Sunday, 23 October 2016

जुबान पे कायम उसके साथ रहा जाता है जो जुबान की कीमत जानता हो!


1) "ठाकुर, की जुबान पर विश्वास रखो!" - राजनाथ सिंह, फरवरी जाट आंदोलन में "जाट आरक्षण की घोषणा का पीएमओ से नोटिफिकेशन" तुरन्त जारी करवाने हेतु जाटों द्वारा कहने पे|
2) "रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन ना जाई" - रामायण (माइथोलॉजी), गर्भवती पत्नी को एक धोबी के कहने पर जंगल छुड़वाते वक्त, फेरों के वक्त दिए सात वचन एक झटके में तोड़े|
3) "प्राण जाए पर वचन ना जाए", "मर्द की जुबान" आदि-आदि - बॉलीवुड की ठाकुरों पर बनी फिल्मों में, ठाकुरों को जुबान नाम के वशीकरण जाल से बंधते हुए तो खूब देखा होगा|
4) जुमलेबाजों का तो रिकॉर्ड ही रखना भूल गया हूँ|

एक और ख़ास बात देख लेना, यह जुबान देने और जिसको दी है वो देने और उसके साथ जुबान निभाने लायक भी है या नहीं; यह सोचे-समझे बिना इसपे बौरा के मरने का शौक भी सबसे ज्यादा राजपूत-ठाकुर-जाट टाइप लोगों ज्यादा रहता है|

और क्या कहूँ, बस यही कहना है अपनी जुबान पे कायम रहो, परन्तु उसके साथ जो इसके लायक हो|
वर्ना बिना देखे-सोचे समझे जुबान देने वाला
1) माइथोलॉजी वाला हरिश्चंद्र बाद में अपनी पत्नी-बच्चों समेत काशी के घाटों पर बिकता हमने सुना है|
2) दूसरा माइथोलॉजी वाला राजा बलि, वामन अवतार को तीन-पग धरती नपवा के खुद, धूल फाख्ता हमने सुना है|
3) तीसरा माइथोलॉजी वाले राम और युद्धिष्ठर, सात फेरों के वचन दे के ब्याह के लाई अपनी पत्नियों को एक जंगल में छुड़वाता और दूसरा जुए में दांव पर लगाता हमने पढ़ा है|
4) चौथा महाभारत के युद्ध में, अस्त्र ना उठाने का वचन दे, जुबान को अस्त्र की तरह प्रयोग करता कृष्ण हमने सुना है|
अब कुछ उदाहरण वास्तविकता से:
5) अंतिम हिन्दू सम्राट कहलाने वाला पृथ्वी चौहान, अपने ही हिन्दू धर्म की मान-मान्यताओं को निभाने के वचन भरने के बाद भी कामांध हो अपनी ही भतीजी संयोगिता को भगाता हमने पढ़ा है|
6) महाराजा सूरजमल को पानीपत की तीसरी लड़ाई में जाट-पेशवा युद्ध-गठबंधन अलायन्स बनाने के वचन के बहाने, उनको बन्दी बनाने की चाल चलता पुनाई पेशवा हमने पढ़ा है|
7) सत्य-अहिंसा परमोधर्म: के वचन कहने वाला गाँधी, भगत सिंह को फांसी देने के कागजों पर दस्तखत करते हमने देखा है|
8) अंग्रेजों का विरोध करने वाले सावरकर और अटल बिहारी, अंग्रेजों को ही 6-6 माफीनामे लिखते हमने देखे हैं|
9) जुमलावतार के जुमलों की जुमलाई के जुल्मों का दौर पास से गुजरते हम देख रहे हैं|

और कुछ बावली तरेड़ टाइप "जुबान के पक्के" जुबान से कुल्ला-दातुन करते दुनिया की दीवारों को कुल्लों के पानी से गन्दा करते रोज-रोज सोशल मीडिया पर ढींगे हांकते मिलते ही रहते हैं| इनको अहसास भी नहीं होता कि जिस जुबान की तुम हंगाई मार रहे हो, यह जुबान नहीं अपितु तुम्हारा खुद से अनियंत्रित जोश है; वर्ना ऐसे जुबान के पक्के और जुबान के पक्कों का साथ देने वाले होते तो, अब तक अंध्भक्ति से बाहर आ चुके होते|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 19 October 2016

A New Zealander's view on reason for corruption in India!

Hard hitting article but sadly true: The following message from New Zealand is forwarded as received. *Makes interesting reading*

Indians are Hobbesian (Culture of self interest)
Corruption in India is a cultural aspect. Indians seem to think nothing peculiar about corruption. It is everywhere.
Indians tolerate corrupt individuals rather than correct them.
No race can be congenitally corrupt.
But can a race be corrupted by its culture?
To know why Indians are corrupt, look at their patterns and practices.
Firstly:
Religion is transactional in India.
Indians give God cash and anticipate an out-of-turn reward.
Such a plea acknowledges that favours are needed for the undeserving.
In the world outside the temple walls, such a transaction is named “bribe”.
A wealthy Indian gives not cash to temples, but gold crowns and such baubles.
His gifts can not feed the poor. His pay-off is for God. He thinks it will be wasted if it goes to a needy man.
In June 2009, The Hindu published a report of Karnataka minister G. Janardhan Reddy gifting a crown of gold and diamonds worth Rs 45 crore to Tirupati.
India’s temples collect so much that they don't know what to do with it. Billions are gathering dust in temple vaults.
When Europeans came to India they built schools. When Indians go to Europe & USA, they build temples.
Indians believe that if God accepts money for his favours, then nothing is wrong in doing the same thing. This is why Indians are so easily corruptible.
Indian culture accommodates such transaction
First: Morally. There is no real stigma. An utterly corrupt JayaLalita can make a comeback, just unthinkable in the West.
Secondly:
Indian moral ambiguity towards corruption is visible in its history. Indian history tells of the capture of cities and kingdoms after guards were paid off to open the gates, and commanders paid off to surrender.
This is unique to India.
Indians' corrupt nature has meant limited warfare on the subcontinent.
It is striking how little Indians have actually fought compared to ancient Greece and modern Europe.
The Turk's battles with Nadir Shah were vicious and fought to the finish.
In India fighting wasn't needed, bribing was enough to see off armies.
Any invader willing to spend cash could brush aside India’s kings, no matter how many tens of thousands soldiers were in their infantry.
Little resistance was given by the Indians at the “Battle” of Plassey.
Clive paid off Mir Jaffar and all of Bengal folded to an army of 3,000.
There was always a financial exchange to taking Indian forts. Golconda was captured in 1687 after the secret back door was left open.
Mughals vanquished Marathas and Rajputs with nothing but bribes.
The Raja of Srinagar gave up Dara Shikoh’s son Sulaiman to Aurangzeb after receiving a bribe.
There are many cases where Indians participated on a large scale in treason due to bribery.
Question is: Why Indians have a transactional culture while other 'civilized' nations don't?
Thirdly:
Indians do not believe in the theory that they all can rise if each of them behaves morally, because that is not the message of their faith.
Their caste system separates them.
They don't believe that all men are equal.
This resulted in their division and migration to other religions.
Many Hindus started their own faith like Sikh, Jain, Buddha and many converted to Christianity and Islam.
The result is that Indians don't trust one another.
There are no Indians in India, there are Hindus, Christians, Muslims and what not.
This division evolved an unhealthy culture. The inequality has resulted in a corrupt society, in India every one is thus against everyone else, except God ­and even he must be bribed.
*BRIAN from*
*Godzone NEW ZEALAND*
Sadly....yes !
(Incidentally, New Zealand is one of the least corrupt nations in the world.)

कई बार द्वेष-घृणा के अतिरेक में इंसान सच्ची बात भी बोल जाता है!

जाट ने अत्याचार, ना किसी का सहा और ना सराहा; अत्याचारी को ना बढ़ाया ना पनपाया| वरन ऐसे लोगों में सूदखोर हुए तो उनकी बहियाँ (बही-खाते) फाड़ी और ढोंगी-पाखंडी हुए तो उनके टाकणे छांगे|

बता, राजकुमार सैनी तक इस बात को मानता है| बस एक बीजेपी-आरएसएस के पीछे अंधभक्त बने फिर रहे जाटों को पता नहीं यह कब समझ आएगी कि आप सूदखोर-ढोंग-पाखंड को फैलाने वालों को समर्थन दे रहे हो, बढ़ावा दे रहे हो|

आँखें खोलो भगत बने जाटो, मत तोड़ो ऐसी रीत को; जिसकी कि राजकुमार सैनी जैसा आपका घोरतम आलोचक तक कुरुक्षेत्र में महाराजा अग्रसेन की जयंती समारोह में जिक्र चलाता हुआ कहता है कि "जाट वो हैं जो बहियाँ तक फूंक डालते थे!"।

देखो, आलोचक की महफ़िल में भी जिक्र होता है तो आपका किस ख़ास बात के लिए, भले ही फिर वो इस समाज के भले काम की बात में भी कोसने के बहाने आपका जिक्र उठाता हो|

धन्यवाद राजकुमार सैनी आपका, समाज में यह पुख्ता करने के लिए कि जाट ने सूदखोर छोड़ा ना, ना छोड़ा ढोंगी-पाखंडी|

इसके साथ अब समाज से यह मिथ्या-प्रचार की बात भी धुल जाएगी कि जाट सिर्फ गरीब-मजलूम पर अत्याचार करना जानता है| नहीं, अपितु जाट तो शक्तिशाली से भी शक्तिशाली की बही फाड़ना और टाकणे छांगना जानता आया है| इसीलिए तो जिधर देखो, उसका राज होने पर भी उस पर सिर्फ जाट के ही खौफ का सरमाया है| जो न्यूकर उसने जाट बनाम नॉन-जाट का दौर-ए-जिक्र, आते ही चलाया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

'जाट व् मित्र जाति युवा शक्ति' धर्म-आस्था-मान-मान्यता के मामले में अपनी दिशा और पैमाने बदलें!

सिर्फ दूसरों के दिए, बनाये या बताये त्योहारों-मान्यताओं की आलोचना करने से, उनका उपहास उड़ाने भर से काम नहीं हो जाने वाला| और उपहास या आलोचना भी सिर्फ उसकी ही उड़ानी ठीक रहती है जो आपकी आस्था-मान-मान्यता को दबाती हो| अंध-आलोचना या अंध-उपहास कभी भी खुद की सभ्यता को सँजोने-सँवारने-उभारने बारे सतर्क नहीं कर सकता|

इसलिए यह दूसरों की आलोचना-उपहास से पहले जरूरी है कि 'जाट व् मित्र जाति युवा शक्ति' अपने वाली आस्था-मान-मान्यता को अपने घरों की महिलाओं के जरिये अपने घर में उतारें| यह एक ऐसी लड़ाई है जो सोशल मीडिया पर नहीं अपितु घरों में लड़ी जाए तो ही विजय प्राप्त हो|

घर के मर्द की घर की औरत जरूर से जरूर सुनती है| औरत का हृदय कोमल और निष्पाप होता है| वह जो भी करती है अपने घर की भलाई की सोच के करती है| परन्तु वह तर्कशील नहीं होती, सिर्फ भावनाओं और आसपास क्या प्रभाव है उसके चलते वही अपने घर में करने-बरतने लग जाती है| लेकिन जब उसको यह समझ आता है कि यह देखा-देखी जो कर रही हूँ यह तो मेरे ही घर का आध्यात्मिक व् उससे भी बड़ा आर्थिक दोहन है तो वह जरूर उससे उल्टा हटती है| दूसरा वो ऐसा अपनी खुद की मान-मान्यता-आस्थाओं की जानकारी व् प्रचार के अभाव में भी करती है| इसलिए अपने घर की औरतों को इनके आध्यात्मिक-आर्थिक-अपनेपन के पहलुओं पर समझाना और समझना होगा|

'जाट व् मित्र जाति युवा शक्ति' को अगर यह दूसरों के त्यौहार जो हमारे घरों में घुस गए हैं, यह निकाल के; अपनी आस्था और मान-मान्यता घर में उतारे रखनी व् इनसे बचानी है तो अपने-अपने घर की औरतों से तार्किक बहस करनी होगी| इन आस्थाओं के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दो कि हमारी जितनी भी मान-मान्यताएं रही हैं वह हमारी आर्थिक स्थिति को उभारने वाली या बना के रखने वाली रही हैं; जबकि यह जो दूसरों की देखा-देखी अपने घरों में घुसा रही हो, इनमें अधिकतर हमारे घरों का आर्थिक दोहन व् इनको फैलाने वालों का आर्थिक-वर्धन करने वाली हैं| हमारी आध्यात्मिक मान्यता समाज में लोकतंत्र को बढाने वाली हैं, जबकि यह जो बाहर से घर में घुसा रही हो यह अधिनायकवाद, फासीवाद को बढ़ावा देने वाली हैं|

इसलिए बहुत हुए यह औरों की मान्यताओं-त्योहारों के उपहास उड़ाना व् आलोचना करना| अब इनकी बजाये इस पर ध्यान केंद्रित हो कि पहले हमारी जो मान-मान्यता-आस्थाएं हैं वो सम्भाली जाएँ; उन पर अपने घर-परिवारों में चर्चा होवें|

और इस जाट बनाम नॉन-जाट के माहौल से अपनी चीजों को सम्भालने की जाटों की लालसा व् उत्सुकता ने और सोशल मीडिया के जरिये यूनियनिस्ट मिशन के यौद्धेयों के प्रचार ने इतना तो प्रचारित कर दिया है कि असली जाटू-सभ्यता की मान-मान्यताएं क्या हैं| अब इनको सोशल मीडिया से उठा के अपने घरों में ले जाने की बारी है|
यह बिना-देखे-परखे बस देखा-देखी में किसी की भी बताई कोई भी मान-मान्यता को अपने घर में घुसा लेना उन सबसे बड़े कारणों में से एक है जिसकी वजह से आज आपका समाज जाट बनाम नॉन-जाट का दंश झेल रहा है| इसलिए ऐसा मत समझना कि यह जाट बनाम नॉन-जाट, कोई ओपरी-पराई आ के आपके ऊपर उतार गई; नहीं बल्कि आपकी इन रीशम-रीशां कुछ भी घर में घुसा लेने की आदत ने ही इन लोगों के इतने हौंसले बुलन्द किये हैं कि अब इन्होनें आप पर जाट बनाम नॉन-जाट थोंप दिया| बस इसको ठीक कर लीजिये 100% जाट बनाम नॉन-जाट कुछ ही समय में स्वाहा ना हो जाए तो मेरे कान पकड़ लेना; कि क्या कह रहा था|

और इसमें ग्रामीण जाट से शहरी जाट ज्यादा दोषी है, इन्होनें ही समाज में यह रीशम-रीशां और थोथे एट्टीट्यूड के नकचढ़े दिखावों के चक्कर में यह जाट बनाम नॉन-जाट की बला जाट समाज पे ज्यादा उडलवाई है| हालाँकि दोषी ग्रामीण जाट भी है; परन्तु इस बीमारी की लीडरशिप में शहरी जाट है|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट समाज के आलोचकों का कोटि-कोटि धन्यवाद!

हे जाटो! मनोहरलाल खट्टर, अश्वनी चोपड़ा, मनीष ग्रोवर, राजीव जेटली, राजकुमार सैणी, रोशनलाल आर्य जैसे लोगों का धन्यवाद करो। धन्यवाद करो इनका कि आपको इनके रूप में आलोचक मिले। जैन मुनि तरुण सागर कहते हैं कि "आलोचक बुरा नहीं, वह तो जिंदगी के लिए साबुन का काम करता है। गली में दो-चार सूअर हों तो गली साफ़ रहती है।"

यह आलोचक नहीं होते तो आपने यूँ ही शहरी व् ग्रामीण जाट में बंटे रहना था; कहीं अमीर व् गरीब जाट में बंटे रहना था; यूँ ही अपने त्यौहारों को छोड़ गैरों के मनाते फिरना था। अबकी बार देखो कितना बदलाव आया है; बदलाव आया है तब से जब से खट्टर-चोपड़ा-ग्रोवर-जेटली-सैणी-आर्य जैसी साबुनों ने आपके समाज में आपके अपनों के प्रति अपनेपन की मैली हो चुकी भावना को धो के निखारा है।

सोशल मीडिया पर ही देख लो, शुद्ध जाटू-सभ्यता के त्योहारों की कितनी बधाइयाँ बढ़ी और आपस में दी गई। आप अपने आपको गर्व से जाट और गर्व से हरयाणवी कहने लगे हो। वर्ना तो औरों से ही भाईचारा निभाने के टूल्स बनके रह गए थे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हिन्दू अरोड़ा/खत्री समुदाय कब तक दूसरों को बन्दूक चलाने के लिए अपना कन्धा इस्तेमाल होते रहने देगा?

