्दू महासभा ने विश्व हिन्दू परिषद पे इल्जाम लगाया कि राममंदिर के नाम पे एकत्रित पूरा 1400 करोड़ रुपया ढकार गई।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 16 July 2015

राष्ट्रवादियों के बहकावे में आ हरयाणा में जाट से छिंटके ओ.बी.सी. भाई जरा बिहार के चुनावी नज़ारे पर पैनी नजर रखें!

बीजेपी को पश्चिमी यूपी में मुसलमान को रस्ते से हटाना था तो 'हिन्दू एकता और बराबरी' का नारा देते हुए जाट का सहारा लिया। हरयाणा में आते ही 'हिन्दू-हिंदुत्व' स्वाहा करके उसी जाट के खिलाफ जाट बनाम नॉन-जाट खड़ा कर दिया।

अब बारी बिहार की, हरयाणा में बीजेपी और राष्ट्रवादियों के हुल्ले-हुलारों में झूलने वाले ओ.बी.सी. भाई जरा ध्यान से देखें कि हरयाणा में आपको गले लगाने वाले, कैसे अब बिहार में लालू-नितीश-शरद की ओबीसी तिगड़ी को ही ले के बिहार को कैसे ओबीसी बनाम नॉन-ओबीसी का अखाड़ा बनाने वाले हैं। इसकी मिशाल अभी हाल ही में निबटे बिहार परिषद चुनावों में इस ओबीसी तिगड़ी की उम्मीद से कम परफॉरमेंस से आप लगा लीजिये।

देखते-दिखाते जीतनराम मांझी को बीजेपी नितीश-लालू-शरद के दल से निकाल ले गई। कभी एक ज़माने में मोदी के कॉम्पिटिटर बताये जाने वाले नितीश से यह उम्मीद नहीं थी कि वो जीतनराम मांझी से बेवजह उलझ के बीजेपी को दलितों और महा-दलितों की सहानुभूति हाईजैक करने का अवसर देते। खैर दलित व्यक्तिगत स्तर पर बहुत स्याना है, वो इन सारी चालाकियों को समझता है और इसीलिए बीजेपी अभी और बहुत से पासे फेंकेगी।

अब बिहार में तो बसपा भी नहीं है कि इनसे रूष्ट दलित, महादलित मायावती के पाले आ जाते, कांग्रेस का तो अभी पुनर्स्थापन-काल ही चल रहा है। ऐसे में दलित और महादलित को विकल्प क्या बचता है। हाँ अगर यूपी में कांग्रेस मायावती से और बिहार में मायावती कांग्रेस से समझौता करके लड़ें तो बेशक इन वोटों को खींच पाएं, वर्ना नितीश कुमार तो मांझी से सींग उलझा अपने पैरों कुल्हाड़ी मार ही चुके हैं। और इस नुकसान की भरपाई कर जावें तो चमत्कारी नेता ही कहलाये जायेंगे,जिसकी कि फ़िलहाल तो कोई गुंजाईश नजर नहीं आती।

खैर मेरा सम्बोधन हमारे हरयाणा के ओबीसी भाईयों से था कि कैसे बीजेपी वालों का हिंदुत्व भी झूठा, इसमें एकता और बराबरी के जुमले भी झूठे और राष्ट्रवादिता-देशभक्ति तो इनकी गुलामक़ाल से ही संदेहास्पद रही है। इसलिए इनके चक्कर में इनको अपने हरयाणा के सामाजिक तानेबाने और समीकरणों पे और मत बैठने दीजिये।

फिर भी अभी नहीं बात कैच हो रही हो तो 2017 में बिहार का आने वाला ओबीसी बनाम नॉन-ओबीसी दंगल देख लीजियेगा। देखिएगा कि हरयाणा में नई सरकार के शुरुवाती महीनों (अब नहीं सिर्फ शुरुवाती में, अब तो खुद ओबीसी की भी नौकरियाँ खतरे में पड़ी हुई हैं) में ओबीसी को हनीमून का प्रतीकात्मक सुखद अनुभव देने वाली बीजेपी बिहार में कैसे ओबीसी को ही खूनीमून दिखाती है। बाकी प्रधानमंत्री ओबीसी नहीं हैं, यह झूठ तो आपको पता लग ही गया होगा।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

है कोई बाबा बामदेव, खिचड़ीवाल या दुभरमण्यम स्वामी या कोई आम भक्त ही?

जो धर्म के नाम पर भी इतने बड़े घोटाले करते हों तो, ख़ाक तो उनकी राष्ट्रवादिता और ख़ाक उनके देशभक्ति और धार्मिक एकता के जुमले! पिछली सरकार में तो कोई इटली वाली बाई के विदेशी होने की वजह को घोटालों का कारण बताता था और कोई सेक्युलर-वाद को। अब इनको कौनसे वाद से डंसा जो खुद के ही भगवान के नाम पे 1400 करोड़ ढकार के जमाही भी नहीं ले रहे और आगे सगूफे-पे-सगूफे घड़े ही जा रहे हैं।

स्विस का काला धन और सरकारी तंत्र के करप्शन का पैसा तो जब आएगा तब आएगा; है कोई माई का लाल अंधभक्त अथवा राष्ट्रवादी जो देश की देश में इनसे यह धर्म के घोटाले का 1400 करोड़ उगाह दे? है कोई जो इन धर्म के नाम पे घोटाले करने वालों की पूंछ पे पैर भी धर सकता हो, बाबा बामदेव, खिचड़ीवाल या दुभरमण्यम स्वामी या कोई आम भक्त ही?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: हिंदू महासभा का वीएचपी पर गंभीर आरोप : राम मंदिर के लिए मिले 1400 करोड़ रुपए हड़पे
http://hindi.news24online.com/hindu-mahasabha-allege-vhp-on-money-collected-for-ram-temple-85/

बाहुबली रिव्यु: फिल्म को 'बागरु (मोती-डूंगरी)' की लड़ाई से जोड़ा जाता तो '300', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' को बेहद तगड़ा जवाब होती!

बड़ा बोर में आ के कल कुछ फ्रेंच दोस्तों के साथ बैठ के उनको इंटरनेट से डाउनलोड करी 'बाहुबली' फिल्म दिखा रहा था कि देखो तुम्हारी 'ट्रॉय', 'स्पार्टा' और 'ग्लैडिएटर', '300' का जवाब!

फिल्म देखकर वो बोले कि बहुत खूब, परन्तु क्या भारत में '300', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' जैसी कोई वास्तविक घटना नहीं हुई जो डायरेक्टर को इसको जस्ट इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? ना कहीं तारीख का जिक्र ना स्थान का?

वो बोलते हैं कि फ़िलहाल तो हम ही नहीं, हॉलीवुड वाले भी यही कहेंगे कि ठीक है इमेजिनेशन और फैंटेसी के तड़के और हमारी बहुत सारी चीजें कॉपी-पेस्ट करने के साथ 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा' तर्ज पे वर्क तो एक्सीलेंट किया है, परन्तु क्या भारत में ऐसी कोई वास्तविक ऐतिहासिक घटना नहीं हुई थी जो इसके डायरेक्टर को इसे उस घटना से जोड़ 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' की भांति रियल टच देने की बजाय फिल्म के कथानक को इमेजिनरी प्लेटफार्म देना पड़ा? और अगर हुई थी तो उससे जोड़ के फिल्म को रियल ऐतिहासिक टच देने में डायरेक्टर और टीम को क्या दिक्क़त थी?

जिस जोश और गर्व के साथ उनको फिल्म दिखाने बैठा था, उनकी इस टिप्पणी ने सारा जोश हवा कर दिया। और एक भारतीय होने के नाते मुझे भी इस फिल्म में रियल इन्सिडेंटल टच वाले पहलु की कमी महसूस हुई और फिल्म दूसरी 'रामायण' और 'महाभारत' जैसी माइथोलॉजी प्रतीत हुई|

उनके जाने के बाद मैं सोचता रहा कि क्या वाकई में हमारे पास वास्तविक इतिहास की ऐसी कोई घटना नहीं जो इस फिल्म से जोड़ी जा सकती थी? जब इतिहास पे नजर दौड़ाई तो 'बागरु (मोती-डूंगरी)' की ऐतिहासिक लड़ाई 'बाहुबली' फिल्म की स्क्रिप्ट में बिलकुल फिट बैठती नजर आई। इस लड़ाई का मुद्दा भी बिलकुल 'बाहुबली' फिल्म की तरह जयपुर रियासत के दो सगे भाईयों राजा ईश्वरी सिंह और राजा माधो सिंह के बीच राजगद्दी हथियाने का था।

20-21-22 अगस्त 1748 की इस ऐतिहासिक लड़ाई में हर वो मशाला वास्तविकता में मौजूद है जो 'बाहुबली' के डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर साहब को सिर्फ इमेजिनेशन और फैंटेसी के सहारे दिखाना पड़ा। एक तरफ तीन लाख तीस हजार (330000) सैनिकों से सजी मुगल-मराठा पेशवाओं और माधो सिंह के पक्ष वाले राजपूतों की 7-7 सेनायें, तो दूसरी तरह राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में सजी मात्र बीस हजार (20000) की कुशवाहा राजपूत और हरयाणा-ब्रज रियासत भरतपुर की सिर्फ 2 सेनाएं। एक तरफ छोटे आकार के सैनिक तो दूसरी तरफ ये 7-7 फुटिये लम्बे-चौड़े 150-150 किलो वजनी भरतपुर जाट सेना के सैनिक। एक तरफ अस्सी हजार (80000) की टुकड़ी तो दूसरी तरफ मात्र दो हजार (2000) की टुकड़ी उनको गुर्रिल्ला वार में छका-छका के पीटती हुई। एक तरफ गाजर-मूली की तरह कटते सैनिक तो दूसरी तरफ पचास-पचास (50-50) को मारने वाला एक-एक जाट और कुशवाहा राजपूत सैनिक। एक तरफ 7-7 राजा तो दूसरी तरफ 7 फुटी 200 किलो वजनी अकेले भरतपुर नरेश महाराजा सूरजमल। और यह लड़ाई चली भी पूरे तीन दिन थी और वो भी बरसाती तूफानों में अरावली के रेतीले मैदानों और पथरीले पहाड़ों के बीच सरे-मैदान लड़ी गई थी। कुल मिला के क्या 'ट्रॉय', क्या 'ग्लैडिएटर' और क्या 'बाहुबली' खुद, इस रिव्यु को लिखते हुए इनसे भी कालजयी थिएट्रिकल दृश्य दिमाग में मंडरा रहा है।

तो जब 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' से बढ़कर इतना विहंगम- रोमांचक-भयावह तीनों प्रकार का टच देने वाला शानदार दृश्य प्रस्तुत करने वाला ऐतिहासिक प्लेटफार्म हमारे इतिहास में मौजूद है तो 'बाहुबली' को रियल टच देने हेतु आखिर क्यों नहीं इसको प्रयोग किया गया?

ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि भारत के गौरव को अंतराष्ट्रीय स्तर पर इतना संजीदा स्थान दिलवाने के लिए 'एस. एस. राजामौली' जैसे जागरूक डायरेक्टर को इस बात का ना पता हो कि अगर उनको 'ट्रॉय', 'स्पार्टा', 'ग्लैडिएटर' का जवाब बनाना है तो भारतीय इतिहास का कौनसा किस्सा इसमें फिट करके दिखाना चाहिए?

निसंदेह विश्व को अगर रामायण और महाभारत की मीथोलॉजिकल लड़ाइयों का पहले से पता ना होता तो डायरेक्टर साहब ने यह प्लेटफार्म जरूर प्रयोग कर लिए होते, तो फिर 'बागरु (मोती-डुंगरी) का प्लेटफार्म क्यों नहीं प्रयोग किया?

लगता है अगर 'बाहुबली' बनाने वाले इसके पार्ट 2 में भी इसको रियल टच देने से चूकते हैं तो फिर इसके जवाब में "रियल बाहुबली" की स्क्रिप्ट लिखनी होगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 July 2015

ग्रीक (भारत में इनका वंशज है खत्री-अरोड़ा समुदाय) के वित्तीय संकट को खत्म करने की बागडोर अब फ्रांस, जर्मनी (भारत में जर्मनी का वंशज समुदाय है जाट) के हाथों में!

'विक्की डोनर' में खुद को ग्रीक ओरिजिन का बताने वालों के ग्रीक पुरखे भारी कर्ज तले दबे हुए हैं, अब उनकी मदद जर्मनी के जाट करेंगे|

काश! ऐसी मिशाल भारत के ग्रीक 'खत्री' समुदाय भी भारत के जाटों के साथ मिलके पेश करें और सबसे पहले 'गुड्डू-रंगीला' जैसी फ़िल्में बनानी बंद करके, समाज में जर्मनी के जाट समुदाय का भी कोई अस्तित्व है इस बात को समझें|

जबसे हरयाणा में नई सरकार आई है, यह लोग जाटों के खिलाफ नित नए सार्वजनिक (व्यक्तिगत नहीं) स्वांग रच रहे हैं, जिनकी फेहरिस्त है कि लम्बी ही होती जा रही है| जैसे कि:

1) आते ही फसलों के दाम धरती को मिला दिए|
2) यूरिया खाद तक के लिए किसानों को थाने हाजिर करवा दिया|
3) 03/05/2015 को जाट आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं होते हुए भी हरयाणा पंजाबी सभा जाटों के खिलाफ आन खड़ी हुई|
4) विगत जून के महीने में रोहतक के वर्तमान एमएलए की ऑफिसियल लेटर पैड से एमडीयू रोहतक को निर्देश जाता है कि यूनिवर्सिटी के विशेष जाट कर्मचारियों के रिकॉर्ड खँगालो|
5) 04/07/2015 को सुभाष कपूर खाप और हरयाणवी समुदाय की खुल्ली बेइज्जती करते हुए 'गुड्डू-रंगीला' जैसी वाहियात फिल्म ले आते हैं|
6) 'गुड्डू-रंगीला' का खाप और जाट विरोध करते हैं तो जींद का पंजाबी समुदाय बजाय सुभाष कपूर को समझाने के सर्वखाप अध्यक्ष चौधरी नफे सिंह नैन के विरोध में यह लोग पंचायत बिठा के उनको देशद्रोही करार दिया जाने की वकालत करते हैं|

और अभी तो क्रॉस-फिंगर्स किये बैठा हूँ कि देखें यह और कौन-कौन से स्वांग और रचेंगे हरयाणवियों और खापों के खिलाफ!

मैं कहता हूँ अगर 1947 में अपने सीने से लगाने, 1984-86 में पंजाब से पिट के आने पे फिर से इनको गले लगाने का अगर हरयाणवियों और जाटों को इनसे यही सिला मिलना है तो क्यों नहीं इनकी तमाम तरह की दुकानों से खरीदारी ही करनी बंद कर देते| जब रोजी-रोटी के लाले पड़ेंगे तो दो हफ्ते में ही यह  बात समझ आ जाएगी कि आप लोग भी समाज में ही रहते हो, समाज का ही हिस्सा हो| तीन-तीन पीढ़ियां हो गई फिर भी खुद को हरयाणवी कहलाने को तैयार नहीं, बल्कि उसी पंजाबी शब्द से चिपके हुए हैं जिन्होनें 1984-86 में इनको वहाँ से खदेड़ दिया| चलो खैर वो इनकी मर्जी खुद हरयाणवी नहीं कहलवाना तो मत कहलवाएं, परन्तु समाज में कोई और भी रहता है इसका तो आभास रखें|

विशेष: विभिन्न यूरोेपियन एवं भारतीय इतिहासकार साबित कर चुके हैं कि जिस तरह खत्री समुदाय अपना ओरिजिन ग्रीक का बताता है, ऐसे ही भारतीय जाट समुदाय का ओरिजिन जर्मनी और सीथिया का है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 14 July 2015

मुल्खराज कत्याल जी पहले अपनी जाति तो बताइये?


(मजाक सहन करने  की आदत नहीं है तो आपकी कौम के सुभाष कपूरों को काबू कीजिये पहले।)

1966 से पहले हरयाणा पंजाब का हिस्सा था, जिसकी वजह से हर हरयाणवी बाई-डिफ़ॉल्ट पंजाबी कहलाता था और इस नाते हर हरयाणवी आधा पंजाबी तो आज भी है| तो जनाब आप पहले तो यह साबित कीजिये कि 'पंजाबी' एक सभ्यता नहीं अपितु मात्र आपकी जाति है|

दूसरा मुझे अहसास है कि कुरुक्षेत्र के निर्वाचित सांसद श्री राजकुमार सैनी के हाथों खुद पर्दे के पीछे रहकर हरयाणवी समाज में जो जाट बनाम नॉन-जाट का जहर बोने के मंसूबे आप लोगों ने चलवाए थे वो तो सर्वखाप अध्यक्षा डॉक्टर संतोष दहिया ने केस करके स्वाहा कर दिए| अब 'खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे' की भांति जब और कोई चारा नहीं देखा तो खुद मैदान में आ रहे हो| बढ़िया किया आ गए, कम से कम समाज को अब यह तो स्पष्ट दिख जायेगा कि वाकई में हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट की गन्दी राजनीति का सूत्रधार कौन है|

रही बात दादा नैन जी पे केस करने की, तो अगर आप इस वहम् में हों कि कुरुक्षेत्र के एमपी साहब की तर्ज पे ही आप दादा जी पे मुकदमा करवा देंगे तो अपना वहम् बटोर के रखिये| सांसद साहब तो सवैंधानिक प्रक्रिया के कानूनी प्रावधानों से बंधे हुए थे, इसलिए केस बन गया, दादा जी तो सामान्य जनता के पंचायती प्रतिनिधि हैं और समाज में किसी भी प्राणी को अपनी बात रखने का हक़ है| फिर भी कोर्ट चढ़ना है तो चढ़ के देख लेवें, दादा जी की कानूनी विद्वानों की फ़ौज उनके पीछे खड़ी है|

और सुभाष कपूर जैसे आपकी ही बिरादरी वालों द्वारा 'गुड्डू-रंगीला' किस्म की फ़िल्में बनाने वालों की हरकतें को देखते हुए दादा जी ने जो कहा सही कहा। अगर सुभाष कपूर की जुर्रत खप  सकती है तो दादा जी की भी खप सकती है।

वैसे एक नेक सलाह दूंगा आपको कि बेहतर होगा कि आप पहले 'पंजाबी' शब्द को कानूनी तौर पर जाति साबित करके दिखा दें| आपकी बिरादरी वाले इस फिल्म जैसी नीच हरकतें करेंगे तो कोई भड़का हुआ आपको गाली भी देगा। और मजाक सहन करने  की आदत नहीं है तो आपकी कौम के सुभाष कपूरों को काबू कीजिये पहले। इतने जिंदादिल और आलोचना सहन करने वाले भी नहीं कि जितने बड़े आलोचक बनके दिखाते हो।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: पंजाबियों के निशाने पर आये खाप प्रधान नफे सिंह नैन
http://dainiktribuneonline.com/2015/07/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%86%E0%A4%AF/

'गुड्डू-रंगीला' फिल्म के जरिये हरयाणवियों की 'चीर' कढ़ा रहे हैं यह माता की चौकियों वाले!


'माता के ईमेल' गाने से शुरू होने वाली इस फिल्म में इन माता के भक्तों की गंदी हरकतें तो इसमें आपने देख ही ली होंगी कि कैसे बेशर्म बनके दीये की थाली हाथ में लिए सीधा घर के ही अंदर घुस गया और वासना के भूखे भेड़िये की तरह घर की लुगाई से कैसी वाहियात-बदचलनी वाली हरकत कर रहा था।

इससे भी लोगों की आँखें नहीं खुलती और इन तथाकथित भक्तों के सरेआम फंड देख के भी इनकी 'खाल में वाकई में भूसा भरने' को मन नहीं कुलबुलाता तो फिर तो भगवान ही रक्षा करे हरयाणे की स्वछँदता भरे इतिहास, गौरव और परम्परा की।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फिर से खड़ी करनी होंगी 'झोटा फलाइयंगें'!


घबराईये नहीं यहां हरयाणा रोडवेज वाली 'झोटा फलाइंगों' की नहीं अपितु हरयाणा के विभिन्न कोनों में अभी विगत दशक तक किसी बहिष्कृत अपराधी की भांति 'सत्संगियों-मोडडों-पाखंडियों' पर पत्थर मार (स्टोन पेल्टिंग) कर गाँव से बाहर भगाने, जिन घरों में सतसंग होता था उनके आगे धरना देने और उन घरों का बहिष्कार करने/करवाने वाली टीम को हमारे यहां 'झोटा फलाइंग' कहते थे। हिंदी में जैसे 'ब्रह्मास्त्र' का रुतबा होता है ऐसे ही हरयाणवी में 'झोटा फलाइंग' का होता है।

हालाँकि आज बड़ा दुःख होता है जब सुनता हूँ कि मेरे इधर भी इन लोगों का जहर बढ़ता जा रहा है। मुझे मेरे बचपन के वो दिन आज भी किसी फिल्म की भांति दिमाग में ताजा हैं जब ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक हाट की दुकान वाले के घर में सतसंग हो रहा था। उनकी खड़तालों और कर्कश बोलों से मेरे कान फ़टे जा रहे थे। मन हो रहा था कि उठ के बोल दूँ, कि किसी को सोना भी होता है, कि तभी उनका दरवाजा धड़ाम वाले जोर से खड़का। मैंने मेरे चौबारे से नीचे झाँका तो देखा कि गाँव की 'झोटा-फलाइंग' के दो सदस्य उनका दरवाजा पीट रहे थे। ऊपर से आवाज आई, 'अं भाई कुन्सा सै?'

तो वो दोनों बोले कि या तो यह आवाजें कम करो वरना इन ढोल-खड़तल वालों के ऐसा ताड़ा लगाएंगे कि से गाम की सीम से पहले पीछे मुड़ के नहीं देखेंगे। ऊपर से आवाज आई कि, 'आच्छा इब पड़भु (प्रभु) का नाम भी नई लेवां के?' नीचे से आवाज आई कि, 'के थारा प्रभु बहरा सै, अक जिसको गळा फाड़ें बिना सुनता ही कोन्या? आवाज कम करो सो, अक काढूं किवाडां की चूळ?'

ऊपर से आवाज, 'अड़ थाडिये छुट्टी हो ली भी, हाह्में के जीवां सां!'

नीचे से फिर आवाज आई, 'तो फेर, थाह्मे थारी आवाजों को अपने घर के अंदर तक रखो!'
ऊपर से आवाज, 'अड़ यें आवाज तो न्यूं-ए छाती पाड़ गूंजेंगी, थारे से जो होता हो कर लो!' और हाट वाले ने पुलिस बुला ली।

जब तक पुलिस आई, तब तक झोटा फलाइंग वालों ने सतसंग बंद करवा दिया था और वो गाँव की झोटा फलाइंग बैठक में वापिस जा चुके थे।

पुलिस आई तो हाट वाले से पूछा कि क्यों फोन किया?

हाट वाला बोला कि, 'हड यें 'झोटा-फलाइंग' के खाड़कू, शांति तैं रडाम (राम) का नां (नाम) भी नी लेण द्यन्दे।' पुलिस वाले ने पूछा कि कहाँ है कौन है? हाट वाला बोला कि, 'अड़ जा लिए म्हाड़ा (म्हारा) सांग सा खिंडा कें!' पुलिस वाले बोले कि बताओ कहाँ मिलेंगे?

फिर हाट वाला पुलिस को 'झोटा फलाइंग' बैठक की ओर ले जाता है और वहाँ बैठे उन दोनों की ओर इशारा करता है। परन्तु वहाँ उस वक्त गाँव के गण्यमान्य बड़े-बडेरे बैठे होते हैं और सारा मामला सुना जाता है।

पहले वो गवाह बुलाये जाते हैं जिनको हाट वाले के घर से आ रहे शोर से आपत्ति हुई और उन्होंने बैठक में आ के झोटा फलाइंग को इस शोर को कम या बंद करवाने को कहा। इस पर पुलिस ने हाट वाले से कहा कि पब्लिक ऑब्जेक्शन करे आप लोग इतना शोर क्यों करते हो? हाट वाले के पास कोई जवाब नहीं था? पुलिस ने कहा कि चुपचाप अपने घर चले जाओ, वर्ना केस तो इन पर नहीं आप पर बनेगा।

मेरे बचपन तक के जमाने में घर की औरतें अपने मर्दों की इतनी सुनती और राय में रहती थी कि एक बार मेरी दादी जी मेरे पिता से छुप के एक सतसंग में चली गई थी। और वाकया ऐसा हुआ कि दादी जी को सतसंग से वापिस आते हुए पिता जी ने देख लिया। फिर क्या था पूरे पंद्रह दिन पिता जी ने दादी जी से बात ही नहीं की। आखिर दादी जी खुद ही बोली कि बेटा मैं तो बस यह देखने गई थी कि इनमें ऐसा होता क्या है। आगे से मैं तो क्या घर की किसी भी औरत को इनकी तरफ मुंह नहीं करने दूंगी। भगवान का नाम लेने के नाम पे कोरे नयन-मट्के के अलावा कुछ नहीं होता इनमें। और जो गाने-बजाने वाली मण्डली के देखने और घूरने का तरीका था उससे तो इतना गुस्सा उठ रहा था कि यहीं सर फोड़ दूँ उनका। मैं तो दो लुगाइयों को ले बीच में ही ऊठ के आ गई थी। बस तब जा के दादी जी और पिता जी के बीच सब नार्मल हुआ और बातें शुरू हुई।

दादी ने फिर हम घर के बालकों को जो रोचक बात बताई वो यह कि जब उठ के चलने लगी तो बोले कि नम्बरदारणी इतना ठाड्डा घराना तेरा कुछ तो चढ़ा के जा माता-राणी के नाम से। मैंने तो तपाक से जवाब दिया उसको कि 'गोसे से मुंह आळे, जी तो करै तेरे थोबड़े पै दो खोसड़े जड़ द्यूं।'

भगवान के नाम पै चढ़ावा/दान देना या ना देना मर्जी का होवै, किसे के कहे का नी! और पैसे के लिए ही यह सब करता है तो कोई ऐसा हल्ला कर ले जिसमें काम के बदले पैसे मांगने पे ऐसे हल्कारे ना खाने पड़ें। अतिआत्मविश्वास में शुरू करते हो भगवान के नाम पे और जब कोई नहीं देता है तो मांगने-कोसने-डराने पे उतर आते हो। आव मोमेंट के एक्सप्रेशंस चेहरे पे लाते हुए मैंने दादी से कहा कि दादी आपने तो बैंड बजा दी बेचारे की।

और दोस्तों मानों या ना मानों, मंडी-फंडी और मीडिया का खापों के पीछे पड़ने का, इनकी रेपुटेशन डाउन करने की वजह ही यही है क्योंकि इनको ऐसे बेबाकी के जवाब और लताड़ खाप-विचारधारा के लोगों से ही ज्यादा पड़ती आई है। और हरयाणा के लोगों का यही बेबाक रवैया वजह रहा है कि आज हमारी धरती दक्षिण के मंदिरों में पाली जाने वाली देवदासी जैसी मानवता की क्रूरतम प्रथाओं से मुक्त है। खाप के कवच को यह लोग इसीलिए तोड़ना चाहते हैं ताकि हमारे बच्चों-औरतों पर से हमारे गौरव और अभिमान का कवच हटे और हम लोग अपनी औरतों से संवाद तोड़ें ताकि इनकी यह भगवान के नाम की दुकानें निर्बाध बढ़ती रहें।

और इनको इसमें सबसे ज्यादा सहयोग किया है गोल-बिंदी गैंग, एनजीओ, लेफ्ट ताकतों ने। देख लो लेफ्ट ताकतों, जो जिसके लिए गड्डा खोदता है उसमें सबसे पहले वही गिरता है। अगर यह बिना-सोची समझी तथाकथित आधुनिक समझदारी आप लोगों ने नहीं दिखाई होती तो आज आपके धुरविरोधी यानी राइट वालों की सरकार ना होती। खैर लेफ्ट-राइट वाली लेफ्ट-राइट वाले जानें।

लेख का तोड़ और निचोड़ यही है कि घरों में अपनी औरतों से तार्किक संवाद और विवेचना बना के रखें। मत भूलें कि एक घर समाज रुपी ईमारत की एक ईंट है। आपके घर से ओपिनियन बन-बन के सामाजिक निर्णय बनते हैं। बाकी समझदार के लिए संदेश लेने हेतु यह लेख काफी होना चाहिए। और काफी होना चाहिए कि मैंने 'झोटा-फलाइंगों' को फिर से खड़ा करने पे क्यों जोर दिया है।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 13 July 2015

जो जिससे जितनी नफरत करता है, राजनीति चाहने वाला उसको उतना ही गले लगाता है!

1) सरदार पटेल ने आरएसएस बैन करी, आज आरएसएस उन्हीं सरदार पटेल का स्टेचू बनवा रही है|

2) 1984-86 में पंजाब ने पाकिस्तानी पंजाबियों को जूते मार कर खदेड़ा तो उन्होंने 1947 की पहली खेप की तरह दूसरी खेप बन हरयाणा में ही शरण ली, परन्तु गौरव फिर भी पंजाबी ही कहलाने में करते हैं| बेशक हरयाणा में 3-3 पीढ़ियां गुजर गई हों, फिर भी हरयाणवी कहलवाना वा हरयाणत का आदर करना तो दूर उल्टा इन टोटल आल हरयाणवी और इसमें भी खासकर हरयाणा की फायर ब्रांड जाट के नाम से ऐसे बिदकते हैं जैसे कुत्ता ईंट से| और वो भी बावजूद इसके कि हरयाणवियों ने ना ही तो इनको पंजाब वाला 1984-86 का अनुभव दिया और ना मुंबई मराठियों वाला क्षेत्रवाद और भाषावाद का जहरीला भेदभाव| हालाँकि मैं किसी व्यक्तिगत अपवाद से इंकार नहीं करता, परन्तु सामूहिक तौर पर तो हरयाणवी समाज ने इनको गले ही लगाया|

ऐसे ही आज वाले शरणार्थियों के परिपेक्ष्य में मानता हूँ कि खेतों में लेबर चाहिए, और घर में मजदूर नहीं मिलता तो प्रवासी लेना पड़ता है; परन्तु काम के बदले पैसा दिया जा रहा है और यही दिया जाता है, इसको बनाये रखने के लिए अपनी सभ्यता-संस्कृति से समझौता अपनी साख और पहचान मिटाने जैसा है| सस्ती लेबर चाहिए समझ आती है, परन्तु क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति के ऐवज में?

इन पहले के आये शरणार्थियों ने सारे हरयाणा को जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा बना के धरा हुआ है, तो कम से कम इस अनुभव को नए आने वाले-शरणार्थियों के मामले में तो प्रयोग करो|

वैसे हरयाणवियों द्वारा शरणार्थियों को घर और दिल में जगह देने की रीत उतनी ही पुरानी है जितनी सिकंदर के भारत में आने की तारीख| परन्तु वो माइथोलॉजी के चरित्र लक्ष्मण वाली लक्ष्मण रेखा जरूरी है शरणार्थी की हर अच्छी-बुरी मंशा में फर्क करने के लिए और उसमें से योग्य को अपनाने और अयोग्य को नकारने के लिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक