Saturday, 10 October 2015

मोहन भागवत, जाति अभी जिन्दा है!

दनकौर (नोएडा) में हिन्दू दलित परिवार को हिन्दुओं द्वारा नग्न किये जाने की (कई लोग कह रहे हैं कि वो खुद नग्न हुए थे, फिर भी कोई यूँ-ही बैठे-बिठाये तो नग्न नहीं हो जायेगा, कुछ तो उंच-नीच का पेंच उलझा ही  होगा)  तालिबानी उत्पीड़न की क्षुब्धता विश्व के कौनों-कौनों तक गूंजी है| यूरोप वाले इसको "हिन्दू तालिबान" व् "हिन्दू सऊदी" तक कहने लग गए हैं|

पिछले महीने ही आरएसएस और मोहन भागवत वक्तव्य देते हैं कि नौकरियों में जातीय आधार के आरक्षण की पुनर्विवेचना होनी चाहिए| क्योंकि आपको जातीय आरक्षण देश पर कलंक लगता है और दावा करते हैं कि इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि नहीं बन पा रही है| जबकि कहानी उल्टी है, आपकी काल्पनिकता से बिलकुल उल्टी|

दादरी (गाजियाबाद) और दनकौर (नोएडा) की घटनाएं चीख रही हैं कि धर्म और जातीय कटटरता और फूहड़ता अभी जिन्दा हैं| 'हिन्दू एकता और बराबरी' एवं 'हिन्दू बटेगा, देश घटेगा' जैसे स्लोगन्स ढकोसला हैं| और दनकौर की घटना साक्षी है इस बात की| एक पशु के नाम पर उदंडता फ़ैलाने वाले हिन्दुओं के समक्ष ही एक हिन्दू दलित परिवार को सरेआम नग्न किया जा रहा था या वह खुद हो रहा था और किसी हिन्दू का उस परिवार को या उसको नग्न करने वालों के खिलाफ खून नहीं खोला|

दूसरी तरफ एक तथाकथित हिन्दू-हृदय सम्राट संगीत सोम खुद जब एक बूचड़खाने जिसमें की गाय भी कटती हैं के डायरेक्टर निकलते हैं तो यही तथाकथित हिन्दू व् इनके धर्माधिकारी तक भी चूं तक नहीं करते। कम से कम यह आर्टिकल लिखे जाने तक ऐसी कोई खबर नहीं की किसी गाय के भगत ने चूं तक भी किया हो इस खुलासे पे।

यह कैसा धर्म है और कैसी इसकी शिक्षा कि इंसानी अपमान पे जिसके खून में कोई हलचल नहीं होती वो जानवरों के गोबर-मूत पे किन्हीं तालिबानियों की भांति झींगा-लाला-हु-हु झिँगाने लगते हैं|

मैं किसी को आईना नहीं दिखाना चाहता, मुझे तो इनके ड्रामों की रग-रग का पता है| परन्तु मानवता कहीं रोती है या रूलती है तो अंतर्मन क्रंदन करने लगता है|

आखिर लोग कब समझेंगे कि "हिन्दू" नाम का कोई धर्म नहीं (सुप्रीम कोर्ट तक कह चुका है कि हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं) , "हिन्दू" नाम की कोई स्थाई सोच नहीं| "हिन्दू" शब्द कोरी एक राजनीति है, इसका धर्म-इंसानियत-सभ्यता-जिम्मेदारी से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं| "हिन्दू" नाम के पार्सल में आज भी आपको ना सिर्फ धर्म अपितु जातिवाद का जहर ही पिलाया जा रहा है| तभी तो एक पशु के खाने की अफवाह मात्र पर किसी संगीत की धुन की भांति सहायता का सोमरस पिलाने वालों से ले रण के सुरेश बनने वाले "हिन्दू-हृदय सम्राटों" के लावलश्कर तो क्या उनके संदेश तक 'दनकौर' नहीं पहुंचे| यहां तक दलित-पिछड़ों के मॉडर्न-ब्रांड मसीहा महाशय श्री राजकुमार सैनी तक ने एक शब्द अभी तक इसके खंडन पर नहीं बोला|

'पापी के मन में डूम का ढांढा' वाली बात है यह तो श्रीमान भागवत| स्पष्ट है कि 'दनकौर' जैसी घटना अपने आपमें इस बात की पुनर्विवेचना है कि आज भी इस देश में आरक्षण और वो भी आर्थिक या शैक्षणिक नहीं अपितु सामाजिक आरक्षण क्यों जरूरी है|

दलित और किसान 'जातिवाद' को समझें और इस जातीय जहर को इसको लिखने-घड़ने वालों की किताबों तक में ही समेट दो या फिर उनके ही ऊपर उड़ेल दो| क्योंकि मोहन भागवत की तो बाट जोहना मत कि जैसे उन्होंने "नौकरी आरक्षण" की पुनर्विवेचना की कह दी वो कभी सपनों में भी "जातिवाद" की पुनर्विवेचना या इसको समाज से हटाने की कहेंगे या इसमें बसी जातीय-वर्णीय बंटवारे की डंकनी सोच से इसको मुक्त कर पाएंगे अथवा करने की कहेंगे| उनके तो खुद के संगठन में आजतक स्वर्ण से तले कोई प्रधान नहीं बन पाया।

किसान वर्ग की जातियों को यह खेल समझना होगा कि जब आप अपनी वास्तविक "अन्नदेवता" वाली उच्चता (जिसके आगे धर्म भी नतमस्तक है) को छोड़ इनके हिन्दुवाद की अव्यवहारिक व् असामाजिक छद्म उच्चता ओढ़ते हो तो कैसे खुद को दलित के खिलाफ खड़ा कर लेते हो|

इस वायरल का असर यहीं तक थम जावे तो काम चल भी जावे, परन्तु असली खेल तो इससे आगे होवे है| उंच-नीच के नाम पर बंटे आप दलित-किसान को फिर यही जातिवादी आपको वोटों के दो धड़ों के रूप में बड़ी सहजता से प्रयोग करते हैं|

जातिवाद को अपने समाज, दिलों और मस्तिष्कों से निकाल के बाहर करो क्योंकि यह सिवाय "यूज एंड थ्रो" की न्यूनतम दर्जे की अमानवीय-हिंसक राजनीति के कुछ नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Mr. CM Haryana, please rethink over your 'Education Norm Condition' in forthcoming Panchayati Raj Elections in state!

Look at this report from attachment, there are men and women farmers in hundreds, out of which most of are below 10th or even not having 5th grade official degree but are beating more than 70% scientists, professors and researcher all over the nation with their profound and stunning knowledge of crops insects, their biological life-cycles, their impacts on crops.

One side where in Punjab and ajdacent Haryana layers, farmers have lost most of their cotton crops due to severe mass attack of "White Fly", on the other side farmers in Jind district have successfully shielded their cotton crop with their distinctive know-how of various insects life-cycle.

So please remember Mr. C.M. they also have and even attained a wisdom and wisdom is something which one needs to run or govern the public. So when they can beat yours government's more than 70% of agri-scientists and professors (who not only just have this job rather your system would have spent on them in crores) then how can they not be eligible for electing "Panchayati Raj Elections"?

I feel special compassion and legitimacy to these farmers as the epicenter of this agri-movement has been my native village i.e. Nidana Nagri of my beloved Jind country (we oftenly loved to call it country in student age, a KUK famous compliment) in a state of Yoddheyas i.e. mighty Haryana.

Oh I think, as you don't even consider yourself a Haryanvi (of course otherwise won't have termed Haryavies weak above and strong below shoulders), so all these 'Nagri', 'Country' and 'Yoddheyas' would appear new to you. Don't worry ask your assistances, they would help you out.

Jai Yoddhey! - Phool Malik


 

भगतों का सुतिया कट गया रे!

रै रळदू, न्यूं क्यूकर भाई, (आगे हिंदी में) यह "हिन्दू-ह्रदय सम्राट श्रीमान संगीत सोम" तो खुद ही "अल-दुआ" बीफ प्रोसेसिंग कंपनी जो कि बीफ से ले हर तरह के मांस का व्यापार करती है, उसके डायरेक्टर निकले|

और वो भी भगतों के गुरुओं द्वारा भगतों के लिए भगतों के दुश्मन नंबर वन कौम बताये गए मुस्लिम (जिनके साथ भाईचारा रखने पे भगतगण मेरे जैसे सेक्युलर को गलियाते रहते हैं) के साथ खोल रखी है, भगतो डूब के मरने को जी कर रहा हो तो आसपास कोई नहर, नहर नहीं तो जोहड़-कुँए तो जरूर मिल जायेंगे|

भगतो घर में ही गाय का भक्षक जयचंद पाले बैठे हो और वह तुम्हारा कितना अच्छे से सुतिया भी बनाता है| दादरी में हरसम्भव मदद का दावा करने भागा-भागा आता है और दूसरी तरफ "अल-दुआ" बूचड़खाना भी चलाता है| अंधभक्ति इंसान को मूढ़-हिंसक-अपराधी बना देती है पता था परन्तु सुतिया भी बनाती है यह अब पता चला|

अब उठाना ऊँगली तुम मेरे ऊपर मुस्लिमों को भाई कहने पर, तुम्हारे इन हिन्दू-हृदय सम्राट का नाम आगे अड़ाया करूँगा|

तमाम कृषि-समुदायों से यही कहना है कि शुद्ध कृषक बने रहो, ज्यादा हिन्दू बनने के चक्कर में उलझोगे तो श्री संगीत सिंह सोम राजपूत जैसे छद्म लोग आपका दिन-धोली सुतिया बनाते रहेंगे।

'हिन्दू' शब्द के नाम पर एक छद्मभेषी तबका कैसे अपने स्वार्थ साध इनके बहकावे में आने वालों का कैसे सिर्फ फद्दु ही नहीं अपितु सुतिया भी काटता रहा है उसकी जीती-जागती मिशाल हैं श्री संगीत सोम जी।

मतलब किसी आम आदमी का बूचड़खाना होता तो समझ भी आता, यह तो उस आदमी का निकला जो 2013 में मुज़फ्फरनगर से हिन्दू-हृदय सम्राट बना चल रहा था। और इसपे इनके अति-आत्मविश्वास की इंतहा तो देखो, एक तरफ जनाब खुद एक गाय काटने वाले बूचड़खाने के डायरेक्टर और दूसरी तरफ दादरी में गौ-मांस पर हुए दंगे में जा के गौ-भगतों को मदद आश्वस्त करके आते हैं।

शुक्र है कि मैं तो शुरू दिन से तभी से इनसे तटस्थ रहा और अब तो इनको कतई ना हेजूँ। ऐसी सुतिया बनाने वाली अंधभक्ति तुमको ही मुबारक भगतो और अंधभग्तो। हम तो भक्ति के बिना ही सिर्फ "अन्नदेवता" या "अन्नदेवता की औलाद" कहला के जी लेंगे।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

 

Friday, 9 October 2015

“तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्टी पड़ी है!” - महारानी किशोरी

एक जीत, सम्मान, शौर्य और प्रतापी तेज की भूखी शेरनी जाटनी का यही वो तान्ना था जिसने उनके सुपुत्र महाराजा जवाहर सिंह को भारतेंदु बना दिया|

यही वो रूदन था जिसको सुन अपने पिता की अकस्मात मौत के बदले हेतु एक लाख सेना के साथ रणबांकुरे जवाहर ने सीधा दिल्ली पर हमला दे बोला|

महाराजा सूरजमल की बहादुर रानी जिसने लाल किले की चढ़ाई में भाग लिया तथा पुष्कर में भी की जीत का कारण बनी तथा वहां जाट घाट बनवाया।

जब 1763 में महाराजा सूरजमल शाहदरा के पास धोखे से मारे गये तो महारानी किशोरी (होडल के प्रभावशाली सोलंकी जाट नेता चौ. काशीराम की पुत्री) ने महाराजा जवाहरसिंह को एक ही ताने में यह कहकर कि " तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्टी पड़ी है!”, युद्ध के लिए तैयार कर दिया। महाराजा जवाहरसिंह ही पहले हिन्दू नरेश थे जिन्होंने आगरे के किले और दिल्ली के लाल किले को जीतकर विजय-वैजयन्ती फहराई थी और भारतेंदु कहलाये।

दिल्ली के लाल किले के युद्ध में जब किसी भी तरह किला फतह न हो पा रहा था तब महाराजा जवाहरसिंह के मामा और महारानी किशोरी के भाई वीरवर बलराम ने किले के फाटकों के लम्बे-लम्बे कीलों पर छाती अड़ा हाथी के मस्तिष्क पर बड़े-बड़े तवे बन्धवा पीलवान से हाथी हूलने को कहा। हाथी की मार से किले के किवाडों और तवों के बीच में बलराम का शरीर निर्जीव हो उलझ गया पर उनके अमर बलिदान से अजेय दुर्ग के फाटक टूट गए और वह जीत लिया गया।

कई महीनों के घेरे के बाद, जब जवाहर सिंह ने लालकिला दिल्ली के किवाड़ तोड़ डाले तो, आखिरकार दिल्ली में अहमदशाह अब्दाली के द्योतक बादशाह नजीबुद्दीन जाट-महाराजा के रौद्र-रुपी क्रोध के आगे संधि को मजबूर हुए|

पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को हराने वाला अहमदशाह अब्दाली भी जाट-क्रोध के आगे लूटती दिल्ली को अवाक देखता रहा; और नजीबुद्दीन की मदद को आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया| इसपे कहा गया कि “जाट के क्रोध को या तो करतार थाम सके या खुद जाट”|

मुग़ल बादशाह ने मुग़ल राजकुमारी का महाराजा जवाहर सिंह से ब्याह (जिसको बाद में जवाहर सिंह ने फ्रेंच-कैप्टेन समरू को प्रणवा दिया), युद्ध का सारा खर्च वहन करने की संधि की|

महाराणा प्रताप और अकबर की लड़ाई में अकबर चित्तौड़गढ़ के किले के प्रवेश द्वार के जो किवाड़ उखाड़ दिल्ली में ले आया था, उन्हीं किवाड़ों को दिल्ली से वापिस छीन जाट-सूरमा वापिस जाट-राजधानी भरतपुर ले आया; और इस तरह राजपूती सम्मान का भी बदला लिया| उस जमाने में चित्तौड़गढ़ ने यही दरवाजे आज की कीमत में लगभग 9 करोड़ रूपये के ऐवज में वापिस मांगे तो लोहागढ़ (भरतपुर) ने कह दिया कि मान-सम्मान की कोई कीमत नहीं हुआ करती; फिर भी किवाड़ चाहियें तो ऐसे ही ले जाओ जैसे हम दिल्ली से लाये हैं| आज भी वह किवाड़ भरतपुर किले में लगे हुए हैं|

काश लेखकवर्ग व् सिनेमावर्ग हमारे इतिहास के अध्यायों को दिखाने में ईमानदार होता तो उनको ऐसे एपिसोड जिसमें भारतीयों ने आक्रान्ताओं और विदेशी शासकों को बेटियां दी के जरिये ही अपनी अपंग वीरता बघारने के अपंग-फूटे किस्सों से काम ना चलाना पड़ता| आज भी अगर जाट इतिहास को कोई सिनेमा उठा ले तो विश्व को जान पड़े कि भारत के राजा सिर्फ बेटियां दिया नहीं करते थे, अपितु ऐसे भी राजा हुए जिनको विदेशी शासकों की बेटियों से विवाह के न्योते मिला करते थे और वो उनको महाराजा जवाहर सिंह की तरह आगे बढ़ा दिया करते थे| और साथ ही यह भी पता लगता है कि भारतीय राजा सिर्फ विरोध करते हुए जंगलों में भूखे नहीं मारे जाया करते थे अपितु दुश्मन के माथे पर चढ़ उसके मान-मर्दन की बोटियाँ भी बिखेरा करते थे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

विभिन्न वर्गों की सोशियोलॉजी पढ़नी और समझनी है तो रखें अलग-अलग सोशल एकाउंट्स यानी फेसबुक पेज!

मेरे पास छ: फेसबुक एकाउंट्स हैं, जिनमें 4000 से ले के न्यूनतम 300 तक फ्रेंड्स हैं| एक मुद्दे को जब छ: के छ: में डालता हूँ तो जो प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं उनमें दिन-रात का फर्क होता है|

इन अकाउंट में सिर्फ दो अकाउंट मेरे नाम से हैं बाकी चार मेरी ओनरशिप यानी गवर्नेंस में| कोई भी अकाउंट नकली जानकारी दे के नहीं बनाया है, सब ऑथेंटिक हैं| पर इनके जरिये जो विभिन्न वर्गों की मुद्दों की चॉइस और सोशल सोच का एक स्क्रीन पे बैठे-बैठे अध्यन हो जाता है वो अपने-आप में एक रिसर्च थीसिस लिखने जैसा है| अगर इस रिसर्च के 6 चारित्रिक हाइपोथिसिस बनाऊं जो कुछ यूँ बनेंगे:

1) कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला यानि कॉर्पोरेट ग्रुप: इसमें वो लोग हैं जिनको समाज में क्रीमी लेयर कहा जाता है| इनको समाज की राजनीति-हिंसा-आगजनी के जरिये सिर्फ कमाई होती रहनी चाहिए, फिर चाहे कोई जिए या मरे| इनमें कुछ तो यूँ भी कह देते हैं कि तुम क्यों पड़ते हो इन पचड़ों में| बड़ा उदासीन ग्रुप है साहेब, कोई सहजता से रिस्पांस नहीं करता सिवाय इनमें बैठी अंधभक्त केटेगरी के|

2) सांस्कृतिक चेतना व् जागरूकता ग्रुप (हर तरह की सेंट्रल विंग वाले इसमें हैं): इसमें हरयाणवी संस्कृति को ले के जागरकता और प्रेरणा को कटिबद्ध लोग हैं| इस ग्रुप में आर्थिक आधार की कोई लाइन नहीं है| इसमें कॉर्पोरेट जैसे मनी-माइंडेड से ले नेता-सामाजिक कार्यकर्त्ता सब हैं| परन्तु एक लाइन जरूर है कि 99% सब हैं हरयाणवी| जब इस अकाउंट में पोस्ट डालता हूँ तो बहुत सकारात्मक रिस्पांस आते हैं| लाइक्स के तो कई बार मीटर टूट जाते हैं|

3) मानवाधिकार और सामाजिक अधिकारों की वकालत करने वाले (हर तरह के लेफ्ट विंग वाले): इनके यहां पे बुद्धिजीवियों वाली धुनें चलती हैं| समाज की हर इस-उस थ्योरी और मान्यता में नुक्स निकालने वाले| यहां मेरी लगभग हर ऐसी पोस्ट का खूब मान-मर्दन होता है पोस्टमॉर्टेम होता है जिसमें मैंने हरयाणा-हरयाणवी पे कुछ लिखा हो| इनके अनुसार हरयाणा-हरयाणवी पे कुछ लिखे जाने का मतलब सिर्फ और सिर्फ जाट और खाप है| इसलिए यह बेचारे जाटोफोबिया और खापोफोबिया से ऐसे ग्रसित हैं कि पोस्ट डाली नहीं बस टूट पड़े|

4) यह प्योर पोलिटिकल लोगों का अकाउंट है: यहां पता ही नहीं लगता की पोस्ट हिट हुई या पिट गई| लिखने वाला पोस्ट के पक्ष में है या विपक्ष में, कुछ मालूम नहीं पड़ता|

5) यह नॉन-हरयाणवी लोगों का ग्रुप है (मीडिया इनका गुरु है): जहां पोस्ट डाल कर हरयाणवी संस्कृति पर वो क्या सोचते हैं इस बारे जानने को मिलता है| इस ग्रुप में मीडिया की मेहरबानी ज्यादा काम कर रही है| मीडिया की रिफरेन्स से ही यहां हरयाणा की छवि बना के चलते हैं लोग| परन्तु समझाने पे बात को समझ भी लेते हैं| ऐसे ग्रुप्स ऐसे लोगों के समूह हैं जहां हर असली हरयाणवी को होना चाहिए, खासकर उनको तो जरूर जो हरयाणा और हरयाणवी का सही और सटीक प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं|

6) अंधभक्तों का ग्रुप (हर तरह की राइट-विंग वाले इसमें हैं): यहां मैं धर्म-जाति-सम्प्रदाय से संबंधित पोस्टें डालता हूँ और इनके मत की पोस्ट ना हो तो ऐसे झप्पटा मारते हैं जैसे बंदरों का समूह| इन्होनें जो माइंड-सेट बना लिया है उसमें किसी दूसरे विचार की जगह की कोई गुंजाइस नहीं| सबसे रुके हुए, थमे हुए और छके हुए लोग इस समूह में हैं| इनसे इसलिए जिरह और मश्वरा करना चाहिए ताकि आपको अहसास रहे कि आपको इनके जैसा नहीं बनना|

किसी-किसी अकाउंट में कोई अनफिट पोस्ट डालने पे मुझे भी अफ़सोस रहता है परन्तु मेरी नजर उस पोस्ट के जरिये मिलने वाले फीडबैक व् रिस्पांस पे रहती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

प्रणव दा की बात पे एक्शन भी लेवें प्रधानमंत्री जी!

मोदी साहब बिहार के समस्तीपुर में कहते हैं कि प्रणव दा यानि माननीय राष्ट्रपति जी ने जो कहा उसका अनुपालन करो!

अब देखिये राष्ट्रपति जी ने क्या कहा, "धर्म को सता की सीढ़ी ना बनाएं" - राष्टपति प्रणव मुखर्जी!

तो मोदी साहब राष्ट्रपति जी की इस बात का समर्थन सिर्फ जीभ चलाने मात्र को है या इसको क्रियान्वयन में भी लाओगे? आप, आपकी बीजेपी और खुद आरएसएस धर्म को संसद में बिठा दिए हो, कृपया कहलवाइये ना इन अपने वालों को भी कि अपनी धर्म की संसद को राजनैतिक संसद से अलग रखें। उमा भारती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची आदि-आदि मेरे ख्याल से यह धर्म के प्रतीक हैं, समाज के तो नहीं?

मुझे नहीं याद आ रहा कि कभी कोई जत्थेदार, मौवली, पादरी आदि देश की किसी भी विधानसभा अथवा लोकसभा में कभी एमएलए/एमपी बनके आया हो, सिवाय इन हमारे साधु-संतों के|

बाकी भी विश्व में ऐसा कहीं नहीं है जहां कोई मौलवी, पादरी, जत्थेदार राजनैतिक भवनों में बैठते हों| वो अपनी धर्म की संसद अलग रखते हैं।

वैसे भी राजनैतिक गुरु चाणक्य तक कह के जा चुके कि धर्म और व्यापार को जो राजा राजनीति से दूर नहीं रखता, वो निरंकुश, उसकी नौकरशाही बेलगाम और शासन अराजक हो जाता है। चाणक्य जैसी हस्ती का आदर करना परन्तु उनकी बातों पे अमल ना करके उनका आदर करने का अपमान क्यों? उनका सही आदर तो तब होगा जब उनकी बात की भी पालना करोगे और करवाओगे।

इंतज़ार किसका जनाब और किस चीज की बाध्यता? एक्शन लीजिये ना?

इसे कहते हैं "हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और!"

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 8 October 2015

सम-गोत में विवाह निषेधता, छज्जे-छज्जे का तथाकथित प्यार और आन-बान-शान!

सम-गोत में विवाह निषेधता: सम-गोत विवाह निषेधता वंशानुगत थैलीसीमिया की बीमारी से बचने के लिए व् "एक गोत के खेड़े" में लिंग-समानता की थ्योरी को कायम व् पोषित रखने के लिए है|

पश्चिमी बंगाल की जलपाईगुड़ी इलाके की टोटो जनजाति जिनमें मामा-चाचा के बच्चों {नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों)} की शादी की जाती है, जिसकी वजह से व् कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र कैंसर रिसर्च सेंटर की शोध के अनुसार इस समुदाय में 56 फीसदी लोग थैलीसीमिया के शिकार हैं। दयानंद मेडिकल कॉलेज, लुधियाना पंजाब के प्रोफेसर सोबती के शोध के अनुसार इन्हीं वजहों के चलते पाकिस्तान पंजाब से आई नश्लों में भी 7.5% लोग थैलिसीमिया की बीमारी से ग्रस्त हैं, जो कि अब बढ़कर 12% तक पहुँच चुकी है| यहां तक कि विश्व के ईसाई समुदाय में भी नजदीकी खून व् सगोतीय विवाह वैज्ञानिक व् सामाजिक दोनों आधार पर मान्य नहीं हैं।

तमाम खापलैंड पर "एक गोत के खेड़े" वाले गाँव-नगरी में सम-गोत विवाह इसलिए वर्जित हैं क्योंकि औलाद बेटे की हो या बेटी की, दोनों के लिए गोत खेड़े का ही चलता है, बहु और दामाद के गोत पीछे छूट जाते हैं अथवा द्वितीय हो जाते हैं। बेटा यानि "मैं", बहु यानि मेरी पत्नी, इस मामले में हमारी औलाद का प्रथम गोत मेरा यानि मेरे खेड़े का गोत होगा। बेटी यानि मेरी बहन, दामाद यानि मेरे जीजा जी, अगर मेरी बहन ससुराल छोड़ के मायके यानि हमारे (मेरे और मेरी बहन का पैतृक गांव) में आन बसती है तो यहां होने वाली बहन और जीजा की औलादों यानि मेरे भांजे-भांजियों का प्रथम गोत भी मेरी बहन का यानी हमारे खेड़े का गोत होगा, मेरे जीजा का गोत द्वितीय बन जायेगा। और हमारे यहां जितनी भी "धाणी की औलाद, बेटी की औलाद, देहल की औलाद" कहलाती हैं वो सब अपनी माँ का गोत उनका प्रथम गोत के रूप में धारण करते हैं।
और मुझे गर्व है कि ऐसी व्यवस्था कि जिसमें मर्द का ही नहीं अपितु माँ का गोत भी औलाद का प्रथम गोत बन सकता हो और बनता है वो सिर्फ-और-सिर्फ "खापोलोजी" की थ्योरी देती है। कोई द्वेष-ईर्ष्या में कितना ही हमारी थ्योरी से नफरत करे, गफलत करे या तिजारत करे, परन्तु वो इन तथ्यों से मुंह नहीं मोड़ सकता।
अब बात आती है "छज्जे-छज्जे का तथाकथित" प्यार: इसमें तमाम

जवानी के द्वारे, घर-घेर के चुबारे-अँगनारे, वासना भरे हुंकारे!
जो इसको समझ के सही दिशा दे जावे, वही सामाजिक कुहारे!!
बस इसी लाइन में निचोड़ है इस बात का। छज्जे-छज्जे का प्यार आकस्मिक होता है, तामसिक होता है। कोई कितने ही तणे तुड़ा ले, कितने ही पींघ चढ़ा ले परन्तु समाज से उसपे स्वीकृति नहीं मिलती क्योंकि विश्व के हर कोने-बिरादरी में जो दो तरह के वैध व् अवैध सामाजिक संबंध होते हैं उनकी अवैध वाली केटेगरी में हमारा समाज इनको गिनता है।

अब छुपी घुन्नी मंशा लिए इनको "वैध प्यार" ठहराने की जिद्द वाले हमें यह बता दें कि क्या जिस समाज-गली-चौराहे से वो आते हैं वहाँ की डिक्शनरी में "अवैध" शब्द नहीं है? मेरे ख्याल से विश्व में ऐसा कोई समाज नहीं जिसमें सिर्फ वैधता ही विराजती हो और उसमें अवैधता के नाम से कुछ ना हो? अगर ऐसा हो तो फिर विश्व से कोर्ट-कचहरी-पुलिस सब खत्म हो जाता या कम से कम उनके समाजों में यह चीजें ना मिलती।
दूसरी बात अवैध संबंध विवाह से पहले और विवाहोपरांत दोनों तरह के पाये जाते हैं, और हमारे समाज में उनमें से एक अवैध संबंध की प्रकार है "छज्जे-छज्जे का तथाकथित प्यार"।

छज्जे-छज्जे के प्यार की सबसे बड़ी हास्यास्पद स्थिति यह होती है कि जिनसे कभी छज्जे-छज्जे खेले थे अक्सर वो ही उनके बच्चों से आपको, "बेटू मामा जी को नमस्ते करो!" कहलवाती मिलती हैं। और ऐसे में सिर्फ उनकी ही आँखें गर्व से आशीर्वाद देती हैं जिन्होनें छज्जे नहीं अपितु अच्छे रिश्ते रखे हों। अन्यथा आँखें चुरा के निकल जाना पड़ता है|

आन-बान-शान: अत: वो नादाँ लोग समझें जो "छज्जे-छज्जे के तथाकथित प्यारा का डरावा दे ऐसा माहौल खड़ा कर देते हैं कि जैसे दुनियां खत्म होने को आई, वो इसकी परवाह ना करें। क्योंकि समाज से प्यार मरेगा नहीं और वासना घटेगी नहीं। प्यार हारेगा नहीं, वासना जीतेगी नहीं।

किस्से और रांझे तो गाँव-गोत छोड़ प्यार करने वाले हीर-रांझे के ही गाये जायेंगे, छज्जे-छज्जे के प्यार के तहत दी गई व्यर्थ व् कोरी भावनाओं वाली कुर्बानियों के नहीं। जान-जान में फर्क होता है एक जान हीर-रांझे ने दी तो आजतक अमर और एक कितने ही छज्जे-छज्जे वालों ने दी, एक का भी जिक्र किसी गली-चौराहे-महफ़िल नहीं होता, सिवाय उनकी तेरहवीं तक होने वाली शोकसभा के। इसलिए हे छज्जे-छज्जे की पींघों पे झूलने वालो, इन पींघों को गाँव-गुहांड-गोत से बाहर जा और लम्बी बनाओ क्योंकि सासु के नाक तोड़ के लाने हैं तो पींघ लम्बी ही चाहिए होती है। छोटी पींघ पे झूलोगे तो सासु का नाक क्या अपना भी नहीं तोड़ पाओगे।और अगर जाटलैंड और खापलैंड पे बसते हो तो इतनी लम्बी तो जरूर रखो कि पींघ गोत से तो जरूर-से-जरूर बाहर जाती हो, गाँव-गुहांड की निर्भर है कि आपका गाँव के खेड़े का गोत एक है या अनेक।

"खेड़े का गोत": खापोलोजी में जब भी कोई नया गाँव-नगरी बसाई जाती है तो उस गाँव की नींव का पत्थर यानी "दादा खेड़ा" स्थापित करते वक्त जिन-जिन भी जातियों के जिन-जिन गोत के प्रथम लोग खड़े होते हैं वह उन-उन जातियों का "खेड़े का गोत" कहलाता है। अगर एक ही जाति के दो से ज्यादा गोत के लोग हों तो वो सारे गोत उस जाति के लिए उस गाँव के खेड़े के गोत कहलाते हैं। सिरसा-गंगानगर-हनुमानगढ़ की तरफ अधिकतर गाँव ऐसे हैं जिनमें "एक से ज्यादा खेड़े" के गोत हैं जबकि बाकि की खापलैंड पर अधिकतर गाँवों का एक खेड़े का गोत पाया जाता है। 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 7 October 2015

एक गुजराती (गांधी) कहता था अंग्रेजो भारत छोडो, दूसरा गुजराती (मोदी) उनको वापिस बुला रहा है!

एक डेड स्याणे आप ही हुए हो कि वो यहां आएंगे आपको सब कुछ बना के देंगे और उससे बिना मनचाहा अथवा निर्धारित मुनाफा कमाए भारत छोड़ जायेंगे?

मेरे ख्याल से यूरोपियन और अमेरिकन अभी इतने भी बावळीतरेड़ नहीं हुए हैं कि तुम उनसे यह कह के प्रोजेक्ट उठवाओ कि बस आओ, बनाओ और जाओ और तुम्हें मुफ्त में अपनी टेक्नोलॉजी भी दे जाओ|

यार दिमाग की दही कर देते हैं ऐसे लोग, ढींग हांकने को तो यह गाय के मूत से भी बिजली बना देवें; परन्तु जब व्यवहारिक तकनीक की बात आवे तो फिरें उड़ते देश-देश वास्कोडिगामा बने|

यह इतने सारे शंकराचार्य से ले, महामंडलेश्वर, वेदांती, शास्त्री, साध्वी-साधु क्या यहां सिर्फ जीभ चलाने को छोड़े हुए हैं और हम भैंस की पूंछ बनके इनके हुंगारे भरने को? इनको लगाते क्यों नहीं शुद्ध भारतीय तकनीक विकसित करने में? ताकि इनके टैलेंट का देश में सिर्फ दंगे और जातिवाद बढ़ाने और भड़काने के अलावा भी कोई ढंग का इस्तेमाल हो सके|

और हमें भी पता चले कि यह चाँद-तारों की ऊंचाई तक के ज्ञानी-भंडार के दावे करने वाले वास्तव में कितने ब्रह्मज्ञानी हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सुप्रीम कोर्ट में पंचायती राज कानून में "शैक्षणिक योग्यता" मुद्दे पर जनता के पक्ष हेतु कुछ वाजिब बिंदु!


1) 100-100 खेत कीटों का ज्ञान रखने वाले किसान कैसे निरक्षर हो सकते हैं?: यहां संदर्भ में सन 2008 में स्वर्गीय डॉक्टर सुरेन्द्र दलाल द्वारा हरयाणा के जिला जींद के निडाना गाँव में "खेत-कीट साक्षरता अभियान" के तहत शुरू की गई खेत-कीट पाठशाला में आज एक-एक किसान ऐसा है जो किताबी अक्षरी ज्ञान में अनपढ़ होते हुए भी बायोलॉजिकल खेत-कीट ज्ञान इतना माहिर है कि 100-100 खेत-कीटों का ज्ञान रखता है| जहां देश के 70% से अधिक कृषि वैज्ञानिक तक मुश्किल से 10 कीटों के जीवनचक्र, फसलों में उनके फायदे-नुकसान पर नहीं बता सकते, वहीँ यह किसान इस मामले में इन सबको मात देता है तो वह सिर्फ एक अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से अनपढ़ कैसे हो सकता है? आज यह एक अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अभियान है, जिसकी मीडिया व् कृषि वैज्ञानिकों से ले सरकारी मशीनरी ने खूब कवरेज भी की है और इसकी ऑथेन्टिसिटी को खूब जांचा, परखा और स्वीकारा है| डॉक्टर दलाल के गुजर जाने के बाद स्थानीय खापों ने इस अभियान को बड़ी तल्लीनता से आगे बढ़ाया है, जिनमें माननीय दादा कुलदीप सिंह ढांडा जी का नाम उल्लेखनीय है|

2) किसानी ज्ञान को ज्ञान अथवा शिक्षा क्यों नहीं माना जाता?: एक ऐसी कला, एक ऐसी विधा जो धरती का सीना चीर देश के पेट के लिए अन्न-धान उगा दे वो एक महज अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से अनपढ़ कैसे ठहराई जा सकती है? किसान की इस विधा को तो वेद-शास्त्रों तक में "अन्नदाता" व् "अन्नदेवता" का दर्जा प्राप्त है| तो फिर जो "देवता" हो गया वो अनपढ़ कैसे हुआ? क्या सारी उम्र देश के लिए अन्न पैदा करने वाले किसान से अपने सदाचार यानी विजडम से देश को चलाने हेतु अपनी पारी खेलने का अधिकार सिर्फ इस बात पर छीन लिया जायेगा कि उसको अक्षरी ज्ञान नहीं?

3) विश्वविधालयों को कहा जाए कि तमाम ऐसे बुद्धिजीवी परन्तु अनपढ़ किसानों को मास्टर्स, ग्रेजुवेट व् डॉक्टरेट की मानद (आनरेरी) डिग्रीयां देवें: हमारे देश में एक राजनेता, अभिनेता, कलाकार और सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य करने वालों को, जैसे विभिन्न विश्वविधालय डॉक्टरेट की आनरेरी डिग्रियां देते हैं ऐसे ही कृषि विश्वविधालयों को आदेश हो कि बिंदु एक में बताये गए तमाम तरह के किसानों को भी डॉक्टरेट से ले मास्टर्स और ग्रेजुवेट की आनरेरी डिग्रियां देवें| क्योंकि ऐसी डिग्रियां लेने वाले लोग ना कभी किसी पीएचडी की क्लास में गए होते हैं, ना किसी रिसर्च गाइड के तहत रह कर कोई थीसिस लिखे होते हैं परन्तु फिर भी सिर्फ उनके कार्यक्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उनको आनरेरी डिग्रियां दी जाती हैं तो इसलिए यह कृषि क्षेत्र में भी दी जानी चाहियें| इससे कम से कम जिन्होनें तमाम उम्र इतनी मेहनत से देश का ना सिर्फ पेट भरा हो वरन इतना गहन कीट-ज्ञान अर्जित किया हो कि एक चलती-फिरती पाठशाला बन गए हों, वो भी डॉक्टरेट या पढ़े-लिखे कहलावें|

4) रोड़ा इस बात पर अड़ाया जा रहा है कि डिजिटल इंडिया मुहीम के तहत अनपढ़ों को सहजता से नहीं सिखाया जा सकता, यानी उनकी लर्निंग कैपेबिलिटी पर संदेहास्पद स्थिति कही जा रही है। जबकि खेत-कीट कमांडोज़ का उदाहरण साबित करता है कि किसानों में लर्निंग कैपसिटी किसी भी पढ़े-लिखे इंसान से कम नहीं, क्योंक जब वह 100-100 कीटों का ज्ञान और अन्न पैदा करने के ज्ञान की लर्निंग कैपेसिटी रखते हैं तो क्या जब वो औसतन 5000 लोगों के चुने हुए नुमाइंदे बनेंगे तो उनको ट्रेनिंग के जरिये वह चीजें नहीं सिखाई जा सकेंगी? आखिर एक पढ़े-लिखों के ऑफिस में भी तो कोई नई चीज वहाँ के स्टाफ को ट्रेंड करके ही शुरू की जाती है?

तो क्या सरकार सिर्फ इस ट्रेनिंग से अपना पल्ला झाड़ रही है? अधिकतर मामलों में पंच-सरपंच ने तो वैसे भी दिशा-निर्देश देने हैं कार्य तो उनके तहत जनता अथवा कर्मचारी करेंगे या ट्रेनिंग देने वाले उनको सीखा के जायेंगे। वहीँ बात कि जब वो इतने बड़े कीट-विज्ञानी बन सकते हैं तो वो पंच-सरपंची क्यों नहीं चला पाएंगे?

बशर्ते कि सरकार डॉकटर सुरेन्द्र दलाल जैसी जनसेवा की भावना हर कर्मचारी में पैदा करने पे जोर दिलावे।

अगर यह फैसला लागू हो गया तो इससे सरकारी कर्मचारी में डिक्टेटर बन जाने की संभावना बलवती रहेगी और उसके अंदर से जनसेवा की भावना कुंध होती चली जाएगी।

Jai Yoddhey‬ - Phool Malik

This is literally against the democratic spirit of a nation!

It is further arguable as it violates the fundamental right of expressing ones opinion of governing the society on the basis of his/her humanitary wisdom. Does it mean that a person illitrate just on the basis of official education can't have a wisdom of running the society?

And how can a farmer with whose knowledge he nurture the nation's stomach, isn't that an education? A farmer sitting in countryside even has the bilogical knowledge more than any government gazzetted officer. Example is my own village itself, where there are farmers in dozens who can beat any officially proclaimed agri scientist sitting in universities when it comes to knowledge on insecticides and agri insects.

If so is the case then various universities should stop conferring various doctorate degrees on people who have not attended even a single academic class requisite for that degree and are designated doctorates just on the basis of their life experience. Either it should be stopped or else unverisities and governments should bring up same policy of conferring such degrees on those farmers too who excel in their feild and possess much more and better way knowledge of agri bio, insects, techniques and facts than any designate scientist or officer.

This government has again proved its clone dipped into philosophy of "Manuwad" for whom only their styled knowledged persons are literate and rest world is illitrate. This backdoor imposing of "Manuwad" won't go unnoticed and it would be repelled with proper dues in times to come.

Source: http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/educational-qualification-for-contesting-panchayat-polls-in-sc-haryana-cites-two-child-norm/

Phool Malik

Tuesday, 6 October 2015

शायद मोदी जी जब सफाई अभियान की बात कहते हैं तो भगत उसको ऐसे लेते हैं!

कि जनता के पैसे से आप वास्कोडिगामा बनो, देश की इंटरनेशनल रेपुटेशन बनाने हेतु इंटरनेशनल स्टेज शो करो और फिर पीछे-पीछे उसपे हम झाड़ू मारते चलेंगे|

मोदी जी या तो यह विदेशी दौरों पे व्यर्थ पैसा बहाना बंद कर दो, या भगतों को ठीक से ज्ञान दो कि देश की गलियों की सफाई करनी है, इंटरनेशनल रेपुटेशन की नहीं!

आ ली फॉरेन इन्वेस्टमेंट ऐसे तो! धेल्ला ना मिलना देश को, जो है उसको और लुटवाओगे|

Jai Yoddhey‬ - Phool Malik

 
 

हरयाणा में जिन्होनें अपने ही हाथों पंजाबी भाषा का गला घोंटा वही खुद को पंजाबी भी कहलाते हैं? आखिर यह कैसे पंजाबी हुए?

सार: 1957 में पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्र यानि आज के हरयाणा-हिमाचल के स्कूलों में "पंजाबी भाषा" लागु करने के खिलाफ ऐतिहासिक "हिंदी सत्याग्रह" खड़ा करने वाला स्वघोषित पंजाबी समुदाय आखिर किस मुंह से अपने आपको पंजाबी कहता है?

सनद रहे यह आंदोलन मुख्यमंत्री श्रीमान भीमसेन सच्चर द्वारा कभी "सच्चर फार्मूला" के तहत तब के पंजाबी भाषी क्षेत्रों यानी आज के पंजाब में आठवीं तक हिंदी और हिंदी भाषी क्षेत्रों यानि आज के हरयाणा-हिमाचल में आठवीं तक "पंजाबी" भाषा विषय लागू करने के खिलाफ सिर्फ इसलिए खड़ा किया गया था क्योंकि इनको एक सिख जाट मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों (छोटे छोटूराम) का मुख्यमंत्री बनना रास नहीं आया था|
वरना भीमसेन सच्चर से ले गोपीचंद भार्गव तक ने 1947-56 तक पंजाब में मुख्यमंत्री की, तब इनमें से किसी को इस फार्मूला के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की नहीं सूझी| और यह पंजाब में ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचते थे इसीलिए 1984-86 में पंजाब के असली पंजाबियों ने इनको वहाँ से खदेड़ के हरयाणा की ओर धकेल इनकी असामाजिक करतूतों से पिंड छुड़वा लिया था|

भूमिका: बड़ा दुःख होता है जब मेरे जैसे सिर्फ धार्मिक ही नहीं अपितु जातीय सेक्युलर इंसान को यह गड़े-मुर्दे उखाड़ने पड़ रहे हैं| परन्तु जब हरयाणा के सीएम खटटर साहब हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर कहते फिर रहे हैं तो उखाडूं भी नहीं तो और क्या करूँ? अपनी और आगे की जनरेशन को इन चीजों बारे बताना भूला हुआ था या कहो इसकी जरूरत महसूस नहीं की थी शायद इसीलिए यह सुनना पड़ा, परन्तु अब यह भूल नहीं करूँगा|

क्या है ना कि एक तो हरयाणवी, ऊपर से जाट वो भी लोकतान्त्रिक परम्परा की सबसे ऐतिहासिक धुर्री खाप गणतंत्र की धर्म-जाति से रहित थ्योरी को मानने वाला| इसलिए हम साम्प्रदायिक कचरे को दिमाग में जगह नहीं दिया करते, दिल में घुसते ही उसका ताबड़तोड़ हिसाब करके, मामले को कन्नी करके आगे बढ़ने वाले लोग हैं, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हमें कुछ पता नहीं होता| आखिर विश्व की सबसे प्राचीन सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी खाप के ध्वज-वाहक हैं हम, कुछ पता ना होता या कंधे से ऊपर कमजोर होते तो इस थ्योरी को देश की गुलामी, गैरों और अपनों के जुल्मों के तमाम दौरों से सुरक्षित खिवा के यहां तक ना ला पाते|

"अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया, बेशर्म जाने मेरे से डर गया!" कहावत की तर्ज पर समाज की समरसता को बनाये रखने के लालच में अगर हम समाज को तोड़ने की अधिकतर बातों पर शर्माते हुए धूल उड़ाते चलने की प्रवृति के हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि कोई हमें बेशर्म बनते हुए कंधे से ऊपर कमजोर कहेगा| अपितु हम देश में सबसे ज्यादा मात्रा में सच्चे धर्म-जाति-सम्प्रदाय से रहित मानवता आधारित समाज के प्रहरी हैं, इसलिए वो ऐसा कह गया|

जब सीएम की पोस्ट पे बैठे इंसान की तरफ से उसी प्रदेश की एथनिक आइडेंटिटी पे हमला होवे तो निसंदेह यह ऐसा कार्य करता है जैसे नींद से सोते हुए आदमी पे पानी का छब्का या बारिश में भीगे पंछी द्वारा शरीर में स्फूर्ति और गर्माइस लाने हेतु पंखों से बूंदों को झाड़ना| और धन्यवाद श्रीमान खट्टर साहेब और किसी हरयाणवी को आपके इस बयान ने झकझोरा हो या नहीं परन्तु मुझे तो निसंदेह भीतर तक थपेड़ा है|

अब मुद्दे की बात: 15 अगस्त 1947 से ले के 23 जनवरी 1956 तक गोपीचंद भार्गव और भीमसेन सच्चर उस वक्त के संयुक्त पंजाब (पंजाब, हरयाणा और हिमाचल) के 2-2 बार मुख्यमंत्री रहे| सच्चर साहब ने मुख्यमंत्री रहते हुए सयुंक्त पंजाब के सरकारी विभागों में भाषा की वजह से कर्मचारियों को आये दिन आने वाली समस्याओं के निदान हेतु "सच्चर फार्मूला" निकाला और संयुक्त पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्रों में आठवीं तक "पंजाबी" और पंजाबी भाषी क्षेत्रों में "हिंदी" विषय पढ़ाने शुरू करवाये| जब तक वह और भार्गव साहब मुख्यमंत्री रहे, हिन्दू अरोड़ा/खत्रियों के अख़बार उनकी भूरि-भूरि स्तुति करते रहे| परन्तु फिर आया छोटे छोटूराम के नाम से प्रख्यात हुए सरदार प्रताप सिंह कैरों एक जाट सिख का मुख्यमंत्री काल|

गए दिनों तक सच्चर फार्मूला की प्रशंसा में कसीदे घड़ने वाले अख़बारों और इनके अधिकतर हिन्दू खत्री/अरोड़ा मालिकों ने अब हिंदी भाषी पंजाब यानि हरयाणा में "आर्य प्रतिनिधि" सभा की शहरी इकाई को साथ ले के यह प्रचार करवाना शुरू करवा दिया कि कैरों तो हरयाणा में जबरदस्ती पंजाबी भाषा थोंप रहे हैं| जरा इनकी स्याणपत और पंजाबियत देखिये कि खुद को आज भी पंजाबी कहने वाला यह समुदाय ही हरयाणा में पंजाबी भाषा के पढ़ाये जाने के विरुद्ध काम कर रहा था| पंजाबी तो पंजाबी यह तो हिंदी के भी नहीं रहे थे क्योंकि ठीक इसी तरह पंजाब में यह प्रचार कर रहे थे कि कैरों साहब तो पंजाब में हिंदी लागु करके पंजाबी को खत्म करना चाहते हैं|

उस जमाने में इस समुदाय के श्री के. नरेंद्र दिल्ली से और श्री वीरेंद्र जालंधर से दैनिक उर्दू प्रताप और हिंदी वीर अर्जुन का सम्पादन करते थे| इसी प्रकार उर्दू मिलाप के जालंधर संस्करण का सम्पादन करते थे श्री यश और इसके दिल्ली संस्करण का सम्पादन करते थे श्री रणबीर| महाशय कृष्ण प्रताप समूह के मालिक और वीरेंदर और नरेंद्र के पिता थे| इसी प्रकार मिलाप समूह के मालिक श्री खुशहाल चंद ख़ुरशन्द (महात्मा आनंद स्वामी) थे और श्री रणबीर और यश (इनको कैरों साहब ने अपने मंत्रिमंडल में उपमंत्री भी बना रखा था) उनके पुत्र थे| दैनिक उर्दू हिन्द समाचार के मालिक थे लाला जगत नारायण, जो भीमसेन सच्चर के मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री रह खुद "सच्चर फार्मूला" को लागू करवाने वाले विभाग के कर्ताधर्ता रह चुके थे, वर्तमान करनाल सांसद अश्वनी चोपड़ा के पिता व् इन लोगों की कारिस्तानियों की वजह से जब पंजाब में आतंकवाद बढ़ा तो यह जनाब सिख आतंकियों के मुख्य शिकार भी बने थे| यह लोग शहरी आर्य प्रतिनिधि सभाओं के भी विभिन्न पदों पर आसीन थे|

तो कुल मिला के एक ज़माने में "सच्चर फार्मूला" को अपने हाथों लागु करने वाले, इस पर अपने अखबारों में बड़े-बड़े कसीदे घड़ने वाले अब "हिंदी सत्याग्रह" चला के इसी के विरुद्ध सिर्फ इसलिए कार्य कर रहे थे ताकि जनता को भड़का के सरदार प्रताप सिंह कैरों एक जाट को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाया जा सके|

जनवरी 1956 में कैरों साहब के मुख्यमंत्री बनने से ले के अगस्त 1957 तक इन्होनें "हिंदी सत्याग्रह" को इतना बड़ा बना दिया कि जब सरदार प्रताप सिंह कैरों सोनीपत के सर छोटूराम आर्य कॉलेज पधारे तो "हिंदी सत्याग्रह" के नारों के साथ उपस्थित विधार्थी सैलाब ने उनका जबरदस्त विरोध किया, कैरों मुर्दाबाद के नारे लगे| परन्तु सर छोटूराम के सच्चे धोतक कैरों इससे घबराये नहीं और बोलने के लिए खड़े हुए और छात्रों से विनती कि उनको दो मिनट बोल लेने दिया जाए|

उन्होंने स्टेज के पीछे मुड़कर दैनिक उर्दू प्रताप, हिंदी दैनिक वीर अर्जुन और दैनिक उर्दू हिन्द समाचार की प्रतियां मंगवाई| और फिर इन प्रतियों को हाथ में लहराते हुए हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज के नुमाइंदों द्वारा चलाये गए इस पूरे षड्यंत्र की ऐसी बख्खियां उधेड़ते गए कि दो मिनट की जगह पूरा सवा घंटा बोले और साम्प्रदायिक जहर पर खड़े किये पूरे "हिंदी सत्याग्रह" की हवा निकाल के रख दी| शुरू में जो भीड़ उनको सुनने तक को तैयार नहीं थी उस भीड़ ने पिन-ड्राप साइलेंस करके उनको एकटक सुना| और इस तरह 31 दिसंबर 1957 आते-आते "हिंदी सत्याग्रह" आंदोलन अपनी मौत स्वत: ही मर गया और इन लोगों को मुंह की खा के इस आंदोलन को वापिस लेना पड़ा|

और इसके बाद शुरू हुआ एक जाट का रौद्र रूप, प्रताप सिंह कैरों अब इन स्वघोषित कंधों से ऊपर मजबूतों को ऐसे बख्सने वाले नहीं थे| उन्होंने संयुक्त पंजाब की तमाम आर्य प्रतिनिधि सभाओं और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटियों के कर्ताधर्ताओं की सूची मांगी| और पाया कि जबकि ग्रामीण समुदाय का वोट प्रतिशत ज्यादा आता है फिर भी इन दोनों संस्थाओं पर शहरी जातियों के लोग कब्ज़ा किये बैठे हैं| उन्होंने फिर ऐसी कंधे से ऊपर की राजनीति खेली कि अब तक जो ग्रामीण नेता बावजूद चुने हुए होने के परन्तु भोलेपन में इन शहरियों को नेतृत्व सौंप दिया करते थे, अब सीधा उनको नेतृत्व दिया और ऐसा दिया कि आजतक इन दोनों संस्थाओं में पंजाब हो या हरयाणा, मूल और असली पंजाबी व् हरयाणवियों की तूती बोलती है|

परन्तु यह कब बाज आने वाले थे, सरदार प्रताप सिंह कैरों को दबाने के लिए ऐसे षड्यंत्र रचे की पूरा पंजाब आतंकवाद की आग में धू-धू करके जल उठा और जब सिखों और मूल पंजाबियों को पता लगा कि सारे पंजाब में आतंकवाद की मूल जड़ यह हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज है तो 1984-86 में जब सिख दंगे भड़के तो यही सबसे पहले निशाने पर आये और पंजाब से मार-मार के खदेड़े गए| और हम हरयाणवियों ने फिर भी जिंदादिली दिखाते हुए 1947 के बाद एक बार फिर इनको हमारे हरयाणा के अम्बाला-दिल्ली जीटी रोड पर बसने में मदद की| और अब यहां इनको थोड़ा सुख-चैन क्या मिला, सीएम की कुर्सी तक पर सहर्ष क्या स्वीकार कर लिए कि लगे हरयाणवियों को ही कंधे से ऊपर कमजोर बताने|

निष्कर्ष: मतलब "वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को|" अपने इसी असामाजिक प्रवृति और व्यवहार के कारण पाकिस्तान में हिन्दुओं में सबसे पहले मुस्लिमों के निशाने पे यही आये और वहाँ से खदेड़े गए| वह तो दो देशों की सीमाओं का बंटवारा था तो लगा कि नहीं यह तो वक्त और राजनीति का तकाजा था इसलिए और धर्म की खातिर वहाँ से विस्थापित हो के इधर आना पड़ा, इसलिए लोगों ने दिलों में भी जगह दी और अपने घर-जमीनों में भी| परन्तु 1984-86 में पंजाब में जब तमाम हिन्दू समाज में से पंजाब आतंकवाद के चलते सिर्फ इनको ही वहाँ से खदेड़ने का यह एपिसोड दोबारा हुआ तो कुछ-कुछ बात समझ में आने लगी| और अब जब हरयाणा में हरयाणवियों द्वारा दिए गए किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिक दुर्भावना से रहित माहौल में बिना किसी हरयाणवी के विरोध के हमने इनके समाज के व्यक्ति को मुख्यमंत्री तक स्वीकार कर लिया तो लगे वही रंग दिखाने और हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर बताने|

मेरे इस समाज से कुछ सवाल और अनुरोध:

सवाल 1) जैसा कि ऊपर पढ़ा हरयाणा में आपने अपने ही हाथों "हिंदी सत्याग्रह" चला के पंजाबी भाषा का गला घोंटा तो फिर भी आप अपने आपको पंजाबी किस मुंह से कहते हैं?
सवाल 2) आपने तो डेड स्याना बनते हुए पंजाब में "हिंदी भाषा" का गला घोंटा तो आप अपने आपको हिन्दू भी किस मुंह से कहते हैं?

मेरा आपसे अनुरोध: हम हरयाणवियों का शरणार्थी और विस्थापितों को ना सिर्फ अपनी जमीन अपितु अपने दिल-विचार में भी स्थान दे के आगे बढ़ने का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि सिकंदर का भारत पे हमला| पूरे भारत में मानवता को हम हरयाणवियों से अच्छा कोई नहीं पाल सकता| दादा-दादी और माँ-बाप ने बचपन से जो बातें सिखाई उनमें उनकी सबसे बड़ी शिक्षा रहती थी कि कभी किसी शरणार्थी-रिफूजी-विस्थापित भाई या समुदाय से कोई द्वेष पाल के मत चलना, उनको कोई तंज मत कसना अपितु जो ऐसा करता हुआ मिले उसको भी ऐसा ना करने की शिक्षा देना और तमाम विद्यार्थी जीवन में उतनी ही तन्मयता से यह किया भी|
और ऐसी ही शिक्षाओं का असर है कि हमने कभी सिकंदर के वक्त से ले के 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हारने के बाद महाराष्ट्र के जो मराठा भाई (हरयाणा का आज का रोड समुदाय) यहाँ रह गए थे ना ही कभी उनके साथ (क्योंकि वो हरयाणवी संस्कृति का इतना अभिन्न अंग बन गए हैं कि खुद हरयाणवियों से ज्यादा वो हरयाणवी लगते हैं), इनके बाद 1947 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर और 1984-86 में आपके असामाजिक व्यवहार के कारण पंजाब से असली पंजाबियों द्वारा जूते खाकर, दो बार हरयाणा में आन बसने वाले आज के आप स्वघोषित पंजाबी यानी हिन्दू अरोड़ा/खत्री हों या 1990 के दशक से और अब तक आ रहे बिहार-बंगाल-असम के विस्थापित भाई हों; हमने किसी के भी साथ हरयाणा में कभी कोई ऐसा वाकया नहीं बनाया जैसा कि बाल ठाकरे से ले राज ठाकरे कभी दक्षिण भारतीय तो कभी उत्तर-पूर्वी भारतीय के नाम पर इन क्षेत्रों के भाईयों को वहाँ मुंबई की सड़कों पे दौड़ा-दौड़ा कर पीट के पेश करते रहे हैं|

और जहां तक मैंने पाया है आजतक हम हरयाणवियों से इन भाइयों को भी कोई शिकायत नहीं आई है सिवाय आपके समाज को छोड़ के| तो महानुभाव क्या बताओगे कि जब बाकी किसी भी शरणार्थी भाई को स्थानीय हरयाणवियों से कोई शिकायत नहीं तो एक अकेले आप लोगों को क्यों हैं? क्यों सीएम साहेब को हरयाणवियों के ऊपर "कंधे से ऊपर कमजोर" होने का तंज मारना पड़ा और वो भी बावजूद सारे हरयाणवी समाज द्वारा बिना किसी विरोध के उनको अपना मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेने के?

देखो! अब जिस खाप थ्योरी की विचारधारा और शिक्षा के प्रभाव से हम हरयाणवी ऐसे हैं उसको तो हम त्यागेंगे नहीं, फिर चाहें आप जितना मीडिया, फिल्मों और अपनी तथाकथित पंजाबी सभाओं के जरिये खाप और हरयाणवी को क्रॉस-रोड्स पर उतार लो| यह खाप सोशल थ्योरी और हरयाणत अगर ऐसे ही झोंकों से खत्म हो जाती तो आज विश्व की प्राचीनतम व् जिन्दा सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी ना कहलाती| भान रहे यह जिन्दा थी, जिन्दा है और जिन्दा रहेगी| हम हरयाणवियों को अपना अस्तित्व खत्म करने की हद या उसमें आपकी संस्कृति और चाल-चलन को समाहित करने तक के लाड़ लड़ाने आते हैं तो हमें इसको कैसे बनाये रखना है यह भी बहुत अच्छे से आता है|

इसलिए हरयाणवियों ने इतिहास में आप लोगों के लिए जो किया है उसको ध्यान में रखते हुए आपकी बिरादरी के सीएम श्री मनोहर लाल खट्टर को "हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर कहने के बयान पर अपने शब्द वापिस लेने का उनसे आग्रह करें|" हमने आपको हरयाणा में एक होम-स्टेट वाली फील दी है, जो आप पंजाब में भी नहीं ले पाये, जिसके टैग को प्रयोग करके आप खुद को "पंजाबी" कहते हो, जबकि हकीकत में आप ना कभी पंजाब के हो सके और ना ही पंजाबी के| और वो कैसे उसका चिठ्ठा-पठ्ठा ऊपर खोल के रख दिया है, पढ़ते रहिये और अंतर्मन में झांक के पूछते रहिये कि क्या आप वाकई में पंजाबी हो?

धन्यवाद सहित!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 5 October 2015

इसे कहते हैं, "ठाली न्याण, काट्ड़े मुन्दै!"

धर्म हो या समाज हर किसी की एक परिधि होती है, जिस तरीके से आज धर्म अपनी हर उल-जुलूल बकवास मनवाने पे आमादा है वो ऐसा करते वक़्त बड़ा गैर-जिम्मेदाराना दीखता है| क्योंकि अगर इनके बताये धर्म के अनुसार चला जाए तो एक किसान की तो किसानी ही ठप्प हो जाए| इसलिए धर्म अपनी मर्यादा में रहे, और कहीं का किसान उठे ना उठे परन्तु हरयाणा का किसान एक हद से आगे तुम्हारी हर बकवास को सुनने वाला नहीं और किसी दिन लठ उठा लिया तो सारे बगमे बाणे वाले मोड्डे-बाब्बे भाज्जे नहीं ठ्यहोगे|

तुम्हारा क्या है पड़े-पड़े सुल्फा-गांजा-भांग-धतूरा के सुट्टे चढाने और काल्पनिकता की दुनिया से जो दिमाग में उतरा, वह समाज में फिट है या नहीं इसपे विचारे बिना छोंक दिया समाज में|

यह ठाली न्याण, काट्ड़े मुन्दै, वाली हरकतें बंद कर दो, तुम्हें कोई काम नहीं है और जिम्मेदारी नहीं है तो हम किसानों को तो है| हमें इस देश के लिए अन्न भी पैदा करना है और इसकी सुरक्षा की भी सोचनी है|

इतना सुनने पे भी तुम्हें यानी भगमा मण्डली को बाज नहीं आना तो अभी गेहूं-बुवाई और गन्ना छुलवाई का सीजन शुरू होने वाला है खेतों में, सारे बाब्बे आओ और एक-एक महीने का जोटा मरवा दो| फिर इसके बाद भी तुममें यह उल-जुलूल हाँकनेँ का होश और जज्बा बचे तो फिर सुन लेंगे तुम्हारी भी, फसल के खलिहान पे बैशाखी मनाने के वक्त पे|

विशेष: इस सम्बोधन से वो साधु-संत बाहर हैं जो धर्म के नाम पे पाखंड-हिंसा-दंगे पालने की बजाये वाकई में मानवता को पालते हैं। परन्तु बदकिस्मती ऐसे मुश्किल से 1-2 प्रतिशत ही हैं, जो ढूंढें से भी नहीं मिलते। 

#‎JaiYoddhey‬ - Phool Malik