भारत में हिन्दू संस्कृति व् धर्म नाम की कोई चीज नहीं है; इसमें सिर्फ तीन पार्टी हैं| एक बन्दूक चलाने वालों की, एक जिनके कन्धे रख के बन्दूक चलाई जाती है उनकी और एक जिन पर बन्दूक चलाई जाती है उनकी|

आजकल हरयाणा में जिन समाजों के कन्धों पर रखकर बन्दूक चलाई जा रही है वो दो समाज हैं एक सैनी समाज और दूसरा अरोड़ा/खत्री समाज| बन्दूक चलाने वाले कौन हैं और किनके ऊपर चलाई जा रही है, यह जो हरयाणा के 1% हालात भी जानता होगा, बखूबी वाकिफ होगा|

ताज्जुब हुआ ना जानकर कि सैनी की तो देखी जाएगी, परन्तु क्या सवर्ण कहलाने वाला अरोड़ा/खत्री समाज भी ऐसे इस्तेमाल किया जा सकता है? तो जवाब है हाँ| और ऐसा इस समाज के इस्तेमाल जैसा पहली बार नहीं, इतिहास में पहले भी हो चुका है|

1984 में पंजाब में लड़ाई छिड़ी बन्दूक चलाने वालों में और जिनपर चलाई जा रही थी उनमें; और हिंदुओं के एक-इकलौते समुदाय जिसको इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था वो था खत्री/अरोड़ा समुदाय| 1991 की जनगणना के अनुसार पंजाब की जनसँख्या में 1981 से ले के 1991 के मध्य 5% हिन्दू कम हुआ जो कि यही समुदाय था| 1985 से लेकर 1991 तक गोली चलाने वालों को अपना कन्धा प्रयोग करने के लिए देने की वजह से यह समाज आतंकवाद के निशाने पर रहा और इस वजह से इस समुदाय को पंजाब छोड़, हरयाणा में शरण लेनी पड़ी थी|

क्या यह समुदाय फिर से बन्दूकचियों को अपना कन्धा प्रयोग करने देगा? देगा क्या, मेरे ख्याल से बखूबी प्रयोग हो रहा है|

राजकुमार सैनी से तो मैं उम्मीद ही छोड़ चुका हूँ, क्योंकि वो तो अब वह वाली नकटी लुगाई बन चुका है, जिसको एक मारो तो आगे से कहेगी "इबकै मार के दिखा"; परन्तु शायद मेरा यह लेख अरोड़ा/खत्री समाज को यह बात समझा जाए कि कोई उनका भी इस्तेमाल कर सकता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 18 October 2016

यूरोपीय देशों में कल्चर खेती से जुडी है, जबकि भारत में निठल्लों की जुबान से!

आखिर क्यों सबसे धनी संस्कृति की शेखी बघारने वाले भारत की शहरी संस्कृति अलग है और ग्रामीण अलग; जबकि फ्रांस-इंग्लैंड जैसे देशों में वही शहर का कल्चर है जो यहां ग्रामीण एग्रीकल्चर का कल्चर है?

इंग्लिश और फ्रेंच भाषा, दोनों में कल्चर शब्द एग्रीकल्चर से निकलता है; यानि जैसी खेती वैसा कल्चर| और यह बात सही भी है| जबकि हिंदी हो या संस्कृत, दोनों में खेती शब्द का संस्कृति शब्द से कोई तालमेल ही नहीं दिखता; इन्होनें शब्दवाली ही ऐसी बनाई है कि खेती को संस्कृति से दूर रखा हुआ है| गंवार-गाँवटी कहते हैं यह खेती को| और इनके लिए संस्कृति यानि कल्चर वही है जो यह बोलते-लिखते हैं|

एक ख़ास बात और, इंग्लैंड-फ्रांस के शहरों का वही कल्चर है जो यहां के गाँवों का है; क्योंकि यहां शहर हों या गाँव, एक ही प्रकार के, एक ही संस्कृति के लोगों ने बसाये हैं| वही चौड़ी-चौड़ी सड़कें, हवादार गलियारे और शहर के बीच में गाँव की चौपाल की भांति सिटी सेंटर्स| जबकि हरयाणा को ही देख लो, एक भी शहर की बनावट, हरयाणवी ग्रामीण सभ्यता से मैच नहीं करती| इन शहरों की पुराणी गलियों में चले जाओ, इतनी भीड़ी होती हैं कि 3-4 मंजिल मकानों की कतार वाली गलियों में तो नीचे सड़क तक सूरज भी नहीं घुस पाता| छोटे-छोटे मकान, छोटी-छोटी रिहाइशें, किसी भी तरीके से इनमें हरयाणा की ग्रामीण संस्कृति का अंश नहीं झलकता|
और ऐसे ही महान ग्रामीण पृष्ठभूमि से शहरों में आन बसने वाले ग्रामीण हरयाणवी| इनको यह अहसास ही नहीं कि अपनी कल्चर को अपने साथ ले के चलो, बस शहर में आ गए, ऐसे मानने लग जाते हैं कि किसी दूसरी ही दुनियां में आ गए|

वैसे एक बार एक सरफिरे एंटी-हरयाणवी पत्रकार ने ताऊ देवीलाल जी से भी कल्चर के बारे पूछा था तो ताऊ जी ने दो-टूक कही थी कि हमारी कल्चर है एग्रीकल्चर। तो हरयाणवी समाज सोचे इस पहलु पर कि आपकी ग्रामीण और शहरी संस्कृति में इतना फर्क क्यों? जबकि फ्रांस-इंग्लैंड जैसे विश्व के वीटो पावर एवम विकसित देशों की ग्रामीण-शहर दोनों की संस्कृति एक जैसी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 16 October 2016

भक्ति या अंध्भक्ति जाट का डीएनए ही नहीं, भक्त बने जाट व्यर्थ ही अपने ही डीएनए से जूझ रहे!

अंधभक्त बने जाटों की सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वो अंधभक्ति दिखाने की कोशिश में अपने ही डीएनए के विरुद्ध जद्दोजहद कर रहे हैं| क्योंकि जाट डीएनए अधिनायकवाद के सिद्धांत का है ही नहीं| इसमें या तो हर कोई राजा है या फिर हर कोई रंक| इसीलिए कहावत भी कही गई है कि "भरा पेट जाट का, राजा के हाथी को भी गधा बता दे"| और नवजोत सिंह सिध्धू अभी-अभी राजा रुपी पीएम मोदी के हाथी रुपी बीजेपी को गधा बताते हुए, बीजेपी को लात मार के; इसको साबित भी कर चुके हैं|

ऐसे ही दो-तीन किस्से और भी सुनाता हूँ, परन्तु थोड़े दूसरी तरह के| यह ऐसे किस्से हैं जब जाटों ने खुद ही, अहंकार में आये राजनेताओं को ही राजनीति में औंधे मुंह गिराया या उनके दम्भ को चकनाचूर कर दिया|
आज जो भिवानी से सांसद हैं धर्मवीर पंघाल जी, इनकी पहली राजनैतिक विजय हुई ही इस वजह से थी कि हरयाणा मुख्यमंत्री के तौर पर 10 साल से राज करते आ रहे हरयाणा निर्माणपुरुष चौधरी बंसीलाल जी ने उनके हल्के में शेखी बघार दी थी कि मेरे से बड़ा कोई जाट नेता नहीं आज के दिन; मेरे सिवा तुम किसके साथ लगोगे| बस जाटों को यह बात ऐसी अखरी कि "बिल्ली के भागों, छींका छूटने" और "चाहे गाम की गाल में बुग्गी पे बैठा मानस एमएलए बनाना पड़ जाओ, पर इसमें उभरते अधिनायकवाद को नहीं छोड़ेंगे" अंदाज में 1977 के विधानसभा चुनाव में अदने से युवा धर्मबीर पंघाल को चौधरी बंसीलाल के विरुद्ध एमएलए बना दिया|

यह हरयाणा का एक-इकलौता ऐसा वाकया है जब कोई सीएम से ले के देश के रक्षा-मंत्री कद का नेशनल लेवल का नेता अपनी गृह-सीट पर ही चुनाव हार गया हो| वर्ना कोई हरा के दिखा दो हुड्डा जी को किलोई-सांपला से, चौटालाओं को डबवाली साइड से और ऐसे ही आजीवन अपराजित स्वर्गीय भजनलाल रह के चले गए मंडी-आदमपुर से|

दूसरा किस्सा "महम-कांड" तो जगप्रसिद्ध है; हर कोई जानता है कि चौधरी आनंद सिंह दांगी व् महम-चौबीसी-खाप बनाम चौधरी ओम प्रकाश चौटाला जी की सरकार के बीच कैसी खूनी-जंग चली थी| कैसे महम-चौबीसी वालों ने सैंकड़ों पुलिस व् सीआरपीएफ वालों को दौड़ा-दौड़ा पीटा था और कैसे पुलिस व् फाॅर्स वाले अपनी वर्दी छोड़-छोड़ जानें बचाते हुए खेतों-कीचड़ों से लथपथ होते भागे थे| यह हादसा चौटाला साहब की सीएम की कुर्सी भी लील गया था|

तीसरा तगड़ा, झटका फरवरी 2016 में हुए जाट आंदोलन के तहत सीधा पीएम मोदी, बीजेपी, आरएसएस, राजकुमार सैनी और खट्टर सबके अहम को एक साथ दिया; चार दिनों में सरकार घुटनों के बल आ गई थी| परन्तु यह ठहरे झूठों के झूठे, सात फेरे लेने वाली से किये वचन नहीं निभाते; जनता से किये तो तब निभाएंगे|

तो सार यही है कि आज जो आप इनके दिखाए थोथे जुमलों से लबरेज सब्जबागों के हत्थे चढ़ के अपने ही डीएनए के विपरीत खुद से व् समाज से व्यवहार कर रहे हो, यह तभी तक है जब तक बीजेपी-आरएसएस वाले आपकी अनख पे बैठने जैसा कुछ उट-मटीला टाइप नहीं करते| हालाँकि फरवरी वाले उट-मटीले ने बहुत से अंधभक्त बने जाटों की आँखें खोली हैं और रही-सही की भी किसी न किसी दिन खुली ही समझो| और जिस दिन खुली, उस दिन किसी के कहने की भी लोड नहीं होनी, खुद ही इनके पैर उखाड़ दोगे; क्योंकि एक कहावत है कि "जाट निवाला भी खिलावेगा तो गले में रस्सा डाल के"|

इसलिए जिसको अपने जितने काम निकलवाने हैं, चुपचाप निकलवाते रहो| ज्यादा इस चक्कर में मत पड़ो कि अपने काम निकलवाने के ऐवज में इनके एजेंडा भी हरयाणा में फैलवा दें| हंसी-ख़ुशी राजी-मिजाजी में तो सत्तर बार जाट इनको सर पे चढ़ाये रखते, परन्तु फरवरी के बाद से अधिकतर जाट सिर्फ इस मूड में है कि बस अपने काम निकलवाओ और बाई-बाई बोलते जाओ|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 15 October 2016

हिन्दू विवाह अधिनियम का जिन्न, जाटू (खाप) मान्यता व् इसके मायने!

जाटू मान्यता का विवाह कानून पूर्णत: जेंडर-न्यूट्रलिटी पर टिका हुआ कांसेप्ट है; जो कि मानव सभ्यता की राह में आने वाले रोड़ों की न्यूनतम पध्दति पर बनाया गया है| न्यूनतम-रोड़े इसलिए कहा क्योंकि हर मान-मान्यता ख़ास और खतरा दोनों पहलु रखती होती है, जिनको कि न्यूनतम तो किया जा सकता है, परन्तु इन दोनों तरफा सम्भावनाओं से कोई मान-मान्यता पूर्णत: रिक्त नहीं हो सकती| और ऐसी ही न्यूनतम खतरा और अधिकतम ख़ास को साथ लिए बनी है जाटू उर्फ़ खाप वैवाहिक मान्यता| आईये देखें कैसे:

पैंतीस बनाम एक का ऐसा माहौल हो रखा है कि इस विषय में जाट का नाम होने से, शायद जाट तक इसको शक की निगाह से देखें| परन्तु मुझे तो बोलना है, सो बिंदास-बेझिझक बोलूंगा; वर्ना ऐसे कंजर लोग बैठे हैं कि नहीं बोला तो इस विश्व-स्तर की ख़ास सभ्यता को लील ही जायेंगे| सबसे पहले इसकी ख़ास बातों पर बात:

जाटू-मान्यता की सगोत्र विवाह मनाही की प्रणाली जेंडर-न्यूट्रल है, जो कि "खेड़े के गौत" के नियम पर आधारित है| "खेड़े के गौत" के तहत दो सिस्टम हैं, पहला "एक गौतीय खेड़ा" और दूसरा "बहु-गौतीय खेड़ा"। एक गौतीय खेड़े वाले गाँव में सगोत्र व् गांव-की-गांव में विवाह नहीं हो सकता, क्योंकि इसके तहत गाँव में आने वाली बहु हो या घर-जमाई, अपना गौत पीछे छोड़ के आते हैं| यानी गाँव में बेटे की औलाद बसे या "ध्यानी-देहल की औलाद" उनका गौत "खेड़े का गौत" चलता है|

जाट समाज में हर गौत का न्यूनतम एक व् अधिकतम असंख्य खेड़े होते हैं| "खेड़े के गौत" का सिस्टम, जाति के अंदर बिना किसी अवरोध-गतिरोध के अपनी-अपनी सब-जेनेटिक आइडेंटिटी व् अपने गौत-वंश-कुल के गणतन्त्र को युगयुगान्तर तक कायम रखने का फार्मूला है|

यह सिस्टम इंसान को वासना और मोह से दूर रहने हेतु भी बनाया गया है| सनद रहे वासना और मोह से मुक्त या दूर कैसे रहें, इस पर जानने हेतु किसी बाबा के सत्संग में जाने या नाम लेने की जरूरत नहीं और ना ही किसी आरएसएस को ज्वाइन करने की जरूरत| भान रहे कि अधिकतर बाबाओं के संगठनों में बाबा-लोग सदस्यों को भाई-बहन बना के रखते हैं या बन के रहने की हिदायत देते हैं; आरएसएस भी इस मामले में कम नहीं, यह लोग तो बाबाओं से भी दो कदम आगे चलते हुए मर्द को मर्द से ही राखी बंधवाते हैं| खैर, इसीलिए तो मुझे यह लोग आकर्षित नहीं कर पाते, क्योंकि जो यह करते हैं, उसका अधिकतर इन्होनें मेरी "जाटू-सभ्यता" के कांसेप्ट से चुराया हुआ लगता है|

जाटू-सभ्यता कहती है कि एक गौत के खेड़े के गाँव में 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ-भतीजी, आपकी बेटी-बहन-बुआ-भतीजी है; और जाट इस नियम का पालन करते हुए किसी दलित विरोधी तख्ती वाले मन्दिर की भांति यह शर्त नहीं लगाते कि दलित की बेटी को अपनी बेटी नहीं मानेंगे|

अब यहां पर वो लोग मुंह उठाकर रुदाली विलाप ना करें, जो मुझे गाँव-की-गाँव या घर की घर में अवैध सम्बन्धों का हवाला देते हुए इन मान्यताओं को झुठलाने या असरदार नहीं होने का रोना रोते हैं| क्योंकि यह मान्यताएं किसी पर थोंपी नहीं जाती, सिर्फ एक मार्ग के रूप में समाज में रखी जाती हैं जिनपर चलकर आप हर प्रकार का यश, कीर्ति, शौर्य, बुलन्दी हासिल कर सकते हैं, जो कि इनसे विमुख अवैध सम्बन्धों में पड़ा व्यक्ति हासिल नहीं कर सकता|

असल में जाट-सभ्यता की यही तो समस्या है कि इन लोगों ने इंग्लैंड के सविंधान की भांति, आज तलक भी सब-कुछ अलिखित रखा हुआ है और वह भी ऐसे लोगों के बीच में रहते हुए जो हगना-मूतना कैसे चाहिए, उसपे भी किताबें छाप के रखते हैं| लम्बा हो जायेगा, इसलिए इस बिंदु पर जाटू-सभ्यता में विश्वास रखने वालों से इसको डॉक्यूमेंट करने की अपील करते हुए लेख के विषय पर वापस लौटता हूँ|

"खेड़े के गौत" का सिस्टम उस गाँव में बसने वाली हर जाति के लिए समान रूप से "पहले आओ, पहले बसाओ" की नीति पर आधारित है| उदाहरण के तौर पर मेरी जन्म नगरी निडाना, जिला जींद, जाटों के मलिक गौत का, बनियों के गर्ग गौत का, ब्राह्मणों के भारद्वाज गौत का, चमारों के रँगा गौत का, धानकों के खटीक गौत का, एक गौतीय खेड़ा है|

बहु-गौतीय खेड़े में गांव-की-गांव में शादी की मनाही नहीं होती, परन्तु सगौत में विवाह की मनाही उन गाँवों में भी होती है|

दूसरी ख़ास बात, जाटू-विवाह सिस्टम में तलाक के बाद लड़की अगर "लत्ता-ओढाई" के तहत पति के सगे या चचेरे भाई में से किसी से भी विवाह की इच्छुक ना हो तो वह ससुराल-मायके में कहीं भी बसने की अधिकारी होती है| अगर वह मायके में आ के बसती है तो उसकी औलादों का गौत उसका चलेगा, उसके पति का नहीं|

मोटे-तौर पर इन बातों को ऐसे बिन्दुबद्ध किया जा सकता है:
1) जाटू-वैवाहिक प्रणाली जेंडर-न्यूट्रल है|
2) जाटू-वैवाहिक प्रणाली विश्व की शायद एकलौती ऐसी प्रणाली है जिसके तहत औलाद सिर्फ पिता ही नहीं अपितु माता का गौत भी धारण करती है| इस पहलु को जाटू प्रणाली को पुरुष-प्रधान कहने वाले असामाजिक तत्व खासकर नोट करें|
3) जाटू-वैवाहिक प्रणाली 'खेड़े के गौत' के "पहले आओ, पहले बसाओ" नियम पर आधारित है|
4) जाटू-वैवाहिक प्रणाली अगर एक गाँव को एक जाति के एक से ज्यादा गौत के लोग बसाते हैं तो वह गाँव बहु-गौतीय खेड़ा कहलाता है| जैसे कि सिरसा-फतेहाबाद साइड के बहुत से गाँव|
5) जाटू-वैवाहिक प्रणाली में तलाक के बाद औरत ससुराल-पीहर (मायका) जहां चाहे बस सकती है|
6) जाटू-सभ्यता के "एक गौती खेड़े" में 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ-भतीजी समान रूप से सबकी की बेटी-बहन-बुआ-भतीजी मानी जाती है, ताकि जेंडर-न्यूट्रलिटी के आधार-स्तम्भ को जीवित रखा जा सके|

मेरे पास इन तथ्यों के प्रैक्टिकल उदाहरण हैं और वो भी बहुतायत में; और यही उदाहरण मेरे इस लेख का आधार हैं|

इसलिए जाटू (खाप) मान्यता की संस्कृति में विश्वास रखने वाले व् इसके अनुसार चलने वाले लोगों-समाजों से अनुरोध करूँगा कि आज के दिन देश की विधायिका में ऐसे लोग कानून बनाने को बैठे हैं जिनके यहां कोई औरत विधवा हुई नहीं और पति की जायदाद-सम्पत्ति से बेदखल कर उठा के फेंक दी विधवा-आश्रमों में जीवन-भर सड़ने के लिए| तो इनको अपने ऊपर हावी ना होने देवें, आप स्वत: में एक विश्व-स्टैण्डर्ड की सभ्यता हैं; इसको अंगीकार करे रखें और आगे बढ़ाते रहें परन्तु सुधारों के साथ| क्योंकि इन मान्यताओं में लोभ-लालच के चलते कुछ ऐसे किस्से भी देखे गए हैं जो कि नहीं होने चाहियें| परन्तु इन किस्सों की संख्या 2-4% है, जबकि 96-98% मामलों में यह सभ्यता सकारात्मक परिणाम देती हुई, सदियों से आजतक कायम है|

जाटों की "सगौत्रीय विवाह में मनाही" और "गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ-भतीजी को अपनी बेटी-बहन-बुआ-भतीजी" कहने की सभ्यता का मजाक उड़ाने वाले, अधिकतर वही बज्रबटटु होते हैं जो किसी नामधारी बाबा के सत्संग में सैंकड़ों कोस दूर से आई अनजान सत्संगन को भी बहन कहते पाए जाते हैं, या बाबा लोग इनसे ऐसा करने को कहते हैं या आरएसएस जैसों के यहां मर्द-मर्द को राखी बाँधने वाली कसम निभाते पाए जाते हैं|

बता यह सत्संग तो मेरे पुरखे बाई-डिफ़ॉल्ट मेरी जाट-सभ्यता में ही ना उतार गए थे, मुझे इसके लिए इन सत्संगों-संगठनों में जाने की भला क्या जरूरत? गाँव-की-गांव में जिनको बहन-बेटी-बुआ-भतीजी कहता हूँ उनको कम से कम जन्म से जानता होता तो हूँ| तरस आता है ऐसे लोगों पर जो अनजानों तक को बहन बनाते हैं और फिर जाटू-सभ्यता पर मुंह भी चिकलाते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मुझे चाहिए कुछ ऐसा "यूनिफार्म सिविल कोड"!

1) IAS / IPS / IRS इत्यादि सिविल परीक्षाएं, इन नौकरियों में एंट्री के लिए नहीं अपितु प्रमोशन के लिए होवें। हर विभाग में सबसे छोटी पोस्ट से एंट्री का प्रावधान हो। यह सिस्टम इंग्लैंड, फ्रांस में तो मेरी जानकारी में लागू है। इसकी महत्वता इसी बात से समझी जा सकती है कि IIT व् IIM पास किये हुओं को भी कॉर्पोरेट सेक्टर में इंटर्नशिप यानी ट्रेनिंग से शुरू करना पड़ता है| उन्होंने IIT या IIM किया है, सिर्फ इस वजह से सीधे मेनेजर या टीम लीडर की पोस्ट पे नहीं बैठा दिया जाता।

2) जैसे पुजारी-पंडित-पूछा-पत्री-सत्संग-प्रवचन वाले अपने काम का पैसा खुद निर्धारित करते हैं, जैसे व्यापारी-कारोबारी अपने उत्पाद-सर्विस का दाम खुद निर्धारित करते हैं, जैसे मजदूर-कारीगर अपनी दिहाड़ी खुद बढाते-घटाते रहते हैं; ठीक ऐसे ही किसान की फसल के दाम तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ किसान का हो।

3) सरकारी गैर-सरकारी हर विभाग में A - B - C - D ग्रेड की नौकरियों का पेमेंट स्केल एक होना चाहिए।

4) बेचना हो या खरीदना, दोनों ही सूरत में किसान को मंडी या व्यापारी के दर पर जाना पड़ता है; यह बन्द होना चाहिए। किसान अपने उत्पाद को अपनी मार्किट बना के वहाँ बेचे, जैसे अन्य व्यापारी करते हैं। और वहाँ खरीदार आवें, फिर चाहे वो सरकारी खरीददार हों या प्राइवेट। या फिर किसान को मंडी-स्थल तक माल पहुंचाने का लोजिस्टिक्स/ट्रांसपोर्टेशन खर्च मिले। हालाँकि गन्ने की फसल में ऐसा प्रावधान है, परन्तु यह हर फसल के लिए लागू हो।

5) मीडिया को अपराध को अपराध दिखाने की हिदायत हो; अपराध की आड़ में किसी समुदाय-जाति-क्षेत्र को घसीटने-बदनाम करने की सख्त मनाही हो।

6) एससी/एसटी एक्ट की भांति हर जाति-वर्ण के पास ऐसा कानून हो, क्योंकि भारत में जातिसूचक शब्द हर वर्ग के लिए प्रयोग होते हैं।

7) हर सरकारी सेवा/सुविधा जनता को 5-7 किलोमीटर के क्षेत्र में मुहैया करवाई जाए; उसके लिए दफ्तर-विभाग गाँवों में उठा के ले जाने पड़ें, ले जाए जाएँ। 10 किलोमीटर से ज्यादा दूर जनता को सरकारी काम के लिए जाना हो तो सरकार उसका किराया व् खाना का खर्च भुगते।

8) अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-इंग्लैंड-आयरलैंड की भांति नौकरियों में आरक्षण सिर्फ और सिर्फ प्रतिनिध्त्वि व् प्रतिभागिता ही माना जाए, इसको गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम ना बनाया जाए। इसलिए जनसँख्या के अनुपात में जिला स्तर को पैमाना मानकर हर जाति-समुदाय का बराबरी से उस जिले-राज्य-देश की हर सरकारी गैर-सरकारी नौकरी में आरक्षण हो। इस पैमाने पर चलते हुए हर नौकरी की दो बार अधिसूचना निकाली जाए; फिर भी पद रिक्त रह जाएँ, तो रिक्त पदों के लिए जनरल भर्ती की जाए।

9) देश में सेना के होते हुए, किसी भी प्राइवेट संगठन-संस्था-एनजीओ को हथियार रखने या अपने कैडर को हथियारों की ट्रेनिंग देने की इजाजत ना होवे।

10) हर गाँव-शहर को एक स्वंतंत्र अर्थव्यवस्था माना जाए व् इस अर्थव्यवस्था को चलाने का हक़ उस गाँव-शहर की स्थानीय संस्था को होवे। सरकारी कर्मचारी उस व्यवस्था को सविंधान के अनुसार चलाने हेतु सहयोग हेतु होवे, ना कि आदेश हेतु।

11) भारत की न्याय-व्यवस्था में "सोशल ज्यूरी सिस्टम" लागू हो। सामाजिक, आर्थिक व् धार्मिक परिवेश के किसी भी मुदकमे को सुलझाने में अगर छह महीने से ज्यादा वक्त लग जाए, तो उस जज के खिलाफ ऑटोमेटिकली "शो-काज" नोटिस जारी हो।

12) जैसे अमेरिका का वाइट-हाउस हर एक लाख हस्ताक्षर पाने वाली याचिका पर तुरन्त कार्यवाही करता है; ऐसे ही भारत में राष्ट्रीय पर एक लाख हस्ताक्षर पाने वाली याचिका पर विधायिका-न्यायपालिका तुरन्त एक्शन लेवें। राज्य स्तर पर यह पैमाना जनसँख्या के अनुपात के अनुसार रखा रखा जावे।

13) अमेरिका-फ्रांस-इंग्लैंड की भांति हर प्रकार के धर्म को सिर्फ धर्म-स्थलों की परिधि में कार्यवाही की आज्ञा हो। गलियों-मोहल्लों में इनके कार्यक्रमों पर पाबन्दी हो। क्योंकि धार्मिक प्रतिनिधि उन्मादी होते हैं और उन्मादी व्यक्ति आम जनजीवन को दिशाहीन कर देता है; जिससे आमजन की शांति-सौहार्द-आजीविका में खलल पड़ता है।

14) हर धर्म के अंदर भी "यूनिफार्म सिविल कोड" हो; यह नहीं कि पुजारी के बेटा पुजारी और लाचारी का बेटा लाचारी कहलाये। सिख-मुस्लिम-ईसाई कैसे करेंगे इस पर उनके धर्म वालों से पूछा जाए। क्योंकि मैं हिन्दू जीवन शैली ((धर्म नहीं जीवन-शैली)) की मूर्ती-पूजा विरोधक आर्य-समाजी शैली से आता हूँ और "दादा खेड़ा भगवान्" का उपासक हूँ और क्योंकि दादा खेड़ा भगवान के दर पर ना ही तो कोई पुजारी बैठता और ना ही वहाँ आया प्रसाद-दान एक पुजारी या ट्रस्ट की भांति चुनिंदा लोग ले जाते। अपितु वहाँ बैठे गरीब लोगों को उपासना करने वाले अपने हाथों से दे जाते हैं। इसीलिए यही चाहूंगा कि जहां दान-चन्दा चुनिंदा व्यक्तियों या ट्रस्टियों के पास जाता है, वहाँ वह लोग उसका साप्तहिक-पाक्षिक-मासिक सार्वजनिक ब्यौरा प्रस्तुत करें और सरकार को टैक्स व् धर्मस्थल के रखरखाव के अलावा वह चन्दा कितना किधर लगेगा, यह उस धर्मस्थल के प्रभावक्षेत्र में आने वाले लोगों की आमराय के अनुसार ही खर्चा जाए; ताकि ऐसे पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े ना रचाये जा सकें। हर धर्म संस्थान में एक निर्धारित टीम हो, जिसमें 50% पुरुष और 50% औरतें हों। इस टीम में सवर्ण-दलित-किसान-पिछड़े की बराबर की भागीदारी हो। काम भी बराबर बंटे हों। जैसे एक दिन सवर्ण मन्दिर में धुप-बत्ती करेगा और दलित झाड़ू-पोंछा करेगा तो अगले दिन दलित धुप-बत्ती करेगा और सवर्ण झाड़ू-पोंछा।

इससे होगा वाकई में "यूनिफार्म सिविल कोड" की भावना लोगों में लाने का उद्गम।

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 14 October 2016

पश्चिमी बंगाल की सालिसी सभा और हरयाणा की हरयाणा सर्वखाप में अंतर!

सिस्टर स्टेट्स और खासकर मुम्बई में मराठों और ठाकरों से पिट के आये, हरयाणा-वेस्ट यूपी-एनसीआर में बैठे मीडिया के कुछ सरफिरे; स्थानीय संस्कृति-सभ्यता-मान-मान्यता को घाव देने की हद तक कुरेदने और अपमानित करने का वही वहियातपना अपनाने से बाज नहीं आ रहे हैं जो एक ठाकरे खड़ा करने या स्थानीय लोगों को मनसे के रूप में एकजुट कर ऐसे लोगों को पीटने-भगाने की वजहें बनते हैं|

ताज्जुब की बात तो यह है कि सरकार और देश के कानून के पास इन चीजों पर सर्विलियंस टीमें और सिस्टम व् मुम्बई में उत्तरी भारतियों को नफरत करने व् पीटने के सब अनुभव होने पर भी, इन मीडिया वालों को मर्यादा लांघने के नोटिस या ऐसा ना करने की हिदायतें देते नहीं दिख रहे| सरकार तो छोड़ो, देश के कोर्ट-कानून की भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है कि सामाजिक मान-मर्यादा रुपी ताँगे में जुते इस मीडिया रुपी घोड़े की लगाम खींचे और सही दिशा में इनको रखें? क्या यह बताने का काम भी सड़क किनारे खड़ी सवारियों का है कि देखो घोडा बेढंगा चल रहा है, इसको सही से लगाम में रखो?

अब इस महाबकवाद न्यूज़ बनाने वाले से कुछ सवाल; यह जो भी एबीसी पत्रकार है, जिस किसी भी एक्सवाईजेड मीडिया एजेंसी से है, इससे कुछ व्याख्याओं समेत सीधे-सीधे सवाल:

1) क्या कभी सालिसी पंचायतों ने भारतीय इतिहास के किसी भी युद्ध में भाग लिया है?
2) क्या बाबर-लोधी-रजिया जैसे हरयाणा सर्वखाप के ऐतिहासिक चबूतरे सोहरम, पर शीश नवाने कोई मुग़ल सालिसी पंचायतों के यहां हो के गया है? सर्वखाप हरयाणा के पास यह ऐसा इकलौता शाहकार और सम्मान है जो किसी अन्य पंचायती संस्था और सिस्टम तो छोड़ो, देश के किसी मंदिर के भी नसीब में नहीं|
3) क्या सालिसी पंचायतों के पास आज भी पहलवानी दस्ते और एक आवाज पर आर्मी की आर्मी खड़ा कर देने का कोई सिस्टम है? हरयाणा सर्वखाप के पास है, एक बार आह्वान भी दे देवें कि देश को आपकी सेवा की जरूरत है तो हजारों-हजार युवक-युवतियां पूरी तैयारी के साथ इकठ्ठा हो जाएँ?
4) क्या इन सालिसी पंचायतों के पास सर्वखाप हरयाणा की भांति पूरी हैररकी है?
5) क्या इन सालिसी पंचायतों के पास अंग्रेजों से लड़ाई करने का कोई इतिहास है, हरयाणा सर्वखाप के पास है|
6) सर्वखाप पंचायत बाकायदा ऑफिसियल चिठ्ठी भेजकर बुलाई गई मीटिंग होती है, जिसकी बाकायदा मिनट ऑफ़ मीटिंग का रिकॉर्ड रखा जाता है; क्या इन सालिसी पंचायतों में ऐसा कोई सिस्टम है?
7) खाप पंचायतें समय-समय पर ढोंग-पाखंड-आडम्बरों के खिलाफ समाज के भले हेतु गाइडलाइन्स और डायरेक्शन्स इशू करती हैं, क्या यह सालिसी पंचायतें ऐसा करती हैं?
8) कहीं ऐसा तो नहीं यह हिन्दू धर्म के सवर्ण लोगों की वो टिपिकल संस्था हो जो समाज के दलितों-पिछड़ों को अपनी नकेल में रखने हेतु होती हों? सनद, रहे हरयाणा सर्वखाप का ऐसा कोई इतिहास नहीं, कोई मीटिंग का रिकॉर्ड नहीं, मौका नहीं; जब उसने सर्वसमाज की बात ना करके, मात्र दलित-पिछड़ा ही कैसे रहे, इसपे कोई बात करी हो| सर्वखाप बात करती रही है तो सर्वसमाज की, उसमें फिर क्या ब्राह्मण, क्या जाट और क्या दलित| तो क्या सालिसी पंचायतें भी इसी तरह का फॉर्मेट हैं?

ओ सभ्यता और संस्कृति के लुटेरे, ओ इस अख़बार की कटाई के लेखक; आप मुझे यह बताईये| जब मोदी यह कहे कि किसी पंचायत स्तर पर कुछ बुरा हो जाए तो उसके लिए मोदी जिम्मेदार कैसे हो सकता है, जब किसी मोहल्ला स्तर पर कुछ गड़बड़ हो जाए, उसके लिए मोदी जिम्मेदार कैसे हो सकता है; तो इसी तरीके से हरयाणा के किसी घर में कोई हॉनर किलिंग कर दे, या 2-4-10-5 जन का समूह किसी गांव के किसी कोने में अ ब स किस्म की किसी भी आपसी रंजिस के चलते, एक दूसरे के खिलाफ कोई कदम उठा ले; तो खाप या सर्वखाप उसके लिए कैसे जिम्मेदार हो सकती है? इस देश में सरकारी अदालतों के 3 करोड़ से ज्यादा मामले लटक रहे हैं, तो क्या कभी बोलते हो कि देश का सुप्रीम कोर्ट इसके लिए जिम्मेदार है?

विशेष: मैं इस पत्रकार से इस विषय पर वन-टू-वन डिबेट करना चाहूंगा| यह बन्दा या बन्दी आप में से जिस किसी की भी जानकारी या नेटवर्क में होवे तो इसको मेरे इस जवाब समेत, डिबेट बारे निमन्त्रण का आह्वान जरूर देवें| इसके लिए आपकी अति कृपया होगी| वरना ऐसी "सिंह ना सांड और गीदड़ गए हांड!" की इनके ही द्वारा बनाई गई परिस्थिति में होनी होने को होती है और ऐसे में लगे हाथों इनको एक और बहाना मिल जायेगा स्थानीय हरयाणवी सभ्यता को कोसने का| मैं चाहता हूँ कि इस लेखक के साथ ऐसी नौबत ना आवे, इसलिए यह इस विषय पर मुझसे डिबेट कर ले|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Thursday, 13 October 2016

शोषककर्ता अनुत्पादक वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि उत्पादक वर्ग अपनी समस्याओं पर विमर्श हेतु सोचे भी! - दीनबन्धु रहबर-ए-आजम चौधरी सर छोटूराम!

9 अप्रैल सन 1944 को लायलपुर में पंजाब की जाट महासभा का महासम्मेलन आयोजित था|  सारा शहर पोस्टर और बैनेरो से पटा पड़ा था| उर्दू और पंजाबी दोनों भाषाओ में लिखित नारों से दीवारे रंगी पड़ी थी| कितने ही स्वागत द्वार सजे थे, लायलपुर के कृषि कॉलेज की सारे भारत में धाक थी|

दीनबंधु चौधरी छोटू राम जी इस आयोजन के मुख्य अथिति थे| उनको हाथी पर बैठाकर सभास्थल तक लाया गया ,नारों और नादों से गगन गुंजित था, चारों और से समवेत श्वर-नाद गुंजित थे - जाट सभा जिंदाबाद जिंदाबाद!! जाट जवान! जाट बलवान! जय भगवान! छोटूराम तुम आगे बढ़ो -हम तुम्हारे साथ हैं!

यह एक प्रकार से उन्हीं का सम्मान समारोह था! वही आज के मुख्य अथिति और मुख्य वक्ता थे| उन्होंने अपने उदगारों को उच्छल अभिव्यक्ति दी थी - "जाट सभा के सदर चौधरी शहाबुद्दीन साहब, सेक्रेटरी बैरिस्टर हबीबुल्ला खान साहब, मेरे प्यारे जाट किसान भाईयो,आज आपके बीच में पाकर, मै स्वयं को बहुत गौरावान्वित अनुभव कर रहा हूँ| आपने ये जो इतना बड़ा इजलास यहाँ बुलवाया है, मुझे नहीं मालूम इसका मकसद क्या है? लेकिन मै इतना जानता हूँ कि हम जाट लोग किसी जाति या वर्ग विशेष के विरोधी नहीं हैं, हम तो अपने सामजिक और आर्थिक तथा राजनैतिक हालतों पर ही तबाद्लाये -ख्याल करने के लिए ही यहाँ एकत्र हुए हैं| जब दूसरे लोग ब्राहमण सभा, खत्री सभा, कायस्थ सभा और बहाई,अराई या सैयद सभा, या व्यापार मंडल के नाम से एक जुट हो सकते हैं तो फिर जाटों के सामाजिक या राजनैतिक संगठन पर ही तोहमतें क्यों जड़ी जाती हैं? सबब साफ़ है कि जब अनुत्पादक वर्ग स्वयं तो शोषण करने के लिए संगठित रहना चाहता है, और जब उत्पादक वर्ग किसी बहाने से मिल बैठकर अपनी जीवन दशाओं पर विचार विनिमय करना चाहते हैं तो यह वर्ग बौखला उठते हैं| सबसे ज्यादा परेशानी आज इस रूप में आपको बैठे देखकर मजहबी कठमुल्लों को हो रही होगी, क्योंकि वही तो आप लोगों को हिन्दू, मुस्लिम, सिख तथा ईसाई के रूप में बांटकर शोषकों का काम आसान करते हैं| हम कोई धर्म मात्र के विरोधी नहीं हैं, लेकिन हमारा पूर्ण विश्वाश है कि मत-मजहब केवल मनुष्य के विचारों को ही बदल सकता है; वह आदमी की नस्ल या खून में कोई तब्दीली नहीं ला सकता| इस रक्त की रंगत को फीकी नहीं कर सकता| इसीलिए जाहिर है कि -

"हमनें यह माना कि मजहब जान है इंसान की,
कुछ इसके दम से कायम शान है इंसान की|
रंगे- कौमियत मगर इससे बदल सकता नहीं,
खूने आबाई रंगे तन से निकल सकता नहीं||"

हवाला: लेखक श्री सूरजभान दहिया, एम.एस. सी. (सांख्यिकी), एम .ए. (अर्थशात्र) स्नातकोत्तर डिप्लोमा (पत्रकारिता ) द्वारा लिखित पुस्तक - "दीनबंधु छोटूराम के व्यक्तित्तव की झलक" से रहबरे-आजम नामक पाठ के कुछ अंश|

उपलब्धकर्ता: कुंवर विजयंत सिंह बेनीवाल

Wednesday, 12 October 2016

"युद्ध से बुद्ध" की राह आरएसएस वालों से क्यों नहीं प्रवणा देते, पी.एम. साहब?

गए महीनों तक तो सिर्फ अंतराष्ट्रीय पट्टल जैसे कि लन्दन-चीन-जापान जैसी जगहों के दौरों में ही पीएम के भाषण में "भारत बुद्ध का देश है" का जिक्र आता था; अब तो हालात यह हो गए हैं कि कोझिकोड और मथुरा की देशी रैलियों में भी जनाब के मुखमंडल पर "बुद्ध" विराजमान हैं। जबकि इनकी पैरेंट आर्गेनाइजेशन आरएसएस बुद्ध को अपने आस-पास, बाहर-भीतर कहीं भी फटकने तक नहीं देती।

राम, लक्ष्मण, कृष्ण सब बुद्ध के आगे फीके पड़ चुके हैं, हर तरफ बुद्ध-ही-बुद्ध। माफ़ करना परन्तु, आपके जुमले आपकी नौटंकियाँ कहाँ जा कर रुकेंगी; पीएम महोदय? यह तो शुक्र है कि हॉलीवुड में आपके जितनी मारी गई गपेड़ों पर फ़िल्में नहीं बनती, वर्ना उधर से संवाद-डिलीवरी के काम की बाढ़ आ चुकी होती। ज़रा बॉलीवुड वालों को न्योता दीजिये, यह लोग तो पक्का आपके दफ्तर के आगे लाइन लगा देंगे।

अब काम की बात: आप साधु-सन्तों-आरएसएस की उस मेहनत पर पानी फेर रहे हैं पीएम साहब; जिसके जरिये उन्होंने पिछले दो दशकों से माइथोलॉजी के राम-कृष्ण को टीवी पर गवा-दिखाकर, इन मैथोलोजिकल विषयों पर लोगों में इनके वास्तविक इतिहास होने का इम्प्रैशन छोड़ने की कोशिश करी है। आप क्यों व्यर्थ में आरएसएस द्वारा अपने तरीके से भारतीय इतिहास पुनर्लेखन के कार्य में बाधा डाल रहे हैं? युद्ध का समय नहीं होता, तो यही सोच लेता कि बुद्ध की तरफ जाते दलितों व् अन्य ओबीसी को आकर्षित करने का एजेंडा है "बुद्ध का नाम लेना"।
दरअसल यही तो झगड़ा है। आप लोग, हवाओं में बुद्ध के नाम की खाना चाहते हो। पहले 20 साल राम के नाम की खाई, अब सेना और बुद्ध दोनों उठा लिए हैं। बात यहां तक भी हो तो समझ में आवे; बात तो इससे भी आगे गहरी जाती है। तमाम टीवी चैंनलों पर तो लोगों को रामायण-महाभारत परोसते हो, और हकीकत की जिंदगी में बुद्ध को औजते हो?

दुनिया समझ ले इस बात को कि यही हकीकत है जो पीएम दिखा रहे हैं, सिर्फ इशारा समझने की बात है। पीएम कहना चाहते हैं कि रामायण और महाभारत टेलीविज़न में देखने तक ही सही हैं, हकीकत से इनका कोई लेना-देना नहीं। क्योंकि लेना-देना होता तो पीएम की जुबां पर बुद्ध नहीं राम और कृष्ण होते, गीता होती।

अब चलते-चलते "युद्ध से बुद्ध" की हकीकत भी बता दूँ। "बुद्ध से युद्ध" तक लाने वाले भी यही लोग और अब "युद्ध से बुद्ध" की गाने वाले भी यही लोग। आज से पंद्रह-एक शताब्दी पहले पूरे उत्तरी भारत में बुद्ध-ही-बुद्ध था। परन्तु इन लोगों को वह बुद्ध कहाँ भाया था, ऐसी मार-काट मचवाई (जैसे आज जाट बनाम नॉन-जाट के नाम पर मचवाने को उतारू फिर रहे हैं) कि आज तलक भी हरयाणा में "मार दिया मठ", "हो गया मठ", "कर दिया मठ" की कहावतें चलती हैं। यह तो बुद्ध भक्ति में लीन बैठे जाटों द्वारा ध्यान और समाधी छोड़ लठ और हथियार उठा जब उन ध्यान भंग करने वालों के मुंह-तोड़े गए तब जा के टिके थे; यह लोग। और वही स्थिति आज आरएसएस की शह पर भोंपू बने लोगों ने हरयाणा में बना रखी है| जाट और सहयोगी जातियां जितना संयम खींच रही हैं, यह उतने ही भोंक रहे हैं। दाद है आप लोगों के संयम को वर्ना फरवरी में इन्होनें तो "बुद्ध से युद्ध" करने की पुरजोर कोशिश करी थी; शांति और भाईचारे की समाधी में बैठे हरयाणा पर युद्ध थोंपा था; परन्तु पन्द्रह-एक शताब्दी पहले वाले इतिहास की पुनरावृति हुई और जैसे ही जाट ने तीसरी आँख खोली, चार दिन में हौंसले पस्त गए।

खैर, समस्या यही तो है कि बॉर्डर पर दुश्मन चढ़ा आया तो इनको बुद्ध याद आया, वर्ना बॉर्डर के भीतर तो काँधे लाठियां धरवा के ऐसी परेडें निकालते हैं आरएसएस वाले, जैसे अभी-के-अभी बॉर्डर पर मोर्चा लेने निकल जायेंगे। कितना बेहतर होगा जो इनके हाथों में लाठियों की बजाये बुद्ध धरवा दें तो, हमारे पीएम साहब?

विशेष: पीएम साहब, मेरी पोस्ट को पाकिस्तान से युद्ध शुरू करने की जनता की इच्छा मत समझना, अपितु यह समझना कि नॉन-बीजेपी वोटर को "युद्ध से बुद्ध" बताने से पहले यही सब आरएसएस के कैडर को कैसे समझाऊं। क्योंकि कहीं दलितों पर अत्याचार, कहीं माइनॉरिटी पर अत्याचार, कहीं जातिवाद के जहर का बॉर्डर के भीतर का युद्ध तो यह लोग चलाये हुए हैं ना; जिसकी वजह से आपको "गुंडे" जैसे शब्दों वाले बयान देने पड़ जाते हैं। बाकी बॉर्डर की चिंता ना करें, उसको तो हमारी सेनाएं अच्छे से सम्भालना जानती हैं। आप बस यह "युद्ध से बुद्ध" की राह देश के भीतर ऊपर बताये वालों को सिखा दीजिये।

"म्हारे बल्धां की सूं" जिस दिन दिखाने भर को भी बुद्ध बन गया, उसी दिन से बीजेपी/आरएसएस वालों को मरोड़े लगने शुरू होंगे और मेरे अपनों को ही कहेंगे कि यह तो दलितों का धर्म है, इस जाट ने अपने-आप को समाज से गिरा के सही नहीं किया| जबकि हकीकत यह है कि जाट के डी.एन.ए. से कोई धर्म शत-प्रतिशत मैच करता है तो वह है ही बुद्ध धर्म|

तो भाई DONE, पीएम ने दो-चार रैलियों में और ऐसे ही बुद्ध का जिक्र किया और मैं बुद्ध बना| फिर मेरे नहीं अपने पीएम के जा के कान पकड़ना| क्योंकि फिर तुम ही "युद्ध से बुद्ध" की बजाये "बुद्ध से युद्ध" पर पलटी मारने में एक पल नहीं गंवाओगे|

और मेरा स्लोगन होगा, "या तो पीएम के मुख से राम-कृष्ण को भी किनारे व् इग्नोर करते हुए बुद्ध का गुणगान बांध करवाओ, विष्णु पुराण में बुद्ध को हिन्दू धर्म का गयारहवां अवतार लिखना बन्द करो, वर्ना मुझे शांति से "बुद्धम शरणम गच्छामि" होने दो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक