Tuesday, 29 December 2015

1857 अंग्रेजों के खिलाफ आज़ादी का पहला विद्रोह था तो 1669 मुग़लों के खिलाफ!

 
जो हुआ था औरंगजेब की धर्मान्धता के विरुद्धगॉड गोकुलाकी सरपरस्ती में,
जाट, मेव, मीणा, अहीर, गुज्जर, नरुका, पंवारों से सजी सर्वखाप की हस्ती में|

हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था,
पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे,
परन्तु  तिलपत (तब मथुरा में, आज के दिन फरीदाबाद में) का युद्ध तीन दिन चला था|

राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था, परन्त  "गॉड-गोकुलासे लड़ने औरंगजेब को स्वयं आना पड़ा था

उन्हींसमरवीर प्रथम हिन्दू धर्मरक्षक अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज के 345वें (01/01/1670) बलिदान दिवस पर गौरवपूर्ण नमन!
तब के वो हालत जिनके चलते  God Gokula ने विद्रोह का बिगुल फूंका:
सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार, गिद्ध, चील उड़ते दिखाई देते थे|
हर तरफ धुंए के बादल और धधकती लपलपाती ज्वालायें चढ़ती थी|
राजे-रजवाड़े भी जब झुक चुके थे; फरसों के दम तक भी दुबक चुके थे|
ब्रह्माण्ड के ब्रह्मज्ञानियों के ज्ञान और कूटनीतियाँ कुंध हो चली थी|
चारों ओर त्राहिमाम-2 का क्रंदन था, ना धर्म था ना धर्म के रक्षक थे|
उस उमस के तपते शोलों से तब प्रकट हुआ था वो महाकाल का यौद्धेय|
समरवीर प्रथम हिन्दू धर्मरक्षक अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज|

खाप वीरांगनाओं के पराक्रम की साक्षी तिलपत की रणभूमि:
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा, गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा, लप-लप लेती फटका निकली।
चौधराणियों के पराक्रम देख, हर सांस सपाटा ले निकलै,
क्या अहिरणी, क्या गुज्जरी, मेवणियों संग पँवारणी निकलै|
चेतनाशून्य में रक्तसंचारित करती, खाप की एक-2 वीरा चलै,
वो बन्दूक चलावें, यें गोली भरें, वो भाले फेंकें तो ये धार धरैं|
 
God Gokula के शौर्य, संघर्ष, चुनौती, वीरता और विजय की टार और टंकार राणा प्रताप से ले शिवाजी महाराज और गुरु गोबिंद सिंह से ले पानीपत के युद्धों से भी कई गुणा भयंकर हुई| जब God Gokula के पास औरंगजेब का संधि प्रस्ताव आया तो उन्होंने कहलवा दिया था कि, "बेटी दे जा और संधि (समधाणा) ले जा|" उनके इस शौर्य भरे उत्तर को पढ़कर घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कवि बलवीर सिंह ने कुछ यूँ किया है:
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी धमनी धमीन में दर्द बढा।

जब कोई भी मुग़ल सेनापति God Gokula को परास्त नहीं कर सका तो औरंगजेब को विशाल सेना लेकर God Gokula द्वारा चेतनाशून्य जनमानस में उठाये गए जन-विद्रोह को दमन करने हेतु खुद मैदान में उतरना पड़ा| गॉड-गोकुला के नेतृत्व में चले इस विद्रोह का सिलसिला May 1669 से लेकर December 1669 तक 7 महीने चला और अंतिम निर्णायक युद्ध तिलपत में तीन दिन चला| आज भारतीय संस्कृति व् धर्म की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गॉड-गोकुला' को है। 'गॉड-गोकुलाका न राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापूर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी।

Kindly refer to this article for in detailed highlighted facts of this timeless legend and his revolution: http://www.nidanaheights.net/choupalhn-dada-gokula-ji-maharaj.html

हर धर्म के खाप विचारधारा (सिख धर्म में मिशल इसका समरूप हैं) को मानने वाले समुदाय के लिए: हिन्दू धर्म द्वारा बौद्ध धर्म के ह्रास के बाद से एक लम्बे काल तक सुसुप्त चली खाप थ्योरी ने महाराजा हर्षवर्धन के बाद से राज-सत्ता से दूरी बना ली थी (हालाँकि जब-जब पानी सर से ऊपर गुजरा तो ग़ज़नी से सोमनाथ की लूट को छीनने, पृथ्वीराज के कातिल गौरी को मारने, कुतबुद्दीन ऐबक का विद्रोह करने, तैमूरलंग को हराकर भारत से भगाने, राणा सांगा की मदद करने हेतु खाप समाज अपनी नैतिकता निभाता रहा)| जो शक्तियां आज खाप थ्योरी के समाज पर हावी होना चाह रही हैं, तब इनकी इसी तरह की चक-चक से तंग आकर राजसत्ता इनके भरोसे छोड़, खुद कृषि व् संबंधित व्यापारिक कार्य संभाल लिए थे| परन्तु यह शक्तियां कभी भारत को स्वछंद व् स्वतंत्र नहीं रख सकी| और ऐसे में 1669 में जब खाप थ्योरी का समाज "गॉड-गोकुला" के नेतृत्व में फिर से उठा तो ऐसा उठा कि अल्पकाल में ही भरतपुर और लाहौर जैसी अजेय शौर्य की अप्रितम रियासतें खड़ी कर दी| ऐसे उदाहरण हमें आश्वस्त करते हैं कि खाप विचारधारा में वो तप, ताकत और गट्स हैं जिनका अनुपालन मात्र करते रहने से हम सदा इतने सक्षम बने रहते हैं कि देश के किसी भी विषम हालात को मोड़ने हेतु जब चाहें तब अजेय विजेता की भांति शिखर पर जा के बैठ सकते हैं|

विशेष: हर्ष होता है जब कोई हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन राणा प्रताप, शिवाजी महाराज व् गुरु गोबिंद सिंह जी के जन्म या शहादत दिवस पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं| परन्तु जब यही लोग "गॉड गोकुला" जैसे अवतारों को (वो भी हिन्दू होते हुए) याद तक नहीं करते, तब इनकी राष्ट्रभक्ति थोथी लगती है और इनकी इस पक्षपातपूर्ण सोच पर दया व् सहानुभूति महसूस होती है| दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख दरबारी टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया। हमें इनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है। अब ऐसे में आजकल भारत के इतिहास को फिर से लिखने की कहने वालों की मान के चलने लगे और विदेशी लेखकों को छोड़ सिर्फ इनको पढ़ने लगे तो मिल लिए हमें हमारे इतिहास के यह सुनहरी पन्ने| खैर इन पन्नों को यह लिखें या ना लिखें (हम इनसे इसकी शिकायत ही क्यों करें), परन्तु अब हम खुद इन अध्यायों को आगे लावेंगे| और यह प्रस्तुति उसी अभियान का एक हिस्सा है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 



Monday, 28 December 2015

बताओ लोकतांत्रिकता को कर्ज चुकाने का नाम देना कोई इन मीडिया में बैठे एंटी-जाटों से सीखे!

जाट ऐसा करते रहते हैं। और भी बहुत से गाँव हैं जिनमें जाट मेजोरिटी में होने पर माइनॉरिटी जाति को सरपंची दी है। अभी भिवानी की तरफ एक गाँव में एक धोबी (छिम्बी) जाति की महिला को जाट-बाहुल्य गाँव ने सर्वसमत्ति से अपनी सरपंच चुना है, जबकि उस गाँव में धोबी समुदाय का एक ही घर बताया जा रहा है और वो भी सिवानी-मंडी में रोजगार करता है। पिछले हफ्ते ही यह खबर अखबारों में थी।

तो इसका मतलब यह हुआ कि जाटों ने कोई कर्ज उतार दिया, उस लेडी को सरपंच बना के? या यह मीडिया वाले यह कहना चाहते हैं कि सारे गाँवों में जाट ऐसी ही माइनॉरिटीज को सरपंच बना दें और खुद रास्ते से हट जाएँ। अच्छे से समझता हूँ कि तुम लोग कौनसा शब्द और किस मंतव्य में प्रयोग करते हो।

महानता को महानता और लोकतांत्रिकता को लोकतांत्रिकता कहने की कूबत जिसमें नहीं हुआ करती वो ऐसे ही "चूचियों में हाड" ढूँढा करते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: http://www.bhaskar.com/news/HAR-AMB-OMC-jat-community-gave-sarpanchi-post-to-road-community-5207085-NOR.html?pg=0

अगर यूँ ईमारत पूजने से भगवान मिलें, तो मैं चौपाल क्यों ना पूजूँ!

 

जिसमें हर जाति-सम्प्रदाय का आदमी बेरोकटोक आ-जा सकता है, उठ-बैठ सकता है, सदियों से अपने झगड़े-दुखों का हल और न्याय पाता रहा है| इन चढ़ावा चढ़ाने वाली इमारतों में क्या मिलता है सिवाय कहीं "दलित प्रवेश निषेध" की तख्तियों के या अपनी गाढ़ी कमाई एक वर्ग विशेष को चढ़ा आने के?

हालाँकि मैं ऐसी संस्कृति में पला-बढ़ा हूँ जहां "दादा खेड़ा" के बाद "चौपाल" को ही सबसे पवित्र स्थल माना जाता है| हमारे यहां "दादा खेड़ा" के बाद जहां पर सामूहिक रूप से विभिन्न त्योहारों पर साफ़-सफाई या दिए लगाए जाते हैं वो "गाँव की चौपाल यानी परस" ही होती है; इसलिए यह अपने आपमें ही पूजनीय है| फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें चढ़ावा नहीं चढ़ाया जाता| यहां तक कि इसमें बैठ के समाज के झगड़े निबटाने वाले कोई शुल्क भी नहीं लेते| देर-सवेर कोई राहगीर आ के इसमें ठहर जाए तो उसकी जाति-सम्प्रदाय नहीं पूछा जाता|

मुझे गर्व है हमारी संस्कृति पर जिसके तहत यह "चौपालें-परसें" बनी| पूरे भारत में यह संस्कृति सिर्फ प्राचीन विशाल हरयाणा क्षेत्र में ही मिलती हैं| और विदेशों में इनको बनाने के लिए किसी प्रधानमंत्री विशेष को स्पेशल कहना नहीं पड़ता, क्योंकि भारत में इस क्षेत्र के साथ-साथ पूरे विश्व में यह कहीं "सेंट्रल हॉल", तो कहीं "होटल-दु-विल" आदि के नाम से अमेरिका से ले के इंग्लॅण्ड-फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया तक फैली हुई हैं|

इसलिए हमारी संस्कृति को मानने वाले याद रखें कि आपकी संस्कृति स्वत: ही इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड की है| इसमें खामियां हो सकती हैं, परन्तु इतनी बड़ी नहीं कि आप उनको सुधार के आज के अनुसार एडिटिंग करके फिट बनाने की बजाये; इनको छोड़ने या त्यागने की सोचें|
 
सौरम नगरी की ऐतिहासिक चौपाल और चबूतरे की कुछ फोटोज:
 
सर्वखाप पंचायत के मुख्यालय, सौरम नगरी की ऐतिहासिक चौपाल और चबूतरे की बड़े भाई साहब रोहणीत फॉर के सौजन्य से मिली कुछ फोटोज| फोटोज में चौपाल एक छोटे किले के रूप में दिख रही है|

कोई मित्र वहाँ से या सौरम के आसपास से हो तो कृपया इस चौपाल की हर मुमकिन एंगल से फोटोज खींच के साझा करे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Saturday, 26 December 2015

मोदी जी, यह बजरंगी भाईजान पार्ट 2 था या ग़दर पार्ट 2?:

जब सुषमा बुआ पाकिस्तान गई तो मुझे फील आई थी कि वहाँ क्या "भात न्योंतने" गई है| परन्तु यहां तो एक और उल्ट बात हो गई, यह लोग तो भाति (नवाज की बेटी की शादी में मोदी) भी खुद ही बन के चले गए (और बर्थडे-विश भी)| अजीब खिचड़ी मामला है इन भगत लोगों का भी| मतलब मौका भी ऐसा भावुक चुना कि अगर वो अकस्मात स्वागत से मना भी कर देते तो वही बुरे थपते|

हमारी संस्कृति में जिसकी दौड़ आपके यहां शादी-ब्याह में शमिल होने तक होवे वो आपका सबसे करीबी या रिश्तेदार माना जाता है| वाह रे भगतो, बेपेंदी ले लोटो, खड़ी दोपहरी पोल फटने पे कुछ लज्जा तो जरूर आ रही होगी| जिनको दिन-रात कोसते नहीं थकते उन्हीं के बर्थडे-विश और ब्याह-शादियों तक में बधाईयाँ दी जा रही हैं| पिछले वालों को जो लव-लेटर ना लिखने के तंज कसते थे, वो सीधे भात भर-भर आ रहे हैं| निकल गई फूंक सारी राष्ट्रभक्ति की?

वैसे तो पाकिस्तान से इनको और इनसे पाकिस्तान को नफरत इस स्तर की, कि कहवें हम जो हारे (बिहार चुनाव) तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे, और अगले ही पल खुद ही वहाँ भात के थाल लिए खड़े मिलते हैं| थाल के बदले हेमराज का सर भी नहीं लाये? वाह रे नौटंकियों क्या हैलुसिनेशन है, तुमने तो भांड भी पीछे छोड़ दिए स्वांग रचने में|

वैसे एक राज की बात बता दूँ, राजनीति में अकस्मात और एकाएक कुछ नहीं होता, सब कुछ बहुत पहले से स्क्रिप्टड होता है| बस फर्क यह है कि यहां स्क्रिप्ट लिखने वाले राजनेता या बिजनेसमैन होते हैं| भारत में पहले से घोषणा करके जाते, तो जनता इनका मोर बना देती| इसलिए जनता को बोलने का मौका ही नहीं दिया और भगतों को भी कम सफाई देनी पड़ी|

और भगत इस मामले को ढंकने के चक्कर में ऐसे हवाबाजी मार रहे हैं जैसे गदर का तारा वहाँ से शकीना ले आया हो|

बाकी भारत में राजनीती-वाजनीति कुछ है नहीं, कोरा बिज़नेस है बिज़नेस| पता नहीं जी न्यूज़ (Z-News) वाले के दिल पे क्या बीती होगी, जब पाया होगा कि उसका घोर विरोधी ही इस ड्रामे का स्क्रिप्ट राइटर था| वैसे चिकने घड़ों पे गुजरा-वुजरा कुछ नहीं करती, इनपे हाथ ठहरे तो इनका स्टैंड ठहरे| हाँ, इस एपिसोड की वजह से भगत लोगों की चक-चक से कांग्रेसी थोड़ी राहत ले सकते हैं| वो क्यों, आप समझ ही गए होंगे?

फूल मलिक

इससे पहले कि जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी का कुछ और अर्थ बन जाए, सावधान!

कहीं इन दो टैग्स की आड़ में फंडी-मीडिया-एन.जी.ओ. आपके घर में मंडी के जरिये पाड़ तो नहीं लगाए हुए हैं?
ज्यादा नहीं आज से डेड-दो दशक पहले तक भी हरयाणा (वर्तमान हरयाणा, वेस्ट यूपी, दिल्ली) के हर एक गाँव में कुनबे-ठोळे के बुजुर्ग लोग पाखंड-ढोंग-आडंबर से अपने घरों के संस्कार और धन दोनों सुरक्षित रखने हेतु अपने घर की औरतों की पाक्षिक अथवा मासिक काउंसलिंग किया करते थे| इन काउंसलिंग में चर्चा के साथ निर्देश भी होते थे कि धर्म के नाम पर आडंबर फैलाने वालों से कैसे और क्यों के बचे रहना है| सतसंग-कीर्तन में नहीं जाना है क्योंकि यह पाखंडी वर्ग द्वारा घर के पिछले दरवाजे से फंडी और व्यापारी दोनों का धन कमाने के जरिये से फ़ालतू कोई प्रसाधन नहीं|

आजकल मर्द, गाँव की बैठक-चौपालों में या शहर के चाक-चौराहों-धर्मशालाओं में बैठते तो हैं परन्तु इन बातों पर विरले ही चर्चा करके, अपनी औरतों से इन मुद्दों पर एक स्थाई कम्युनिकेशन बनाये रखे हुए हैं| जबकि मंडी-फंडी समुदाय अपनी औरतों को इस बात पर पूरी तरह ट्रैंड करता है कि कैसे किसान-ओबीसी-दलित की औरतों को शीशे में उतारना है और उनके यहां यह पाखंड (डर-ईर्ष्या-द्वेष-लालच) नाम की तमाम उम्र दूध देने वाली दुधारू गाय बाँध के आनी है| इन समुदायों (किसान-ओबीसी-दलित) की शहरी हो या ग्रामीण, दोनों वर्गों की औरतों की सोच में पाखंड के झांसे में आने के मामले में रत्तीभर भी फर्क नहीं; बल्कि शहरी तो ग्रामीण से ज्यादा झांसे में आई बैठी हैं| क्योंकि गाँव के मर्द तो आज भी अपनी औरत को टोकते हुए इतने नहीं कतराते, परन्तु ऐसा लगता है कि शहरियों ने तो यह चेक्स करने ही छोड़ रखे हैं|

और इसका सारा श्रेय जाता है समाज के प्रति खुद का ठोर-ठिकाना ना रखने वाले फंडी-मीडिया-एन.जी.ओ. को| इन तीनों की तरफ से इस शील्ड को तोड़ने की एक बड़ी सिलसिलेवार तीन तरफ़ा शुरुवात हुई|

हमारे यहाँ जो कोई भी गाँव की बहु-बेटी को छेड़ता-बदतमीजी करता उसको पब्लिक हियरिंग के जरिये सार्वजनिक दंड दिया जाता था, जिनको सबसे पहले इन एनजीओ वालों ने मानवाधिकार का मुद्दा बनाते हुए, बैन करवाने का सिलसिला शुरू किया| फिर एनजीओ वाले खुद तो देखते ही क्यों, कि जिस महिला-औरत से छेड़खानी हुई है उसके भी कुछ मानवाधिकार होते हैं| और ना ही यह पहलु ग्रामीण उठा पाये, जबकि इसको उठाने से इन एनजीओ वालों को बड़े अच्छे से टैकल किया जा सकता था| इससे हुआ यह कि गाँव में बुजुर्गों का आत्मबल और विश्वास मंद पड़ा और उन्होंने इन कार्यों में रुचि लेनी बंद कर दी और साथ ही औरतों की क्रमिक काउंसलिंग भी बंद होती चली गई|

फिर रोल आया फंडी का, हर गाँव में दो-चार ऐसी औरतें होती हैं जो 'घर बिगाड़ू और घुमन्तु' श्रेणी में आती है या यूँ कह लो कि जिनके यहां सिर्फ उनकी चलती है| अब सतसंग-पाखंड-कीर्तन-जगराते वालों ने इन औरतों से सम्पर्क साध इनको उकसाना शुरू किया और ऐसे हमारे गाँवों में इनकी एंट्री होनी शुरू हुई| शहर में तो खैर गाँव से मॉडर्न दिखने और इसी को शहरीपन मानने की अंधी लत में जो भी ग्रामीण हरयाणवी औरत शहर निकलती गई वो इनमें धंसती चली गई| और यह इसकी भी एक बड़ी वजह है कि क्यों आज शहरी हरयाणवी खुद को हरयाणवी कहने में भी शर्मिंदा महसूस करते हुए पाये जाते हैं|

तीसरा किरदार आया मीडिया का, इसने इस जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के मुद्दे पे ऐसे ललित निबंध टाइप के कार्यक्रम किये, कि मर्द भी बावले हो गए|

और यहां सफल हुआ इन तीनों यानी फंडी-मीडिया-एनजीओ का षड्यंत्र, और इसको फाइनेंस कौन देता था या आज भी देता है, वो दो हैं एक आपका घर और दूसरा मंडी|

सफलता यह हुई कि आपको थोथी जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के नाम पर बौरा दिया गया और आपने अपनी औरतों को टोकना बंद कर दिया| यानि इन तीनों की वह साजिस कामयाब हुई जिसके तहत इनको आपकी औरतों को आपके नियंत्रण कह लो या डायलॉग से छींटकना था| ताकि इनकी बातें घर की औरतें आपको ना बताएं और आप इनको टोकें ना| यानि आपके मुंह पे टैबू लगा दिया गया "जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी" का|

दूसरा औरतों ने पुरुषप्रधान समाज में अपना औचित्य और अस्तित्व सिद्ध करने हेतु अपने घरों में इतने अंधाधुंध मोडे-आडंबर-पाखंड-कीर्तन-जगराते-भंडारे घुसा लिए कि आज हर दूसरे घर में खड़ताल बजती हैं| और इसमें जिस चीज ने और अच्छे से हेल्प करी वो है औरतों का कोमल और भावुक हृदय, जिसको डराना, परिवार के हित या पड़ोसन से जलन के चलते वश में करना इन पाखंडियों के दायें हाथ का खेल है|

देखा है ना कमाल, अगर इनको जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी से कुछ लेना-देना होता तो उस औरत के भी मानवाधिकार इनको दीखते, जिसको छेड़ने वालों को आप सार्वजनिक सजा दिया करते थे?

अब चिंतनीय बात है कि इन चारों मंडी-फंडी-मीडिया-एनजीओ को जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी से कुछ लेना-देना होता तो ना ही तो आज कोख में बेटियां मर रही होती, ना हॉनर किलिंग हो रही होती, ना दहेज़ उत्पीड़न हो रहे होते| और अगर हरयाणा से बाहर की धरती पर निकल के चलो तो इन मुद्दों के साथ-साथ वहां ना विधवाएं पतियों की प्रॉपर्टी से बेदखल कर आश्रमों में बिठाई जा रही होती, ना देवदासियां मंदिरों में बिठाई जा रही होती, ना बहु-पति प्रथा होती, ना सतीप्रथा होती, ना पहली दफा व्रजस्ला होने पर लड़की का मंदिरों में सामूहिक भोग लग रहा होता| दुकानों-मकानों-फैक्ट्रियों-शॉपिंग माल्स-मंदिरों-ट्रस्टों आदि में आधा हिस्सा औरतों को देते|

इसलिए कृपया जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के इस वाले झांसे में मत फंसिए जो सिर्फ इसको कहने वालों की जेबें भरे और आपके घरों में किसी जहाज की तली में फूटे हुए छेद की भांति आपके घर को आर्थिक और आध्यात्मिक तौर पर इतना खोखला कर दे कि वो गोते खाने लग जाए या फिर एक दिन डूब ही जाए|

आगे बढ़िए और अपनी औरतों को समझाईये और रोकिये कि तुझे जेंडर इक्वलिटी और सेंसिटिविटी के नाम पर फ्रीडम चाहिए तो जा नौकरी कर ले, अपना कारोबार कर ले, जितना चाहे उतना पढ़ ले, या आगे बढ़ के समाज की सड़क-गली को इतनी सुरक्षित करने हेतु संगठन बना ले कि कोई भी लड़की दिन ढलते ही घर से निकलते हुए घबराये ना|

यह होगी असली वाली जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी| इसलिए आज के समाज के मर्द अपने घरों के यह तामसिक बैक-डोर एंट्री बंद करवाएं और फ्रंट-डोर खोल के अपनी औरतों को सात्विक जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी पर आगे बढ़ने में को प्रेरित करें|

वर्ना इतना समझ लेना अगर आप यूँ ही इस झूठी जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के नाम पर अपने घरों में औरतों को हर उल-जुलूल पाखंड को घुसाने की मौन भरी चुप्पी दिए रखे तो इन चारों (मंडी-फंडी-मीडिया-एनजीओ) ने तो आपके घर की ना सिर्फ आर्थिक हैसियत वरन आध्यात्मिक और बौद्धिक हैसियत भी उस कंगाली और दिवालियेपन के स्तर तक ले जाने की ठानी हुई है, जहां आप सिर्फ इनके इशारों मात्र पे एक दुम हिलाने वाले पालतू से ज्यादा कुछ नहीं रह जाओगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक